Friday, April 17, 2020

विश्व बंधुत्व की भावना

                      इस शब्द का प्रयोग और दरुपयोग व्यापक रूप में हो रहा है । सभी धर्म, सभा, सोसाइटिया तथा अनेको संस्थाए और प्रचारक विश्व बंधुत्व की भावना का प्रचार कर रहे है । परन्तु यह भावना धरातल पर नहीं दिखती । विश्व बंधुत्व की भावना की जितनी दुहाई देते है उतना ही अधिक अपने बंधुओ से दूर होते जा रहे हैंं । मुंह में राम और बगल में छुरी वाली बात चरितार्थ हो रही है । लोग धार्मिक संस्थाओ के जितना नजदीक है उतना ही विश्व बंधुत्व और परमात्मा से दूर होते जा रहे है ।
                      बंधुत्व के अभाव में सुखी संसार व परिवार की परिकल्पना नहीं की जा सकती है । अगर हम सिर्फ अपने परिवार या धर्म या अनुयाइयों के प्रति भाईचारे की भावना रखते है तॊ यह सकुंचित भावना है । ब्रह्मांड के कण कण का सुख दुःख जब हम अपना सुख दुःख समझेंगे तॊ यह वास्तविक बंधुत्व होगा । यह तभी हो सकता है अगर हम परमपिता परमात्मा शिव को याद करेंगे । क्योकि सारी सृष्टि भगवान की ही रची हुई है ।                        जब हम सभी परमात्मा शिव को याद करेंगे तॊ हम सभी को एक जैसी प्रेरणाएं मिलेगी, जिनके धारण करने से हमारे मन में बंधुत्व की भावना आएगी । विश्व बंधुत्व की भावना अर्थात जो हमें प्रतिकूल लगता है वह दूसरों के साथ नहीं करना ।
                         उदार  हृदय वाले व्यक्ति के लिये सारा संसार अपना परिवार होता है । साधारण व्यक्ति सिर्फ उन लोगो के लिये कार्य करता है जो उसके परिवार के है या उन पर निर्भर है । रोटी, कपड़ा और मकान विश्व के प्रत्येक व्यक्ति की मूलभूत जरूरत है । अगर हम दूसरों की यह जरूरत पूरी करेंगे तब विश्व बंधुत्व की भावना पूरी होगी ।
                           अग्नि का धर्म है दहकना और जल का गुण है शीतलता । अग्नि दहकना छोड़ दें तॊ अग्नि नहीं कहलाएगी । जल यदि शीतलता छोड़ दे तॊ वह जल ही नहीं रह जाएगा । ऐसे ही प्रत्येक मनुष्य का स्वधर्म है शांति और प्रेम । इस समय शांति और प्रेम मनुष्य में खत्म हो चुका है इसलिए विश्व बंधुत्व की भावना भी खत्म हो चुकी है । यदि सारा संसार राजयोग का अभ्यास करने लगे तॊ विश्व में बंधुत्व की भावना आ जाएगी ।

ईर्ष्या


           प्रायः भाई  भाईयो से और बहिनें बहिनों से या भाई  बहिनों से, बहिनें भाईयो से,  ईर्ष्या  करते रहते है,  एक दूसरे की निंदा करते है, पीठ पीछे  चुगली करते है, एक दूसरे को आगे नही बढ़ने देते, एक दूसरे को बदनाम करते रहते है, एक दूसरे के कामों में कमियां ढूँढते रहते है, एक दूसरों के प्रति नाकारात्मक भाव  उठते रहते है, विचारो में शुद्वता नही आती, क्या करें ?

ईर्ष्या अर्थात उस व्यक्ति की जगह आप लेना चाहते  है जिस की आप निंदा कर रहें है ।

        दूसरे में कोई ऐसी विशेषता है, पदवी है, सुविधा है जो आप के पास नही है, आप सोचते है वह सब कुछ  आप के पास हो, इसलिये आप ईर्ष्या, निंदा चुगली आदि करते है ।

ईर्ष्या अर्थात मेरे पास इस वस्तु व  गुण व  विशेषता का अभाव है ।

ईर्ष्या अर्थात आप दूसरे से अपने को हीन समझते है ।

मन के नियम का  दरूपयोग कर रहें है, आप अप्राप्ति  को बढ़ा  रहें है । 

       लम्बे समय तक इन विचारो में रहेंगे तो आप में ऐसे हार्मोन बनने लगेगें जो आप को कोई न  कोई रोग लग़ा देंगे ।

-ईर्ष्या भाव आप के जीवन को खा  जायेगा ।

आप को हीन बना देगा । 

        कई  बार आप में ईर्ष्या नही होते, सब को अपना समझते है, परंतु अचानक  किसी किसी के  प्रति  मन  में  ईर्ष्या के विचार आने लगेगे,  उसकी शक्ल भी  सामने आने लगेगी । कई बार ऐसे व्यक्ति घर  में होते हैं  । आप अपने को दोषी मानने  लगते है ।

         यहां आप का कसूर नही होता दूसरा  व्यक्ति जो आप से परेशान है वह ऐसा सोच  रहा होता है । सुबह अमृत वेले ऐसे व्यक्ति परेशान करते है, योग नही लगने देते । आप का मन बार बार ईर्ष्या में भटकेगा । ऐसी स्थिति में बाबा  की  मुरली पढ़ा  करो या कोई और पुस्तक जो आप को पसंद हो पढ़ो । इस से आप उनसे डिस कनेक्ट हो जायेगे तब योग बहुत अच्छा  लगेगा ।

        ऐसे व्यक्ति के प्रति सदा स्नेह का भाव  रखो । कई  बार स्नेह का भाव  उनके प्रति नही निकलता । इस अवस्था में किसी स्नेही आत्मा  को स्नेह दो और उस ईर्ष्यालू  आत्मा  को देखो  कि वह स्नेही आत्मा के पास खड़ी है । आप का फोकस स्नेही पर रहें । आप के प्यार की  तरंगे वह आत्मा भी  सुन रही है और आप डिसट्रब नही होगे ।

       ऐसा व्यक्ति  आप का पति व स्कूल टीचर व  बोस भी हो सकता है जिसे आप को सुनना  होता है , उनके बोलने  से आप को अन्दर ही अन्दर बहुत दुख होता  है । ऐसी स्थिति में जब आमना  सामना हो तो आप अपने मन में तुरंत मम्मा बाबा या किसी भी  स्नेही आत्मा को देखो  और सकाश दो,  आप को अच्छा लगेगा ।

       अपना मन किसी  पॉज़िटिव सोच  में लगाये रखो, तो ईर्ष्यालु व्यक्ति डिसट्रब  नही कर सकेगा ।

आत्म हत्या


        कई  बार  मा - बाप, भाई - बहिन, पति -पत्नी, बोस और कर्मचारी, किसी संस्था  से जुड़े लोग या पड़ोसी - पड़ोसी से हर समय आपस में हर रोज़ झगड़ते   रहते   है ।  नौबत यहां  तक आ जाती है कि   मार दे या मर जाये । क्या करें ? 

         अगर आप के सिर में दर्द हो रहा  है तो  क्या इस दर्द से छुटकारा  पाने के  लिये सिर को ही काट देंगे.।

       किसी भी  समस्या के लिये आत्म हत्या कोई समाधान नही होता ।

            सामाज में थोड़ी थोड़ी भिन्नता रखी गई है । नही तो तू भी  रानी मै भी  रानी कौन भरेगा घर  का पानी । अगर सभी एक समान होते तो संसार का काम ही रुक जाता । इस लिय भिन्नता ज़रूर रहेगी इस सच को स्वीकार करना ही चाहिये  ।

         असल में हम ने मतभेदों को सकारात्मक रुप से हल  करना   सीखा ही नही है । हम एक दूसरे को दबाते है ।

       मन में भी किसी से   ना कहे तुम्हारा विचार  मूर्खतापूर्ण है, चाहे वह कुछ  भी  कहे । उसे मुख से नही केवल मन में  अच्छा  करने के लिये सुझाव दो । 

         जब व्यक्ति मुश्किल दौर से गुजर रहा होता है तो वह चाहता  है कि  उसके बड़े उसे सिर या पीठ पर स्पर्श करें दूसरा मनुष्य चाहता  है कि उसके साथ मिठास  भरे  बोल बोले जाये । उसे सात्विक ऊर्जा की जरूरत होती है । 

         गहराई में समझो बहिनें चाहती है कि  उनसे विस्तार से बात की  जाये। बातचीत से सम्बन्ध अच्छे  बनते है  समस्या का हल निकलता है । 

         बहिनें भले ही कितनी भी  सफल या आजाद क्यों ना हो, वे बहुत गहरे में, भाईयो से अभिभावक की  तरह संरक्षण चाहती  है । वह अपना बेहतरीन प्रदर्शन तभी दे पाती है जब वह किसी पुरुष की  उपस्थिति में सुरक्षित अनुभव करती है ।

         ऐसे ही सूक्ष्म तल पर आदमी जीवन में बहिनों को खुश देखना  चाहते  है । वह अपना बेहतरीन तभी दे पाते  है जब कोई महिला जिसका संरक्षण प्राप्त है वह जीवन में बहुत खुश हो । अगर ऐसा ना हो तो वह पलायन करता है ।

       स्वयं को बदलो  और वह जैसा व जैसी भी  है उसे स्वीकार करें ।

         आप उसकी ओर से जैसा व्यवहार अपने लिये नही चाहते, उस के साथ उसी रुप में पेश न आयें ।

         प्रेम की  ताकत पर भरोसा रखे । अगर प्रेम से कुछ  सम्भव नही हो सका  तो किसी दूसरी चीज़ से नही हो सकता । प्रेम ही मुक्ति का  द्वार  है । 

        जब बहिनों को यह  लगता है कि उन्हे दुनिया में कोई भी  भाई प्यार नही करता और भाईयो को लगता है दुनिया में कोई भी  बहिन प्यार नही करती, सब स्वार्थी है,  तब वह  जीवन ख़त्म करने का सोचते है ।

         असल में हर आत्मा  प्यार की  भूखी  है । इस इच्छा को केवल मन के द्वारा  पूरा कर सकते है । साधनों व  सुविधाओं से आप एक बच्चे को भी  खुश नही कर सकते ।इस लिए सभी के प्रति मन में स्नेह का भाव  रखो ।

          प्रेम का  नियम उल्टा चलता  है । अगर आप सोचें  कि वह मुझ से प्यार करें तो प्यार नही होगा क्योंकि वह इस के विपरीत   सोचेगा कि पहले  आप उस से प्यार करें ।

        मन में उसे कहे आई लव यू  लाइक यू तो वह वह भी  आप को कहेगा  आई लव यू  लाइक यू ।

        आप अपने मन में देखो  उसके जीवन में क्या चाहिये  जो मै उसे दूँ  उसकी  मदद करूँ । तब वह भी  बदले में आप के बारे ऐसे ही सोचेगा । इस से दोनो पक्षों में प्यार हो जायेगा और आत्म हत्या का  बीज   ही ख़त्म  हो जायेगा । आप की अमूल्य मानसिक उर्जा नष्ट होने से बच जायेगी ।

       यही नियम बोस वा कर्मचारी, गुरु वा चेला या पड़ोसी पड़ोसी में भी  लागू होता है ।

        एक शब्द मन में रिपीट करते रहो आप स्नेही है । चाहे वह डीजरव ( deserve ) करता हो या नही  करता /करती हो । जिंदगी में सदा आगे ही बढ़ते  रहेंगे ।

गुरु क्या है?


           स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी कर्क रोग से पीड़ित थे। उन्हें खाँसी बहुत आती थी और वे खाना भी नहीं खा सकते थे। स्वामी विवेकानंद जी अपने गुरु जी की हालत से बहुत चिंतित थे।

         एक दिन की बात है स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने विवेकानंद जी को अपने पास बुलाया और बोले -

"नरेंद्र, तुझे वो दिन याद है, जब तू अपने घर से मेरे पास मंदिर में आता था ? तूने दो-दो दिनों से कुछ नहीं खाया होता था। परंतु अपनी माँ से झूठ कह देता था कि तूने अपने मित्र के घर खा लिया है, ताकि तेरी गरीब माँ थोड़े बहुत भोजन को तेरे छोटे भाई को परोस दें। हैं न ?"

नरेंद्र ने रोते-रोते हाँ में सर हिला दिया।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस फिर बोले - "यहां मेरे पास मंदिर आता, तो अपने चेहरे पर ख़ुशी का मुखौटा पहन लेता। परन्तु मैं भी झट जान जाता कि तेरा शरीर क्षुधाग्रस्त है। और फिर तुझे अपने हाथों से लड्डू, पेड़े, माखन-मिश्री खिलाता था। है ना ?"

नरेंद्र ने सुबकते हुए गर्दन हिलाई।

अब रामकृष्ण परमहंस फिर मुस्कुराए और प्रश्न पूछा - "कैसे जान लेता था मैं यह बात ? कभी सोचा है तूने ?"

नरेंद्र सिर उठाकर परमहंस को देखने लगे।

"बता न, मैं तेरी आंतरिक स्थिति को कैसे जान लेता था ?"

नरेंद्र - "क्योंकि आप अंतर्यामी हैं गुरुदेव"।

राम कृष्ण परमहंस - "अंतर्यामी, अंतर्यामी किसे कहते हैं ?"

नरेंद्र - "जो सबके अंदर की जाने" !!

परमहंस - "कोई अंदर की कब जान सकता है ?"

नरेंद्र - "जब वह स्वयं अंदर में ही विराजमान हो।"

परमहंस - "अर्थात मैं तेरे अंदर भी बैठा हूँ। हूँ ना ?"

नरेंद्र - "जी बिल्कुल। आप मेरे हृदय में समाये हुए हैं।"

परमहंस - "तेरे भीतर में समाकर मैं हर बात जान लेता हूँ। हर दुःख दर्द पहचान लेता हूँ। तेरी भूख का अहसास कर लेता हूँ, तो क्या तेरी तृप्ति मुझ तक नहीं पहुँचती होगी ?"

नरेंद्र -  "तृप्ति ?"

परमहंस - "हाँ तृप्ति! जब तू भोजन करता है और तुझे तृप्ति होती है, क्या वो मुझे तृप्त नहीं करती होगी ? अरे पगले, गुरु अंतर्यामी है, अंतर्जगत का स्वामी है। वह अपने शिष्यों के भीतर बैठा सबकुछ भोगता है। मैं एक नहीं हज़ारों मुखों से खाता हूँ।"
             याद रखना, गुरु कोई बाहर स्थित एक देह भर नहीं है। वह तुम्हारे रोम-रोम का वासी है। तुम्हें पूरी तरह आत्मसात कर चुका है। अलगाव कहीं है ही नहीं। अगर कल को मेरी यह देह नहीं रही, तब भी जीऊंगा, तेरे माध्यम से जीऊंगा। मैं तुझमें रहूँगा।