“राखी मज़बूत करती है मर्यादाओं की डोर”
(Part:~2)
यदि ज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो रक्षाबंधन एक बहुत ही रहस्ययुक्त पर्व है। यदि इसकी पूरी जानकारी हो और ज्ञान-युक्त रीति से इस बंधन को निभाया जाए तो मनुष्य को मुक्ति और जीवन मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है।
इसके बारे में एक जगह यह भी वर्णन आता है कि जब असुरों से हारकर इंद्र ने अपना राज्य-भाग्य गंवा दिया था तो उसने भी इंद्राणी से यह रक्षाबंधन बंधवाया था और इसके फलस्वरूप उसने अपना खोया हुआ स्वराज्य पुनः प्राप्त कर लिया था।
इसी प्रकार, एक दूसरे आख्यान में यह वर्णन मिलता है कि यम ने भी अपनी बहन यमुना से यह रक्षाबंधन बंधवाया था और कहा था कि इस बंधन को बांधने वाले मनुष्य यमदूतों से छूट जाएंगे।
स्पष्ट है कि ऐसा रक्षाबंधन जिससे कि स्वर्ग का स्वराज्य प्राप्त हो अथवा मनुष्य यम के दंडों से बच जाए, पवित्रता का ही बंधन हो सकता है, अन्य कोई बंधन नहीं। अब प्रश्न उठता है कि इस त्योहार से इतनी बड़ी प्राप्ति कैसे होती है? इसका उत्तर हमें इस त्योहार के अन्यान्य नामों से ही मिल जाता है।
रक्षा बंधन को ‘विष तोड़क पर्व’ ‘पुण्य प्रदायक’ पर्व भी कहा जाता है, जो इसके अन्य- अन्य नाम हैं उससे यह सिद्ध होता है कि यह त्योहार रक्षा करने, पुण्य करने और विषय-विकारों की आदत को तोड़ने की प्रेरणा देने वाला त्योहार है।
सचमुच भारत-भूमि की मर्यादायें और यहाँ की रस्में एक बहुत ही गहरे दर्शन को स्वयं में छिपाये हुए है। यह स्वयं में एक जागृति का प्रतीक है और एक महान संस्कृति का द्योतक है
यह वृतांत विश्व ज्ञात है कि शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में जहां हर धर्म के प्रतिनिधि श्रोताओं को ‘प्रिय भाइयों’ कहकर संबोधित कर रहे थे, तब भारतीय संस्कृति और परम्परा के प्रतिनिधि स्वामी विवेककानंद ने सम्बोधन में कहा था- ‘प्रिय भाइयों और बहनों’ तब वहाँ का हाल (Hall) तालियों से गूंज उठा था और चहुं ओर से आवाज़ आई “वाह! वाह!”
क्योंकि निश्चय ही बहन और भाई के सम्बन्ध में जो स्नेह है, वह एक अपनी ही प्रकार का निर्मल स्नेह है जिसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं। इसमें एक विशेष प्रकार की आत्मीयता का भाव है, निकटता है और एक दूसरे के प्रति हित की भावना है।
“प्रिय बहनों और भाइयों”- इन शब्दों में वहाँ के विश्व धर्म सम्मेलन के श्रोताओं ने सब प्रकार के झगड़ों का हल निहित महसूस किया था। इन शब्दों ने ही भारतीय संस्कृति के झंडे को सबके समक्ष बुलंद किया था। परंतु स्नेह-सिक्त शब्दों में, जिनमें बड़े-बड़े दार्शनिकों ने गूढ़ दर्शनिकता पायी थी और धार्मिक नेताओं ने धर्म का सार पाया था।
बहन और भाई के निर्मल स्नेह का स्वरूप था, जो इस त्योहार का मूल था, वे अपने अनादि स्थान भारत से प्रायः लुप्त होते जा रहे हैं। अतः आज के संदर्भ में राखी की पुरानी रस्म की बजाय एक नए दृष्टिकोण से इस त्योहार को मनाने की ज़रूरत है।
दूसरे शब्दों में कहें, अर्थ-बोध के बिना राखी मनाने की बजाय अब राखी के मर्म को समझकर इसे मानते हुए, वातावरण को बदलने की आवश्यकता है। तभी इसकी सार्थकता सिद्ध होगी।