1-धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष यही तो हैं चार पुरुषार्थ
तुला एक प्रकार का यंत्र है, जिसके द्वारा किसी वस्तु की संहति या उसका भार ज्ञात किया जा सकता है। तुला का शाब्दिक अर्थ है बराबर या समान किया हुआ। चूंकि तुला के दोनों पलड़ों पर गुरुत्वाकर्षण की शक्ति समान रूप से कार्य करती है, इसलिए तुला तभी समान होगी, जब दोनों पलड़ों पर समान भार हो। तुला का यह सिद्धांत हमारे जीवन में बड़ा ही महत्वपूर्ण है। जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं।
मोक्ष मन की शांति पर निर्भर करता है। मन को शांति तभी मिलती है, जब मन पूर्णरूप से स्थिर हो।
मन तभी स्थिर होगा जब धर्म, अर्थ व काम में संतुलन स्थापित हो। यह संतुलन स्थापित करना है अर्थ और काम के बीच। अर्थ है ज्ञान शक्ति व धन का अर्जन और काम है उसका उपयोग। जब अर्थ और काम दोनों ही धर्म से बराबर प्रभावित होंगे, तभी उनमें संतुलन होगा। तभी मन को शांति मिलेगी और आत्मा को मोक्ष मिलेगा। एक विद्यार्थी जो शिक्षा अर्जन में 'क्या' और 'कैसे' के उत्तर समझ लेता है, वह हमेशा अपने अभ्यास में सफल होता है। उसका जीवन संतुलित होता है और उसे शक्ति मिलती है।
वहीं जो व्यक्ति समझ के बगैर मात्र परीक्षा में पास होने को ही अपना लक्ष्य बनाता है, वह पास होने पर भी उपार्जन में सफल नहीं होता। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसकी सफलता में नैतिक आधार ही नहीं है। इसलिए उसका जीवन संतुलित नहीं होता और वह शांति भी नहीं प्राप्त कर पाता है।
इसी तरह समाज में रहने वाला प्राणी यदि समाज, परंपराओं और प्रकृति के नियमों को समझकर समाज के अनुकूल चलता है, तो वह अपने आप को संतुलित रख पाता है और शांति को प्राप्त होता है। न्यायालय की तुला भी इसी बात की द्योतक है। इसी प्रकार एक योगी यदि यम और नियम के आधार पर अपने आहार-विहार और प्राणायाम में संतुलन स्थापित कर लेता है, तो आगे की ध्यान और धारणा की सीढि़यां, वह आसानी से चढ़ लेता है और अपने आपको संतुलित रख पाता है। वह समाज में निर्लिप्त जीवन जीता है और शांति से जीवन जीता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति तुला के संतुलन को समझकर अपने जीवन में सामंजस्य स्थापित करता है उसे जीवन में शांति मिलती है।
2-क्रोध करना मनुष्य की एक मनोवृत्ति बन जाती है
क्रोध से व्यक्ति का सहज स्वभाव बदल जाता है। क्रुद्ध व्यक्ति की सज्जनता, संवेदनशीलता, शालीनता, विन्रमता, उदारता आदि गुण ओझल हो जाते हैं। उसके अंदर की हमदर्दी कठोरता में और सहृदयता क्रूरता में बदल जाती है।
जब क्रोध स्थायी भाव बन जाता है तो यह रोष बन कर प्रकट होता है।
क्रोध एक मनोवृत्ति है। यह एक ऐसी भाव दशा है जो अति शीघ्र प्रकट होती है। इसे दबाया तो जा सकता है, लेकिन इसके प्रभावों को छिपाना संभव नहीं है। क्रोध मानवीय व्यवहार के किसी न किसी पक्ष से उजागर हो ही जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने क्रोध को शांत व हिंसक के रूप में वर्गीकृत किया है। शांत क्रोध अंतरमुखी होता है। इससे व्यक्ति में हताशा, निराशा और उदासी छा जाती है। वह हैरान-परेशान रहता है।
अपने मन की बात किसी से कह न पाने के कारण वह अंदर ही अंदर घुटता रहता है।
क्रोध के उबाल को दबा देने के कारण उसकी आंतरिक स्थिति और भी अस्थिर व अशांत हो उठती है।
हिंसक क्रोध बहिर्मुखी होता है। यह क्रोध अपने उफान को बाहर प्रकट करता है। इसके परिणाम स्वरूप कलह, लड़ाई-झगड़ा से लेकर दंगा-फसाद तक होते देखे जा सकते हैं। यह भी दो प्रकार का होता है- साधारण और असाधारण। साधारण क्रोध अल्पकालिक और क्षणिक होता है। यह दूध के समान तुरंत उफन पड़ता है। इसकी प्रतिक्रिया क्षीण ही सही, परंतु तीव्र होती है। जैसे ही यह क्रोध शांत होता है, अपने किए कर्म पर पश्चाताप होता है। असाधारण क्रोध का आवेश दीर्घकाल तक बना रहता है।
आवेश का यह नशा मदिरा के समान होता है। इसके नशे में व्यक्ति लंबे समय तक आत्मविस्मृत हो कर बेसुध पड़ा रहता है। ऐसे व्यक्ति को कोई भी उपदेश और मार्गदर्शन देना संभव नहीं है, क्योंकि वह अपने ही बुने ताने-बाने में जलता-भुनता रहता है। धीरे-धीरे वह उन्माद के बाहुपाश में जकड़ता चला जाता है और उन्मादी वृत्ति उसके जीवन का अंग बन जाती है।
किसी भी कारण से क्रोध पैदा हो सकता है, परंतु जैसे ही मन में छोटी तरंग उत्पन्न होती है, वैसे ही यह संवेदना का योग पाकर मन की गहराई में उतरती चली जाती है। क्रोध को नियंत्रित किया जा सकता है। आत्म-नियंत्रण व ईश्वर चिंतन द्वारा इस असाध्य मनोरोग से मुक्ति संभव है।
3-क्या मन सत्य से पवित्र बन सकता है
अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना। किसी वस्तु का मूल्य चुकाए बगैर या परिश्रम किए बिना उस वस्तु को प्राप्त करना भी चोरी है। जिस वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं हैं उसे पाने की इच्छा बीजरूप में चोरी ही मानी जाएगी। मन पर काबू करते हुए इस दुगरुण से बचना अस्तेय व्रत है। काम, क्रोध, लोभ आदि मनोविकारों के कारण अपराधों में वृद्धि हो रही है। सभी इंद्रियों में मन अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण इससे होने वाली चोरी सूक्ष्मतम होती है।
किसी वस्तु को देखकर मन ललचाता है।
लालच या प्रलोभन के वशीभूत होने पर अस्तेय का पालन संभव नहीं है। किसी चीज की जरूरत न होने पर भी उसे हड़प कर फालतू चीजों का अंबार लगा लेना परिग्रह कहलाता है, जो अस्तेय व्रत का शत्रु है। आज भी यदि हमें नैतिक मूल्यों को स्थापित करना है तो आर्थिक मर्यादा निश्चित करते हुए संयम आवश्यक है। तभी न केवल हमारे तनाव दूर होंगे, बल्कि हमें सुख व संतोष भी प्राप्त होगा।
आज उपभोगवाद का दौर चल रहा है। ऐसे समय में अस्तेय व्रत की प्रासंगिकता बढ़ गई है। इसके द्वारा ही हम उपलब्ध साधनों का सीमित उपभोग करते हुए सुखी और संतुष्ट जीवन बिता सकते हैं। महात्मा गांधी ने अपने एकादश व्रतों में अस्तेय को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। महर्षि पतंजलि ने योग-दर्शन में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के साथ अस्तेय को जीवन का अभिन्न अंग माना है।
अस्तेय एक मानसिक संकल्प है, जिससे मन पर नियंत्रण किया जा सकता है, क्योंकि संसार का समस्त कार्य-व्यापार मन ही संचालित करता है। मन ही कर्ता, साक्षी और विवेकी है।
मन के वश में होने पर अस्तेय व्रत का पालन सब प्रकार से किया जा सकता है। मन को हम सत्य द्वारा पवित्र बना सकते हैं। अस्तेय व्रत साधने के लिए संतोष का सद्गुण अपनाना होगा।
हम जानते हैं कि सारे व्रत या संकल्प एक दूसरे से जुड़े हैं। इसलिए अस्तेय की प्राप्ति के लिए सत्य, अहिंसा आदि व्रतों का भी पालन करना होगा। संतोष के बिना परिग्रह समाप्त नहीं किया जा सकता है और न ही चोरी समाप्त हो सकेगी। इसलिए सुखमय जीवन और स्वस्थ समाज के लिए अस्तेय व्रत परमावश्यक है।
4-प्रार्थना में शक्ति होती है अनुभव करके देखें
परिस्थितियां हमारे जीवन को इतना दुखी बना देती हैं कि हम अपने को एकदम असहाय और निरुपाय पाते हैं। ऐसी स्थिति में यह सोचना चाहिए कि हम अपने जीवन के निर्माण के लिए स्वतंत्र, समर्थ और अपने भाग्य के विधाता हैं, क्योंकि परमपुरुष परमात्मा सदैव हमारे साथ हैं और हमारे लिए सच्चे, मार्ग-दर्शक और कल्याणकारी हैं।
परमात्मा अंतर्मन में साहस का संचार करते हैं और साहस हमें सच की राह पर चलना और झूठ का तिरस्कार करना सिखाता है। हममें से तमाम लोग जानते हुए भी गलत को गलत कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। बात दिल को जंचती नहीं, फिर भी न जाने किस मजबूरी में दूसरों की हां में हां मिलाते रहते हैं और अपने मन को मारते रहते हैं। प्रार्थना में बहुत शक्ति है। वह हमें अंधकार से प्रकाश की ओर व असफलता से सफलता की ओर अग्रसर करती है।
हम जैसे ही परमात्मा की ओर उन्मुख होते हैं, उनकी प्रार्थना करते हैं और उनसे किसी भी प्रकार की सहायता की याचना करते हैं, वैसे ही उनकी सहायता के अदृश्य हाथ हमारी ओर बढ़े चले आते हैं।
हमें उनकी कृपा प्राप्त होने लगती है। हमारे भीतर से निराशा का भाव जाने लगता है। हम प्रसन्न रहने लगते हैं। फिर हमारा मन सुकार्य में लगने लगता है। ऐसे में परमात्मा भी हमारी सहायता के लिए किसी न किसी के हृदय में प्रेरणा उत्पन्न कर देते हैं। फिर हमारे समक्ष उत्पन्न परिस्थितियों में नया मोड़ आ जाता है। हमारी हारी हुई बाजी भी जीत में बदल जाती है। असफलता तो हमारे निकट फटकती भी नहीं। जैसा हमारा विश्वास होता है, हमें वैसा ही फल भी प्राप्त होता है।
हमारी जैसी आकांक्षाएं होती हैं वे वैसी ही फलीभूत होती हैं।
सुविचार और कल्याण की भावना से किए गए कार्य का परिणाम बेहद सुंदर होता है। इसके लिए केवल आपके विचारों में दृढ़ता होनी चाहिए। जरूरत इस बात की भी है कि आपकी हर क्त्रिया सुविचारित और कल्याणकारी हो। वह आपके और आपके परिवार के साथ ही समाज के लिए भी कल्याणकारी हो। प्रभु से प्रार्थना के क्षणों में जब हमारा मन एकाग्र होता है और हम अपनी समस्याएं उनके समक्ष रखकर उनसे कुछ याचना करते हैं तो हमें तुरंत समाधान मिल जाता है। इसीलिए कहा भी जाता है कि सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना तुरंत सुनी जाती है।
5--मनुष्य का जीवन एक रहस्य है
जीव का उत्पन्न होना और जीव की उत्पत्ति के कारण जानना एक बड़ा ही रहस्यमय आध्यात्मिक विज्ञान है। यह ऐसा विज्ञान है जिसे अनादिकाल से लोग समझने का प्रयत्न करते रहे हैं। जितना इस रहस्य को जानने का प्रयत्न किया जाता है उतना ही इसका रहस्य और गहन अंधकार की तरह रहस्यमय बन जाता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह इतना बड़ा विज्ञान है कि हमारी छोटी बुद्धि उसे समझ नहीं पाती।
हमसे अगर कहा जाए कि वह हवा, प्रकाश, यहां तक कि समुद्र की परिभाषा करे तो वह भ्रम में पड़ जाएगा।
उसी प्रकार मनुष्य का जीव की उत्पत्ति के संबंध में जानने का प्रयास उतना ही असंभव होता है, क्योंकि हमारे शास्त्रों में जीव और ब्रह्म की जो कल्पना है वह अनुभव पर आधारित है। उसे प्रमाणित करने के लिए हमें अनुभव की उसी स्थिति से गुजरना पड़ेगा, क्योंकि अनुभव को प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
मनुष्य के जीवन में जो कुछ घटित हो रहा है उसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
जीव कहां से आता है और कहां चला जाता है, कैसे काम करता है, इस सबको प्रमाणित करना कठिन है। एक महात्मा मंदिर में ध्यान कर रहे थे और शाम हो गई। उसी समय एक बच्चा मंदिर में आया, एक दीपक रखा, माचिस जलाई, दीपक जलने लगा। जब बच्चा वहां से जाने लगा तो महात्मा ने बच्चे से पूछा- बेटे, यह दीपक कैसे जला? प्रकाश कहां से आ गया? यह सुन बच्चे ने महात्मा से कहा-आप महात्मा हो गए, इतना भी नहीं जानते! यह कहकर उसने दीपक पर फूंक मार दी।
दीपक बुझ गया। बच्चे ने कहा प्रकाश जहां से आया था, वहीं चला गया। ऐसा हमारे जीवन में प्राय: होता रहता है, लेकिन इन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए हम कभी गंभीर नहीं होते, कभी उत्सुक नहीं होते। इसलिए अनादिकाल से जीव और जीवन के संबंध में प्रश्न तो अवश्य उठते रहे हैं, लेकिन इन प्रश्नों को हम और अनेक प्रश्नों में उलझा देते हैं।
दरअसल, मनुष्य स्वयं किसी प्रश्न का उत्तर खोजना नहीं चाहता। इसलिए वह दूसरों से प्रश्न पूछता है।
भगवान बुद्ध ने कभी किसी से प्रश्न नहीं पूछा, उन्होंने स्वयं उत्तर खोजा। हमारे देश में आज भी अनेक संत हैं जो स्वयं प्रश्नों का उत्तर खोजते हैं, क्योंकि जिस व्यक्ति को प्रश्न उठाना आता है वही उसका उत्तर भी खोज सकता है।
6-जीवन में अज्ञानता अंधकार है
सांसारिक जीवन रूपी आभास होने वाले सुख के पौधे पर अंतत: दुख का फल लगता है। यह महज संयोग नहीं है, बल्कि दुखमय संसार की अंतिम व वास्तविक परिणति भी है। हम दुखी क्यों होते हैं? क्या ईश्वर ने दुख प्रदान करने वाले पदार्थो का निर्माण हमारे लिए किया है? ईश्वर ने तो हमें निर्मल मन, निश्छल देह व गंगा-सा पवित्र आनंदमय कानन-कुसुमयुक्त जीवन दिया था। फिर इस सुख में बिन बुलाए दुख आया कैसे? कौन है इसका निर्माता व जिम्मेदार?
सच तो यह है कि मनुष्य ने स्वयं ही कामनाओं का यह मकड़जाल बुना है और स्वयं ही उसमें फंसकर छटपटा रहा है।
असहाय व असमर्थ, पग-पग अपने गलत कृत्यों पर पश्चाताप के आंसू बहाता हुआ। ईश्वर ने हमें तपस्वी मन व सशक्त काया दी थी। इसको संग्रही व भोगी हमने बनाया। सुख की चाहत में परिवार, धन-दौलत, जायदाद व अपेक्षा-कामनाओं का अभयारण्य हमने बसाया। अब इसके हानि-लाभों से स्वयं हमें ही रूबरू होगा पड़ेगा। जीवन के हर मार्ग व मोड़ पर शाश्वत सुख व शाश्वत दुख हमारे स्वागत के लिए सदैव खड़े रहते हैं।
शाश्वत सुखों में भौतिक कष्टों का आभास होता है, जबकि शाश्वत दुखों में हमें अतुलनीय आभासित भ्रामक संसार दिखाई देता है। अज्ञानता में इसे ही हमने उपलब्धियों की पूर्वपीठिका मानकर स्वीकार कर लिया है।
असली सुख का मार्ग हमसे दूर छूटता चला गया और हमने दुखमय मार्ग को ही अज्ञानता के अंधकार से प्रेरित होकर सुख-सदृश मान लिया। छलावा तो महज छल सकता है। जैसे निद्रा में भव्य स्वर्णमहलों की प्राप्ति, जो स्वप्न टूटते ही खंड-खंड होकर असलियत या यथार्थ से साक्षात्कार करा देता है।
इस संपूर्ण दुखमय सृष्टि का निर्माण व आमंत्रण केवल हमने ही किया है। इससे पनपने वाला हर भाव, स्वभाव, उत्पाद, संबंध व विस्तार दुखमय ही होगा। सुख का मार्ग ईश-भजन की नाव में बैठकर, सांसारिक विस्तार को भुलाकर, सनातन आनंद के उस लोक का दिव्य-दर्शन है, जहां दुख, पीड़ा, पश्चाताप व संताप पनप ही नहीं सकते।
7--संत वह है जिसके हृदय में सात्विक गुण हो
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के दो पक्ष होते हैं। पहला पक्ष उज्जवल है और दूसरा श्याम। पहले पक्ष का संबंध व्यक्ति के सात्विक गुणों से होता है और दूसरे पक्ष का संबंध असात्विक गुणों से। व्यक्ति अपने स्वभाव और गुणों के आधार पर संतत्व-असंतत्व, यश-अपयश, मान-अपमान, प्रशंसा-निंदा आदि का भागीदार बनता है।
शास्त्रों में वर्णित संतों के 32 लक्षणों के आधार पर संतों की भिन्न-भिन्न व्याख्याएं प्रस्तुत की गई हैं। सामान्यत: संत के हृदय में सात्विक गुणों और स्वभाव की विनम्रता के कारण सदैव भगवान का ही चिंतन रहता है और भगवान के हृदय में सदैव संत का ही वास होता है। संत-सान्निध्य सर्वजन हितकारी, सुखकारी और शांति प्रदाता होता है। संत ही भोग-वासनाओं से विरत, धर्म-नीति के पालक, भगवान के सच्चे भक्त और नवनीत के समान कोमल हृदय होने के कारण दूसरों के दुखों से शीघ्र द्रवित हो जाते हैं।
संत के बिछोह की कल्पना मात्र से ही होने वाली मर्मातक पीड़ा से प्राण त्यागने जैसी व्याकुलता की अनुभू्ति होने लगती है। इसके विपरीत असंत के मिलने मात्र से ही दारुण दुख देने वाली असहनीय वेदना होती है। मानस में संत तुलसी ने कहा है-'संत दरस सम सुखजन नाहीं।' संत चलते-फिरते तीर्थ ही नहीं, बल्कि साक्षात सत्संग भी होते हैं। संत में चेतन-तत्व का प्राबल्य होने के कारण देवत्व की प्रधानता होती है।
संत-सान्निध्य प्राप्त करने की ललक और संस्कारों का धनी व्यक्ति ही संत के निकट पहुंचने की पात्रता रखता है। संत के हृदय की स्वाभाविक पवित्रता के प्रभाव से संपर्क में आने पर व्यक्ति अपनी दुर्बलताओं और कुत्सित मनोविकारों को जान लेता है और संत-कृपा से सजग हो जाता है। संत अपने संतत्व की स्वाभाविक ऊर्जा से सत्संग के परिवेश का निर्माण करते हैं और अपने सद्गुणों और सद्विचारों से उसे अपने जैसा ही बना लेते हैं।
संत-सान्निध्य प्राप्त होते ही व्यक्ति क्षण-क्षण में क्षीण होने वाले संसार की क्षुद्र सीमाओं को पार कर सद्मार्ग का अनुगामी होकर शाश्वत सत्य की निकटता की अनुभू्ति करने लगता है।
संत की कृपा ही व्यक्ति को परम प्रभु के निकट पहुंचाने के लिए अनुकूल परिस्थितियों का सृजन करती है। संत-सान्निध्य ही सत्संग की सुवास की जीवंतता को अक्षुण्ण बनाए रखता है।
8-जीवन में खुशी एक सकारात्मक मनोदशा है
वस्तुत: प्रसन्नता या खुशी आपकी मनोदशा पर निर्भर करती है। इसलिए खुश रहना एक हुनर है। तमाम लोगों की धारणा है कि अमुक-अमुक वस्तुओं को हासिल करने से उन्हें खुशी मिलेगी तो उनकी ऐसी सोच बेबुनियाद है। इसका कारण यह है कि खुशी का अहसास किसी वस्तु विशेष पर निर्भर नहीं करता।
दुनिया में तमाम ऐसे धनवान व्यक्ति हैं जिनके पास समस्त भौतिक व विलासितापूर्ण वस्तुएं उपलब्ध हैं। इसके बावजूद आए दिन अखबारों व अन्य प्रचार माध्यमों में इस आशय की खबरें प्रकाशित होती रहती हैं कि अमुक धनवान व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली। स्पष्ट है कि ऐसे लोग स्वयं से या हालात से अप्रसन्न होने की स्थिति में ही आत्महत्या करते हैं। इस प्रकार यह बात स्वत: ही स्पष्ट हो जाती है कि प्रसन्नता का कारण सिर्फ धन या वैभव ही नहीं है। वस्तुत: खुशी एक सकारात्मक मनोदशा है, जिसमें आप शांति व आनंद की अनुभूति करते हैं।
यदि आपके जीवन में अथक प्रयासों के बाद भी खुशी का अहसास नहीं हुआ है तो इसका अर्थ है कि आपने जीवन के आधारभूत तत्वों की उपेक्षा की है।
बात चाहे संबंधों की प्रगाढ़ता की हो या परिस्थिति विशेष से निबटने में कार्यकुशलता की, आप बेहतर तभी कर सकते हैं जब खुश हों। सच तो यह है कि खुश रहना या नहीं रहना आप पर निर्भर है। जीवन में चाहे आप जो भी पा लें, यह मायने नहीं रखता। यदि आप खुश हैं, कुछ और नहीं भी हासिल करते हैं तो आपका क्या बिगड़ जाता है? खुश रहना आपका स्वभाव है। इसलिए आप खुश रहना चाहते हैं। जब आप छोटे थे तो खुश थे, लेकिन जीवन-यात्र में खुशियों को आपने कहीं खो दिया है, क्योंकि आपका मन और शरीर आपकी पहचान को आसपास की चीजों से जोड़कर देखने का आदी हो चुका है।
जिसे आप मन कहते हैं उस पर सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। आप जैसे समाज में पले-बढ़े हैं, आपके मन-मस्तिष्क की अवधारणा वैसी ही होगी। आपके मन-मस्तिष्क में भी वही है जो आपने समाज में देखा है। आप इन चीजों से इतने गहन रूप में जुड़ गए हैं कि यह प्रवृत्ति आपकी परेशानियों का मूल कारण बन गई है।
9-आत्मा का सर्वोपरि साधन है मन
चिंतन का अर्थ है सोचना या विचारना। किसी सुने हुए, पढ़े हुए या विचारणीय विषय पर एकांत स्थान में बैठकर गंभीर विचार करना मनन है। मननशीलता का गुण होने के कारण मानव को मनुष्य कहा जाता है। जैसा मन का स्वभाव या गुण होता है वैसा ही मनुष्य होता है।
मन आत्मा का सर्वोपरि साधन है। मन का कार्य है आत्मा से प्राप्त संदेशों को क्रियान्वित कराने का संकल्प करना।
मन ज्ञानेंद्रियों और कर्मेद्रियों के जरिये कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। मन की गुणवत्ता पर ही मनुष्यता निर्भर करती है, अन्यथा मन के पतित होने पर मानव का व्यवहार भी पशुवत हो जाता है। हमारे अंत:करण के अंतर्गत मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को शुमार किया जाता है। कार्य के विभाजन को देखते हुए मन और चित्त भिन्न-भिन्न हैं।
चित्त का काम चिंतन करना है और मन का काम मनन करना है। चिंतन चित्त में होने के कारण उसके साथ बुद्धि का समावेश रहता है। शास्त्रों में बुद्धि को निश्चयात्मक बताया गया है। इस गुण के कारण यह किसी भी विषय का निश्चय करा देती है। चिंतन निर्विकल्प स्थिति है, जो ज्ञानपूर्वक होती है। आध्यात्मिक जगत में केवल आत्मा और परमात्मा का चिंतन होता है, किसी अन्य विषय का नहीं।
मनुष्य ज्ञानरहित अवस्था में ही चिंता करता है। वेदों में कहा गया है कि मनुष्य चिंता न करे, क्योंकि यह हमें पतन की ओर ले जाती है।
शास्त्रों में चिंता और चिता पर विचार करते हुए बताया गया है कि मनुष्य चिंता करके चिता की स्थिति तक पहुंच जाता है, परंतु यदि वह चित्त में चिंतन करे तो परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। चिंतन साधना की प्रारंभिक अवस्था है।
व्यक्ति अपने चित्त को योग साधना के माध्यम से बाहरी कार्र्यो और विषयों से हटाकर अपनी चित्तवृत्तियों का निरोध कर लेता है। इस स्थिति को गीता में कामनाओं से रहित होकर योगनिष्ठ होना बताया गया है। ऐसा योगनिष्ठ साधक आत्मानंद का अनुभव प्राप्त करते हुए अपने जीवन के मुख्य लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। वेदों के अनुसार मन हृदय में स्थित है, मस्तिष्क में नहीं। आत्म तत्व को सुसारथि बताया गया है जो चिंतन-मनन के विवेक से परिपूर्ण होकर जीवन रूपी रथ का संचालन करता है।
10-विचार से तर्क का जन्म होता है
मनुष्य जो कुछ भी करता है, वह सोचकर करता है। वह मंदिर जाता हो, चोरी करता हो या अनैतिक काम करता हो, वह सोचकर करता है। मंदिर जाने के पहले वह मंदिर आने का विचार करता है, तब मंदिर जाता है। अनैतिक काम करने से पहले भी वह विचार करता है।
विचार करते समय उस काम के अच्छे-बुरे प्रभाव के बारे में भी सोचता है, लेकिन जब उसके दिमाग पर बुरे विचारों का प्रभाव रहता है, तो वह अपने सभी अच्छे विचारों को अपने ही तर्क से दबा देता है और अपने बुरे विचारों के समर्थन में तर्क भी गढ़ लेता है।
वह अपने तर्को द्वारा मान लेता है कि उसका प्रत्येक गलत काम सही है। ऐसा इसलिए क्याेंकि मनुष्य तार्किक व्यक्ति है।
ऐसा होता भी है कि जो व्यक्ति गलत करता है, उसके पास अपने गलत काम के समर्थन में बहुत तर्क होते हैं। शराब पीने वाला आपको मनवा देगा कि वह सही कर रहा है, क्योंकि वह अपनी चालाकी से अपने समर्थन में मजबूत तर्क एकत्र कर लेता है। जैसे किसी वकील के पास आप जाइए और यह कहें कि मैंने कोई दुराचार किया है, तो वह अपने तर्क से यह साबित कर देगा कि आपने गलत नहीं किया। गलत काम करने वालों के पास तर्क बहुत होते हैं।
सत्य को साबित करने के लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं होती। तर्र्को के द्वारा असत्य को सत्य साबित किया जा सकता है।
कई लोग आपको भी यह साबित कर बता देंगे कि अमुक व्यक्ति मनुष्य नहीं पशुतुल्य है। 1 कई बार सत्य बोलने वाले को असत्यवादी लोग चौराहे पर खड़ा करके असत्य साबित कर देते हैं और ईसा मसीह को सूली पर चढ़ा देते हैं, सुकरात को जहर पिला देते हैं। ऐसे लोग बड़े तार्किक होते हैं। तर्क का जन्म विचार से होता है। शरीर में जो ऊर्जा बनती है, उस ऊर्जा को अगर विवेकपूर्ण कार्यो में खर्च किया जाए तो उसका प्रभाव रचनात्मक होता है।
अगर इस ऊर्जा को गलत दिशा में खर्च किया जाए तो मानवता का नाश करने के लिए हिरोशिमा और नागासाकी की घटना घट जाती है। मनुष्य मूल रूप से न अच्छा होता है और न बुरा होता है। वह केवल मनुष्य होता है। बाद में वह जिस परिवेश में पलता है जैसा विचार करता है, वैसा ही बन जाता है।
11-योग बिना भक्ति उसी तरह है, जैसे सुनार बिना सोना
योग बिना भक्ति उसी तरह है, जैसे सुनार बिना सोना के। हमें ज्ञान और कर्म की भी साधना करनी पड़ेगी। सिर्फ आसन और प्राणायाम करने से परमसत्ता को नहीं पाया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण है भक्ति। एक अनपढ़ व्यक्ति भी भगवान को पा सकता है, जबकि एक विद्वान भी उसे नहीं प्राप्त कर सकता है।
इस संदर्भ में सवाल उठता है कि ज्ञान क्या है? सभी वस्तुओं में परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करने का प्रयास करना ही ज्ञान साधना है।
सभी वस्तुओं में परमात्मा की सत्ता को अनुभव करने के लिए लोग आध्यात्मिक साधना करते हैं। परमात्मा सभी वस्तुओं में नहीं है, बल्कि सभी वस्तुएं उन्हीं में हैं, सभी वस्तुएं वे ही हैं। ज्ञान साधना में यह बोध होता है कि सभी वस्तुएं परमात्मा ही हैं। अब सवाल उठता है कि कर्म साधना क्या है? भौतिक विश्व में सभी व्यक्तियों में कार्य करने की संभावना है, किंतु कुछ लोग ही शत-प्रतिशत संभावना का उपयोग कर पाते हैं, 90 प्रतिशत का उपयोग हो ही नहीं पाता।
कर्म साधना का आशय है- दूसरों के लिए अधिक और अपने लिए कम कर्म करना। साधारणतया मनुष्य अपने लिए ही कार्य में संलग्न रहता है। जो दूसरों के लिए भी कर्म करता है, वह वास्तव में महान है। जो सिर्फ दूसरों के लिए ही कर्म करता है वह 'कर्मसिद्ध' कहा जाता है। इसलिए ज्ञान और कर्म द्वारा भक्ति का जागरण किया जाता है। इस बात को मन में रखें कि ज्ञान और कर्म दोनों को ही करना है, किंतु कर्म साधना, ज्ञान साधना से ज्यादा करनी है। जब कर्म की तुलना में ज्ञान साधना ज्यादा हो जाए, तो अहंकार के पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है, जिसका परिणाम पतन होता है।
जब ज्ञान से अधिक कर्म किए जाते हैं, तब भक्ति जाग्रत हो जाती है, तब योगी परमात्मा की तरफ बढ़ सकता है।
इसके पहले नहीं। एक योगी संपूर्ण रूप से भक्ति पर आश्रित रहता है। जहां भक्ति नहीं है, उस योगी का हृदय मरुभूमि की तरह हो जाता है। एक साधक का हृदय मिट्टी की तरह होता है। इष्टमंत्र बीज है और भक्ति जल के समान है। जहां भक्ति की ठंडी फुहार नहीं है, उस मरुभूमि में बीज बोना व्यर्थ है। इसलिए एक आदर्श योगी बनना सबका लक्ष्य है, किंतु यह याद रखना चाहिए कि भक्ति की लौ को अंतर्मन में जाग्रत करना जरूरी है।
12-कृतज्ञता से जीवन का पोषण होता है
कृतज्ञता मानव जीवन का पोषक तत्व है। इसके बिना जीवन का रस फीका हो जाता है। यह जीवन मूल्यों में उच्चकोटि का शाश्वत सद्गुण है। संपूर्ण मनुष्य की कसौटी पर खरा उतरने के लिए कृतज्ञता का भाव आत्मसात कर लेने पर दूसरों को सुधारने की पात्रता आती है।
उन्नति करने के लिए कृतज्ञता के गुण की अधिक आवश्यकता है। कृतज्ञता की प्रेरणा नारियल के वृक्ष से मिल सकती है।
यह वृक्ष 50 वर्ष से अधिक समय तक फल और स्वास्थ्यवर्धक पानी प्रदान करता है और बदले में कुछ नहीं चाहता। केवल अपने लिए जीना स्वार्थ है। दूसरों का सहयोगी बनना परार्थ है।
सामाजिक ऋण चुकाने की भावना से कार्य करना कृतज्ञता रूपी यज्ञ है। सामाजिक मूल्य न बनने वाले गुण, दोष हो जाते हैं। कृतज्ञता से पहचानने की दृष्टि आती है तो कृतघ्नता से व्यक्ति दूसरों की नजरों में गिर जाता है। अपने काम आए लोगों को नकारना कृतघ्नता है। यह स्थिति मूढ़ता के कारण उत्पन्न होती है। कृतज्ञता की अभिव्यक्ति एक बड़ा सद्गुण है। हनुमान के प्रति राम इतने कृतज्ञ होते हैं कि वह चाहते हैं कि कभी हनुमान पर ऐसा कोई कष्ट आए ही नहीं जिसके लिए राम की उन्हें आवश्यकता पड़े, भले ही राम जीवनपर्यन्त कृतज्ञ बने रहें।
कृतज्ञता वह सदगुण है, जिसकी अभिव्यक्ति करना हमारा कर्तव्य है। कहा गया है- नेकी कर दरिया में डाल। कृतज्ञता रूपी प्रसन्नता को दूसरों की कृतघ्नता रूपी अप्रसन्नता के हवाले करना हितकर नहीं होता। छोटी से छोटी सहायता, श्रेष्ठ भावना और मधुर शब्दों का कृतज्ञता से स्मरण कर यथासंभव लौटाना दिव्य संस्कार है। इस संदर्भ में भरत कहते हैं कि यदि मैंने कोई दोष किया गया हो तो ईश्वर मुडो कृतघ्नता का दंड दे। कृतज्ञता के बदले कृतघ्नता करने वालों के लिए प्रायश्चित करने के लिए किसी विकल्प की संभावना नहीं रहती।
कृतज्ञता किसी के प्रति सच्ची योग्यता को स्वीकार करने का ही भाव है। कृतज्ञता कथनी और करनी का भेद मिटाकर सत्य की स्थापना करती है। कृतज्ञता किसी के प्रति दिया गया आदर का भाव है। सम्मान देने वाले स्वयं को झुकाकर अपने उच्च संस्कारों का परिचय कराते हैं। वस्तुत: महापुरुष कृतज्ञता में जीते हैं।
12-हमारी वांणी की देवी सरस्वती ही तो है
वसंत पंचमी को मां सरस्वती के प्रकट होने का दिन माना जाता है।
सरस्वती मनुष्य को ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाती हैं। वे वाणी की देवी हैं, जो संदेश देती हैं कि जो भी बोलें, सोच-समझकर।
वाग्देवी सरस्वती वाणी, विद्या, ज्ञान-विज्ञान एवं कला-कौशल आदि की अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। वे प्रतीक हैं मानव में निहित उस चैतन्य शक्ति की, जो उसे अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर अग्रसर करती है।
सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में सरस्वती के दो रूपों का दर्शन होता है- प्रथम वाग्देवी और द्वितीय सरस्वती। इन्हें बुद्धि [प्रज्ञा] से संपन्न, प्रेरणादायिनी एवं प्रतिभा को तेज करने वाली शक्ति बताया गया है। ऋग्वेद संहिता के सूक्त में वाग्देवी की महिमा का वर्णन किया गया है। ऋग्वेद संहिता के दशम मंडल का 125वां सूक्त पूर्णतया वाक् [वाणी] को समर्पित है। इस सूक्त की आठ ऋचाओं के माध्यम से स्वयं वाक्शक्ति [वाग्देवी] अपनी सामर्थय, प्रभाव, सर्वव्यापकता और महत्ता का उद्घोष करती हैं।
वाणी का महत्व- बृहदारण्यक उपनिषद् में राजा जनक महर्षि याज्ञवल्क्य से पूछते हैं- जब सूर्य अस्त हो जाता है, चंद्रमा की चांदनी भी नहीं रहती और आग भी बुझ जाती है, उस समय मनुष्य को प्रकाश देने वाली कौन-सी वस्तु है? ऋषि ने उत्तर दिया- वह वाक [वाणी] है। तब वाक ही मानव को प्रकाश देता है। मानव के लिए परम उपयोगी मार्ग दिखाने वाली शक्ति वाक [वाणी] की अधिष्ठात्री हैं भगवती सरस्वती। छांदोग्य उपनिषद् के अनुसार, यदि वाणी का अस्तित्व न होता तो अच्छाई-बुराई का ज्ञान नहीं हो पाता, सच-झूठ का पता न चलता, सहृदय और निष्ठुर में भेद नहीं हो पाता।
अत: वाक [वाणी] की उपासना करो।
ज्ञान का एकमात्र अधिष्ठान वाक है। प्राचीनकाल में वेदादि समस्त शास्त्र कंठस्थ किए जाते रहे हैं। आचार्यो द्वारा शिष्यों को शास्त्रों का ज्ञान उनकी वाणी के माध्यम से ही मिलता है। शिष्यों को गुरु-मंत्र उनकी वाणी से ही मिलता है। वाग्देवी सरस्वती की आराधना की प्रासंगिकता आधुनिक युग में भी है।
मोबाइल द्वारा वाणी [ध्वनि] का संप्रेषण एक स्थान से दूसरे स्थान होता है। ये ध्वनि-तरंगें नाद-ब्रह्म का ही रूप हैं।
वसंतपंचमी है वागीश्वरी जयंती- जीभ सिर्फ रसास्वादन का माध्यम ही नहीं, बल्कि वाग्देवी का सिंहासन भी है। देवी भागवत के अनुसार, वाणी की अधिष्ठात्री सरस्वती देवी का आविर्भाव श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से हुआ था।
परमेश्वर की जिह्वा से प्रकट हुई वाग्देवी सरस्वती कहलाई। अर्थात वैदिक काल की वाग्देवी कालांतर में सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हो गई। ग्रंथों में माघ शुक्ला पंचमी [वसंत पंचमी] को वाग्देवी के प्रकट होने की तिथि माना गया है। इसी कारण वसंत पंचमी के दिन वागीश्वरी जयंती मनाई जाती है, जो सरस्वती-पूजा के नाम से प्रचलित है।
वाणी की महत्ता पहचानो- वाग्देवी की आराधना में छिपा आध्यात्मिक संदेश है कि आप जो भी बोलिए, सोच-समझ कर बोलिए। हम मधुर वाणी से शत्रु को भी मित्र बना लेते हैं, जबकि कटुवाणी अपनों को भी पराया बना देती है। वाणी का बाण जिह्वा की कमान से निकल गया, तो फिर वापस नहीं आता। इसलिए वाणी का संयम और सदुपयोग ही वाग्देवी को प्रसन्न करने का मूलमंत्र है। जब व्यक्ति मौन होता है, तब वाग्देवी अंतरात्मा की आवाज बनकर सत्प्रेरणा देती हैं।