Sunday, August 12, 2012

मनुष्यत्व जीवन

1-मनुष्यत्व का स्वभाव -
        सामान्यतः जीवन में सुख-दुख का अनुभव तो होता है लेकिन जव मनुष्य अपने सुख से सुखी और अपने दुख से दुखी होता है तो यह पशुता है। मनुष्यता तो तब है जब वह दूसरों के सुख से सुखी और दूसरों के दुख से दुखी होता है । और जबतक वह दूसरों के सुख से सुखी तथा दूसरों के दुख से दुखी होने का अपना स्वभाव नहीं बना देता तब तक वह मनुष्य कहलाने लायक नहीं ।


2-मरने से ही परमात्मा से मिलन सम्भव है-
        जीनन के लिए आपको मरना होगा,बचने की न सोचें। ध्यान से मरना हो तो ध्यान से मरो,प्रेम से मरना हो तो प्रेम से मरें,लेकिन मरें जरूर। आपका होना ही अडचन।मृत्यु से ही परमात्मा से मिलन होगा ।ऎसा न सोचें कि सत्य की खोज धन की खोज की तरह हो जायेगी कि आप गये और धन को खोजकर ले आये और तिजोरियॉ भर ली,सत्य की खोज का ढंग दूसरा है ।आप गये और कभी न लौटेंगे लेकिन सत्य अवश्य लौटेगा ऎसा नहीं कि आप उसे मुठ्ठी में बन्द करके ले गये या सत्य को तिजोरी में रख लोगे ऎसा नहीं होगा,आप सत्य के मालिक नहीं बन सकोगे।जबतक आपको मालिक होने का नशा है तबतक आपको सत्य नहीं मिल सकेगा बस जिस दिन आप चरणों में गिर जाओगे और कहोगे कि मैं नहीं हूं,उसी क्षण सत्य होगा ।सत्य को खोजा नहीं जा सकता खोजने पर मिलेगा नहीं ,बस आप मिटेंगे तो सत्य मिल जायेगा ।बस इसे ध्यान कहें या प्रेंम जिसमें आपको समर्पण करना होगा तभी सत्य के दर्शन होंगे ।

 

3-निर्विचारिता से स्वयं को ज्योतिर्मय कैसे करें-
        निर्विचारिता एक औलौकिक स्थिति है जहॉ से परमात्मा के दर्शन होते हैं, मस्तिष्क को विचारशून्य रखें यही निर्विचारिता है। निर्विचारिता की अवस्था में जो भी घटित होता है वह प्रकाशवान होता है, निर्विचारिता मेंआपके मन में जो विचार आता है वह एक अन्तःप्रेरणा होती है।निर्विचारिता में आप परमात्मा की शक्ति के साथ एक रूप हो जाते है,अर्थात आप परमात्मा में आकर मिल जाते हैं। परमात्मा की शक्ति आपके अन्दर आ जाती है। कोई भी निर्णय लेने से पहले निर्विचारिता में जाओ, अब जो निर्णय सामने आ जाए, उसी को कीजिए, यही सबसे उपयुक्त निर्णय होगा, क्योंकि उसमें आपका ईगो और सुपर ईगो दोनों काम करते हैं। आपका संसार आपके पीछे खडा है, आपने जो भी लौकिक कमाया है,वह आपके पीछे खडा होगा लेकिन निर्विचारिता में करोगो तो आलौकिक व चमत्कारिक निर्णय होगा,आप ऎसा निर्णय लेंगे जो बडे-बडे लोगों के बस में नहीं। किसी भी कार्य को निर्वचारिता में करने से जान जाओगे कि कहॉ से कहॉ डाएनैमिक हो गया मामला। निर्विचारिता में रहना सीखें यही आपका स्थान है,आपका धन, आपका बल, शक्ति, आपका स्वरूप, सौन्दर्य तथा यही आपका जीवन है। निर्विचार होते ही बाहर का यन्त्र पूरा आपके हाथ में घूमने लग जाता है। सिर्फ जीवंतता का दर्शन होगा,आपको उस जगह से दिखाई देगा जहॉ से जीवन की धारा बहती है। इसलिए निर्विचारिता समाधि से स्वयं कोज्योतिर्मय बनाइये यह कार्य कठिन नहीं है । यह स्थिति आपके अन्दर है, क्योंकि विचार या तो इधर से आते हैं या उधर से,ये आपके मस्तिष्क की लहरियॉ नहीं हैं, ये तो आपकी प्रतिक्रियायें हैं लेकिन ध्यान धारण करने पर आप निर्विचार चेतना में चले जाते हैं,यह स्थिति प्राप्त करना आवश्यक हैऔर तब आपके मस्तिष्क में आने वाले मूर्खता पूर्ण एवं व्यर्थ विचार समाप्त हो जाते है, इन विचारोंके समाप्त होने पर ही आपका उत्थान सम्भव है तभी हम आप आप उन्नत होते हैं।


 
4-पत्नी का स्वभाव-
        जहॉ पत्नी का मान-सम्मान होता है,वहॉ देवता निवास करते हैं। पत्नी स्वयं आत्म-त्याग, वफा और पवित्रता की मूर्ति है,जो अपनी मेजवानी से अपने को बिल्कुल मिटाकर पति की आत्मा का अंग बन जाती है। पत्नी या तो प्यार करती है या घृणा ।इसके अलावा उसे बीच का रास्ता नहीं आता ।लेकिन सुकरात का कहना है कि कि स्त्री के सहारे पर चलने वाला पुरुष औंधे मुंह गिरता है।और ऎसा भी कहा जाता है कि आकाश के ओर-छोर का पता चल सकता है पर स्त्री का नहीं।स्त्री की कलाई जितनी नाजुक होती है उतनी ही फौलादी भी होती है। स्त्री जब अपनी कलाकारी दिखाती है तो बडे-बडे तीस मारखॉ चित्त हो जाते हैं। लेकिन मॉ का कलेजा संतान के लिए कभी पत्थर का नहीं हो सकता है।


 
5-परमात्मा का स्वरूप-
        कुछ लोग परमात्मा को साकार तथा कुछ लोग निराकार रूप में देखते हैं,लेकिन परमात्मा तो इन दोनों अवस्थाओं से परे है,केवल वही जानते है जो उस परमात्मा से प्रेम करते है, कि उसका स्वरूप क्या है।परमात्मा से प्रेम करने वाले लोगों को प्रभु अनेक रूपों में दर्शन देते हैं। इसलिए परमात्मा साकार या निराकार तक ही सीमित नहीं है ।


 
6-परेशानियों से मुक्ति में धैर्य सबसे बडा साथी होता है-
        जीवन में विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं तथा कर्तव्यों से हमारी शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों पर प्रभाव पडता है जिससे हम व्याकुल तथा तनाव युक्त हो जाते हैं , जबकि परमात्मा का मत है कि आप इस प्रकार अपना स्वभाव बनाइये कि कठोर परिश्रम वाले कार्यों में भी आप सदैव विश्राम का अनुभव करते रहें, यह धैर्य से ही सम्भव है, धैर्य चरित्र का उज्वल अलंकार है । प्रत्येक मनुष्य का यह धर्म है कि वह यह जानें कि जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण समस्याओं और अपने से मतभेद रखने वाले लोगों के साथ किस प्रकार शॉतिपूर्वक रहा जा सकता है,झगडा-फसाद तो विकृति पैदा करता है। धैर्यवान व्यक्ति अपने विपक्षियों के समक्ष भी विजयी रहता है। धैर्य धारण करने के लिए अपने कार्यों को सम्पन्न करते समय एक दो मिनट का समय निकालकर यह ध्यान कीजिए कि परमात्मा शक्तिमानहै उसी का अंश मेरी आत्मा है,यह शरीर तो साक्षी मात्र है मुझे कार्य के फल की चिन्ता नहीं करनी चाहिए, इस तरह चिंतन करते- करतेआंखें बन्द कीजिए, अपने शरीर कोशिथिल छोडकर देह को पूरा विश्राम लेने दीजिए,विचारों का बोझ मस्तिष्क से निकाल फेंकिए चिंता का बोझ उतारने में आपको जितनी सफलता मिलती है, उतना ही आप स्वयं को समर्थवान व शक्तिवान महशूष करेंगे। चिंता मुक्ति के लिए निम्न बातों को ध्यान में रखें ः-
1-परेशानियों का मुकाबला करने के लिए धैर्य का सहारा लीजिए ।
2-स्वयं में धैर्य का गुंण विकसित करने के लिए उतावलेपन को त्यागना होगा ।
3-अपने विचारों में से असम्भव शब्द को को हटा दें ।
4-किसी परेशानी पर शॉत चित्त से चिंतन करें ।
5-चिंतन सार्थक होना चाहिए ।
6- विना पूर्ण रूप से सोचे विचारे किसी कार्य को प्रारम्भ न करें ।
7-मन में यदि चिंता होती है तो अपने शुभ चिंतकों से इसकी चर्चा करें ।
8-परेशानी की स्थिति में अपने इषट मित्रों त था परिवार वालों तथा पडोसियों से सहायता लें ।
9-किसी अनजान के सामने अपनी समस्या न रखें ।
10-किसी भी कार्य को क्रमवद्ध , स्पष्टतया तथा तसल्ली से करने पर स्वयं में धैर्य का गुंण विकसित होता है


7-परमात्मा दयालू है-
        यदि हमसे कभी कोई भूल होती है तो परमात्मा हमसे बदला नही चाहता है, बल्कि हमको बदलना चाहता है। वह एक न्यायाधीश है,दयालु और क्षमाशील भी है।यदि हम पाश्चाताप करें और उसके जल से स्वयं को निर्मल करें और पवित्र मन से उन गलतियों को न दोहराने का संकल्प करते हैंतो,तब परमात्मा के दर्शन दयालु और क्षमाशील के रूप में होते हैं।


 
8-पवित्र मन एक तीर्थ के समान है-
        हमारे मन के भाव जितने पवित्र होंगे, हम उतने ही ऊचे उठते जायेंगे । इसीलिए निर्मल मन किसी भी तीर्थ से कम नहीं होता है । सिससे हमारा धर्म- ध्यान भी उतना ही परिपक्व होगा । क्योंकि धर्म जीवन का आधार है ।धर्म तो मानव को संसार से पार ले जाने वाली नौका के समान है, जो कि हमें आपस में प्रेम भाव और सुख शॉति की प्रेरणा देता है ।धर्म के अभाव में तो मनुष्य का जीना दूभर हो जाय।


 
9-पहले आज को सवारें-
        हमारे जीवन का स्वर्णिम कल आज पर ही निर्भर है यदि भविष्य को उज्जवलमय करने की आकॉक्षा आपके मन में है तो सबसे पहले आज को सवारना होगा क्योंकि कल के स्वर्णिम भविष्य के महल की दीवार तो आज है। पहले आज को संवारो।बुराई को कल पर टाल दो, और भलाई को आज करने को तत्पर हो जाओ ।


 
10-पहले स्वयं में झॉककर देखें-
        कुछ लोग संसार की चिंता में मरे जा रहे होते हैं । वे अपनी हालत नहीं देखते कि हमारे भीतर क्या हो रहा है, उन्हैं पहले अपने को जान लेना चाहिए,अपने भीतर झाडू लगा लेना चाहिए,फिर दूसरे के घर की चिंता करनी चाहिए ।वे पहले अपने अन्तः जगत की देख भाल कर लें कि अन्दर कितनी गन्दगी भरी है, भीतर कितना कीचड जमा है,कितने विकार,वासनायें इकठ्ठी कर रखी हैं ।ऎसी स्थिति में दूसरों को भी हानि पहुंचायेंगे । अभी तो वे जहर से भरे हैं तो जहर ही फैलायेंगे । पहले स्वयं को अमृत से भर लें फिर संसार की चिंता करना ।


 
11-पाप क्या है-
        पाप एक दुर्भाव है,जिसके कारण हमारेआन्तरिक मन तथा अन्तरात्मा पर ग्लानि का भाव आता है ।जब हम कभी गन्दा कार्य करते हैं तो ह्दय में एक गुप-चुप पीडा का अनुभव होता रहता है,हारे मन का दिव्य भाग हमें प्रताडित करता रहता है,बुरा-बुरा कहता रहता है ।इसी आत्मभर्त्सना से मनुष्य पश्चाताप करने की बात सोचता है ।यह पाप पानी की तरह होता है,यह हमें नीचे की ओर खींचता है ।आप चाहे कितने ही प्रयत्न करें,आन्तरिक पाप से कलुषित मन स्पस्ट प्रकट हो जाता है।अवगुंण से तो मनुष्य की उच्च सृजनात्मक शक्तियॉ पंगु हो जाती हैं,बुद्धि और प्रतिभा कुण्ठित हो जाती है ।किसी भी स्थिति में पाप और द्वेष की प्रवृत्ति बुरी और त्यागने योग्य है ।।

 
12-गुनाह या पाप वह अग्नि है जो सुलगती रहती है-
        हम जो पाप या गुनाह करते हैं वे जलते हुये वे वस्त्र हैं जिन्हैं यदि छिपाकर रखा जाता है तो वह अग्नि अन्दर ही अन्दर सुलगती रहती है, और धीरे-धीरे समीप के वस्त्रों तथा अन्य वस्तुओं को भी जला डालती है।सम्भवतः उस अग्नि का धुआं उस समय न दिखाई दे,लेकिन अदृश्य रूप में वह वातावरण में सदा मौजूद रहता है ।पाप या गुनाह की अग्नि ऐसी अग्नि है,जो अन्दर ही अन्दर मनुष्य में विकार उत्पन्न करती है,इस आन्तरिक पाप की काली छाया अपराधी के मुख,हाव-भाव, नेत्र,चाल-ढाल इत्यादि द्वारा अभिव्यक्त होती रहती है ।अपराधी या पापी चाहे कुछ भी समझता रहे वह अपराध को छिपाना चाहता है,परन्तु वास्तव में पाप छिपता नहीं है।मनुष्य का अपराधी मन उसे सदा व्यग्र,अशॉत और चिंतित रखता है ।।


 
13-पाप में प्रवृत्त मनुष्य के अंग-
        प्रायः मनुष्य के तीन अंग पाप में प्रवृत्त होते हैं । शरीर,वॉणी,और मन ,इनके द्वारा किये गये पाप-कर्मों के नाना रूप होते हैं,इनसे बचे रहें।अर्थात शरीर वॉणी और मन का उपभोग करते हुये सचेत रहें ।कहीं ऐसा न हो कि आत्मसंयम में शिथिलता आ जाय और पाप पथ पग बढ जाय ।कभी-कभी हमें विदित नहीं होता कि हम कब गलत रास्ते पर चलेजा रहे हैं । गुप-चुप पाप हमें बहा ले जाता है और हमें अपनी सोचनीय अवस्था का ज्ञान तब होता है जब हम पतित हो जाते हैं ।


14-पाप कर्म मनुष्य जीवन के लिए अभिशाप है-
        अपने शरीर के द्वारा अनुचित कार्य करना शारीरिक पाप है।इसमेंवे समस्त कुकृत्य हैं,जिन्हैं करने से ईश्वर के मंदिर रूपी इस मानव शरीर का क्षय होता है ।परिणॉम स्वरूप इस काया में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, जिससे जीवित अवस्था में ही मनुष्य को कुत्सित कर्म की यन्त्रणॉयें भोगनीं होती हैं ।शरीर के पाप में हिंसा पहला पाप है ।इसमें इस शरीर का अनुचित प्रयोग किया जाता है ।उसे उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता है,उसकी मुख मुद्रा में दानव जैसे क्रोध,घृणॉ और द्वैष की अग्नि निकलती है । इस प्रकार के लोगों में मानवोचित्त गुंण क्षय  होकर राक्षसी प्रवृत्तियॉ उत्तेजित हो उठती हैं, मरणोंपरान्त भी उसकी आत्मा अशॉत रहती है ।


15- पाप कर्म कई रूपों में मनुष्य पर आक्रमण करता है-
        पाप कर्म ऐसी घृणित दुष्प्रवृत्ति है जो कई रूपों में और वस्थाओं में मनुष्य पर आक्रमण किया करती है,इसलिए इससे सावधान रहने की आवश्यकता है ।कहते हैं मनुष्य के मन के एक अज्ञात कोने में शैतान का निवास होता है,मनुष्य उस पाप की ओर अज्ञानतावशः खिचता जाता है क्षणिक वासना या थोडे लाभ के अन्धकार में उसे उचित-अनुचित का विवेक नहीं रहता है ,वह अपना स्थाई लाभ नहीं देख पाता है और किसी न किसी पतन के ढालू मार्ग पर आरूढ हो जाता है ।।


16-पूर्णता हमारा स्वभाव व अधिकार है-
        जिस प्रकार किसान को अपने खेतों में पानी की सिंचाई के लिए कहीं से पानी लाने की आवश्यकता नहीं होती है, बल्कि खेत के किनारे ही तालाबब या नहर में पानी है, बीच में एक बॉध होने के कारण खेत में पानी नहीं आ पा रहा है। बस किसान उस बॉध को खोल भर देता है, फिर पानी गुरुत्व बल के नियमानुसार अपने आप खेत में आ जाता है। ठीक उसी प्रकार सभी व्यक्तियों में सभी प्रकार की उन्नति और शक्ति पहले ही से निहित है। पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, लेकिन उसके द्वार अभी बन्द हैं। उसे यथार्थ रास्ता नहीं मिल पा रहा है,बीच में एक बाधा है, कोई अगर उस बाधा को दूर कर दे तो वह विद्यमान पहले की शक्तियों को प्राप्त कर लेता है, और जिन्हैं पापी कहते हैं वे भी साधु में बदल जाते हैं, यह प्रकृति तो हमें पूर्णता की ओर ले जाती है, धार्मिक होने के लिए साधनाएं और प्रयत्न हैं बस वे ही तो इस बाधा को दूर करते हैं, जिससे पूर्णता के द्वार खुल जाते हैं। जो कि हमारा जन्मसिद्ध  अधिकार और हमारा स्वभाव भी है ।


 
17-कर्मवाद और आत्मा-
        कर्मवाद में हमें उपने-अपने भले-बुरे कर्मों का फल भोगना होता है। लेकिन देखने वाली बात यह है कि क्या शुभ-अशुभ कर्म आत्मा पर प्रभाव डाल सकते हैं अगर डालते हैं तो आत्मा का स्वरूप क्या है जो इस तरह प्रभावित हो जाती है। वास्तव में अशुभ कर्म मनुष्य के अपने स्वरूप की अभिव्यक्ति में बाधा डालते हैं, और शुभ कर्म उन बाधाओं को दूर करते हैं। स्वयं मनुष्य में कोई परिवर्तन नहीं होता । तुम चाहे जो करो। तुम्हारे अपने स्वरूप को कोई भी नष्ट नहीं कर सकता। आपका असली स्वरूप आपकी आत्मा है।कोई भी वस्तु उस आत्मा पर प्रभाव नहीं डाल सकती।उससे सिर्फ आत्मा पर एक आवरण जैस,पड जाता है,जिससे आत्मा पूर्णतः ढक जाती है।


 
18-जीवन का रहस्य -
        अगर आप जीवन को समझने की कोशिस करते हैं तो समझ में नहीं आयेगा, समझने की बात भूल जाओ, जीवन तो एक रहस्य है,यही जीवन का अर्थ है ।बस सिर्फ जिओ इससे ही सब समझ में आ जायेगा।जीवन के बारे में समझ में आने से संपूर्णता का वोध होता है, लेकिन इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है, इसलिए जीवन को रहस्य कहते हैं। बस इतना तो निश्चित है कि जीवन को जिया जा सकता है ।उसे समझा नहीं जा सकता


19-प्रकृति द्वारा विपत्ति की क्षति पूर्ति-
        प्रकृति के नियमों में एक विचित्र अद्भुत रहस्य है कि हर विपत्ति के बाद उसकी विरोधी सुविधा उपलब्ध हो जाती है, मृत्यु के बाद जन्म होता है रोग,घाटा,शोक आदि विपत्तियॉ स्थाई नहीं हैं वे तो आंधी की तरह आती हैं और तूफान की तरह चली जाती हैं।उनके जाने के बाद एक दैवीय प्रतिक्रिया होती है जिसके द्वारा उस क्षति पूर्ति के लिए कोई इस प्रकार का विचित्र मार्ग निकल आता है,जिससे बडी तेजी से उस क्षति पूर्ति की किसी न किसी प्रकार पूर्ति हो जाती है, जो आपत्ति के कारण हुई थी ।


20--व्रत की परम्परा मनुष्य ही नहीं पशुओं में भी है-
       सभी धर्मों में व्रत का महत्व है,इससे जीवन अनुशासित होता है।जीवन में आये अनेक संघर्ष स्वतःनष्ट हो जाते हैं।सहिष्णुता में वृद्धि होती है।हमारा जीवन शॉतिप्रिय तथा प्रशन्नचित्त रहता है। व्रत का पालन करने में चित्त की एकाग्रता एवं संकल्प आवश्यक है। व्रत से आत्मा गलत कार्यों के लिए नहीं उकसाती । पशु-पक्षियॉ भी व्रत केनियमों का पालन करते हैं ।जानवर भूखे पेट शिकार करते हैं भरे पेट नहीं करते हैं ।रात्रि के समय भी पशु-पक्षी भोजन नहीं करते तथा सूर्यास्त के बाद अपने गुफाओं व घोंसलों में चलेजाते हैं ।जबकि मनुष्य जीवन में रात-दिन लिप्त सॉसारिक मायामोह से व्रत के नियमों की अवहेलना करता है।जिससे समाज, परिवार, पास-पडोस में कलह व अशॉति बढती जा रही है। धर्म के शाश्वत मूल्य तो व्रत में निहित हैं जिससे जीवन में मानव को सुख- शॉति मिलती है ।


 
21-नेक कमाई के उपभोग से सात्विकता आती है-
        व्यक्ति को अर्थ सुचिता का ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि इससे अनेक संयम स्वतः आ जाते हैं ।नेक कमाई से खरीदे अन्न में पवित्रता औ सात्विकता होती है ,क्योंकि पवित्र आहार से पवित्र विचार और पवित्र विचार से आचार व्यवहार पवित्र होता है ।जिन विचारों से आपका अन्तःकरण शुद्ध ,बुद्धि और आपका ह्रदय पूर्ण समर्थन देता हुआ आनन्दित होता है उन विचारों से आपका मन जुड जाता है ।


 
22-प्रभु से एकता ही स्वर्ग है-
        स्वर्ग और पृथ्वी सब हमारे अंदर है, पर अपने अंदर के स्वर्ग से सभी परिचित नहीं हैं । सम्पूर्ण स्वर्ग आपके भीतर है। सारे सुखों का श्रोत आपके भीतर है, ऎसी दशा में अन्यत्र आनंद को ढूंडना कितना अनुचित और असंगत है।


 
23-प्रयत्न ही सफलता की कुंजी है-
        असफलताऔं से न घबडाकर लगातार प्रयत्न करने वालों की गोद में सफलता खुद आकर बैठ जाती है। आदर्श को पकडने के लिए सेकडों बार आगे बढो और यदि सेकडों बार असफल हो जाओ फिर भी एक बार नया प्रयास अवश्य करों । महान ध्येय के प्रयत्न में ही आंनंद है, खुशी है, और एक हद तक प्राप्ति की मात्रा भी प्रयत्न तो एक देवदा है ,इसलिए प्रयत्नदेव की उपासना करना ही श्रेयस्कर है।


 
24-प्रशन्नचित्त होकर जीना सीखें-
        मनुष्य जीवन परमात्मा का एक अनुपम उपहार है, प्रत्येक मानव को यह जीवन गुजारना ही पडता है चाहे रोकर गुजारे या हंसकर गुजारें यह जीवन तो गिने-चुने दिनों का होता है इसे क्यों न प्रशन्नचित्त होकर गुजारें।जीवन में उतार-चढाव होते रहते हैं, इनका सामना करने के लिए स्वयं को प्रशन्नचित रखें, मानसिक द्वंद से बचने के लिए तो हंसना-ही एक मात्र उपाय है ।कठिन से कठिन समस्याओं का हल हंसने मुस्कराने से आसान हो जाता है। यदि जीवन के हर क्षण उलझनों में ही उलझाये रखेंगे तो विक्षिप्त हो जाओगे। प्रशन्नचित्त रहने वाला व्यक्ति बडी-बडी समस्याओं को आसानी से सुलझा देता है।महॉपुरुषों का जीवन देखें तों संघर्षमय जीवन में सफलता पाने का रहस्य उनकी प्रशन्नता का होना रहा है।कवि रविन्द्रनाथ ने कहा है कि जब में अपने आप हंसता हूं तो मेरा बोझ हलका हो जाता है । हंसी यौवन का आनन्द है, सौन्दर्य है, श्रंगार है, जो व्यक्ति इन्हैं धारण नहीं करता उसका यौवन नहीं ठहर सकता। खिलखिलाकर हंसना, हास्य व्यंग और विनोदपूर्ण मुस्कराहटह क्रोधित मनुष्य को भी हंसा देती है प्रशन्नचित्त रहने सो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर चमत्कारी प्रभाव पडते है, तो फिर आप कोशिश करें कि किन कार्यों को करने से खुशी मिलेगी,अपनी खुशी आपस में बॉटकर लुफ्त उठायें,हमेशा तरोताजा तथा जवान रहने के लिए प्रशन्नचित्त रहें खूब हंसें ठहाका लगाकर हंसें यह हंसी परमात्मा की देन है इसलिए जितना चाहें हंसिए फिर देखना जिन्दगी किस तरह खिल उठती है। प्रशन्नचित्त रहकर हंसते समय निम्न बातों को ध्यान में रखें ः- कभी भी हंसने का अवसर न गवायें,सबअच्छा ही होगा को ध्यान में रखें,बच्चों के साथ बच्चा बन जाइये,विपरीत समय में भी प्रशन्नचित्त रहें,छोटी मोटी बातों को हंसकर नजरंदाज कर दें,अपने बचपन की शरारतों को ध्यान में रखें,मूढ ठीक करने के लिए अपने प्रिय गीत को गुनगुनाते रहें,जीवन में व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनायें,उन कार्यों को करें जिनसे आपको सन्तुष्टि होती हो,वर्तमाटन समय में आप जितना खुश रह सकते हों रहें,कल की चिंता भूलकर आज भरपूर भोग करें,क्रोध आने पर किसी व्यंगपूर्ण विषय पर चर्चा न करें, जब अधिक कार्य में व्यस्त होते हो तब साथियों के साथ व्यंग विनोद करते रहें, असामान्य स्थिति में गुस्से पर नियनत्रण रखें , बस आओ इस बात को न भूलें कि– हर वक्त गुल बनकर मुस्कराना ही जिन्दगी है,मुस्कराकरगम भुलाना ही जिन्दगी है। सफलता पर खुश हुये तो क्या , हारकर खुश रहना ही जिन्दगी है ।


25-प्रशन्नचित्त होने की स्थिति -
        प्रशन्नचित्त,हर्ष और शोक से परे की स्थिति है, उसमें न हर्ष होता है और न शोक होता है।प्रशनन्ता तो हमारे चित्त की निर्मलता की स्थिति है ।जब आकाश प्रशन्न होता है तो वर्षा,बादल,धुंध आदि से मुक्त होता है,और केवल प्रकाश,केवल उज्वलता,केवल निर्मलता दिखाई देता है ।प्रशन्नता के साथ अभयता भी साथी के रूप में सदैव सामने रहता है। दोनों साथ-साथ रहते हैं ऎसा नहीं हो सकता कि प्रशन्नता है और अभय न हो और जैसे ही भय सामने आता है वैसे ही प्रशन्नता चली जाती है ।तथा प्रशन्नता के आने पर भय चला जाता है तथा प्रशन्नता के साथ अभय उपस्थित हो जाता है ।


26-अपने प्रति वफादार रहो-
        सेक्सपियर ने कहा था कि अपने प्रकि वफादार बनो । जब कोई परमात्मा के प्रति निष्ठावान होता है तब उसके अन्दर के सद्गुण चमकते हैं ।सत् ही पवित्र है,और उसकी पवित्रता ही सबसे बडी शक्ति है ।वह गुरुत्वाकर्षण है जो अपनी ओर लोगों को आकर्षित करती है। यह वही बल है जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है।यह वही बल है,जो समान गुणयुक्त,कल्याणकारी और ईमानदार व्यक्तियों को आकर्षित करता है । इस संसार में ईमानदारी से व्यवहार करने से ही आनंद और संतोष प्राप्त होता है ।
 


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