भारतीय धर्म-दर्शन में भक्ति मार्ग को परमात्मा की प्राप्ति का सर्वाधिक सरल व सुगम स्वर्ण सोपान माना गया है।कारण यह कि हमारे हृदय में भक्ति का भाव तभी प्रस्फुटित होता है, जब हमारे अंतस में परमात्मा को प्राप्त करने की प्यास का अभ्युदय होता है। यही प्यास अंतत: भक्त की विरह-वेदना में बदल जाती है, जिसमें अनन्य प्रेम व तड़प का मिला-जुला भाव होता है। यह भाव पूर्ण समर्पण के बाद अनन्य आनंद का स्रोत भी बन जाया करता है। हम सबके भीतर अपरोक्ष रूप में परमात्मा को पाने की प्यास मौजूद है, किंतु हम उसे पहचान नहीं पाते और धन, पद, प्रतिष्ठा, यश आदि प्राप्त करने के लिए गलत दिशा दे देते हैं। तब हमारी स्थिति उस मछली की तरह हो जाती है, जो रेत पर पड़ी तड़पते हुए यह सोचे कि धन, पद, यश, प्रतिष्ठा आदि मिल जाने से उसे जीवन मिल जाएगा, जबकि अनेक लोगों का जीवन गवाह है कि हमें कोई भी धन, पद, यश तभी तक प्यारा लगता है, जब हम उससे दूर हों।
हर कीमत अदा करने के बाद जब हम वहां पहुंचते हैं, तो पता चलता है कि हमारे हाथ ज्यों के त्यों खाली हैं। कारण यह कि मन द्वारा तैयार किया गया नई आकांक्षाओं का हवामहल खड़ा हो चुका होता है। इसी प्रकार गलत दिशा में दौड़ते हुए हम समाप्त हो जाते हैं।
भक्त उस मछली की भांति है, जिसे पता चल चुका है कि धन, पद, यश और आसक्ति आदि में जीवन नहीं, बल्कि जल (परमात्मा) में ही परम जीवन के द्वार खुलते हैं। भक्त परमात्मा की ही चाह में जीता है, किंतु भक्त के भीतर द्वैत अर्थात मैं और तू (परमात्मा) का भेद मौजूद होता है। जबकि ज्ञान-परमज्ञान की स्थिति में परमात्मा को प्राप्त करने के लिए आसक्ति का भी विलय मैं और तू का भेद मिटाने के साथ ही हो जाया करता है। द्वैत का झीना आवरण हटते ही भक्त या ज्ञानी भगवान के सदृश हो जाया करता है।
ठीक उस प्रकार जैसे सागर में डूबा घड़ा टूट जाए और उसके भीतर का पानी अगाध सागर में मिल जाए। उसी स्थिति में पहुंचकर कबीर दास कहते हैं, 'बूंद समानी समुद्र में सो कत हेरी जाये।Ó स्पष्ट है, आत्मा अंतत: परमात्मा रूपी सागर में विलीन हो जाती है। इस स्थिति में द्वैत, अद्वैत में विलीन हो जाया करता है।
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