Thursday, August 9, 2012

ज्ञान ही ज्ञान को जगाता है

1- अन्धकार में हम कहॉ से कहॉ पहुंच जाते हैं-

        मानसिक पापों का परित्याग करें, मन में जमी हुई यह वासना ही हमसे दुष्कर्म कराती है। पाप का प्रधान कारण आत्मज्ञान का अभाव है।हम प्रायः मोह और आलस्य की निद्रा में पडे रहते हैं।आलस्य में रहकर हमें सुख मिलता दिखाई देता है,लेकिन उसका फल हमेशा दुःख होता है।हमें अपनी कमजोरियों का ज्ञान नहीं होता है।जो आदमी गलती करता है उसे यह ज्ञात नहीं होता है कि वह गलत राह पर है,अन्धकार ही अन्धकार में वह कहॉ से कहॉ पहुंच जाता है।अन्त में किसी भावशिला पर टकराकर उसे अपनी गलती का आभास होता है,उसके ज्ञान चक्षु एकाएक खुल जाते हैं बस वहीं से वास्तविक आत्मिक उन्नति का सुप्रभात प्रारम्भ होता है।। 

 2-ज्ञान के नेत्र हमें दुर्वलता से परिचित कराते हैं-
        ज्ञान के नेत्र तो हमें अपनी दुर्वलता से परिचित कराने आते हैं,जब ज्ञान के नेत्र खुलते हैं तो हमें को अपनी दुर्वलता के दर्शन होते हैं। जब तक इन इन्द्रियों से सुख दिखता है,तबतक आंखों पर परदा पडा हुआ मानना चाहिए।और जो अपनी दुर्वलता से परिचित हो जाता है,उसके लिए वह अपना सच्चा पश्चाताप कर उसे दूर करने की इच्छा और सतत् उद्योग प्रारम्भ कर देता है, उसकी उन्नति का आधा काम तो बन गया मानना चाहिए।दुर्वलता तो पाप का मूल है,इसका कारण अज्ञानता है। 

 3-ज्ञान के नेत्र-
         भक्त मीराबाई के ज्ञान के नेत्र इतनी जल्दी खुल गये थे कि उन्हैं अपने विवाह तथा दाम्पात्य जीवन के प्रति कुछ भी मोह नहीं हुआ।उनके सम्मुख नाना प्रकार के प्रलोभन और भयंकर यातनायें आयीं,किन्तु वे सभी को ज्ञान के नेत्रों से से निरखती रही। सॉसारिकता के असत्य व्यवहार को त्यागकर उन्होंने भक्ति का वह मार्ग अपनाया जो मुक्ति देने वाला था। उन्हैं ज्ञान के नेत्रों से यह दिखाई दिया कि कुविचार और कुकर्म ही दुख और अतृप्त का मूल है। 

 4-तिरस्कार से ज्ञान के नेत्र खुल गये -
        गोस्वामी तुलसीदास अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करते थे वासना और इन्द्रियों के मायाजाल ने उन्हैं बॉध रखा था,जितना ही वे इन्द्रिय सुख के मार्ग पर बढते गये,उतना ही उन्हैं उसकी आवश्यकता अधिकाधिक प्रतीत होती गई ।एक दिन नारी के ज्ञान ने उनके ज्ञान के नेत्र खोल दिये।उसकी पत्नी ने कहा -मेरे इस हाड -मॉस के नश्वर शरीर के प्रति जो मोह आपको है,यदि वही कहीं ईश्वर के प्रति होता तो आपकी मुक्ति हो जाती ।तुलसीदास जी इन कथनों को सोचते रहे ।चिंतन करते रहे।वे अंत में इस परिणाम पर पहुचे कि वास्तव में नारी का कथन सत्य है।आसक्ति से बढकर इस संसार में कोई दूसरा दुःख नहीं है।इन्द्रियों के विषयों में फंसे रहने से मनुष्य दुखी रहता है ।उनके ज्ञान के नेत्र खुल गये और अब दूसरा ही दृश्य था ।उन्होंने देखा कि वासना मनुष्य को पागल बना रही है।संसार भोगों की ओर तीव्रता से दौड रहा है।मनुष्य तो मन से ही संसार से बंधता है । 

5 -आंखें खोलकर देखो सबमें अपनी ही छवि है-
        सचमुच आंखें खोलकर देखोगे तो समस्त छवियों में तुम्हें अपनी ही छवि दिखाई देगी और यदि कान खोलकर सुनोगे तो समस्त ध्वनियों में तुम्हें अपनी ही ध्वनि सुनाई देगी।केवल एक वार यह हुआ जब मैं निर्वाक हो गया। वह तब जब एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा कि तुम कौन हो।  

6-ज्ञान वह है जो वर्तमान को ठीक ढंग से पढ-समझ सकें-
        ज्ञान जब इतना घमंडी बन जाय कि वह रो न सके, इतना गंभीर बन जाये कि हंस न सके और इतना आत्मकेन्द्रित बन जाए कि अपने सिवाय और किसी की चिन्ता न करे वह ज्ञान अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक होता है। इस ज्ञान की प्राप्ति करने की अपेक्षा अज्ञानता में विचरना श्रेयस्कर है।जो ज्ञान मन को शुद्ध करता है,वही ज्ञान है शेष सब अज्ञान है।ज्ञानी तो वह है जो वर्तमान को ठीक पढ सके और परिस्थिति के अनुसार चल सके।

 7-श्रेष्ठ पुरुषों का धन उसका मान है-
        जो लोग निम्न श्रेणी के होते हैं वे तो सिर्फ धन की कामना करते हैं,मध्यम श्रेणी के मनुष्य धन और मान दोनों की कामना करते हैं।लेकिन श्रेष्ठ पुरुष तो केवल मान की ही कामना करते हैं।मान ही श्रेष्ठ पुरुषों का धन है । 

 8-दुर्जन का विश्वास न करें-
        दुर्जन मीठा बोलें तब भी उस पर विश्वास न करें क्योंकि उसकी जबान पर शहद रहता है मगर दिल में जहर।इन दुर्जनों को अगर अच्छी शिक्षा भी दी जाय,तब भी वह साधु नहीं बन सकते है,ठीक उसी प्रकार जैसे नीम के पेड को यदि घी और दूध से सींचा जाय तब भी वह मधुर नहीं होता।ये दुर्जन अगर सौ बार भी तीर्थ स्नान भी करें फिर भी वे शुद्ध नही होते । 

 9-आध्यात्मिकता-
        यदि हम धर्म या सम्प्रदाय के झगडे की बात करते हैं तो यही प्रकट होता है कि यह आध्यात्मिकता नहीं है।धार्मिक बातें तो हमेशा धोखली बातों के लिए होती हैं। अगर पवित्रता न हो तो आध्यात्मिकता नष्ट हो जाती है। फलस्वरूप आत्मा नीरस हो जाती है, जिससे झगडे शुरू होने लगते हैं। सिद्धान्त,मत,सम्प्रदाय,चर्च,मन्दिर ये तो आध्यात्मिकता की तुलना में नगण्य हैं, इनकी तो आध्यात्मिकता से तुलना नहीं करनी चाहिए,जिस मनुष्य में आध्यात्मिकता जितनी अधिक उन्नत होगी, वह व्यक्ति अच्छाई की दृष्टि से उतना ही उधिक ऊंचा होगा। इसलिए सबसे पहले आध्यात्मिकता अर्जित करना होगा।इसे न भूलें ।धर्म का अर्थ शव्दों,नामों,सम्प्रदायों से नहीं, बल्कि यह एक आध्यात्मिक अनुभूति है। 

 10-आत्मविश्वास-
          आत्मविश्वास एक ऐसा आदर्श है जो कि हमारी सबसे अधिक सहायता कर सकता है। इस जगत में अगर देखें तो जितने भी दुःख और अशुभ हैं,आत्मविश्वास से अधिकॉश गायब हो सकते हैं। मानव जाति के इतिहास में देखें तो कोई भी महॉन प्रेरणॉ अगर सशक्त रही है तो वह आत्मविश्वास ही है। यह इस ज्ञान के साथ पैदा हुआ कि वे महॉन बनेंगे। फलस्वरूप वे महान भी बने। हमारे पूर्वजों में इसी दृढ आत्मविश्वास के कारण, वे सभ्यता की उच्च सीढी तक पहुंचे,लेकिन जिसदिन से हमारे पूर्वजों ने अपना आत्मविश्वास गंवाया, (आत्मविश्वास गवाने का मतलव ईश्वर में अविश्वास)तो उसी दिन से अवन्नति शुरू हो गई। इसलिए उठो! जागो तथा लक्ष्य प्राप्ति होने तक रुको मत।। 

 11-आत्मा के जीवन में ही आनन्द है-
        अगर आत्मा के जीवन में मुझे आनन्द नहीं मिलता है तो,क्या इन्द्रियों के जीवन में मै आनन्द पा सकूंगा? कभी नहीं !यदि मुझे अमृत नहीं मिलता है तो में गढ्ढे के पानी से प्यास बुझाऊं? सुख आदमी के सामने दुख का मुकुट पहनकर आता है,और जो उसका सामना करता है, उसे फिर दुख का भी सामना करना चाहिए !सुख और दुख तो दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।। 

 12-ज्ञान कॉण्ड-
        अगर ज्ञानकाण्ड के बारे में जानने की कोशिश करते हैं तो,ज्ञान ही हमें मुक्ति दे सकता है।मुक्ति हेतु पात्रता के लिए ज्ञानी होना चाहिए।स्वयं अपने को जानना पहला लक्ष्य है। जितना अच्छा दर्पण होता है,वह उतनी ही अच्छी प्रतिछाया प्रदान करता है। और मनुष्य सर्वोत्तम दर्पण है। वह जितना निर्मल होगा,उतनी ही स्वच्छता से ईश्वर को प्रतिबिम्बित कर सकेगा। मनुष्य तो देह से अपने को अभिन्न मानने की भूल करता है,और यह भूल माया से होती है। लेकिन जब मनुष्य पर्याप्त ठोकरें खा चुका होता है, तब वह मुक्ति प्राप्ति की इच्छा के प्रति जागृत होता है,और पार्थिव अस्तित्व से चक्र से बचने के साधनों को खोजता है यही खोज ज्ञान है। इससे वह जान लेता है कि वस्तुतः क्या है. फिर मुक्ति की प्राप्ति होती है। उसके बाद वह इस संसार को एक विशाल यंत्र के रूप में देखता है। उसके चक्रों के प्रति सावधानी रखता है। जिसमें कि वह मुक्त रहता है।मुक्त प्राणी को तो कौन शक्ति विवश कर सकती है ?वह हमेशा शुभ करता है,क्योंकि यह उसका स्वभाव बन चुका है। यह मुक्ति तो उसी के लिए है जो अपने अहं से ऊंचा उठ चुका होता है, यह ज्ञान से ही सम्भव है। 

 13-सत्य वह है जो शक्ति दे-
        जो कुछ भी हमें मानसिक,दैहिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्वल बनाये, उसे जहर के समान त्याग देना चाहिए,उसमें कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो शक्तिप्रद है,उसमें पवित्रता है,वह ज्ञान स्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, अन्दर के अंधेरे को दूर कर दे,ह्दय में स्फूर्ति भर दे।कोई भी उपदेश जो दुर्वलता की शिक्षा देता है,आपत्तिजनक है। जो भी आध्यात्मिक शिक्षा पाते हैं,उन्हैं यह अनुभव करना चाहिए कि- क्या उन्हैं इससे बल मिलता है,क्योंकि एकमात्र सत्य ही सबल करता है।एकमात्र सत्य ही प्रॉणप्रद है। बिना सत्य के हम अन्य किसी उपाय से शक्तिमान नहीं बन सकते हैं।इसलिए जो भी शिक्षा-प्रणाली मन तथा मस्तिष्क को दुर्वल करे, और मनुष्य को अन्धविश्वास से भरे,जिससे वह अन्धकार में टटोलता रहे, अन्धविश्वासपूर्ण बातों की खाक छानता रहे,वह प्रणॉली उपयुक्त नहीं है,निरर्थक है।इनसे उपकार नहीं हो सकता है। 

 14-रुचि के अनुरूप शिक्षा-
        हम देखते हैं कि मनुष्य का स्वभाव जन्म से भिन्न-भिन्न होता है, और यह स्वभाव उसके साथ हमेशा बना रहेगा। इसलिए मनुष्य को अपनी प्रकृत्ति का अनुशरण करना चाहिए। यदि मनुष्य को ऐसे गुरु मिल जॉय जो उसको उसी के भावों के अनुरूप मार्ग पर अग्रसर करने में सहायक हो तो फिर वह शिष्य उन्नति की ओर बढता है। इसी प्रकार आवश्यकता के अनुरूप उपदेशों में भी विविधता होनी चाहिए। और शिष्य की प्रवृत्ति के अनुसार उसे उपदेश भी दिया जाना चाहिए। ज्ञान की शिक्षा देने के लिए ज्ञानी होना पडेगा,और शिष्य की अवस्था के अनुरूप मन ही मन ठीक वहीं पहुंचना होगा। और दे्खना होगा कि-जैसे पौधे के लिए जल, मिट्टी, वायु आदि पदार्थों को जुटा देने पर,पौधा अपनी प्रकृति के नियमानुसार स्वयं ही आवश्यक पदार्थों को ग्रहण कर लेता है और विकसित होता जाता है,उसी प्रकार दूसरों की उन्नति के साधन एकत्र करके उनका हित करना चाहिए। अगर आप दूसरों की बातों से कुछ शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं,तो समक्झ लो कि पूर्वजन्म में तुम्हैं उस विषय की अनुभूति हुई थी, क्योंकि अनुभूति ही हमारा एकमात्र शिक्षक है। 

 15-विचारों में अद्भुत शक्ति पैदा करना सीखो-
        विचारों की शक्ति को कुछ ही लोग समझ पाते हैं।यदि कोई व्यक्ति किसी गुफा में जाकर,बन्द होकर उस निर्जन स्थान में एकाग्रचित्त किसी विषय पर गहन चिन्तन मनन करता है,और उसी का आजन्म मनन करता हुआ अपने शरीर को भी त्याग देता है,तो उसके विचार की तरंगें गुफा की दीवारों को भेदकर चारों ओर के परिवेश में फैल जाती है। और अन्त में वे तरंगें सारी मनुष्य जाति में प्रवेश कर जाती हैं।अर्थात विचारों में एक अद्भुत शक्ति होती है,इसलिए अपने विचारों को दूसरों में प्रचार करने के लिए जल्दवाजी नहीं करनी चाहिए। हमारे पास कुछ होना चाहिए जिसे हम दूसरों को दे सके। दूसरे मनुष्य में ज्ञान का प्रसार तो केवल वही कर सकता है,जिसके पास देने के लिए कुछ हो। क्योंकि शिक्षा देना केवल व्याख्यान देना नहीं है,इसका अर्थ है सम्प्रेषण -आदान-प्रदान। इसलिए सबसे पहले अपना चरित्र गठन करें। स्वयं में सत्य का ज्ञान होना चाहिए। फिर तुम औरों को सिखा सकते हो। कमल खिलता है तो मधुमक्खियॉ स्वयं ही उसके पास मधु लेने जाती हैं। तुम्हारे पास जब कमल रूपी कमल खिल जायेगा, तो सेकडों लोग तुम्हारे पास शिक्षा लेने आयेंगे। यही तो जीवन की महॉन शिक्षा है। 

 16-ज्ञान ही ज्ञान को जगाता है-
        अगर देखें तो हमारे भीतर सारा ज्ञान निहित है,लेकिन उसे दूसरे ज्ञान से जगाना होता है। भले ही जानने की शक्ति हमारे भीतर विद्यमान है।एक ज्ञान की शक्ति से दूसरे ज्ञान का विकास होता है। हमारे अन्दर जो ज्ञान है,उसे जगाने के लिए ज्ञानी पुरुषों का हमारे साथ रहना आवश्यक है,इसीलिए तो गुरुओं की आवश्यकता होती है।यह संसार कभी भी आचार्यों से रहित नहीं हुआ है।दार्शनिकों का भी यही कथन है कि, सारा ज्ञान मनुष्य के भीतर विद्यमान है,उसपर ज्ञान के विकास के लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। गुरु के विना हम कोई ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं । 

 17-जैसा विचार वैसा लाभ-
        इसमें संदेह नहीं कि जैसा विचार करोगे वैसा ही बनोगे।यदि आप अपने को दीन-हीन या अयोग्य समझते हो तो फिर आप कुछ भी नहीं कर सकते है।और यदि आप कहते हैं कि मेरे अन्दर शक्ति है,मैं सबकुछ कर सकता हूं तो आपके अन्दर शक्ति जाग उठेगी,और फिर आप सबकुछ करने में समर्थ हो जायेंगे। आपको सदैव स्मरण रखना चाहिए कि हम सब उस परम पिता की संतानें हैंउसी अनंत ब्रह्मां की चिंगारियॉ हैं,इसलिए हम कुछ भी नहीं कैसे हो सकता है। हम सबकुछ कर सकते हैं। 

 18-शिक्षा कैसी हो-
        प्राचीन काल से शिक्षा के सम्बन्ध में अलग-अलग प्रकार के मत सामने आये हैं, लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि शिक्षा ऐसी हो जिससे जीवन की समस्या का हल हो सके। होता क्या है कि हम दूसरों की बातों को रटकर,मस्तिष्क में भरकर परीक्षा पास करके कहते हैं कि हम शिक्षित हो गये! इसी को हम शिक्षा कहते हैं। हमारी शिक्षा का उद्देश्य है एक क्लर्क बनना,वकील बनना, और अधिक हुआ तो डिप्टी मजिस्टेट की नौकरी! अच्छी बात है। लेकिन इससे तुम्हैं और देश को क्या लाभ हुआ? एक बार हमें आंख खोलकर देखना होगा-कि सोना पैदा करने वाली इस भारत भूमि में आज अनाज के लिए हाहाकार मचा हुआ है। क्या इस शिक्षा से उस अनाज की पूर्ति हो सकेगी कभी नहीं। शिक्षा तो वह है जो हमें उस अनाज को पैदा करने काढंग सिखाये, आधुनिक तकनीको से उत्पादन करना सिखाये, जो हमारे लिए महत्वपूर्ण है,जो हमारी और देश की पहली मॉग है। भागवत की कथा सुनाने कार्य तो उसके बाद है। 

 19-फूल की तरह सदा खिले रहें-
        अपने कर्म इस प्रकार करेंवकि जैसे आपको सौ वर्ष जीवित रहना हो, शुक्रिया इस प्रकार अदा करें कि कि जैसे आप कल मर जायेंगे ।रहस्य के प्रकट हो जाने पर दुखी मत होओ,बल्कि फूल की तरह सदा खिले रहो । इस बहुरूपी संसार में पद और प्रतिष्ठा,मान और मर्यादा सभी कुछ नष्ट होने वाले है।   \

20-धर्म के सम्बन्ध में विवाद न करें-
        धर्म को लेकर कभी विवाद न करें,धर्म सम्वन्धी विवाद और सारे झगडे केवल यही दर्शाते हैं कि वहॉ आध्यात्मिकता का अभाव है।धर्म ससम्बन्धी झगडे तो सदैव खोखली और अन्धविश्वास की बातों पर होते हैं।स्वयं पर विश्वास करें इस संसार में तो वही महान और शक्तिशाली बने हैं जिन्हैं अपने आप पर विश्वास था ।दर्शन के अभाव में तो धर्म केवल अंधविश्वास मात्र बनकर रह जाता है और धर्म का बहिष्कार करने पर दर्शन केवल शुष्क नास्तिकतावाद बना रहता है। 

 21-समझें कि दुनियॉ में आप विदेशी हैं-
          इस दुनायॉ में रहकर कार्य इस ढंग से करो कि कि मानो आप इस संसार में विदेशी हो,एक यात्री हों।सतत काम करो,लेकिन अपने को वन्धन में न जकडो,क्योंकि बंधन बडा भयानक है।सिद्धि चमत्कार के पीछे मत पडो।दूसरों की मुक्ति के लिए तुम्हैं नरक में भी जाना पडे तो सहर्ष जाओ, बदले में कुछ मत मॉगो,कुछ मत चाहो ,तुम्हैं जो देना हो दे दो वह तुम्हारे पास लौटकर आयेगा पर अभी उसकी बात मत सोचो । 

 22- डरो नही स्वयं को पहचानो-
        यदि तुम डरते हैं तो किससे? यदि तुम ईश्वर से डरते हैं तो तुम मूर्ख हो,यदि तुम मनुष्य से डरते हो तो तुम कायर हो।यदि तुम क्षिति,जल,पावक,गगन, समीर नामक पंच्चभूतों से डरते हो तो उनका सामना करो।यदि तुम अपने आप से डरते हो तो अपने को पहचानो और कहो कि मैं ही ब्रह्म हूं। डरें नहीं त्याग करें त्याग के सिवा इस संसार में कोई शक्ति नहीं है ।सबकुछ तुम्हारे भीतर है, अपने भीतर स्वर्ग के साम्राज्य का ताला खोलने के लिए ऊं की चाबी को काम में लाना चाहिए ।

 23-विघ्न पडने पर भी कार्य न छोडें-
        जो लोग तुच्छ प्रकृति के होते हैं वे भय के मारे कोई कार्य प्रारम्भ ही नहीं करते ,मध्यम श्रेणी के लोग कार्य को प्रारम्भ करके विघ्न पडने पर बीच में ही छोड देते हैं।किन्तु उत्तम लोग बार-बार विघ्न पडने पर भी आरम्भ किये हुये कार्य को बीच में ही नहीं छोडते हैं।बल्कि उसे पूरा करते हैं। 

 24-अपनी प्रशंसा सुनना अच्छा लगता है-
        अपनी प्रशंसा सुनकर हम इतने मतवाले हॉ जाते हैं कि हममें विवेक की शक्ति लुप्त हो जाती है।बडे से बडा महात्मा भी अपनी प्रशंसा सुनकर खुश हो जाते हैं।अगर आप देखें कि अपनी प्रशंसा से कोई यक्ति किस तरह प्रभावित होता है, तो आप उस व्यक्ति का चरित्र बता सकते हैं। 

 25-वैरागी मनुष्य सबको एक दृष्टि से देखता है-
        बैराग्य के बिना तो कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से अंतःकरण को परोपकार में नहीं लगा सकता ,वैरागी ही सबको समान रूप से देखता है और सबकी सेवा में अपने को लगा सकता है।मनुष्य की यह स्थिति वेदांत की शिक्षा ग्रहण करने पर प्राप्त होती है,जिसमें कि मनुष्य शोक,भय और चिन्ता से विमुक्त हो जाता है। समस्त विश्व ईश्वर से परिपूर्ण है,अपने नेत्र खोलो और उसे देखो ।सत्य के लिए तो सबकुछ त्यागा जा सकता है।

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