Monday, October 15, 2012

धर्म की खोज

         
          धर्म के सम्बन्ध में हमारी धारणॉएं आज भी अस्पष्ट हैं,हमें उसे सही ढंग से समझना होगा । इस दुनियॉ में अलग-अलग विधाएं हैं जिन्हैं हम एक दूसरे से सीख सकते हैं, लेकिन धर्म एक ऐसी विधा है जिसे दूसरे से सीखने से बचना चाहिए । अन्यथा मुश्किल पैदा होगी । सच तो यह है कि धर्म किसी दूसरे को स्वीकार ही नहीं करता । अकेली विधा है धर्म, जिसे स्वयं ही सीखा जाता है । दूसरे से सीखने की कोई गुंजाइस नहीं है । इसका कारण यही है कि यह सत्य परिवर्तनीय नहीं है,यह एक हाथ से दूसरे हाथ में नहीं दिया जा सकता । और यदि दिया जाय तो, उधार हो जायेगा । और उधार होते ही यह अज्ञान से भी बदतर हो जाता है ।  और यह उधार ज्ञान उसके लिए एक खतरा हो सकता है,यह अहंकार से भर जाता है ।जो ज्ञान भीतर से पैदा होता है उससे अहंकार ऐसा भाग जाता है कि मानो सुबह के सूरज उगने पर अंधेरा विदा हो जाता है । खुद के ज्ञान के पैदा होने पर अहंकार नहीं आता है,लेकिन दूसरे से लिया हुआ ज्ञान अहंकार को मजबूत करता है । और यही अहंकार परमात्मा से मिलने में बाधा बन जाता है ।
 
 
          हमें इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि धर्म कभी भी दूसरे से उपलब्ध नहीं होता है । इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरा बिलकुल बेकार है । अगर बुद्ध हमारे बीच से गुजर जाये तो बुद्ध हमें ज्ञान नहीं दे सकता है या नानक गीत गाता हुआ हमारे पास आता है तो नानक हमें ज्ञान नहीं दे सकता है । लेकिन अगर बुद्ध या नानक के जाने के बाद हमारी प्यास जग सकती है । उन्हैं देख कर हमें इस बात का समरण आ सकता है कि जो उन्हैं प्राप्त होने में सम्भव हुआ वह मुझे भी सम्भव हो सकता है ।
 
 
          अगर देखें तो धर्म की दुनियॉ में ज्ञानी ज्ञान देने वाले नहीं होते हैं बल्कि प्यास जगाने वाले होते हैं । प्यास जगने के बाद कुंआं तो अपने ही भीतर खोदना होता है । पानी तो अपने ही भीतर खोजना पडता है । अगर यह ज्ञान कोई दूसरा देने वाला होता तो एक ही ज्ञानी ने सारी दुनियॉ को ज्ञान दे दिया होता । क्योंकि ज्ञानी में इतनी करुंणॉ होती है कि वह रुकता ही नहीं है,सबको वह बॉट देता । लेकिन यह दिया ही नहीं जा सकता है । इसीलिए सब ज्ञानी तडफते हुये मर जाते हैं, अपने लिए नहीं दूसरों के लिए ,क्योंकि जो उन्हैं मिल गया वे उसे देना चाहते हैं,लेकिन वह दिया नहीं जा सकता । अगर देते हैं तो शव्द ही उनके पास जा पाते हैं अनुभूति तो अपने ही अन्दर रह जाती है ।
 
 
          अगर गीता को देखें तो उसमें एक हजार टीकाएं हैं । क्या कृष्ण ने गीता के एक हजार अर्थ बताये !कृष्ण जैसे आदमी का मतलव तो एक होता है। गीता के ये अर्थ कृष्ण के नहीं हैं ।फिर ये अर्थ कहॉ से आये,ये एक हजार टीका करने वालों के अर्थ हैं । जब हम गीता पढते हैं तो वह कृष्ण की गीता नहीं होती है,हम उसमें अपना अर्थ डाल कर पढते हैं । हम ही उसमें होते हैं । इसलिए शास्त्र को भूलकर भी नहीं पकडना, क्योंकि शास्त्र में हम खुद को ही पढते हैं । अगर शास्त्र को दो आदमी पढते हैं तो दो अर्थ निकलते हैं ।
 
 
          इसी सम्बन्ध में एक प्रसंग कि एक रात को बुद्ध ने प्रवचन दिया और प्रवचन के बाद रोज अपने भिक्षुकों को कहते थे कि जाओ अब रात के आखिरी काम में लग जाओ । उस दिन एक चोर भी आया हुआ था,प्रवचन देने के बाद बुद्ध ने आज भी वैसा ही कहा । चोर उठा और कहने लगा आज तो बडी देर हो गई । एक वैश्या भी आई थी,उसने भी कहा मैने कितना समय विता दिया,ग्राहक वापस लौट गये होंगे । इसके बाद भिक्षु उठकर ध्यान करने चले गये, क्योंकि भिक्षुओं को रात का आखिरी काम था, वे ध्यान करने चले गये ,उसके बाद सोना था । भिक्षु ध्यान करने लगे,चोर अपने काम पर चले गये,वैश्या अपनी दुकान चलाने चली गई । बुद्ध ने एक ही शव्द कहा था आओ रात के काम पर लग जाओ ।
 
 
          प्रश्न यह उठता है कि सत्य कौन देगा ?जबकि अर्थ हम देते हैं, शास्त्र को पढकर सत्य मिलने वाला नहीं है । सत्य तो स्वयं को खोने से मिलेगा । शास्त्र तो स्वयं का ही दर्पण है,इसलिए हम तो अपने को ही पढ लेते हैं । इसलिए कुरान को मुसलमान पढता है तो उसका और ही अर्थ निकाल लेता है ।यदि वेद को पढते हैं तो अपना अलग ही अर्थ निकाल लेते हैं । ये अर्थ  तो हमारे हैं । अगर हमारे मतलव सत्य होते तो वेद तक जाने की क्या जरूरत है ?हम तो सत्य हैं ही ।
 
 
          यह भी देखना है कि अगर आप शास्त्र जानते हैं तो आपका अहंकार और मजबूत हो जाता है, पंडितों का अहंकार कम नहीं होता है । जानने का अहंकार इस दुनियॉ में सबसे गहरा अहंकार है । इसीलिए पंडित निरंतर लोगों को लडाई में ले जाते हैं । जो भी लडाइयॉ हुईं है वे ज्ञानियों के कारण ही तो हुईं हैं, अज्ञानियों के कारण नहीं ! इसका कारण झूठा ज्ञानी होना है ।अज्ञानी तो बेचारे उस ज्ञानी के चक्कर में पडकर लडते रहते हैं । झूठा ज्ञान अहंकार भरा होता है, इसलिए सारी लडाई झूठे ज्ञानियों के कारण होती है ।
 
 
          इस बात को भी हमें देखना है कि धर्म एक ऐसी विद्या नहीं है जो हमें शास्त्र को पढने से मिल जाय, बल्कि धर्म ऐसी विद्या है जो स्वयं को खोने से मिल जाती है । आज तक कोई ऐसा शास्त्र नहीं बना जिनको जानकर आप धर्म जान लेंगे,हॉ अगर आपने धर्म को जान लिया तो आप शास्त्रों को भी जान लेंगे । धर्म को जान लेंगे तो सभी शास्त्रों का राज खुल जायेगा । अगर धर्म को जान लेंगे तो शास्त्र समझ में आ जायेंगे ।लेकिन शास्त्र को समझकर धर्म समझ में नहीं आ सकेगा ।