हम सबकी लालसा रहती है कि हमेशा स्फूर्ति और उल्लास की स्थिति को कैसे प्राप्त किया जाए। जिस प्रकार शरीर अपनी शारीरिक और मानसिक भूख को मिटाने के लिए प्रयत्न करता है, उसी प्रकार आत्मा भी अपने स्वाभाविक गुण स्फूर्ति और उल्लास का अवसर प्राप्त करने के लिए लालायित रहती है, भले ही व्यावहारिक जीवन में वैसे अवसर न मिलते हैं।
वैसे स्फूर्ति शारीरिक समझी जाती है, पर उसके पीछे भी मानसिक प्रसन्नता छिपी रहती है। उल्लास की स्थिति तब आती है, जब मनुष्य भ्रम-जंजाल से निकलकर कल्याणकारी मार्ग पर संकल्पों के साथ आगे बढ़ता है। वैसे तो उल्लास असाधारण लाभ, यश के अवसर मिलने पर भी हासिल होता है, पर वह स्थायी नहीं रहता। समय-क्रम के अनुसार स्थिति में निरंतर परिवर्तन होता रहता है। ऐसी दशा सफलताओं के मिलने पर जो उल्लास महसूस होता है, लेकिन भौतिक वस्तुओं के सुखों से पृथक होने के कुछ समय बाद वह भी समाप्त हो जाता है। सुखद स्मृतियों की घटनाएं जब आंखों के आगे से होकर गुजरती हैं और उनके फिर से प्राप्त कर सकने का अवसर चला गया होता है तो कसक भरा पश्चाताप ही शेष रह जाता है, लेकिन आत्मिक उल्लास का कभी अंत नहीं होता, वह निश्चित संकल्पों के साथ अनंतकाल तक प्रगति की ओर बढता रहता है।
जब तक यश की दिशा में भाव उमड़ते रहेंगे और प्रयत्न चलते रहेंगे तब तक उल्लास में कभी कमी नहीं आती है। संकल्प अपना है, प्रयास अपना है, इसलिए उल्लास की सुखद अनुभूति भी अपनी है, न उसके घटने की आशंका है और न व्यवधान पडऩे की। यही है जीवन का आनंद जो शरीर क्षेत्र में स्फूर्ति के रूप में और मनक्षेत्र में उल्लास-मस्ती के रूप में सतत् अनुभव किया जा सकता है। उस सरसता का निरंतर रसास्वादन किया जा सकता है। जीवन को संपूर्णता के साथ जिया जा सकता है। स्फूर्ति और उल्लास का आनंद उठाना गलत बात नहीं, पर उसका साधन और प्रभाव उपयुक्त होना चाहिए। उचित रीति से जब तक इनकी पूर्ति नहीं होगी, तब तक उसका परिणाम सुखद नहीं हो सकता।