Friday, February 20, 2015

हमारा जीवन अमरत्व की साधना है-आनंदमय स्वरूप का चिंतन करें

                एकाकीपन नीरसता लाता है। संसार में विविधता है और इस विविधता में ही पार पाना है। इसमें रमना नहीं है, बल्कि नदी-नाव-संयोग से हिल मिलकर पार हो जाना है। जीवन उत्सवमय तभी होता है जब सभी को साथ लेकर चलें। समूह-भाव से ही जीवन-उत्सव बनता है। परिजन मिलकर रहें। सबको साथ लेकर चलना ही अभीष्ट है। पर्व को तो विशेष उत्साह से मनाएं। सबके मंगल की कामना करें।

                  पर्वों पर अड़ोस-पड़ोस और परिजनों का विशेष ध्यान रखें। कोई भूखा न रह जाए। केवल अपने लिए जीना या स्व उदरपूर्ति तक केंद्रित रहना अच्छी बात नहीं है। जीवन संस्कारमय तो तभी होगा जब समग्रता के साथ गुणों का संवर्धन होगा। इसलिए आत्मचेतना का सामाजिक विस्तार निरंतर बना रहना चाहिए। जब ईश्वर ने हमें सेवा के योग्य बनाया है, तो सेवा से संबंधित विविध कार्यों का विस्तार होना चाहिए। सेवा, हमारे मन की पावन भावना है, जो हमें राग-द्वेष और भेदभाव से ऊपर उठाती है। सामूहिक भाव मन में प्रसन्नता लाता है। पर्व और मेले सामूहिक संस्कार को जगाते हैं, किंतु आज की भागमभाग जिंदगी में हम पर्वे का आनंद भी नहीं उठा पाते। ये तो ऐसे अवसर हैं, जब हम उपासना करें। ईश्वर से प्रार्थना करें कि 'हे नाथ आपकी बड़ी कृपा है। आपने हमें शुभ अवसर प्रदान कर हमारे जीवन को आनंद से भर दिया है।

                आपकी यह कृपा जीवों पर सदैव बनी रहे। सत्संग में नियमित सम्मिलित होना चाहिए। जीवन को दिशा देने के लिए, विषाद को दूर करने के लिए ये बहुत उपयोगी हैं। इनसे ईश्वरीय विचार पुष्ट होते हैं और मानव जीवन की महिमा पुष्ट होती है। इसलिए आवश्यकता यही है कि हम अपना सोचने का तरीका और दृष्टिकोण बदलें। आनंदमय जीवन की कल्पना तभी प्रत्यक्ष होगी, जब मन में सत्संकल्प और सद्विचार सुदृढ़ होंगे। आइए, अपने आनंदमय स्वरूप का चिंतन करें, सर्वकल्याण की कामना करें और परमात्मा की प्रकृति का सदुपयोग करें। ईश्वर ने इतने उपहार दिए हैं, उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें। जब परमात्मा ने बिना किसी शुल्क के हमें इतने वरदान दिए हैं, तो क्यों न हम भी प्राणिमात्र की सेवाओं को जीवन का अनिवार्य अंग बनाएं? पूर्ण आत्मविश्वास के साथ निडर होकर जीवन क्षेत्र में आगे बढ़ते रहें। हमारा जीवन अमरत्व की साधना है। मृत्यु से अमरत्व की ओर बढऩा ही जीवन का पर्व है।

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