Thursday, August 9, 2012

तत्व ज्ञान के तथ्य

1-संस्कार – 
        पूर्वजन्मों की प्रतिक्रिया जो पुनः उदय की सम्भावना के रूप में होती है,संस्कार कहते हैं।ये तीन तरह के दिखते हैं-एक तो जन्मजात होते हैं- पूर्वजन्मों के संस्कार जो वसीयत में मिल जाते हैं। दूसरा अर्जित संस्कार-इस जन्म में प्रत्यक्ष कर्मों द्वारा अर्जित होने वाले। तीसरा-आरोपित संस्कार समाज, वातावरण, समुदाय, शिक्षा, शास्त्र या राष्ट के परिवेश द्वारा जो व्यक्ति पर आरोपित या थोपे गये होते हैं। इन संस्कारों में परिवर्तन हो सकता है। हमारे शास्त्रों में इनसे मुक्ति के लिए निर्विकल्प समाधि आवश्यक है,जिसमें इस चित्त पर उन संस्कारों को नष्ट करने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। अगर स्वयं में बुरे संस्कारों को नष्ट करने के लिए यदि उपाय अपनाना हो तो निर्विकल्प समाधि को अपनाकर प्रयास कर लेना चाहिए। 

 2-मन और मस्तिष्क- 
        अगर देखें तो मन सूक्ष्म है,मस्तिष्क स्थूल है। मन तो पंच घटकों से भी सूक्ष्म है, मस्तिष्क तो इनका संयोजन है। मन मस्तिष्क पर नियंत्रण रखता है,जबकि मस्तिष्क इन्द्रियों पर नियंत्रण रखता है। मन से मस्तिष्क का संचालन होता है,जबकि मस्तिष्क उसका यंत्र है। मन सचेतकर्ता होता है, मस्तिष्क तो एक विषय है। फिर यदि आगे देखें तो मृत्यु के बाद मन नष्ट नहीं होता है,जबकि मस्तिष्क नष्ट हो जाता है। 

 3-शरीर क्या है- 
        शरीर के निर्माण के सम्बन्ध में गूढ चिंतन के तथ्य है। अगर हम आध्यात्म के रूप में देखें तो हमारे वैदों में इस शरीर की रचना के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि-यह शरीर चौबीस मुख्य घटकों से बना होता है। मूल प्रकृति,बुद्धि,अहंकार और पॉच तन्मात्राएं ये आठ प्रकार की तो प्रकृति है तथा पॉच महॉभूत,पॉच ज्ञानेद्रियॉ, पॉच कर्मेंद्रियॉ और सोलहवॉ मन। इनमें पच्चीसवॉ तत्व आत्मा अर्थात पुरुष है।अगर इस शरीर के तीन प्रकार हैं- स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर। स्थूल शरीर के मुख्य घटकों में-पॉच भूत गिनाये गये हैं(पृथ्वी,जल,अग्नि,वायुआकाश)मन और मन तथा आत्मा इसके मुख्य घटक वताये गये हैं। सूक्ष्म शरीर पॉच भूतों का एक समुदाय है-जिसमें पॉच ज्ञानेद्रियॉ,पॉच कर्मेंद्रियॉ,पॉच प्रॉण,मन और बुद्धि इस सत्रह कलाओं का समुदाय है। कारण शरीर-इसमें स्थूल और सूक्ष्म शरीर का कारण (बीज रूप) है यही बीज विकसित होकर सूक्ष्म और स्थूल शरीर की रचना करता है। 

 4-इन्द्रियॉ क्या हैं- 
        इन्द्रियॉ मन का वाहन कहलाती हैं.इन्द्रियों के माध्ययम से ही मन कार्य करता है,तनमात्राओं को ग्रहण कर अपने को अभिव्यक्त भी करता है।इन इन्द्रियों का वास्तविक स्थान मन ही है, इन्द्रियॉ तो केवल द्वार हैं। ये इनद्रियॉ दस हैं-पॉच ज्ञानेद्रियॉ और पॉच कर्मेंद्रियॉ। ज्ञानेन्द्रियों में- कान,त्वचा,नेत्र,जिह्वा और नासिका । इन ज्ञानेनद्रियों का कार्य है- इस सृष्ठि की रचना के जो पॉच भूत- आकाश,वायु,अग्नि,जल और पृथ्वी जिनके कि पॉच गुंण है- शव्द,स्पर्श,रूप,रस,और गन्ध। तो इन्हीं गुणों के ज्ञान के लिए इन ज्ञानेंद्रियों का विकास हुआ है। जैसे शव्द ज्ञान के लिए कान,स्पर्श ज्ञान के लिए त्वचा,रूप ज्ञान के लिए नेत्र,रस के ज्ञान के लिए जिह्वा, तथा गन्ध के ज्ञान के लिए नासिका का विकास हुआ है। इनके विना तो सृष्टि का ज्ञान असम्भव है। इसी प्रकार कर्मेंन्द्रियों के कार्य को देखें तो- कर्मेंद्रियॉ पॉच है-वाक,हस्त,पॉव,गुदा और उपस्थ अर्थात लिंग। रजोगुणी शक्ति से इनका विकास होता है।और इन्हीं के माध्यम से मन सभी प्रकार के कर्म करता है।ज्ञानेद्रियों द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है,उसे ये क्रियान्वित करते हैं। जैसे बोलने का कार्य वॉणी करती है,ग्रहण करने का कार्य हाथ करते हैं,चलने का कार्य पॉव करते हैं,मल विसर्जन का कार्य गुदा करती है। और आनन्द की अनुभूति भी इसी से होती है। 

 5-वृत्तियॉ क्या हैं- 
        हमारे चित्त में कुछ स्थाई भाव होते हैं,जिन्हैं वृत्तियॉ कहा जाता है। और इनका सम्बन्ध संस्कारों से होता है,जिनका कि बीज मन होता है,लेकिन इनका प्रकाश उपकेन्द्रों में होता है। ये वृत्तियॉ पचास बताई गई हैं-मूलाधार चक्र में-4 स्वाधिष्ठान चक्र में-6 मणिपुर चक्र में-10 अनाहत चक्र में-14 विशुद्धि चक्र में-16 तथा आज्ञा चक्र में-2 वृत्तियॉ होती हैं,जिन्हैं कि योग शास्त्र में कमलदल कहा जाता है।परा और अपरा वृत्तियॉ आज्ञा चक्र में रहती हैं। 

 6-शरीर के कोष- 
        इस शरीर में पॉच कोष बताये गये हैं,यह शरीर पॉच कोषों से बना है।अन्नमय,प्रॉणमय, मनोमय, विज्ञानमय,और आनन्दमय। इन कोषों के अलग-अलग कार्य हैं और ये सभी कोष मिलकर शरीर की गतिविधियों का संचालन करते हैं। यह मन में एक व्यष्टि परत है। अगर इनके कार्य को देखें तो-अन्नमय कोष एक स्थूल शरीर है जो अन्न के रसों से उत्पन्न होकर उसी अन्न से बढता है और उसी में समाप्त हो जाता है। दूसरा प्रॉणमय कोष-इसकी शक्ति से शरीर का संचालन होता है।यह पॉच कर्मेंद्रियों का संचालन करता है।यह प्रॉणशक्ति ही क्रियाशक्ति है।तीसरा-मनोमय कोष-जो सोचने,विचारने,चिंतन करने, योजना वनाने तथा निर्मॉण करने का कर्य करता है।यह पॉच ज्ञानेन्द्रियों का भी संचालन करता है जिनसे कि हमें विषयों का ज्ञान होता है।ज्ञानशक्ति का विकास भी होता है।यह मन भी आत्मा का एक उपकरण है जो आत्मशक्ति से कार्य करता है। चौथा-विज्ञानमय कोष-जो कि बुद्धि का कोष है।सही व गलत,उचित और अनुचित, का निर्मॉण करता है। और पॉचवॉ-आनन्दमय कोष-इस कोष के कारण मनुष्य को सुख और आनन्द की अनुभूति होती है।यह अति सूक्ष्म है और आत्मा के सबसे निकट है,जो प्रकृत्ति तत्वों से निर्मित है। यह तो प्रिय,मोद,प्रमोद वृत्ति वाला है। अगर देखें तो अन्नमय कोष को आसन और आहार से सबल बनाया जा सकता है।प्राणॉयाम से प्रॉणकोष सबल बनता है।प्रत्याहार से मनोमय और धारणॉ से विज्ञानमय, ध्यान से आनन्दमय कोष सबल बनाया जा सकता है। 

 7- चेतनाशक्ति-
        अगर देखें तो चेतनशक्ति की चार अवस्थाएं हैं-जाग्रत,स्वप्न,सुषुप्ति,एवं तुरीय। इनमें जाग्रत अवस्था-जब स्थूल इन्द्रियॉ स्थूल विषयों का ज्ञान करती हैं तो इसे चेरन अवस्था कहते हैं।इस संसार का अनुभव इसी अवस्था में होता है। स्वप्नावस्था-जाग्रत अवस्था में जो कुछ देखा और सुना गया है ुसकी सूक्ष्म वासना से निद्राकाल में जो जगत दिखाई देता है,वही स्वपअनावस्था है।इसमें मन सक्रिय रहकर विभिन्न विषयों का अनुभव मात्र है। सुषुप्ति अवस्था –गहन निद्रा में जो सुख की अनुभूति होती है वही सुषुप्तावस्था है।इसमें जाग्रत अवस्था में ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से होता है। स्वप्नावस्था में यह ज्ञान मन से उसकी वासना वासनानुसार होता है जबकि सुषुप्तावस्था में मन भी सुप्त हो जाता है। जिसमें चेतन का ही अनुभव होता है। इसमें चेतना को अपने कारण शरीर का अभिमान रहता है।इसमें ज्ञान का कारण स्वयं आत्मा होती है। 

 8-तुरीय अवस्था क्या है-
        यह ध्यान योग की अन्तिम अवस्था है, जिसमें कि आत्मा स्वयं प्रकाशित हो जाती है।इस अवस्था में आत्मा का ही अनुभव तथा आत्मा और ब्रह्म की एकता का बोध होता है।यही अद्वैत अवस्था कहलाती है। द्वैत भाव से अहंकार दिखता है जिसमें हम स्वयं को ईश्वर से भिन्न समझते हैं। और जब यह अहंकार गिर जाता है, तब अद्वैत की स्थिति बनती है। तो तुरीय स्थिति यही अद्वैत अवस्था होती है।  

9-ईश्वर के दर्शन-
        ईश्वर के दर्शन तो सविकल्प समाधि में होता है, निर्विकल्प समाधि में तो उसका रूप ही विलीन हो जाता है।अर्जुन को सविकल्प समाधि में ही विराट रूप का दर्शन हुआ था। अर्थात ईश्वर को क्रिया योग से प्राप्त किया जा सकता है।यह क्रिया योग पुरुषार्थ से सिद्ध होता है,लेकिन ब्रह्म की अनुभूति कर्म से नहीं अकर्म से होती है।ईश्वर का कार्य –माया रूप होने से अपने रजोगुंण रूप से जन्म देता है, जिसे-ब्रह्मां कहा जाता है। लेकिन तत्व रूप में वह पालन कर्ता है, जिसे विष्णु कहते हैं, और तमःप्रधान रूप में वह प्रलयकर्ता है,जिसे मगेश कहा जाता है। इसलिए ईश्वर जगत् की उत्पत्ति,स्थिति तथा प्रलय का कारण है। लेकिन कार्य तो प्रकृति का ही है। 

 10-जन्म-मृत्यु के तथ्य-
        हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार मनुष्य को कोई भी ज्ञान और अनुभव प्राप्त होता है तो वह नष्ट नहीं होता है,बल्कि संस्कार के रूप में चित्त में विद्यमान रहता है,जो कि अगले नये जन्म में प्रेरणॉ का कार्य करता है। किसी व्यक्ति की किसी विशेष कार्य में रुचि इन्हीं संस्कारों के कारण होती है। जब हमारे सामने यह प्रश्न आता है कि क्या मनुष्य हर बार नए रूप में जन्म ले्ता है ? इस सम्बन्ध में हमारे शास्त्र कहते हैं कि वह पुराने रूप का नयॉ संस्करण है,जो अपने पूर्व जन्मों की सभी इच्छाओं, वासनाओं, आशाओं, आकॉक्षाओं आदि को लेकर जन्म लेता है,केवल शरीर नयॉ होता है। और यदि प्रश्न उठता है कि क्या मृत्यु पर विजय पाना सम्भव है? तो यही उल्लेख है कि-मृत्यु केवल शरीर की होती है,चेतन आत्मा की नहीं। जो निर्मित है वह नष्ट तो होगा ही इसलिए शरीर की कोई मृत्यु नहीं होती। वह तो फिर निर्मित हो जायेगा। जब प्रश्न होता है कि-मृत्यु के बाद क्या होता है? तो उत्तर होगा-मृत्यु के बाद भौतिक शरीर तो नष्ट हो जाता है,लेकिन मन अपने संस्कारों के साथ जीवित रहकर विस्तृत आकाश में विद्यमान रहता है और उपयुक्त नईं देह की प्रतीक्षा करता है।लेकिन आध्यात्मिक मृत्यु में संस्कार शेष नहीं रहते, इसलिए वह समष्टि मन में समाहित हो जाता है।मन की रजोगुणी शक्ति ही उसे नईं देह धारण करने को बाध्य करती है। 

 11-सच्चिदानन्द क्या है?-
        सद्, चित, आनन्द। ईश्वर सत् है, जो सदा से है, वह सदा रहेगा। उसका रूप परिवर्तन नहीं होता। सदा एक ही रूप में रहता है।साथ ही वह चैतन्यस्वरूप और आनंदस्वरूप भी है । इसलिए उसे सच्चिदानन्द कहा गया है। यदि सच्चिदानन्द सत् है तो फिर असत् क्या है? यह सम्पूर्ण प्रकृति असत् है जिसका कि रूप निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। यह सम्पूर्ण जगत प्रकृति निर्मित होने के कारण असत् ही है।शंकराचार्य ने इस जगत को मिथ्या कहा है-इसलिए कि यह है तो असत्, लेकिन सत् जैसा भासित होता है। इसलिए इसे मिथ्या कहा गया है। अज्ञानता के काऱण हम असत् को सत् मान लेते हैं। हम उस समय ईश्वरीय चेतना का अनुभव करते हैं जब हम मौन स्थिति में होते हैं।मन का चिन्तन समाप्त होने पर ईश्वर का अनुभव होता है. 

 12-प्रॉणशक्ति का संचय-
        पंच घटकों पर दबाव पडने से अन्तर्गामी और बहिर्गामी शक्तियॉ प्रकट होती है।इन्हीं शक्तियों को प्राण कहते हैं। अन्तर्गामी शक्ति से प्रॉण का सृजन होता है और बहिर्गामी शक्ति के प्रबल होने पर जड-स्फोट होता है जिसमें पदार्थ छिन्न-भिन्न होकर अपने से सम्बन्धित घटकों में लीन हो जाता है,यह स्फोट तत्कालिक और क्रमिक होता है। 

 13-प्रलय की संकल्पना-
        किसी विशेष ग्रह या उपग्रह में यह हो सकता है।जड स्फोट से किस,भी ग्रह उपग्रह का ताप किसी अन्य ग्रह या उपग्रह या जीवन्त वस्तु में संचालित हो सकता है।यदि सूर्य का ताप नष्ट हो जाय तो उस सौरमण्डल में प्रलय सम्भव है।चूकि हर पिंड में ऊर्जा की मात्रा भिन्न होती है जिनका क्षरण भिन्न-भिन्न अवधि में होता है,और एक के क्षरण से दूसरे को ऊर्जा मिलती है,इसलिए निर्मॉण और विध्वंश की क्रिया निरन्तर जारी रहती है,लेकिन एक साथ सम्पूर्ण ब्रह्मॉड में प्रलय सम्भव नहीं है। 

 14- प्रॉण वायु-
        प्रॉणवायु दो प्रकार की होती है वाह्य और आंतरिक। वाह्य प्रॉण वायु को पॉच भागों में बॉटा गया है-नाग,कूर्म,कृंकर,देवदत्त,और धनंजय। 1-नाग वायु का कार्य विस्तार करना है।2- कूर्म वायु का कार्य-संकोच करना।3- कृंकर वायु का कार्य जम्हाई लेना।4- देवदत्त वायु का कार्य भूख और प्यास लगाना।5-और धनंजय वायु का कार्य है-निद्रा लाना और ऊंघना। आन्तरिक प्रॉण वायु पॉच प्रकार की मानी गई है उदान, प्रॉण,समान,अपान,और व्यान।-1-उदान वायु कण्ठ में,जिसका कार्य वॉणीं है।2-प्राण वायु कण्ठ व नाभि के मध्य में,कार्य स्वॉस लेना व छोडना है। 3-अपान वायु-नाभि केन्द्र में जिसका कार्य मलमूत्र विसर्जन करना।4-समान वायु-नाभि केन्द्र में,जिसका कार्य प्रॉण और अपान के मध्य सन्तुलन रखना है।5-व्यानु वायु-सम्पूर्ण देह में व्याप्त,जिसका कार्य रक्त संचालन करना है।

ज्ञान ही ज्ञान को जगाता है

1- अन्धकार में हम कहॉ से कहॉ पहुंच जाते हैं-

        मानसिक पापों का परित्याग करें, मन में जमी हुई यह वासना ही हमसे दुष्कर्म कराती है। पाप का प्रधान कारण आत्मज्ञान का अभाव है।हम प्रायः मोह और आलस्य की निद्रा में पडे रहते हैं।आलस्य में रहकर हमें सुख मिलता दिखाई देता है,लेकिन उसका फल हमेशा दुःख होता है।हमें अपनी कमजोरियों का ज्ञान नहीं होता है।जो आदमी गलती करता है उसे यह ज्ञात नहीं होता है कि वह गलत राह पर है,अन्धकार ही अन्धकार में वह कहॉ से कहॉ पहुंच जाता है।अन्त में किसी भावशिला पर टकराकर उसे अपनी गलती का आभास होता है,उसके ज्ञान चक्षु एकाएक खुल जाते हैं बस वहीं से वास्तविक आत्मिक उन्नति का सुप्रभात प्रारम्भ होता है।। 

 2-ज्ञान के नेत्र हमें दुर्वलता से परिचित कराते हैं-
        ज्ञान के नेत्र तो हमें अपनी दुर्वलता से परिचित कराने आते हैं,जब ज्ञान के नेत्र खुलते हैं तो हमें को अपनी दुर्वलता के दर्शन होते हैं। जब तक इन इन्द्रियों से सुख दिखता है,तबतक आंखों पर परदा पडा हुआ मानना चाहिए।और जो अपनी दुर्वलता से परिचित हो जाता है,उसके लिए वह अपना सच्चा पश्चाताप कर उसे दूर करने की इच्छा और सतत् उद्योग प्रारम्भ कर देता है, उसकी उन्नति का आधा काम तो बन गया मानना चाहिए।दुर्वलता तो पाप का मूल है,इसका कारण अज्ञानता है। 

 3-ज्ञान के नेत्र-
         भक्त मीराबाई के ज्ञान के नेत्र इतनी जल्दी खुल गये थे कि उन्हैं अपने विवाह तथा दाम्पात्य जीवन के प्रति कुछ भी मोह नहीं हुआ।उनके सम्मुख नाना प्रकार के प्रलोभन और भयंकर यातनायें आयीं,किन्तु वे सभी को ज्ञान के नेत्रों से से निरखती रही। सॉसारिकता के असत्य व्यवहार को त्यागकर उन्होंने भक्ति का वह मार्ग अपनाया जो मुक्ति देने वाला था। उन्हैं ज्ञान के नेत्रों से यह दिखाई दिया कि कुविचार और कुकर्म ही दुख और अतृप्त का मूल है। 

 4-तिरस्कार से ज्ञान के नेत्र खुल गये -
        गोस्वामी तुलसीदास अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करते थे वासना और इन्द्रियों के मायाजाल ने उन्हैं बॉध रखा था,जितना ही वे इन्द्रिय सुख के मार्ग पर बढते गये,उतना ही उन्हैं उसकी आवश्यकता अधिकाधिक प्रतीत होती गई ।एक दिन नारी के ज्ञान ने उनके ज्ञान के नेत्र खोल दिये।उसकी पत्नी ने कहा -मेरे इस हाड -मॉस के नश्वर शरीर के प्रति जो मोह आपको है,यदि वही कहीं ईश्वर के प्रति होता तो आपकी मुक्ति हो जाती ।तुलसीदास जी इन कथनों को सोचते रहे ।चिंतन करते रहे।वे अंत में इस परिणाम पर पहुचे कि वास्तव में नारी का कथन सत्य है।आसक्ति से बढकर इस संसार में कोई दूसरा दुःख नहीं है।इन्द्रियों के विषयों में फंसे रहने से मनुष्य दुखी रहता है ।उनके ज्ञान के नेत्र खुल गये और अब दूसरा ही दृश्य था ।उन्होंने देखा कि वासना मनुष्य को पागल बना रही है।संसार भोगों की ओर तीव्रता से दौड रहा है।मनुष्य तो मन से ही संसार से बंधता है । 

5 -आंखें खोलकर देखो सबमें अपनी ही छवि है-
        सचमुच आंखें खोलकर देखोगे तो समस्त छवियों में तुम्हें अपनी ही छवि दिखाई देगी और यदि कान खोलकर सुनोगे तो समस्त ध्वनियों में तुम्हें अपनी ही ध्वनि सुनाई देगी।केवल एक वार यह हुआ जब मैं निर्वाक हो गया। वह तब जब एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा कि तुम कौन हो।  

6-ज्ञान वह है जो वर्तमान को ठीक ढंग से पढ-समझ सकें-
        ज्ञान जब इतना घमंडी बन जाय कि वह रो न सके, इतना गंभीर बन जाये कि हंस न सके और इतना आत्मकेन्द्रित बन जाए कि अपने सिवाय और किसी की चिन्ता न करे वह ज्ञान अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक होता है। इस ज्ञान की प्राप्ति करने की अपेक्षा अज्ञानता में विचरना श्रेयस्कर है।जो ज्ञान मन को शुद्ध करता है,वही ज्ञान है शेष सब अज्ञान है।ज्ञानी तो वह है जो वर्तमान को ठीक पढ सके और परिस्थिति के अनुसार चल सके।

 7-श्रेष्ठ पुरुषों का धन उसका मान है-
        जो लोग निम्न श्रेणी के होते हैं वे तो सिर्फ धन की कामना करते हैं,मध्यम श्रेणी के मनुष्य धन और मान दोनों की कामना करते हैं।लेकिन श्रेष्ठ पुरुष तो केवल मान की ही कामना करते हैं।मान ही श्रेष्ठ पुरुषों का धन है । 

 8-दुर्जन का विश्वास न करें-
        दुर्जन मीठा बोलें तब भी उस पर विश्वास न करें क्योंकि उसकी जबान पर शहद रहता है मगर दिल में जहर।इन दुर्जनों को अगर अच्छी शिक्षा भी दी जाय,तब भी वह साधु नहीं बन सकते है,ठीक उसी प्रकार जैसे नीम के पेड को यदि घी और दूध से सींचा जाय तब भी वह मधुर नहीं होता।ये दुर्जन अगर सौ बार भी तीर्थ स्नान भी करें फिर भी वे शुद्ध नही होते । 

 9-आध्यात्मिकता-
        यदि हम धर्म या सम्प्रदाय के झगडे की बात करते हैं तो यही प्रकट होता है कि यह आध्यात्मिकता नहीं है।धार्मिक बातें तो हमेशा धोखली बातों के लिए होती हैं। अगर पवित्रता न हो तो आध्यात्मिकता नष्ट हो जाती है। फलस्वरूप आत्मा नीरस हो जाती है, जिससे झगडे शुरू होने लगते हैं। सिद्धान्त,मत,सम्प्रदाय,चर्च,मन्दिर ये तो आध्यात्मिकता की तुलना में नगण्य हैं, इनकी तो आध्यात्मिकता से तुलना नहीं करनी चाहिए,जिस मनुष्य में आध्यात्मिकता जितनी अधिक उन्नत होगी, वह व्यक्ति अच्छाई की दृष्टि से उतना ही उधिक ऊंचा होगा। इसलिए सबसे पहले आध्यात्मिकता अर्जित करना होगा।इसे न भूलें ।धर्म का अर्थ शव्दों,नामों,सम्प्रदायों से नहीं, बल्कि यह एक आध्यात्मिक अनुभूति है। 

 10-आत्मविश्वास-
          आत्मविश्वास एक ऐसा आदर्श है जो कि हमारी सबसे अधिक सहायता कर सकता है। इस जगत में अगर देखें तो जितने भी दुःख और अशुभ हैं,आत्मविश्वास से अधिकॉश गायब हो सकते हैं। मानव जाति के इतिहास में देखें तो कोई भी महॉन प्रेरणॉ अगर सशक्त रही है तो वह आत्मविश्वास ही है। यह इस ज्ञान के साथ पैदा हुआ कि वे महॉन बनेंगे। फलस्वरूप वे महान भी बने। हमारे पूर्वजों में इसी दृढ आत्मविश्वास के कारण, वे सभ्यता की उच्च सीढी तक पहुंचे,लेकिन जिसदिन से हमारे पूर्वजों ने अपना आत्मविश्वास गंवाया, (आत्मविश्वास गवाने का मतलव ईश्वर में अविश्वास)तो उसी दिन से अवन्नति शुरू हो गई। इसलिए उठो! जागो तथा लक्ष्य प्राप्ति होने तक रुको मत।। 

 11-आत्मा के जीवन में ही आनन्द है-
        अगर आत्मा के जीवन में मुझे आनन्द नहीं मिलता है तो,क्या इन्द्रियों के जीवन में मै आनन्द पा सकूंगा? कभी नहीं !यदि मुझे अमृत नहीं मिलता है तो में गढ्ढे के पानी से प्यास बुझाऊं? सुख आदमी के सामने दुख का मुकुट पहनकर आता है,और जो उसका सामना करता है, उसे फिर दुख का भी सामना करना चाहिए !सुख और दुख तो दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।। 

 12-ज्ञान कॉण्ड-
        अगर ज्ञानकाण्ड के बारे में जानने की कोशिश करते हैं तो,ज्ञान ही हमें मुक्ति दे सकता है।मुक्ति हेतु पात्रता के लिए ज्ञानी होना चाहिए।स्वयं अपने को जानना पहला लक्ष्य है। जितना अच्छा दर्पण होता है,वह उतनी ही अच्छी प्रतिछाया प्रदान करता है। और मनुष्य सर्वोत्तम दर्पण है। वह जितना निर्मल होगा,उतनी ही स्वच्छता से ईश्वर को प्रतिबिम्बित कर सकेगा। मनुष्य तो देह से अपने को अभिन्न मानने की भूल करता है,और यह भूल माया से होती है। लेकिन जब मनुष्य पर्याप्त ठोकरें खा चुका होता है, तब वह मुक्ति प्राप्ति की इच्छा के प्रति जागृत होता है,और पार्थिव अस्तित्व से चक्र से बचने के साधनों को खोजता है यही खोज ज्ञान है। इससे वह जान लेता है कि वस्तुतः क्या है. फिर मुक्ति की प्राप्ति होती है। उसके बाद वह इस संसार को एक विशाल यंत्र के रूप में देखता है। उसके चक्रों के प्रति सावधानी रखता है। जिसमें कि वह मुक्त रहता है।मुक्त प्राणी को तो कौन शक्ति विवश कर सकती है ?वह हमेशा शुभ करता है,क्योंकि यह उसका स्वभाव बन चुका है। यह मुक्ति तो उसी के लिए है जो अपने अहं से ऊंचा उठ चुका होता है, यह ज्ञान से ही सम्भव है। 

 13-सत्य वह है जो शक्ति दे-
        जो कुछ भी हमें मानसिक,दैहिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्वल बनाये, उसे जहर के समान त्याग देना चाहिए,उसमें कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो शक्तिप्रद है,उसमें पवित्रता है,वह ज्ञान स्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, अन्दर के अंधेरे को दूर कर दे,ह्दय में स्फूर्ति भर दे।कोई भी उपदेश जो दुर्वलता की शिक्षा देता है,आपत्तिजनक है। जो भी आध्यात्मिक शिक्षा पाते हैं,उन्हैं यह अनुभव करना चाहिए कि- क्या उन्हैं इससे बल मिलता है,क्योंकि एकमात्र सत्य ही सबल करता है।एकमात्र सत्य ही प्रॉणप्रद है। बिना सत्य के हम अन्य किसी उपाय से शक्तिमान नहीं बन सकते हैं।इसलिए जो भी शिक्षा-प्रणाली मन तथा मस्तिष्क को दुर्वल करे, और मनुष्य को अन्धविश्वास से भरे,जिससे वह अन्धकार में टटोलता रहे, अन्धविश्वासपूर्ण बातों की खाक छानता रहे,वह प्रणॉली उपयुक्त नहीं है,निरर्थक है।इनसे उपकार नहीं हो सकता है। 

 14-रुचि के अनुरूप शिक्षा-
        हम देखते हैं कि मनुष्य का स्वभाव जन्म से भिन्न-भिन्न होता है, और यह स्वभाव उसके साथ हमेशा बना रहेगा। इसलिए मनुष्य को अपनी प्रकृत्ति का अनुशरण करना चाहिए। यदि मनुष्य को ऐसे गुरु मिल जॉय जो उसको उसी के भावों के अनुरूप मार्ग पर अग्रसर करने में सहायक हो तो फिर वह शिष्य उन्नति की ओर बढता है। इसी प्रकार आवश्यकता के अनुरूप उपदेशों में भी विविधता होनी चाहिए। और शिष्य की प्रवृत्ति के अनुसार उसे उपदेश भी दिया जाना चाहिए। ज्ञान की शिक्षा देने के लिए ज्ञानी होना पडेगा,और शिष्य की अवस्था के अनुरूप मन ही मन ठीक वहीं पहुंचना होगा। और दे्खना होगा कि-जैसे पौधे के लिए जल, मिट्टी, वायु आदि पदार्थों को जुटा देने पर,पौधा अपनी प्रकृति के नियमानुसार स्वयं ही आवश्यक पदार्थों को ग्रहण कर लेता है और विकसित होता जाता है,उसी प्रकार दूसरों की उन्नति के साधन एकत्र करके उनका हित करना चाहिए। अगर आप दूसरों की बातों से कुछ शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं,तो समक्झ लो कि पूर्वजन्म में तुम्हैं उस विषय की अनुभूति हुई थी, क्योंकि अनुभूति ही हमारा एकमात्र शिक्षक है। 

 15-विचारों में अद्भुत शक्ति पैदा करना सीखो-
        विचारों की शक्ति को कुछ ही लोग समझ पाते हैं।यदि कोई व्यक्ति किसी गुफा में जाकर,बन्द होकर उस निर्जन स्थान में एकाग्रचित्त किसी विषय पर गहन चिन्तन मनन करता है,और उसी का आजन्म मनन करता हुआ अपने शरीर को भी त्याग देता है,तो उसके विचार की तरंगें गुफा की दीवारों को भेदकर चारों ओर के परिवेश में फैल जाती है। और अन्त में वे तरंगें सारी मनुष्य जाति में प्रवेश कर जाती हैं।अर्थात विचारों में एक अद्भुत शक्ति होती है,इसलिए अपने विचारों को दूसरों में प्रचार करने के लिए जल्दवाजी नहीं करनी चाहिए। हमारे पास कुछ होना चाहिए जिसे हम दूसरों को दे सके। दूसरे मनुष्य में ज्ञान का प्रसार तो केवल वही कर सकता है,जिसके पास देने के लिए कुछ हो। क्योंकि शिक्षा देना केवल व्याख्यान देना नहीं है,इसका अर्थ है सम्प्रेषण -आदान-प्रदान। इसलिए सबसे पहले अपना चरित्र गठन करें। स्वयं में सत्य का ज्ञान होना चाहिए। फिर तुम औरों को सिखा सकते हो। कमल खिलता है तो मधुमक्खियॉ स्वयं ही उसके पास मधु लेने जाती हैं। तुम्हारे पास जब कमल रूपी कमल खिल जायेगा, तो सेकडों लोग तुम्हारे पास शिक्षा लेने आयेंगे। यही तो जीवन की महॉन शिक्षा है। 

 16-ज्ञान ही ज्ञान को जगाता है-
        अगर देखें तो हमारे भीतर सारा ज्ञान निहित है,लेकिन उसे दूसरे ज्ञान से जगाना होता है। भले ही जानने की शक्ति हमारे भीतर विद्यमान है।एक ज्ञान की शक्ति से दूसरे ज्ञान का विकास होता है। हमारे अन्दर जो ज्ञान है,उसे जगाने के लिए ज्ञानी पुरुषों का हमारे साथ रहना आवश्यक है,इसीलिए तो गुरुओं की आवश्यकता होती है।यह संसार कभी भी आचार्यों से रहित नहीं हुआ है।दार्शनिकों का भी यही कथन है कि, सारा ज्ञान मनुष्य के भीतर विद्यमान है,उसपर ज्ञान के विकास के लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। गुरु के विना हम कोई ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं । 

 17-जैसा विचार वैसा लाभ-
        इसमें संदेह नहीं कि जैसा विचार करोगे वैसा ही बनोगे।यदि आप अपने को दीन-हीन या अयोग्य समझते हो तो फिर आप कुछ भी नहीं कर सकते है।और यदि आप कहते हैं कि मेरे अन्दर शक्ति है,मैं सबकुछ कर सकता हूं तो आपके अन्दर शक्ति जाग उठेगी,और फिर आप सबकुछ करने में समर्थ हो जायेंगे। आपको सदैव स्मरण रखना चाहिए कि हम सब उस परम पिता की संतानें हैंउसी अनंत ब्रह्मां की चिंगारियॉ हैं,इसलिए हम कुछ भी नहीं कैसे हो सकता है। हम सबकुछ कर सकते हैं। 

 18-शिक्षा कैसी हो-
        प्राचीन काल से शिक्षा के सम्बन्ध में अलग-अलग प्रकार के मत सामने आये हैं, लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि शिक्षा ऐसी हो जिससे जीवन की समस्या का हल हो सके। होता क्या है कि हम दूसरों की बातों को रटकर,मस्तिष्क में भरकर परीक्षा पास करके कहते हैं कि हम शिक्षित हो गये! इसी को हम शिक्षा कहते हैं। हमारी शिक्षा का उद्देश्य है एक क्लर्क बनना,वकील बनना, और अधिक हुआ तो डिप्टी मजिस्टेट की नौकरी! अच्छी बात है। लेकिन इससे तुम्हैं और देश को क्या लाभ हुआ? एक बार हमें आंख खोलकर देखना होगा-कि सोना पैदा करने वाली इस भारत भूमि में आज अनाज के लिए हाहाकार मचा हुआ है। क्या इस शिक्षा से उस अनाज की पूर्ति हो सकेगी कभी नहीं। शिक्षा तो वह है जो हमें उस अनाज को पैदा करने काढंग सिखाये, आधुनिक तकनीको से उत्पादन करना सिखाये, जो हमारे लिए महत्वपूर्ण है,जो हमारी और देश की पहली मॉग है। भागवत की कथा सुनाने कार्य तो उसके बाद है। 

 19-फूल की तरह सदा खिले रहें-
        अपने कर्म इस प्रकार करेंवकि जैसे आपको सौ वर्ष जीवित रहना हो, शुक्रिया इस प्रकार अदा करें कि कि जैसे आप कल मर जायेंगे ।रहस्य के प्रकट हो जाने पर दुखी मत होओ,बल्कि फूल की तरह सदा खिले रहो । इस बहुरूपी संसार में पद और प्रतिष्ठा,मान और मर्यादा सभी कुछ नष्ट होने वाले है।   \

20-धर्म के सम्बन्ध में विवाद न करें-
        धर्म को लेकर कभी विवाद न करें,धर्म सम्वन्धी विवाद और सारे झगडे केवल यही दर्शाते हैं कि वहॉ आध्यात्मिकता का अभाव है।धर्म ससम्बन्धी झगडे तो सदैव खोखली और अन्धविश्वास की बातों पर होते हैं।स्वयं पर विश्वास करें इस संसार में तो वही महान और शक्तिशाली बने हैं जिन्हैं अपने आप पर विश्वास था ।दर्शन के अभाव में तो धर्म केवल अंधविश्वास मात्र बनकर रह जाता है और धर्म का बहिष्कार करने पर दर्शन केवल शुष्क नास्तिकतावाद बना रहता है। 

 21-समझें कि दुनियॉ में आप विदेशी हैं-
          इस दुनायॉ में रहकर कार्य इस ढंग से करो कि कि मानो आप इस संसार में विदेशी हो,एक यात्री हों।सतत काम करो,लेकिन अपने को वन्धन में न जकडो,क्योंकि बंधन बडा भयानक है।सिद्धि चमत्कार के पीछे मत पडो।दूसरों की मुक्ति के लिए तुम्हैं नरक में भी जाना पडे तो सहर्ष जाओ, बदले में कुछ मत मॉगो,कुछ मत चाहो ,तुम्हैं जो देना हो दे दो वह तुम्हारे पास लौटकर आयेगा पर अभी उसकी बात मत सोचो । 

 22- डरो नही स्वयं को पहचानो-
        यदि तुम डरते हैं तो किससे? यदि तुम ईश्वर से डरते हैं तो तुम मूर्ख हो,यदि तुम मनुष्य से डरते हो तो तुम कायर हो।यदि तुम क्षिति,जल,पावक,गगन, समीर नामक पंच्चभूतों से डरते हो तो उनका सामना करो।यदि तुम अपने आप से डरते हो तो अपने को पहचानो और कहो कि मैं ही ब्रह्म हूं। डरें नहीं त्याग करें त्याग के सिवा इस संसार में कोई शक्ति नहीं है ।सबकुछ तुम्हारे भीतर है, अपने भीतर स्वर्ग के साम्राज्य का ताला खोलने के लिए ऊं की चाबी को काम में लाना चाहिए ।

 23-विघ्न पडने पर भी कार्य न छोडें-
        जो लोग तुच्छ प्रकृति के होते हैं वे भय के मारे कोई कार्य प्रारम्भ ही नहीं करते ,मध्यम श्रेणी के लोग कार्य को प्रारम्भ करके विघ्न पडने पर बीच में ही छोड देते हैं।किन्तु उत्तम लोग बार-बार विघ्न पडने पर भी आरम्भ किये हुये कार्य को बीच में ही नहीं छोडते हैं।बल्कि उसे पूरा करते हैं। 

 24-अपनी प्रशंसा सुनना अच्छा लगता है-
        अपनी प्रशंसा सुनकर हम इतने मतवाले हॉ जाते हैं कि हममें विवेक की शक्ति लुप्त हो जाती है।बडे से बडा महात्मा भी अपनी प्रशंसा सुनकर खुश हो जाते हैं।अगर आप देखें कि अपनी प्रशंसा से कोई यक्ति किस तरह प्रभावित होता है, तो आप उस व्यक्ति का चरित्र बता सकते हैं। 

 25-वैरागी मनुष्य सबको एक दृष्टि से देखता है-
        बैराग्य के बिना तो कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से अंतःकरण को परोपकार में नहीं लगा सकता ,वैरागी ही सबको समान रूप से देखता है और सबकी सेवा में अपने को लगा सकता है।मनुष्य की यह स्थिति वेदांत की शिक्षा ग्रहण करने पर प्राप्त होती है,जिसमें कि मनुष्य शोक,भय और चिन्ता से विमुक्त हो जाता है। समस्त विश्व ईश्वर से परिपूर्ण है,अपने नेत्र खोलो और उसे देखो ।सत्य के लिए तो सबकुछ त्यागा जा सकता है।

ज्ञान का सार है आचार

1-ज्ञान का सार है आचार ज्ञान का सार है आचार-


        वही ज्ञान उपयोगी होता है जो अहंकार न बढाये,जो बंधन न बने,जिससे स्व की विस्मृति न हो,जो संस्कार का शोधन करे, तथा मानसिक शॉति की ओर ले जाये। ज्ञान की उपयोगिता की चरम कसौटी है कि वह आत्मा की ओर ले जाये ,जो ज्ञान आत्मा से विमुख बनाता है उसे भारतीय मनीषा में अज्ञान कहा जैता है। ज्ञान का सार है आचार ,इसलिए वही ज्ञान उपयोगी है जो अहंकार न बढाये । 


 2- ज्ञान का दुरुपयोग विनाश और सदुपयोग विकास है-
        जिस प्रकार गंगा नदी के प्रवाह को, सुखाया नहीं जा सकता , केवल उस प्रवाह के मार्ग को बदला जा सकता है। उसी प्रकार ज्ञान के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता है,उसे पर हित के लिए उपयोग में लाया जा सकता है ।ज्ञान का दुरुपयोग होना विनाश है और ज्ञान का सदुपयोग करना ही विकास है,सुख है, उन्नति है।ज्ञान के सदुपयोग के लिए तो जागृति परम आवश्यक है । 


 3- आदर्श साहित्यकार की पहचान –
        आदर्श साहित्यकार वही है जो समाज की पीडा और सुख का अनुभव कर समाज के लिए रोता और हंसता है ।वह तो एक दिया है,जो जलकर केवल दूकरों को ही प्रकास देता है।जब साहित्यकार की भावना,ज्ञान और कर्म एक साथ मिलती हैं तो युग प्रवर्तक साहित्य का निर्माण होता है। किसी देश का साहित्य वहॉ की जनता की चित्त वृत्ति का द्योतक है। साहित्य तो आनंद देता है। ज्ञानराशि के संचित कोष का नाम ही साहित्य है, जिसका निर्माण साहित्यकार द्वारा किया जाता है । 


 4-वास्तविक सौन्दर्य ह्दय की पवित्रता में है-
        योग्य मनुष्यों के आचरण का सौन्दर्य ही उसका वास्तविक सौन्दर्य है,शारीरिक सौन्दर्य उसकी सुंदरता में किसी भी प्रकार की अभिवृद्धि नहीं करता। सुन्दर और कल्याणमय  के साथ यदि हम ह्दय की समीपता बढाते रहें तो संसार सत्य और पवित्रता की ओर अग्रसर होगा।अलंकार तो भावों का आवरण है और सुन्दरता को तो अलंकारों की जरूरत है ही नहीं। 


 5- शंका जीवन का विश है-
        आदमी के लिए विश्वास ही सबकुछ है,जिसे अपने पर विश्वास नहीं, उसे भगवान पर भी विश्वास नहीं हो सकता । स्वयं को ईश्वर पर छोड देना ही विश्वास है। 


 6-आत्म साक्षात्कार का मूल्य समझें -
        आप एक सहजयोगी हैं तो आपको आत्म साक्षात्कार का मूल्य मालूम है,आप अपनी रक्षा स्वयं करते हैं। और आपकी पूरी तरह से रक्षा की जाती है,यह रक्षा आदि शक्ति करती है। लेकिन विश्व में एक विध्वंसक शक्ति भी कार्यरत है, यह आसुरी शक्ति नहीं बल्कि शिव की दिव्य विनाशात्मक शक्ति है।जब कार्य ठीक चलता है तो प्रशन्न होते हैं।परन्तु वे दूर बैठकर हर व्यक्ति को देख रहे हैं,यदि उन्हैं गडबड लगता है तो वे नियन्त्रित करते है, वे नष्ट करना प्रारम्भ करते है।प्राकृतिक विपत्तियॉ,जैसे भूचाल, भूकम्प,या तूफान आदि इसमें फिर आपकी कोई मदद नहीं यदि आप आत्म साक्षात्कारी हैं और आप लोगों को आत्म साक्षात्कार दें तो इन्हैं टाला जा सकता है। 

 7-शक्ति का अन्तिम निर्णय-
        अभी तक हम यह नहीं जानते कि मानव के इतिहास में यह अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा भयानकसमय है।अन्तिम निर्णय प्रारम्भ हो चुका है।आज हम अन्तिम निर्णय का सामना कर रहे हैं ।हमें इस बात का ज्ञान नहीं कि सभी शैतानी शक्तियॉ भेड की खाल पहने भेडिये आपको भ्रमित करने के लिए अवतरित हो गये हैं। आपको चाहिए कि बैठकर सच्चाई को पहचॉनें।परमात्मा तो करुंणॉमय है,दयालू है,उन्होंने हमें स्वयं को ज्ञान प्राप्त करने के लिए स्वतंत्रता दी है,परमात्मा ने तो हमें अमीबा से इस मानव तक विकसित किया है । चारों ओर इतने सुन्दर विश्व का सृजन किया है। लेकिन उनके निर्णय का हमें सामना करना होगा। परमात्मा निर्णय वैसा नहीं कि जैसा वह एक नायायाधीश की तरह बैठा हो और बारी-बारी से आपको बुलाये बल्कि परमात्मा ने आपकेअन्दर निर्णायक शक्तियॉ स्थापित कर दी हैं। आपका अकलन करने के लिए परमात्मा ने न्यायाधीशों का एक समूह दण्डाधिकारियों के रूप में आपके अन्दर बैठा दिया है। ये आपके मेरुरज्जु तथा आपके मस्तिष्क में बनाये गये चक्रों में ये विद्यमान हैं। 


 8-परमात्मा द्वारा आपका आंकलन-
         आपकी कुंण्डलिनी जागृति से किया जाता है।आपने कितनी गहनता प्राप्त की है,आपकी आध्यात्मिक प्रगति कितनी है,यही आंकलन का आधार है। जिस प्रकार एक बीज के दाने में अंकुरण होता है तो आप जान लेते हैं कि बीज अच्छा है या बुरा। उसी प्रकार जब आपका अंकुरण होता है तो आपको आगे का आध्यात्मिक भविष्य दिखाई देने लगता है। आप आत्म साक्षात्कार प्राप्त करते है,और आप उसे आगे कैसे बनाये रखते हैं, आप इसका सम्मान किस प्रकार करते हैं,उसी से आपका आंकलन किया जाता है, आपको जॉचने का यही तरीका है।आपका आंकलन आपके कपडों,आपका घर,आपको मिले पुरुष्कार से नहीं किया जायेगा या आपने कितना दान दिया या लोक हित के कार्य किये इससे आपका आंकलन नहीं होगा।बस कुंण्डिलिनी जागरण से ही आपको जॉचा जायेगा ।इसलिए इसे सत्यनिष्ठा से कार्यान्वित करना होगा।अपने मस्तिष्क पर इसे इस प्रकार छा जाने दें कि मस्तिष्क पूर्णतःआच्छादित हो जाय, इस शाश्वत आशीर्वाद को अपने अन्दर आने दें ।


 9- सहज योग उत्थान के लिए वरदान है-
        आप जिस ऊंचाई तक पहुंच रहे हैं उसकावलाभ आपको होना चाहिए।आपको सारे आशीर्वाद मिल रहे हैं- सौन्दर्य,प्रेम, आनन्द. ज्ञान, मित्र, तथा सुवुधा। आप चालाकी करते हैं तो आपको बाहर फेंक दिया जायेगा ।लेकिन आपकी मॉ की करुंणा इतनी महान है कि वे सदा क्षमा करने और आपको अवसर प्रदान करने के लिए प्रयत्नशील रहती है ।सारे देवताओं को जो आप से रूठ गये थे को शॉत करने का प्रयास करती रहती है, देवता एक सीमा तक मान भी जाते हैं। सहज योग दूसरे धर्मों की तरह नहीं है जहॉ कि आप गलती करते चले जाते हैं,मन मर्जी करते हैं,हत्या करते हैंऔर धोखा देते हैं लेकिन यहॉ तो आपको एक सहजयोगी होना पडेगा ।सहजयोग में आपको यह जानना होगा कि वास्तव में आपको समर्पित और ईमानदार होना पडेगा ।

चैतन्यमय जीवन

1-जीवन चैतन्यमय अवस्था का नाम है-


        सामान्यतः मनुष्य जीवन सुख या दुख भोग की अवस्था का नाम है ।यह सुख-दुख के आवरण से ढका हुआ है,लेकिन यह जीवन उसके परे चैतन्य अवस्था भी है।अतः चित्त और आनन्द या ज्ञान और भक्ति जीवन की साधारण सम्पत्ति है,इसके लिए खोज करने की आवश्यकता नहीं है बल्कि सुख-दुख के आवरण को भेदकर उससे ऊपर पहुंचकर प्राप्त किया जा सकता है। और फिर स्वयं यह चैतन्यमय स्वरूप स्वतः ही परिलक्षित होता है ।जिससे प्राप्त ज्ञान की अनुभूति से मनुष्य कृतार्थ होता है। 

2-जीवन का उद्धार-
        अगर आप देवी देवताओं में विश्वास करते हैं, और देवी देवताओं की पूजा से,आप पर प्रशन्न होकर दुनियॉ के लाखों देवी-देवता आपके उद्धार के लिए इकठ्ठाहो जॉय,लेकिन आपका उद्धार नहीं हो सकता है, जबतक कि आप अपने अज्ञानता को दूर करने के लिए कटिबद्ध नहीं हो जाते। इसलिए दूसरे पर भरोसा न करें, ईश्वर तो उन्हीं की रक्षा करता है जो स्वयं की रक्षा करता है । 


 
 3-जीवन का पहला पाठ-
        जीवन का पहला पाठ- मनुष्य जीवन के पहले पाठ में यदि आप यह संकल्प कर लेते हैं कि आप किसी दूसरे को दोष नहीं दोगे और न कभी किसी को कोसोगे विश्वास के साथ जागृत स्थिति में स्वयं अपने आप को ही दोष दोगे तो एक अच्छे मनुष्य बन जाओगे। अपनी ओर ध्यान केन्द्रित करें। यह जीवन के पहले पाठ का सार है । 


 4-जीवन में दानी स्वभाव बनाइये-
        अपनी जिन्दगी को दानी बनायें । जो आपके पास उपयोगी है उसे दान कर दें। धन का नहीं ज्ञान का।दुख का नहीं सुख का। अशॉति का नहीं शॉति का। उदासी का नही प्रेम का दान करें आपको कुछ नहीं करना पडेगा। परमात्मा ने आपको बहुत प्रेम दिया है जितनां बॉटोगे उसके दस गुना मिलेगा। जो ज्ञान तथा प्रेम के रास्ते पर चलता है वह आनन्द,प्रेम और खुशी पाता है । 


 
 5-जीवन में दोस्त की उपयोगिता-
        दोस्त की एक ही राह है,खुद किसी का दोस्त बन जॉय। जिसने अपने दोस्त का काम करने का बीडा उठाया है, बह देर नहीं किया करता। दोस्ती धीरे-धीरे पैदा करो, परन्तु जब कर लो तो उसमें दृढ रहो।सच्चे दोस्त तो वे हैं जिनकी देह दो और आत्मा एक होती है।दोस्ती खुशी को दूना करके और दुख को बॉटकर खुशी बढाती है तथा मुसीबत कम करती है। 


 
 6-ज्ञानी तथा विद्वानों में भेद-
        ज्ञानी वह है जो अपने को जानता हो ।और विद्वान वह है जो दूसरों को जानता हो। इस संसार में विद्वानों की संख्या बढती जा रही है, जो कि खु बात है मगर खेद की बात है कि ज्ञानियों की संख्या कम होती जा रही है,क्योंकि आज देखा जाता है कि अपने सम्बन्ध में बढता हुआ अनाडीपन मनुष्य को जटिल उलझनों में तथा समाज को कठिन समस्याओं में जकडता हुआ चला जा रहा है। और जिस समाज में ज्ञानी पुरुषों की संख्या जितनी अधिक होती है वह समाज उतना ही अधिक आदर्श माना जाता है 


 
 7-झूठ बोलने वाले लोग सत्य का पाठ अधिक पढाते है -
        आपने आदर्शों में यही सुना होगा कि,सत्य बोलना चाहिए लेकिन कुछ लोग बेइमानी की सफलता के लिए सत्य बोलते हैं वे भी दूसरों को समझाते रहते हैं कि सत्य बोलना चाहिए झूठ बोलना पाप है वे लोग यह जानते हैं कि वे दूसरों के लिए ठीक हैं क्योंकि अगर सारी दुनियॉ झूठ बोलने लगेगी तोझूठ बिल्कुल व्यर्थ हो जायेगा।और मैं केसे झूठ बोल सकूंगा,क्योंकि बेइमानी की सफलता के लिए ईमानदारों का होना भी आवश्यक है।अगर यहॉ बैठे सब लोग जेब कतरे हैं तो जेब नहीं कट सकती जेब तो तभी कट सकती है जब कोईजेबकट यहॉ न बैठा हो और यहॉ पर जेबकतरा भी यही समझाता है कि जेब काटना बुरा है।ऎसे लोगों से सावधान रहें ये लोग समाज के दुश्मन हैं । 


 8-जीवन में श्रद्धा भाव-
        श्रद्धा का अर्थ है आत्मविश्वास और और आत्मविश्वास का अर्थ है ईश्वर पर विश्वास। बुद्धि में सद्विचार रखना श्रद्धा है।श्रद्धा तो मनुष्य को शॉति देता है और जीवन को सार्थक बनाती है। श्रद्धा तो हमारे आदर्श की बाहरी रेखा है। सबकी श्रद्धा अपने स्वभाव का अनुशरण करती है।मनुष्य में तो कुछ न कुछ श्रद्धा होती है। जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह वैसा ही होता है। 


 
 9-जो सामने है वही सच है-
        मनुष्य जीवन तो जो आज और अभी है उसे कभी अतीत या भविष्य में न देखें, जिसने जीवन को अतीत या भविष्य में देखा उसने तो जीवन जाना ही नहीं। ध्यान रखें कि जो सामने है वही सच है इसके बाद जोकुछ भी है वह सिर्फ सम्भावना है । ज्ञान और अज्ञानता की अनुभूति करें- इस संसार में आप जबतक ईश्वर की प्राप्ति के लिेए इधर-उधर भटकते रहेंगे और आप यह महशूस करते रहेंगे कि ईश्वर हम से दूर है, तो समझना चाहिए कि आप अज्ञानी हैं ।आपके ऊपर अज्ञानता रूपी अंधेरे की काली छाया है। लेकिन जब आप अपने अन्दर ईश्वर की अनुभूति करते हैं तोसमझो आपके अन्दर यथार्थ ज्ञान का उदय हो चुका है। और यदि आप उस ईश्वर को अपने ह्दय रूपी मन्दिर में देखते है तो फिर आपको पूरे जगत मन्दिर में ईश्वर दिखने लगेगा। 


 10-ज्ञान की महिमा-
        ज्ञान सबकी व्यक्तिगत चेतना है, जिससे वह सत्य को देख सकता हैं,अज्ञानी नहीं। अपनी अज्ञानता का आभास जब होने लगता है तो ज्ञान का प्रथम चरण प्रारम्भ हो जाता है। ईश्वर का भय ही ज्ञान का प्रथम चरण है। ज्ञानी स्वयं को जानता है जबकि विद्वान दूसरों को जानता है। ज्ञान सच्चाई में ही पाया जाता है ।उडने की अपेक्षा झुकने का ज्ञान हमारे ज्यादा नजदीक होता है। ज्ञानी तो जगत का यथार्थ रूप जान सकता है। जो ज्ञानियों के साथ चलता है वह अवश्य ज्ञानी हो जाता है।ज्ञानी तो हर वात की अपने से आशा रखता है, जबकि मूर्ख दूसरों की ओर ताकता है। ज्ञानी वर्तमान को ठीक पढ सकता हैऔर परिस्थिति के अनुसार चल सकता है । ज्ञान से तो ही मुक्ति होती है।ज्ञान की बातें सुनकर जो उनपर अमल करता है, उसी के ह्दय में ज्ञान की ज्योति प्रकट होती है। ज्ञान का अन्तिम लक्ष्य चरित्र निर्माण करना होना चाहिए। ज्ञान से मन को शुद्ध होता है।क्रिया के बिना तो ज्ञान एक भार है । ज्ञान से मुक्ति होती है,यथार्थ मुक्ति का कारण भी यथार्थ ज्ञान ही है । कोई भी ज्ञानी पाप नहीं कर सकता।

जीवन का संचार सहजयोग


1- सहजयोग कर्मकाण्डों के विरुद्ध है-
        अगर हम अपने अहंकार को कम करने की कोशिश करते हैं तो अहंकार बढेगा क्योंकि हम अहंकार से ही कोशिश करते हैं।जो लोग सोचते हैं कि हम अपने अहंकार को दबा लेंगे,हर तरह के प्रयोग करते हैं,लेकिन इससे अहंकार नष्ट नहीं होता है बल्कि बढता है क्योंकि अग्नि दायें तरफ है।जो भी कर्मकाण्ड हम करते हैं,उससे अहंकार बढता है,हवन से भी अहंकार बढता हैक्योंकि अग्नि दायें तरफ है।जो भी कर्मकाण्ड हम करते हैं उससे अहंकार बढता है,और हम सोचते हैं कि हम ठीक हैं।हजारों वर्षों से कर्म काण्ड होते आये हैं,लेकिन सहजयोग कर्मकाण्ड का विरोधी है,कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं है ।

2-श्रीकृष्ण ने जीवन को लीला माना-
        श्री कृष्ण के अवतरण से विचारों में एक नयॉ परिवर्तन आया कि यह सब खेल है,परन्तु इसमें लिप्त रहने के कारण हम इस खेल को नहीं देख सकते हैं।लेकिन यदि हम उन्नत होते हैं तो यह हमें सिर्फ खेल के रूप में दिखाई देगा । जैसे पानी में रहकर आपको डर लगता है लेकिन जब नाव में बैठ जाते हैं तो वहॉ से पानी देख सकते हो और यदि तैरना आता है तो अन्य लोगों को भी डूबने से बचा सकते हो ।श्री कृष्ण कहते हैं कि आप साक्षी भाव को विकसित करें,साक्षी स्वरूप बन जायें , तब सारी चीजों को आप नाटक के रूप में देखेंगे।तब कोई भी चीज आपको प्रभावित नहीं करेगी।किसी भी चीज की आपको चिन्ता नहीं होगी,समस्या को तो आप देखेंगे, परन्तु आप उससे ऊपर हैं इसलिए आप इन्हैं हल कर सकते हैं ,ये उनका महान अवतरण था,जिसमें उन्होंने उत्क्रॉति की ओर पहला कदम सिखाया कि आपको साक्षी बनना है।आपको साक्षी बनना है ।


3–“ध्यान किया नहीं जाता है बल्कि ध्यान में होते हैं -“
        आप कहते हैं कि हम ध्यान कर रहे थे तो यह वाक्य उपयुक्त नहीं है क्योंकि ध्यान किया नहीं जाता है यह अर्थहीन है । बल्कि ध्यान में हो सकते हैं ।आप या तो घर के अन्दर होते हैं या बाहर तो यह नहीं कहते हैं कि मैं घर के अन्दर हूं,लेकिन जब आप अपने अन्दर होते हैं तो निर्विचार चेतना में होते हैं,तब आप वहीं नहीं होते हैं, सर्वत्र होते हैं, क्योंकि यही वह स्थान है,यही वह विन्दु है जहॉ आप वास्तव में ब्रह्मॉण्डीय अस्तित्व में होते हैं।वहॉ से आप तत्व से,शक्ति से,उस शक्ति से जो जर्रे-जर्रे में प्रवेश कर सकती है,चलते हुये ,हर विचार से,हर योजना से और पूरे विश्व की सोच से जुडे हुये होते हैं ।आप उन सभी तत्वों में प्रवेश कर जाते हैं जिनसे इस सुन्दर पृथ्वी का सृजन हुआ।आप पृथ्वी में प्रवेश कर जाते हैं,आकाश में प्रवेश कर जाते हैं,तेज में और ध्वनि में प्रवेश कर जाते हैं,परन्तु आपकी गति अत्यन्त धीमी होती है।तब आप कहते हैं कि मैं ध्यान कर रहा हूं,अर्थात आप ब्रह्मांडीय अस्तित्व में प्रवेश करते हुये चल रहे हैं। परन्तु आप स्वयं नहीं चल रहे होते हैं । और जो चीजें आपको चलने में वाधा पहुंचाती है उनके बोझ से मुक्त होने में,अपना बोझ उतारने में लगे होते हैं ।

 
4-सिद्धॉत की निर्वलता ही अशॉति का कारण है-
        हम चाहते हैं कि किसी प्रकार संतुष्ट होकर शॉति जैसी दैवी सम्पदा का सुख हम प्राप्त कर सकते हैं।लेकिन शॉति-शॉति चिल्लाकर हमारी मायावी प्रगति हमें शॉति से दूर ले जाती है ।यदि प्रगति इसी प्रकार होती रही तो शॉति सदा के लिए हमसे अलग हो जायेगी ।आज हर क्षेत्र में शॉति-शॉति की व्यापक पुकार है चाहे राजनीति में हो या सामाज,या साहित्य में,सभी जगह उथल-पुथल है।सभी जानते हैं कि भौतिक वाद से शॉति प्राप्त होने वाली नहीं है लेकिन फिर भी भौतिकवाद को अपनाये हुये हैं ।आज के भोगवाद में खाओ-पिओ,मौज मनाओ एक सभ्य व्यक्ति का सिद्धांत बन चुका है ,वह अधिक से अधिक सॉसारिक सुख चाहता है,खाने-पीने के पश्चात वासना के सुख लूटता है,लेकिन फिर भी खोया–खोया सा रहता है,कुछ स्थान खाली-खालीसा है। फिर वह इस जगत से वैराग्य स्थापित की सोचता है,क्योंकि उच्च आध्यात्मिक जीवन सॉसारिक भोग पदार्थों से ऊपर है ।जिसमें भोग वाद के स्थान पर त्याग की महत्ता है,अपने सुख के स्थान पर दूसरे को सुखी करने की भावना है,देने की भावना है,यही आदर्श इस खोखलेपन को दूर करने का एक उपाय है ।


5–आत्म निर्माण कैसे करें-
        अपने स्वभाव या चरित्र की त्रुटियों को दूर करना तथा निर्भयता,सत्यता,प्रेम,पवित्रता,प्रशन्नताता तथा सबमें आत्मभाव देखना, अपने को शरीर नहीं आत्मा समझना और तदनुकूल उच्च देवोचित आचरण करना,अपनी शारीरिक,मानसिक,आर्थिक,सामाजिक,,नैतिक तथा आध्यात्मिक स्थिति को ऊंचा उठाना और अपने को एक आदर्श नागरिक बनाना आत्म निर्माण है ।आत्म निर्माण एक लम्बी योजना है जिसका उद्देश्य उत्तरोत्तर अभिबृद्धि करना है। यह एक जीवन दर्शन है,जो कि आशावादी दृष्टकोण द्वारा हमेशा ऊंचा उठने,सर्वांगींण विकास में विश्वास करता है ।यह निरन्तर आगे बढने की यात्रा है,इसमें ठहराव नहीं है,उत्तरोत्तर प्रगति है।आत्मविश्वासी शक्ति और प्रतिभा का निर्माण कर सकता है ।अच्छे का निर्माण और बुरे का ध्वंश- यही शक्ति का सदुपयोग कहलाता है।प्रत्येक नव प्रभात एक नयी उन्नति की सम्भानायें लाने वाला है।

 
6-आत्म निर्माण के साधन-
        आत्मनिर्माण के साधनों को निम्न भागों में विभाजित किया जा सकताहैः-पहला-मानव शरीर की पूर्णता तथा निरोगता द्वारा ।-दूसरा-अपनी भावनाओं पर विजय प्राप्त करके ।–तीसरा-बुद्धि का विकास ।चौथा-आत्म ज्ञान ।व्यक्तित्व के इन चारों पक्षों का उत्तरोत्तर विकास होना चाहिए ।शरीर एक साधन है जिसके द्वारा आत्मउन्नति होती है,इसलिए शरीर को चाहिए कि वह रोगों को उसी प्रकार त्याग दें जैसे हम मन से अपवित्रता दूर करते हैं ।इस शरीर को निर्विकार,स्वस्थ,सशक्त रखकर ही हम इस दिशा में आगे बढ सकते हैं ।हमारे प्राचीन योगियों ने शरीर को परमेश्वर का पवित्र मंदिर माना है।इस शरीर की रक्षा हेतु हमारा कर्तव्य है कि हम परिश्रम करें ।व्यायाम करें,पवित्र जलवायु में निवास करें ,शुद्ध दूध,छॉछ,फलों का रस,पौष्टिक भोजन,अधिक मात्रा में लेने चाहिए ।सात्विक पदार्थों को ग्रहण करें। अनिष्ठकारी व्यसन जैसे-धूम्रपान,मद्यपान, आदि से बचें,संयम रखें। उपवास,अल्पाहार,या रसाहार द्वारा हमें अन्तरंग शुद्धि करनी चाहिए ।प्रकृति के मार्ग पर चलकर शरीर को निर्विकार अवस्था में रख सकते हैं ।

 
7-अपने मनोभावनाओं पर विजय प्राप्त करें-
        यह आत्म विकास का महत्वपूर्ण साधन है।हमारी मनोभावनायें दो प्रकार की होती हैं-1-कुप्रवृत्तियॉ-इसमें हमारी वासना,क्रोध,घृणा,द्वेष,लोभ,ईर्ष्या,निराशा आदि भावनायें सम्मिलित हैं।सतत् प्रयत्न और अभ्यास से इन अनिष्ठकारी प्रवृतियों का दमन करना चाहिए। 2-सद्वृत्तियों का विकास-कुप्रवृतियों से मुक्ति का सरल उपाय सद्वृत्तियों का विकास करना है इससे अनिष्ठभाव स्वयं दूर हो जायेंगे ।प्रकाश के सम्मुख अन्धकार कैसे टिक सकता है ।जैसे-जैसे हम अपने तुच्छ अहं से मुक्त होते जाते हैं वैसे ही हमारे अंदर एक प्रकाशमय बलशाली  चेतना का विकास होता जाता है । 

 
8-अपनी बुद्धि का विकास करें-
        अपनी दुद्धि के बल पर मनुष्य अन्य प्राणियों से उच्च स्तर पर है ।बुद्धि के विकास के लिए सतत् प्रयत्न करते रहो,ज्ञान की पिपासा उत्तरोत्तर बढती रहनी चाहिए, बुद्धि के विकास के दो साधन हैं- अध्यन करना और महॉपुरुषों का सत्संग करना।हमेशा उच्चकोटि की पुस्तकें समीप रखकर मनुष्य विद्वानों के साथ रहता है,जो दिन-रात उसे कुछ न कुछ ज्ञान देते रहते हैं। स्वयं विचार और चिंतन करो ।अपनी भूलों से लाभ उठओ ।प्रत्येक भूल हमारी शिक्षिका है।जो किसी न किसी दृष्टि से हमें ऊंचा उठाती है,हम जो कुछ पढते हैं उसे स्मरण रखें,इससे हम सम्मुन्नत बनते हैं ।


9-आत्मज्ञान का विकास करें-
        आत्म ज्ञान आत्म भाव से प्राप्त होता है। हम यह शरीर नहीं हैं,बल्कि हम आत्मा हैं जो अजर-अमर हैं। इस क्षंणभंगुर संसार में आत्मतत्व ही सत्य,स्थिर,और स्थाई है।दुखों की अनुभूति तो निम्नस्तर पर रहने वाले लोगों को होती है ।दुख भोग की क्षमता तो हमारे शरीर का प्रत्येक भाग रखता है लेकिन सच्चे आनंद का मार्ग केवल आत्मा ही है,आत्मज्ञान और आत्म सम्मान को प्राप्त करना तथा उसकी रक्षा करना मनुष्योंच्चित मार्ग अपनाना है।यह जीवन का सत्वगुणी विकासक्रम है। आत्म दृष्टि जागृत करते रहें,सबमें आत्मा के दर्शन करें ।सहयोग,प्रेम,आत्मीयता,संतोष,आनंद,एवं प्रशन्नता ऐसी दिव्य विभूतियॉ हैं जिनसे जीवन का सत्वगुणी क्रम ठीक रहता है। मैं पवित्र आत्मा हूं।इस महान सत्य को ह्दय में ग्रहण कीजिए और तदनुकूल आचरण करें ।जबतक अपना सुधार न हो जाय दूसरों को उपदेश देने की मूर्खता न करें,अपने निर्बलताओं पर प्रहार करें,जैसे कि कोमल शय्या पर कॉटे पडे हों और हमें खटकते हैं,और जबतक अन्हैं हटाया नहीं, कष्ट पहुंचाते रहते हैं,उसी प्रकार हमारे दुर्गुंण,व्यसन,चरित्र,और स्वभावगत दुर्वलतायें हमारे असंतोष के कारण हैं ।हमें अपनी इन्द्रियों को वश में करना है,शारीरिक वासनाओं की तृप्ति तो जीवन का निम्नकोटि का सुख है।खाओ-पिओ मौज उडाओ यह निम्नकोटि के व्यक्तियों का उद्देश्य होता है ,परमेश्वर की दुनियॉ में यह कलंक है।तुम्हारा मार्ग तो परमात्मा का दिव्य आदर्श मार्ग है।तुम्हैं अपनी पाश्विक वृत्तियों पर विजय प्राप्त करना है।जिस प्रकार एक राजा अपने अनिष्ठ तत्वों को मजबूती से दबाकर रखता है,उसी प्रकार तुम्हैं समस्त विषय वासनाओं पर कडा निग्रह एवं अनुशासन रखना होगा ।तुम अपने शरीर के स्वामी बनो,अपने विवेक से अपनी आसुरी प्रवृतियों को काबू में रखो ।देवत्व की शक्तियों को फैलाओ ।दैवत्व का विकास करते करते चलो। तुम दैवत्व के अंश हो, उसी का विकास तुम्हारा सच्चा विकास है ।देवता बनो और ऊंचे उठो।


10- सत् से सुख उपजता है-
        हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि ‘सत्वं सुखे संज्जयति’ अर्थात सत् से सुख उपजता है।यदि आप जीवन के उच्चतम् लाभ को प्राप्त करना चाहते हैं तो वह वाह्य जगत में नहीं है,अन्तर्जगत में प्राप्त होगा ।स्वर्ग,भावनाओं –जैसे काम,क्रोध,मोह,इच्छा,तृष्णा आदि से दूर रहना। जो व्यक्ति इन वासनाओं का दास है, वह नरक की यातनाएं भुगत रहा है।संसार की वस्तुओं से मनुष्य को कोई स्थाई सुख प्राप्त नहीं होता ।थोडी देर बाद पुनः दूसरी वस्तु की ओर मन तेजी से भागता है,एक इच्छा की पूर्ति से हजार नईं इच्छायें जन्म लेती हैं।इच्छा और वासनाओं क चक्र निरन्तर चलता रहता है। जो व्यक्ति भोग मार्ग को तिलॉजलि देता है वह संसार के सबसे बडे खेद को पार करताहै।मस्तिष्क में निर्बलता,चिडचिडापन,अनिद्रा,उद्वेग,अरुचि,भ्रम,व्याकुलता आदि दुष्ट भावनायें के कारण ही तो उत्पन्न होती हैं।अहितकर सॉसारिक भोगमार्ग को त्यागकर सत् मार्ग पर अग्रसर होना स्वर्ग की ओर यात्रा प्रारम्भ करना है ।


11-परमपद प्राप्त करें-
        परमपद आत्मविकास का वह स्तर है,जिसमें मनुष्य संसार में रहकर भी जल में कमलवत् संसार के क्षणिक प्रलोभनों ,कष्टों,मोह,चिन्ताओं से ऊपर रहता है। मन के विकारों की आंधी आती है जो ऊपर से निकल जाती है।रुपये पैसों के मोह आते हैं मगर परम पद् प्राप्त व्यक्ति विचलित नहीं होते ।समुद्रों में जहाजों को उचित मार्ग निर्देशन के लिए प्रकाश स्तम्भ बनाये जाते हैं,विद्वानों के उपदेश ऐसे ही प्रकाश स्तम्भ हैं।ऐसा नहीं कि आंख मूंदकर इन्हैं ग्रहण करें बल्कि तर्क और अपनी बुद्धि से प्रयोग में लें।सत्य और न्याय का पथ इनसे स्पष्ट हो जाता है ।आपको कोई दूसरा अच्छी सलाह दे,उसको सुनना आपका कर्तव्य है, मगर आप अपनी आत्मा की सलाह से काम करते रहें कभी धोखा नहीं खाओगे । 


12-सदुपदेश सुनना शुभ सात्विक वातावरण निर्मित करना है-
        जिन्होंने अच्छे उपदेश सुने हैं वे देवतास्वरूप हैं। क्योंकि मनुष्य की प्रवृत्ति अच्छाई की ओर होती है,तभी वह सदुपदेशों को पसन्द करता है,तभी सत्संग में बैठता है,तभी मन में और अपने चारों ओर बैसा शुभ सात्विक वातावरण निर्मित करता है। किसी विचार के सुनने का तात्पर्य चुपचाप अन्तःकरण द्वारा उसमें रमण करनाहै। जो जैसा सुनता है,कालॉतर में बैसा ही बन जाता है।आज आप जिन उपदेशों को ध्यापूर्वक सुन रहे हैं कल निश्चय ही बैसे ही बन जाओगे ।सुनने का तात्पर्य अपनी मानसिक प्रवृतियों को देवत्व की ओर मोडना है ।एक विद्वान ने कहा है कि “जल जैसी जमीन पर बहता है उसका गुण बैसा ही बदल जाता है”इसी प्रकार मनुष्य का स्वभाव भी अच्छे –बुरे लोगों या विचारों के संग के अनुसार बदल जाता हैं।चतुर मनुष्य इसीलिए बुरे लोगों का संग करने से डरते हैं,मूर्ख तो बुरे लोगों से घुल-मिल जाते हैं।आदमी का घर चाहे जहॉ हो पर वास्तव मेंउसका निवास स्थान वह है जहॉ वह उठता-बैठता है,और जिन लोगों के विचारों का संग उसे पसन्द है।आत्मा की पवित्रता तो मनुष्य के कार्यों पर निर्भर है और उसके कार्य संगति पर निर्भर है।बुरे लोगों के साथ रहने वाला अच्छा काम करे यह बहुत कठिन है।धर्म से तो स्वर्ग की प्राप्ति होती है,किन्तु धर्माचरण करने की बुद्धि सत्संग या सदुपदेशों से ही प्राप्त होती है।स्मरण रखें कुसंग से बढकर कोई हानिकारक वस्तु नहीं है और संगति से बढकर कोई लाभ नहीं है।

13-यदि जीवन एक प्रश्न है तो मृत्यु उसका उत्तर-
        मृत्यु से डरने की आवस्यकता नहीं है,क्योंकि यह एक अनिवार्य स्थिति है।जितने श्वास आपको मिले हैं,उनसे एक भी अधिक मिलने वाला नहीं है।इसलिए मृत्यु की अनिवार्यता को समझते हुये जो भी महत्वपूर्ण कार्य आपको करने हैं,शीघ्र ही कर लेने चाहिए-कबीरदास जी ने सत्य ही लिखा है –कि मनुष्य जीवन एक पानी के बुलबुले के समान क्षणिक है।जैसे प्रभात होते ही सारे तारे छिप जाते हैं, वैसे ही क्षण मात्र में जीवन का अंत हो जायेगा । मृत्यु कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो औरों पर न आई हो और केवल मात्र हमी पर आ पडने वाली हो,कोई भी चाहे वैद्य,रोगी,यति,-ज्ञानी,महात्मा, विद्वान,मूर्ख सभी मृत्यु के मार्ग से गये हैं।धन इत्यादि कुछ भी साथ नहीं गया ।और जब मृत्यु का बुलावा आता है तो कोई भी उसे नहीं रोक सकता ।अर्थात नश्वर शरीर के लिए रोना वृथा है।यह तो हाड, मॉस,रक्त,मज्जा,इत्यादि निर्जीव पदार्थों का बना एक ढॉचा मात्र है ।मरने के बाद यह शरीर मिट्टी के रूप में ज्यों की त्यों पडी रहती है।वास्तविक वस्तु तो आत्मा है।जो अजर अमर है। उसका नाश नहीं होता ।और उसे हम कहते हैं वह वस्तु शरीर नहीं वह अजर -अमर आत्मा है ।शरीर छोड देने के बाद भी आत्मा ज्यों का त्यों जीवित रहता है, फिर जो जीवित है उसके लिए शोक करने से क्या प्रयोजन ?भगवान ने गीता में कहा है कि-जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है,वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नये शरीर को प्राप्त होता है ।।