Thursday, February 19, 2015

अभ्यास किसी भी कार्य की कुशलता के लिए परमावश्यक है

                अभ्यास किसी भी कार्य की कुशलता के लिए परमावश्यक है। जीवन की सभी परीक्षाओं में सफल होने के लिए अभ्यास सबसे महत्वपूर्ण घटक है। किसी कार्य में विशेषज्ञता, कला में पारंगतता तब प्राप्त होती है जब कार्य व कलाएं ज्ञान के स्वरूप को छोड़कर व्यवहारिकता धारण करती हैं।

                 ज्ञान संबंधी विशेषताओं को कार्य में बदलकर कार्य का निरंतर अभ्यास करना यही ज्ञान की उपयोगिता है। कार्य-निष्पादन दशाओं में सुधार, अपेक्षित संशोधन कर कार्यरूप को विशेष बनाना भी अभ्यास से ही संभव है। क्रियाओं-प्रक्रियाओं में उत्पन्न होने वाली भौतिक और भाव आधारित समस्याओं को पहचान कर उन्हें सुलझाने की समझ केवल कार्याभ्यास से ही विकसित हो सकती है।

                हमारे जीवन का प्रत्येक उपक्रम सामान्य अभ्यास की सहायता से संपन्न होना चाहिए। यदि कोई किसी को कहे कि वह एक अच्छा व कुशल अध्यापक है, परंतु अध्यापक अध्यापन का निरंतर अभ्यास न करे, तो उसकी ज्ञान-विज्ञान की जानकारियां प्रकटीकरण व प्रयोग के अभाव में पहले तो आधी-अधूरी रह जाएंगी और एक दिन भुलावे की भेंट चढ़ जाएंगी। इसी तरह किसी को तरह-तरह के भोजन बनाने की विधियां भले ही ज्ञात हों, लेकिन वह प्रतिदिन भोजन बनाने का अभ्यास न करे, तो एक दिन वह भोजन बनाना ही भूल जाएगा। शिक्षण, संगीत, पाकशास्त्र और किसी भी अन्य विषय का पुस्तकीय ज्ञान इन विषयों का परिचय भर कराता है, जबकि विषयगत ज्ञान को फलीभूत कर किसी समाज कल्याण कार्य में बदलना ही मौलिकता है और यह तभी संभव है, जब विषय-ज्ञान बारंबार अभ्यास से व्यवहार में तब्दील हो। संपूर्ण मानव जीवन को सुगम, सोद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए विभिन्न कार्यो को सदैव सकारात्मक दृष्टि से टटोलने की जरूरत है। रोजगारों से संबंधित कार्र्यो को अभ्यास के जरिये अच्छी तरह करने से ज्ञान बढ़ता है और कार्य-निष्पादन के नए व सरल उपायों तक पहुंच बनती है। अभ्यास को अनुशासन बनाने वाले तो कार्यसंस्कृति का एक समग्र समुचित साहित्य तक रच डालते हैं। जिस प्रकार शारीरिक व्यायाम का दैनिक अभ्यास शरीर को स्वस्थ रखता है, योगाभ्यास मन-मस्तिष्क के साथ-साथ आत्मगौरव में वृद्धि करता है।

परमात्मा सर्वशक्तिमान है


                         सेवा का भाव मन में रखना उत्तम है, परमात्मा का सेवक बनकर सभी कार्यों को करते रहने से मनुष्य स्वयं को श्रेष्ठता की ओर ले जाता है। इस जगत को परमात्मा का साकार रूप समझकर इस प्रकार अपना जीवनयापन करना चाहिए कि वे प्रभु ही इस जगत के एकमात्र मालिक हैं और मैं उनका एक छोटा सा सेवक हूं।

                          ऐसा विचार मन में जाग्रत हो कि हर हाल में परमात्मा के आदेशों का पालन करता हुआ अपना जीवन जिया जाए। इस संसार में आकर मनुष्य को मालिक समझने की भूल कदापि नहीं करना चाहिए। इसलिए कि इस जगत की एक-एक वस्तु ईश्वर की बनाई हुई है। ईश्वर ही इस प्रकृति के रचनाकर्ता हैं और वह ही इस प्रकृति की रचना को क्षण भर में नष्ट कर सकते हैं और पलभर में एक नई रचना पुन: रच सकते हैं। इस सामथ्र्यवान ईश्वर के हाथ में सभी कुछ है। जो इस सत्य को न समझने की भूल करते हैं और स्वयं को सर्वशक्तिमान मानने लगते हैं, वे मनुष्य दंड के पात्र बनते हैं।

                         उनके अनुसार यह संसार उनकी जागीर है परमात्मा सर्वशक्तिमान है। शक्तिऔर सामथ्र्य हेाते हुए भी वह सभी पर दया करता है। वह दया का सागर है, प्रेम का भंडार है। उससे कोई प्रीति करे न करे, वह सबसे प्रीत करता है। भगवान तो अपने सेवक पर अति प्रीत रखते हैं।

                           भगवान के चरणों में मन लगाकर उनकी सेवा में तत्पर रहने का भाव अति उत्तम है। सारे संसार का राज्य मिल जाए, यहां तक कि यदि तीनों लोकों का राज्य भी मिल जाए तो भी भगवान का सेवक बनने के सामने तुच्छ है। दुनिया का कोई भी वैभव, धन-दौलत, ऐश्वर्य ईश्वर के समक्ष तुछ है यहां तक कि हमारा अपना भौतिक नश्वर जीवन भी। ईश्वर की आराधना ही जीवन का एक मात्र लक्ष्य है इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह भौतिक माया-मोह में पड़े बिना ईश्वर की सतत रूप से आराधना करे। निष्कपट भाव से किसी स्वार्थ के बगैर ईश्वर के प्रति सेवारत होना जीव को उच्चतम अवस्था में ले जाता है। इस संसार में किसी स्वार्थ व दिखावे के बगैर सभी में ईश्वर के अंश का दर्शन करना चाहिए। परमात्मा की सेवा में रहने का भाव रखकर समाज के असहाय, निर्धन और रोगी आदि की सहायता करते रहना चाहिए। यही उस परमात्मा की सच्ची सेवा कहलाएगी।

चरित्र मानव जीवन की स्थायी निधि है

                          सद्विचारों और सत्कर्मों की एकरूपता ही चरित्र है। चरित्र सद्भावना के लिए आवश्यक है । जो अपनी इच्छाओं को नियंत्रित रखते हैं और उन्हें सत्कर्मों का रूप देते हैं, उन्हीं को चरित्रवान कहा जा सकता है। संयत इच्छाशक्ति से प्रेरित सदाचार का नाम ही चरित्र है। चरित्र मानव जीवन की स्थायी निधि है। जीवन में सफलता का आधार मनुष्य का चरित्र ही है। सेवा, दया, परोपकार, उदारता, त्याग, शिष्टाचार और सद्व्यवहार आदि चरित्र के बाह्य अंग हैं, तो सद्भाव, उत्कृष्ट चिंतन, नियमित-व्यवस्थित जीवन, शांत-गंभीर मनोदशा चरित्र के परोक्ष अंग हैं। किसी व्यक्ति के विचार इच्छाएं, आकांक्षाएं और आचरण जैसा होता है, उन्हीं के अनुरूप चरित्र का निर्माण होता है।

                            उत्तम चरित्र जीवन को सही दिशा में प्रेरित करता है। चरित्र निर्माण में साहित्य का बहुत महत्व है। विचारों को दृढ़ता और शक्ति प्रदान करने वाला साहित्य आत्म निर्माण में बहुत योगदान करता है। इससे आंतरिक चेतना जाग्रत होती हैं। यही जीवन की सही दिशा का ज्ञान है। मनुष्य जब अपने से अधिक बुद्धिमान, गुणवान, विद्वान और चरित्रवान व्यक्ति के संपर्क में आता है, तो उसमें स्वयं ही इन गुणों का उदय होता है। वह सम्मान का पात्र बन जाता है। जब मनुष्य साधु-संतों और महापुरुषों की संगति में रहता है, तो यह प्रत्यक्ष सत्संग होता है, किंतु जब महापुरुषों की आत्मकथाएं और श्रेष्ठ पुस्तकों का अध्ययन करता है, तो उसे परोक्ष रूप से सत्संग का लाभ मिलता है, जो सद्भावना के लिए आवश्यक है। मनुष्य सत्संग के माध्यम से अपनी प्रकृति को उत्तम बनाने का प्रयत्न कर सकता है, जिससे सद्भावना कायम रखी जा सके।

                             ईश्वर मनुष्य का एक ऐसा अंतर्यामी मित्र है कि मन में ज्यों ही बुरे संस्कार और विचार उठते हैं उसी समय भय, शंका और लज्जा के भाव पैदा करके वह बुराई से बचने की प्रेरणा देता है। इसी प्रकार अच्छा काम करने का विचार आते ही उल्लास और हर्ष की तरंग मन में उठती है। किसी भी कार्य की सफलता और असफलता की भी चर्चा की जाए, तो भी स्नेह और सहानुभूति के बगैर सफलता भी असफलता में बदल जाएगी या फिर वह प्राप्त ही नहीं होगी। जो लोग क्रूर और असंवेदनशील हैं, उनके ये दोष ही मार्ग में कांटें बनकर बिखर जाएंगे।

विपदा में नकारात्मक विचार आते जो दुघर्टनाओं को जन्म देते

                  दुर्घटनाएं अक्सर मन की पीड़ा और संताप के रूप में हमारे शरीर में एकत्र होती रहती हैं। जब हम उस पीड़ा से अत्यंत व्यथित होते हैं, तो अपने साथ कुछ बुरा कर डालते हैं या मार्ग में बुरा हो जाता है। उसे ही दुर्घटना का नाम दे दिया जाता है।

                  परेशानी से हमारे मानसिक विचार नकारात्मक हो जाते हैं जो दुर्घटना को बढ़ावा देते हैं। दुर्घटनाएं कभी-कभी क्रोध की अभिव्यक्ति होती हैं। क्रोध में व्यक्ति इतना पागल हो जाता है कि वह अपने साथ होने वाले अहित की भी परवाह नहीं करता।

                     पाइथागोरस कहते हैं कि क्रोध मूर्खता से शुरू होता है और पश्चाताप पर खत्म होता है। फिर भी कई लोग क्रोध से दूर नहीं रहते और दुर्घटनाओं को अपने गले लगाते हैं। दुर्घटनाएं कुंठा का संकेत होती हैं, जो कई बार बोल न पाने की मजबूरी महसूस करने से भी घटित होती हैं। प्रसिद्ध लेखिका लुइस एल ने, 'यू कैन हील योर लाइफ नामक पुस्तक में लिखा है, 'विपदा में नकारात्मक विचारों से लोगों के साथ दुर्घटनाएं होती हैं। इसके विपरीत सकारात्मक भावों के साथ सहजता से जीवन जीने वाले लोगों को जीवन भर एक खरोंच तक नहीं आती। इसलिए अपने मन में दूसरों के प्रति ईष्र्या या द्वेष नहीं रखना चाहिए। अध्यात्म व्यक्ति को शांति प्रदान करता है। उसे अहिंसक बनाता है और हिंसक प्रवृत्तियों से दूर रखता है। जिस तरह जीवन में सुख, प्रसन्नता और धन का आना-जाना लगा रहता है, उसी तरह दुर्घटनाएं भी व्यक्ति के जीवन के साथ जुड़ी हुई हैं।


                    आकस्मिक दुर्घटना स्वाभाविक है, लेकिन वे दुर्घटनाएं जो जानबूझकर किसी व्यक्ति के साथ की जाती हैं, गलत हैं। सार्वजनिक स्थलों पर बम विस्फोट आदि ने मानव जाति को भयभीत कर दिया है। ये सभी आतंकवाद की आड़ में ऐसी दुर्घटनाएं हैं, जिन्हें नकारात्मक विचारों से ग्रस्त व्यक्तियों के द्वारा अंजाम दिया जाता है। दुर्घटनाएं परिवार समाज और देश को हिला देती हैं। इनसे परिवार व देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर फर्क पड़ता है। ऐसा नहीं है कि दुर्घटनाओं को अंजाम देने वाले इनसे अछूते रहते हैं, बल्कि कुत्सित इरादों के साथ व्यक्तियों व देश को नुकसान पहुंचाने से स्वयं की भी क्षति होती है। हृदय से नकारात्मक भावों को निकाल कर भी दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है। जब मन में सुंदर विचार होंगे तो व्यक्ति देश व विश्व को सुंदर बनाने में अपना सहयोग करेगा।

मानव में समाज के लिए उपयोगी बनने का भाव होना चाहिए

                 आचार्य चाणक्य कहते हैं- 'शांति के समान कोई तप नहीं, संतोष से बढ़कर कोई धर्म नहीं। सुख के लिए विश्व में सभी चाहते हैं, पर सुख उसी को मिलता है, जिसे संतोष करना आता है। एक जिज्ञासा उठती है कि संतोष है क्या? संतोष का अभिप्राय है-इच्छाओं का त्याग।

                 सभी इच्छाओं का त्याग करके अपनी स्थिति पर संतोष करना ही सुख को प्राप्त कर लेना है। जीवन के साथ इच्छाएं, कामनाएं व आकांक्षाएं रहती ही हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि सुखी जीवन के लिए हमारी इच्छा-शक्ति पर कहीं तो विराम होना चाहिए। इच्छा के वेग में विराम को ही संतोष की संज्ञा दे सकते हैं। संतोष मन की वह वृत्ति या अवस्था है, जिसमें मनुष्य पूर्ण तृप्ति या प्रसन्नता का अनुभव करता है, अर्थात इच्छा रह ही नहीं पाती। जीवन की गति के साथ संपत्ति और समृद्धि की दौड़ से वह सुख नहीं मिलता, जो संतोष रूपी वृक्ष की शीतल छांव में अनायास मिल जाता है। हमें चाहिए कि हम प्रयत्न और परिश्रम के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली प्रसन्नता पर संतोष करना सीखें।

                     निष्काम कर्म-योग, इच्छाओं का दमन, लोभ का त्याग और इंद्रियों पर अधिकार-यह सभी उपदेश संतोष की ओर ले जाने वाले हैं। भारतीय संस्कृति संतोष पर ही आधारित है। श्रम-साधना के अनंतर जिसके मस्तिष्क में संतोष आ समाया है, उसने राज्य और राजमुकुट का वैभव प्राप्त कर लिया। सच तो यह है कि संतोष प्राकृतिक संपदा है, ऐश्वर्य कृत्रिम रूप से् गरीबी है। संतोष का आदर्श यही है कि हम इच्छाओं को सीमित रखकर सत्य व ईमानदारी से श्रम करें और फल की चिंता न करते हुए उसे परमात्मा और परिस्थितियों पर छोड़ दें। प्रत्येक मानव में समाज के लिए उपयोगी बनने का भाव होना चाहिए। ऐसी उपयोगिता में हृदय को सरस बनाने की अपारशक्ति है। हमें इस तथ्य का भली भांति बोध होना चाहिए कि सुखी होने का भाव है-दूसरों को सुखी बनाना। आत्मा में सुख-सौंदर्य की विपुल वर्षा के लिए संतोष एक उपयुक्त मेघ है। संतोष मूल है और सुख उसका फल या संतोष मेघ है और सुख उससे बरसने वाला जल। संतोष सुख का सबसे बड़ा साधन है, जो मस्तिष्क के झुकाव पर निर्भर करता है। यदि मन से सुख मान लिया, तो विपुल व्याधियां भी कपूर की भांति उड़ जाती हैं।

सत्य सदैव एक रूप में स्थित रहता

             सत्य सदैव एक रूप में स्थित रहता है। वह किसी भी काल, किसी भी युग किसी भी परिस्थिति में परिवर्तित नहीं होता। वह प्रकाशमान तत्व सदैव एक समान बना रहता है।
 
              यानी जो अपरिवर्तनशील है, वही सत्य है और वह अपरिवर्तनशील तत्व नित्य, शुद्ध परमात्मा है जो समस्त देहधारियों में आत्मा के रूप में विद्यमान रहता है। उसी परमात्मा ने सारे जगत को धारण कर रखा है और सारा जगत उसी के भीतर व्याप्त है। सभी मानव शरीरों के अंदर रहते हुए भी कोई परमात्मा को जान नहीं पाता। वह इसलिए कि उसी की सत्ता से सारे शरीर प्रकाशमान होते हैं। उसी चेतन सत्ता के कारण मन-बुद्धि, इंद्रियां क्रियाशील होती हैं। सभी शरीरधारियों में मानव देह ही मात्र साधन धाम कहलाता है।

             ऐसा इसलिए, क्योंकि समस्त शरीरों में चाहे वह मनुष्य का हो या फिर किसी अन्य का, सभी में आहार, निद्रा, भय और मैथुन आदि क्रियाएं एक समान रूप से होती हैं, लेकिन मनुष्य को ईश्वर ने अतिरिक्त एक अन्य गुण भी प्रदान किया है, वह है विवेक। परमात्मा ने मनुष्य को विवेकशील प्राणी बनाया है। जो व्यक्ति अपने उसी विवेक का प्रयोग कर सार-असार का विभेदन करता हुआ विश्व रूप परमात्मा की शरण में जाता है, तो ईश्वर की कृपा रूपी प्रसाद को प्राप्त कर उस परम सत्य का साक्षात्कार कर लेता है। दूसरी ओर ईश्वर रचित माया (प्रकृति) चंचल, अनित्य व परिवर्तनशील है। इसमें नित्य एकरूपता नहीं रहती।

             पंच महाभूतों-आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तत्वों से निर्मित मनुष्य के शरीरों का संश्लेषण मां के गर्भ में होता है। इन्हीं पांचों तत्वों से निर्मित मनुष्य के शरीरों में सतत परिवर्तन होता रहता है। वह बालक से किशोर, जवान, फिर अधेड़ होते हुए वृद्ध हो जाता है। अंत में उसी शरीर का विलय पंच महाभूतों में हो जाता है। इसी प्रकार ऋतुओं में भी समयानुसार परिवर्तन होता रहता है। गर्मी बरसात में, बरसात जाड़े में और जाड़ा पुन: गर्मी में परिवर्तित हो जाता है। बीज वृक्ष बनता है। वृक्ष में अनेक शाखाएं फूट जाती हैं। इसमें फूल आता है। फूल से फल निकलते हैं। अंत में उसी वृक्ष से फिर बीज बनता है। यही प्रकृति की निश्चित नियति है।
 
             जो वस्तु पहले नहीं थी, बीच में दृष्टिगोचर प्रतीत होती है और अंत में फिर नहीं रहती, वही असत्य है और जो पहले भी थी अभी भी है और अंत में भी रहेगी, वही सत्य है।


आत्मा अंतत: परमात्मा रूपी सागर में विलीन हो जाती है

               भारतीय धर्म-दर्शन में भक्ति मार्ग को परमात्मा की प्राप्ति का सर्वाधिक सरल व सुगम स्वर्ण सोपान माना गया है।कारण यह कि हमारे हृदय में भक्ति का भाव तभी प्रस्फुटित होता है, जब हमारे अंतस में परमात्मा को प्राप्त करने की प्यास का अभ्युदय होता है। यही प्यास अंतत: भक्त की विरह-वेदना में बदल जाती है, जिसमें अनन्य प्रेम व तड़प का मिला-जुला भाव होता है। यह भाव पूर्ण समर्पण के बाद अनन्य आनंद का स्रोत भी बन जाया करता है। हम सबके भीतर अपरोक्ष रूप में परमात्मा को पाने की प्यास मौजूद है, किंतु हम उसे पहचान नहीं पाते और धन, पद, प्रतिष्ठा, यश आदि प्राप्त करने के लिए गलत दिशा दे देते हैं। तब हमारी स्थिति उस मछली की तरह हो जाती है, जो रेत पर पड़ी तड़पते हुए यह सोचे कि धन, पद, यश, प्रतिष्ठा आदि मिल जाने से उसे जीवन मिल जाएगा, जबकि अनेक लोगों का जीवन गवाह है कि हमें कोई भी धन, पद, यश तभी तक प्यारा लगता है, जब हम उससे दूर हों।

             हर कीमत अदा करने के बाद जब हम वहां पहुंचते हैं, तो पता चलता है कि हमारे हाथ ज्यों के त्यों खाली हैं। कारण यह कि मन द्वारा तैयार किया गया नई आकांक्षाओं का हवामहल खड़ा हो चुका होता है। इसी प्रकार गलत दिशा में दौड़ते हुए हम समाप्त हो जाते हैं।

            भक्त उस मछली की भांति है, जिसे पता चल चुका है कि धन, पद, यश और आसक्ति आदि में जीवन नहीं, बल्कि जल (परमात्मा) में ही परम जीवन के द्वार खुलते हैं। भक्त परमात्मा की ही चाह में जीता है, किंतु भक्त के भीतर द्वैत अर्थात मैं और तू (परमात्मा) का भेद मौजूद होता है। जबकि ज्ञान-परमज्ञान की स्थिति में परमात्मा को प्राप्त करने के लिए आसक्ति का भी विलय मैं और तू का भेद मिटाने के साथ ही हो जाया करता है। द्वैत का झीना आवरण हटते ही भक्त या ज्ञानी भगवान के सदृश हो जाया करता है।
ठीक उस प्रकार जैसे सागर में डूबा घड़ा टूट जाए और उसके भीतर का पानी अगाध सागर में मिल जाए। उसी स्थिति में पहुंचकर कबीर दास कहते हैं, 'बूंद समानी समुद्र में सो कत हेरी जाये।Ó स्पष्ट है, आत्मा अंतत: परमात्मा रूपी सागर में विलीन हो जाती है। इस स्थिति में द्वैत, अद्वैत में विलीन हो जाया करता है।

क्षमा करना आत्मा का स्वभाव है


              सम्यक दर्शन, ज्ञान, चरित्र का अलंकरण आत्मा को सुसज्जित कर दिव्यता की श्रेणी में ला देता है। तब कहीं जीवन में क्षमा का अवतरण होता है। क्षमा आत्मा का स्वभाव है। क्षमा का आध्यात्मिक सूत्र है-मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं और सब जीव मुझे क्षमा करें।

सब जीवों से मेरा मैत्री भाव है, किसी से शत्रु भाव नहीं। इस प्रकार क्षमा को मन में, अंत:करण में स्थापित कर लेना और स्वभाव में आसीन कर लेना विशेष महत्व रखता है। जब क्षमा अंतस से उद्धृत हो रही होती है तो मानव जाने-अनजाने में अपनी बांहें फैलाकर गले लग जाना चाहता है। हृदय से वात्सल्य फूट पड़ता है, पर वर्तमान में मानव आंतरिक भावों पर पर्दा डालकर बाहरी संसार में अभिनय-नाटक करने लगा है। इसलिए पुण्य का वास्तविक लाभ नहीं ले पाता।है।वर्तमान में सारी भागदौड़ भौतिक पदार्थो के संचयन के लिए चल रही है। इस कारण क्रोध-प्रतिशोध, आतंकवाद, अत्याचार, उत्पीडऩ आदि नकारात्मक गुण क्षमा की विपरीत स्थिति में पनप रहे हैं। शासक-प्रशासक, धनवान-गरीब या फिर किसी व्यक्ति के हृदय में वीरता का प्रतिरूप क्षमा का स्नोत एक बार प्रस्फुटित हो जाए तो वह कभी सूखता नहीं। यह तो अलौकिक अक्षय भंडार है, जो समाप्त होता ही नहीं। ऐसी क्षमा मात्र संतपुरुषों में ही संभव हो पाती है।

            वास्तव में क्षमा जीवन में सुख-शांति की स्थिति को प्रदान करने वाली व्यवस्था है, अनुभूति है। क्षमा के बिना ज्ञान की ऊर्जा संयमित और संचित न होकर बिखर जाती है।

             इसलिए आत्मिक और बौद्धिक ऊर्जा का संरक्षण करने के लिए क्षमा की विराट शांति को संचित रखना होता है। मानव जीवन में क्रोध, घृणा, ईष्र्या और अहंकार आदि नकारात्मक प्रवृत्तियों का परिणाम बड़ा ही भयानक होकर उभरता है। इसलिए इसे ऋण और अग्नि के समान वृद्धि होने से पूर्व समाप्त कर देना उचित होता है। अपेक्षाओं की पूर्ति न होने से खिन्नता पैदा होती है और वही क्रोध का आधार बनकर व्यवहार में क्षमा और विवेक को क्षीण कर देती है। क्षमा मानवीय सफलता की ही नहीं, बल्कि जीवन की सार्थकता की भी द्योतक है। आत्मिक समता और आध्यात्मिक क्षमा स्वाति-जल को मुक्ता बनाकर मुक्त-प्रदायनी बनती है, तो व्यावहारिक जीवन में क्षमा भी कमल की पंखुडी पर ओस बिंदु-सी मुक्ता का आभास देकर हर्षानंद से भर देती है।

दो तत्वों का मिलन योग कहलाता है--

          सामान्य भाव में योग का अर्थ है जुडऩा। यानी दो तत्वों का मिलन योग कहलाता है। अर्थात आत्मा का परमात्मा से जुडऩा । योग की पूर्णता इसी में है कि जीव भाव में पड़ा मनुष्य परमात्मा से जुड़कर अपने निज आत्मस्वरूप में स्थापित हो जाए।

          महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्र में स्पष्ट किया है कि चित्त को विभिन्न वृत्तियों में परिणत होने से रोकना योग है। मनुष्य के शरीर में सभी ओर बिखरी चित्तवृत्तियों को सब ओर से खींचकर एक ओर ले जाना यानी केंद्र की ओर जाना ही योग कहलाता है। हमें तो आत्मा पर छाए चित्त के विक्षेप को समाप्त कर उसे शुद्ध करना होता है। योग द्वारा हम अपने चित्त को शुद्ध करके आत्मा का साक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं।

          भक्ति का भाव भी यही है, भक्त अपने भगवान से अलग नहीं होना चाहता। वह सदैव अपने इष्ट की शरण में रहता है। शरणागत होने के कारण ईश्वर का संग उसे सदैव प्राप्त होता रहता है। ईश्वर से सहज मिलन हो जाए, यही योग सिखलाता है। अब परमात्मा के इस योग यानी मिलने में कौन बाधक है। ये बाधक तत्व हैं-हमारी चित्तवृत्तियां। तालाब के शांत जल में यदि कंकड़ का एक टुकड़ा गिर जाए तो उसमें अनेक तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं। उसमें छोटी-छोटी और बड़े आकार के वृत्तों वाली कई तरंगें उत्पन्न होने लगती हैं। उस अशांत जल में मनुष्य का चेहरा स्पष्ट नहीं दिखलाई पड़ेगा।यदि जल की तरंग समाप्त हो तो जल पुन: शांत हो जाता है। इस स्थिति में आकृति स्पष्ट दिखाई पडऩे लगेगी। ठीक इसी प्रकार हमारे चित्त की वृत्तियां हैं। इंद्रियों के विषयों के आघात से उसमें अनेक तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं और उत्पन्न तरंगों के कारण मानव अपने निज स्वरूप को नहीं देख पाता। यदि उसकी चित्तवृत्तियां समाप्त हों तो वह अपने निज आत्मस्वरूप को देखने में सक्षम हो जाए।

          महर्षि पंतजलि ने योग की व्यापक विवेचना की है। इसमें कई सोपान हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। अष्टांग योग की इस पद्धति के माध्यम से साधना करने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति सद्गुरु के सान्निध्य में इन सोपानों पर यम-नियम को साधते हुए ध्यान और समाधि की उच्चतम अवस्था पर पहुंच कर चिन्मय आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है। फिर अपने आत्मा में परब्रह्म परमात्मा के दर्शन प्राप्त कर तद्स्वरूप होता हुआ आनंद को प्राप्त कर सकता है।

सत्य के समान कोई धर्म नहीं है



                श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास जी कहते हैं कि सत्य के समान कोई धर्म नहीं है। सत्य सृष्टि का मूल है। सत्य ही सबसे बड़ा तप है, सत्य ही सबसे बड़ा धर्म है। सत्य ही पुण्यशाली कर्म और सबसे बड़ी सिद्धि है।

               सत्यनिष्ठ व्यक्ति दुष्कर्म, अवसाद, अपयश, अशांति, असंतोष और अपमान से बचा रहता है। जीवन में उन्नति और उत्कर्ष के लिए सत्य ही सबसे सच्चा मार्ग है। निर्विकार, निर्भय और निश्चिंत जीवन जीने के लिए इससे बढ़कर दूसरा कोई मार्ग नहीं है। संसार में अनेक धर्म प्रचलित हैं, पर उनके रीति-रिवाजों और दिशा-निर्देशों में काफी अंतर भी पाया जाता है, पर फिर भी उनका मूल उद्देश्य एक है। वह यह कि अपने अनुयायियों को संयमी, सदाचारी, उदार और सज्जन बनाना। इन सभी धर्म संस्थापकों का मूल उद्देश्य एक ही रहा है, सत्य के निकट पहुंचना।


               पद्मपुराण में कहा गया है कि सत्य से पवित्र हुई वाणी बोलें और मन से जो पवित्र जान पड़े, उसी का आचरण करें। मन, वचन और कर्म को एकरूप किए बगैर हम, कितना ही प्रयास क्यों न करें, पर हम सिद्धि की प्राप्ति नहीं कर सकते। सत्य और सरलता का अटूट संबंध है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि 'सत्य सरल होता है।


                  हमारी भलाई इसी में है कि हम इस जगत के सत्य को पहचानें, सत्य के पथ पर चलने का संकल्प लें। सत्य का वास्तविक अर्थ परब्रह्म है। वेदों के वक्तव्य हैं कि 'सृष्टि के मूल में यही ब्रह्म सत्य रूप में विद्यमान था, त्रिगुणात्मक संसार इसके बाद में रचा गया। जिसके चित्त ने सत्य को छोड़ दिया, उसे भला आनंद की प्राप्ति कैसे हो सकेगी। यदि हमें आनंद की तलाश है, सच्चे सुख की लालसा है, तो हमें सत्य के मार्ग पर चलना ही होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि सत्य ही जीवन का आधार है, सत्य ही विद्या और जीवन जीने की सच्ची कला है। वस्तुत: यह हमारे हाथों में जलते हुए दीपक की तरह है, जिसके सहारे हम असत्य के अंधेरे को पार कर सकते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि असत्य ही अज्ञान है और अभाव में ही सारे दुख हैं। असत्य के मिटते ही सारे दुख अपने आप मिट जाएंगे।


           इसीलिए 'सत्यमेव जयते, हमारा सदियों से आदर्श रहा है। मानवीय सभ्यता के इतिहास में न जाने कितने नियम बनाए और बिगाड़े गए, पर सृष्टि के आदि में, सत्य की जो प्रतिष्ठा थी, वह आज भी उसी रूप में विद्यमान है।

जैसे विचार होंगे वैसी ही आदतें बनेंगी --


          इस संसार में हम जो कुछ देखते हैं वह सब हमारे विचारों का ही मूर्त रूप है। यह समस्त सृष्टि विचारों का ही चमत्कार है। किसी भी कार्य की सफलता-असफलता, अच्छाई-बुराई और उच्चता-न्यूनता के लिए मनुष्य के अपने विचार ही उत्तरदायी होते हैं। जिस प्रकार के विचार होंगे, सृजन भी उसी प्रकार का होगा। विचार अपने आप में एक ऐसी शक्ति है जिसकी तुलना में संसार की समस्त शक्तियों का समन्वय भी हल्का पड़ता है। विचारों का दुरुपयोग स्वयं और संसार का विनाश भी कर सकता है।

          सूर्य की किरणों जब शीशे द्वारा एक ही केंद्र पर डाली जाती हैं तो अग्नि उत्पन्न हो जाती है। इसी प्रकार विचार एक केंद्र पर एकाग्र होने से बलवान बनते हैं। आशय यह है कि हमारे विचारों की ताकत हमारे मन की एकाग्रता पर निर्भर करती है। एकाग्रता के बगैर मन में बल नहीं आ सकता। परमार्थ के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि संसार के व्यावहारिक कार्र्यो में भी एकाग्रता की बड़ी आवश्यकता पड़ती है। जो मनुष्य जैसा विचार करता है, वैसा ही कार्य करता है। फिर वैसी ही उसकी आदत बन जाती है और अंत में वैसा ही उसका स्वभाव बन जाता है। ऐसा ही गीता में भी कहा गया है कि जो जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है। यदि आप उत्तम जीवन जीना चाहते हैं तो आपको वैसे ही विचार करने का अभ्यास करना चाहिए। विचारों के सदुपयोग से मनुष्य विश्व विजयी हो सकता है। हजारों आविष्कार उन्हीं अच्छे विचारों के परिणाम हैं। विचार करते समय सकारात्मक बातों, दृश्यों, वस्तुओं और पदार्थो के बारे में ही चिंतन करना चाहिए कि हमारे मन में आनंदपूर्ण विचारों का ही प्रवाह बहेगा और उदासीनता के विचार मेरे पास फटकने तक न पाएंगे।

          बेईमानी, धोखेबाजी और खुदगर्जी के विचार लौकिक और पारलौकिक दोनों ही दृष्टि से बहुत ही घातक हैं। इस प्रकार के विचारों वाले व्यक्ति को पग-पग पर घृणा, उपहास, बदनामी और अविश्वास का सामना करना पड़ता है। विचारों का सदुपयोग करने के लिए विचारों को योजनाबद्ध बनाना चाहिए। एकाग्रता का तात्पर्य है कि अस्त-व्यस्त ढंग से सोचने की बुरी आदत को क्रमबद्ध और सुसंस्कृत बनाया जाए।

फूल के समान जीवन जियेा


           हमें इस भौतिकवादी संसार में कमल के फूल की भांति जीवन जीना चाहिए। जिस प्रकार कमल का फूल माया रूपी कीचड़ में रहते हुए भी संसार को प्रसन्नचित करता है और स्वयं भी ऐसा सम्मान व स्थान पाता है कि देवताओं को अर्पित किया जाता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी चाहिए कि वे अपनी इन्द्रियों और व्यसनों पर अंकुश लगाते हुए, इस माया रूपी संसार की गंदगी को दूर करते हुए एक श्रेष्ठ व्यक्ति के उत्तरदायित्व और आचरण को अपनाना चाहिए।

          मोह ही सभी प्रकार के बंधनों का स्त्रोत है। जैसे नशे की लत में व्यक्ति को न कुछ दिखाई देता है और न ही कुछ सूझता है। उसी प्रकार मोह माया में लिप्त व्यक्ति को भी स्वार्थ के सिवाय और कुछ नहीं सूझता और धीरे-धीरे वह कुव्यसनों की ओर अग्रसर होता जाता है। वह स्वयं भी अपना शत्रु बन जाता है एवं औरों को भी बना लेता है। धन का संग्रह भी एक बुराई है।

नैतिक चरण की शुद्धता ही धर्म है


            जीवन का जहाज, आज तरंगों और तूफानों से भरे संसार के सागर में भटकता जा रहा है। क्योंकि इसका नैतिक-बोध, इसका दिशासूचक यंत्र खराब हो चुका है। जीवन-ऊर्जा जीवन को गतिशील बनाने के लिए आवश्यक है, परंतु उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है उसका सही दिशा में चलना है । सादगी का सौंदर्य, संघर्ष का हर्ष, समता का स्वाद और आस्था का आनंद-ये सब हमारे आचरण से पतझड़ के पत्तों की भांति गिरगए हैं। हृदय से मानवीय-प्रेम या करुणा का संवेदनशील स्वर, मस्तिष्क से नैतिक चिंतन की अवधारणा और नाभि से उद्भुत संयम और सम्यक आचरण का संकल्प कहीं खो गया है। आज अहिंसा के आलोक की तलाश है। महावीर, बुद्ध और महात्मा गांधी की अहिंसा किसी कठघरे में कैद है। हिंसा उन्मुक्त अट्टहास कर रही है।

              सत्ता और संपत्ति के गलियारे में नैतिक आचरण ताक पर रख दिए गए हैं। व्यक्ति की अस्मिता एक अंधे मोड़ से गुजर रही है। भौतिक भोगवाद जनसंख्या बढ़ा रहा है, जो आणविक विस्फोट से कम खतरनाक नहीं है। आधुनिक पीढ़ी की त्रासदी यह है कि 'सबसे बड़ा रुपया जैसे जीवन का लक्ष्य बन गए हैं। हमें आचरण शुद्धि द्वारा नैतिकता का विकास करना होगा। नि:संदेह अध्यात्म एक गूढ रहस्य है जिसका कोई ओर-छोर नहीं। अध्यात्म के अंतहीन व्यूहचक्र में उलझने से व्यावहारिक नैतिकता श्रेयस्कर है। भगवान महावीर का प्रारंभिक दर्शन भी सर्वोपयोगी नैतिक आचार संहिता में ही निहित था। अध्यात्म आदि प्रसंग बाद में जुड़ते गए।

           नैतिक आचरण का पालन ही सच्चे धर्म का प्रतीक है। नैतिकता को प्रतिरोधक शक्ति का स्वरूप देकर ही अनैतिक आचरण के छिद्र बन्द किए जा सकते हैं। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र में विचारशुद्धि चलाकर ही बुराइयों और पाप कर्मो को निरुत्साहित किया जा सकता है। आचार-विचार की शुद्धता का दूसरा नाम ही धर्म है। मानवता यदि पुष्प है, तो नैतिकता उसकी सुगंध है। आचरण यदि सोना है, तो नैतिकता उस पर सुहागा है। मानवता की महिमा आचरण से है और आचरण की महिमा नैतिकता है। यह धारणां प्राचीन काल की रही है मगर आज भी उतनी ही उपयोगी है, बल्कि आज की दुनिया को नैतिक आचरण की ठोस जमीन और भी अधिक आवश्यक है।

निंदा से आत्म-परीक्षण की प्रेरणा मिलती है-


           इस युग में अपनी निंदा सुनना किसे प्रिय है? निंदा करने वाले को शत्रु और प्रशंसा करने वाले को मित्र मान लिया जाता है। जो प्रशंसा योग्य है, उसे औरों से प्रशंसा की आशा होती है ताकि वह स्वयं पर गर्व कर सके। जो इस योग्य नहीं है वह अपनी प्रशंसा के लिए अनेक उपाय करता है और प्रशंसा को प्रायोजित करता है ताकि वह किसी से पीछे न रह सके।

            ज्ञानी हो या अज्ञानी, किसी को भी निंदा और आलोचना सहन नहीं होती। निंदा करने वाले को हतोत्साहित करने, दबाने और उसे दंडित करने के प्रयास होते हैं। निंदा का उत्तर देने के बजाय उसका उपहास उड़ाकर अथवा नकार कर स्वयं की उच्च सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। कबीरदास ने कहा था कि निंदा उन्हें प्रिय है और अपने निंदकों को वे अपने निकट रखना चाहते हैं। आज सकारात्मक दृष्टिकोण की बात की जाती है, किंतु सकारात्मक होना मात्र उन विचारों को साथ रखना नहीं है, जो निजी महत्वाकांक्षाओं को ऊर्जावान बनाए। ऐसे तो मनुष्य एक दिशा में चलता चला जाएगा और उसे आभास ही नहीं हो सकेगा कि उसकी दिशा और दशा क्या है। सकारात्मकता कबीरदास के विचार के बिना पूर्ण नहीं हो सकती। कबीरदास के अनुसार निंदा से आत्म-परीक्षण की प्रेरणा मिलती है। निंदा तभी होती है, जब कोई गलती होती है।

              अगर देखें तो निंदक का उद्देश्य सुधार करना नहीं वरन अपयश करना ज्यादा होता है, उसका कार्य किसी की बुराई करके अपने मन की ईष्र्या, कुंठा और प्रतिशोध की भावना को शांत करना है। निंदा के संदर्भ में सकारात्मक सोच अपने लिए अच्छाई तलाशना है। कबीरदास ने तो निंदक का आभार व्यक्त किया कि उसने निंदा करके उनके अवगुणों को धोने का कार्य किया है। निंदा अवगुणों और त्रुटियों की ओर इंगित करके उन्हें दूर करने के लिए प्रेरणा देती है। अनसुना करने के स्थान पर अपनी निंदा को पूरे ध्यान से सुनकर उस पर विचार करना चाहिए। उस निंदा में यदि कोई सार हो, तो उसे ग्रहण करके अपने में सुधार लाना उचित है। यदि निंदा सारहीन हो तो उससे चिंतित और व्यथित होने की आवश्यकता नहीं है। निंदा सारहीन भी हो, तो भी वह एक अवसर तो देती ही है अपने को देखने का और स्व मूल्यांकन करने का।