Tuesday, February 17, 2015

बाहरी दिखावा अहंकार को बढ़ाता है


         गुरु जी की दिनचर्या अत्यंत कठोर एवं संयमित थी इसलिए उनके सबसे अच्छे शिष्य ने उनका अनुसरण करना शुरू कर दिया। वह बिस्तर के बजाय जमीन पर सोने लगा, अल्प शाकाहार करने लगा और सफेद वस्त्र पहनने लगा। गुरु को शिष्य के व्यवहार में भी परिवर्तन दिखाई दिया। उन्होंने शिष्य से परिवर्तन का कारण पूछा तो वह बोला, 'मैं कठोर दिनचर्या का अभ्यास कर रहा हूं। मेरे श्वेत वस्त्र मेरे शुद्ध ज्ञान की खोज को दर्शाते हैं, शाकाहारी भोजन से मेरे शरीर में सात्विकता बढ़ती है और सुख-सुविधा से दूर रहने पर मैं आध्यात्मिक पथ पर बढ़ता हूं।



         गुरु जी शिष्य की बात सुनकर मुस्कुराए और उसे खेतों की ओर ले गए। खेत में एक घोड़ा घास चर रहा था। गुरु जी ने कहा, 'तुम खेत में घास चर रहे इस घोड़े को देख रहे हो। यह श्वेत रंग का है, यह केवल घास-फूस खाता है और अस्तबल में जमीन पर सोता है, क्या तुम्हें इस घोड़े में जरा-सा भी ज्ञान और सात्विकता दिखती है? तुम्हारी बात मानें, तो यह घोड़ा आगे चलकर बड़ा गुरु बन सकता है।



         अर्थात बाहरी दिखावा अहंकार को बढ़ाता है। इसलिए दिखावे के बजाय हमें अपने लक्ष्य पर एकाग्र होना चाहिए।

जिसके भीतर सुबह हो जाती है, उसकी कभी रात नहीं होती

          जिसके भीतर सुबह हो जाती है, उसकी कभी रात नहीं होती। यदि हम अपने अंदर के सूरज का उदय करेंगे तो अंधकार का अस्तित्व स्वत: ही समाप्त हो जाएगा।



          पचास यानी 5 (पांच) और 0 (शून्य)...। शून्य हटते ही पचास पांच हो जाता है। पचास वर्ष का व्यक्ति अगर अपने जीवन से मात्र पांच चीजों को शून्य (समाप्त) कर दे तो वह पांच साल के बच्चे जैसा मासूम और निर्दोष हो सकता है। क्या हैं वे पांच चीजें?



क-         पहली चीज है-   अहंकार- यह कभी भी नहीं होना चाहिए, मगर पचास साल के बाद तो बिल्कुल शून्य हो जाना चाहिए। ऐसा करना आसान नहीं है। इसके लिए आपको किसी का होना पड़ेगा। किसी का होने पर ही अपनापन छूटता है। हो जाओ राम के, कृष्ण के, सद्गुरु के। अहंकार छूटने लगेगा। शंकराचार्य ने भी कहा है कि व्यक्ति का अहंकार शून्य होना चाहिए। मैं अक्सर सोचता हूं कि आखिर व्यक्ति में अहंकार करने लायक है क्या? एक अहंकार के कारण कितने दोष व्यक्ति को ग्रस रहे हैं? हम क्यों घाटे का सौदा करते हैं?



ख-        दूसरी बात है-   अंधकार से शून्य हो जाओ। तमसो मा ज्योतिर्गमय...। अंधेरे से उजाले की तरफ बढ़ो। अंधकार का मतलब है अज्ञानता, राग-द्वेष, परनिंदा, क्रोध, स्वार्थ, मोह आदि...। ज्ञान का, भक्ति का और सेवा का प्रकाश हमारे इंतजार में रहता है और हम अंधेरे की चादरों को ओढ़े घूमते रहते हैं। एक बात याद रखना, जिसके भीतर सुबह हो जाती है, उसकी कभी रात नहीं होती। अंदर के सूरज का उदय करो तो अंधकार खुद-ब-खुद शून्य अर्थात विलीन हो जाएगा।



ग-         तीसरा है-    अधिकार को शून्य कर दो। एक उम्र के बाद मन से अधिकार की भावना खत्म हो जानी चाहिए। घर-परिवार, समाज में हमारे हिसाब से लोग चलें, इस भावना को शून्य कर देना चाहिए। पचास वर्ष की आयु के बाद भी अगर बड़प्पन का अहसास नहीं छोड़ा जाएगा तो हमारा आने वाला कल उसे छुड़वा देगा। कोई घटनाक्रम छुड़वा देगा, कोई बीमारी छुड़वा देगी। एक सीमा से ज्यादा बोझ किसी पर नहीं लादा जा सकता। जरा सोचिए तो सही, हमने अपने ही परिवार के सदस्यों पर अपने अधिकार का कितना अधिक बोझ लाद रखा है। जो अधिकार जताना था, जता लिया। पचास के बाद उसे समेट लेना चाहिए। याद रखना, अधिकार कभी मांगने से नहीं मिलता। मिलेगा भी तो नकली होगा। अधिकार हमेशा बिना मांगे, बिना जताए ही मिलता है। जब अधिकार का आग्रह छोड़ दोगे तो परिवार हो या समाज, लोग मुट्ठी भर-भरकर अधिकार देंगे। इसकी शुरुआत अपने परिवार से, अपने आसपास से करके तो देखो।



घ-         चौथा है-     अलंकार शून्य हो जाएं। हमारे नाम के आगे कोई उपाधि लगे, कोई विशेषण लगे, इस भावना से मुक्त हो जाओ। नाम के साथ उपाधि लगते ही मोहग्रस्त हो जाना, कोई दोष आ जाना स्वाभाविक है। सीता की खोज कर जब हनुमान लौटे तो राम ने उनकी प्रशंसा की। हनुमान ने नजरें नीचे करते हुए कहा कि प्रभु, लंका के राक्षसों से कोई डर नहीं था, मगर आप मेरी प्रशंसा कर रहे हैं तो डर लग रहा है कि कहीं मेरे मन में अहंकार न आ जाए। इस बात का ध्यान रखना कि समाज अगर हमारे नाम के आगे कोई विशेषण लगाता है तो वह हमारी योग्यता का प्रमाण नहीं है। वह तो समाज की हमसे अपेक्षा है कि वह हमें इस रूप में देखना चाहता है। यदि लोग हमें परम पूज्य कहने लगें तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम सचमुच परम पूज्य हैं। इसका मतलब यह है कि लोग चाहते हैं कि हम परम पूज्य बनें।



च-         पांचवां है-      अंगीकार शून्य हो जाएं। पचास की उम्र के बाद किसी वस्तु को अंगीकार करने की भावना मिटा देनी चाहिए।



      कोई भी परिस्थिति ऐसी आती है   जिसमें किसी वस्तु को अंगीकार करना पड़े तो कम से कम उतना लौटा भी देना चाहिए। वह भी इस तरह कि किसी को पता भी न चले।

सकारात्मकता से जीवन की महक बढती है


         हमारी नकारात्मकता हमें सभी संबंधों से दूर कर देती है और हम अकेले पड़ जाते हैं, जबकि सकारात्मकता हमें जिन रिश्तों से जोड़ती है, वे हमारे जीवन को महका देते हैं।
 
        मॉनस्टर इंक नाम की हॉलीवुड फिल्म की कहानी है कि एक ऐसा संसार, जहां राक्षस रहते हैं। हमारे संसार से बहुत उन्नत। उनके लोग धरती के बच्चों के सपनों में आते हैं। उन्हें डराकर चीखने पर मजबूर करते हैं। उनकी चीख से जो ऊर्जा निकती है, उसे इकट्ठा करके अपने लोक में ले जाकर उससे बिजली बनाते हैं। राक्षसों के उस संसार में बिजली का श्चोत धरती के बच्चों की चीखें है।

         एक बार एक छोटे राक्षस को धरती के बच्चों के सपनों में घुस कर उन्हें डराने की जिम्मेदारी मिलती है, लेकिन वह बच्चों को डराना नहीं चाहता। वह धरती के बच्चों के पास आता तो है, लेकिन इस काम को अंजाम नहीं देता। इसके लिए उसे राक्षस लोक में सजा मिलती है। मजबूरी में वह अपने काम को फिर अंजाम देने आता है।

         एक बच्चे के सपने में घुस कर डराने की कोशिश में वह बच्चे को हंसा देता है। बच्चा नींद में हंसता है और उसकी हंसी से जो ऊर्जा निकलती है, उसे अपने लोक तक ले जाता है। हंसी की ऊर्जा देखकर उसके अधिकारी नाराज होते हैं। तमाम तकलीफों के बाद आखिर वह सभी को समझा पाने में कामयाब हो जाता है कि उसे ऊर्जा लाने से मतलब है। अगर वह हंसा कर लाए तो किसी को क्या तकलीफ? वह धरती पर फिर आता है। बच्चों के सपनों में आकर उनसे एक प्यारा सा रिश्ता कायम करता है। बच्चे उसे देख कर खुश होते हैं, और नींद में ही जोर-जोर से हंसने लगते हैं।

         राक्षस लोक में जब उस ऊर्जा का परीक्षण होता है, तो सचमुच हंसी से निकली ऊर्जा चीख की तुलना में निकली ऊर्जा से ज्यादा कारगर थी।
 
         मॉनस्टर इंक नाम की हॉलीवुड फिल्म की कहानी यह संदेश देते हुए खत्म होती है कि राक्षसों का संसार नकारात्मक बिजली की जगह सकारात्मक बिजली पाने के प्रयास में जुट जाता है। यह भले ही बच्चों के लिए बनाई गई हो, लेकिन बड़ों के लिए यह ज्यादा काम की है। यह बताती है कि जब हम कोई काम अच्छे मन से करते हैं तो उसका फल अच्छा मिलता है। जब हम कोई काम बुरे मन से करते हैं, तो उसका फल बुरा मिलता है। सकारात्मक होकर जब हम रिश्तों के तार दूसरों से जोड़ते हैं, तो उसका सकारात्मक असर होता है, जो हमारे जीवन को महका देता है।

          जो व्यक्ति अपने अहं और अपनी श्रेष्ठता का गुलाम होता है, वह एक दिन इस संसार में अकेला रह जाता है। दुनिया के किसी तानाशाह की कहानी पढ़ लीजिए, उसकी जवानी चाहे जितनी हसीन रही हो, बुढ़ापा बहुत तन्हा रहा। अकेलेपन का दंश बेहद दुखद होता है। अपने टूटते रिश्तों को अगर आपने आज नहीं जोड़ा तो देर हो जाएगी। जोड़ लीजिए उन सबसे अपने रिश्तों के तार, जिनसे आपने अपनी नकारात्मक ऊर्जा के कारण टूटने दिया है। ढूंढ़ने चलेंगे तो हर चीज में बुराई है। मत ढूढि़ए बुराई।सकारात्मक ऊर्जा से बनी बिजली से अपने घर को रोशन तो करके देखिए। फिल्म में राक्षसों ने तो पहचान लिया था सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा का फर्क। हम कब पहचानेंगे?

समर्पण से सबकुछ प्राप्त हो जाता है


         जो सब समर्पण करता है वह सब पा लेता है। जो कतार में सबसे पीछे खड़ा हो जाता है अपने अहं और दोषों को त्याग कर वह कतार में सबसे आगे जगह पा लेता है क्योंकि वह अहं के भारी बोझ से दबा नहीं होता। ऐसा व्यक्ति अपनी बारी आने का इंतजार सब्र के साथ करता है।

         यह भी कहा जा सकता है कि जब अहं से खाली हो जाता है दिमाग तो उसमें सब्र खुदबखुद बैठता चला जाता है। और जब सब्र आता है तब गुस्सा आ ही नहीं सकता। ये एक चेन है...एक सीरीज है...जो अपनी पहली कड़ी से यात्रा शुरू करती है और एक एक कर उसमें सभ्यता की ऊंचाई पर पहुंचाने वाली कई कड़ियां जुड़ती जाती हैं और अंतिम कड़ी तक पहुंचने की यात्रा के इस क्रम में जो कमजोरियों को जकड़े रहता है, वह ही असभ्य समाज की नींव रखता है वह कारण बन जाता है अनेक आक्रमणों का, अनैतिकताओं का व अनाचारों का। अहं से रहित समर्पण, प्रेम के वृक्ष की न सिर्फ नींव रखता है बल्कि उसको ईश्वर की ऊंचाई तक पहुंचाने की शक्ति भी रखता है ठीक जैसे राधा पहुंचीं श्रीकृष्ण तक ।

         यूं तो संस्थागत दृष्टि से समर्पण का पहला अधिकार रुक्मणि का था और इसी अधिकार से जन्मे कर्तव्य के कारण उनके समर्पण को नि:स्वार्थ समर्पण कहने से बचा गया जबकि राधा के समर्पण को भक्ति व प्रेम का आधार माना गया है क्योंकि वहां समर्पण के बाद श्रीकृष्ण से कुछ वापस पाने का भाव नहीं था, बस समर्पण से प्रेम को करते चले जाना था। इसीलिए रुक्मणि और राधा में ऐतिहासिक दृष्टि से भले ही अंतर देखा गया मगर प्रेम और समर्पण में अपनी भावनाओं को 'ईश्वर बनाने तक ले जाना' इसे तो सिर्फ और सिर्फ राधा ही सार्थक कर पाईं। इसीलिएश्रीकृष्ण के संग रुक्मिणि की अनुपस्थिति और राधा की अतिशय उपस्थिति समर्पण का सर्वोच्च उदाहरण बन गई ।

         कृष्ण के आगे राधा का नाम आगे रखा जाना इसी समर्पण का हिस्सा है। ओशो कहते भी हैं कि कृष्ण चूंकि पूर्णपुरुष माने गये हैं इसलिए उनके साथ आना किसी पूर्ण स्त्री के ही वश की बात हो सकती है। रुक्मिणि दावेदार थीं कृष्ण नाम के संग अपना नाम जोड़ने की। मगर वो दावेदार थीं...अर्थात् दावा करने का अर्थ ही ये रह गया कि कहीं कुछ बाकी रह गया है जिसे पाने के लिए उन्हें संस्थागत रिवाजों का सहारा लेना पड़ रहा है, ऐसे में वह मेंटीनेंस भी मांग सकती है जबकि राधा को किसी रिवाज में बांधा नहीं जा सकता। उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं है।

         निश्चित ही ईश्वर के अंशमात्र में भी रमने के लिए किसी अदालती दावे, किसी समाज या किसी संस्थागत बंधन में रहने की आवश्यकता ही नहीं होती, ईश्वर तो हवा की तरह घुलता जाता है मन में। मन में घुलने के लिए बिल्कुल पानी का सा रंग लेना पड़ता है तभी समर्पण शतप्रतिशत होता है, जैसे राधा का था कृष्ण के लिए। इसीलिए रुक्मिणी पीछे छूटती चली गई और राधा आगे आती गईं। इतना आगे कि कृष्ण नाम के आगे राधा खड़ी हो गईं जबकि वे संस्थागत संबंधों की कतार में सबसे पीछे खड़ी थीं। सबसे पीछे खड़े होने का अर्थ है कि सब कुछ छोड़ो, सबकुछ दे दो और हल्के हो जाओ। हल्के हो जाओ इतने कि अपने ईश में रमने के लिए किसी कोशिश की जरूरत ही ना पड़े।

एकाग्रता के अभ्यास से स्मरणशक्ति बढती है


          उस समय की बात है जब स्वामी विवेकानंद इतने विख्यात नहीं हुए थे। उन्हें अच्छी पुस्तकें पढ़ने का बहुत शौक था। एक बार वे देश में ही कहीं प्रवास पर थे। उनके गुरुभाई उन्हें एक बड़े पुस्तकालय से अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाकर देते थे।



           स्वामी जी की पढ़ने की गति बहुत तेज थी। मोटी-मोटी कई किताबें एक ही दिन में पढ़कर अगले दिन वापस कर देते। उस पुस्तकालय का अधीक्षक बड़ा हैरान हो गया। उसने स्वामी जी के गुरु भाई से कहा, 'आप इतनी सारी किताबें क्यों ले जाते हैं, जब आपको इन्हें पढ़ना ही नहीं है? रोज इतना वजन उठाने की क्या जरूरत है? स्वामी जी के गुरु भाई ने कहा, 'मैं अपने गुरुभाई विवेकानंद के लिए ये पुस्तकें ले जाता हूं। वे इन सब पुस्तकों को पूरी गंभीरता से पढ़ते हैं।



          अधीक्षक को विश्वास ही नहीं हुआ। उसने कहा, 'अगर ऐसा है तो मैं उनसे मिलना चाहूंगा। अगले दिन स्वामी जी उससे मिले और कहा, 'महाशय, आप हैरान न हों। मैंने न केवल उन किताबों को पढ़ा है, बल्कि उन्हें याद भी कर लिया हैं। स्वामी विवेकानंद ने जब उन किताबों के कई महत्वपूर्ण अंश सुना दिए, तो पुस्तकालय अधीक्षक चकित रह गया। उसने उनकी याददाश्त का रहस्य पूछा। स्वामी जी बोले, 'मन को एकाग्र करके पढ़ा जाए तो वह दिमाग में अंकित हो जाता है। एकाग्रता का अभ्यास करके आप जल्दी पढ़ना भी सीख सकते हैं।


अर्थात पूर्ण एकाग्रता से कार्य करने पर हम उसे शीघ्रता और गुणवत्ता से करते हैं और अभ्यास से सब कुछ संभव है।

जैसा मन होगा वैसा मनुष्य बनेगा

         मनुष्य मनोमय है अर्थात मन की जैसी प्रवृत्ति होती है, वैसा ही मनुष्य बन जाता है। आत्मा प्रज्ञा के रूप में मन में प्रतिबिंबित होती है।-----उपनिषद

 

           मन की सक्रियता का आधार आत्मा है और इसको जानने पर बल दिया जाना चाहिए। ज्ञान का आधार तप, संयम और नि:स्वार्थ कर्म है।--उपनिषद



           मन दसों इंद्रियों का अधिपति है और जब मन इनसे संयुक्त होता है तभी उन विषयों का ज्ञान होता है। मन अनंत है। मन ही ज्योति है, मन ही सम्राट है और मन ही परम ब्रहम है।---वृहदारण्यक उपनिषद



          मन आत्मा द्वारा निर्देशित अंतरइंद्रिय है, जो दूसरी इंद्रियों को निर्देशित करता है। जिसने अपना चरित्र शुद्ध नहीं किया, जिसकी इंद्रियां शांत नहींरह सकतीं, जिसका चित्त स्थिर नहीं, मन सदैव अशांत रहता है, वह केवल बाहृय जगत के आधार पर आत्मा को प्राप्त नहींकर सकते।

देश का ही क्यों ?स्वयं के जीवन का संविधान होना चाहिए


        गणतंत्र दिवस हमें एकजुट होने की प्रेरणा देता है। क्यों न हम दूसरों से जुड़कर शक्तिशाली बन जाएं और अपने देश के लिए काम कर सकें।

         शक्ति का व्यावहारिक रहस्य जुड़ाव में ही निहित होता है, चाहे वह एक व्यक्ति की शक्ति हो अथवा व्यक्तियों के समूह की। गण एक वैदिक शब्द है, जिसका अर्थ ही है समूह। जब तक हम व्यक्तिगत स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर पर और वैश्विक स्तर पर सामूहिकता की भावना प्रदर्शित नहीं करेंगे, तब तक हमारा विकास नहीं होगा।

          हमारे गणतंत्र में विकास की ताकत सामूहिकता या एक-दूसरे से जुड़ने में ही है। हमारे लोक जीवन की एक कहावत है,'एक और एक ग्यारह होते हैं। गणित की दृष्टि से यह तब तक सही नहीं होगा, जब तक हम एक के सामने एक का आंकड़ा लिखकर उसे न पढ़ें। अन्यथा एक और एक का जोड़ दो ही होता है, ग्यारह नहीं। लेकिन जीवन में यह ग्यारह होता है। इस कहावत के मर्म को समझने की जरूरत है। जब दो लोग एक-दूसरे से जुड़ते हैं, तो उन दोनों की अपनी-अपनी दुनिया भी जुड़ती है। लड़के और लड़की के विवाह का होना इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। गणित में दो, लेकिन व्यवहार में दो सौ। इन दोनों की भी तो अपनी-अपनी दुनिया होती है। इस प्रकार उस जुड़ाव के योगफल का आंकड़ा हम निकाल नहीं सकते। यही इसका सबसे बड़ा रहस्य है और सबसे बड़ी शक्ति भी।नहीं फोड़ता। यानी अकेला आदमी इतना शक्तिशाली नहीं होता। भारतीय योग की प्रक्रिया भी मूलत: हमारे अंदर की विभिन्न क्षमताओं को एक-दूसरे के साथ जोड़कर उनका भरपूर उपयोग करने की प्रक्रिया ही है। सूर्य की किरणों को यदि एक लेंस के निश्चित बिंदु पर केंद्रित कर दिया जाए, तो उसकी ऊर्जा अपने नीचे रखे कागज के टुकड़े को जला देगी, अन्यथा उस कागज पर सूर्य की किरणों का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। दरअसल, गणतंत्र अपने राजनीतिक स्वरूप में तो एक राजव्यवस्था है, लेकिन कार्य पद्धति के रूप में यह सभी लोगों तथा राज्यों के जुड़ने का ही विधान है। इस दिन सभी रजवाड़ों ने संविधान को स्वीकार करके एक साथ इस देश के लिए काम करने का वचन दिया था। सबने यह माना था कि अलग-अलग रहकर काम चल तो सकता है, लेकिन कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। न ही हम शक्तिशाली हो सकते हैं। ऐसे में जो शक्तिशाली होगा, वह हमारा दमन करेगा। क्यों न दूसरों से जुड़कर खुद ही शक्तिशाली बन जाएं, ताकि स्वाभिमान के साथ देश की सेवा कर सकें। यह व्यवस्था हमारे पूर्वजों की इस महान और उदार भावना के बिल्कुल अनुकूल थी कि 'सारी पृथ्वी हमारा कुटुंब है।

         इसी प्रकार यदि हर व्यक्ति अपने लिए इस युग की आवश्यकताओं के अनुरूप अपने जीवन का संविधान बना ले, तो वह एक आदर्श व्यक्ति बन सकता है :ईश्वर को न्यायकारी मानकर हम उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।

         शरीर को ईश्वर का घर मानकर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखेंगे।मर्यादाओं का पालन करेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का अविच्छिन्न अंग मानेंगे।चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण बनाएंगे।अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता का वरण करेंगे।लोगों को उनकी सफलता, योग्यता या धन-दौलत से नहीं, बल्कि उनके अच्छे विचारों और सत्कर्र्मों से आंकेगे।दूसरों के साथ वह व्यवहार नहींकरेंगे, जो हमें अपने लिए पसंद नहीं।प्रत्येक व्यक्ति के लिए समानता का भाव रखेंगे, किसी भी तरह का भेदभाव नहीं बरतेंगे। परंपराओं की अपेक्षा विवेक को अधिक महत्व देंगे।अपने राष्ट्र को उन्नति की ओर ले जाने में योगदान करेंगे।

कार्य उत्कृष्ट चाहते हो तो सधा हुआ ध्यान करेना सीखें


           ज्यादातर लोग समझते हैं कि ध्यान करने से व्यक्ति अंतर्मुखी हो जाता है और सांसारिकता से कट जाता है, लेकिन यह गलत धारणा है। ध्यान को साधकर व्यक्ति सांसारिक जीवन को सही ढंग से जी पाता है। यह व्यक्ति को अधिक चेतनावान बनाता है। ध्यान में हम भीतर जाकर अपने बाहर को और भी स्पष्ट रूप से देखने लगते हैं।

          एक जैन गुरु अपने शिष्यों को ध्यान का प्रशिक्षण दे रहे थे। एक शिष्य उनसे कहने लगा कि अब मैं ध्यान में निष्णात हो गया हूं, अब मुझे लोगों को प्रशिक्षित करने की अनुमति दीजिए। गुरु ने कहा- कल मैं तुम्हारी परीक्षा लूंगा। अगले दिन बारिश हो रही थी। शिष्य छाता लेकर पहुंचा। गुरु के कक्ष में प्रवेश करने से पहले उसने अपनी चप्पल, छाता और झोला बाहर छोड़ गुरु जी के सम्मुख आकर बैठ गया। गुरु जी ने पूछा- तुम क्या-क्या लेकर आए थे? शिष्य बोला- मैं छाता और झोला लेकर आया था, जिसे मैं कक्ष के बाहर छोड़कर आया हूं। गुरु जी बोले- तुमने जब अपनी चप्पल उतारी, तो छाते को बाएं रखा या झोले को? शिष्य अचकचा गया। बोला- मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता, लेकिन मुझे लगता है कि मैंने झोले को बाएं रखा। गुरु जी बोले- तुम अभी ध्यान का प्रशिक्षक नहीं बन सकते, क्योंकि तुम्हारा ध्यान अभी सधा नहीं है।

           हम कोई काम ध्यान से क्यों नहीं कर पाते? क्योंकि हमारी चेतना तनाव, दबाव और कुंठा में दबी रहती है। हम फूलों की सुंदरता को देखकर भी नहीं देख पाते। किसी की बात को सुनकर भी नहीं सुन पाते। हमारे ध्यान पर दबाव और कुंठाएं छाई रहती हैं। एेसा हमारे अहंकार यानी 'अपने होने का बोधÓ (अहंकार) के कारण होता है। हम किसी सभा में बोल नहींपाते, किसी के सामने गाना गाते हैं, तो सुर बिगड़ जाते हैं या कोई नया काम करने का साहस नहींकर पाते। आखिर हमें कौन रोकता है? दरअसल, यह अपने होने का बोध ही है, जो हीनता बनकर हमारे भीतर एक डर पैदा कर देता है। अहंकार के जाते ही हम सभी विकारों से बाहर आ जाते हैं और खुल कर पूरी सृष्टि को समग्रता से देखने लगते हैं। यह काम ध्यान से संभव होता है। ऐसे में हम जो भी काम करते हैं, वह उत्कृष्ट होता है। यही कारण है कि बौद्ध धर्म से निकले ध्यान पर आधारित जेन के साधक जापान में सेमुराई थे, जिनका वार अचूक माना जाता था। जूड़ो, कराटे आदि युद्ध कलाओं के पीछे भी ध्यान बड़ी भूमिका निभाता है।