Wednesday, May 6, 2020

गीता के मूल मंत्र


अध्याय १
मोह ही सारे तनाव व विषादों का कारण होता है।

अध्याय २
शरीर नहीं आत्मा को मैं समझो और आत्मा अजन्मा-अमर है।

अध्याय ३
कर्तापन और कर्मफल के विचार को ही छोड़ना है, कर्म को कभी नहीं।

अध्याय ४
सारे कर्मों को ईश्वर को अर्पण करके करना ही कर्म संन्यास है।

अध्याय ५
मैं कर्ता हूँ- यह भाव ही अहंकार है, जिसे त्यागना और सम रहना ही ज्ञान मार्ग है।

अध्याय ६
आत्मसंयम के बिना मन को नहीं जीता जा सकता, बिना मन जीते योग नहीं हो सकता।

अध्याय ७
त्रिकालज्ञ ईश्वर को जानना ही भक्ति का कारण होना चाहिये, यही ज्ञानयोग है।

अध्याय ८
ईश्वर ही ज्ञान और ज्ञेय हैं- ज्ञेय को ध्येय बनाना योगमार्ग का द्वार है ।

अध्याय ९
जीव का लक्ष्य स्वर्ग नहीं ईश्वर से मिलन होना चाहिये ।

अध्याय १०
परम कृपालु सर्वोत्तम नहीं बल्कि अद्वितीय हैं।

अध्याय ११
यह विश्व भी ईश्वर का स्वरूप है, चिन्ताएँ मिटाने का प्रभुचिन्तन ही उपाय है।

अध्याय १२
अनन्यता और बिना पूर्ण समर्पण भक्ति नहीं हो सकती और बिना भक्ति भगवान् नहीं मिल सकते।

अध्याय १३
हर तन में जीवात्मा परमात्मा का अंश है- जिसे परमात्मा का प्रकृतिरूप भरमाता है, यही तत्व ज्ञान है।

अध्याय १४
प्रकृति प्रदत्त तीनों गुण बंधन देते हैं, इनसे पार पाकर ही मोक्ष संभव है ।

अध्याय १५
काया तथा जीवात्मा दोनों से उत्तम पुरुषोत्तम ही जीव का लक्ष्य हैं ।

अध्याय १६
काम-क्रोध-लोभ से छुटकारा पाये बिना जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुटकारा नहीं मिल सकता ।

अध्याय १७
त्रिगुणी जगत् को देखकर दु:खी नहीं होना चाहिये, बस स्वभाव को सकारात्मक बनाने का प्रयास करना चाहिये ।

अध्याय १८
शरणागति और समर्पण ही जीव का धर्म है और यही है गीता का सार।

आन्तरिक बल -कान


            हरेक मनुष्य में ऐसे दिव्य कान  है जो कि  कर्ण इन्द्रिय के मूल में है । जिस के द्वारा  हम कहां  क्या हो रहा  है, सूक्ष्म लोक में क्या हो रह है, यह सब सुन   सकते है ।

             परंतु यह इन्द्रिय बहुत कमजोर हो गई  है, जिस कारण से दूर की आवाज़   नहीं सुन सकते ।

          सूक्ष्म नाकारात्मकता,   सूक्ष्म कर्ण इन्द्रिय  को कमजोर करती है । यह कार्य बच्चे के  ज्न्म  से ही आरम्भ हो जाता है ।

            हमारे मां बाप तथा  बड़े भाई  बहिन, चाचा  चाची हमें छोटी छोटी  बातो पर डांट  डपट करते थे और हम मन मसोस कर रह  जाते थे । अन्दर ही अन्दर घुटते रहते थे ।

         बड़े होने पर मित्रों  ने या  जहां  काम किया, वहां  के बोस ने गलत व्यवहार किये, घर  में पत्नी ने जो टोका टिपणी की जो कि  अनुचित थी, उन से  सूक्ष्म कर्ण  इन्द्रिय कमजोर होती रही तथा  अब बहुत ज्यादा कमजोर हो  गई  है ।

           आज हम यदा  कदा  उपरोक्त सब अनुचित व्यवहारों को मन में रिपीट करते रहते है, जब  यॆ रिपीट करते है तो सूक्ष्म कान इन्हे सुनते रहते है, जिस से आज तक भी  इस इन्द्रिय को अनजाने में  कमजोर करते रहते है ।

          हम जो फिल्में, नाटक  आदि टी  वी पर देखते है, उस  में दूसरो पर जो अत्याचार  होता है, शोषण होता है, बुरे बोल होते है, वह हम मन में याद रखते है, सूक्ष्म में बोलते रहते है, जिसे कान सुनते रहते है और दिव्य कर्ण इन्द्रिय कमजोर होती रहती है ।

            व्यक्ति अपनी सुंदरता, अपनी सेहत को लेकर निरंतर  चिंतित रहता  है जिसे सूक्ष्म कान का केन्द्र सुन लेता है और कमजोर होता रहता है ।

              हर  व्यक्ति कोई ना कोई भूल करता है, तथा  मनचाहे  लक्ष्य प्राप्त ना कर सकने के कारण अपने बारे हीन भावना  से ग्रस्त हो जाता है । यह हीन भावना  मानव की  सूक्ष्म कर्ण इन्द्रिय  को कमजोर करती  है ।

            कोई हमें किसी के बारे बताता  है कि फलाना  व्यक्ति में यॆ यॆ अवगुण है और हम उसे मान  लेते है । इसे पूर्वा  आग्रह कहते है । वह व्यक्ति चाहे कितना गुणवान हो उसके मिलने पर या उसकी उपस्थिति में उसके प्रति बुरा सोचते है जिसे सूक्ष्म कर्ण इन्द्रिय सुनती रहती  है और कमजोर होती रहती है ।

             सार यह है कि  स्थूल वा सूक्ष्म नाकारात्मक विचार, वह चाहे अब की  परिस्थितियो या भूतकाल के कारण हो, वह चाहे सच्चे हो या झूटे  हो, वह हमारे से सम्बन्ध  रखते हो या ना रखते हो, जब जब मन में आयेंगे   उसे हम सूक्ष्म में सुनते भी  है,   जिस से  सूक्ष्म कर्ण इन्द्रिय कमजोर होती है और दूर  दराज की  हल चल नहीं सुन सकती ।

           अगर हमें सूक्ष्म कर्ण इन्द्रिय को जागृत करना है  तो बापू के तीन बंदरों में से तीसरे बंदर की शिक्षा  याद रखो कि  कानो से बुरा  मत सुनो ।

         याद रखो हम जो बोलते है, देखते है, पढ़ते है, महसूस करते है , उसे सूक्ष्म में सुनते भी  है । हर नकारात्मकता दिव्य कर्ण  इन्द्री  को कमजोर करती है ।