Thursday, April 9, 2015

अनमोल सफर

1-भावनाएं आध्यात्मिक जीवन का मार्ग है कमजोरी नहीं

           अकसर यह कहते सुना जाता है कि आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों के लिए भावनाएं एक बाधा है। तो क्या उस राह पर जाने से पहले से खुद को भाव-शून्य बनाना होगा? अगर किसी इंसान के अंदर कोई भावना ही नहीं है तो आप उसे इंसान नहीं कह सकते। जो लोग कहते हैं कि भावनाएं आध्यात्मिक उन्नति के रास्ते में बाधक हैं, इसका मतलव हुआ कि आपका मन और शरीर भी एक बाधा है।

          यह सच है कि आपका शरीर, मन, भावनाएं, और ऊर्जा ये तमाम चीजें या तो आपके जीवन में बाधा बन सकती हैं, या फिर यही चीजें जीवन में आगे बढऩे का सोपान भी बन सकती हैं। यह सब इस बात पर निर्भर है कि आप उनका इस्तेमाल किस तरह करते हैं। आपकी भावनाएं आपके मन में चल रहे विचारों से अलग नहीं होतीं। जैसा आप सोचते हैं, वैसा आप महसूस करते हैं। विचार शुष्क होते हैं और भावनाएं रसीली। आपको लगता है कि आपका मन भी एक समस्या है। नहीं, समस्या मन नहीं है।

          समस्या यह है कि आपको यह नहीं पता कि उसका इस्तेमाल कैसे करें। इसे ऐसे समझ सकते हैं। मैं जीवन को इस रूप में देखता हूं कि यहां क्या काम करना है और क्या नहीं। अगर आप लगातार नाराज हैं, कुंठित हैं, हताश हैं, नफरत से भरे हैं, तो क्या यह आपके लिए काम करेगा? नहीं। आपको गाड़ी चलाना नहीं आता और हमने आपको तेजी से चलने वाली एक कार दे दी। अब यह कार न सिर्फ आपकी जिंदगी के लिए एक समस्या हो गई, बल्कि दूसरों की जिंदगी के लिए भी, क्योंकि आपने कार चलाना नहीं सीखा। जाहिर है, समस्या की वजह मशीन नहीं है। मन आपके लिए समस्या बन गया है, क्योंकि आपने इसे संभालने का तरीका सीखने की कोई कोशिश नहीं की।

          मन और भावनाएं समस्या नहीं हैं। भावनाएं तो मानवीय जीवन का एक खूबसूरत पहलू हैं। अगर भावनाएं न हों तो लोग बदसूरत हो जाएं। हां, बस इतना है कि जब भावनाएं बेलगाम हो जाती हैं तो यह पागलपन कहलाता है। अगर आपके विचार बेकाबू हो जाते हैं, तो यह पागलपन है। पूरी दुनिया को या यूं कहें कि नब्बे फीसदी दुनिया को सिर्फ भक्ति और प्रेम सिखाया जाता है। भक्ति अपनी भावनाओं को खूबसूरत बनाने का एक तरीका है। मन और भावनाएं समस्या नहीं हैं।

          भावनाएं तो मानवीय जीवन का एक खूबसूरत पहलू हैं।ये भावनाएं बाधा नहीं हैं। मैं जीवन को इस रूप में देखता हूं कि यहां क्या काम करता है और क्या नहीं। अगर आप लगातार नाराज हैं, कुंठित हैं, हताश हैं, नफरत से भरे हैं, तो क्या यह आपके लिए काम करेगा? नहीं। लेकिन अगर आप अपनी भावनाओं को आनंद, दया और प्रेम से भरपूर बना लेते हैं तो यह आपके लिए जरूर काम करेगा। तो अहम बात यह है कि कौन सी चीज काम करती है। सवाल यही है कि कोई चीज काम करती है या नहीं।


2-कभी-कभी ब्रह्म भ्रम के रूप में दिखाई देता हैः

          जब हम ईश्वर या सत्य की बात करते हैं तो हम कई सारे विचारों, सिद्धांतों से खुद को जोड़ लेते हैं। लेकिन क्या हर बार हमारा यह जुड़ाव सही होता है? एक मामूली सा अंतर हमें ब्रह्म की जगह भ्रम से जोड़ सकता है। तो फिर कैसे परखें इस अंतर को? संस्कृति का मतलब है संपूर्ण सृष्टि के स्रोत के प्रति पूरा जुनून, आस-पास के सभी जीवों के प्रति असीम करुणा और खुद को लेकर पूरी तरह से अनासक्ति का भाव होना। संस्कृत भाषा में परम सत्य को ब्रह्म का नाम दिया गया है। ब्रह्म परम सत्य का साकार रूप है।

          इस परम संभावना को ग्रहण करने में अगर जरा सी चूक हो जाए, तो वह भ्रम की स्थिति बन जाती है। इसलिए कहा जाता है कि अज्ञानता और ज्ञान में बस जरा सा फर्क है। इस परम सत्य को पाने के नाम पर दुनिया में बहुत कुछ चलता रहता है। इसी वजह से इस धरती पर तमाम तरह के मूर्खों में से धार्मिक और आध्यात्मिक मूर्ख हमेशा आगे रहते हैं, क्योंकि उनको भगवान या फिर धर्मग्रंथों का पूरा समर्थन मिला होता है। आपकी मूर्खता पर अगर एक बार भगवान के नाम की मोहर लग गई, तो इसका कोई इलाज नहीं है।

          यह एक अजेय शत्रु की तरह है। लोग करोड़ों तरीकों से अपने अंदर के भ्रम को मजबूत किए जा रहे हैं और उनके जटिल विचार उनके विश्वास में तब्दील हो रहे हैं। दरअसल, सारी चीजें इसी सोच पर आकर खत्म हो जाती हैं कि मेरा यह मानना है और फिर इंसान सख्त बन जाता है, अडिय़ल हो जाता है, फिर आप उसे बदल नहीं सकते। इसलिए विचारों के भटकाव से बचने के लिए, अपनी राह पर बने रहने के लिए, किसी भी तरह के धोखे से बचने के लिए, आपमें एक खास तरह की अनासक्ति और निष्ठा होनी चाहिए। इसके लिए आपके अंदर एक सही तरह का माहौल बनाने में संस्कृति बड़ी मदद कर सकती है।

          संस्कृति का मतलब है संपूर्ण सृष्टि के स्रोत के प्रति पूरा जुनून, आस-पास के सभी जीवों के प्रति असीम करुणा और खुद को लेकर पूरी तरह से अनासक्ति का भाव होना। फिलहाल दुनिया में इन सबका उल्टा हो रहा है। लोगों में खुद के लिए पूरा जुनून, दूसरों के लिए अनासक्ति और ऊपर वाले से करुणा की उम्मीद करते हैं। यही फर्क है ब्रह्म और भ्रम में। बस थोड़ी सी चूक हुई और समस्या खड़ी हो गई। अगर आप अपने भीतर सही माहौल तैयार कर लेते हैं, तो आपको जो दीक्षा दी गई है और अभ्यास बताए गए हैं, वह चाहे कितने भी मामूली क्यों न हों, वो भी बेहतरीन तरीके से काम करेंगे। अगर यह माहौल नहीं बनेगा, तो सही चीजें भी बुरी होती जाएंगी। हो सकता है कि आप जो कर रहे हैं, वह बहुत अच्छा हो, लेकिन अगर माहौल सही नहीं है, तो सब व्यर्थ हो जाएगा। इसलिए सबसे ज्यादा जरूरी अपने अंदर सही माहौल को बनाना है।

          आपकी मूर्खता पर अगर एक बार भगवान के नाम की मोहर लग गई, तो इसका कोई इलाज नहीं है। यह एक अजेय शत्रु की तरह है। उस 'परम सत्य को पाने के लिए आपके पास लगन होनी चाहिए। करुणा का मतलब किसी भेदभाव का न होना है, इस भावना में चुनाव का विकल्प नहीं होता, जुनून में आपके पास चुनाव का विकल्प हो सकता है, लेकिन करुणा चुनाव नहीं कर सकती, यह अपने में सब कुछ शामिल करती है, और खुद के प्रति अनासक्त रहती है। इसे अपने अंदर लाना होगा। इसके बाद आध्यात्मिक प्रक्रिया बहुत आसान हो जाती है। असल में इंसान के विकास के लिए, उसके खिलने के लिए यह एक कुदरती प्रक्रिया है।

            अगर मिट्टी सही है और उसमें आपने बीज डाला है, तो उसमें अंकुर फूटना और फिर फूल आना बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन अगर मिट्टी सही नहीं है, तो फल लगना मुश्किल है। जैसे मिशिगन में सहजन उगाने की कोशिश की जाए। वहां आपको इसके लिए बड़ा कृत्रिम तरीका अपनाना पड़ेगा। लेकिन अगर आप इसे भारत में उगाते हैं, तो आप जहां भी इसका बीज डाल देंगे, वहां यह उग जाएगा, क्योंकि उसके लिए यहां सही वातावरण है। बस इतनी सी बात है। कुदरत की संपूर्णता को पाने के लिए वातावरण ही सबसे ज्यादा अहम होता है। परम सत्य को पाने की लगन, सबके लिए करुणा अगर आप इसे अपने अंदर ले आते हैं, तो आपका वातावरण पूरी तरह तैयार हो जाएगा।

          अब जो बीज आपके अंदर बोया जाएगा, कुदरती तरीके से उसमें अंकुर फूटेगा, वह बढ़ेगा और उसमें फूल आएगा और इसे कोई नहीं रोक पाएगा। अगर वातावरण ही सही नहीं होगा, तो इन सब के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी।


3-सपने में अपने संचित कर्म कब दिखने लगते हैं

              यह सपनों का तीसरा स्तर है। अगर आपको अपने जीवन में कोई बहुत अद्भुत अनुभव हुआ है, तो उसके बाद आपने अपने सपनों में बदलाव महसूस किया होगा। आपमें से जिन लोगों ने शांभवी, भाव स्पंदन, सम्यमा या किसी और तरह की दीक्षा का शक्तिशाली अनुभव किया होगा, उन्हें इन अनुभवों के बाद अपने सपनों के पैटर्न में बदलाव महसूस होगा।

          सपने किस तरह के और कितने आते हैं-इसमें एक बदलाव सा महसूस होता है। एक सशक्त अनुभव हो जाने के बाद सपने पहले से ज्यादा या कम, या किसी और तरह के हो सकते हैं। यहां एक सवाल जरूर मन में उठ सकता है कि सशक्त अनुभव का मतलब क्या है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि आपने किसी तरह से अपने अंदर की कुछ सीमाओं को पार कर लिया है।

          दरअसल, हमने अपनी सुरक्षा के लिए सीमाओं की कई परतें बना रखी है। क्योंकि अगर यादों की सभी गांठें एक साथ खुल जाएं कोई भी दिमाग इसे संभाल नहीं पाएगा और वह टूट जाएगा। चूंकि यादों के एक खास प्रकार के अवरोध को तोडक़र कोई शक्तिशाली अनुभव होता है, इसलिए इससे हमारे सपनों का पैटर्न बदल जाता है। इसके बाद यादों की जमा-पूंजी जो अब तक खर्च नहीं हो रही थी, वह भी खर्च होनी शुरु हो जाती है। यानी निष्क्रिय पड़ी यादें भी सक्रिय हो जाती हैं। इससे कई नई तरह की यादें बाहर आनी शुरू हो जाती हैं। कार्मिक तत्वों या यादों की इस जमा-पूंजी या भंडार को ही संचित कर्म कहते हैं। इनमें से कुछ यादें आपके जीवन में प्रवेश करती हैं।

          इसका मतलब यह है कि इस जीवन में आपके पास पिछले जीवन की तुलना में कुछ अधिक ही मौके होते हैं। अधिक अवसर मिलना आपके लिए अच्छी बात है, लेकिन अगर आप इससे अच्छी तरह नहीं निपटते, तो ये अधिक अवसर बहुत बड़ी समस्या बन जाते हैं। दरअसल इंसान को इतना अधिक संघर्ष इसीलिए करना पड़ता है, क्योंकि उसके पास दूसरे जीवों से अधिक अवसर हैं। अगर आप कोई अन्य जीव-जन्तु होते, तो सिर्फ खाते और सोते और मजे में रहते। तो जब बड़े मौके मिलते हैं और आप उनसे अच्छी तरह से निपट लेते हैं, तो यह बहुत अच्छी बात होगी, और अगर ऐसा नहीं करेंगे तो यह आपके लिए कष्टदायक साबित हो सकता है। वैसे अगर ये पीड़ादायक भी हैं, तो भी आखिरकार ये आपके लिए अच्छे हैं।

          अब हठ योग को ही लें। यह कष्टदायक तो है पर हम इसे करते हैं, क्योंकि दूरगामी नजरिये से यह हमारे लिए लाभदायक होता है। आपके अंदर की यादों के नए खजानों को खोलना आपके लिए कष्टदायक हो सकता है, क्योंकि तब आपका जीवन काफी तेजी से आगे बढऩे लगेगा। जिन चीजों को अगले जीवन में संभालना चाहिए, उन्हें आप इसी जीवन में संभालने की कोशिश करते है, क्योकि आप थोड़ी जल्दी में होते हैं। ऐसे में यह और जटिल हो जाता है। लेकिन अगर आप इसे सही तरीके से संभाल पाते हैं, तो यह आपके लिए बहुत अच्छा है।

          अगर यह आपसे नहीं संभलता है, तो अचानक आपको लगेगा कि आध्यात्मिक रास्ते पर कदम बढ़ाते ही इस जगत की हर चीज आपको हर दिशा से धक्के मार रही है। यह कुछ ऐसा ही है। क्योंकि आपने एक नए पहलू को खोल दिया है, जिसे आप संभाल नहीं पा रहे। यह उसी तरह है जैसे आप अगर दसवीं की परीक्षा, जिसे हमारी शिक्षा-पद्धति में एक मील का पत्थर माना जाता है, पास कर लेते हैं तो उससे आपकी स्थिति बेहतर नहीं हो जाती।

          अचानक ग्यारहवीं और बारहवीं की पढ़ाई आ जाती है जो पहले से कहीं अलग और मुश्किल होती है। सभी चीजें जैसे सिलेबस, विषय की जटिलता और जो कुछ भी आपको पढऩा है, सब कम से कम चार गुना अधिक हो जाता है। ऐसे में दिमाग में यह आ सकता है कि पास होना हमेशा ही अच्छा नहीं होता, लेकिन यह भी सच है कि अगर आप पास नहीं होंगे तो अगली कक्षा में नहीं जा सकते। अगर आप उसी जगह पर रह जाते हैं तो आपको एक तरह की जड़ता की स्थिति से जूझना पड़ेगा।

          अगर आप अगला कदम बढ़ाते हैं, तो एक बड़ी चुनौती से सामना होना तय है। उसी जगह पर रह जाने से जिंदगी आसान लगती है। अगला कदम बढ़ाने पर बड़ी चुनौती संभालनी पड़ती है। सपने के रूप में यह बिल्कुल अलग तरीके से प्रकट होता है। एक बार अगर संचित कर्म आपके सपनों में प्रकट होने लगते हैं, तो हमें कई तरह के अजीब से सपने आने शुरू हो जाते हैं। आप इनका कोई अर्थ नहीं निकाल सकते हैं। एक चीज यहां होती है तो दूसरी वहां, एक यह, तो दूसरी वह। कुछ भी लगातार या तरतीब से नहीं होता। मशहूर नाटककार जॉर्ज बनार्ड शॉ के साथ एक बार एक मजेदार घटना घटी।

          एक नए नाटककार ने एक नाटक लिखा और उसे निर्देशित किया। उसने शॉ को अपने नाटक को देखने के लिए बुलाया। शॉ वहां गए, बैठे और कुछ ही मिनटों में सो गए। जब नाटक खत्म हो गया, तो उस लेखक ने शॉ के पास जाकर कहा, ’मैंने आपको आमंत्रित किया, क्योंकि मैं आपकी टिप्पणी चाहता था। यह मेरा पहला नाटक है।’ शॉ ने हंसते हुए कहा, ’मेरा सोना ही मेरी टिप्पणी है।’ तो आप अच्छे से सो पा रहे हैं या नहीं, इससे आपके जीवन की दशा का पता चल जाता है।


4-जिंदगी एक सच होने वाला सपना है

          सपने हम सभी देखते हैं, लेकिन क्या उन सपनों का वाकई कोई अर्थ होता है? क्या इनका हमारी जिंदगी से किसी तरह का वास्ता भी है? कभी-कभी हम अपने सपनों को याद करने की कोशिश करते हैं और सुबह होते ही कुछ लोग उन्हैं उन्हें लिख लेते हैं। इस सम्बन्ध में एक सवाल मेरे मन में उठता है कि क्या मुझे इन सपनों को याद रखना चाहिए? अगर हां, तो फिर उनके साथ क्या करना चाहिए? हमारे मन और अस्तित्व के कुछ ऐसे पहलू हैं, जिन्हें हम सपना कहते हैं।

          आपने लोगों को अकसर यह कहते तो सुना ही होगा-हां, मेरा एक सपना है। इस दुनिया में अपने सपनों को साकार करने का सचेतन तरीका है, कि आप पहले सपना देखते हैं, फिर उस सपने को लगातार इतना मजबूत बनाते हैं कि वो हकीकत में बदल जाए। अपने सपनों को हकीकत में बदलने की काबिलियत अधिकतर लोगों में नहीं होती। दरअसल, उनके सपनों में कोई एकरूपता नहीं होती। वे हर दिन एक नई चीज का सपना सजाते हैं। दरअसल उनकी चेतना पूरी तरह से अस्त-व्यस्त और बिखरी हुई होती है।

          सपने को साकार करने का एक पहलू यह है कि आपकी चेतना और जीवन उर्जा एक निश्चित दिशा में हों, जिससे वे आपके लिए हकीकत का रूप ले सकें। एक तरह से हम जो भी सृजन करते हैं, वह हमारे सपनों का ही साकार रूप होता है। पर अब हम ऐसे सपनों के बारे में बात करते हैं जिनके बारे में आपने कभी सोचा नहीं, पर उनको अपने सपनों में देखते हैं हमारे नब्बे प्रतिशत सपने तो बस मन में इकट्ठी हुई इच्छाओं को रिलीज करने के एक साधन हैं। यह इंसानी मन बना ही कुछ ऐसा है कि जो भी इसे अच्छा, आकर्षक और खास लगता है, यह उसे पाना चाहता है। इनमें से कई तो ऐसी इच्छाएं होती हैं, जिन्हें हमने सचेतन मन से चाहा भी नहीं होता। ऐसा सिर्फ इसलिए होता है, क्योंकि हमारा मन तमाम इच्छाएं करता रहता है।

          वैसे ये आपकी अच्छी किस्मत है कि ये सभी इच्छाएं पूरी नहीं हो पातीं। अगर सारी सच हो जाएं तो आपकी पूरी जिंदगी एक बहुत बड़ी यातना बन जाएगी। सपने दरअसल आपकी मदद करते हैं। जब लोग हठ योग टीचर ट्रेनिंग कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे होते हैं, उस दौरान सुबह उठकर चार घंटे की साधना, पढ़ाई और बाकी सब काम करने के बाद दोपहर को जब आप थक कर चूर हो जाते हैं, तब आपको कॉफी या चाय की जरूरत महसूस होती है। लेकिन बदले में जब आपको बेस्वाद सूप मिलता है, तो आपका मन सोचता है कि काश मुझे एक कप चाय या कॉफी पीने को मिल जाती। उसी रात आप सपने में देखते हैं कि आप ढेर सारी कॉफी पी रहे हैं या आप हिंद महासागर के किनारे टहल रहे हैं और पूरा का पूरा सागर ही कॉफी से भरा हुआ है।

          यह एक मजाकिया उदाहरण है, लेकिन मेरा कहना है कि आपकी इच्छाएं ही सपनों में बढ़ – चढ़ कर सामने आती हैं। दूसरे शब्दों में, यह इच्छाओं का रिलीज होना है। सपने में कॉफी पीने की आपकी इच्छा पूरी हो गई। ऐसे में अगले दिन इस सपने का आप पर असर पड़ता है। जब आपको दूसरे दिन वही बेस्वाद सूप मिलता है तो आप उसे थोड़ी आसानी से पी पाते हैं। अगर सपने में यह इच्छा बह कर नहीं निकली होती, तो यह स्थिति आपके अंदर एक कुंठा, एक विवशता पैदा कर देती।

          इस तरह से सपने आपके लिए काम करते हैं। दरअसल, रात में जब आप गहरी नींद में होते हैं तो शरीर पूरे आराम में होता है। इसलिए आपके मन को अपनी हरकतें करने के लिए बहुत सारी ऊर्जा मिल जाती है। इस उर्जा और समय का इस्तेमाल मन सपनों को पूरा करने में खर्च करता है। नब्बे फीसदी सपने इसी श्रेणी में आते हैं। इनके साथ कुछ भी करने की जरूरत नहीं, इन्हें याद भी रखने की जरूरत नहीं, इन्हें आप भूल ही जाइए। हां, अगर आप रोज ढेर सारे सपने देखते हैं, तो फिर आपको अपने दिन पर ध्यान देना चाहिए।

          आपको पहले से अधिक जागरूक रहना होगा। आप जितने ज्यादा जागरूक रहेंगे, उतने ही कम सपने देखेंगे। अगर आप अचेतन में, दिन के दौरान तमाम चीजों की इच्छाएं करते रहेंगे, तो उस रात आपको उतने ही अधिक सपने आएंगे। अगर आप दिन के दौरान अच्छे से ध्यान करें, तो जब रात को सोएंगे तो ऐसा नहीं है कि आपको सपने आने बंद हो जाएंगे, लेकिन इतना तय है कि आप पहले से काफी कम सपने देखेंगे।


5-शांतनु का प्रेम और पीड़ा

          एक दिन राजा शांतनु गंगा के किनारे टहल रहे थे। वहां उनकी मुलाकात गंगा से हुई। वह उनसे प्रेम करने लगे। वह गंगा से विवाह करना चाहते थे। गंगा ने कहा, ‘अगर आप मुझसे शादी करना चाहते हैं तो आपको मेरी एक शर्त माननी होगी। मैं चाहे जो भी करूं, आप मुझसे कोई प्रश्न नहीं करेंगे।’ एक ऐसी आम शर्त जो आप में से ज्यादातर लोग आजकल रखते हैं। गंगा ने साफ कह दिया कि मैं कितना भी अजीब काम क्यों न करूं, लेकिन आप मुझसे कोई सवाल नहीं करेंगे।

          शांतनु गंगा के प्रेम में इतने पागल थे कि उन्होंने हां कह दी। इस शादी से गंगा ने एक पुत्र को जन्म दिया। उस नवजात को लेकर गंगा नदी के पास गईं और उसे डुबो दिया। शांतनु आश्चर्यचकित रह गए, लेकिन वह इसके बारे में गंगा से कुछ भी पूछ नहीं सकते थे, क्योंकि गंगा ने पहले ही यह शर्त लगा दी थी कि अगर शांतनु ने उसके किसी भी काम के बारे में पूछताछ की तो वह उन्हें छोडक़र चली जाएंगी। शांतनु ने खुद को नियंत्रित कर लिया। इसके बाद गंगा ने एक और पुत्र को जन्म दिया । वह उसे भी नदी तट ले गईं और डुबो दिया। शांतनु बड़े परेशान थे, लेकिन उन्होंने पूछा कुछ भी नहीं क्योंकि अगर वह कुछ पूछते तो गंगा उन्हें छोडक़र चली जातीं। इस तरह सात बच्चों को एक – एक करके गंगा ने नदी में डुबो दिया।

          कुछ समय बाद आठवें पुत्र का जन्म हुआ। शांतनु ने उस स्वस्थ बच्चे को देखा तो उनसे रहा न गया। उन्होंने गंगा से कहा, ‘बहुत हो चुका। तुम सात बच्चों को नदी में डुबो चुकी हो। क्या है यह सब? इसके साथ ऐसा मत करना।’ गंगा ने कहा, ‘आपने शर्त तोड़ दी। मैं अब जा रही हूं। मैंने पहले ही कहा था कि आपको मुझसे कोई सवाल नहीं करना है। चूंकि अब आपने मुझसे पूछ लिया है तो मुझे जाना होगा। इस बच्चे से आपका गहरा लगाव है, इसलिए मैं इसे छोड़ दूंगी। कुछ साल तक मुझे इस बच्चे को पालने दीजिए, फिर मैं इसे आपको सौंप दूंगी, लेकिन हां, आपके और मेरे संबंधों का अब अंत हो गया। इस तरह बच्चे को लेकर गंगा चली गईं और उन्हें दोबारा देखने की उम्मीद में शांतनु नदी के किनारे भटकने लगे।

          एक दिन उन्होंने देखा कि गंगा अपने सामान्य बहाव से थोड़ी हट गई है। एक स्थान पर पानी कुछ उभर गया है और दूसरे स्थान पर धंस गया है। यह पूरा नजारा ही शांतनु को बेहद अजीब लगा। पूरा माजरा जानने के लिए वह उस स्थान के करीब पहुंचे। उन्होंने देखा कि किसी ने बाणों की मदद से एक बांध जैसी रचना बना दी है। वह हैरान रह गए। तभी उन्होंने वहां खड़े एक 12 साल के बच्चे को देखा, जिसके हाथ में धनुष बाण थे। वह बच्चा उस बांध जैसी रचना को और बेहतर बनाने की कोशिश कर रहा था।

          शांतनु बच्चे के पास गए और बोले, ‘तुम कौन हो, जो तुम्हारे अंदर ऐसा कौशल है? तुम अवश्य ही कोई क्षत्रिय हो।’ उन दिनों ऐसा माना जाता था कि अगर आप हथियारों का प्रयोग करने में कुशल हैं तो आप क्षत्रिय ही होंगे। खैर बच्चे ने कहा, ‘मेरा नाम गांगेय है।’ इतने में माता गंगा प्रकट हो गईं। उन्होंने शांतनु से कहा, ‘यह आपका बेटा है। अब यह इतना बड़ा हो चुका है कि आप इसे अपने साथ ले जा सकते हैं। वेदों और उपनिषदों के अलावा युद्ध विद्या में भी यह पारंगत हो चुका है। आप इसे ले जा सकते हैं। यह आपका योग्य उत्तराधिकारी होगा। आपके बाद यह एक योग्य और महान राजा बनेगा।’

          शांतनु बच्चे को अपने साथ ले गए और गंगा दुबारा अंतर्ध्यान हो गईं। अब एक और बात जिसके बारे में हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं। महान ऋषि पाराशर घायल अवस्था में एक मछुआरे के गांव पहुंचे। मत्स्यगंधा नाम की कन्या ने उनकी चिकित्सा की और उसके बाद उन दोनों से कृष्ण द्वैपायन यानी वेद व्यास का जन्म हुआ। मत्स्यगंधा से संबंधों के कारण ऋषि पाराशर ने उसे वरदान दिया था कि उसके अंदर से एक खास तरह की लुभावनी सुगंध आएगी। मछली की दुर्गंध से उसे छुटकारा मिल गया।

          शायद यही वजह था कि अब वह मछुआरे समाज में नहीं रह सकती थी। वह देश के दूसरे हिस्सों में भटकी और फिर गंगा के तट पर रहने लगी। उसके भीतर से बहुत भीनी-भीनी सुगंध आती थी, इसलिए उसका नाम सत्यवती पड़ गया। एक दिन वह नदी तट पर थी कि तभी राजा शांतनु वहां टहलते हुए आ गए। जब उन्होंने सत्यवती के भीतर से आ रही सुगंध को महसूस किया तो बेचैन हो उठे और उसे खोजने लगे। आखिर उन्हें सत्यवती मिल गई, जो नदी तट पर ही एक जगह बैठी थी और उसके शरीर से सुगंध आ रही थी। राजा इस सुगंध से मंत्रमुग्ध हो गए और सत्यवती से प्रेम करने लगे। वह उससे विवाह करना चाहते थे।

          राजा सत्यवती के पिता के पास उसका हाथ मांगने गए। लेकिन इसके लिए सत्यवती के पिता ने एक शर्त रखी। फिर से शर्त… बेचारे शांतनु। सत्यवती के पिता ने कहा, ‘अगर आप मेरी बेटी से विवाह करना चाहते हैं तो आपको मुझे वचन देना होगा कि आपके बाद राजगद्दी सत्यवती की संतान ही संभालेगी। आपको पहले से ही एक युवा पुत्र है। जाहिर है, आपने उसे ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया होगा।

          अगर आप मुझे यह वचन देते हैं कि मेरी बेटी की संतान को ही आपके बाद सिंहासन मिलेगा, तो मैं उसका विवाह आपके साथ करने को तैयार हूं।’


6-योग जीवन का एक पूर्ण मिलन है

          कुदरती तौर पर जीवन कभी बिल्कुल सही या संपूर्ण नहीं हो सकता, उसमें हमेशा सुधार की गुंजाइश होती है। लेकिन सृष्टि की ज्यामिति एक तरह से संपूर्ण होती है। इस सटीक ज्यामितीय संतुलन के कारण ही जीवन इस तरह फलता-फूलता है।

          मानव जीवन जितना क्षणभंगुर है साथ ही साथ उतना ही जोरदार भी है। एक मनुष्य कितना कुछ कर सकता है। इसकी वजह यह है कि रचना की प्रक्रिया के पीछे जो ज्यामितिय बनावट है, वह संपूर्ण है आज एक पूरा विज्ञान यह पता लगाने में लगा है कि एक कीड़े से लेकर एक हाथी तक, एक पेड़ से लेकर नदी और सागर तक, ग्रहों से लेकर पूरे ब्रह्मांड तक हर रूप में अणु और परमाणु संबंधी संरचना की ज्यामिति कैसी है। अणु से लेकर ब्रह्मांड तक, सभी रूपों की ज्यामिति अपने मूल गुण में बिल्कुल एक जैसी है। यह बनावट इतना संपूर्ण है कि जीवन इतना नाजुक, इतना भंगुर होने के बावजूद इतना मजबूत और इतना खूबसूरत है।

          ज्यामिति की इस संपूर्णता को अपने जीवन में उतारने की कोशिश से ही योग की इस जटिल और परिष्कृत प्रणाली का जन्म हुआ। अपने पूरे सिस्टम को जिसमें- शरीर, मन, भावनाओं, पिछले जन्म के कर्म और मूलभूत ऊर्जा शामिल है, ब्रह्मांड के साथ एक ज्यामितिय संतुलन में लाना के बारे में ही योग बताता है । लगभग 15,000 साल पहले, आदियोगी शिव संपूर्णता की इस स्थिति तक पहुंचे थे। वह इतने स्थिर हो गए थे कि उन्हें देखने वाले यह तय नहीं कर पाते थे कि वह जीवित हैं या नहीं। उनके भीतर जीवन की एकमात्र निशानी थी – उनके गालों पर लुढकते परमानंद के आंसू ।

          आदियोगी संपूर्ण स्थिरता की इस स्थिति से निकलकर अचानक उन्माद में नृत्य करने लगे। यह तांडव दर्शाता था कि उनके भीतर की संपूर्ण ज्यामिति उनके लिए कोई बाधा नहीं थी, उन्हें एक जगह बैठने की जरूरत नहीं थी। वह पूरी उन्मुक्तता से बावलों की तरह नृत्य करते हुए भी अपने और विशाल ब्रह्मांडीय प्रकृति के साथ संपूर्ण संतुलन को खोते नहीं थे। यह तांडव एक आनंदमय अभिव्यक्ति है – भाव, राग, ताल और ब्रह्मांडीय प्रकृति के बीच संतुलन और संपूर्णता की।

          भाव आतंरिक अनुभव है, राग सृष्टि द्वारा निर्धारित सुर हैं और हर व्यक्ति को जिस रिद्म को हासिल करना होता है, उसे ताल कहते हैं। भाव कई तत्वों का एक नतीजा है। राग स्रृष्टा ने उत्पन्न किए हैं। लेकिन अगर आपको सही ताल मिल जाए, तो पागलों की तरह नाचने के बावजूद आप बाकी ब्रह्मांड के साथ संपूर्ण संतुलन में होते हैं। बहुत से योगियों, साधु-संतों और शिव के सभी भक्तों ने इस संभावना का प्रदर्शन भी किया है। योग का अर्थ होता है मेल। जब अपने शरीर और भावनाओं की सीमाओं में कैद कोई व्यक्ति अपने भीतर एक तरह की संपूर्णता को प्राप्त कर लेता है, जहां अपने अनुभव में वह हर चीज के साथ एक हो जाता है, तो वह योग की स्थिति में होता है।

          यह संभावना हर मनुष्य के भीतर एक बीज के रूप में होती है। अगर आप कोशिश करें तो आप अपने भीतर पूरे ब्रह्मांड को महसूस कर सकते हैं। योग की इस अवस्था को लेकर बहुत सारी कहानियां प्रचलित रही हैं। जैसे, यशोदा का कृष्ण के मुंह में ब्रह्मांड को देखना या पूरे ब्रह्मांड को शिव के शरीर के रूप में देखना। योग की अवस्था का मतलब सिर के बल या एक पांव पर खड़ा होना नहीं है। योग का मतलब मेल की स्थिति में होना है। ज्यामिति की यह पूर्णता बहुत तरीकों से पाई जा सकती है।

          बुद्धि से, भावना से, ऊर्जा से, कार्य की शुद्धता से और सबसे बढ़कर भक्ति से – ये सब बेफिक्री या उन्मुक्तता की स्थिति तक आने के टूल्स हैं। जब आप अपने व्यक्तित्व को छोड़ देते हैं तो आप बाकी ब्रह्मांड के साथ मेल की स्थिति में होते हैं। वैसे भी आपका व्यक्तित्व तो बस कर्मों का एक ढेर होता है। इंसान की संपूर्णता की भावना थोड़ी सी बढ़ जाती है, जब वह मेल महसूस करता है। अगर मेल की यह चाह शारीरिक होती है, तो वह कामुकता कहलाती है।

          अगर हम उसे भावनाओं में व्यक्त करते हैं, तो उसे प्रेम या करुणा कहते हैं। अगर संपूर्णाता को बढ़ाने की वही चाह मानसिक रूप से व्यक्त हो तो उसे कामयाबी, विजय, या इन दिनों शॉपिंग कहा जाता है। लेकिन अगर वह अपने अस्तित्व की एक स्थायी अभिव्यक्ति हो तो उसे हम योग कहते हैं। मेल की चाह हमेशा होती है। चाहे कोई धन-दौलत, कामयाबी, आनंद या नशा, किसी भी चीज के पीछे भाग रहा हो, वह बस मेल की चाह के कारण भाग रहा होता है। लेकिन ये सब मेल के बेअसर तरीके होते हैं।

          योग किसी चीज के खिलाफ नहीं होता है, सिवाय अयोग्यता या प्रभावहीनता के। हम इंसान पृथ्वी पर विकास के शिखर पर रहे हैं, इसलिए हमसे थोड़ी बुद्धि और निपुणता से काम करने की उम्मीद की जाती है। सदियों से लोगों ने उन तरीकों से मेल की स्थिति तक पहुंचने की कोशिश की है, जिनसे वो कभी कामयाब नहीं हुए। मैं चाहता हूं कि आप सब अपने मन में यह शपथ लें कि हमारी पीढ़ी एक स्थायी तरीके से काम करेगी। अगर हम मेल हासिल करें तो वह स्थायी हो। आप सब को अपने हृदय और मन की गहराई तक इस बात को उतारना होगा।


7-सात्विक प्रकृति से जीवन में स्थिरता और शुद्धता आती है

         “कोई भी भौतिक चीज इन तीन आयामों – सत्व, रजस और तमस के बिना नहीं होती। हर अणु में ये तीन आयाम होते हैं – कंपन का, ऊर्जा का और एक खास स्थिरता का। अगर ये तीनों तत्व ना हों, तो आप किसी चीज को थाम कर नहीं रख सकते, वह बिखर जाएगी। अगर आपके अंदर सिर्फ सत्व गुण होगा, तो आप एक पल के लिए भी बचे नहीं रहेंगे – आप खत्म हो जाएंगे।

          अगर सिर्फ रजस गुण होगा, तो वह किसी काम का नहीं होगा। अगर सिर्फ तमस होगा, तो आप हर समय सोते ही रहेंगे। इसलिए हर चीज में ये तीनों गुण मौजूद होते हैं। सवाल सिर्फ यह है कि आप इन तीनों को कितनी मात्रा में मिलाते हैं। तामसी प्रकृति से सात्विक प्रकृति की ओर जाने का मतलब है कि आप स्थूल शरीर, मानसिक शरीर, भावनात्मक शरीर और ऊर्जा शरीर को स्वच्छ कर रहे हैं।

          अगर आप उसे इतना स्वच्छ कर दें कि उससे आर-पार दिखने लगे, तो आप अपने भीतर मौजूद सृष्टि के स्रोत को देखने से नहीं चूक सकते। फिलहाल, वह इतना अपारदर्शी है, इतना धुंधला है, कि आप उससे आर-पार देख नहीं सकते। शरीर एक ऐसी दीवार बन गया है, जो हर चीज का रास्ता रोक रहा है। इतनी अद्भुत चीज, सृष्टि का स्रोत यहां, शरीर के भीतर मौजूद है लेकिन यह दीवार उसका रास्ता रोक देती है क्योंकि वह बहुत अपारदर्शी है, धुंधली है। अब उसे साफ करने का समय आ गया है। वरना आप सिर्फ दीवार को जान पाएंगे, यह नहीं जान पाएंगे कि उसके अंदर कौन रहता है।


8-अगर आपमें राजसी प्रकृति की ऊर्जा है तो सही दिशा में उसका उपयोग करें

          पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा – ये वो तीन खगोलीय पिंड हैं, जिनका हमारे शरीर के निर्माण से गहरा संबंध है। धरती माता को तमस माना गया है। सूर्य की प्रकृति रजस है। चंद्रमा को सत्व प्रकृति का माना जाता है। तमस पृथ्वी और आपके जन्म की प्रकृति है।

          आप जिस पल जन्म लेते हैं और हलचल शुरू करते हैं, रजस शुरू हो जाता है। रजस तत्व के सक्रिय होने के बाद आप कुछ करना चाहते हैं। एक बार कुछ करना शुरू करने के बाद, अगर कोई चेतनता या जागरूकता न हो, तो जब तक आपके साथ सब कुछ ठीक चल रहा होता है, तब तक रजस अच्छा होता है। जैसे ही परिस्थिति बिगड़ती है, रजस बहुत बुरा साबित हो सकता है। राजसी प्रकृति वाले इंसान में बहुत ऊर्जा होती है। बस उसे सही दिशा में लगाने की जरूरत होती है।

          आप जो कुछ भी करते हैं, वह या तो मुक्ति की प्रक्रिया हो सकती है या फिर बंधन या उलझाव की।अगर आप किसी काम को पूरी तत्परता और अपनी खुद की इच्छा से करते हैं, तो वह काम खूबसूरत होता है और आपको आनंद देता है। अगर आप किसी भी वजह से बेमन से से कोई काम करते हैं, तो वह काम आपके लिए दुख ले कर आता है। आप चाहे कोई भी काम करें, भले ही आप फर्श पर झाड़ू लगा रहे हों, उस काम में खुद को समर्पित कर दें और पूरे मन से उस काम को करें। बस इतना ही करना है।

          जब आप किसी काम में पूरे जुनून से जुटे होते हैं, तो आपके लिए बाकी चीजों का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। जुनून या दीवानगी का मतलब पुरुष और स्त्री के बीच की दीवानगी नहीं है। जुनून का मतलब है, किसी काम में पूरे हद तक लग जाना। वह कोई भी काम हो सकता है, आप पूरे जुनून से गा सकते हैं, आप जुनून से नाच सकते हैं या आप पूरे जुनून से सिर्फ चल भी सकते हैं।

          आप फिलहाल जिस चीज के भी संपर्क में हैं, उससे पूरे जज्बे के साथ जुड़े हुए हैं। आप उत्साह से सांस लेते हैं, आप उत्साह से चलते हैं, आप उत्साह से जिंदगी जीते हैं। आपका अस्तित्व हर चीज के साथ पूरी तरह जुड़ा हुआ है।


9-साधना कैसे करें तेजी से अथवा सहज भाव से

          किसी चीज को तीव्रता से करने की कोई जरूरत नहीं है। जब आप कहते हैं कि मैं कोई चीज बेहद तीव्रता से कर रहा हूं तो आपके कहने का मतलब होता है कि आप उस चीज के पीछे पागल की तरह लगे हैं। स्वयं में तीव्रता लानी चाहिए, आपको यह देखना चाहिए कि अपने अस्तित्व, अपने मस्तिष्क व अपने वजूद में तीव्रता कैसे लायी जा सकती है।

          अगर आप इसको बेहद तीव्र बना लेते हैं, तो आप जो भी करेंगे, उसके अंदर तीव्रता, प्रचंडता व प्रबलता होगी। लेकिन अगर आप चीजों को तीव्रता से करने के चक्कर में पड़े रहेंगे तो जान लीजिए आप बेवकूफी कर रहे हैं। साथ ही, ऐसा करते-करते आप बुरी तरह थक भी सकते हैं। इसलिए किसी चीज को बेहद तीव्रता से करने की जगह आवश्यक यह है कि हम अपने आप को तीव्र और जीवंत बनाएं।

          अगर हम ऐसा कर पाए तो हम जो भी काम करेंगे, उसमें सहजता और तीव्रता दोनों एक साथ होंगी। बिना सहजता के अगर तीव्रता आ भी गई तो वह बहुत थकाऊ होगी।

10-भूतशुद्धि: भरपूर सुख शांति की विधि

          सारा ब्रह्मांड और हमारा शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है। अगर ये पाँचों तत्व हमारा साथ दें तो हम अपने शरीर और मन को स्वस्थ और शांत कर सकते हैं। शरीर मूल रूप से पांच तत्वों – जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि और आकाश का एक खेल है। भारत में शरीर को पंचतत्वों का एक पुतला कहा गया है। शरीर की बनावट में, 72% पानी, 12% पृथ्वी, 6% वायु, 4% अग्नि है और बाकी का 6% आकाश है।

          ‘भूतशुद्धि’ का मतलब भौतिकता से मुक्त होना भी है। ये पंचतत्व आपके भीतर किस तरह काम करते हैं, यह आपके बारे में सब कुछ तय कर देता है। ‘भूत’ का मतलब होता है तत्व, और ‘भूतशुद्धि’ का मतलब है तत्वों की गंदगी खत्म करना। इसका अर्थ भौतिकता से मुक्त होना भी है। योग में भूतशुद्धि एक बुनियादी साधना है जो उस आयाम के लिए हमें तैयार करती है जो भौतिक या शरीर की सीमाओं से परे है।प्राकृतिक तरीके से भूतशुद्धि करने के लिए आप कुछ आसान सी चीजें कर सकते हैं।

         यह सबसे उत्तम भूतशुद्धि नहीं है, मगर आप अपने पंचतत्वों की थोड़ी-बहुत शुद्धि कर सकते हैं।

जल-----
              पांच तत्वों में सबसे बड़ा मामला जल का है। आपको जल पर बहुत ध्यान देना चाहिए क्योंकि वह शरीर में 72% है।जल जिस भी चीज़ के संपर्क में आता है उसके गुणों को अपने भीतर याद रखता है। जल को शुद्ध करने के लिए आप उसमें नीम या तुलसी की कुछ पत्तियां डाल दें। इससे रासायनिक अशुद्धियां तो नहीं हटेंगी, लेकिन इससे जल बहुत जीवंत और ऊर्जावान हो जाएगा।

          अगर आप सीधे नल से पानी पीते हैं, तो आप एक खास मात्रा में जहर पी रहे हैं। अगर आप इस जल को तांबे के एक बरतन में दस से बारह घंटे तक रखें, तो उस नुकसान की भरपाई हो सकती है।

धरती-----
           धरती हमारे शरीर में 12% होती है।भोजन आपके शरीर में किस तरह जाता है, किसके हाथों से आपके पास आता है, आप उसे कैसे खाते हैं, उसके प्रति आपका रवैया कैसा है, ये सब चीजें महत्वपूर्ण हैं। सबसे बढ़कर, जिस भोजन को आप खाते हैं, वह जीवन का अंश होता है।

          हमारा भरण – पोषण करने के लिए जीवन के दूसरे रूप अपने आप को खत्म कर रहे हैं। अगर हम जीवन के उन सभी अंशों के प्रति बहुत आभारी होते हुए भोजन करें, जो हमारे जीवन को बनाए रखने के लिए अपना जीवन त्याग रहे हैं, तो भोजन आपके भीतर बहुत अलग तरीके से काम करेगा।बस नंगे पांव अपने बगीचे में रोजाना एक घंटे तक चलें,जहां कीड़े-मकोड़े और कांटें न हों,एक सप्ताह के भीतर आपका स्वास्थ्य काफी बेहतर हो जाएगा। इसे आजमा कर देखें। इतना ही नहीं,अपने ऊंचे बिस्तर के बदले फर्श पर सो कर देखें,आपको बेहतर स्वास्थ्य का एहसास होगा।

वायु------
          वायु हमारे शरीर में 6% है। उसमें 1% से भी कम आप अपनी सांस के रूप में लेते हैं। बाकी आपके अंदर बहुत से रूपों में घटित हो रही है। आप जिस हवा में सांस लेते हैं, सिर्फ वही आपको प्रभावित नहीं करती, आप उसे अपने भीतर कैसे रखते हैं, यह भी महत्वपूर्ण है। आपको उस 1% का ध्यान रखना चाहिए। लेकिन अगर आप किसी शहर में रह रहे हैं, तो सांस के रूप में शुद्ध हवा लेना आपके बस में नहीं है। पार्क में या झील किनारे टहलने जाएं।

          खास तौर पर अगर आपके बच्चे हैं, तो यह बहुत जरूरी है कि आप कम से कम महीने में एक बार उन्हें बाहर घुमाने ले जाएं – सिनेमा या ऐसी किसी जगह नहीं। क्योंकि उस हॉल के बंद दायरे में सीमित वायु उन सभी ध्वनियों और भावनाओं से प्रभावित होती हैं जो परदे के ऊपर या लोगों के दिमागों में उभरते हैं। उन्हें सिनेमा ले जाने की बजाय, नदी के पास ले जाएं, उन्हें तैरना या पहाड़ पर चढ़ना सिखाएं।

          इसके लिए आपको हिमालय तक जाने की जरूरत नहीं है। छोटा सा टिला भी किसी बच्चे के लिए एक पहाड़ है। यहां तक कि एक चट्टान से भी काम चल सकता है। किसी चट्टान पर चढ़कर बैठें। बच्चों को खूब मजा आएगा और उनका स्वास्थ्य अच्छा होगा। आप भी स्वस्थ हो जाएंगे, आपका शरीर और मन अलग तरीके से काम करेगा। खुली हवा में खड़े होकर वायु स्नान करें आपकी सेहत भी अच्छी हो जाएगी, साथ ही आपका शरीर और दिमाग अलग तरह से काम करने लगेगा।

          और सबसे बड़ी बात यह होगी कि इस तरह आप सृष्टि के संपर्क में होंगे, जो सबसे महत्वपूर्ण चीज है। आप इस बात का भी ध्यान रख सकते हैं कि आपके अंदर किस तरह की अग्नि जलती है।हर दिन अपने शरीर पर थोड़ी धूप लगने दें, क्योंकि धूप अब भी शुद्ध है। खुशकिस्मती से उसे कोई दूषित नहीं कर सकता। आपके अंदर किस तरह की आग जलती है- लालच की आग, नफरत की आग, क्रोध की आग, प्रेम की आग या करुणा की आग, अगर आप इस बात का ख्याल रखें, तो आपको अपने शारीरिक और मानसिक कल्याण के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। वह अपने आप हो जाएगा।

          आकाश सृष्टि और सृष्टि के स्रोत के बीच एक मध्य स्थिति है।अगर हम बाकी चार तत्वों को ठीक ढंग से रखें, तो आकाश खुद अपना ध्यान रख लेगा। अगर आप जानते हैं कि अपने जीवन में आकाश का सहयोग कैसे लेना है, तो आपका जीवन आनंदमय हो जाएगा। हर रोज आकाश की ओर देखें और शीश नवाएं


11-खुद पैदा करें अपनी हंसी-खुशी

          होसी-खुशी के बारे में आपका कोई विचार नहीं होना चाहिए। आपको बस खुश रहना चाहिए। चार्ल्स डार्विन ने बताया था कि आप बंदर थे। धीरे-धीरे आपकी पूंछ गायब हो गई और आप इंसान बन गए। पूंछ तो गायब हो गई, लेकिन क्या आपकी बंदर वाली आदतें भी खत्म हुई हैं? आपके और चिम्पैंजी के डीएनए में बस 1.23% का ही फर्क है। जाहिर है, बंदरों के गुण अब भी इंसानों में मौजूद हैं। बहुत पुरानी बात है। एक आदमी था, जिसका नाम था टोपीवाला। वह टोपी बेचता था। गर्मियों की दोपहर थी।

         काम करते-करते वह थक गया, और एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसने अपना खाना खोला और खाने लगा। खाना खाकर उसकी आंख लग गई। आंख खुली तो उसने देखा कि उसकी सारी टोपियां गायब हैं। जब आपको कुछ समझ नही आता कि क्या किया जाए – तो आप क्या करते हैं? ऊपर देखते हैं, ऊपरवाले की याद आती है आपको। खैर, इस टोपीवाले ने भी ऊपर देखा। वह क्या देखता है – कुछ बंदर उसकी टोपियां पहने बैठे हैं। वह उन बंदरों पर चिल्लाया। बंदर भी उस पर चिल्लाए। उसने ईंट के टुकड़े बंदरों पर मारे। बंदरों ने भी इन टुकड़ों को उसकी तरफ वापस फेंका। परेशान होकर टोपीवाले ने अपने टोपी उतारी और जमीन पर फेंक दी। बस फिर क्या था, बंदरों ने भी अपनी-अपनी टोपियां उतारकर जमीन पर फेंक दीं। उस घटना के कई सालों बाद ऐसी ही दूसरी घटना घटी। ऐसे ही एक और टोपीवाला टोपियां बेचने जा रहा था। गर्मी से परेशान होकर वह भी पेड़ के नीचे बैठ गया। इस टोपीवाले के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ जैसा सालों पहले उस टोपीवाले के साथ हुआ था। इसकी भी टोपियां बंदर आ कर ले गए। उसने अपने पूर्वजों से वह कहानी सुन रखी थी, इसलिए वह उठा और उसने बंदरों को मुंह चिढ़ाना शुरू कर दिया। बंदरों ने भी उसे बदले में मुंह चिढ़ा दिया। टोपीवाले ने उन बंदरों के साथ खूब मजाक किया। अंत में उसने अपनी टोपी उतारी और जमीन पर फेंकदी। इतने में एक बड़ा बंदर नीचे उतरकर आया, टोपी उठाई और टोपीवाले के पास पहुंचा। टोपीवाले के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़कर बंदर बोला, ‘मूर्ख, तुझे क्या लगता है, कि बस तेरे ही दादा थे।’

          दरअसल, हम दूसरों को देखकर अपनी खुशी तय करने लगते हैं। यूं ही किसी राह चलते शख्स को देखकर हमें लगता है, कि यह वाकई खुश है। बस हम उसी की तरह हो जाना चाहते हैं, और फिर नतीजा होता है – निराशा। कुछ समय बाद हमें लगता है, कि साइकल पर चलने वाला शख्स खुश है। हम साइकल पर चलना शुरू कर देते हैं और कुछ दिन बाद ही निराश होने लगते हैं। फिर हमें लगता है कि जो लोग कार में चल रहे हैं, असल में वे खुश हैं और कार में चलना ही असल मायनों में खुशी है। हो क्या रहा है? दूसरों को देखकर हमें लगता है, कि उनके जैसे काम करके हम खुश हो सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि खुशी के लिए कुछ बाहरी तत्व प्रेरक का काम करते हैं।

          लेकिन सच यही है कि खुशी हमेशा हमारे अंदर से ही आती है। ऐसा नहीं होता कि बाहर कहीं से किसी ने आप पर खुशी की बारिश कर दी। कल्पना कीजिए, 1950 में आपने अपने लिए एक कार खरीदी। कार के साथ आपको दो नौकर भी रखने पड़े, क्योंकि कार धक्का लगाने से स्टार्ट होती थी। आज सब कुछ सेल्फ स्टार्ट होता है। अब आप ही बताइए कि आप अपनी खुशी, अपनी सेहत, शांति और सुख संपन्नता को सेल्फ स्टार्ट करना चाहते हैं, या पुश स्टार्ट? अगर यह सेल्फ स्टार्ट है तो आप यह नहीं पूछेंगे कि खुशी क्या है, क्योंकि आप जानते हैं कि आपके भीतर खुश रहने की क्षमता है। वैसे मेरे काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यही है – हर किसी को सेल्फ स्टार्ट पर रखना।

          इसका अर्थ है लोगों के लिए खुश होने की तकनीक को बेहतर बनाते जाना। क्या आपको कोई ऐसा शख्स मिला है जिसके बारे में आप कह सकें कि वह बिल्कुल वैसा ही है जैसा आप चाहते हैं? आपमें से कई छात्र इतने रोमांटिक होंगे कि सोचते होंगे, कि किसी न किसी दिन उन्हें कोई न कोई ऐसा अवश्य मिलेगा, जो सौ फीसदी बिल्कुल ऐसा होगा जैसा कि वे चाहते हैं। अगर वह 51 फीसदी भी आपके मुताबिक है, तो यह बहुत बढ़िया है। लेकिन कई लोग महज 10 फीसदी ही होंगे। ऐसे में संघर्ष करना होगा।

          दरअसल, दुनिया में ऐसा कोई भी शख्स नहीं है, जो बिल्कुल आपके मुताबिक चले। तो अगर आपकी खुशी अपने इर्द-गिर्द मौजूद लोगों के हाथों में है तो इस बात की संभावना बेहद कम है कि आप खुश रह सकें। एक बार मैं प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में बोल रहा था। यूनिवर्सिटी एक ऐसी जगह होती है जहां लोगों के चेहरे बेहद गंभीर होते हैं। हो सकता है, यह उनके ज्ञान का बोझ हो, जो उनके चेहरों को बोझिल बना देता है। वहां हर कोई बड़ी गंभीरता के साथ बैठा था। इन लोगों के बीच दो युवा चेहरे ऐसे भी थे, जिनके चेहरे पर मुस्कराहट थी।

          मैंने कहा, ’30 साल से ज्यादा उम्र के इन लोगों को क्या हुआ।’ एक महिला खड़ी हुई और बोली, ‘ये सभी शादी शुदा हैं।’ ज्यादातर लोगों के साथ ऐसा ही होता है। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाती है, उनके चेहरे से रौनक गायब होने लगती है। किसी सड़क के किनारे खड़े हो जाइए, और वहां से निकलने वाले लोगों को गौर से देखिए और ढूंढिए कि आपको कितने चेहरों पर आनंद दिखाई देता है। अगर आपको कोई आनंदित चेहरा दिखेगा भी तो आमतौर पर वह युवा होगा। वैसे आजकल युवा भी गंभीर और तनाव से भरे दिखाई देते हैं। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाती है, वे और गंभीर होते जाते हैं।

          ऐसा लगता है जैसे कब्र की तैयारी करने की उन्हें बड़ी जल्दी है। कब्र की तैयारी किसी और को करनी चाहिए, आपको नहीं। अभी मुझसे किसी ने पूछा, ‘सद्‌गुरु आप कैसे हैं?’ मैंने कहा, ‘मैंने तय किया है कि – या तो मैं बिल्कुल ठीक ठाक रहूंगा या फिर नहीं रहूंगा।’ हर इंसान ऐसा कर पाने में सक्षम है, बशर्ते उसने अपने अंदर सेल्फ स्टार्ट बटन का पता लगा लिया हो। खुशी कोई ऐसी चीज नहीं है, जो किसी खास काम को करने से पैदा होती हो। इसे देखने के तमाम तरीके हैं।

          सबसे आसान तरीका है रासायनिक प्रक्रिया यानी केमिस्ट्री को समझना। इंसान के हर अनुभव के पीछे एक रासायनिक आधार होता है। अगर आप शांति चाहते हैं तो एक निश्चित रासायनिक प्रक्रिया होती है। अगर आप आनंदित रहना चाहते हैं तो एक अलग तरह की रासायनिक प्रक्रिया होगी। यह पूरा मामला विज्ञान और तकनीक का है, जिसे आप अंदरूनी तकनीक भी कह सकते हैं। इसी तकनीक की मदद से आप अपने भीतर सही रासायनिक प्रक्रिया पैदा कर सकते हैं।

          परम आनंद की रासायनिक प्रक्रिया आपके जीवन के हर पल को परम आनंद से भर देगी। अच्छी बात यह है कि हर इंसान ऐसा कर पाने में सक्षम है, बशर्ते उसने अपने अंदर सेल्फ स्टार्ट बटन का पता लगा लिया हो। अगर ऐसा नहीं है तो हर वक्त किसी न किसी को आपको धक्का मार कर स्टार्ट करते रहना पड़ेगा। जीवन में चीजें इस तरह नहीं चलतीं कि, वे हमेशा आपके लिए लाभकारी ही हों। अगर आप चाहते हैं कि जीवन हमेशा आपके अनुसार चलता रहे तो यह तभी हो सकता है जब आप दुनिया में कुछ भी न करें।

          अगर आप चुनौतीपूर्ण स्थितियों का सामना कर रहे हैं, तो ऐसी तमाम चीजें होंगी जो आप नहीं चाहते। और अगर ये परिस्थितियां आपको कष्टों में डाल रही हैं, तो जाहिर है – धीरे धीरे आप अपने जीवन के दिन कम कर रहे हैं। कष्टों के डर ने पूरी मानवता को जकड़ लिया है। अब वक्त आ गया है कि इंसान अपने भीतर एक ऐसी रासायनिक प्रक्रिया पैदा करे या एक ऐसा सॉफ्टवेयर प्रोग्राम तैयार करे कि कष्टों के प्रति उसका डर खत्म हो जाए। कष्टों का डर ख़त्म होने से आनंद में जीना ही उसका स्वभाव बन जाएगा और तभी इंसान अपनी पूर्ण क्षमता को जानने के लिए स्वयं को दांव पर लगा सकेगा।


12-अभिमान का कहर क्या है

          सबसे बड़ी मूर्खता क्रोध, घृणा, लोभ या अभिमान? बेशक क्रोध जलाता है तुम्हें और बनता है कारण दूसरों की पीड़ा व मौत का। घृणा प्रतिनिधि है क्रोध का अधिक प्रत्यक्ष व विनाशक किन्तु है संतान क्रोध की। ऐसा प्रतीत होता है कि नहीं लेना देना कुछ लोभ का इन दोनों से पर यही उपजाता है क्रोध व घृणा उन सबके प्रति जो आड़े आते हैं, लोभ की उस ज्वाला के जो नहीं होती तृप्त कभी क्योंकि है नहीं कुछ ऐसा जो लोभ के उदर को भर सके। अभिमान यद्यपि दिखता है दिलकश और बनाता है इंसान को ढीठ, पर अहम भूमिका निभाता है नष्ट करने में मानवता की सभी संभावनाओं को।

          यह अभिमान ही है जो चढ़ा देता है इंसान को उस मंच पर, जहां छली जाती है हकीकत जो बना देता है झूठ को भी यथार्थ असत्‍य को भी सत्‍य। क्रोध, घृणा व लोभ को चाहिए अभिमान का एक रंगमंच जहां खेल सकें ये अपना नाटक। अभिमान है कांटों का एक ताज जिसको पहनकर पीड़ा भी लगती है सुखद अभिमान माया है, जीवन का भ्रम है अज्ञान का शुद्धिकरण नहीं ले जाता आत्मज्ञान की शरण में -