Sunday, August 12, 2012

मनुष्यत्व जीवन

1-मनुष्यत्व का स्वभाव -
        सामान्यतः जीवन में सुख-दुख का अनुभव तो होता है लेकिन जव मनुष्य अपने सुख से सुखी और अपने दुख से दुखी होता है तो यह पशुता है। मनुष्यता तो तब है जब वह दूसरों के सुख से सुखी और दूसरों के दुख से दुखी होता है । और जबतक वह दूसरों के सुख से सुखी तथा दूसरों के दुख से दुखी होने का अपना स्वभाव नहीं बना देता तब तक वह मनुष्य कहलाने लायक नहीं ।


2-मरने से ही परमात्मा से मिलन सम्भव है-
        जीनन के लिए आपको मरना होगा,बचने की न सोचें। ध्यान से मरना हो तो ध्यान से मरो,प्रेम से मरना हो तो प्रेम से मरें,लेकिन मरें जरूर। आपका होना ही अडचन।मृत्यु से ही परमात्मा से मिलन होगा ।ऎसा न सोचें कि सत्य की खोज धन की खोज की तरह हो जायेगी कि आप गये और धन को खोजकर ले आये और तिजोरियॉ भर ली,सत्य की खोज का ढंग दूसरा है ।आप गये और कभी न लौटेंगे लेकिन सत्य अवश्य लौटेगा ऎसा नहीं कि आप उसे मुठ्ठी में बन्द करके ले गये या सत्य को तिजोरी में रख लोगे ऎसा नहीं होगा,आप सत्य के मालिक नहीं बन सकोगे।जबतक आपको मालिक होने का नशा है तबतक आपको सत्य नहीं मिल सकेगा बस जिस दिन आप चरणों में गिर जाओगे और कहोगे कि मैं नहीं हूं,उसी क्षण सत्य होगा ।सत्य को खोजा नहीं जा सकता खोजने पर मिलेगा नहीं ,बस आप मिटेंगे तो सत्य मिल जायेगा ।बस इसे ध्यान कहें या प्रेंम जिसमें आपको समर्पण करना होगा तभी सत्य के दर्शन होंगे ।

 

3-निर्विचारिता से स्वयं को ज्योतिर्मय कैसे करें-
        निर्विचारिता एक औलौकिक स्थिति है जहॉ से परमात्मा के दर्शन होते हैं, मस्तिष्क को विचारशून्य रखें यही निर्विचारिता है। निर्विचारिता की अवस्था में जो भी घटित होता है वह प्रकाशवान होता है, निर्विचारिता मेंआपके मन में जो विचार आता है वह एक अन्तःप्रेरणा होती है।निर्विचारिता में आप परमात्मा की शक्ति के साथ एक रूप हो जाते है,अर्थात आप परमात्मा में आकर मिल जाते हैं। परमात्मा की शक्ति आपके अन्दर आ जाती है। कोई भी निर्णय लेने से पहले निर्विचारिता में जाओ, अब जो निर्णय सामने आ जाए, उसी को कीजिए, यही सबसे उपयुक्त निर्णय होगा, क्योंकि उसमें आपका ईगो और सुपर ईगो दोनों काम करते हैं। आपका संसार आपके पीछे खडा है, आपने जो भी लौकिक कमाया है,वह आपके पीछे खडा होगा लेकिन निर्विचारिता में करोगो तो आलौकिक व चमत्कारिक निर्णय होगा,आप ऎसा निर्णय लेंगे जो बडे-बडे लोगों के बस में नहीं। किसी भी कार्य को निर्वचारिता में करने से जान जाओगे कि कहॉ से कहॉ डाएनैमिक हो गया मामला। निर्विचारिता में रहना सीखें यही आपका स्थान है,आपका धन, आपका बल, शक्ति, आपका स्वरूप, सौन्दर्य तथा यही आपका जीवन है। निर्विचार होते ही बाहर का यन्त्र पूरा आपके हाथ में घूमने लग जाता है। सिर्फ जीवंतता का दर्शन होगा,आपको उस जगह से दिखाई देगा जहॉ से जीवन की धारा बहती है। इसलिए निर्विचारिता समाधि से स्वयं कोज्योतिर्मय बनाइये यह कार्य कठिन नहीं है । यह स्थिति आपके अन्दर है, क्योंकि विचार या तो इधर से आते हैं या उधर से,ये आपके मस्तिष्क की लहरियॉ नहीं हैं, ये तो आपकी प्रतिक्रियायें हैं लेकिन ध्यान धारण करने पर आप निर्विचार चेतना में चले जाते हैं,यह स्थिति प्राप्त करना आवश्यक हैऔर तब आपके मस्तिष्क में आने वाले मूर्खता पूर्ण एवं व्यर्थ विचार समाप्त हो जाते है, इन विचारोंके समाप्त होने पर ही आपका उत्थान सम्भव है तभी हम आप आप उन्नत होते हैं।


 
4-पत्नी का स्वभाव-
        जहॉ पत्नी का मान-सम्मान होता है,वहॉ देवता निवास करते हैं। पत्नी स्वयं आत्म-त्याग, वफा और पवित्रता की मूर्ति है,जो अपनी मेजवानी से अपने को बिल्कुल मिटाकर पति की आत्मा का अंग बन जाती है। पत्नी या तो प्यार करती है या घृणा ।इसके अलावा उसे बीच का रास्ता नहीं आता ।लेकिन सुकरात का कहना है कि कि स्त्री के सहारे पर चलने वाला पुरुष औंधे मुंह गिरता है।और ऎसा भी कहा जाता है कि आकाश के ओर-छोर का पता चल सकता है पर स्त्री का नहीं।स्त्री की कलाई जितनी नाजुक होती है उतनी ही फौलादी भी होती है। स्त्री जब अपनी कलाकारी दिखाती है तो बडे-बडे तीस मारखॉ चित्त हो जाते हैं। लेकिन मॉ का कलेजा संतान के लिए कभी पत्थर का नहीं हो सकता है।


 
5-परमात्मा का स्वरूप-
        कुछ लोग परमात्मा को साकार तथा कुछ लोग निराकार रूप में देखते हैं,लेकिन परमात्मा तो इन दोनों अवस्थाओं से परे है,केवल वही जानते है जो उस परमात्मा से प्रेम करते है, कि उसका स्वरूप क्या है।परमात्मा से प्रेम करने वाले लोगों को प्रभु अनेक रूपों में दर्शन देते हैं। इसलिए परमात्मा साकार या निराकार तक ही सीमित नहीं है ।


 
6-परेशानियों से मुक्ति में धैर्य सबसे बडा साथी होता है-
        जीवन में विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं तथा कर्तव्यों से हमारी शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों पर प्रभाव पडता है जिससे हम व्याकुल तथा तनाव युक्त हो जाते हैं , जबकि परमात्मा का मत है कि आप इस प्रकार अपना स्वभाव बनाइये कि कठोर परिश्रम वाले कार्यों में भी आप सदैव विश्राम का अनुभव करते रहें, यह धैर्य से ही सम्भव है, धैर्य चरित्र का उज्वल अलंकार है । प्रत्येक मनुष्य का यह धर्म है कि वह यह जानें कि जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण समस्याओं और अपने से मतभेद रखने वाले लोगों के साथ किस प्रकार शॉतिपूर्वक रहा जा सकता है,झगडा-फसाद तो विकृति पैदा करता है। धैर्यवान व्यक्ति अपने विपक्षियों के समक्ष भी विजयी रहता है। धैर्य धारण करने के लिए अपने कार्यों को सम्पन्न करते समय एक दो मिनट का समय निकालकर यह ध्यान कीजिए कि परमात्मा शक्तिमानहै उसी का अंश मेरी आत्मा है,यह शरीर तो साक्षी मात्र है मुझे कार्य के फल की चिन्ता नहीं करनी चाहिए, इस तरह चिंतन करते- करतेआंखें बन्द कीजिए, अपने शरीर कोशिथिल छोडकर देह को पूरा विश्राम लेने दीजिए,विचारों का बोझ मस्तिष्क से निकाल फेंकिए चिंता का बोझ उतारने में आपको जितनी सफलता मिलती है, उतना ही आप स्वयं को समर्थवान व शक्तिवान महशूष करेंगे। चिंता मुक्ति के लिए निम्न बातों को ध्यान में रखें ः-
1-परेशानियों का मुकाबला करने के लिए धैर्य का सहारा लीजिए ।
2-स्वयं में धैर्य का गुंण विकसित करने के लिए उतावलेपन को त्यागना होगा ।
3-अपने विचारों में से असम्भव शब्द को को हटा दें ।
4-किसी परेशानी पर शॉत चित्त से चिंतन करें ।
5-चिंतन सार्थक होना चाहिए ।
6- विना पूर्ण रूप से सोचे विचारे किसी कार्य को प्रारम्भ न करें ।
7-मन में यदि चिंता होती है तो अपने शुभ चिंतकों से इसकी चर्चा करें ।
8-परेशानी की स्थिति में अपने इषट मित्रों त था परिवार वालों तथा पडोसियों से सहायता लें ।
9-किसी अनजान के सामने अपनी समस्या न रखें ।
10-किसी भी कार्य को क्रमवद्ध , स्पष्टतया तथा तसल्ली से करने पर स्वयं में धैर्य का गुंण विकसित होता है


7-परमात्मा दयालू है-
        यदि हमसे कभी कोई भूल होती है तो परमात्मा हमसे बदला नही चाहता है, बल्कि हमको बदलना चाहता है। वह एक न्यायाधीश है,दयालु और क्षमाशील भी है।यदि हम पाश्चाताप करें और उसके जल से स्वयं को निर्मल करें और पवित्र मन से उन गलतियों को न दोहराने का संकल्प करते हैंतो,तब परमात्मा के दर्शन दयालु और क्षमाशील के रूप में होते हैं।


 
8-पवित्र मन एक तीर्थ के समान है-
        हमारे मन के भाव जितने पवित्र होंगे, हम उतने ही ऊचे उठते जायेंगे । इसीलिए निर्मल मन किसी भी तीर्थ से कम नहीं होता है । सिससे हमारा धर्म- ध्यान भी उतना ही परिपक्व होगा । क्योंकि धर्म जीवन का आधार है ।धर्म तो मानव को संसार से पार ले जाने वाली नौका के समान है, जो कि हमें आपस में प्रेम भाव और सुख शॉति की प्रेरणा देता है ।धर्म के अभाव में तो मनुष्य का जीना दूभर हो जाय।


 
9-पहले आज को सवारें-
        हमारे जीवन का स्वर्णिम कल आज पर ही निर्भर है यदि भविष्य को उज्जवलमय करने की आकॉक्षा आपके मन में है तो सबसे पहले आज को सवारना होगा क्योंकि कल के स्वर्णिम भविष्य के महल की दीवार तो आज है। पहले आज को संवारो।बुराई को कल पर टाल दो, और भलाई को आज करने को तत्पर हो जाओ ।


 
10-पहले स्वयं में झॉककर देखें-
        कुछ लोग संसार की चिंता में मरे जा रहे होते हैं । वे अपनी हालत नहीं देखते कि हमारे भीतर क्या हो रहा है, उन्हैं पहले अपने को जान लेना चाहिए,अपने भीतर झाडू लगा लेना चाहिए,फिर दूसरे के घर की चिंता करनी चाहिए ।वे पहले अपने अन्तः जगत की देख भाल कर लें कि अन्दर कितनी गन्दगी भरी है, भीतर कितना कीचड जमा है,कितने विकार,वासनायें इकठ्ठी कर रखी हैं ।ऎसी स्थिति में दूसरों को भी हानि पहुंचायेंगे । अभी तो वे जहर से भरे हैं तो जहर ही फैलायेंगे । पहले स्वयं को अमृत से भर लें फिर संसार की चिंता करना ।


 
11-पाप क्या है-
        पाप एक दुर्भाव है,जिसके कारण हमारेआन्तरिक मन तथा अन्तरात्मा पर ग्लानि का भाव आता है ।जब हम कभी गन्दा कार्य करते हैं तो ह्दय में एक गुप-चुप पीडा का अनुभव होता रहता है,हारे मन का दिव्य भाग हमें प्रताडित करता रहता है,बुरा-बुरा कहता रहता है ।इसी आत्मभर्त्सना से मनुष्य पश्चाताप करने की बात सोचता है ।यह पाप पानी की तरह होता है,यह हमें नीचे की ओर खींचता है ।आप चाहे कितने ही प्रयत्न करें,आन्तरिक पाप से कलुषित मन स्पस्ट प्रकट हो जाता है।अवगुंण से तो मनुष्य की उच्च सृजनात्मक शक्तियॉ पंगु हो जाती हैं,बुद्धि और प्रतिभा कुण्ठित हो जाती है ।किसी भी स्थिति में पाप और द्वेष की प्रवृत्ति बुरी और त्यागने योग्य है ।।

 
12-गुनाह या पाप वह अग्नि है जो सुलगती रहती है-
        हम जो पाप या गुनाह करते हैं वे जलते हुये वे वस्त्र हैं जिन्हैं यदि छिपाकर रखा जाता है तो वह अग्नि अन्दर ही अन्दर सुलगती रहती है, और धीरे-धीरे समीप के वस्त्रों तथा अन्य वस्तुओं को भी जला डालती है।सम्भवतः उस अग्नि का धुआं उस समय न दिखाई दे,लेकिन अदृश्य रूप में वह वातावरण में सदा मौजूद रहता है ।पाप या गुनाह की अग्नि ऐसी अग्नि है,जो अन्दर ही अन्दर मनुष्य में विकार उत्पन्न करती है,इस आन्तरिक पाप की काली छाया अपराधी के मुख,हाव-भाव, नेत्र,चाल-ढाल इत्यादि द्वारा अभिव्यक्त होती रहती है ।अपराधी या पापी चाहे कुछ भी समझता रहे वह अपराध को छिपाना चाहता है,परन्तु वास्तव में पाप छिपता नहीं है।मनुष्य का अपराधी मन उसे सदा व्यग्र,अशॉत और चिंतित रखता है ।।


 
13-पाप में प्रवृत्त मनुष्य के अंग-
        प्रायः मनुष्य के तीन अंग पाप में प्रवृत्त होते हैं । शरीर,वॉणी,और मन ,इनके द्वारा किये गये पाप-कर्मों के नाना रूप होते हैं,इनसे बचे रहें।अर्थात शरीर वॉणी और मन का उपभोग करते हुये सचेत रहें ।कहीं ऐसा न हो कि आत्मसंयम में शिथिलता आ जाय और पाप पथ पग बढ जाय ।कभी-कभी हमें विदित नहीं होता कि हम कब गलत रास्ते पर चलेजा रहे हैं । गुप-चुप पाप हमें बहा ले जाता है और हमें अपनी सोचनीय अवस्था का ज्ञान तब होता है जब हम पतित हो जाते हैं ।


14-पाप कर्म मनुष्य जीवन के लिए अभिशाप है-
        अपने शरीर के द्वारा अनुचित कार्य करना शारीरिक पाप है।इसमेंवे समस्त कुकृत्य हैं,जिन्हैं करने से ईश्वर के मंदिर रूपी इस मानव शरीर का क्षय होता है ।परिणॉम स्वरूप इस काया में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, जिससे जीवित अवस्था में ही मनुष्य को कुत्सित कर्म की यन्त्रणॉयें भोगनीं होती हैं ।शरीर के पाप में हिंसा पहला पाप है ।इसमें इस शरीर का अनुचित प्रयोग किया जाता है ।उसे उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता है,उसकी मुख मुद्रा में दानव जैसे क्रोध,घृणॉ और द्वैष की अग्नि निकलती है । इस प्रकार के लोगों में मानवोचित्त गुंण क्षय  होकर राक्षसी प्रवृत्तियॉ उत्तेजित हो उठती हैं, मरणोंपरान्त भी उसकी आत्मा अशॉत रहती है ।


15- पाप कर्म कई रूपों में मनुष्य पर आक्रमण करता है-
        पाप कर्म ऐसी घृणित दुष्प्रवृत्ति है जो कई रूपों में और वस्थाओं में मनुष्य पर आक्रमण किया करती है,इसलिए इससे सावधान रहने की आवश्यकता है ।कहते हैं मनुष्य के मन के एक अज्ञात कोने में शैतान का निवास होता है,मनुष्य उस पाप की ओर अज्ञानतावशः खिचता जाता है क्षणिक वासना या थोडे लाभ के अन्धकार में उसे उचित-अनुचित का विवेक नहीं रहता है ,वह अपना स्थाई लाभ नहीं देख पाता है और किसी न किसी पतन के ढालू मार्ग पर आरूढ हो जाता है ।।


16-पूर्णता हमारा स्वभाव व अधिकार है-
        जिस प्रकार किसान को अपने खेतों में पानी की सिंचाई के लिए कहीं से पानी लाने की आवश्यकता नहीं होती है, बल्कि खेत के किनारे ही तालाबब या नहर में पानी है, बीच में एक बॉध होने के कारण खेत में पानी नहीं आ पा रहा है। बस किसान उस बॉध को खोल भर देता है, फिर पानी गुरुत्व बल के नियमानुसार अपने आप खेत में आ जाता है। ठीक उसी प्रकार सभी व्यक्तियों में सभी प्रकार की उन्नति और शक्ति पहले ही से निहित है। पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, लेकिन उसके द्वार अभी बन्द हैं। उसे यथार्थ रास्ता नहीं मिल पा रहा है,बीच में एक बाधा है, कोई अगर उस बाधा को दूर कर दे तो वह विद्यमान पहले की शक्तियों को प्राप्त कर लेता है, और जिन्हैं पापी कहते हैं वे भी साधु में बदल जाते हैं, यह प्रकृति तो हमें पूर्णता की ओर ले जाती है, धार्मिक होने के लिए साधनाएं और प्रयत्न हैं बस वे ही तो इस बाधा को दूर करते हैं, जिससे पूर्णता के द्वार खुल जाते हैं। जो कि हमारा जन्मसिद्ध  अधिकार और हमारा स्वभाव भी है ।


 
17-कर्मवाद और आत्मा-
        कर्मवाद में हमें उपने-अपने भले-बुरे कर्मों का फल भोगना होता है। लेकिन देखने वाली बात यह है कि क्या शुभ-अशुभ कर्म आत्मा पर प्रभाव डाल सकते हैं अगर डालते हैं तो आत्मा का स्वरूप क्या है जो इस तरह प्रभावित हो जाती है। वास्तव में अशुभ कर्म मनुष्य के अपने स्वरूप की अभिव्यक्ति में बाधा डालते हैं, और शुभ कर्म उन बाधाओं को दूर करते हैं। स्वयं मनुष्य में कोई परिवर्तन नहीं होता । तुम चाहे जो करो। तुम्हारे अपने स्वरूप को कोई भी नष्ट नहीं कर सकता। आपका असली स्वरूप आपकी आत्मा है।कोई भी वस्तु उस आत्मा पर प्रभाव नहीं डाल सकती।उससे सिर्फ आत्मा पर एक आवरण जैस,पड जाता है,जिससे आत्मा पूर्णतः ढक जाती है।


 
18-जीवन का रहस्य -
        अगर आप जीवन को समझने की कोशिस करते हैं तो समझ में नहीं आयेगा, समझने की बात भूल जाओ, जीवन तो एक रहस्य है,यही जीवन का अर्थ है ।बस सिर्फ जिओ इससे ही सब समझ में आ जायेगा।जीवन के बारे में समझ में आने से संपूर्णता का वोध होता है, लेकिन इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है, इसलिए जीवन को रहस्य कहते हैं। बस इतना तो निश्चित है कि जीवन को जिया जा सकता है ।उसे समझा नहीं जा सकता


19-प्रकृति द्वारा विपत्ति की क्षति पूर्ति-
        प्रकृति के नियमों में एक विचित्र अद्भुत रहस्य है कि हर विपत्ति के बाद उसकी विरोधी सुविधा उपलब्ध हो जाती है, मृत्यु के बाद जन्म होता है रोग,घाटा,शोक आदि विपत्तियॉ स्थाई नहीं हैं वे तो आंधी की तरह आती हैं और तूफान की तरह चली जाती हैं।उनके जाने के बाद एक दैवीय प्रतिक्रिया होती है जिसके द्वारा उस क्षति पूर्ति के लिए कोई इस प्रकार का विचित्र मार्ग निकल आता है,जिससे बडी तेजी से उस क्षति पूर्ति की किसी न किसी प्रकार पूर्ति हो जाती है, जो आपत्ति के कारण हुई थी ।


20--व्रत की परम्परा मनुष्य ही नहीं पशुओं में भी है-
       सभी धर्मों में व्रत का महत्व है,इससे जीवन अनुशासित होता है।जीवन में आये अनेक संघर्ष स्वतःनष्ट हो जाते हैं।सहिष्णुता में वृद्धि होती है।हमारा जीवन शॉतिप्रिय तथा प्रशन्नचित्त रहता है। व्रत का पालन करने में चित्त की एकाग्रता एवं संकल्प आवश्यक है। व्रत से आत्मा गलत कार्यों के लिए नहीं उकसाती । पशु-पक्षियॉ भी व्रत केनियमों का पालन करते हैं ।जानवर भूखे पेट शिकार करते हैं भरे पेट नहीं करते हैं ।रात्रि के समय भी पशु-पक्षी भोजन नहीं करते तथा सूर्यास्त के बाद अपने गुफाओं व घोंसलों में चलेजाते हैं ।जबकि मनुष्य जीवन में रात-दिन लिप्त सॉसारिक मायामोह से व्रत के नियमों की अवहेलना करता है।जिससे समाज, परिवार, पास-पडोस में कलह व अशॉति बढती जा रही है। धर्म के शाश्वत मूल्य तो व्रत में निहित हैं जिससे जीवन में मानव को सुख- शॉति मिलती है ।


 
21-नेक कमाई के उपभोग से सात्विकता आती है-
        व्यक्ति को अर्थ सुचिता का ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि इससे अनेक संयम स्वतः आ जाते हैं ।नेक कमाई से खरीदे अन्न में पवित्रता औ सात्विकता होती है ,क्योंकि पवित्र आहार से पवित्र विचार और पवित्र विचार से आचार व्यवहार पवित्र होता है ।जिन विचारों से आपका अन्तःकरण शुद्ध ,बुद्धि और आपका ह्रदय पूर्ण समर्थन देता हुआ आनन्दित होता है उन विचारों से आपका मन जुड जाता है ।


 
22-प्रभु से एकता ही स्वर्ग है-
        स्वर्ग और पृथ्वी सब हमारे अंदर है, पर अपने अंदर के स्वर्ग से सभी परिचित नहीं हैं । सम्पूर्ण स्वर्ग आपके भीतर है। सारे सुखों का श्रोत आपके भीतर है, ऎसी दशा में अन्यत्र आनंद को ढूंडना कितना अनुचित और असंगत है।


 
23-प्रयत्न ही सफलता की कुंजी है-
        असफलताऔं से न घबडाकर लगातार प्रयत्न करने वालों की गोद में सफलता खुद आकर बैठ जाती है। आदर्श को पकडने के लिए सेकडों बार आगे बढो और यदि सेकडों बार असफल हो जाओ फिर भी एक बार नया प्रयास अवश्य करों । महान ध्येय के प्रयत्न में ही आंनंद है, खुशी है, और एक हद तक प्राप्ति की मात्रा भी प्रयत्न तो एक देवदा है ,इसलिए प्रयत्नदेव की उपासना करना ही श्रेयस्कर है।


 
24-प्रशन्नचित्त होकर जीना सीखें-
        मनुष्य जीवन परमात्मा का एक अनुपम उपहार है, प्रत्येक मानव को यह जीवन गुजारना ही पडता है चाहे रोकर गुजारे या हंसकर गुजारें यह जीवन तो गिने-चुने दिनों का होता है इसे क्यों न प्रशन्नचित्त होकर गुजारें।जीवन में उतार-चढाव होते रहते हैं, इनका सामना करने के लिए स्वयं को प्रशन्नचित रखें, मानसिक द्वंद से बचने के लिए तो हंसना-ही एक मात्र उपाय है ।कठिन से कठिन समस्याओं का हल हंसने मुस्कराने से आसान हो जाता है। यदि जीवन के हर क्षण उलझनों में ही उलझाये रखेंगे तो विक्षिप्त हो जाओगे। प्रशन्नचित्त रहने वाला व्यक्ति बडी-बडी समस्याओं को आसानी से सुलझा देता है।महॉपुरुषों का जीवन देखें तों संघर्षमय जीवन में सफलता पाने का रहस्य उनकी प्रशन्नता का होना रहा है।कवि रविन्द्रनाथ ने कहा है कि जब में अपने आप हंसता हूं तो मेरा बोझ हलका हो जाता है । हंसी यौवन का आनन्द है, सौन्दर्य है, श्रंगार है, जो व्यक्ति इन्हैं धारण नहीं करता उसका यौवन नहीं ठहर सकता। खिलखिलाकर हंसना, हास्य व्यंग और विनोदपूर्ण मुस्कराहटह क्रोधित मनुष्य को भी हंसा देती है प्रशन्नचित्त रहने सो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर चमत्कारी प्रभाव पडते है, तो फिर आप कोशिश करें कि किन कार्यों को करने से खुशी मिलेगी,अपनी खुशी आपस में बॉटकर लुफ्त उठायें,हमेशा तरोताजा तथा जवान रहने के लिए प्रशन्नचित्त रहें खूब हंसें ठहाका लगाकर हंसें यह हंसी परमात्मा की देन है इसलिए जितना चाहें हंसिए फिर देखना जिन्दगी किस तरह खिल उठती है। प्रशन्नचित्त रहकर हंसते समय निम्न बातों को ध्यान में रखें ः- कभी भी हंसने का अवसर न गवायें,सबअच्छा ही होगा को ध्यान में रखें,बच्चों के साथ बच्चा बन जाइये,विपरीत समय में भी प्रशन्नचित्त रहें,छोटी मोटी बातों को हंसकर नजरंदाज कर दें,अपने बचपन की शरारतों को ध्यान में रखें,मूढ ठीक करने के लिए अपने प्रिय गीत को गुनगुनाते रहें,जीवन में व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनायें,उन कार्यों को करें जिनसे आपको सन्तुष्टि होती हो,वर्तमाटन समय में आप जितना खुश रह सकते हों रहें,कल की चिंता भूलकर आज भरपूर भोग करें,क्रोध आने पर किसी व्यंगपूर्ण विषय पर चर्चा न करें, जब अधिक कार्य में व्यस्त होते हो तब साथियों के साथ व्यंग विनोद करते रहें, असामान्य स्थिति में गुस्से पर नियनत्रण रखें , बस आओ इस बात को न भूलें कि– हर वक्त गुल बनकर मुस्कराना ही जिन्दगी है,मुस्कराकरगम भुलाना ही जिन्दगी है। सफलता पर खुश हुये तो क्या , हारकर खुश रहना ही जिन्दगी है ।


25-प्रशन्नचित्त होने की स्थिति -
        प्रशन्नचित्त,हर्ष और शोक से परे की स्थिति है, उसमें न हर्ष होता है और न शोक होता है।प्रशनन्ता तो हमारे चित्त की निर्मलता की स्थिति है ।जब आकाश प्रशन्न होता है तो वर्षा,बादल,धुंध आदि से मुक्त होता है,और केवल प्रकाश,केवल उज्वलता,केवल निर्मलता दिखाई देता है ।प्रशन्नता के साथ अभयता भी साथी के रूप में सदैव सामने रहता है। दोनों साथ-साथ रहते हैं ऎसा नहीं हो सकता कि प्रशन्नता है और अभय न हो और जैसे ही भय सामने आता है वैसे ही प्रशन्नता चली जाती है ।तथा प्रशन्नता के आने पर भय चला जाता है तथा प्रशन्नता के साथ अभय उपस्थित हो जाता है ।


26-अपने प्रति वफादार रहो-
        सेक्सपियर ने कहा था कि अपने प्रकि वफादार बनो । जब कोई परमात्मा के प्रति निष्ठावान होता है तब उसके अन्दर के सद्गुण चमकते हैं ।सत् ही पवित्र है,और उसकी पवित्रता ही सबसे बडी शक्ति है ।वह गुरुत्वाकर्षण है जो अपनी ओर लोगों को आकर्षित करती है। यह वही बल है जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है।यह वही बल है,जो समान गुणयुक्त,कल्याणकारी और ईमानदार व्यक्तियों को आकर्षित करता है । इस संसार में ईमानदारी से व्यवहार करने से ही आनंद और संतोष प्राप्त होता है ।
 


प्रेममय जीवन की कसौटी

1-        आज की जिन्दगी में व्यक्ति जब एक-दूसरे को पीछे धकेलते हुए आगे बढ़ने की होड़ में संवेदनाओं को खोता चला जा रहा है, रिश्तों और एहसासों से दूर, संपन्नता में क्षणिक सुख खोजने के प्रयास में लगा रहता है, ऐसी स्थिति में जहां प्यार बैंक-बैलेंस और स्थायित्व देखकर किया जाता है, वहां सच्ची मोहब्बत, पहली नजर का प्यार और प्यार में पागलपन जैसी बातें बेमानी लगती हैं परंतु प्रेम शाश्वत है।
2-        प्रेम सोच-समझकर की जाने वाली चीज नहीं है। कोई कितना भी सोचे, यदि उसे सच्चा प्रेम हो गया तो उसके लिए दुनिया की हर चीज गौण हो जाती है। प्रेम की अनुभूति विलक्षण है। प्यार कब हो जाता है, पता ही नहीं चलता। इसका एहसास तो तब होता है, जब मन सदैव किसी का सामीप्य चाहने लगता है। उसकी मुस्कुराहट पर खिल उठता है। उसके दर्द से तड़पने लगता है। उस पर सर्वस्व समर्पित करना चाहता है, बिना किसी प्रतिदान की आशा के।

3-        जयशंकर प्रसाद ने कहा है कि चतुर मनुष्यों के लिए नहीं है। वह तो शिशु-से सरल हृदय की वस्तु है।’ सच्चा प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता, बल्कि उसकी खुशियों के लिए बलिदान करता है। प्रिय की निष्ठुरता भी उसे कम नहीं कर सकती। वास्तव में प्रेम के पथ में प्रेमी और प्रिय दो नहीं, एक हुआ करते हैं। एक की खुशी दूसरे की आँखों में छलकती है और किसी के दुःख से किसी की आँख भर आती है।

4-        आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि ‘प्रेम एक संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’ प्रेम एक तपस्या है, जिसमें मिलने की खुशी, बिछड़ने का दुःख, प्रेम का उन्माद, विरह का ताप सबकुछ सहना होता है। प्रेम की पराकाष्ठा का एहसास तो तब होता है, जब वह किसी से दूर हो जाता है।

5-        खलील जिब्रान के अनुसार- ‘प्रेम अपनी गहराई को वियोग की घड़ियां आ पहुँचने तक स्वयं नहीं जानता।’ प्रेम विरह की पीड़ा को वही अनुभव कर सकता है, जिसने इसे भोगा है। इस पीड़ा का एहसास भी सुखद होता है। दूरी का दर्द मीठा होता है। वो कसक उठती है मन में कि बयान नहीं किया जा सकता। दूरी प्रेम को बढ़ाती है और पुनर्मिलन का वह सुख देती है, जो अद्वितीय होता है।


6-        प्यार के इस भाव को इस रूप को केवल महसूस किया जा सकता है। इसकी अभिव्यक्ति कर पाना संभव नहीं है। बिछोह का दुःख मिलने न मिलने की आशा-आशंका में जो समय व्यतीत होता है, वह जीवन का अमूल्य अंश होता है। उस तड़प का अपना एक आनंद है।

7-        प्यार और दर्द में गहरा रिश्ता है। जिस दिल में दर्द ना हो, वहाँ प्यार का एहसास भी नहीं होता। किसी के दूर जाने पर जो खालीपन लगता है, जो टीस दिल में उठती है, वही तो प्यार का दर्द है। इसी दर्द के कारणप्रेमी हृदय कितनी ही कृतियों की रचना करता है।
8-प्रेम को लेकर जो साहित्य रचा गया है, उसमें देखा जा सकता है कि जहाँ विरह का उल्लेख होता है, वह साहित्य मन को छू लेता है। उसकी भाषा स्वतः ही मीठी हो जाती है, काव्यात्मक हो जाती है। मर्मस्पर्शी होकर सीधे दिल पर लगती है।


9-        प्रेम में नकारात्मक सोच के लिए कोई जगह नहीं होती। जो लोग प्यार में असफल होकर अपने प्रिय को नुकसान पहुंचाने का कार्य करते हैं, वे सच्चा प्यार नहीं करते। प्रेम सकारण भी नहीं होता। प्रेम तो हो जाने वाली चीज है।
10-प्रेम की पहचान-
        प्रेम की बात सब जगह सुनाई देती है,हर कोई कहता है,प्रेम हो गया ,ईश्वर से प्रेम करो । लेकिन मनुष्यों को पता नहीं कि प्रेम है क्या ।यदि वे जानते तो इसके सम्बंध में ऐसी खोखली बातें नहीं करते ।प्रेम करने वाले के बारे में शीघ्र पता चल जाता है कि उसके स्वभाव में प्रेम है कि नहीं।एक स्त्री प्रेम की बात करती है लेकिन तीन मिनट में पता चल जाता है कि वह प्रेम नहीं कर सकती है।इस संसार में प्रेम की बातें तो भरी पडीं हैं ,लेकिन प्रेम करना कठिन है।प्रेम कहॉ है?और प्रेम है, यह तुम कैसे जानते हो ?प्रेम का पहला लक्षण तो यह है कि इसमें व्यापार या शौदागरी नहीं होती है।तब तक तुम किसी मनुष्य से कुछ पाने की इच्छा से प्रेम करते हो तो,जान लो बह प्रेम नहीं है। वहॉ कोई प्रेम नहीं रहता ।जब कोई मनुष्य ईश्वर से प्रार्थना करता है,मुझे यह दो, मुझे वह दो,तो वह प्रेम नहीं है।वह प्रेम कैसे हो सकता है?मैं तुम्हें एक प्रार्थना सुनाता हूं और तुम मुझे उसके बदले कुछ दो, यह तो वही दुकानदारी की बात हो गई ।प्रेम का पहला लक्षण है वह शौदा करना नहीं जानता,वह तो सदा देता है।प्रेम सदा देने वाला होता है,लेने वाला कभी नहीं ।भगवान से प्रेम करने वाला कहता है कि ,यदि भगवान चाहे तो मैं अपना सर्वस्व उन्हैं दे दूं,पर मुझे उनसे कोई चीज नहीं चाहिए ।मुझे इस दुनियॉ में किसी चीज की चाह नहीं है।मैं उनसे प्रेम करता हूं,बदले में मैं कुछ नहीं मॉगता। मुझे न उनकी शक्ति चाहिए ,न उनकी शक्ति का प्रदर्शन । वे तो प्रेम स्वरूप भगवान हैं।

11-प्रेम में कोई भय नहीं रहता है-
        जब प्रेम होता है तो भय नहीं रहता ।क्या कभी बकरी शेर पर,चूहा बिल्ली पर या गुलाम अपने मालिक पर प्रेम करता है?गुलाम लोग कभी-कभी प्रेम दिखाया करते हैं,पर क्या वह प्रेम है? क्या डर में तुमने प्रेम देखा है? ऐसा प्रेम तो सदा बनावटी होता है।जबतक मनुष्य की ऐसी भावना है कि ईश्वर आकाश में बादलों के ऊपर बैठा है,एक हाथ में पुरुष्कार और दूसरे हाथ में दण्ड,तब तक प्रेम नहीं हो सकता ।प्रेम के साथ भय या किसी भयदायक वस्तु का विचार नहीं आता ।मान लो ,एक युवती माता सडक से जा रही है और एक कुत्ता उसकी ओर भौंकने लगा,तो वह पास वाली मकान में जायेगी ।और दूसरे दिन उसके साथ उसका बच्चा भी है और एक सिंह उस बच्चे पर झपटता है,तब वह माता कहॉ जायेगी? तब तो वह अपने बालक की रक्षा करके सिंह के मुख में प्रवेश कर जायेगी।प्रेम तो सारे भय को जीत लेता है।उसी प्रकार ईश्वर का प्रेम है वह चाहे दण्डदाता है या वर दाता है इसकी किसे परवाह है ?जिन्होंने ईश्वर के प्रेम का स्वाद कभी नहीं लिया,वे ही उससे डरते हैं और जीवन भर उसके सामने भय से कॉपते हैं।अतः डर को दूर करें ।

12-प्रेम तो एक सर्वोच्च आदर्श है-
        प्रेम करने वाला जब सौदागरी छोड देता है और समस्त भय दूर भगा देता है , तब वह ऐसा अनुभव करने लगता है कि प्रेम ही सर्वोच्च आदर्श है।कितनी ही बार एक रूपवती स्त्री कुरूप पुरुष से प्यार करते देखी गई है ।कितनी बार एक सुन्दर पुरुष किसी कुरूप स्त्री से प्रेम करते देखा गया है ,ऐसे प्रसंगों में आकर्षक वस्तु कौनसी है? बाहर से देखने वालों को तो कुरूप पुरुष या कुरूप स्त्री ही दिख पडती है,लेकिन वह प्रेम तो नहीं देखता।प्रेमी की दृष्टि में उससे बढकर सुन्दरता और कहीं नहीं दिखाई देती ।ऐसे कैसे होता है ?जो स्त्री कुरूप पुरुष को प्यार करती है,उसका अपने मन में जो सौंदर्य का आदर्श है,उसे लेकर उस कुरूप पुरुष पर आरोपित करती है,वह जो अपासना या प्यार करती है ,वह उस पुरुष को नहीं बल्कि अपने आदर्श को डालकर उसे आच्छादित कर देती है। यही वात सभी प्रेम पर लागू होती है।जैसे भाई या बहिन साधारण रूप के हैं तो भाई या बहिन होने का भाव ही उन्हैं हमारे लिए सुन्दर बना देता है ।

13-प्रेममय हो जाना ही जीवन है-
        प्रभु ने हमें अपार प्रेंम दिया है तो फिर घुट-घुट कर क्यों जीते हो। प्रेम अनुभव की चीज नहीं है, वह तो स्वयं आप में है,यदि किसी से मिलते हो तो मिलते ही खूब हंसने लग जाते हो,खुश हो जाते हो,इसके लिए आपने कोईप्रयत्न तो नहीं किया यह तो अपने आप हुआ। प्रेम तो मॉगने से कम हो जाता है देने से बढता है,क्योंकि हर व्यक्ति प्रेम चाहता है। और प्रेम चाहने से नहीं होता बल्कि प्रेम देने से होता है। देखने,मिलने से प्रेम होता है। प्रेम से प्यार हो जाता है और प्यार से त्याग हो जाता है तथा यह त्याग ज्ञान में बदल जाता है। जिससे हम प्रेम करते है उसकी हर बात बहुत ध्यान से सुनते हैं। उसका हर काम हर बात बहुत ही अच्छी लगती है,सुन्दर लगती है,इसलिए सबसे प्रेम करों, उस प्रभु से प्रेम करो सब सुन्दर लगेंगे ।

14-प्रेममय जीवन-
        स्वयं पर विजय प्राप्त करें तो तत्वज्ञानी बन सकते हो जिस मनुष्य ने स्वयं के ऊपर अधिकार प्राप्त कर लिया,उसके ऊपर संसार की कोई भी चीज अपना प्रभाव नहीं डाल सकती,उसके लिए तो किसी भी प्रकार का बन्धन शेष नहीं रह जाता ।उसका मन स्वतंत्र हो जाता है ।और वही पुरुष संसार में रहने योगय है।सामान्यतः देखा जाता है कि संसार के सम्बंध में दो प्रकार की धारणॉएं होती हैं।कुछ लोग निराशावादी होते हैं ।वे कहते हैं-संसार कैसा भयानक है,कैसे दुष्ट है।और करछ लोग आशावादी होते हैं और कहते हैं-अहा संसार कितना सुंदर है,कितना आंनंद है । जिन लोगों ने अपने पर विजय प्राप्त नहीं की है,उनके लिए यह संसार या तो बुराइयों से भरा है,या अधिक से अधिक,अच्छाइयोंऔर बुराइयों का एक मिश्रण है ।और यदि हम अपने मन पर विजय प्राप्त कर लेंते हैं,तो यही संसार सुखमय हो जाता है ।फिर हमारे ऊपर किसी बात के अच्छे या बुरे भाव का असर न होगा।इसके लिए अभ्यास जरूरी है।पहले श्रवण करें,फिर मनन करें,फिर अमल करें।प्रत्येकयोग के लिए यही बात सत्य है ।सब बातों को एकदम समक्ष लेना बडा कठिन है।इसमें हमें स्वयं को सिखाना होता है। बाहर के गुरु तो केवल उद्दीपन कारण मात्र हैं, जो कि हमारे अंदर के गुरु कोसब विषयों का मर्म समझने के लिए प्रेरित करते हैं, बहुत सी बातें स्वयं की विचारशक्ति से स्पष्ट हो जाती है और उनका अनुभव हम अपनी ही आत्मा में करने लगते हैं,और यह अनुभूति ही अपनी प्रवल इच्छा में परिवर्तित हो जाती है। पहले भाव फिर इच्छाशक्ति ।इससे कर्म करने की जबरदस्त इच्छा शक्ति पैदा होती है,जो हमारे प्रत्येक नस,प्रत्येक शिरा और प्रत्येक पेशी में कार्यकरती है,जबतक कि हमारा समस्त शरीर इस निष्काम कर्मयोग का एक यंत्र ही नहीं बन जाता,तबतक निरंतर अभ्यास जरूरी है ।फिर सुकदेव जैसे योगी बन सकते हो ।


15-प्रेम में इन्द्रियों व देह का सम्बन्ध नहीं होता-
        ज्ञानी लोग प्रेम से मुक्त होते हैं। वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रेम नहीं करते, और न वे दूसरों कोव्यक्तिगत रूप से अपने प्रति प्रेम करना, और अपने में आसक्त होना देना चाहते हैं। इसीलिए वे किसी के प्रति माया-मोह में नहीं फंसने देना चाहते हैं। वे तो अपनी आत्मा और भगवान को सभी में देखते हैं,अतः सभी जीवों परउनका प्यार और स्नेह समान होता है। उनके प्रेम में, देह और इन्द्रियों का कोई सम्बन्ध नहीं होता। कामान्ध नहीं। ज्ञानी तो प्रकृत प्रेमी होता है और प्रकृत प्रेमी ही ज्ञानी होता है ।

16-प्रेम और ध्यान एक दूसरे के पूरक हैं -
बिना ध्यान के प्रेम संभव नहीं है और बिना प्रेम का ध्यान सम्भव नहीं है ।प्रेम ध्यान का एक ढंग है। लेकिन आपने तो प्रेम का अपना अलग ही अर्थ बना दिया , अगर आपके प्रेम से सत्य मिलता तो पहले ही मिल गया होता । उस प्रेम को तो आप कर ही रहे हो पत्नी से प्रेम ,बच्चे से प्रेम,पिता से प्रेम,मित्रों से प्रेम ऎसा प्रेम तो आपने जन्म से किया है । आप तो प्रेम को देह की भाषा में अनुवाद करते हैं, मेरे लिए तो प्रेम का वही अर्थ है जो प्रार्थना का है । प्रेम का अर्थ है अभिन्नता का बोध, हमें और किसी दूसरे के बीच एकता का अनुभव होना ,प्रेम प्रार्थना है । जहॉ प्रेम है वहॉं ध्यान है ,और जहॉ ध्यान है वहॉ प्रेम है ।


17-प्रेम में पडना वास्तविक पतन है-
        प्रेम में पडना महॉकाली की माया फैलती है और आप आसक्त हो जाते हैं।आपके अहं को बढावा मिलता है ।ऐसे मामलों में दो चीजें हो सकती हैं,अपनी पत्नी या पति,प्रेमी या प्रेमिका जिसके आप भक्त हैं,जिसकी प्रशंसा करते हैं ,उसी के कारण आप पूर्णतः खो जाते हैं,समाप्त हो जाते हैं आपका व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है,आप हमेशा के लिए टूट जाते हैं,और फिर एक दुसरे से घृणा करने लगते हैं।इसीलिए कहा जाता है कि –“प्रेम और घृणा सम्बन्ध’ प्रेम किस प्रकार घृणा हो सकता है,परन्तु देवी के इस गुण के कारण ऐसा हो जाता है। एक ओर तो अति प्रेममय, अति करुणांमय और अति कोमल है।परन्तु उसके बाद आपको दूसरी ओर धकेल देती है, इसी कारण जो लोग प्रेम में पडते हैं वे सभी मर्यादायें लॉघ जाते हैं।प्रेम में पडकर वे ऐसे व्यक्ति से विवाह कर लेते हैं कि जो पहले ही विवाहित है,एक वृद्ध महिला युवा व्यक्ति से विवाह करती है।वृद्ध पुरुष युवा लडकी से विवाह कर लेता है,उनमें मर्यादा बिल्कुल नहीं होती है। अतः सावधानी रहें कहीं खो न जायें।

18-प्रेम ज्ञान और मोह अज्ञान है -
        प्रेम और मोह के सम्बन्ध में अगर अन्तर देखें तो , अन्तर के लिए पहला तथ्य स्वयं के सम्बन्ध में सामने आता है कि – मैं अपने आप को जानता हूं अथवा नहीं जानता हूं -इस वाक्य के उत्तर में – मैं कौन हूं- इसको न जानने से जो प्रीति पैदा होती है यह मोह है। और मैं कौन हूं -इसको जानने से तो वास्तविक प्रेम आता है । अतः प्रेम ज्ञान है और मोह अज्ञान है । प्रेम समस्त के प्रति है,वह स्वयं में है , वह किसी से होता नहीं है, बुद्ध उसे करुणॉ कहते हैं , महॉवीर उसे अहिंसा कहते हैं,वह अकारण है, नित्य है, इसलिए प्रेम निर्पेक्ष है । जबकि मोह सापेक्ष है क्योंकि मोह तो नित्य नहीं है, यह किसी कारण से होता है ,यह एक के प्रति होता है इसलिए दुख का मूल है । प्रेम तो तब आता है जब मोह जाता है । मोह की मुक्ति से ही प्रेम होता है और इसे पा लेना सब कुछ पा लेना है।प्रेम तो मुक्ति प्राप्त कर लेना है ।


19-प्रेम ज्ञान और मोह अज्ञान है-
        प्रेम और मोह में तुलना करने के लिए पहला प्रश्न है कि - मैं अपने आप को जानता हूं अथवा नहीं जानता हूं-इस वाक्य के उत्तर में-मैं कौन हूं-इसको न जानने से जो प्रीति पैदा होती है यह मोह है। और मैं कौन हूं-इसको जानने से तो वास्तविक प्रेम आता है। अतःप्रेम ज्ञान है और मोह प्रेम और मोह के सम्बन्ध में अगर अन्तरदेखें तो,अन्तर के लिए पहला तथ्य स्वयं के सम्बन्ध में सामने अज्ञान है।प्रेम समस्त के प्रति है,वह स्वयं में है,वह किसी से होता नहीं है, बुद्ध उसे करुणॉ कहते हैं,महॉवीर उसे अहिंसा कहते हैं,वह अकारण है,नित्य है, इसलिए प्रेम निर्पेक्ष है। जबकि मोह सापेक्ष है क्योंकि मोह तो नित्य नहीं है,यह किसी कारण से होता है,यह एक के प्रति होता है,इसलिए दुख का मूल है।प्रेम तो तब आता है जब मोह जाता है। मोह की मुक्ति से ही प्रेम होता है और इसे पा लेना सबकुछ पा लेना है। प्रेम तो मुक्ति प्राप्त कर लेना है ।

20प्रेम में हमें वहीं दिखाई देता है जो हम हैं –
        प्रेम एक दर्पण हैं इसलिए हमें प्रेम में वहीं दिखाई देता है जो हम हैं।यदि हम दुखी हैं तो हमें दुख ही दुख दिखाई देता है।अगर हम आनन्दित हैं तो हमें आनन्द ही आनन्द दिखाई देता है । और यदि हमें परमात्मा का अनुभव हुआ है तो हमें हर- प्रेम पात्र में परमात्मा दिखाई देगा , और निश्चित रूप से जब प्रेम प्रगाढ होता है तो हमारा परमात्मा तक पहुंचने का सेतु बन जाता है

21-प्रेम से ह्दयचक्र का पोषण होता है-
        प्रत्येक धर्म में प्रार्थनाएं हैं । पर एक बात ध्यान में रखनी होगी कि आरोग्य या धन कमाने के लिए प्रार्थना करना भक्ति नहीं है, यह तो कर्म है ।किसी भौतिक लाभ के लिए प्रार्थना करना कर्म है,जैसे स्वर्ग प्राप्त करने के लिए या किसी अन्य कार्य के लिए जिसमें ईश्वर से प्रेम करना होता है,वह भक्त होना चाहता है,उसे ऐसी प्रार्थना छोड देनी चाहिए।प्रार्थना तो दुकानदारी हो गई,क्रय-विक्रय ।इस दुकानदारी की गठरी बॉधकर अलग रख देनी चाहिए, फिर उस प्रदेश के द्वार में प्रवेश करना चाहिए। जिस वस्तु के लिए प्रार्थना करनी थी विना प्रार्थऩा के पा सकते हो, तुम प्रत्येक वस्तु को पा सकते हो। लेकिन यह तो भिखारियों का धर्म हो गया ।मूर्ख ही कहा जायेगा उन लोगों को जो गंगा के किनारे बैठकर कुंवॉ खोदते हैं, या हीरों की खान में कॉच के टुकडों की खोज करते हैं।आश्चर्य है ईश्वरके पास मॉगा भी तो आरोग्य,भोजन, या कपडे काटुकडा। इस शरीर ने कभी न कभी मरना ही है तो फिर इसकी आरोग्यता के लिए बार-बार प्रार्थना करने से क्या लाभ ?आरोग्य और धन में रखा ही क्या है,मनुष्य अपने जीवन में थोडे से ही अंश का उपभोग कर सकेगा ।हम संसार की सभी चीजें प्राप्त नहीं कर सकते तो क्यों हम उनकी चिंता करें?जब कोई चीज आती है तो अच्छी बात,और जब कोई चीज जाती है तो भी अच्छी बात ।हम तो ईश्वर से साक्षात्कार करने जा रहे हैं, भिखारी के वेष में हम वहॉ प्रवेश नहीं कर पायेंगे,बाइविल में लिखा है कि ईशा मसीह ने खरीदने और बेचने वालों को वहॉ से भगा दिया था,लेकिन फिर भी लोग प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर मेरी तुच्छ विनती कि मुझे इसके बदले एक नईं पोषाक दे दे ,मेरा सिर दर्द मिटा दे या मैं कल दो घण्टे प्रार्थना अधिक करूंगा। इस मानसिक प्रवॉत्ति से ऊपर उठना होगा यदि मनुष्य ऐसी चीजों के लिए प्रार्थना करे तो फिर मनुष्य और पशु में अन्तर है ही क्या रह गया ।।

22-सच्चा प्रेम आत्मा से उत्पन्न होता है न कि मन से-
        मूलतः अगर हम देखें तो सच्चा प्रेम एक गुंण है, जो कि आत्मा से उत्पन्न होता है,न कि इन्द्रियों या मन से । इसलिए जब कोई किसी से प्रेम की बात करता है तो यह जानना चाहिए कि उसका प्रेम शरीर से है या आत्मा से।शरीरका आकर्षण भौतिक या स्थूल होता है ।यह सेक्स की भावना,आकर्षक राजकुमार के स्वप्न, मनुष्य की कुशलता या बुद्धि की प्रशंसा,कलाकार की कला का प्रदर्शन से आ सकती है।शारीरिक आकर्षण सच्चा प्रेम नहीं है,क्योंकि वह मन से उत्पन्न होता है । मन प्रेम नहीं करता है,वह केवल इच्छा करता है ।लेकिन सामान्यतः सच्चे प्रेम की भावना को भ्रम से सेक्स और व्यक्तिगत स्वार्थ समझ लिया जाता है,जबकि शुद्ध प्रेम निर्लिप्त होता है,वह आत्मा से उत्न्न होता है ।

23-प्रेम क्या है-
        प्रेम कभी मॉगता नहीं है, वह तो हमेशा देता है।प्रेम हमेशा कष्ट सहता है, न कभी झुंझलाता है,और न बदला लेता है। बस मानव जीवन का उद्देश्य तो आत्म दर्शन करना है,और उसकी सिद्धि का मुख्य एवं एक मात्र पाय पारमार्थिक भाव से जीव मात्र की सेवा करना है। मेरे पास मेरी आदिशक्ति माता जी के सिवा और कोई ताकत नहीं है। वही मेरा आसरा है। 24-प्रेम खास खुदा का घर है- आप मंदिर को तोड दो या मस्जिद को या गिरजाघर को तोड दो मगर प्यार की इमारत को मत तोडना, क्योंकि यह परमात्मा का घर है।

24– प्रेम भाव-
       
प्रेम भाव प्राय क्रियाओं द्वारा व्यक्त किया जाता है वॉणी के द्वारा नहीं,वॉणी के द्वारा किया गया प्रेम अपनी गरिमा से च्युत हो जाता है।


25-प्रेम से आत्म विश्वास पैदा होता है-
        प्रेमजीवन के लिए आवश्यक है,क्योंकि प्रेम से आत्मविश्वास पैदा होता है और आत्मविश्वास से स्वाभाविक रूप से व्यक्ति की सुरक्षाव्यवस्था मजबूत होती है,इससे ह्दय चक्र मजबूत होता है,जिससे बाहर की अनिष्ठकारी शक्तियों से रक्षा होती है भय से हमारे भीतर विध्यमान,रोगों से मुक्त रहने की प्राकृतिक शक्ति कमजोर हो जाती है,और हम आसानी से एलर्जी तथा अन्. रोगों के लिए संवेदनशील हो जाते हैं और जब ह्दयचक्र शक्तिशाली होता है,तब मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास होता है और उसमें निखार आता है ऐसा व्यक्ति जीवन में विजयी होता है इसके विपरीत अगर प्रेम विहीन स्थिति में व्यक्ति का व्यक्तित्व सूखकर कॉटा हो जाता है,वह भय के गहरे तथा अंत होने वाली स्थ्ति से घिर जाता है,तब बहुत सी शारीरिक बीमारियॉ,जैसे ह्दय की धडकन का बडना,सीने में उत्पन्न होने वाली समस्यायें,असुरक्षा की भावना पैदा होती है
26-प्रेम में पडना वास्तविक पतन है-
        प्रेम में पडना महॉकाली की माया फैलती है और आप आसक्त हो जाते हैं।आपके अहं को बढावा मिलता है ।ऐसे मामलों में दो चीजें हो सकती हैं,अपनी पत्नी या पति,प्रेमी या प्रेमिका जिसके आप भक्त हैं,जिसकी प्रशंसा करते हैं ,उसी के कारण आप पूर्णतः खो जाते हैं,समाप्त हो जाते हैं आपका व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है,आप हमेशा के लिए टूट जाते हैं,और फिर एक दुसरे से घृणा करने लगते हैं।इसीलिए कहा जाता है कि –"प्रेम और घृणा सम्बन्धप्रेम किस प्रकार घृणा हो सकता है,परन्तु देवी के इस गुण के कारण ऐसा हो जाता है। एक ओर तो अति प्रेममय, अति करुणांमय और अति कोमल है।परन्तु उसके बाद आपको दूसरी ओर धकेल देती है, इसी कारण जो लोग प्रेम में पडते हैं वे सभी मर्यादायें लॉघ जाते हैं।प्रेम में पडकर वे ऐसे व्यक्ति से विवाह कर लेते हैं कि जो पहले ही विवाहित है,एक वृद्ध महिला युवा व्यक्ति से विवाह करती है।वृद्ध पुरुष युवा लडकी से विवाह कर लेता है,उनमें मर्यादा बिल्कुल नहीं होती है। अतः सावधानी रहें कहीं खो जायें।

27-सत्य का दिया प्रेम रूपी तेल से जलता है-
       
प्रेम वह शक्ति है जो आपके हाथों से बह रही है, वही चैतन्य है जो आपके अन्दर बह रहा है जिसे हम वाइब्रेशन कहते हैं वह तो सिर्फ प्रेम है,जिसदिन आपके प्रेम की धारा टूट जाती है,वाइब्रेशन आना बन्द हो जाता है इसलिए प्रेम का पल्ला छोडें,प्रेम के वाइब्रेशन परमात्मा का ही प्रेम है, जो बहता जा रहा है,आपके अन्दर शुद्ध प्रेम ही बह सकता है,जो कि साक्षात चैतन्य है ,वही सत्य है,वही सौन्दर्य भी है प्रेम का मतलब अहंकार रहित, बिना किसी उपेक्षा के,बिना किसी आशा के प्रेम का साम्राज्य फैलाना सत्य और प्रेम दोनों एक ही चीज है,अगर आप चाहे कि प्रेम को हटा दें तो सत्य बुझ जायेगा, सत्य रह नहीं सकता क्योंकि सत्य का दिया प्रेम के तेल से ही प्रज्वलित होता है ।।

28-प्रेम का मतलव किसी से प्यार करना नहीं है-
अ        गर आप प्रेम के अर्थ को किसी लडकी या लडके, भाई-बहिन, माता-पिता से प्रेम करने से लगाते हैं तो यह उपयुक्त नहीं है,प्रेम तो अलिप्त होता है,फिर आप कहेंगे कि यदि मॉ प्रेम निर्लेप हो जाये तो फिर समस्या पैदा हो जायेगी, मगर ऐसा नहीं है ।एक पेड को देखियेउसके प्रेम की धारा, उसका रस सारे पेड में चढता है,हर जगह उसके मूल में जाता है,पत्तों में जाता है,उसकी शाखाओं में जाता है,लेकिन रुकता नहीं है,वह किसी जगह रुकता नहीं है,यदि उसे एक फल पसन्द गया तो समझो पेड ही मर जायेगा,बाकी फल-फूल भी मर जायेंगे। इसलिए जिसको जो देना हो देना चाहिए अपने घर में,गृहस्थी में,समाज में,अपने देश में और सारे विश्व में जिसको जो देना है वो दीजिए लेकिन उसमें लिपट जाइये उससे लिपटना एक तरह चिपकना है उससे प्रेम की शक्ति क्षीण हो जाती है,बढेगी नहीं सारी धरा ही उसका कुटुम्ब है-ये प्रेम की महिमा है-यदि इस प्रेम की महिमा को आपने जान लिया तो आपको आश्चर्य होगा कि आत्मा के दर्शन से ये घटित होता है ।।

29-श्री महॉवीर के सिद्धान्तों को अति की अवस्था तक ले जाया गया-
       
श्री महॉवीर के अनुयाय़ियों ने जैन मत चलाया था । श्री महॉवीर के नियम कठोर थे,जिन्हैं अति की अवस्था तक ले जाया गया एक दिन ध्यानावस्था में उनकी धोती किसी झाडी में उलझ गई थी जिससे उन्हैं धोती फाडनी पडी और आधी ही धोती पहनकर चलना पडा भिखारी के वेष में श्री कृष्ण उनकी परीक्षा लेने के लिए जब वहॉ पहुंच,और महॉवीर से एक कपडा मॉगने लगे तो श्री महॉवीर ने उस आधी धोती को उस भिखारी को दे दिया तथा स्वयं पत्तों से अपने शरीर को ढककर वस्त्र पहनने के लिए अपने घर वापिस चले गये परन्तु आज उनके अनुयायी इसी वृतॉत की आड में निर्वस्त्र होकर घूमते फिरते हैं ।हमें ऐसा नहीं करना है ,हमें निम्नावस्था तक जाकर आत्मानुशाशासन सीखना है इसके बिना पूर्ण ज्ञान,प्रेम तथा आनंद की गहनता तक नहीं पहुंच सकते सहजयोग में महॉवीर जी को भैरवनाथ का अवतरण माना जाता है। आपको महॉवीर की सीमा तक जाने की आवश्यकता नहीं है,क्योंकि सौभाग्यवश आपको सहजयोग में आत्मसाक्षात्कार प्रदान किया है ।।

30-प्रेम मानव का अन्तर्जात गुंण है-
       
प्रेम आपकी अन्तर्जात सम्पदा है,यह तो आपमें निहित गुंण है,देवी की यह शक्ति प्रेम की शुद्ध इच्छा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। आदि शक्ति का तो पूर्ण शरीर,उनकी पूरा व्यक्तित्व ही करुणॉ एवं प्रेम से बना है,उनके सभी कार्य उनकी करुणॉ एवं प्रेम के माध्यम से होते हैं प्रेम की यह शक्ति जिस प्रकार गणेश को दी गई थी कि एक बार आप इसे धारण कर लेंगे तो व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से आप इसे सम्पादित कर सकेंगे ।किसी व्यक्ति को यदि जीतना चाहें तो अपने ह्दय में आप कहें देवी मॉ कृपा करके इस व्यक्ति पर कार्य करें ,मेरा पवित्र प्रेम इस व्यक्ति पर कार्य करें ,और आप हैरान होंगे कि आप किस प्रकार उस व्यक्ति के ह्दय को जीत लेते हैं।इतना ही नहीं यह पवित्र प्रेम उन सभीनकारात्मक शक्तियों को नष्ट करता है जो आपको हानि पहुंचाने का प्रयत्न कर रही हैं