इस संपूर्ण ब्रह्मंड में केवल परमात्म तत्व है और कुछ नहीं है। विज्ञान जिसे सुपर पावर मानता है, वही अध्यात्म में परमतत्व है, जो संपूर्ण जीव-जगत को प्राणवान बनाए हुए है। माया, अविद्या और अहंकार के कारण जीव उस परमसत्ता से अलग है। यह जो संपूर्ण रहस्यमय सृष्टि है, वह सब दृष्टिभ्रम है। ऐसा इसलिए क्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तुएं भ्रम हैं, तरंगें हैं और ऊर्जा का वेग हैं। अध्यात्म के रहस्य को समझने में सामान्यत: लोगों को कठिनाई होती है लेकिन विज्ञान की भाषा आसानी से समझ में आ जाती है।
दरअसल, हमारे मन में यह आम धारणा व्याप्त है कि परमात्मा हमारे पवित्र मंदिर में निवास करता है और स्थायी तौर पर वह स्वर्ग, साकेत या ब्रह्मलोक में रहता है। दूसरी ओर हमारे सिद्ध-संतों का मानना है कि परमात्मा तो कण-कण में निवास करता है, वह तो विभु है, अव्यक्त है, तो उसे किसी मंदिर में कैसे रखा जाए। अगर हम अपने कार्यों, विचारों और संस्कारों को पवित्र कर लें और अपने तन-मन को मंदिर बना लें, तो हमारे तन और आत्म तत्व में परमात्मा का निवास होने लगेगा। भगवान श्रीराम ने अपनी मां कौशल्या को इसी शरीर में ब्रह्मंड का दर्शन कराया था और श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाया था। इसका अर्थ है कि हम विराट हैं, अज्ञानतावश विराट बन नहीं पा रहे हैं। यही अज्ञान अविद्या है, जो हमारे मूल स्वरूप को अपनी माया से ढके हुए हैं।
गिलास में पानी भरा हो, अगर उसमें लकड़ी डाली जाए, तो लकड़ी टेढ़ी दिखती है। जबकि लकड़ी टेढ़ी नहीं है। उसी तरह संसार सत्य दिखता है, माता-पिता, भाई-बहन, सत्य दिखते हैं लेकिन हैं नहीं। सत्य तो केवल परमात्मा है। जिस शरीर को तुम प्यार करते हो, जब उस शरीर से प्राणरूप परमात्मतत्व निकल जाता है, तो तुम उसी शरीर से घृणा करने लगते हो। हमारे जीवन का सत्य यही है कि हम अपने सद्कर्मों से इस जीवन को पापरहित बना लें, जिसमें कोई विकार न हो। काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और ईष्र्या से हम प्रभावित न रहें। जिस दिन आप यह मान लेंगे कि जो हो रहा है, वह सब प्रभु की इच्छा है, आप इस घटना में कहीं नहीं हो, उसी दिन आप निष्पाप बन जाओगे और आपका शरीर मंदिर की तरह पवित्र बन जाएगा। फिर किस मंदिर में किसकी पूजा करने कहां जाओगे। प्राणरूप परमात्मा आपके अंतर्मन में बैठा है।
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