Thursday, February 19, 2015

अभ्यास किसी भी कार्य की कुशलता के लिए परमावश्यक है

                अभ्यास किसी भी कार्य की कुशलता के लिए परमावश्यक है। जीवन की सभी परीक्षाओं में सफल होने के लिए अभ्यास सबसे महत्वपूर्ण घटक है। किसी कार्य में विशेषज्ञता, कला में पारंगतता तब प्राप्त होती है जब कार्य व कलाएं ज्ञान के स्वरूप को छोड़कर व्यवहारिकता धारण करती हैं।

                 ज्ञान संबंधी विशेषताओं को कार्य में बदलकर कार्य का निरंतर अभ्यास करना यही ज्ञान की उपयोगिता है। कार्य-निष्पादन दशाओं में सुधार, अपेक्षित संशोधन कर कार्यरूप को विशेष बनाना भी अभ्यास से ही संभव है। क्रियाओं-प्रक्रियाओं में उत्पन्न होने वाली भौतिक और भाव आधारित समस्याओं को पहचान कर उन्हें सुलझाने की समझ केवल कार्याभ्यास से ही विकसित हो सकती है।

                हमारे जीवन का प्रत्येक उपक्रम सामान्य अभ्यास की सहायता से संपन्न होना चाहिए। यदि कोई किसी को कहे कि वह एक अच्छा व कुशल अध्यापक है, परंतु अध्यापक अध्यापन का निरंतर अभ्यास न करे, तो उसकी ज्ञान-विज्ञान की जानकारियां प्रकटीकरण व प्रयोग के अभाव में पहले तो आधी-अधूरी रह जाएंगी और एक दिन भुलावे की भेंट चढ़ जाएंगी। इसी तरह किसी को तरह-तरह के भोजन बनाने की विधियां भले ही ज्ञात हों, लेकिन वह प्रतिदिन भोजन बनाने का अभ्यास न करे, तो एक दिन वह भोजन बनाना ही भूल जाएगा। शिक्षण, संगीत, पाकशास्त्र और किसी भी अन्य विषय का पुस्तकीय ज्ञान इन विषयों का परिचय भर कराता है, जबकि विषयगत ज्ञान को फलीभूत कर किसी समाज कल्याण कार्य में बदलना ही मौलिकता है और यह तभी संभव है, जब विषय-ज्ञान बारंबार अभ्यास से व्यवहार में तब्दील हो। संपूर्ण मानव जीवन को सुगम, सोद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए विभिन्न कार्यो को सदैव सकारात्मक दृष्टि से टटोलने की जरूरत है। रोजगारों से संबंधित कार्र्यो को अभ्यास के जरिये अच्छी तरह करने से ज्ञान बढ़ता है और कार्य-निष्पादन के नए व सरल उपायों तक पहुंच बनती है। अभ्यास को अनुशासन बनाने वाले तो कार्यसंस्कृति का एक समग्र समुचित साहित्य तक रच डालते हैं। जिस प्रकार शारीरिक व्यायाम का दैनिक अभ्यास शरीर को स्वस्थ रखता है, योगाभ्यास मन-मस्तिष्क के साथ-साथ आत्मगौरव में वृद्धि करता है।

परमात्मा सर्वशक्तिमान है


                         सेवा का भाव मन में रखना उत्तम है, परमात्मा का सेवक बनकर सभी कार्यों को करते रहने से मनुष्य स्वयं को श्रेष्ठता की ओर ले जाता है। इस जगत को परमात्मा का साकार रूप समझकर इस प्रकार अपना जीवनयापन करना चाहिए कि वे प्रभु ही इस जगत के एकमात्र मालिक हैं और मैं उनका एक छोटा सा सेवक हूं।

                          ऐसा विचार मन में जाग्रत हो कि हर हाल में परमात्मा के आदेशों का पालन करता हुआ अपना जीवन जिया जाए। इस संसार में आकर मनुष्य को मालिक समझने की भूल कदापि नहीं करना चाहिए। इसलिए कि इस जगत की एक-एक वस्तु ईश्वर की बनाई हुई है। ईश्वर ही इस प्रकृति के रचनाकर्ता हैं और वह ही इस प्रकृति की रचना को क्षण भर में नष्ट कर सकते हैं और पलभर में एक नई रचना पुन: रच सकते हैं। इस सामथ्र्यवान ईश्वर के हाथ में सभी कुछ है। जो इस सत्य को न समझने की भूल करते हैं और स्वयं को सर्वशक्तिमान मानने लगते हैं, वे मनुष्य दंड के पात्र बनते हैं।

                         उनके अनुसार यह संसार उनकी जागीर है परमात्मा सर्वशक्तिमान है। शक्तिऔर सामथ्र्य हेाते हुए भी वह सभी पर दया करता है। वह दया का सागर है, प्रेम का भंडार है। उससे कोई प्रीति करे न करे, वह सबसे प्रीत करता है। भगवान तो अपने सेवक पर अति प्रीत रखते हैं।

                           भगवान के चरणों में मन लगाकर उनकी सेवा में तत्पर रहने का भाव अति उत्तम है। सारे संसार का राज्य मिल जाए, यहां तक कि यदि तीनों लोकों का राज्य भी मिल जाए तो भी भगवान का सेवक बनने के सामने तुच्छ है। दुनिया का कोई भी वैभव, धन-दौलत, ऐश्वर्य ईश्वर के समक्ष तुछ है यहां तक कि हमारा अपना भौतिक नश्वर जीवन भी। ईश्वर की आराधना ही जीवन का एक मात्र लक्ष्य है इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह भौतिक माया-मोह में पड़े बिना ईश्वर की सतत रूप से आराधना करे। निष्कपट भाव से किसी स्वार्थ के बगैर ईश्वर के प्रति सेवारत होना जीव को उच्चतम अवस्था में ले जाता है। इस संसार में किसी स्वार्थ व दिखावे के बगैर सभी में ईश्वर के अंश का दर्शन करना चाहिए। परमात्मा की सेवा में रहने का भाव रखकर समाज के असहाय, निर्धन और रोगी आदि की सहायता करते रहना चाहिए। यही उस परमात्मा की सच्ची सेवा कहलाएगी।

चरित्र मानव जीवन की स्थायी निधि है

                          सद्विचारों और सत्कर्मों की एकरूपता ही चरित्र है। चरित्र सद्भावना के लिए आवश्यक है । जो अपनी इच्छाओं को नियंत्रित रखते हैं और उन्हें सत्कर्मों का रूप देते हैं, उन्हीं को चरित्रवान कहा जा सकता है। संयत इच्छाशक्ति से प्रेरित सदाचार का नाम ही चरित्र है। चरित्र मानव जीवन की स्थायी निधि है। जीवन में सफलता का आधार मनुष्य का चरित्र ही है। सेवा, दया, परोपकार, उदारता, त्याग, शिष्टाचार और सद्व्यवहार आदि चरित्र के बाह्य अंग हैं, तो सद्भाव, उत्कृष्ट चिंतन, नियमित-व्यवस्थित जीवन, शांत-गंभीर मनोदशा चरित्र के परोक्ष अंग हैं। किसी व्यक्ति के विचार इच्छाएं, आकांक्षाएं और आचरण जैसा होता है, उन्हीं के अनुरूप चरित्र का निर्माण होता है।

                            उत्तम चरित्र जीवन को सही दिशा में प्रेरित करता है। चरित्र निर्माण में साहित्य का बहुत महत्व है। विचारों को दृढ़ता और शक्ति प्रदान करने वाला साहित्य आत्म निर्माण में बहुत योगदान करता है। इससे आंतरिक चेतना जाग्रत होती हैं। यही जीवन की सही दिशा का ज्ञान है। मनुष्य जब अपने से अधिक बुद्धिमान, गुणवान, विद्वान और चरित्रवान व्यक्ति के संपर्क में आता है, तो उसमें स्वयं ही इन गुणों का उदय होता है। वह सम्मान का पात्र बन जाता है। जब मनुष्य साधु-संतों और महापुरुषों की संगति में रहता है, तो यह प्रत्यक्ष सत्संग होता है, किंतु जब महापुरुषों की आत्मकथाएं और श्रेष्ठ पुस्तकों का अध्ययन करता है, तो उसे परोक्ष रूप से सत्संग का लाभ मिलता है, जो सद्भावना के लिए आवश्यक है। मनुष्य सत्संग के माध्यम से अपनी प्रकृति को उत्तम बनाने का प्रयत्न कर सकता है, जिससे सद्भावना कायम रखी जा सके।

                             ईश्वर मनुष्य का एक ऐसा अंतर्यामी मित्र है कि मन में ज्यों ही बुरे संस्कार और विचार उठते हैं उसी समय भय, शंका और लज्जा के भाव पैदा करके वह बुराई से बचने की प्रेरणा देता है। इसी प्रकार अच्छा काम करने का विचार आते ही उल्लास और हर्ष की तरंग मन में उठती है। किसी भी कार्य की सफलता और असफलता की भी चर्चा की जाए, तो भी स्नेह और सहानुभूति के बगैर सफलता भी असफलता में बदल जाएगी या फिर वह प्राप्त ही नहीं होगी। जो लोग क्रूर और असंवेदनशील हैं, उनके ये दोष ही मार्ग में कांटें बनकर बिखर जाएंगे।

विपदा में नकारात्मक विचार आते जो दुघर्टनाओं को जन्म देते

                  दुर्घटनाएं अक्सर मन की पीड़ा और संताप के रूप में हमारे शरीर में एकत्र होती रहती हैं। जब हम उस पीड़ा से अत्यंत व्यथित होते हैं, तो अपने साथ कुछ बुरा कर डालते हैं या मार्ग में बुरा हो जाता है। उसे ही दुर्घटना का नाम दे दिया जाता है।

                  परेशानी से हमारे मानसिक विचार नकारात्मक हो जाते हैं जो दुर्घटना को बढ़ावा देते हैं। दुर्घटनाएं कभी-कभी क्रोध की अभिव्यक्ति होती हैं। क्रोध में व्यक्ति इतना पागल हो जाता है कि वह अपने साथ होने वाले अहित की भी परवाह नहीं करता।

                     पाइथागोरस कहते हैं कि क्रोध मूर्खता से शुरू होता है और पश्चाताप पर खत्म होता है। फिर भी कई लोग क्रोध से दूर नहीं रहते और दुर्घटनाओं को अपने गले लगाते हैं। दुर्घटनाएं कुंठा का संकेत होती हैं, जो कई बार बोल न पाने की मजबूरी महसूस करने से भी घटित होती हैं। प्रसिद्ध लेखिका लुइस एल ने, 'यू कैन हील योर लाइफ नामक पुस्तक में लिखा है, 'विपदा में नकारात्मक विचारों से लोगों के साथ दुर्घटनाएं होती हैं। इसके विपरीत सकारात्मक भावों के साथ सहजता से जीवन जीने वाले लोगों को जीवन भर एक खरोंच तक नहीं आती। इसलिए अपने मन में दूसरों के प्रति ईष्र्या या द्वेष नहीं रखना चाहिए। अध्यात्म व्यक्ति को शांति प्रदान करता है। उसे अहिंसक बनाता है और हिंसक प्रवृत्तियों से दूर रखता है। जिस तरह जीवन में सुख, प्रसन्नता और धन का आना-जाना लगा रहता है, उसी तरह दुर्घटनाएं भी व्यक्ति के जीवन के साथ जुड़ी हुई हैं।


                    आकस्मिक दुर्घटना स्वाभाविक है, लेकिन वे दुर्घटनाएं जो जानबूझकर किसी व्यक्ति के साथ की जाती हैं, गलत हैं। सार्वजनिक स्थलों पर बम विस्फोट आदि ने मानव जाति को भयभीत कर दिया है। ये सभी आतंकवाद की आड़ में ऐसी दुर्घटनाएं हैं, जिन्हें नकारात्मक विचारों से ग्रस्त व्यक्तियों के द्वारा अंजाम दिया जाता है। दुर्घटनाएं परिवार समाज और देश को हिला देती हैं। इनसे परिवार व देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर फर्क पड़ता है। ऐसा नहीं है कि दुर्घटनाओं को अंजाम देने वाले इनसे अछूते रहते हैं, बल्कि कुत्सित इरादों के साथ व्यक्तियों व देश को नुकसान पहुंचाने से स्वयं की भी क्षति होती है। हृदय से नकारात्मक भावों को निकाल कर भी दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है। जब मन में सुंदर विचार होंगे तो व्यक्ति देश व विश्व को सुंदर बनाने में अपना सहयोग करेगा।

मानव में समाज के लिए उपयोगी बनने का भाव होना चाहिए

                 आचार्य चाणक्य कहते हैं- 'शांति के समान कोई तप नहीं, संतोष से बढ़कर कोई धर्म नहीं। सुख के लिए विश्व में सभी चाहते हैं, पर सुख उसी को मिलता है, जिसे संतोष करना आता है। एक जिज्ञासा उठती है कि संतोष है क्या? संतोष का अभिप्राय है-इच्छाओं का त्याग।

                 सभी इच्छाओं का त्याग करके अपनी स्थिति पर संतोष करना ही सुख को प्राप्त कर लेना है। जीवन के साथ इच्छाएं, कामनाएं व आकांक्षाएं रहती ही हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि सुखी जीवन के लिए हमारी इच्छा-शक्ति पर कहीं तो विराम होना चाहिए। इच्छा के वेग में विराम को ही संतोष की संज्ञा दे सकते हैं। संतोष मन की वह वृत्ति या अवस्था है, जिसमें मनुष्य पूर्ण तृप्ति या प्रसन्नता का अनुभव करता है, अर्थात इच्छा रह ही नहीं पाती। जीवन की गति के साथ संपत्ति और समृद्धि की दौड़ से वह सुख नहीं मिलता, जो संतोष रूपी वृक्ष की शीतल छांव में अनायास मिल जाता है। हमें चाहिए कि हम प्रयत्न और परिश्रम के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली प्रसन्नता पर संतोष करना सीखें।

                     निष्काम कर्म-योग, इच्छाओं का दमन, लोभ का त्याग और इंद्रियों पर अधिकार-यह सभी उपदेश संतोष की ओर ले जाने वाले हैं। भारतीय संस्कृति संतोष पर ही आधारित है। श्रम-साधना के अनंतर जिसके मस्तिष्क में संतोष आ समाया है, उसने राज्य और राजमुकुट का वैभव प्राप्त कर लिया। सच तो यह है कि संतोष प्राकृतिक संपदा है, ऐश्वर्य कृत्रिम रूप से् गरीबी है। संतोष का आदर्श यही है कि हम इच्छाओं को सीमित रखकर सत्य व ईमानदारी से श्रम करें और फल की चिंता न करते हुए उसे परमात्मा और परिस्थितियों पर छोड़ दें। प्रत्येक मानव में समाज के लिए उपयोगी बनने का भाव होना चाहिए। ऐसी उपयोगिता में हृदय को सरस बनाने की अपारशक्ति है। हमें इस तथ्य का भली भांति बोध होना चाहिए कि सुखी होने का भाव है-दूसरों को सुखी बनाना। आत्मा में सुख-सौंदर्य की विपुल वर्षा के लिए संतोष एक उपयुक्त मेघ है। संतोष मूल है और सुख उसका फल या संतोष मेघ है और सुख उससे बरसने वाला जल। संतोष सुख का सबसे बड़ा साधन है, जो मस्तिष्क के झुकाव पर निर्भर करता है। यदि मन से सुख मान लिया, तो विपुल व्याधियां भी कपूर की भांति उड़ जाती हैं।

सत्य सदैव एक रूप में स्थित रहता

             सत्य सदैव एक रूप में स्थित रहता है। वह किसी भी काल, किसी भी युग किसी भी परिस्थिति में परिवर्तित नहीं होता। वह प्रकाशमान तत्व सदैव एक समान बना रहता है।
 
              यानी जो अपरिवर्तनशील है, वही सत्य है और वह अपरिवर्तनशील तत्व नित्य, शुद्ध परमात्मा है जो समस्त देहधारियों में आत्मा के रूप में विद्यमान रहता है। उसी परमात्मा ने सारे जगत को धारण कर रखा है और सारा जगत उसी के भीतर व्याप्त है। सभी मानव शरीरों के अंदर रहते हुए भी कोई परमात्मा को जान नहीं पाता। वह इसलिए कि उसी की सत्ता से सारे शरीर प्रकाशमान होते हैं। उसी चेतन सत्ता के कारण मन-बुद्धि, इंद्रियां क्रियाशील होती हैं। सभी शरीरधारियों में मानव देह ही मात्र साधन धाम कहलाता है।

             ऐसा इसलिए, क्योंकि समस्त शरीरों में चाहे वह मनुष्य का हो या फिर किसी अन्य का, सभी में आहार, निद्रा, भय और मैथुन आदि क्रियाएं एक समान रूप से होती हैं, लेकिन मनुष्य को ईश्वर ने अतिरिक्त एक अन्य गुण भी प्रदान किया है, वह है विवेक। परमात्मा ने मनुष्य को विवेकशील प्राणी बनाया है। जो व्यक्ति अपने उसी विवेक का प्रयोग कर सार-असार का विभेदन करता हुआ विश्व रूप परमात्मा की शरण में जाता है, तो ईश्वर की कृपा रूपी प्रसाद को प्राप्त कर उस परम सत्य का साक्षात्कार कर लेता है। दूसरी ओर ईश्वर रचित माया (प्रकृति) चंचल, अनित्य व परिवर्तनशील है। इसमें नित्य एकरूपता नहीं रहती।

             पंच महाभूतों-आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तत्वों से निर्मित मनुष्य के शरीरों का संश्लेषण मां के गर्भ में होता है। इन्हीं पांचों तत्वों से निर्मित मनुष्य के शरीरों में सतत परिवर्तन होता रहता है। वह बालक से किशोर, जवान, फिर अधेड़ होते हुए वृद्ध हो जाता है। अंत में उसी शरीर का विलय पंच महाभूतों में हो जाता है। इसी प्रकार ऋतुओं में भी समयानुसार परिवर्तन होता रहता है। गर्मी बरसात में, बरसात जाड़े में और जाड़ा पुन: गर्मी में परिवर्तित हो जाता है। बीज वृक्ष बनता है। वृक्ष में अनेक शाखाएं फूट जाती हैं। इसमें फूल आता है। फूल से फल निकलते हैं। अंत में उसी वृक्ष से फिर बीज बनता है। यही प्रकृति की निश्चित नियति है।
 
             जो वस्तु पहले नहीं थी, बीच में दृष्टिगोचर प्रतीत होती है और अंत में फिर नहीं रहती, वही असत्य है और जो पहले भी थी अभी भी है और अंत में भी रहेगी, वही सत्य है।


आत्मा अंतत: परमात्मा रूपी सागर में विलीन हो जाती है

               भारतीय धर्म-दर्शन में भक्ति मार्ग को परमात्मा की प्राप्ति का सर्वाधिक सरल व सुगम स्वर्ण सोपान माना गया है।कारण यह कि हमारे हृदय में भक्ति का भाव तभी प्रस्फुटित होता है, जब हमारे अंतस में परमात्मा को प्राप्त करने की प्यास का अभ्युदय होता है। यही प्यास अंतत: भक्त की विरह-वेदना में बदल जाती है, जिसमें अनन्य प्रेम व तड़प का मिला-जुला भाव होता है। यह भाव पूर्ण समर्पण के बाद अनन्य आनंद का स्रोत भी बन जाया करता है। हम सबके भीतर अपरोक्ष रूप में परमात्मा को पाने की प्यास मौजूद है, किंतु हम उसे पहचान नहीं पाते और धन, पद, प्रतिष्ठा, यश आदि प्राप्त करने के लिए गलत दिशा दे देते हैं। तब हमारी स्थिति उस मछली की तरह हो जाती है, जो रेत पर पड़ी तड़पते हुए यह सोचे कि धन, पद, यश, प्रतिष्ठा आदि मिल जाने से उसे जीवन मिल जाएगा, जबकि अनेक लोगों का जीवन गवाह है कि हमें कोई भी धन, पद, यश तभी तक प्यारा लगता है, जब हम उससे दूर हों।

             हर कीमत अदा करने के बाद जब हम वहां पहुंचते हैं, तो पता चलता है कि हमारे हाथ ज्यों के त्यों खाली हैं। कारण यह कि मन द्वारा तैयार किया गया नई आकांक्षाओं का हवामहल खड़ा हो चुका होता है। इसी प्रकार गलत दिशा में दौड़ते हुए हम समाप्त हो जाते हैं।

            भक्त उस मछली की भांति है, जिसे पता चल चुका है कि धन, पद, यश और आसक्ति आदि में जीवन नहीं, बल्कि जल (परमात्मा) में ही परम जीवन के द्वार खुलते हैं। भक्त परमात्मा की ही चाह में जीता है, किंतु भक्त के भीतर द्वैत अर्थात मैं और तू (परमात्मा) का भेद मौजूद होता है। जबकि ज्ञान-परमज्ञान की स्थिति में परमात्मा को प्राप्त करने के लिए आसक्ति का भी विलय मैं और तू का भेद मिटाने के साथ ही हो जाया करता है। द्वैत का झीना आवरण हटते ही भक्त या ज्ञानी भगवान के सदृश हो जाया करता है।
ठीक उस प्रकार जैसे सागर में डूबा घड़ा टूट जाए और उसके भीतर का पानी अगाध सागर में मिल जाए। उसी स्थिति में पहुंचकर कबीर दास कहते हैं, 'बूंद समानी समुद्र में सो कत हेरी जाये।Ó स्पष्ट है, आत्मा अंतत: परमात्मा रूपी सागर में विलीन हो जाती है। इस स्थिति में द्वैत, अद्वैत में विलीन हो जाया करता है।

क्षमा करना आत्मा का स्वभाव है


              सम्यक दर्शन, ज्ञान, चरित्र का अलंकरण आत्मा को सुसज्जित कर दिव्यता की श्रेणी में ला देता है। तब कहीं जीवन में क्षमा का अवतरण होता है। क्षमा आत्मा का स्वभाव है। क्षमा का आध्यात्मिक सूत्र है-मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं और सब जीव मुझे क्षमा करें।

सब जीवों से मेरा मैत्री भाव है, किसी से शत्रु भाव नहीं। इस प्रकार क्षमा को मन में, अंत:करण में स्थापित कर लेना और स्वभाव में आसीन कर लेना विशेष महत्व रखता है। जब क्षमा अंतस से उद्धृत हो रही होती है तो मानव जाने-अनजाने में अपनी बांहें फैलाकर गले लग जाना चाहता है। हृदय से वात्सल्य फूट पड़ता है, पर वर्तमान में मानव आंतरिक भावों पर पर्दा डालकर बाहरी संसार में अभिनय-नाटक करने लगा है। इसलिए पुण्य का वास्तविक लाभ नहीं ले पाता।है।वर्तमान में सारी भागदौड़ भौतिक पदार्थो के संचयन के लिए चल रही है। इस कारण क्रोध-प्रतिशोध, आतंकवाद, अत्याचार, उत्पीडऩ आदि नकारात्मक गुण क्षमा की विपरीत स्थिति में पनप रहे हैं। शासक-प्रशासक, धनवान-गरीब या फिर किसी व्यक्ति के हृदय में वीरता का प्रतिरूप क्षमा का स्नोत एक बार प्रस्फुटित हो जाए तो वह कभी सूखता नहीं। यह तो अलौकिक अक्षय भंडार है, जो समाप्त होता ही नहीं। ऐसी क्षमा मात्र संतपुरुषों में ही संभव हो पाती है।

            वास्तव में क्षमा जीवन में सुख-शांति की स्थिति को प्रदान करने वाली व्यवस्था है, अनुभूति है। क्षमा के बिना ज्ञान की ऊर्जा संयमित और संचित न होकर बिखर जाती है।

             इसलिए आत्मिक और बौद्धिक ऊर्जा का संरक्षण करने के लिए क्षमा की विराट शांति को संचित रखना होता है। मानव जीवन में क्रोध, घृणा, ईष्र्या और अहंकार आदि नकारात्मक प्रवृत्तियों का परिणाम बड़ा ही भयानक होकर उभरता है। इसलिए इसे ऋण और अग्नि के समान वृद्धि होने से पूर्व समाप्त कर देना उचित होता है। अपेक्षाओं की पूर्ति न होने से खिन्नता पैदा होती है और वही क्रोध का आधार बनकर व्यवहार में क्षमा और विवेक को क्षीण कर देती है। क्षमा मानवीय सफलता की ही नहीं, बल्कि जीवन की सार्थकता की भी द्योतक है। आत्मिक समता और आध्यात्मिक क्षमा स्वाति-जल को मुक्ता बनाकर मुक्त-प्रदायनी बनती है, तो व्यावहारिक जीवन में क्षमा भी कमल की पंखुडी पर ओस बिंदु-सी मुक्ता का आभास देकर हर्षानंद से भर देती है।

दो तत्वों का मिलन योग कहलाता है--

          सामान्य भाव में योग का अर्थ है जुडऩा। यानी दो तत्वों का मिलन योग कहलाता है। अर्थात आत्मा का परमात्मा से जुडऩा । योग की पूर्णता इसी में है कि जीव भाव में पड़ा मनुष्य परमात्मा से जुड़कर अपने निज आत्मस्वरूप में स्थापित हो जाए।

          महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्र में स्पष्ट किया है कि चित्त को विभिन्न वृत्तियों में परिणत होने से रोकना योग है। मनुष्य के शरीर में सभी ओर बिखरी चित्तवृत्तियों को सब ओर से खींचकर एक ओर ले जाना यानी केंद्र की ओर जाना ही योग कहलाता है। हमें तो आत्मा पर छाए चित्त के विक्षेप को समाप्त कर उसे शुद्ध करना होता है। योग द्वारा हम अपने चित्त को शुद्ध करके आत्मा का साक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं।

          भक्ति का भाव भी यही है, भक्त अपने भगवान से अलग नहीं होना चाहता। वह सदैव अपने इष्ट की शरण में रहता है। शरणागत होने के कारण ईश्वर का संग उसे सदैव प्राप्त होता रहता है। ईश्वर से सहज मिलन हो जाए, यही योग सिखलाता है। अब परमात्मा के इस योग यानी मिलने में कौन बाधक है। ये बाधक तत्व हैं-हमारी चित्तवृत्तियां। तालाब के शांत जल में यदि कंकड़ का एक टुकड़ा गिर जाए तो उसमें अनेक तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं। उसमें छोटी-छोटी और बड़े आकार के वृत्तों वाली कई तरंगें उत्पन्न होने लगती हैं। उस अशांत जल में मनुष्य का चेहरा स्पष्ट नहीं दिखलाई पड़ेगा।यदि जल की तरंग समाप्त हो तो जल पुन: शांत हो जाता है। इस स्थिति में आकृति स्पष्ट दिखाई पडऩे लगेगी। ठीक इसी प्रकार हमारे चित्त की वृत्तियां हैं। इंद्रियों के विषयों के आघात से उसमें अनेक तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं और उत्पन्न तरंगों के कारण मानव अपने निज स्वरूप को नहीं देख पाता। यदि उसकी चित्तवृत्तियां समाप्त हों तो वह अपने निज आत्मस्वरूप को देखने में सक्षम हो जाए।

          महर्षि पंतजलि ने योग की व्यापक विवेचना की है। इसमें कई सोपान हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। अष्टांग योग की इस पद्धति के माध्यम से साधना करने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति सद्गुरु के सान्निध्य में इन सोपानों पर यम-नियम को साधते हुए ध्यान और समाधि की उच्चतम अवस्था पर पहुंच कर चिन्मय आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है। फिर अपने आत्मा में परब्रह्म परमात्मा के दर्शन प्राप्त कर तद्स्वरूप होता हुआ आनंद को प्राप्त कर सकता है।

सत्य के समान कोई धर्म नहीं है



                श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास जी कहते हैं कि सत्य के समान कोई धर्म नहीं है। सत्य सृष्टि का मूल है। सत्य ही सबसे बड़ा तप है, सत्य ही सबसे बड़ा धर्म है। सत्य ही पुण्यशाली कर्म और सबसे बड़ी सिद्धि है।

               सत्यनिष्ठ व्यक्ति दुष्कर्म, अवसाद, अपयश, अशांति, असंतोष और अपमान से बचा रहता है। जीवन में उन्नति और उत्कर्ष के लिए सत्य ही सबसे सच्चा मार्ग है। निर्विकार, निर्भय और निश्चिंत जीवन जीने के लिए इससे बढ़कर दूसरा कोई मार्ग नहीं है। संसार में अनेक धर्म प्रचलित हैं, पर उनके रीति-रिवाजों और दिशा-निर्देशों में काफी अंतर भी पाया जाता है, पर फिर भी उनका मूल उद्देश्य एक है। वह यह कि अपने अनुयायियों को संयमी, सदाचारी, उदार और सज्जन बनाना। इन सभी धर्म संस्थापकों का मूल उद्देश्य एक ही रहा है, सत्य के निकट पहुंचना।


               पद्मपुराण में कहा गया है कि सत्य से पवित्र हुई वाणी बोलें और मन से जो पवित्र जान पड़े, उसी का आचरण करें। मन, वचन और कर्म को एकरूप किए बगैर हम, कितना ही प्रयास क्यों न करें, पर हम सिद्धि की प्राप्ति नहीं कर सकते। सत्य और सरलता का अटूट संबंध है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि 'सत्य सरल होता है।


                  हमारी भलाई इसी में है कि हम इस जगत के सत्य को पहचानें, सत्य के पथ पर चलने का संकल्प लें। सत्य का वास्तविक अर्थ परब्रह्म है। वेदों के वक्तव्य हैं कि 'सृष्टि के मूल में यही ब्रह्म सत्य रूप में विद्यमान था, त्रिगुणात्मक संसार इसके बाद में रचा गया। जिसके चित्त ने सत्य को छोड़ दिया, उसे भला आनंद की प्राप्ति कैसे हो सकेगी। यदि हमें आनंद की तलाश है, सच्चे सुख की लालसा है, तो हमें सत्य के मार्ग पर चलना ही होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि सत्य ही जीवन का आधार है, सत्य ही विद्या और जीवन जीने की सच्ची कला है। वस्तुत: यह हमारे हाथों में जलते हुए दीपक की तरह है, जिसके सहारे हम असत्य के अंधेरे को पार कर सकते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि असत्य ही अज्ञान है और अभाव में ही सारे दुख हैं। असत्य के मिटते ही सारे दुख अपने आप मिट जाएंगे।


           इसीलिए 'सत्यमेव जयते, हमारा सदियों से आदर्श रहा है। मानवीय सभ्यता के इतिहास में न जाने कितने नियम बनाए और बिगाड़े गए, पर सृष्टि के आदि में, सत्य की जो प्रतिष्ठा थी, वह आज भी उसी रूप में विद्यमान है।

जैसे विचार होंगे वैसी ही आदतें बनेंगी --


          इस संसार में हम जो कुछ देखते हैं वह सब हमारे विचारों का ही मूर्त रूप है। यह समस्त सृष्टि विचारों का ही चमत्कार है। किसी भी कार्य की सफलता-असफलता, अच्छाई-बुराई और उच्चता-न्यूनता के लिए मनुष्य के अपने विचार ही उत्तरदायी होते हैं। जिस प्रकार के विचार होंगे, सृजन भी उसी प्रकार का होगा। विचार अपने आप में एक ऐसी शक्ति है जिसकी तुलना में संसार की समस्त शक्तियों का समन्वय भी हल्का पड़ता है। विचारों का दुरुपयोग स्वयं और संसार का विनाश भी कर सकता है।

          सूर्य की किरणों जब शीशे द्वारा एक ही केंद्र पर डाली जाती हैं तो अग्नि उत्पन्न हो जाती है। इसी प्रकार विचार एक केंद्र पर एकाग्र होने से बलवान बनते हैं। आशय यह है कि हमारे विचारों की ताकत हमारे मन की एकाग्रता पर निर्भर करती है। एकाग्रता के बगैर मन में बल नहीं आ सकता। परमार्थ के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि संसार के व्यावहारिक कार्र्यो में भी एकाग्रता की बड़ी आवश्यकता पड़ती है। जो मनुष्य जैसा विचार करता है, वैसा ही कार्य करता है। फिर वैसी ही उसकी आदत बन जाती है और अंत में वैसा ही उसका स्वभाव बन जाता है। ऐसा ही गीता में भी कहा गया है कि जो जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है। यदि आप उत्तम जीवन जीना चाहते हैं तो आपको वैसे ही विचार करने का अभ्यास करना चाहिए। विचारों के सदुपयोग से मनुष्य विश्व विजयी हो सकता है। हजारों आविष्कार उन्हीं अच्छे विचारों के परिणाम हैं। विचार करते समय सकारात्मक बातों, दृश्यों, वस्तुओं और पदार्थो के बारे में ही चिंतन करना चाहिए कि हमारे मन में आनंदपूर्ण विचारों का ही प्रवाह बहेगा और उदासीनता के विचार मेरे पास फटकने तक न पाएंगे।

          बेईमानी, धोखेबाजी और खुदगर्जी के विचार लौकिक और पारलौकिक दोनों ही दृष्टि से बहुत ही घातक हैं। इस प्रकार के विचारों वाले व्यक्ति को पग-पग पर घृणा, उपहास, बदनामी और अविश्वास का सामना करना पड़ता है। विचारों का सदुपयोग करने के लिए विचारों को योजनाबद्ध बनाना चाहिए। एकाग्रता का तात्पर्य है कि अस्त-व्यस्त ढंग से सोचने की बुरी आदत को क्रमबद्ध और सुसंस्कृत बनाया जाए।

फूल के समान जीवन जियेा


           हमें इस भौतिकवादी संसार में कमल के फूल की भांति जीवन जीना चाहिए। जिस प्रकार कमल का फूल माया रूपी कीचड़ में रहते हुए भी संसार को प्रसन्नचित करता है और स्वयं भी ऐसा सम्मान व स्थान पाता है कि देवताओं को अर्पित किया जाता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी चाहिए कि वे अपनी इन्द्रियों और व्यसनों पर अंकुश लगाते हुए, इस माया रूपी संसार की गंदगी को दूर करते हुए एक श्रेष्ठ व्यक्ति के उत्तरदायित्व और आचरण को अपनाना चाहिए।

          मोह ही सभी प्रकार के बंधनों का स्त्रोत है। जैसे नशे की लत में व्यक्ति को न कुछ दिखाई देता है और न ही कुछ सूझता है। उसी प्रकार मोह माया में लिप्त व्यक्ति को भी स्वार्थ के सिवाय और कुछ नहीं सूझता और धीरे-धीरे वह कुव्यसनों की ओर अग्रसर होता जाता है। वह स्वयं भी अपना शत्रु बन जाता है एवं औरों को भी बना लेता है। धन का संग्रह भी एक बुराई है।

नैतिक चरण की शुद्धता ही धर्म है


            जीवन का जहाज, आज तरंगों और तूफानों से भरे संसार के सागर में भटकता जा रहा है। क्योंकि इसका नैतिक-बोध, इसका दिशासूचक यंत्र खराब हो चुका है। जीवन-ऊर्जा जीवन को गतिशील बनाने के लिए आवश्यक है, परंतु उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है उसका सही दिशा में चलना है । सादगी का सौंदर्य, संघर्ष का हर्ष, समता का स्वाद और आस्था का आनंद-ये सब हमारे आचरण से पतझड़ के पत्तों की भांति गिरगए हैं। हृदय से मानवीय-प्रेम या करुणा का संवेदनशील स्वर, मस्तिष्क से नैतिक चिंतन की अवधारणा और नाभि से उद्भुत संयम और सम्यक आचरण का संकल्प कहीं खो गया है। आज अहिंसा के आलोक की तलाश है। महावीर, बुद्ध और महात्मा गांधी की अहिंसा किसी कठघरे में कैद है। हिंसा उन्मुक्त अट्टहास कर रही है।

              सत्ता और संपत्ति के गलियारे में नैतिक आचरण ताक पर रख दिए गए हैं। व्यक्ति की अस्मिता एक अंधे मोड़ से गुजर रही है। भौतिक भोगवाद जनसंख्या बढ़ा रहा है, जो आणविक विस्फोट से कम खतरनाक नहीं है। आधुनिक पीढ़ी की त्रासदी यह है कि 'सबसे बड़ा रुपया जैसे जीवन का लक्ष्य बन गए हैं। हमें आचरण शुद्धि द्वारा नैतिकता का विकास करना होगा। नि:संदेह अध्यात्म एक गूढ रहस्य है जिसका कोई ओर-छोर नहीं। अध्यात्म के अंतहीन व्यूहचक्र में उलझने से व्यावहारिक नैतिकता श्रेयस्कर है। भगवान महावीर का प्रारंभिक दर्शन भी सर्वोपयोगी नैतिक आचार संहिता में ही निहित था। अध्यात्म आदि प्रसंग बाद में जुड़ते गए।

           नैतिक आचरण का पालन ही सच्चे धर्म का प्रतीक है। नैतिकता को प्रतिरोधक शक्ति का स्वरूप देकर ही अनैतिक आचरण के छिद्र बन्द किए जा सकते हैं। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र में विचारशुद्धि चलाकर ही बुराइयों और पाप कर्मो को निरुत्साहित किया जा सकता है। आचार-विचार की शुद्धता का दूसरा नाम ही धर्म है। मानवता यदि पुष्प है, तो नैतिकता उसकी सुगंध है। आचरण यदि सोना है, तो नैतिकता उस पर सुहागा है। मानवता की महिमा आचरण से है और आचरण की महिमा नैतिकता है। यह धारणां प्राचीन काल की रही है मगर आज भी उतनी ही उपयोगी है, बल्कि आज की दुनिया को नैतिक आचरण की ठोस जमीन और भी अधिक आवश्यक है।

निंदा से आत्म-परीक्षण की प्रेरणा मिलती है-


           इस युग में अपनी निंदा सुनना किसे प्रिय है? निंदा करने वाले को शत्रु और प्रशंसा करने वाले को मित्र मान लिया जाता है। जो प्रशंसा योग्य है, उसे औरों से प्रशंसा की आशा होती है ताकि वह स्वयं पर गर्व कर सके। जो इस योग्य नहीं है वह अपनी प्रशंसा के लिए अनेक उपाय करता है और प्रशंसा को प्रायोजित करता है ताकि वह किसी से पीछे न रह सके।

            ज्ञानी हो या अज्ञानी, किसी को भी निंदा और आलोचना सहन नहीं होती। निंदा करने वाले को हतोत्साहित करने, दबाने और उसे दंडित करने के प्रयास होते हैं। निंदा का उत्तर देने के बजाय उसका उपहास उड़ाकर अथवा नकार कर स्वयं की उच्च सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। कबीरदास ने कहा था कि निंदा उन्हें प्रिय है और अपने निंदकों को वे अपने निकट रखना चाहते हैं। आज सकारात्मक दृष्टिकोण की बात की जाती है, किंतु सकारात्मक होना मात्र उन विचारों को साथ रखना नहीं है, जो निजी महत्वाकांक्षाओं को ऊर्जावान बनाए। ऐसे तो मनुष्य एक दिशा में चलता चला जाएगा और उसे आभास ही नहीं हो सकेगा कि उसकी दिशा और दशा क्या है। सकारात्मकता कबीरदास के विचार के बिना पूर्ण नहीं हो सकती। कबीरदास के अनुसार निंदा से आत्म-परीक्षण की प्रेरणा मिलती है। निंदा तभी होती है, जब कोई गलती होती है।

              अगर देखें तो निंदक का उद्देश्य सुधार करना नहीं वरन अपयश करना ज्यादा होता है, उसका कार्य किसी की बुराई करके अपने मन की ईष्र्या, कुंठा और प्रतिशोध की भावना को शांत करना है। निंदा के संदर्भ में सकारात्मक सोच अपने लिए अच्छाई तलाशना है। कबीरदास ने तो निंदक का आभार व्यक्त किया कि उसने निंदा करके उनके अवगुणों को धोने का कार्य किया है। निंदा अवगुणों और त्रुटियों की ओर इंगित करके उन्हें दूर करने के लिए प्रेरणा देती है। अनसुना करने के स्थान पर अपनी निंदा को पूरे ध्यान से सुनकर उस पर विचार करना चाहिए। उस निंदा में यदि कोई सार हो, तो उसे ग्रहण करके अपने में सुधार लाना उचित है। यदि निंदा सारहीन हो तो उससे चिंतित और व्यथित होने की आवश्यकता नहीं है। निंदा सारहीन भी हो, तो भी वह एक अवसर तो देती ही है अपने को देखने का और स्व मूल्यांकन करने का।

Tuesday, February 17, 2015

बाहरी दिखावा अहंकार को बढ़ाता है


         गुरु जी की दिनचर्या अत्यंत कठोर एवं संयमित थी इसलिए उनके सबसे अच्छे शिष्य ने उनका अनुसरण करना शुरू कर दिया। वह बिस्तर के बजाय जमीन पर सोने लगा, अल्प शाकाहार करने लगा और सफेद वस्त्र पहनने लगा। गुरु को शिष्य के व्यवहार में भी परिवर्तन दिखाई दिया। उन्होंने शिष्य से परिवर्तन का कारण पूछा तो वह बोला, 'मैं कठोर दिनचर्या का अभ्यास कर रहा हूं। मेरे श्वेत वस्त्र मेरे शुद्ध ज्ञान की खोज को दर्शाते हैं, शाकाहारी भोजन से मेरे शरीर में सात्विकता बढ़ती है और सुख-सुविधा से दूर रहने पर मैं आध्यात्मिक पथ पर बढ़ता हूं।



         गुरु जी शिष्य की बात सुनकर मुस्कुराए और उसे खेतों की ओर ले गए। खेत में एक घोड़ा घास चर रहा था। गुरु जी ने कहा, 'तुम खेत में घास चर रहे इस घोड़े को देख रहे हो। यह श्वेत रंग का है, यह केवल घास-फूस खाता है और अस्तबल में जमीन पर सोता है, क्या तुम्हें इस घोड़े में जरा-सा भी ज्ञान और सात्विकता दिखती है? तुम्हारी बात मानें, तो यह घोड़ा आगे चलकर बड़ा गुरु बन सकता है।



         अर्थात बाहरी दिखावा अहंकार को बढ़ाता है। इसलिए दिखावे के बजाय हमें अपने लक्ष्य पर एकाग्र होना चाहिए।

जिसके भीतर सुबह हो जाती है, उसकी कभी रात नहीं होती

          जिसके भीतर सुबह हो जाती है, उसकी कभी रात नहीं होती। यदि हम अपने अंदर के सूरज का उदय करेंगे तो अंधकार का अस्तित्व स्वत: ही समाप्त हो जाएगा।



          पचास यानी 5 (पांच) और 0 (शून्य)...। शून्य हटते ही पचास पांच हो जाता है। पचास वर्ष का व्यक्ति अगर अपने जीवन से मात्र पांच चीजों को शून्य (समाप्त) कर दे तो वह पांच साल के बच्चे जैसा मासूम और निर्दोष हो सकता है। क्या हैं वे पांच चीजें?



क-         पहली चीज है-   अहंकार- यह कभी भी नहीं होना चाहिए, मगर पचास साल के बाद तो बिल्कुल शून्य हो जाना चाहिए। ऐसा करना आसान नहीं है। इसके लिए आपको किसी का होना पड़ेगा। किसी का होने पर ही अपनापन छूटता है। हो जाओ राम के, कृष्ण के, सद्गुरु के। अहंकार छूटने लगेगा। शंकराचार्य ने भी कहा है कि व्यक्ति का अहंकार शून्य होना चाहिए। मैं अक्सर सोचता हूं कि आखिर व्यक्ति में अहंकार करने लायक है क्या? एक अहंकार के कारण कितने दोष व्यक्ति को ग्रस रहे हैं? हम क्यों घाटे का सौदा करते हैं?



ख-        दूसरी बात है-   अंधकार से शून्य हो जाओ। तमसो मा ज्योतिर्गमय...। अंधेरे से उजाले की तरफ बढ़ो। अंधकार का मतलब है अज्ञानता, राग-द्वेष, परनिंदा, क्रोध, स्वार्थ, मोह आदि...। ज्ञान का, भक्ति का और सेवा का प्रकाश हमारे इंतजार में रहता है और हम अंधेरे की चादरों को ओढ़े घूमते रहते हैं। एक बात याद रखना, जिसके भीतर सुबह हो जाती है, उसकी कभी रात नहीं होती। अंदर के सूरज का उदय करो तो अंधकार खुद-ब-खुद शून्य अर्थात विलीन हो जाएगा।



ग-         तीसरा है-    अधिकार को शून्य कर दो। एक उम्र के बाद मन से अधिकार की भावना खत्म हो जानी चाहिए। घर-परिवार, समाज में हमारे हिसाब से लोग चलें, इस भावना को शून्य कर देना चाहिए। पचास वर्ष की आयु के बाद भी अगर बड़प्पन का अहसास नहीं छोड़ा जाएगा तो हमारा आने वाला कल उसे छुड़वा देगा। कोई घटनाक्रम छुड़वा देगा, कोई बीमारी छुड़वा देगी। एक सीमा से ज्यादा बोझ किसी पर नहीं लादा जा सकता। जरा सोचिए तो सही, हमने अपने ही परिवार के सदस्यों पर अपने अधिकार का कितना अधिक बोझ लाद रखा है। जो अधिकार जताना था, जता लिया। पचास के बाद उसे समेट लेना चाहिए। याद रखना, अधिकार कभी मांगने से नहीं मिलता। मिलेगा भी तो नकली होगा। अधिकार हमेशा बिना मांगे, बिना जताए ही मिलता है। जब अधिकार का आग्रह छोड़ दोगे तो परिवार हो या समाज, लोग मुट्ठी भर-भरकर अधिकार देंगे। इसकी शुरुआत अपने परिवार से, अपने आसपास से करके तो देखो।



घ-         चौथा है-     अलंकार शून्य हो जाएं। हमारे नाम के आगे कोई उपाधि लगे, कोई विशेषण लगे, इस भावना से मुक्त हो जाओ। नाम के साथ उपाधि लगते ही मोहग्रस्त हो जाना, कोई दोष आ जाना स्वाभाविक है। सीता की खोज कर जब हनुमान लौटे तो राम ने उनकी प्रशंसा की। हनुमान ने नजरें नीचे करते हुए कहा कि प्रभु, लंका के राक्षसों से कोई डर नहीं था, मगर आप मेरी प्रशंसा कर रहे हैं तो डर लग रहा है कि कहीं मेरे मन में अहंकार न आ जाए। इस बात का ध्यान रखना कि समाज अगर हमारे नाम के आगे कोई विशेषण लगाता है तो वह हमारी योग्यता का प्रमाण नहीं है। वह तो समाज की हमसे अपेक्षा है कि वह हमें इस रूप में देखना चाहता है। यदि लोग हमें परम पूज्य कहने लगें तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम सचमुच परम पूज्य हैं। इसका मतलब यह है कि लोग चाहते हैं कि हम परम पूज्य बनें।



च-         पांचवां है-      अंगीकार शून्य हो जाएं। पचास की उम्र के बाद किसी वस्तु को अंगीकार करने की भावना मिटा देनी चाहिए।



      कोई भी परिस्थिति ऐसी आती है   जिसमें किसी वस्तु को अंगीकार करना पड़े तो कम से कम उतना लौटा भी देना चाहिए। वह भी इस तरह कि किसी को पता भी न चले।

सकारात्मकता से जीवन की महक बढती है


         हमारी नकारात्मकता हमें सभी संबंधों से दूर कर देती है और हम अकेले पड़ जाते हैं, जबकि सकारात्मकता हमें जिन रिश्तों से जोड़ती है, वे हमारे जीवन को महका देते हैं।
 
        मॉनस्टर इंक नाम की हॉलीवुड फिल्म की कहानी है कि एक ऐसा संसार, जहां राक्षस रहते हैं। हमारे संसार से बहुत उन्नत। उनके लोग धरती के बच्चों के सपनों में आते हैं। उन्हें डराकर चीखने पर मजबूर करते हैं। उनकी चीख से जो ऊर्जा निकती है, उसे इकट्ठा करके अपने लोक में ले जाकर उससे बिजली बनाते हैं। राक्षसों के उस संसार में बिजली का श्चोत धरती के बच्चों की चीखें है।

         एक बार एक छोटे राक्षस को धरती के बच्चों के सपनों में घुस कर उन्हें डराने की जिम्मेदारी मिलती है, लेकिन वह बच्चों को डराना नहीं चाहता। वह धरती के बच्चों के पास आता तो है, लेकिन इस काम को अंजाम नहीं देता। इसके लिए उसे राक्षस लोक में सजा मिलती है। मजबूरी में वह अपने काम को फिर अंजाम देने आता है।

         एक बच्चे के सपने में घुस कर डराने की कोशिश में वह बच्चे को हंसा देता है। बच्चा नींद में हंसता है और उसकी हंसी से जो ऊर्जा निकलती है, उसे अपने लोक तक ले जाता है। हंसी की ऊर्जा देखकर उसके अधिकारी नाराज होते हैं। तमाम तकलीफों के बाद आखिर वह सभी को समझा पाने में कामयाब हो जाता है कि उसे ऊर्जा लाने से मतलब है। अगर वह हंसा कर लाए तो किसी को क्या तकलीफ? वह धरती पर फिर आता है। बच्चों के सपनों में आकर उनसे एक प्यारा सा रिश्ता कायम करता है। बच्चे उसे देख कर खुश होते हैं, और नींद में ही जोर-जोर से हंसने लगते हैं।

         राक्षस लोक में जब उस ऊर्जा का परीक्षण होता है, तो सचमुच हंसी से निकली ऊर्जा चीख की तुलना में निकली ऊर्जा से ज्यादा कारगर थी।
 
         मॉनस्टर इंक नाम की हॉलीवुड फिल्म की कहानी यह संदेश देते हुए खत्म होती है कि राक्षसों का संसार नकारात्मक बिजली की जगह सकारात्मक बिजली पाने के प्रयास में जुट जाता है। यह भले ही बच्चों के लिए बनाई गई हो, लेकिन बड़ों के लिए यह ज्यादा काम की है। यह बताती है कि जब हम कोई काम अच्छे मन से करते हैं तो उसका फल अच्छा मिलता है। जब हम कोई काम बुरे मन से करते हैं, तो उसका फल बुरा मिलता है। सकारात्मक होकर जब हम रिश्तों के तार दूसरों से जोड़ते हैं, तो उसका सकारात्मक असर होता है, जो हमारे जीवन को महका देता है।

          जो व्यक्ति अपने अहं और अपनी श्रेष्ठता का गुलाम होता है, वह एक दिन इस संसार में अकेला रह जाता है। दुनिया के किसी तानाशाह की कहानी पढ़ लीजिए, उसकी जवानी चाहे जितनी हसीन रही हो, बुढ़ापा बहुत तन्हा रहा। अकेलेपन का दंश बेहद दुखद होता है। अपने टूटते रिश्तों को अगर आपने आज नहीं जोड़ा तो देर हो जाएगी। जोड़ लीजिए उन सबसे अपने रिश्तों के तार, जिनसे आपने अपनी नकारात्मक ऊर्जा के कारण टूटने दिया है। ढूंढ़ने चलेंगे तो हर चीज में बुराई है। मत ढूढि़ए बुराई।सकारात्मक ऊर्जा से बनी बिजली से अपने घर को रोशन तो करके देखिए। फिल्म में राक्षसों ने तो पहचान लिया था सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा का फर्क। हम कब पहचानेंगे?

समर्पण से सबकुछ प्राप्त हो जाता है


         जो सब समर्पण करता है वह सब पा लेता है। जो कतार में सबसे पीछे खड़ा हो जाता है अपने अहं और दोषों को त्याग कर वह कतार में सबसे आगे जगह पा लेता है क्योंकि वह अहं के भारी बोझ से दबा नहीं होता। ऐसा व्यक्ति अपनी बारी आने का इंतजार सब्र के साथ करता है।

         यह भी कहा जा सकता है कि जब अहं से खाली हो जाता है दिमाग तो उसमें सब्र खुदबखुद बैठता चला जाता है। और जब सब्र आता है तब गुस्सा आ ही नहीं सकता। ये एक चेन है...एक सीरीज है...जो अपनी पहली कड़ी से यात्रा शुरू करती है और एक एक कर उसमें सभ्यता की ऊंचाई पर पहुंचाने वाली कई कड़ियां जुड़ती जाती हैं और अंतिम कड़ी तक पहुंचने की यात्रा के इस क्रम में जो कमजोरियों को जकड़े रहता है, वह ही असभ्य समाज की नींव रखता है वह कारण बन जाता है अनेक आक्रमणों का, अनैतिकताओं का व अनाचारों का। अहं से रहित समर्पण, प्रेम के वृक्ष की न सिर्फ नींव रखता है बल्कि उसको ईश्वर की ऊंचाई तक पहुंचाने की शक्ति भी रखता है ठीक जैसे राधा पहुंचीं श्रीकृष्ण तक ।

         यूं तो संस्थागत दृष्टि से समर्पण का पहला अधिकार रुक्मणि का था और इसी अधिकार से जन्मे कर्तव्य के कारण उनके समर्पण को नि:स्वार्थ समर्पण कहने से बचा गया जबकि राधा के समर्पण को भक्ति व प्रेम का आधार माना गया है क्योंकि वहां समर्पण के बाद श्रीकृष्ण से कुछ वापस पाने का भाव नहीं था, बस समर्पण से प्रेम को करते चले जाना था। इसीलिए रुक्मणि और राधा में ऐतिहासिक दृष्टि से भले ही अंतर देखा गया मगर प्रेम और समर्पण में अपनी भावनाओं को 'ईश्वर बनाने तक ले जाना' इसे तो सिर्फ और सिर्फ राधा ही सार्थक कर पाईं। इसीलिएश्रीकृष्ण के संग रुक्मिणि की अनुपस्थिति और राधा की अतिशय उपस्थिति समर्पण का सर्वोच्च उदाहरण बन गई ।

         कृष्ण के आगे राधा का नाम आगे रखा जाना इसी समर्पण का हिस्सा है। ओशो कहते भी हैं कि कृष्ण चूंकि पूर्णपुरुष माने गये हैं इसलिए उनके साथ आना किसी पूर्ण स्त्री के ही वश की बात हो सकती है। रुक्मिणि दावेदार थीं कृष्ण नाम के संग अपना नाम जोड़ने की। मगर वो दावेदार थीं...अर्थात् दावा करने का अर्थ ही ये रह गया कि कहीं कुछ बाकी रह गया है जिसे पाने के लिए उन्हें संस्थागत रिवाजों का सहारा लेना पड़ रहा है, ऐसे में वह मेंटीनेंस भी मांग सकती है जबकि राधा को किसी रिवाज में बांधा नहीं जा सकता। उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं है।

         निश्चित ही ईश्वर के अंशमात्र में भी रमने के लिए किसी अदालती दावे, किसी समाज या किसी संस्थागत बंधन में रहने की आवश्यकता ही नहीं होती, ईश्वर तो हवा की तरह घुलता जाता है मन में। मन में घुलने के लिए बिल्कुल पानी का सा रंग लेना पड़ता है तभी समर्पण शतप्रतिशत होता है, जैसे राधा का था कृष्ण के लिए। इसीलिए रुक्मिणी पीछे छूटती चली गई और राधा आगे आती गईं। इतना आगे कि कृष्ण नाम के आगे राधा खड़ी हो गईं जबकि वे संस्थागत संबंधों की कतार में सबसे पीछे खड़ी थीं। सबसे पीछे खड़े होने का अर्थ है कि सब कुछ छोड़ो, सबकुछ दे दो और हल्के हो जाओ। हल्के हो जाओ इतने कि अपने ईश में रमने के लिए किसी कोशिश की जरूरत ही ना पड़े।

एकाग्रता के अभ्यास से स्मरणशक्ति बढती है


          उस समय की बात है जब स्वामी विवेकानंद इतने विख्यात नहीं हुए थे। उन्हें अच्छी पुस्तकें पढ़ने का बहुत शौक था। एक बार वे देश में ही कहीं प्रवास पर थे। उनके गुरुभाई उन्हें एक बड़े पुस्तकालय से अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाकर देते थे।



           स्वामी जी की पढ़ने की गति बहुत तेज थी। मोटी-मोटी कई किताबें एक ही दिन में पढ़कर अगले दिन वापस कर देते। उस पुस्तकालय का अधीक्षक बड़ा हैरान हो गया। उसने स्वामी जी के गुरु भाई से कहा, 'आप इतनी सारी किताबें क्यों ले जाते हैं, जब आपको इन्हें पढ़ना ही नहीं है? रोज इतना वजन उठाने की क्या जरूरत है? स्वामी जी के गुरु भाई ने कहा, 'मैं अपने गुरुभाई विवेकानंद के लिए ये पुस्तकें ले जाता हूं। वे इन सब पुस्तकों को पूरी गंभीरता से पढ़ते हैं।



          अधीक्षक को विश्वास ही नहीं हुआ। उसने कहा, 'अगर ऐसा है तो मैं उनसे मिलना चाहूंगा। अगले दिन स्वामी जी उससे मिले और कहा, 'महाशय, आप हैरान न हों। मैंने न केवल उन किताबों को पढ़ा है, बल्कि उन्हें याद भी कर लिया हैं। स्वामी विवेकानंद ने जब उन किताबों के कई महत्वपूर्ण अंश सुना दिए, तो पुस्तकालय अधीक्षक चकित रह गया। उसने उनकी याददाश्त का रहस्य पूछा। स्वामी जी बोले, 'मन को एकाग्र करके पढ़ा जाए तो वह दिमाग में अंकित हो जाता है। एकाग्रता का अभ्यास करके आप जल्दी पढ़ना भी सीख सकते हैं।


अर्थात पूर्ण एकाग्रता से कार्य करने पर हम उसे शीघ्रता और गुणवत्ता से करते हैं और अभ्यास से सब कुछ संभव है।

जैसा मन होगा वैसा मनुष्य बनेगा

         मनुष्य मनोमय है अर्थात मन की जैसी प्रवृत्ति होती है, वैसा ही मनुष्य बन जाता है। आत्मा प्रज्ञा के रूप में मन में प्रतिबिंबित होती है।-----उपनिषद

 

           मन की सक्रियता का आधार आत्मा है और इसको जानने पर बल दिया जाना चाहिए। ज्ञान का आधार तप, संयम और नि:स्वार्थ कर्म है।--उपनिषद



           मन दसों इंद्रियों का अधिपति है और जब मन इनसे संयुक्त होता है तभी उन विषयों का ज्ञान होता है। मन अनंत है। मन ही ज्योति है, मन ही सम्राट है और मन ही परम ब्रहम है।---वृहदारण्यक उपनिषद



          मन आत्मा द्वारा निर्देशित अंतरइंद्रिय है, जो दूसरी इंद्रियों को निर्देशित करता है। जिसने अपना चरित्र शुद्ध नहीं किया, जिसकी इंद्रियां शांत नहींरह सकतीं, जिसका चित्त स्थिर नहीं, मन सदैव अशांत रहता है, वह केवल बाहृय जगत के आधार पर आत्मा को प्राप्त नहींकर सकते।

देश का ही क्यों ?स्वयं के जीवन का संविधान होना चाहिए


        गणतंत्र दिवस हमें एकजुट होने की प्रेरणा देता है। क्यों न हम दूसरों से जुड़कर शक्तिशाली बन जाएं और अपने देश के लिए काम कर सकें।

         शक्ति का व्यावहारिक रहस्य जुड़ाव में ही निहित होता है, चाहे वह एक व्यक्ति की शक्ति हो अथवा व्यक्तियों के समूह की। गण एक वैदिक शब्द है, जिसका अर्थ ही है समूह। जब तक हम व्यक्तिगत स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर पर और वैश्विक स्तर पर सामूहिकता की भावना प्रदर्शित नहीं करेंगे, तब तक हमारा विकास नहीं होगा।

          हमारे गणतंत्र में विकास की ताकत सामूहिकता या एक-दूसरे से जुड़ने में ही है। हमारे लोक जीवन की एक कहावत है,'एक और एक ग्यारह होते हैं। गणित की दृष्टि से यह तब तक सही नहीं होगा, जब तक हम एक के सामने एक का आंकड़ा लिखकर उसे न पढ़ें। अन्यथा एक और एक का जोड़ दो ही होता है, ग्यारह नहीं। लेकिन जीवन में यह ग्यारह होता है। इस कहावत के मर्म को समझने की जरूरत है। जब दो लोग एक-दूसरे से जुड़ते हैं, तो उन दोनों की अपनी-अपनी दुनिया भी जुड़ती है। लड़के और लड़की के विवाह का होना इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। गणित में दो, लेकिन व्यवहार में दो सौ। इन दोनों की भी तो अपनी-अपनी दुनिया होती है। इस प्रकार उस जुड़ाव के योगफल का आंकड़ा हम निकाल नहीं सकते। यही इसका सबसे बड़ा रहस्य है और सबसे बड़ी शक्ति भी।नहीं फोड़ता। यानी अकेला आदमी इतना शक्तिशाली नहीं होता। भारतीय योग की प्रक्रिया भी मूलत: हमारे अंदर की विभिन्न क्षमताओं को एक-दूसरे के साथ जोड़कर उनका भरपूर उपयोग करने की प्रक्रिया ही है। सूर्य की किरणों को यदि एक लेंस के निश्चित बिंदु पर केंद्रित कर दिया जाए, तो उसकी ऊर्जा अपने नीचे रखे कागज के टुकड़े को जला देगी, अन्यथा उस कागज पर सूर्य की किरणों का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। दरअसल, गणतंत्र अपने राजनीतिक स्वरूप में तो एक राजव्यवस्था है, लेकिन कार्य पद्धति के रूप में यह सभी लोगों तथा राज्यों के जुड़ने का ही विधान है। इस दिन सभी रजवाड़ों ने संविधान को स्वीकार करके एक साथ इस देश के लिए काम करने का वचन दिया था। सबने यह माना था कि अलग-अलग रहकर काम चल तो सकता है, लेकिन कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। न ही हम शक्तिशाली हो सकते हैं। ऐसे में जो शक्तिशाली होगा, वह हमारा दमन करेगा। क्यों न दूसरों से जुड़कर खुद ही शक्तिशाली बन जाएं, ताकि स्वाभिमान के साथ देश की सेवा कर सकें। यह व्यवस्था हमारे पूर्वजों की इस महान और उदार भावना के बिल्कुल अनुकूल थी कि 'सारी पृथ्वी हमारा कुटुंब है।

         इसी प्रकार यदि हर व्यक्ति अपने लिए इस युग की आवश्यकताओं के अनुरूप अपने जीवन का संविधान बना ले, तो वह एक आदर्श व्यक्ति बन सकता है :ईश्वर को न्यायकारी मानकर हम उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।

         शरीर को ईश्वर का घर मानकर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखेंगे।मर्यादाओं का पालन करेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का अविच्छिन्न अंग मानेंगे।चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण बनाएंगे।अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता का वरण करेंगे।लोगों को उनकी सफलता, योग्यता या धन-दौलत से नहीं, बल्कि उनके अच्छे विचारों और सत्कर्र्मों से आंकेगे।दूसरों के साथ वह व्यवहार नहींकरेंगे, जो हमें अपने लिए पसंद नहीं।प्रत्येक व्यक्ति के लिए समानता का भाव रखेंगे, किसी भी तरह का भेदभाव नहीं बरतेंगे। परंपराओं की अपेक्षा विवेक को अधिक महत्व देंगे।अपने राष्ट्र को उन्नति की ओर ले जाने में योगदान करेंगे।

कार्य उत्कृष्ट चाहते हो तो सधा हुआ ध्यान करेना सीखें


           ज्यादातर लोग समझते हैं कि ध्यान करने से व्यक्ति अंतर्मुखी हो जाता है और सांसारिकता से कट जाता है, लेकिन यह गलत धारणा है। ध्यान को साधकर व्यक्ति सांसारिक जीवन को सही ढंग से जी पाता है। यह व्यक्ति को अधिक चेतनावान बनाता है। ध्यान में हम भीतर जाकर अपने बाहर को और भी स्पष्ट रूप से देखने लगते हैं।

          एक जैन गुरु अपने शिष्यों को ध्यान का प्रशिक्षण दे रहे थे। एक शिष्य उनसे कहने लगा कि अब मैं ध्यान में निष्णात हो गया हूं, अब मुझे लोगों को प्रशिक्षित करने की अनुमति दीजिए। गुरु ने कहा- कल मैं तुम्हारी परीक्षा लूंगा। अगले दिन बारिश हो रही थी। शिष्य छाता लेकर पहुंचा। गुरु के कक्ष में प्रवेश करने से पहले उसने अपनी चप्पल, छाता और झोला बाहर छोड़ गुरु जी के सम्मुख आकर बैठ गया। गुरु जी ने पूछा- तुम क्या-क्या लेकर आए थे? शिष्य बोला- मैं छाता और झोला लेकर आया था, जिसे मैं कक्ष के बाहर छोड़कर आया हूं। गुरु जी बोले- तुमने जब अपनी चप्पल उतारी, तो छाते को बाएं रखा या झोले को? शिष्य अचकचा गया। बोला- मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता, लेकिन मुझे लगता है कि मैंने झोले को बाएं रखा। गुरु जी बोले- तुम अभी ध्यान का प्रशिक्षक नहीं बन सकते, क्योंकि तुम्हारा ध्यान अभी सधा नहीं है।

           हम कोई काम ध्यान से क्यों नहीं कर पाते? क्योंकि हमारी चेतना तनाव, दबाव और कुंठा में दबी रहती है। हम फूलों की सुंदरता को देखकर भी नहीं देख पाते। किसी की बात को सुनकर भी नहीं सुन पाते। हमारे ध्यान पर दबाव और कुंठाएं छाई रहती हैं। एेसा हमारे अहंकार यानी 'अपने होने का बोधÓ (अहंकार) के कारण होता है। हम किसी सभा में बोल नहींपाते, किसी के सामने गाना गाते हैं, तो सुर बिगड़ जाते हैं या कोई नया काम करने का साहस नहींकर पाते। आखिर हमें कौन रोकता है? दरअसल, यह अपने होने का बोध ही है, जो हीनता बनकर हमारे भीतर एक डर पैदा कर देता है। अहंकार के जाते ही हम सभी विकारों से बाहर आ जाते हैं और खुल कर पूरी सृष्टि को समग्रता से देखने लगते हैं। यह काम ध्यान से संभव होता है। ऐसे में हम जो भी काम करते हैं, वह उत्कृष्ट होता है। यही कारण है कि बौद्ध धर्म से निकले ध्यान पर आधारित जेन के साधक जापान में सेमुराई थे, जिनका वार अचूक माना जाता था। जूड़ो, कराटे आदि युद्ध कलाओं के पीछे भी ध्यान बड़ी भूमिका निभाता है।

Monday, February 16, 2015

समस्याओं से दूर न भागें मुकाबला करना सीखें


         जीवन एक ऐसी नदी है, जिसे कुशलता से पार करने वाला ही विजेता बनता है। इसके लिए उसे समस्याओं के मगरमच्छों का सामना तो करना ही होगा...

         एक रोमांच पसंद अमीर आदमी ने अपने फॉर्म हाउस में पार्टी रखी। काफी मेहमान आए। पार्टी लॉन में स्वीमिंग पूल था, जिसमें मगरमच्छ तैर रहे थे। तभी अमीर आदमी ने स्टेज पर खड़े होकर ऐलान किया कि जो भी इस स्वीमिंग पूल को तैरकर पार करेगा, उसे एक करोड़ रुपये इनाम मिलेगा। किसी की हिम्मत नहीं हुई।
लोग पैसे तो चाहते थे, पर सबको अपनी जान प्यारी थी। तभी एक व्यक्ति के स्वीमिंग पूल में कूदने की आवाज आई। लोगों ने देखा, एक युवक मगरमच्छों से बचता हुआ पूल के दूसरे छोर पर पहुंच गया। लोगों ने उसके साहस की बहुत प्रशंसा की। युवक बोला, यह सब तो ठीक है, परंतु पहले यह बताओ कि मुझे धक्का किसने दिया था?

हमारी जिंदगी पूल की तरह है --

          समस्यायें मगरमच्छ हैं और हम उन मेहमानों की तरह हैं, जो किनारे पर खड़े हुए पूल में उतरने का साहस नहीं कर पाते। हम हमेशा समस्याओं से बचने का प्रयास करते रहते हैं और यही कारण है कि हम जिंदगी को जीतने में कामयाब नहीं हो पाते। किसी भी क्षेत्र में, किसी भी संस्थान में, किसी भी कॉलेज में हजार लोगों में पांच-सात लोग ही ऐसे होते हैं, जो अलग नजर आते हैं। उनकी दुनिया के लोग उन्हें विजेता मानते हैं।

          विजेता सभी नहीं बन पाते, क्योंकि ज्यादातर लोगों में समस्याओं से मुठभेड़ करने का साहस नहीं होता। हजार लोगों में इक्का-दुक्का लोग ऐसे होते हैं, जो समस्याओं से बचने के बजाय उनसे जूझना अपना कर्तव्य समझते हैं। वही विजेता होते हैं।

         समस्याओं से ज्यादातर बचना चाहते हैं, लेकिन समस्याएं किसी को नहीं छोड़तीं। यदि हम स्वीमिंग पूल में उतरने से इंकार भी कर दें, तो ईश्वर खुद हमें स्वीमिंग पूल में धक्का दे देता है, तब हम हाथ-पैर मारते हैं।
 
         समस्या से जूझते हैं। यहां हमारा अपना कौशल काम आता है। कई लोग समस्याओं के आगे अपना हौसला गंवा देते हैं और समस्याएं उन्हें निगल लेती हैं। वहीं जो व्यक्ति अपने हौसले को बरकरार रखते हुए समस्याओं से पार पाने को अपना उद्देश्य बना लेता है, वह सारी समस्याओं को पीछे छोड़ दुनिया की नजरों में विजेता बन जाता है।
 
समस्याओं से घबराने की वजह क्या है?
 
          सिर्फ एक कि हम कर्तव्य मानकर अपना कर्म करने से बचना चाहते हैं। अपने शरीर को, अपने मन को एक ही सुख की अवस्था में रखना चाहते हैं। लेकिन क्या एक अवस्था में रहना हमारा स्वभाव है? नहीं। हमारे मन, शरीर, हमारी प्रकृति सबका स्वभाव बदलते रहना है। फिर जब हम सेफ जोन से चुनौतियों की ओर जाने से क्यों बचें? कहा गया है कि समय की सबसे अच्छी बात यह है कि वह हमेशा एक सा नहीं रहता, बदलता रहता है। अगर हमारा बुरा वक्त चल रहा है, तो वह इस बात का सूचक है अब अच्छा समय आने वाला है। जब समय की निरंतर बदलने, निरंतर कर्मरत रहने की प्रकृति है, तो फिर हम क्यों एक जैसी अवस्था (सुख की) में रहने का प्रयास करना चाहते हैं? हमें भी जीतने के लिए समस्याओं से जूझना होगा, दुखों को झेलना होगा, तभी हमारे भीतर आत्मविश्वास आएगा और हम विजेता बन सकेगे।

चुनैातियों का सामना कर जिन्दगी को खूबसूरत बनाएं


            दुनियां में कई उदाहरण चुनैौतितियों से लडने के पढने में आते हैं जिनमें एक उदाहरण सामने है कि-गंभीर बीमारी से अशक्त होने के बावजूद जीवन से हार न मानने वाली दीपा मलिक ने अपने जज्बे और मेहनत से साहसिक खेलों में अलग पहचान बना ली। आज वह दूसरों के लिए भी प्रेरणा बन गई हैं। मुश्किल अंधेरों से कैसे वह बाहर निकल सकीं, खुद उन्हीं से जानें--


1-         स्पाइनल ट्यूमर ने मुझे हमेशा के लिए व्हीलचेयर पर बिठा दिया। कंधे के नीचे का पूरा शरीर संवेदनशून्य है। कंधों में भी जोर नहीं। तीन ऑपरेशन और 183 टांके भी मुझे नॉर्मल नहीं रख सके। लेकिन मैंने जीवन से हार नहीं मानी, बल्कि हिम्मत और मेहनत से उबरने की कोशिश की। अपंग का तमगा मुझे जरा भी नहीं भाता था। इस शब्द को मिटाने की जद्दोजहद ने ही मुझे प्रेरणा दी। एक-डेढ़ साल तो उठना-बैठना सीखने में ही लग गया। पैर कमजोर हुए तो क्या हुआ, मैंने अपने हाथों में जान भर ली। खुद नहाना, बैलेंस करके कपड़े बदलना, ब्लेडर और बॉउल पर कंट्रोल करना सीखा।


            मेरा मानना है कि जो लोग हार मान जाते हैं, वे मन से अपंग होते हैं, विचारों से विकलांग होते हैं। मैंने वह रास्ता चुना जो कठिन जरूर था, लेकिन असंभव नहीं।
 
             जिंदगी बहुत खूबसूरत है और एक बार ही मिलती है। मैं जब उदास होती हूं तो दो बातें करती हूं। एक तो, उन चीजों को ढूंढ़ती हूं जो मुझे खुशी देती हैं। बाहर चली जाती हूं। स्पोट्र्स में डूब जाती हूं। रोज नई चीज सीखने, नई एक्टिविटी से मुझमें आत्मविश्वास आता है। दूसरे, बुरा होने पर रोना-धोना नहीं करती। चुनौतियों का सामना हिम्मत से करती हूं। समस्या के समाधान पर काम करती हूं। आपके साथ कई जिंंदगियां करीब से जुड़ी होती हैं। अगर मैं खुद को नहीं संभालती, तो मेरी बेटियों की परवरिश ठीक से नहीं होती, मेरे पति और माता-पिता के जीवन को ग्रहण लग जाता। मुझे दुखी देखकर वे भी उदास हो जाते। हमें कोई हक नहीं बनता कि हम दूसरों की जिंदगी में कांटे बो दें। मैंने बाइकिंग, मोटरस्पोट्र्स जैसे साहसिक खेलों में लिम्का रिकॉड्र्स बनाए। एथलेटिक्स में देश का नाम रोशन किया है। अर्जुन अवार्ड से नवाजी गई। जब मैं एक्सट्रीम एडवेंचर कर सकती हूं, तो कोई और क्यों नहीं कर सकता?
 
2-          पैट्रिक हेनरी चूज अमेरिका के जाने-माने संगीतकार हैं। उनका संघर्ष उन लोगों के लिए प्रेरणा बन सकता है, जो अपनी शारीरिक अक्षमता या संसाधनों की कमी को ही दोष देते रहते हैं और अपने जीवन को खुशहाल बनाने के लिए कोई प्रयत्न ही नहीं करते।


            पैट्रिक का जन्म 10 मार्च, 1988 को लुइसविले, केटुकी में हुआ था। जब उनका जन्म हुआ तो वे न तो देख पाने में सक्षम थे, न ही अपने हाथ और पैर ठीक से हिला-डुला सकते थे। डॉक्टरों ने बताया कि उनकी यह दुर्लभ बीमारी ठीक नहीं हो सकती। जब वे 9 साल के हुए, तो व्हील चेयर पर बैठे-बैठे ही पियानो पर अपनी अंगुलियां फिराने लगे। संगीत का गुण उनमें जन्मजात था। जल्द ही उन्होंने पियानों में महारत हासिल कर ली और फिर ट्रंपेट बजाना सीखने लगे।


            पैट्रिक हेनरी ने कभी अपनी अक्षमताओं से हार नहीं मानी। उन्हें अमेरिका में राष्ट्रीय स्तर पर पहचान 2006 में मिली, जब लुइसविले मार्र्चिंग बैंड के डायरेक्टर डॉ. ग्रेग बायरन ने उनकी प्रतिभा देखी और उन्हें अपने बैंड से जोड़ लिया। वहां वे ट्रंपेट बजाते। उनके पिता उन्हें रोज व्हील चेयर पर बैठाकर ले जाते और लेकर आते। पिता-पुत्र की इन कोशिशों को देखने भारी भीड़ जुटने लगी। फुटबॉल सीजन में टेलीविजन और अखबारों में पैट्रिक छा गए। पैट्रिक को संगीत प्रस्तुति के लिए पूरे देश से ऑफर मिलने लगे और वे बड़े संगीतकार बन गए। इतना ही नहीं, उन्होंने विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन की पढ़ाई भी की।

जीवन एक उत्सव है


         कुछ व्यक्ति केवल भीड़ में ही उत्सव मना सकते हैं, कुछ सिर्फ एकान्त में, मौन में, खुशी मना सकते हैं। मैं तो कहता हूं दोनों करो! एकान्त में उत्सव मनाओ और लोगों के साथ भी। जीवन एक उत्सव है। जन्म एक उत्सव है, मृत्यु भी उत्सव है। मौन की गूँज हो या शोरगुल हर पल उत्सव है।

       अकेले होने पर भीड़ को महसूस करना अज्ञानता है। भीड़ में भी एकान्त महसूस करना बुद्धिमता का लक्षण है। भीड़ में एकान्त का अनुभव करना ज्ञान है। जीवन. ऊर्जा का ज्ञान आत्मविश्वास लाता है और मृत्यु का ज्ञान तुम्हें निडर और केंद्रित बनाता है।

        इंद्रियां - इंद्रियां अग्नि की तरह हैं। तुम्हारा जीवन अग्नि के समान है। इंद्रियों की अग्नि में जो कुछ भी डालते हो, जल जाता है। यदि तुम गाड़ी का टायर जलाते हो, तो दुर्गंध निकलती है और वातावरण दूषित होता है। यदि तुम चंदन की लकड़ी जलाते होए तो चारों ओर सुगंध फैलती है। कोई अग्नि प्रदूषण फैलाती है और कोई अग्नि शोधन करती है।
 
       आग के चारों ओर बैठकर उत्सव मनाते हैं और चिता की अग्नि के चारों ओर शोक मनाते हैं। जो अग्नि शीतकाल में जीवन को सहारा देती हैए वही अग्नि विनाश भी करती है। तुम भी अग्नि की तरह हो। क्या तुम वह अग्नि हो जो वातावरण को धुएं और गंदगी से प्रदूषित करती है या कपूर की वह लौ जो प्रकाश और खुशबू फैलाती है, संत कपूर की वह लौ हैं जो रोशनी फैलाते हैंए प्रेम की ऊष्णता फैलाते हैं। वे सभी जीवों के मित्र हैं।

       उच्चतम श्रेणी की अग्नि प्रकाश और ऊष्णता फैलाती है। मध्यम श्रेणी की अग्नि थोड़ा प्रकाश तो फैलाती है, मगर साथ ही थोड़ा धुआं भी। निम्न श्रेणी की अग्नि सिर्फ धुआँ और अन्धकार फैलाती है। विभिन्न प्रकृति की अग्निओं को पहचानना सीखो।

       यदि तुम्हारी इंद्रियां भलाई में लगी हैं, तो तुम प्रकाश और सुगंध फैलाओंगे। यदि बुराई में लगी हैंए तुम धुआँ और अन्धकार फैलाओगे। ष्संयमष् तुम्हारे अंदर की अग्नि की प्रकृति को बदलता है।

       आदतें - वासनाओं, धारणाओं, से कैसे मुक्त हों, यह प्रश्न उन सभी के लिए है जो बुरी आदतों से छुटकारा पाना चाहते हैं। तुम आदतों को छोडऩा चाहते हो क्योंकि वे तुम्हें कष्ट देती हैं, तुम्हें बांधती हैं। वासनाओं का स्वभाव है तुम्हें विचलित करना, तुम्हें बांधना और जीवन का स्वभाव है मुक्त होने की चाह। जीवन मुक्त रहना चाहता है, पर जब यह नहीं मालूम कि कैसे मुक्त हों, तब आत्मा जन्म.जन्मांतरों तक मुक्ति की चाह में भटकती रहती है। आदतों से छुटकारा पाने का उपाय है संकल्प या संयम। सभी में कुछ होता ही है। जब जीवन.शक्ति में दिशा होती हैए तब संयम द्वारा आदतों के ऊपर उठ सकते हो। जब मन बुरी आदतों की व्यर्थ चिंताओं में उलझा रहता है तब दो बातें होती हैं पहली, तुम्हारी पुरानी आदतें वापस आ जाती हैं और तुम उनसे निरुत्साहित हो जाते हो। तुम अपने को दोषी ठहराते हो और सोचते हो कि तुम्हारा कोई विकास नहीं हुआ।

        दूसरी ओर तुम बुरी आदतों को संयम अपनाने का एक नया अवसर मानकर प्रसन्न होते हो। संयम के बिना जीवन सुखी और रोग मुक्त नहीं होगा। उदाहरण के लिए तुम्हें पता है कि अत्यधिक आइसक्रीम खाना उचित नहीं वरन बीमार पड़ जाओगे। संयम ऐसी अति को रोकता है। समय और स्थान को ध्यान में रखकर संकल्प करो। संकल्प समयबद्ध होना चाहिए।
 
        उदाहरण के लिए किसी को सिगरेट पीने की आदत है और वह कहता है मैं सिगरेट पीना छोड़ दूँगा। वह सफल नहीं होता। ऐसे लोग निर्धारित समय जैसे तीन महीने या 90 दिनों के लिए संकल्प ले सकते हैं। अगर किसी को गाली देने की आदत है वह दस दिनों तक बुरे शब्दों का प्रयोग करने का संकल्प करे। जीवन भर के लिए संकल्प मत करो तुम उसे निभा नहीं पाओगे। यदि कोई संकल्प बीच में टूट जाए, चिंता न करो। फिर से शुरू करो। धीरे-धीरे समय की सीमा बढ़ाते जाओ, जब तक वह तुम्हारा स्वभाव न बन जाए। जो भी आदतें तुम्हें परेशान करती हैं, कष्ट देती हैंए उन्हें संकल्प के द्वारा संयम से बाँध लो।

प्रेम और मोह में अन्तर


       यजुर्वेद में लिखा है कि बुराइयों को द्वेष की अपेक्षा प्रेम से दूर करना ज्यादा सरल है। इसी प्रकार ताओ धर्म कहता है कि प्रेम के आधार पर ही मनुष्य वीर बन सकता है। प्रेम ही है, जो अंधकार को प्रकाश में, निर्जीवता को जीवन में और मरघट को उद्यान में बदल देने की शक्ति रखता है।

      जैसे आग का गुण ऊष्णता है, वैसे ही आत्मा का गुण प्रेम है। गलत प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों में भी प्रेम होता है, लेकिन वह उनकी गलत प्रवृत्तियों के नीचे दब जाता है।

      प्रेम की महिमा जहां हर पंथ ने गाई है, वहीं सभी ने मोह को व्यक्ति से लेकर राष्ट्रहित तक के लिए घातक बताया है। प्रश्न उठता है कि प्रेम और मोह में अंतर कैसे किया जाए? इसे इस प्रकार समझ सकते हैं कि वह प्रेम जो कर्तव्य पालन में बाधा बन जाए, वह मोह है। श्रीकृष्ण ने कहा है कि अपनी सांसों में बसे गोकुल को योगेश्वर ने छोड़ दिया, क्योंकि उन्हें युग-धर्म निभाने के लिए मथुरा जाना था और अखंड राष्ट्र निर्माण के लिए पांडवों का मार्गदर्शन करना था। स्वार्थ मुक्त होकर युगधर्म का शिक्षण देने वाला प्रेमभाव विकसित करने के लिए हर पंथ पुकारता है।

अनमोल वचन

 
1--        क्रोध का प्रभाव हमारे अपने मस्तिष्क पर पड़ता है और उससे कुछ भी सोचने-समझने की क्षमता नष्ट हो जाती है। बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट हो जाने पर व्यक्ति स्वयं का ही नाश कर बैठता है।

2-        मन -आपका संकल्प ही बाहृय जगत में नवीन आकार ग्रहण करता है। जो कल्पना-चित्र अंदर पैदा होता है, वही बाहर स्थूल रूप में प्रकट होता है। हर सद्विचार और दुर्विचार पहले इंसान के मन में उत्पन्न होता है और वह उस विचार के आधार पर अपना व्यवहार निश्चित करता है।

3-        वचन- जिस काम को संपन्न करने में बल और पराक्रम अक्षम साबित होते हैं, उसे किसी इंसान का मधुर वचन चुटकियों में हल कर देता है।

4-        कर्म -जो व्यक्ति दिखावे मात्र के लिए दूसरों की नकल करते हैं और उसके अनुरूप कार्य करने की कोशिश करते हैं, कुछ समय बाद वे अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं। स्वयं तय किए गए लक्ष्य ही सफलता सुनिश्चित करते हैं।

5-रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गांठ परि जाय।।

कविवर रहीम--यह दोहा एक-दूसरे के प्रति प्रेम के संबंध में अत्यंत प्रासंगिक है। प्रेम सुकोमल होता है। इसका संबंध इतना नाज़ुक होता है कि इसे झटका देकर तोड़ना उचित नहीं होता। जिस तरह धागे को तोड़कर फिर जोड़ने पर उसमें गांठ पड़ जाता है, उसी तरह यदि प्रेम का धागा एक बार टूट जाता है, तो फिर इसे जोड़ना बहुत कठिन होता है। अगर किसी तरह जोड़ेंगे भी, तो निश्चित रूप से उसमें गांठ पड़ जाएगा।

6-सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:॥18-48॥

अर्थ : हे कौन्तेय (अर्जुन), अपने आरंभ के सहज-स्वाभाविक कर्म को दोष होने पर भी नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि आरंभ में कर्मों में कोई न कोई दोष होता ही है, जैसे आरंभ में अग्नि धुएं से घिरी होती है...।

भावार्थ : जब भी हम कोई काम शुरू करते हैं, तो अनुभव न होने के कारण हमारे सामने अनेक प्रकार की कठिनाइयां आती हैं। हो सकता है कि हमें विफलता मिले। लेकिन विफलताओं से घबराकर हमें उस कर्म को छोड़ना नहींचाहिए, बल्कि उससे सबक लेकर आगे बढ़ना चाहिए। सफलता अवश्य मिलेगी।

7-        मन- सरपट दौड़ते मन के घोड़े पर अगर आपने लगाम कस ली, तो जीवन की दौड़ में विजेता बन सकते हैं। तभी तो कहा गया है मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।

8-        वचन- वाणी में अमृत है, तो विष भी। मिठास है, तो कड़वापन भी। यह आपको तय करना है कि अपनी वाणी से सामने वाले को अपना प्रशंसक बनाना है या निंदक।

9-        कर्म- कर्म हमारा भाग्य नहीं है, लेकिन कर्म से हमारे चरित्र की रचना जरूर होती है। यदि हम अच्छे कर्म करते हैं, तो देर-सबेर अच्छा परिणाम जरूर मिलता है। बुरा कर्म हमें आज नहीं, तो कल गर्त में जरूर डुबोता है।

10-बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

संत कबीर-- आज जब हर व्यक्ति दूसरों में बुराइयां खोजने में लगा हुआ है, ऐसे में यह दोहा बहुत प्रेरक-प्रासंगिक हो जाता है। कबीर ने इसमें कहा है कि जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला, लेकिन जब मैंने अपने मन में झांक कर देखा तो पाया कि सबसे बुरा तो मैं ही हूं। इसका भावार्थ यह है कि व्यक्ति को आत्मावलोकन अवश्य करना चाहिए, तभी वह अपने भीतर के दोषों को पहचान कर उन्हें दूर कर सकेगा।

खुद में मौजूद अपनी अच्छाइयों से प्यार करें-


              इससे आपमें असीम ऊर्जा और आत्मविश्वास का संचार होगा। इससे आप संतुष्टि के साथ जीवन आगे बढ़ा सकेंगे...
               फ्रांस के प्रसिद्ध दार्शनिक ज्यां पॉल सात्र्र ने सारा जीवन परमार्थ में लगाया। उनके सामने कठिनाइयां भी कम नहीं रहीं, पर कभी किसी ने उन्हें खिन्न, उद्विग्न या उदास नहीं देखा। वे परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाते थे और दूसरों को भी वैसी ही शिक्षा देते थे।

                सात्र्र की एक आंख शुरू से खराब थी और दूसरी में भी दिक्कत थी। डॉक्टरों ने दूसरी आंख का ज्यादा इस्तेमाल न करने की सलाह दी। फिर भी वे शिक्षा से वंचित नहीं रहे। उन्होंने घरवालों को इस बात के लिए मना लिया था कि वे उन्हें पुस्तकें पढ़कर सुना देंगे। केवल सुन-सुन कर उन्होंने पढ़ाई की और स्नातकोत्तर परीक्षा अच्छे अंकों से पास की। लेखन कार्य भी वे बोलकर कराते रहे, पर इसके कारण न तो कभी उनके चेहरे पर उदासी आई, न कभी निराशा व्यक्त की। अधिक उम्र होने पर दूसरी आंख ने भी साथ छोड़ दिया, फिर भी वे निराश नहीं हुए।

                  सात्र्र सदैव मित्रों से घिरे रहते थे और जीवन के रहस्यों पर चर्चा करते थे। वृद्धावस्था में भी उनके मित्रों में वृद्ध कम थे और युवक अधिक। उनका मानना था कि जब मैं सोच से युवक हूं, तो फिर मैं वृद्ध लोगों से दोस्ती क्यों करूं। दरअसल, आम तौर पर वृद्धों का अतीत में रहना उन्हें पसंद न था। सात्र्र से लोग परामर्श लेने भी आते थे। वे उन प्रसंगों को सुनाते थे, जिसमें कठिनाइयों के बीच प्रसन्नता से रह सकना और सफलता के मार्ग पर चल सकना संभव हो पाता है। सात्र्र दुनिया को अपनी आंखों से तो पूरी तरह देख नहीं सके, पर उन्होंने बहुत से लोगों को रास्ता दिखाया।

प्रेम पाने के लिए देना सीखें


                     संसार में हर किसी का मकसद प्रेम को पाना है। बहुत कम लोगों को प्रेम मिल पाता है। आम तौर पर हम स्त्री और पुरुष के मिलन को प्रेम समझ बैठते हैं। यह भी प्रेम हो सकता है, लेकिन जहां पाने की शर्त होती है, वहां प्रेम नहीं हो सकता। देना तो प्रेम है, लेना प्रेम नहीं। प्रेम की पहली शर्त ही है सब कुछ परावर्तित कर देना। जो सब कुछ छोड़ देने का दम दिखाता है, वही प्रेमी कहलाता है। सबसे बड़ा उदाहरण 'राधा का ही है। राधा ने अपने प्रेम में सब कुछ छोड़ दिया, यहां तक कि प्रेमी को भी।

                   हम सारी जिंदगी प्रेम की तलाश करते हैं, पर प्रेम को पा नहीं पाते। हम प्रेम पर अपना कब्जा जमाना चाहते हैं। हम अपने प्रेम को रौंदने लगते हैं। हम प्रेमी को गुलाम समझने लगते हैं। हम समझ ही नहीं पाते कि जिससे हमें प्रेम है, उसे छोड़ेंगे, तभी तो प्रेम नजर आएगा। पकड़ कर हम प्रेम का रोना रोते हैं कि प्रेम नहीं मिल रहा।

                  प्रेम करने वाले प्रेम को छोड़ना सीखें, उसे आजाद करना सीखें। उसे परावर्तित करना सीखें। तब जिंदगी में प्रेम नजर आने लगेगा। शर्त यही है कि जिससे प्यार है, जिस रंग से प्यार है, जिस चीज से प्यार है, उसे परावर्तित होने दीजिए। प्रेम हो या रंग, पकड़ने की चीज नहीं।

स्वयं से प्यार करना सीखे


        स्वामी विवेकानंद लिखते हैं- 'प्रत्येक इंसान ईश्वर का अंश है। यदि कोई इंसान ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति दिखाना चाहता है, तो सबसे पहले स्वयं की अवहेलना करना छोड़े और स्वयं से प्यार करना सीखे। प्रेम से ही चेतना जाग्रत होती है। जब मैंने योग और ध्यान के माध्यम से खुद को जगाया, तभी मुझे अपनी अंतर्निहित शक्तियों का पता चला। इन्हीं शक्तियों के बल पर मैं अमेरिका के शिकागो (1893) में विश्व धर्म संसद में पश्चिमी समाज को भारतीय धर्म व दर्शन से परिचित करा पाया। किसी भी इंसान के लिए खुद की गरिमा सर्वोपरि है। हमारा लक्ष्य अपने भीतर के ईश्वर (स्वयं की तलाश) को खोजना है, जिसे कर्म, भक्ति और ध्यान के जरिये पाया जा सकता है।

1-अपनी खूबियों से प्रेम करें--

        प्रवचन सभा के दौरान एक व्यक्ति ने ओशो से पूछा, 'दूसरों की अच्छाइयों या व्यवहार के प्रति तो आकर्षण हो जाता है, लेकिन स्वयं से प्यार किस तरह करें? इसके उत्तर में ओशो ने एक कहानी सुनाई :--

        बहुत समय पहले एक शिष्य जेन गुरु से शिक्षा प्राप्त कर घर जा रहा था। रात अंधेरी थी, इसलिए उसने गुरु से एक दीपक उपलब्ध कराने का आग्रह किया, ताकि उसे रास्ता तलाशने में दिक्कत न हो। गुरु ने उसके हाथ पर एक दीपक रख दिया, लेकिन अभी वह कुछ दूर ही गया था कि उन्होंने फूंक मारकर दीपक बुझा दिया। शिष्य घबरा गया। तब गुरु ने कहा, दूसरे के दीपक के सहारे आगे बढ़ने की बजाय भीतर के दीपक से अपना रास्ता खोजना चाहिए। यह प्रयास करते हुए तुम्हारे भीतर एक नया दीपक जल उठेगा। एक बार जब आत्मा का दीपक प्रकाशित हो जाएगा, फिर तुम किसी भी आंधी या तूफान का मुकाबला करने में सक्षम हो जाओगे। इसलिए अपने अंदर की शक्तियों को पहचान कर उन्हें जगाओ। अपनी खूबियों से प्रेम करो।

        अपनी पहचान किताब में ओशो कहते हैं 'शरीर दृश्य आत्मा है, तो आत्मा अदृश्य शरीर है। शरीर और आत्मा कहीं भी विभाजित नहीं हैं। वे एक-दूसरे के हिस्से हैं। व्यक्ति को खुद को प्रेम करना है। उसे स्वयं को आदर-सम्मान देना है। उसे स्वयं का आभारी होना है। तभी वह समग्रता को उपलब्ध हो सकता है, तभी एक सघनता घटित होगी।

2-चेतना को जाग्रत करना सीखें--

        खुद को आईने में निहारें। महज चेहरा सुंदर है या नहीं, आप मोटे हैं या पतले- इसके लिए नहीं, बल्कि अपने उन गुणों के बारे में सोचें, जिसके लिए पहले कभी आपकी किसी ने तारीफ की थी, जिन गुणों ने आपको अपनों के और करीब ला दिया था। लगातार कुछ दिनों तक यह प्रक्रिया अपनाने के बाद आप खुद में परिवर्तन महसूस करने लगेंगे। जब भी आप अपनी आंखें बंद करेंगे, तो खुद में विस्तार महसूस करेंगे। आपकी चेतना जाग्रत होने लगेगी। ध्यान रहे, खुद से प्रेम करने की यह प्रक्रिया आत्ममुग्धता की सीमा को पार न करे। यह सच है कि इंसान में कुछ बुराइयां या कमजोरियां भी होती हैं। पर उन कमजोरियों के प्रति लापरवाह होने की बजाय उन्हें समाप्त करने की कोशिश भी व्यक्ति को स्वयं से जोड़ता है। शोध बताते हैं कि स्वयं से प्यार करना सफलता, खुशी और स्वस्थ संबंधों का आधार है। यह उनके मानसिक तनाव, अवसाद, बेचैनी तथा हीन भाव में कमी लाता है।
 
        महान दार्शनिक खलील जिब्रान अपनी किताब 'द प्रॉफेट में कहते हैं कि मैं शारीरिक रूप से बहुत कमजोर था। पर मैंने उन कमजोरियों को कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया, क्योंकि विफलता मिलने के बावजूद मुझे अपनी खूबियों पर विश्वास था।

3-आप ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति हैं--

        अमेरिका की मर्सी शिमॉफ की पुस्तक 'लव फॉर नो रीजन बेस्ट सेलर नॉवेल्स में शुमार है। इसका अब तक 31 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। मर्सी कहती हैं कि स्वयं से प्यार करने का विचार व्यक्ति को स्वार्थी नहीं बनाता। आप यदि स्वयं से प्यार करेंगे, तभी दूसरों की खामियों को नजरअंदाज कर उन्हें प्रेम और आदर दे सकेंगे। अपने कार्य को कमतर न आंके। आपका कार्य सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि आप ईश्वर की महानतम कृति हैं। दूसरों से तुलना व्यर्थ है। तभी योगी अरविंद कहते हैं, खुद से टूटे हुए या हताश व्यक्ति का योग और साधना के जरिये ईश्वर की प्राप्ति निरर्थक है। पहले उसे अपने भीतर के ईश्वर को पहचानना होगा। इसके लिए उसे स्वयं से प्यार करना होगा।

प्यार आपसी फायदे के लिए बनाई गई योजना होती है--


        जिसे प्यार कहा जाता है, वह आम तौर पर एक आपसी फायदे के लिए बनाई गई योजना होती है। 'तुम मुझे यह दो मैं तुम्हें वह दूंगा, अगर तुम मुझे यह नहीं दोगे, तो मैं तुम्हें वह नहीं दूंगा। ऐसा कहा नहीं जाता, मगर यही किया जाता है।

        इंसानों की शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक, आर्थिक, सामाजिक और कई दूसरी तरह की जरूरतें होती हैं। 'तुम मुझे यह दो मैं तुम्हें वह दूंगा, जैसी भद्दी बातें करने की बजाय, हम उसे भावनाओं की एक खास मिठास से लपेटते हुए उसमें थोड़ी सुरुचि और सुंदरता ले आते हैं। इसे हम प्रेम प्रसंग कहते हैं। इंसानों के रूप में एक बुनियादी तरीके से लेन-देन करना हमें भद्दा महसूस कराता है। अगर आप दोनों हाथों से खाना लेकर खाते हैं, तो यह बहुत भद्दा लगता है, है न? हम एक सभ्य तरीके से खाना चाहते हैं।
 
        इसी तरह हमने अपनी शारीरिक, भावनात्मक और आर्थिक जरूरतों को एक अधिक सुन्दर तरीके से पूरा करने की व्यवस्था की है। घरेलू उद्देश्यों के लिए दो लोगों के साथ रहने के लिए, उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए, बच्चे पैदा करने के लिए, उन्हें पालने, बड़ा करने के लिए, प्यार का एक घरेलू स्तर काफी है। बहुत कम लोग ऐसे प्रेम प्रसंग के लिए तैयार होते हैं, जो दो जिंदगियों को एक कर दे और उन्हें परम-तत्व से मिलन की अवस्था तक पहुंचा दे।

1-प्यार परम मिलन का रास्ता

        दो लोगों का अनुभव में एक होने के लिए, एक अलग तरह की तैयारी की जरुरत है। ज्यादातर लोग प्यार को घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। वे उससे आगे नहीं जाना चाहते। घरेलु जरूरतों से आगे जाने के लिए दोनों को तैयार होना होगा। अगर एक तैयार है और दूसरा नहीं, या एक कोशिश कर रहा है और दूसरा नहीं, तो ऐसा लग सकता है कि एक व्यक्ति पायदान बन रहा है, या एक का शोषण हो रहा है। मगर जो परम मिलन के लिए खुद ही प्यार बन जाना चाहता है, उसे पायदान या कुछ और बनने की परवाह नहीं होनी चाहिए।

2-प्यार में खुद को दास बना लेता है--

        भारत में हमारे यहां एक ऐसी संस्कृति है, जहां लोग अपनी मर्जी से खुद को दास बना लेते हैं। आप तुलसीदास, कृष्णदास, या किसी और तरह के 'दास को जानते हैं? वे खुलेआम कहते हैं, 'मैं एक दास हूं। वे पायदान के रूप में इस्तेमाल किए जाने से डरते नहीं हैं। वे तो खुद पायदान बनना चाहते हैं। इस तरह का प्यार परम मिलन के लिए होता है, सिर्फ घरेलू मकसद के लिए नहीं। अगर आप परम मिलन की खोज में हैं, तो प्यार अलग ही तरीके से होना चाहिए। अगर आप प्यार से सिर्फ घरेलू कामकाज चलाने का रास्ता खोज रहे हैं, तो फिर जरूर आपको शिष्ट तरीके से यह देखना होगा कि 'इस प्यार से किसको क्या मिलता है। अगर कोई जरूरत से ज्यादा दूसरे का इस्तेमाल करता है, तो नतीजा यह होगा कि 'अगर तुम मुझे यह नहीं दोगे, तो मैं तुम्हें वह नहीं दूंगा। यह एक सामाजिक चीज है। वरना, अगर आप परम मिलन चाहते हैं, तो आपको इन सब चीजों के बारे में नहीं सोचना चाहिए। या दूसरे शब्दों में, अगर प्यार एक खास स्तर से आगे चला जाता है, तो आप हमेशा सुरक्षित रहने की मानसिकता छोड़ देते हैं, और अपने-आप एक तरह से आघात-योग्य बन जाते हैं। हमेशा सुरक्षित रहने की मानसिकता छोड़े बिना, कोई प्रेम संबंध नहीं हो सकता। सच्चे प्रेम के लिए, आपको प्रेम में गिरना होता है। जब आप गिरते हैं, तो कोई आपको उठा सकता है, या कोई आपको कुचल कर भी जा सकता है। 

3-सच्चे प्यार के पल का स्त्रोत

        यह अनुभव सुंदर होता है क्योंकि आप गिरते हैं या फिर हमेशा सुरक्षित रहने की मानसिकता छोड़ कर खुद को आघात-योग्य बना लेते हैं। क्योंकि प्यार में गिरने के लिए आपने अपने अंदर त्याग की भावना पैदा कर ली। अंग्रेजी का मुहावरा, 'प्यार मे गिरना वाकई सही और बहुत खूबसूरत है। वहां हमेशा प्यार में गिरने की बात की गई। किसी ने कभी प्यार में खड़े होने या प्यार में चढऩे या प्यार में उडऩे की बात नहीं की। क्योंकि आपके 'अहम् के गिरने पर ही आपके अंदर प्यार का एक गहरा अनुभव हो सकता है। आपके प्रेम की सुंदरता उसमें नहीं थी जो उन्होंने आपको दिया या जो उन्होंने आपके लिए किया। आप अकेले बैठे और सोचा कि वाकई आप इस इंसान को इतना प्रेम करते हैं, कि उसके लिए आप मरने के लिए तैयार हैं वह पल सबसे खूबसूरत पल होता है।इसलिए नहीं कि उन्होंने आपको एक बड़ा तोहफा दिया, वह पल नहीं, जब उन्होंने आपको हीरे की अंगूठी दी, वह पल नहीं जब उन्होंने आपके बारे में ऐसी-वैसी चीजें कहीं नहीं। एक ऐसा पल था जब आप दूसरे व्यक्ति के लिए मरने को तैयार थे वही सच्चे प्यार का पल था। आप न सिर्फ पायदान बनने को, बल्कि उनके पैरों की धूल बनने को तैयार थे।

4-भक्ति का पागलपन

        जब प्रेम भक्ति में बदल जाता है, तो आप ऐसे ही बन जाते हैं। अगर आप प्यार में गिरते हैं, तो आप असुरक्षा को अपनाने और आघात-योग्य बनने को तैयार हो जाते हैं। मगर फिर भी प्रेम प्रसंगों में थोड़ी-बहुत 'समझदारी काम करती है आप उस स्थिति को छोड़ कर बाहर आ सकते हैं। लेकिन अगर आप भक्त बन जाते हैं, तो आपके अंदर कोई 'समझदारी नहीं बचती और आप उससे उबर नहीं सकते।

        एक भक्त खुद को किसी चीज से नहीं जोड़ सकता, वह बस भक्ति की ओर खिंचता है। इसलिए इससे पहले कि आप भक्ति के क्षेत्र में कदम रखें, आपको देख लेना चाहिए कि आप उसके लिए तैयार हैं या नहीं।

        सबसे पहले तो आपके लक्ष्य क्या हैं? अगर आपका लक्ष्य बस दूसरे जीवन को अपना एक हिस्सा बनाना हैं, तो आपके लिए एक संतुलित प्रेम संबंध अच्छा है। लेकिन अगर आप बस एक अच्छा जीवन जीना नहीं चाहते, बल्कि आप खुद को जीवन की प्रक्रिया में विलीन कर देना चाहते हैं अगर आप एक विस्फोटक-जीवन जीना चाहते हैं, अगर आप परवाह नहीं करते कि आपको क्या मिला और क्या नहीं मिला, तो आप एक भक्त बन जाते हैं।

        एक भक्त 'किसी का भक्त नहीं होता। भक्ति एक गुण है। भक्त का मतलब एक खास एकाग्रता है, आप लगातार एक ही चीज पर ध्यान लगाते हैं। जब कोई इंसान इस तरह बन जाता है, कि उसके विचार, उसकी भावनाएं और सब कुछ एक दिशा में केंद्रित हो जाते हैं, तो उस इंसान को कुदरती रूप से कृपा मिल जाती है। वह ग्रहणशील बन जाता है। भक्ति का मतलब है कि आप अपने भक्ति के केंद्र में खो जाने का इरादा रखते हैं। यह अस्तित्व की एक अलग अवस्था है। घरेलू किस्म के प्रेम संबंध की तलाश में रहने वाले किसी इंसान को यह सवाल पूछना भी चाहिए।

 

मेडिटेशन आपके भीतर की खुशबू है



        मेडिटेशन क्या है.इस सम्बन्ध में अलग-अलग विचार हैं। आजकल एक फैशन की तरह यह इस्तेमाल होने लगा है। कोई किताब पढ़ कर तो कोई किसी से कुछ सुनकर मेडिटेशन का अपना मतलब और अपना तरीका विकसित कर लेता है। ऐसे में बहुत जरूरी है यह जानना कि आखिर मेडिटेशन है क्या?
 
        सबसे पहली बात तो यह कि अंग्रेजी के मेडिटेशन शब्द का कुछ सार्थक मतलब नहीं है। अगर आप बस आंखें बंद कर बैठ जाएं तब भी अंग्रेजी में इसे मेडिटेशन करना ही कहा जाएगा। आप अपनी आंखें बंद करके बैठे हुए बहुत से काम कर सकते हैं- जप, तप, ध्यान, धारना, समाधि, शून्या कुछ भी कर सकते हैं।
 
        पश्चिमी समाज में देखें तो आज आप जिन चीजों को पाने का सपना देखते हैं, वे ज्यादातर पहले से ही उनके पास हैं। और क्या आपको लगता है, आप संतुष्ट हैं, आनंद की स्थिति में हैं? नहीं आनंद के आसपास भी नहीं हैं ।

        तो आखिर वह चीज है क्या, जिसे हम मेडिटेशन कहते हैं? आमतौर पर हम ऐसा मान लेते हैं कि मेडिटेशन से लोगों का मतलब ध्यान से होता है। अगर आप ध्यान को मेडिटेशन समझते हैं तो यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे आप कर सकते हैं। जिन लोगों ने भी ध्यान करने की कोशिश की है, उनमें से ज्यादातर अंत में इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि इसे करना या तो बेहद मुश्किल है या फिर असंभव। और इसकी वजह यह है कि उसे आप करने की कोशिश कर रहे हैं।

        ध्यान एक खास तरह का गुण है, कोई बडा काम नहीं है। अगर आप अपने तन, मन, ऊर्जा और भावनाओं को परिपक्वता के एक खास स्तर तक ले जाते हैं, तो ध्यान स्वाभाविक रूप से होने लगेगा। यह ठीक ऐसे है, जैसे आप किसी जमीन को उपजाऊ बनाए रखें, उसे वक्त पर खाद पानी देते रहें और सही समय पर सही बीज उसमें डाल दें तो निश्चित तौर से इसमें फूल और फल लगेंगे ही।

        यदि पौधे पर फूल और फल इसलिए आते हैं, क्योंकि उनके खिलने के लिए एक उचित वातावरण और अनुकूल परिस्थितियां पैदा है। ठीक इसी तरह अगर आप अपने भीतर भी एक उचित और जरूरी माहौल पैदा कर लें, अपने सभी पहलुओं को सही परिस्थितियां प्रदान कर दें तो मेडिटेशन आपके भीतर अपने आप होने लगेगा। यह तो एक खास तरह की खुशबू है, जिसे कोई इंसान अपने भीतर ही महसूस कर सकता है।

क्यों करें ध्यान?-

        ध्यान का अर्थ है अपने शरीर और मन की सीमाओं से परे जाना। जब आप अपने शरीर और मन की सीमाओं से परे जाते हैं, केवल तभी आप अपने अंदर जीवन के पूर्ण आयाम को पाते हैं। जब आप खुद को शरीर के रूप में देखते हैं तो आपकी पूरी जिंदगी बस भरण पोषण में निकल जाती है।
 
        अगर आप बस आंखें बंद कर बैठ जाएं तब भी अंग्रेजी में इसे मेडिटेशन करना ही कहा जाएगा। आप अपनी आंखें बंद करके बैठे हुए बहुत से काम कर सकते हैं- जप, तप, ध्यान, धारना, समाधि, शून्य कुछ भी कर सकते हैं।जब आप खुद को मन के रूप में देखते हैं तो आपकी पूरी सोच सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक नजरिए से तय होती है। आपकी सोच एक तरह से गुलाम बन जाती है। फिर आप उससे आगे देख ही नहीं सकते। जब आप अपने मन की चंचलता से मुक्त हो जाते हौ तभी आप शरीर और दिमाग से बाहर के पहलुओं को जान पाएंगे।

        यह शरीर और यह मन आपका नहीं है, इन्हें आपने धीरे-धीरे समय के साथ इकठ्ठा किया है। आपका शरीर उस भोजन का बस एक ढेर भर है, जो आपने खाया है। आपका मन भी बस बाहरी दुनिया के असर और उससे मिले विचारों का ढेर है। आपके मकान और बैंक बैलेंस की तरह ही आपके पास एक शरीर और एक मन है। अच्छा जीवन जीने के लिए इनकी जरूरत होती है, लेकिन कोई भी इंसान इन चीजों से संतुष्ट नहीं होगा। इन चीजों के जरिये लोग अपने जीवन को केवल आरामदायक और सुखमय बना लेते हैं। पश्चिमी समाज में देखें तो वे जिन चीजों को पाने का सपना देखते हैं, वे ज्यादातर पहले से ही उनके पास हैं। क्या आपको लगता है, वे संतुष्ट हैं, आनंद की स्थिति में हैं? नहीं आनंद के आसपास भी नहीं हैं वे।बस खाना, सोना, बच्चे पैदा करना और मर जाना, इससे पूर्ण संतुष्टि नहीं होती। इन सभी चीजों की जीवन में जरूरत पड़ती है। लेकिन इन चीजों से हमारा जीवन पूर्ण नहीं हो पाता। अगर आपने अपने जीवन में इन सारी चीजों को पा लिया है तो भी आपका जीवन पूर्ण नहीं होता। इसकी वजह यह है कि मानव जागरूकता की एक खास सीमा को लांघ चुका है। इंसान हमेशा कुछ और अधिक चाहता है, नहीं तो वह कभी संतुष्ट नहीं होगा। इसकी असल इच्छा असीमित होने की या फिर अनंत होने की है। तो ध्यान एक ऐसा जरिया है जो आपको, असीमित व अनंत की ओर ले जाता है ।

 

Friday, January 23, 2015

गीता एक संजीवनी है


              गीता का पहला अध्याय ‘विषाद योग’ है। मोह और अज्ञान से उत्पन्न विषाद के कारण अर्जुन कहता है कि न योत्सि (मैं नहीं लड़ूंगा)। वह तरह तरह की दलीलें दे कर उचित ठहराता है तो भगवान उसे जिस तत्वज्ञान का उपदेश देते हैं, उसका समापन अठारहवें अध्याय में होता है। उस अन्तिम अध्याय का नाम ‘मोक्ष संन्यास योग’है। गीता के प्रभाव से विषाद में फंसा साधक मोक्ष संन्यास योग-यानी मोक्ष की कामना से भी परे की स्थिति में पहुंच जाता है।



              महाभारत में कहा गया है-‘सर्व शास्त्रमयी गीता’ (भीष्म कहते हैं); परन्तु इतना ही कहना यथेष्ट नहीं है; क्योंकि सम्पूर्ण शास्त्रों की उत्पत्ति वेदों से हुई, वेदों का प्राकट्य भगवान् ब्रह्माजी के मुख से हुआ और ब्रह्माजी भगवान् के नाभि-कमल से उत्पन्न हुए। इस प्रकार शास्त्रों और भगवान् के मध्य अत्यधिक दूरी हो गई है।



              लेकिन गीता तो स्वयं भगवान् के मुख से निकली है, इसलिए उसे शास्त्रों से बढ़कर माना गया है। इसकी पुष्टि के लिए स्वयं वेदव्यास का कथन द्रष्टव्य है- गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता॥ (महा० भीष्म ) अर्थात्- ‘‘गीता का ही भली प्रकार से श्रवण कीर्तन, पठन-पाठन मनन और धारण करना चाहिए, अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता है? क्योंकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान् के साक्षात् मुख-कमल से निकली है।’’



              इसके अतिरिक्त भगवान् ने गीता में मुक्तकण्ठ से यह घोषणा की है कि जो कोई मेरी इस गीतारूप आज्ञा का पालन करेगा, वह निःसंदेह ही मुक्त हो जाएगा। जो मनुष्य इसके उपदेशों के अनुसार अपना जीवन बना लेता है और इसका रहस्य भक्तों को धारण कराता है, उसके लिए तो भगवान् कहते हैं कि वह मुझ को अत्यधिक प्रिय है। भगवान् अपने ऐसे भक्तों के अधीन बन जाते हैं।



              सारांश यह है कि गीता भगवान् की वाणी है, हृदय है और भगवान् की वाङ्मयी मूर्ति है। जिसके हृदय में, वाणी में, शरीर में तथा समस्त इन्द्रियों एवं उनकी क्रियाओं में गीताव्याप्त हो गई है, वह पुरुष साक्षात् गीता की मूर्ति है। उसके दर्शन, स्पर्श, भाषण एवं चिन्तन से भी दूसरे मनुष्य परम पवित्र बन जाते हैं।इसलिए गीता को  संजीवनी कहा गया है। 

अन्धकार और दुख हमारे भाव है- प्रकाश में जीना सीखें

             अंधकार एक नकारात्मक भाव है,जब प्रकाश के अभाव की अनुभूति होती है तो यह प्रकाश कई बार परिस्थितियों के कारण भी लुप्त हो जाता है, किन्तु इस प्रकार की स्थिति में परमात्मा ने मनुष्य को इस प्रकार की क्षमता दे रखी है कि वह उनका उपयोग कर प्रकाश के अभाव को दूर कर सकता है। लेकिन अंधकार को देख कर ही जब मनुष्य भयभीत हो जाता है, परेशान और दुखी हो जाता है, तो उसके लिए अंधकार से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है।

 

            इसी प्रकार दुःख भी अंधकार के समान नकारात्मक भाव है। उसका भी कोई अस्तित्व नहीं है। व्यक्ति अपनी भ्रान्तियों, गलतियों और त्रुटियों की तंग कोठरी में बन्द होकर चारों ओर विखरे खिले हुए सुख तथा आनंद से वंचित रहे, तो इसमें परमात्मा का कोई दोष नहीं है।

 

                परमात्मां ने तो सृष्टि में चारों ओर सुख, आनंद तथा प्रफुल्लता का प्रकाश बिखेर रखा है। मनुष्य की अपनी भ्रान्तियों और त्रुटियों की जो दीवार है, अपनी समझ और दर्शन के दरवाजे व खिड़कियों को बंदकर स्वयं ही अंधकार पैदा किया है। प्रायः जो दुःखी, संतप्त, व्यथित और वेदनाकुल दिखाई देते हैं, उनकी पीड़ा के लिए बाहरी कारण नहीं, अपनी संकीर्णता की दीवारें उनके लिए उत्तरदायी हैं।

 

                 परिस्थितिवश कोई समस्या या कठिनाई उत्पन्न हो जाय, तो उसके लिए शोध करने की आवश्यक हीं है। परमात्मा ने अंधकार को दूर भगाने के लिए मनुष्य को उन समस्याओं तथा कठिनाइयों को सुलझाने की क्षमता दे रखी है। वह उस क्षमता का उपयोग कर अपने लिए सुख तथा आनन्द का मार्ग खोज सकता है तथा दुःख रुपी अंधकार को दूर टा सकता है।