1- भक्ति है तो अद्भुत शक्ति के दर्शन होंगे
जिस दिन भक्ति खो जाती है, उस दिन धर्म भी खो जाता है। भक्ति है, तो भगवान हैं और उनका भक्त भी। भक्ति के हटने पर धर्म कट्टर सिद्धांत के संपुट में बंद हो जाता है और मजहबी उन्माद नकर सामाजिक समरसता को भंग कर सकता है। परमात्मा को तभी जाना जा सकता है जब भक्ति में आनंद बनकर आंसू झरने लगता है। प्रकृति के चारों तरफ उत्सव ही उत्सव है। पक्षियों में, पहाड़ों में, वृक्षों में, सागरों में परमात्मा मौजूद है।
आप अगर ऐसा नहीं देख पा रहे हैं तो इसके लिए स्वयं जिम्मेदार हैं। उत्सवी भक्ति परमात्मा से मिलाती है। शास्त्र की बुद्धिविलासी चर्चाओं में वह नहीं है। जब भावविभोर होकर भक्त नाचता है तभी भगवान प्रकट होते हैं। भक्ति में अद्भुत शक्ति होती है। यह भक्ति ईश्वर को भी प्रभावित करती है और उन्हें भक्त को गले लगाने के लिए मजबूर कर देती है। सच्चे मन से की जाने वाली भक्ति कभी निष्फल नहीं जाती। ईश्वर उनकी अवश्य सुनता है जो उसे साफ मन से याद करते हैं।
सच्चा भक्त मिल गया तो समझे कि भगवान तुरंत मिलने वाले हैं। जब तक हृदय की वीणा नहीं बजेगी तब तक परमात्मा समझ में नहीं आएगा। धर्म तर्क-वितर्क का विषय नहीं है। जैसे भोगी शरीर में उलझा रहता है वैसे बुद्धिवादी बुद्धि में उलझे रहते हैं। अंत में दोनों चूक जाते हैं, क्योंकि भगवान हृदय में है। परमात्मा इतना छोटा नहीं है कि उसे बुद्धि में बांधा जाए। इसलिए परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं है। प्राणों में प्रेम के गीत उठते ही वह भक्त के पास दौड़ा चला आता है।
हम उसके पास जा भी तो नहीं सकते, क्योंकि यात्रा बहुत लंबी है और हमारे पैर बहुत छोटे हैं। बिना पता-ठिकाने के जाएं भी तो कहां जाएं? भक्ति प्यास है। जब धरती भीषण गरमी में प्यास से तड़पने लगती है तभी बादल दौड़े हुए आते हैं और उसकी प्यास बुझाते हैं। इसी तरह जब भीतर विरह की अग्नि जलेगी तभी प्रभु की करुणा बरसेगी। छोटा शिशु जब पालने पर रोता है तो मां सहज ही दौड़ी चली आती है। इसी तरह भक्त के भजन मेंऐसी ताकत होती है कि भगवान अपने को रोक नहीं सकते। आखिर सारे भजन तो तड़पते भक्त के आंसुओं की ही छलकन हैं।
2-हमारा आत्मबल हमें बुराई व विघ्न-बाधाओं से बचाता
आत्मबल एक ऐसा गुण है जो हमारे पुरुषार्थ को जाग्रत रखता है। यह गुण मुश्किल क्षणों में ऊर्जा का स्नोत साबित होता है। आत्मबल हमें हर बुराई और विघ्न-बाधाओं से बचाता है। कहते हैं कि मरणासन्न शरीर में भी नवजीवन का संचार कर दे, ऐसी अमृत बूंद है-आत्मबल। सच तो यह है कि जहां कोई प्राणी हमारा सहायक नहीं होता वहां हमारा आत्मबल हमें सहारा देता है। यह हमें न सिर्फ दृढसंकल्पी और साहसी बनाता है, बल्कि जीवन-संग्राम में जीतने की अदम्य इच्छाशक्ति भी प्रदान करता है। यह हमें न सिर्फ अच्छे कर्म करने की ओर प्रेरित करता है, बल्कि हमें प्रतिकूल परिस्थितियों से निकलने की हिम्मत भी देता है।
यह हमारा ऐसा बलवान साथी है, जो जीवन के घनघोर अंधेरे से भी हमें बाहर निकाल सकता है। आत्मबल जिसका साथी है वह कभी कमजोर नहीं पड़ता। हार की निराशा उनके दिलों पर राज नहीं कर पाती। ऐसे लोग अपने आत्मबल की वजह से देश और दुनिया पर राज करते हैं। इसके विपरीत आत्मबलहीनता बहुत ही खतरनाक रोग है, जो हमें कमजोर ही नहीं करता, बल्कि दूसरों के समक्ष दब्बू भी बना देता है। इसलिए हमें इससे बचना चाहिए और अपने आत्मबल को बरकरार रखना चाहिए। आत्मबल से ओत-प्रोत व्यक्ति किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति को अपने अनुरूप बदल देने की सामर्थ्य रखता है।
आत्मबल मानव में सात्विक गुणों का विकास कर उसे स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देने के लिए साहस बंधाता है और ईश्वर की ओर उन्मुख करता है। आत्मबल का औचित्य भी इसी में है कि व्यक्ति ईश्वरोन्मुख हो जाए। परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, हम सबको हरदम आत्मबल के माध्यम से आगे बढ़ने का प्रयास करते रहना चाहिए। समस्याओं और परेशानियों से कतई घबराना नहीं चाहिए।
हम यदि इन समस्याओं पर विजय पा लेंगे तो हमारा आत्मविश्वास बढ़ेगा और हमें आत्मसंतुष्टि भी प्राप्त होगी। किसी समस्या को भार या परेशानी समझना हमारी कायरता है, जो हमें असफलता के पथ की ओर उन्मुख करती है। यदि हम परेशानियों और समस्याओं पर हमला कर उनके सम्मुख डटे रहेंगे, तब हमारी आर्थिक और नैतिक उन्नति अवश्य होगी। हम जीवन की सामान्य स्थिति से ऊपर उठ जाएंगे और सब लोग हमें पहले से कहीं ज्यादा आदर-सम्मान देंगे। समस्या के वक्त हमें धैर्य और साहस से कार्य लेना चाहिए।
3-दिव्य भूमि को ही तीर्थ कहते हैं
जब कभी इस असीम ब्रह्मांड में ऊर्जा का संग्रह किया जाता है और जब किसी स्थान पर उसे केंद्रित कर दिया जाता है तो वह स्थान दिव्य बन जाता है। इन्हीं दिव्य स्थानों पर दिव्य आत्माओं का अवतरण होता है। इसलिए ऐसे स्थानों को दिव्यभूमि, तीर्थस्थल या तीर्थस्थान कहा जाता है। कोई भी महापुरुष साधना से अनंत परमात्मशक्ति प्राप्त कर लेता है। वह संसार में व्याप्त दिव्य शक्तियों को एकत्रकर उन्हें अपने शरीर में केंद्रित कर लेता है और फिर वह अपनी शक्ति को निकटवर्ती वातावरण में प्रसारित करता है।
इसीलिए हमारे देश में जहां कहीं भी तीर्थस्थान हैं वहां का वातावरण वृक्ष आदि सब कुछ ऊर्जावान बन जाते हैं। उनमें दिव्यता का बोध होने लगता है। जैसे भगवान बुद्ध की साधना से गया का बोधिवृक्ष, साईंबाबा के आश्रम के निकट स्थित मीठे नीम का पेड़ आदि। इसी तरह महावीर ने जहां साधना की उसे अहिंसा क्षेत्र कहते हैं। उस स्थान के प्रभाव के कारण हिंसक जीव भी वहां पर अहिंसक बन गए थे। देश में ऐसे कई स्थानों पर ऊर्जा क्षेत्रों से परिपूर्ण तीर्थस्थल हैं।
तीर्थ का एक अर्थ सामान्य तौर पर यह भी है-वह स्थान जहां की भूमि, पेड़, पौधे, नदी-झरने आदि दिव्य ऊर्जा से ओत-प्रोत हो गए हों। इसलिए जब कभी हम देवभूमि में प्रवेश करते हैं तो हमारे जड़ता मूलक अज्ञान को झटका लगता है। हमारा तन-मन वहां की दैवीय ऊर्जा से प्रभावित होने लगता है। शायद ऐसा हर जगह नहीं होता है, लेकिन यदि आप काशी विश्वनाथ मंदिर, वैष्णोमाता, अमरनाथ, केदारनाथ, या अजमेर शरीफ आदि स्थानों पर जाएं तो निश्चित ही वहां का वातावरण हमें प्रभावित करने लगता है। हम तुरंत बदल जाते हैं। हम वह नहीं रहते हैं जो पहले थे। गुरुस्थान भी ऐसा ही होता है। वहां से लौटने पर हमारे अंदर कुछ न कुछ रूपांतरण होता ही है। ऐसी अवधारणा है कि जिन स्थानों पर हमारे तीर्थस्थान या मंदिर हैं, उन स्थानों पर प्राचीनकाल में कभी दिव्यशक्तियों का वास था। पवित्र देवभूमि से, उसके मूल स्थान से आज भी मिट्टी लाने का प्रचलन है।
4-भक्त सेवक,और सेवक का स्वामी के प्रति समर्पण
भक्त का अर्थ है-सेवक। सेवक का अर्थ है-स्वेच्छा से स्वामी के प्रति समर्पण। प्रेम, आनंद और प्रसन्नता के कारण जब कोई भक्त अपने स्वामी के प्रति समर्पित हो जाता है तो वह सेवक हो जाता है। उसे ही धर्मग्रंथों में सच्चा भक्त, सेवक या दास कहते हैं। रामचरितमानस में सेवक के धर्म को सबसे कठिन बताया गया है। सेवक की अपनी कोई इच्छा नहीं होती। वह अपने मालिक की इच्छा को सर्वोपरि मानता है। भक्त तो प्रतिपल अपने स्वामी की कृपा के लिए इंतजार करता है। वह हर पल रोम-रोम से धन्यवादी और अहोभाव से, कृतज्ञता से परिपूर्ण होता है। भक्त कभी विभक्त नहीं हो सकता। उसकी भक्ति में कमी नहीं आती।
तत्वज्ञानी भक्त जीव, जगत और ब्रह्म के भेद को समझता है। वह जानता है कि इस सृष्टि से पार जाने के लिए, माया को लांघने के लिए मायापति प्रभु की वरण-शरण में जाना ही पड़ेगा। भक्त संसार की नश्वरता और ब्रह्म की शाश्वतता को जानता है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि उसे ही जागा हुआ जानना जिसमें वीतरागता पैदा हो चुकी हो। जिसने जान लिया कि हर विषय-भोग के पीछे 'विष' छिपा है। भक्त के पास तो अपने आराध्य प्रभु के लिए प्रेम-पुष्प ही होता है।
वह अपने हृदय मंदिर में उस प्रभु को बिठाकर अपने अहंकार का सदैव परित्याग करना चाहता है। प्रेम ही भक्त है, प्रेम ही पूजा-अर्चना है। प्रेम के सामने प्रभु को भी झुकना पड़ता है। भक्त तो हर पल प्रार्थना करता है और कहता है- हे प्रभु! आप अंतर्यामी हैं, आप हमारे हर भाव-कुभाव को जानते और समझते हैं। अपने प्रकाश स्वरूप से हमारे अंदर छिपे अज्ञान, अंधकार और असत्य को दूरकर हमें ज्ञानी, प्रकाशवान और सत्य संकल्पी बनाएं। हमें विवेक प्रदान करें।
जब ऐसी प्रार्थना भक्त करता है तो प्रभु उसकी पुकार जरूर सुनते हैं। परमपिता परमेश्वर पर पूर्ण भरोसा ही भक्ति है। भगवान भी भक्तों के बीच ही रहते हैं। जहां उनके नाम का गुणगान होता है। भक्ति आती है, तो संतुष्टि भी स्वयं आ जाती है। भक्त विनम्रता, सरलता, सहजता की साक्षात प्रतिमूर्ति होता है। जो भक्त हैं वे सदैव उस सर्वव्यापक परमात्मा के परमपद का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं। भक्त ऐश्वर्य में भी ईश्वर को नहीं भूलता।
5-भगवान तो हमेशा भाव के भूखे रहते हैं
जीवन में हमें जो कुछ मिला है, वस्तुत: वह हमारे कर्मो का फल होता है, परंतु जब हम उसे प्रभु का दिया हुआ प्रसाद मानकर ग्रहण करते हैं तो बात कुछ और होती है। हमारा हर कर्म पूजा बन जाता है। यही बात भोजन के संदर्भ में भी लागू हो सकती है। कोई चीज जब हम खाने से पहले भगवान को चढ़ाकर यानी अर्पित करके खाते हैं तो वह भोजन भी प्रसाद बन जाता है। इसलिए जो भगवान के भक्त होते हैं वे भोजन से पहले कहते हैं-हे प्रभु, तुम्हारी दी हुई वस्तु पहले मैं तुम्हें समर्पित करता हूं। और भला वे ऐसा क्यों न करें, क्योंकि हमें यह जो मानव शरीर मिला है वह उसका दिया हुआ ही तो है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि कोई भक्त यदि प्रेमपूर्वक मुझे फल-फूल, अन्न, जल आदि अर्पित करता है तो उसे मैं प्रेमपूर्वक सगुण रूप में प्रकट होकर ग्रहण करता हूं।
भक्त की यदि भावना सच्ची हो, श्रद्धा और आस्था प्रबल हो तो भगवान उसके भोजन को अवश्य ग्रहण करते हैं। जैसे उन्होंने शबरी के बेर खाए, सुदामा के तंदुल (चावल) खाए, विदुरानी का साग खाया। प्रभु की कृपा महान है। उसकी कृपा से जो कुछ भी अन्न-जल हमें प्राप्त होता है, उसे प्रभु का प्रसाद मानकर प्रभु को अर्पित करना, कृतज्ञता प्रकट करने के साथ एक मानवीय गुण भी है। कुछ लोग यह प्रश्न भी करते हैं कि जब भगवान चढ़ाया हुआ प्रसाद खाते हैं तो घटता क्यों नहीं? उनका कथन भी सत्य है।
जिस प्रकार फूलों पर भौंरा बैठता है और फूल की सुगंध से तृप्त हो जाता है, किंतु फूल का वजन नहीं घटता उसी प्रकार प्रभु को चढ़ाया प्रसाद अमृत होता है। प्रभु व्यंजन की सुगंध और भक्त के प्रेम से तृप्त हो जाते हैं। वे भाव के भूखे हैं, भोजन के नहीं। जैसे एक मां बच्चे को कुछ खाने को दे और बच्चा उसे तोतली भाषा में सिर्फ पूछ भर दे तो मां उसे सीने से लगा लेती है। इसी प्रकार भगवान भी तृप्त होते हैं, प्रसन्न होते हैं और अपनी कृपा बरसाते हैं। यह मानव शरीर भी उसकी अनंत कृपा से प्रसाद स्वरूप मिला है। हमें ईश्वर की इस कृपा को कभी नहीं भूलना चाहिए। जब हम इसकी सार्थकता को समझेंगें, तभी जीवन धन्य होगा।
6-धन दौलत के बजाय चरित्र सही हो
चरित्र का निखार। मौजूदा दौर में व्यक्ति जल्द से जल्द सुख-सुविधाओं की प्राप्ति की लालसा के कारण अनेक समस्याआें और परेशानियों से जूझ रहा है। ये समस्याएं लोगों के चरित्र को प्रभावित करती हैं। ऐसे में अधिकतर व्यक्ति समस्याओं और परेशानियों के दबाव में अपने चरित्र को दांव पर लगा देते हैं और अपने कदमों को गलत मार्ग पर मोड़ लेते हैं। अनुचित व गलत मार्ग सहज-सीधा नजर आता है, जो सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है।
यह मार्ग ऐसा होता है जिसमें व्यक्ति को अधिक मेहनत व प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन वह व्यक्ति के सबसे कीमती गुणों व चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है। जिंदगी में समस्याओं और परेशानियों का भी एक अनूठा महत्व है। यदि व्यक्ति साहस, धैर्य और ईमानदारी से परेशानियों का मुकाबला करे तो वह न सिर्फ अपनी परेशानियों को दूर भगाता है, बल्कि सफलता को भी अपने जीवन का एक अंग बना लेता है। ऐसे में उसका चरित्र और अधिक निखर उठता है।
जिस प्रकार सोना आग में तप कर और अधिक निखरता है, उसी तरह चरित्र भी कठिन परिस्थितियों और संघर्ष का सामना करते हुए अधिक निखर आता है। सामान्य परिस्थितियों में तो सभी अपने चरित्र को संभाल कर रखने का दावा करते हैं, लेकिन जब हालात विपरीत हों, उस समय अपनी सूझबूझ, दया और शालीनता को बरकरार रखना अधिक महत्वपूर्ण होता है। एक रूसी कहावत है कि हथौड़ा कांच को तोड़ देता है, पर लोहे का कुछ नहीं बिगाड़ता। इसका तात्पर्य है कि सुदृढ़ और सद्कर्मो पर चलने वाला व्यक्ति अपने चरित्र के साथ कभी समझौता नहीं करता।
कहते हैं कि योग्यता की वजह से सफलता मिलती है और वह चरित्र ही है, जो सफलता को संभालता है। जो सफल व्यक्ति अपने चरित्र को नहीं निखारते सफलता भी उनके पास ज्यादा देर तक नहीं टिकती। ऐसे लोग शीघ्र ही गुमनामियों के अंधेरों में गुम हो जाते हैं। आध्यात्मिक रुझान से न सिर्फ व्यक्ति का चरित्र सुदृढ़ होता है, बल्कि उसके अंदर धैर्य, ईमानदारी, परोपकार आदि सद्गुणों का भी विकास होता है।
वर्तमान समय में चरित्र का मजबूत होना अत्यंत आवश्यक है। चरित्र को बचपन से ही मजबूत बनाया जाए तो व्यक्ति संस्कारों और अध्यात्म की छांव में बड़ा होकर समाज व देश का नाम रोशन करता है। यदि चरित्र सही नहीं है, तो धन-दौलत भी व्यर्थ है।
7-हमारा मन तो परमात्मा की अमानत है
मिथ्या है अभिमान। मानव वही है जो दूसरों के भी काम आए और दूसरों का दुख-दर्द समझे। किसी भी प्रकार से किसी को दुख या कष्ट न पहुंचाए। जो सुखाभिमानी दूसरों को दुख में देखकर प्रसन्न होता है उसे एक दिन स्वयं भी दुखी होना पड़ता है। प्रभु प्रेम में आंसू बरसाने वाले को दुख के आंसू नहीं बरसाने पड़ते। जीवों पर करुणा व दया बरसाएं। पूर्ण रूपेण अहिंसा व्रत का पालन करें। मन की चंचलता को रोकें। मन, परमात्मा की अमानत है। इसे परमात्मा में ही लगाएं। इसे संसार, सांसारिकता, भोग-विलासों में लगाने पर अंतत: दुखी होना पड़ेगा। छोटी-छोटी बातों से अपने प्रेम, एकता व सद्भाव को समाप्त न करें। श्रद्धा व विश्वास से ही अंत:करण में स्थित ईश्वर की अनुभूति कर सकते हैं।
अभिमान प्रभु की प्राप्ति में बाधक है। अभिमान चाहे किसी भी प्रकार (जैसे धन, वैभव, तप और ज्ञान आदि) का क्यों न हो, ठीक नहीं होता। मानव के जीवन पर संगति का प्रभाव अवश्य पड़ता है। इसलिए अच्छा देखें, अच्छा सुनें, अच्छा बोलें, अच्छा विचारें और अच्छी संगति करें। खान-पान व जीवन को सात्विक, शुद्ध और संयमित बनाएं। प्रकृति के नियमों का पालन करें।
शांति को जीवन में प्रमुखता से स्थान दें। अशांत व्यक्ति को कहीं भी सुख नहीं मिलता। सत्य परमात्मा का स्वरूप है। सत्य जहां भी जुड़ेगा वहां विकृति नहीं आएगी। जिसे सदाचारी व्यक्ति का संग मिले उसका जीवन धन्य है। जिसके जीवन में करुणा, क्षमा, उदारता, कोमलता, सेवा, परोपकार, और परमार्थ का भाव है वही संत है। जीना भी एक कला है। गिरना व गिराना बहुत सरल है, परंतु उठना व उठाना उतना सरल नहीं है। स्वयं जागो व औरों को जगाओ, अपने कल्याण के साथ औरों के कल्याण के भी भागीदार बनो।
कठिनाइयों, बाधाओं व परीक्षाओं से न घबराकर निरंतर चलते रहो, जब तक कि आपको आपका लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। लक्ष्यविहीन मानव का जीवन पेंडुलम की भांति है, जो हिलता-डुलता है। धर्म वह अखंड धारा है, जो कभी टूटती नहीं। धर्म वही है जो जीवन में धारण किया जाए। धर्म व परमात्मा को मात्र मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च या सत्संग तक ही सीमित न करें। धर्म को जीवन का अभिन्न अंग बनाएं। धर्म निरंतर सदा-सर्वदा, यत्र-तत्र-सर्वत्र हमारे साथ रहेगा, तभी समाज में आ रही विकृतियों से बच सकेंगे।
8-जैसा संस्कार होगा चलने का मार्ग भी वैसे ही होगा
जीवन का मार्ग। रास्ते तो अनेक हैं, पर किसी एक ही रास्ते से यात्रा कर सकते हैं आप? सभी रास्ते उसी रास्ते में जाकर मिल जाते हैं। सभी रास्ते सबके लिए हैं, जो जिस रास्ते से चल पड़े। जिसका संस्कार जैसा होता है वह उसी रास्ते पर चल पड़ता है। तुम्हें तो वह रास्ता मिल गया है जो तुम्हारा रास्ता है और जो तुम्हारा लक्ष्य है। अगर अब किसी भी चौराहे पर ठहर जाओगे तो तुम्हारा रास्ता भटक जाएगा। तुम्हारी मंजिल भटक जाएगी और तुम्हारी जीवन यात्र कहीं बीच में ही समाप्त हो जाएगी।
रास्ता प्रतीक्षा करता ही रह जाएगा, तुम्हारी मंजिल राह देखती रह जाएगी। तुम्हारा उद्देश्य अधूरा रह जाएगा। यह संसार है। यहां अनगिनत लोग हैं। भिन्न-भिन्न तरह के जीव हैं। तरह-तरह की जातियां हैं। तरह-तरह के विकार हैं। कोई किसी की प्रकृति है, तो कोई किसी का विकार। कहीं मनुष्यों का मेला है तो कहीं पशु-पक्षियों का जमघट। कहीं कीड़े-मकोड़ों की अधिकता है तो कहीं पेड़-पौधों का जंगल। कहीं पानी का सुंदर प्रवाह है, तो कहीं सागर की लहरों का खेल। संसार के सभी लोगों के अपने-अपने क्षेत्र हैं। अपना-अपना संस्कार है। अगर तुम इसका अतिक्रमण करोगे तो भटक कर रह जाओगे।
तुम्हारे आस-पास में एक विराट दुनिया है उस दुनिया में तुम कितनों को जानते हो और अगर सभी को जानने की कोशिश करोगे तो समय साथ नहीं देगा, क्योंकि जिंदगी इतनी लंबी नहीं है। संस्कार भूमि इतनी विराट नहीं है। इस संसार में कुछ ही लोग तुम्हारे हैं। अगर इनसे अधिक और अपेक्षाएं करोगे तो अपेक्षाओं में ही जीवन समाप्त हो जाएगा, भूख बनी की बनी रह जाएगी। इसलिए आज तक आदमी को न सुखी तुमने देखा है और न सुख से प्राण त्यागते हुए किसी व्यक्ति को देखा होगा। कुछ लोग तो ऐसे हैं जो सुख से सो भी नहीं पाते। लोगों को उनका गम खा रहा है। चिंताएं जला रही हैं। वे दुनिया से कहते हैं कि अपने परिवार, अपने बच्चों और समाज के लिए सब कुछ कर रहे हैं, पर इस सबके पीछे उनकी अपनी पद-प्रतिष्ठा और मान अपमान भी जुड़ा हुआ है।
इच्छाओं की पूर्ति की कामनाएं हैं। अगर तुम भी सांसारिक दुखों का शिकार होना चाहते हो तो चल पड़ो अनेक रास्तों पर, तमाम लोगों के साथ। अनेक अपेक्षाओं के साथ। तब देखना कि जिंदगी को क्या मिलता है।
9-भगवान कण-कण में है
किसी घर में नहीं आखिर हमारे लक्ष्मीनारायण भला दरिद्रनारायण कैसे हो सकते हैं? फकीरों के संदेश तो इसी ओर इशारा करते हैं, 'बेबस गिरे हुओं के बीच तू खड़ा था। मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहां चरन में।' दीनबंधु हम पर प्रसन्न तभी होंगे जब हम वंचित लोगों को प्रेम से गले लगाएं और निश्छल भाव से उनकी सेवा करें। दीनों की 'आह' बनकर परमात्मा प्रतिफल हमें पुकारता है और हम हैं कि भव्य मंदिरों में जाकर भजन में उसकी पुकार सुनना चाहते हैं। मंदिर जाना अच्छी बात है, लेकिन जरूरतमंदों की मदद करना भी ईश्वर की अनुभूति करा सकता है।
दुखियों के द्वार पर खड़ा होकर ईश्वर हमारी बाट जोहता है और हम उसे गिरि-कंदराओं में खोजते-फिरते हैं। दुखियों की झोपड़ी में कृष्ण की बज रही वंशी को सुनिए और मजदूरों के पसीने में उसे निहारें। अपने हृदय-द्वार खोलें, यहीं पर उसका दीदार हो जाएगा। भगवान का कोई घर नहीं है। वह सृष्टि के कण-कण में रम रहा है। हम तो दीन-दुखियों को ठुकराकर देवालयों में प्रभु को ढूंढ़ते हैं। प्रभु का असली द्वार दीनों का हृदय है। जिसका कोई नहींहै उसका भगवान है। वह जरूरतमंदों की आह में मिलेगा, भूखों की भूख में मिलेगा और मजलूमों के चीथड़ों में मिलेगा। दुखियों का दिल दुखाना मानो मंदिर को ढहाना है। कमजोरों को दबाना सबसे बड़ा अधर्म है।
संत मलूकदास भी यही कहते हैं। दरिद्र की सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है। आस्तिक वही है, जिसका दिल गरीबों को देखते ही पसीजने लगता है। तभी तो कबीरदास कहते हैं, 'कबिरा सोई पीर है, जो जाने परपीर'। आस्तिक वह नहीं है जो इस पाखंड में उलझा रहता है कि पानी से भरा लोटा दाहिने हाथ से पिएं या बाएं हाथ से। इनसे बेहतर तो ऐसे नास्तिक हैं जो स्वयं अच्छे ढंग से जीते हैं और जरूरतमंदों के काम आते हैं। भगवान सुदामा को मित्र बनाते हैं और झूठी पत्तलें उठाते हैं।
प्रभु के प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए कि उसने करुणा के सदुपयोग का अवसर दिया है। दरिद्रों की सेवा करते समय यह भाव भी मन में नहीं आना चाहिए कि हम सेवा कर रहे हैं। लेने का भाव हमारे मन में इतनी गहराई तक पैठ गया है कि हम प्रेम, माधुर्य, समता और करुणा आदि गुणों से दूर होते जा रहे हैं। दीन को केवल मुस्कान दे दो तो वह धन्य हो जाएगा। जिसके दिल में सेवा का जच्बा नहीं है उस पर खुदा रहम नहीं करता।
10--हमारा शरीर विनाशी है,जबकि आत्मां अविनाशी है
शरीर विनाशी और आत्मा अविनाशी है। यही शाश्वत सत्य है। ऐसा जानकर आत्म तत्व की ही उपासना करनी चाहिए। उपनिषदों में कहा गया है कि आत्म-मंथन करना चाहिए। आत्मसाक्षात्कार और भगवत दर्शन ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। इस परम लक्ष्य से सांसारिक कर्तव्यों की कोई असंगति नहींहै। ऐसा नहीं है कि इसके लिए घर-बार छोड़ना आवश्यक है। आशय यह है कि संसार में रहते हुए सांसारिक कार्र्यो और अपने लौकिक दायित्वों का निर्वाह करना जरूरी है।
अपने सांसारिक दायित्वों को पूरा करने में यदि हम असफल रहते हैं तो हम अपने आध्यात्मिक दायित्व का निर्वहन भी नहीं कर सकेंगे। इसके लिए आवश्यकता मात्र यह है कि ऐसे कार्र्यो से हमारी किसी तरह की आसक्ति (लगाव) न हो। आसक्ति का अभाव ही तो मुक्ति है। दुख का कारण हमारी अनंत इच्छाएं ही तो हैं। जब इच्छाएं पूरी नहीं होतीं तब हम दुखी हो जाते हैं। प्रयास करके इच्छाओं को कम करना चाहिए। संसार के समस्त पदार्थ विनाशी हैं। अविनाशी तो केवल आत्मा है।
यह आत्मा ही है, जिसके लिए कहा गया है कि शरीर के नष्ट हो जाने पर भी यह नहीं मरती। साधकों को इस जीवन में ही सचेत होकर निरंतर आत्म-चिंतन करना चाहिए। जीवन की समापन बेला आने से पहले ही प्रभु प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करें। प्रभु से प्रार्थना करें कि 'हे ईश्वर! मेरा मन आपके चरणों में लग जाए।'1जीवन में सत्कर्र्मो को अपनाएं। पाप कर्र्मो से विमुख हो जाएं। कर्म सिद्धांत अटूट है।
किए गए अपराधों के दुष्परिणामों को तो भुगतना ही होगा। इसलिए प्रयास करना चाहिए कि गलत आचरण न हो। किसी को मत सताइए, किसी को मत पीड़ा दीजिए। चेत जाइए। अभी समय है। समय रहते ही स्वयं को सुधार लेना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। समय बर्बाद करने पर दुखी होने से कुछ नहीं होगा। प्राण जाने से पहले ही सुधार किया जाना अपेक्षित है। अंतकाल में अचानक कुछ भी न हो सकेगा। तैयारी अभी से होनी चाहिए। शुभ संकल्प अभी से जगाने होंगे। संतों ने संदेश दिया है कि अच्छे कार्य करते रहें। भक्ति, ध्यान का मार्ग अपनाएं। आराधना द्वारा भगवान को अपना बनाएं। आपकी मुक्ति सुनिश्चित है।
11- आत्मा और मन के संयोग से इच्छाशक्ति बनती है
इच्छाशक्ति आत्मा और मन का संयोग। जीवन में सफलता और विफलता के निर्णायक तत्वों में इच्छाशक्ति का स्थान सर्वोपरि है। इच्छाशक्ति के माध्यम से व्यक्ति असंभव लगने वाले कार्यो को संभव बना सकता है। इच्छाशक्ति के अभाव में व्यक्ति सब कुछ होते हुए भी दुर्भाग्य का रोना रोता रहता है। इच्छाशक्ति का अभाव जीवन की विफलताओं और संकटों का मूल कारण है। इसके रहते व्यक्ति छोटी-छोटी आदतों व वृत्तियों का दास बनकर रह जाता है।
छोटी-छोटी नैतिक व चारित्रिक दुर्बलताएं जीवन की बड़ी-बड़ी त्रसदियों को जन्म देती हैं। इच्छाशक्ति की दुर्बलता के कारण ही व्यक्ति छोटे-छोटे प्रलोभनों के आगे घुटने टेक देता है और उतावलेपन में ऐसे-दुष्कृत्य कर बैठता है कि बाद में पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता। जीवन की इस मूलभूत त्रासदी की स्वीकारोक्ति महाभारत में दुर्योधन के मुख से भगवान श्रीकृष्ण के सामने होती है- 'धर्म को, क्या सही है, इसको मैं जानता हूं, किंतु इसे करने की ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। इसी तरह अधर्म को, जो अनुचित व पापमय है, इसको भी मैं जानता हूं, किंतु इसको करने से मैं नहीं रोक सकता।
' दुर्योधन की इस स्वीकारोक्ति में मानवीय इच्छाशक्ति की दुर्बलता व विफलता का मर्म निहित है। जीवन की सफलता के लिए एकमात्र रास्ता इच्छाशक्ति का विकास रह जाता है। इसके विकास से पूर्व प्रथम यह जानना उचित होगा कि इच्छाशक्ति है क्या? दर्शनकार की भाषा में यह माया यानी प्रकृति से संयुक्त होने वाली आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। स्वामी विवेकानंद के शब्दों में- इच्छाशक्ति आत्मा और मन का संयोग है।
व्यवहारिक जीवन में इच्छाशक्ति मन की वह रचनात्मक शक्ति है, जो निर्णित क्त्रिया को एक निश्चित ढंग से करने की क्षमता देती है। इच्छाशक्ति के विकास के संदर्भ में दूसरा तथ्य यह है कि इसको प्रत्येक व्यक्ति द्वारा बढ़ाया जा सकता है। इच्छाशक्ति के विकास में एकाग्रता बहुत सहायक है। हम जो भी कार्य करें, उसे पूरे मन से करें। इससे इच्छाशक्ति के विकास में बहुत सफलता मिलेगी। साथ ही ऐसे कार्यो से बचें, जिनमें ऊर्जा अनावश्यक क्षय होती है।
स्पष्ट है, जब आप आत्मजागरण, आत्म-विकास व ईश्वरभक्ति में संलग्न होंगे, उतना ही इच्छाशक्ति के विकास का पथ प्रशस्त होता जाएगा और उतना ही हमारा जीवन सुख, शांति व सफलता से परिपूर्ण होता जाएगा।
12-नियमित साधना के द्वारी ही आध्यात्मिक अनुभूति होती है
मन का मापदंड। मनुष्य जब भी किसी छोटे या बड़े मुद्दे या वस्तु के विषय में कोई निर्णय लेने का प्रयास करता है तो वह प्राय: भूल कर बैठता है। चूंकि वर्तमान संदर्भ में सवाल यह है कि मानव मन सीमित है इसलिए उसका निर्णय सही कैसे हो? इस प्रकार जहां तक मनुष्य के मापदंड का प्रश्न है, उसके विषय में विचारने पर आप यह बात दर्ज करेंगे कि मनुष्य के मापदंड का आधार ही अत्यंत सीमित है।
किसी जलाशय को हम अपने हाथों के मापदंड से नापने में समर्थ होते हैं, किंतु यदि हम किसी समुद्र को उसी प्रकार नापना चाहें तो हम असहाय हो जाएंगे। मान लें कि जलाशय अगर समुद्र से भी गहरा हो तो उसको माप सकना हमारे लिए असंभव हो जाएगा। मनुष्य के माप की परिधि में जो है वह यदि बहुत बड़ा हो तो संस्कृत में हम उसे 'विशाल' कहेंगे।
जैसे हिमालय बहुत ही बड़ा है, पर उसे भी मापा जा सकता है। हम कहते हैं कि वह पूर्व से पश्चिम तक इतने मील लंबा है, उत्तर से दक्षिण तक इतने मील तक चौड़ा है, पर मनुष्य के छोटे मापदंड से मन की सीमित शक्ति की सहायता से और छोटे मापक यंत्र के द्वारा जिसे मापना असंभव हो उसे 'वृहत्' कहते हैं । इसी कारण ईश्वर को वृहत् कहा जाता है, क्योंकि उन्हें मापने में मनुष्य का मन असमर्थ रह जाता है। उन्हें मापे जाने के बाद मन लौटकर कह उठता है-'नहीं, मैं माप नहीं सका।' इसी को कहा जाता है 'वृहत्'। वह कुछ ऐसे भी हैं कि जो भी उनके निकट जाता है, वह भी बहुत बड़ा हो जाता है।
जो उनका ध्यान करते हैं उन्हें भी वह अपने समान बना लेते हैं। वह उन्हें अपना बना लेते हैं कि उनकी अपनी पृथक सत्ता रहती ही नहीं। इसी कारण उन्हें कहा जाता है 'विपुल'। विपुल हैं, इस कारण ही वह ब्रह्म हैं। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि वह अपने नाम की मर्यादा बनाए रखना चाहते हैं तो जो उनका ध्यान करेंगे, जो उनकी कामना करेंगे उसे भी ईश्वर बड़ा बनाने के लिए बाध्य हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि यदि वह ऐसा नहीं करेंगे, तो मैं उनसे कहूंगा, 'दया करके अपना ब्रह्म नाम छोड़ दें।' उन्हें भक्त बृहत् कहते हैं, और साथ ही कहते हैं 'दिव्य'। उस दिव्य शक्ति को पहचानने के लिए आध्यात्मिकअनुभूति की जरूरत है। यह आध्यात्मिक अनुभूति नियमित साधना के द्वारा संभव है।
13-इस युग की हचान है कि एक दूसरे के प्रति संवेदना शून्य होना
संतोष का अर्थ। आज बाजारवाद से प्रभावित होकर भौतिकवाद के प्रति प्रबल आकर्षण इतना विकराल रूप लेता जा रहा है कि वैश्रि्वक स्तर पर मानव मानव के प्रति संवेदनाशून्य हो गया है। अधिकतर मनुष्य केवल बाजारवाद को ध्यान में रखकर ही कार्य-व्यवहार कर रहे हैं। भौतिक उन्नति के लिए केवल अर्थ की ही प्रधानता होने के कारण लोग येन-केन-प्रकारेण अर्थोपार्जन में लिप्त हैं। इसीलिए भ्रष्टाचार का आचरण पनपता जा रहा है।
भारतीय संस्कृति का आधार रखने वालों ने बहुत सोच-विचार के बाद और अनुभवों के आधारपर भौतिक संपन्नता के लिए मृग-मरीचिका की तरह माया-मोह व तृष्णा से परे रहकर अपना जीवन आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होने का आग्रह किया है। आज व्यक्ति असीमित इच्छाओं की पूर्ति के लिए असंतोष का जीवन जी रहा है। वह भूल रहा है कि सभी इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति संभव नहीं होती। एक इच्छा की पूर्ति होने पर अनेक पूरक-इच्छाएं पनपने लगती हैं। इसीलिए व्यक्ति को संतोषी होना चाहिए। कहा गया है कि संतोष ही परम सुख है। धर्म के बगैर धन का सही उपयोग नहीं हो सकेगा। धर्म हमें मर्यादित होकर जीना सिखाता है। इस प्रकार मेहनत से कमाया धन अधिक सुख, शांति व संतोष प्रदान करता है।
प्रख्यात विचारक आचार्य चाणक्य ने संतोष को परिभाषित करते हुए बताया है कि हमें किन पर संतोष करना चाहिए और किन पर संतोष नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा है, अपने भोजन और अपने धन पर जितना, जो कुछ, जैसा है, उस पर संतोष करने से हमें आनंद और सुख मिलेगा।' संतोष जहां हमारे लिए आनंद का सागर है, वहीं आचार्य चाणक्य ने एक संदर्भ विशेष में असंतोष करना भी स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है-विद्या, जप और दान करने में संतोष नहींकरना चाहिए। हमने थोड़ा ही अध्ययन किया, थोड़ी ही परमेश्वर की भक्ति की और कुछ ही दान दिया तो ये संतोष के कारक न बनें।
इन तीन उपादानों पर असंतोष रहा तो हमारा ज्ञानार्जन के प्रति, भगवत् भक्ति के प्रति और असहाय, दुखी व जरूरतमंदों के प्रति दान देने की प्रवृत्ति बनी रहेगी। जीवन में संतोष करते हुए संतुष्ट रहना ही श्रेयस्कर है।
14-प्रेम आत्मविश्वास से ही जागृत होता है
आत्मविश्वास। आज हर आदमी सुख की खोज में लगा है और उस थके-हारे इंसान के संदर्भ में दार्शनिक खलील जिब्रान को पढ़ना अच्छा लगता है। जिब्रान लिखते हैं, 'मैं भी कहता हूं कि जीवन सचमुच अंधकारमय है, यदि आकांक्षा न हो। सारी आकांक्षाएं अंधी हैं, यदि ज्ञान न हो। सारा ज्ञान व्यर्थ है, यदि कर्म का ज्ञान न हो। जब तुम प्रेम से प्रेरित होकर कर्म करते हो तब तुम स्वयं से बंधते हो, एकदूसरे से बंधते हो, भगवान से बंधते हो।' जिब्रान के इस कथन में प्रेम का निहितार्थ आत्मविश्वास से है। इसी आत्मविश्वास के बल पर हम वह सब कर सकते हैं जो हम करना चाहते हैं।
मैं अच्छा आदमी तभी बन सकता हूं, यदि मुझमें आत्मविश्वास है। दृढ़ निश्चय है। साहसपूर्ण निर्णायक क्षमता है। आशावादी दृष्टिकोण है। सकारात्मक सोच है। उत्साही मन है। ऊर्जस्वी पराक्रम है। मैं दुख में से सुख खोज लेना चाहता हूं और ऐसा सोचते हुए, आत्मविश्वास से भरकर सचमुच सुख खोज लेता हूं। आज का आदमी समय के साथ चले, लेकिन उसे बुरे आचरण को छोड़कर अच्छी जिंदगी का सपना देखने का हक है।
सोचना यह है कि हम गहराई में जमे बैठे संस्कारों को कैसे सुधारें? जड़ों तक कैसे पहुंचें? जड़ के बगैर सिर्फ फूल-पत्तों का क्या मूल्य? पतझड़ में फूल-पत्ते सभी झड़ जाते हैं, मगर वृक्ष कभी इस वियोग पर शोक नहीं करता। उसके पास जड़ की सत्ता सुरक्षित है, जिससे वसंत आने पर पुन: वृक्ष फूल-पत्तों से लहलहा उठते हैं। आज हमें भी आत्मविश्वास को मुकाम तक पहुंचाने के लिए मूल्यों को स्वयं में सहेजना होगा, बाहरी अवधारणाओं को बदलना होगा, जीने की दिशा को मोड़ देना होगा। तभी बंधन ढीले पड़ेंगे और निर्माण का रास्ता साफ-सुथरा बन सकेगा। अंधेरा तभी तक डरावना है जब तक हाथ दीये की बाती तक न पहुंचे।
आप एकदम से अपने आत्मविश्वास को प्राप्त नहीं कर सकते। अपने आप को अपना भविष्य निर्माता मानिए और फिर कार्य की शुरुआत कर दीजिए। अपने भविष्य की कल्पना कीजिए। सोचिए कि आज से एक वर्ष बाद, दो वर्ष बाद या पांच वर्ष बाद आप कहां पहुंचना चाहते हैं। जहां आपको मनचाही सफलता और जिंदगी हासिल हो। आपको यह मानना होगा कि आप बदल सकते हैं और उस बदलाव के लिए आपके पास पर्याप्त आत्मशक्ति है। एक चीनी कहावत है कि महापुरुषों में आत्मविश्वास होता है और दुर्बलों की केवल इच्छाएं।
15-प्रेम ही तो परमेश्वर है
प्रेम ही संसार में प्रेरक शक्ति है, जो निरंतर स्फूर्त रखता है और बड़े से बड़ा काम करने को प्रेरित करता है। यही प्रेम सर्वव्यापी होकर ईश्वर का रूप ले लेता है। स्वामी विवेकानंद का चिंतन.. विवेकानन्द के अएनुसार प्रेम सर्वसाक्षी, सर्वव्यापी और सर्वत्र है। चेतन और अचेतन में, व्यष्टि और समष्टि में यही भगवत्प्रेम आकर्षक शक्ति के रूप में प्रकट होता है।
संसार में यही एक प्रेरक शक्ति है। इसी प्रेम की प्रेरणा से ईसा मानव जाति के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करता है और बुद्ध एक प्राणी तक के लिए, माता अपनी संतान के लिए और पुरुष स्त्री के लिए कुछ भी कर सकता है। इसी प्रेम की प्रेरणा से मनुष्य अपने देश के लिए प्राण निछावर करने को उद्यत रहते हैं। संसार की यह प्रेरक शक्ति प्रेम निर्लेप और सभी में प्रकाशमान है। इसके बिना संसार क्षण भर में चूर्ण होकर नष्ट हो जाएगा। यह प्रेम ही परमेश्वर है।
'पति से कोई पत्नी पति के लिए प्रेम नहीं करती, वरन पति में जो आत्मा है, उसी के लिए वह प्रेम करती है। कोई पति पत्नी से पत्नी के लिए नहीं, वरन उसमें जो आत्मा है, उसके लिए प्रेम करता है। कोई किसी भी चीज पर केवल आत्मा को छोड़कर और किसी अन्य बात के लिए प्रेम नहींकरता। (वृहदारण्यकोपनिषद)।' यह भी उसी प्रेम का ही एक रूप है। इस खेल को छोड़कर अलग खड़े हो जाओ, उसमें अपने को शामिल न करो, वरन इस अद्भुत दृश्य को, इस अपूर्व नाटक को, एक के बाद दूसरे अंक के अभिनय को देखते चलो और इस अद्भुत स्वर-संगति को सुनते जाओ। सभी उसी प्रेम की अभिव्यक्तियां हैं।
स्वार्थपरायणता में भी वही आत्मा या 'स्व' अनेक हो जाता है और बढ़ता ही जाता है। वही एक आत्मा मनुष्य का विवाह हो जाने पर दो आत्मा और बच्चे पैदा होने पर अनेक आत्मा हो जाएगी। वही पूरा गांव हो जाएगा, शहर हो जाएगा और फिर भी बढ़ता ही जाएगा, जब तक कि वह सारी दुनिया को आत्मस्वरूप अनुभव न करने लगे। वही आत्मा अंत में सभी पुरुषों, सभी स्त्रियों, सभी बच्चों, सभी जीवधारियों, यहां तक कि समग्र विश्व को अपने में ढक लेगा। वही सामान्य प्रेम आगे चलकर बढ़कर सर्वव्यापी प्रेम अर्थात अनंत प्रेम का स्वरूप धारण कर लेगा और वही प्रेम ही तो ईश्वर है।
16-सफलता के लिए कठिन तप जरूरी है
तप के आयाम। जीवन में कठिन तप के बिना सफलता नहीं मिलती। तप का सीधा सा अर्थ है-तपना। ठीक वैसे ही जैसे सोना आग में तप कर कुंदन बनता है। तभी तो इस देश के सिद्ध-साधकों और ऋषि-मुनियों ने तप के सहारे जीवन में परम लक्ष्य की प्राप्ति की। सत्य के महान खोजियों ने तप को एक दर्शन माना। तप एक कठोर साधना है। इस साधना के अंतर्गत तप मनुष्य करता है और सिद्धि परमात्मा देता है। अध्यात्म में तप के विविध आयामों की चर्चा की गई है। कहा गया है कि अपने जीवन के दीपक को तपस्या से प्रकाशित करो। तप के भी कई प्रकार हैं। बहुत से लोग शरीर के तप को महत्व देते हैं।
जो सच्चा साधक है वह तपस्वी होगा ही। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसके जीवन में तप स्वत: बस जाता है। वह दुविधा में भी हर कार्य सुविधा से करता है। उसके आभामंडल का तो कहना ही क्या। देश को राजनीतिक आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी तप को जीवन में प्रमुखता दी।
जहां गांधीजी सत्याग्रह कर रहे थे वहीं भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसे तपस्वी क्त्रांतिकारी आजादी की अलख जगा रहे थे। गौतम बुद्ध ने करुणा को साधा और महावीर ने अहिंसा को साधा। लोग उनकी तपश्चर्या की चर्चा आज भी करते हैं। सदाचरण की साधना दैहिक तप है। वैचारिक रूप से पवित्र रहना मानसिक तप है। एक तप वाणी का भी है। जो कहा वह सोच-समझकर। जो तपस्वी होता है उसका जीवन संतुलित होता है, परंतु अफसोस कि कई बार कुछ तथाकथित लोग इसका भी आडंबर रचकर समाज से छलावा करते हैं। ऐसे लोगों से सतर्क व सजग रहने की आवश्यकता है।
भारत का स्वाधीनता संग्राम हम परम तपस्वियों के तप से जीत सके। तप कठोर व अनवरत साधना के बाद ही फल देता है। प्रभु श्रीराम 14 वर्षो तक वन में रहे और आसुरी शक्तियों को हराने के लिए तप किया। यह उत्कृष्ट तप है। मनुष्य जीवन में तप का संबंध भी जन्म-जन्मांतरों से होता है। भगवान श्रीराम तो कहते हैं कि एक साधक की साधना को मैं जन्म-जन्मांतर तक निरंतरता प्रदान करता हूं। प्रभु तो हम पर हर पल कृपा बरसाने को तैयार बैठे हैं, लेकिन हम अपने जीवन को सही तरीके से साधें तो।
आप अगर ऐसा नहीं देख पा रहे हैं तो इसके लिए स्वयं जिम्मेदार हैं। उत्सवी भक्ति परमात्मा से मिलाती है। शास्त्र की बुद्धिविलासी चर्चाओं में वह नहीं है। जब भावविभोर होकर भक्त नाचता है तभी भगवान प्रकट होते हैं। भक्ति में अद्भुत शक्ति होती है। यह भक्ति ईश्वर को भी प्रभावित करती है और उन्हें भक्त को गले लगाने के लिए मजबूर कर देती है। सच्चे मन से की जाने वाली भक्ति कभी निष्फल नहीं जाती। ईश्वर उनकी अवश्य सुनता है जो उसे साफ मन से याद करते हैं।
सच्चा भक्त मिल गया तो समझे कि भगवान तुरंत मिलने वाले हैं। जब तक हृदय की वीणा नहीं बजेगी तब तक परमात्मा समझ में नहीं आएगा। धर्म तर्क-वितर्क का विषय नहीं है। जैसे भोगी शरीर में उलझा रहता है वैसे बुद्धिवादी बुद्धि में उलझे रहते हैं। अंत में दोनों चूक जाते हैं, क्योंकि भगवान हृदय में है। परमात्मा इतना छोटा नहीं है कि उसे बुद्धि में बांधा जाए। इसलिए परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं है। प्राणों में प्रेम के गीत उठते ही वह भक्त के पास दौड़ा चला आता है।
हम उसके पास जा भी तो नहीं सकते, क्योंकि यात्रा बहुत लंबी है और हमारे पैर बहुत छोटे हैं। बिना पता-ठिकाने के जाएं भी तो कहां जाएं? भक्ति प्यास है। जब धरती भीषण गरमी में प्यास से तड़पने लगती है तभी बादल दौड़े हुए आते हैं और उसकी प्यास बुझाते हैं। इसी तरह जब भीतर विरह की अग्नि जलेगी तभी प्रभु की करुणा बरसेगी। छोटा शिशु जब पालने पर रोता है तो मां सहज ही दौड़ी चली आती है। इसी तरह भक्त के भजन मेंऐसी ताकत होती है कि भगवान अपने को रोक नहीं सकते। आखिर सारे भजन तो तड़पते भक्त के आंसुओं की ही छलकन हैं।
2-हमारा आत्मबल हमें बुराई व विघ्न-बाधाओं से बचाता
आत्मबल एक ऐसा गुण है जो हमारे पुरुषार्थ को जाग्रत रखता है। यह गुण मुश्किल क्षणों में ऊर्जा का स्नोत साबित होता है। आत्मबल हमें हर बुराई और विघ्न-बाधाओं से बचाता है। कहते हैं कि मरणासन्न शरीर में भी नवजीवन का संचार कर दे, ऐसी अमृत बूंद है-आत्मबल। सच तो यह है कि जहां कोई प्राणी हमारा सहायक नहीं होता वहां हमारा आत्मबल हमें सहारा देता है। यह हमें न सिर्फ दृढसंकल्पी और साहसी बनाता है, बल्कि जीवन-संग्राम में जीतने की अदम्य इच्छाशक्ति भी प्रदान करता है। यह हमें न सिर्फ अच्छे कर्म करने की ओर प्रेरित करता है, बल्कि हमें प्रतिकूल परिस्थितियों से निकलने की हिम्मत भी देता है।
यह हमारा ऐसा बलवान साथी है, जो जीवन के घनघोर अंधेरे से भी हमें बाहर निकाल सकता है। आत्मबल जिसका साथी है वह कभी कमजोर नहीं पड़ता। हार की निराशा उनके दिलों पर राज नहीं कर पाती। ऐसे लोग अपने आत्मबल की वजह से देश और दुनिया पर राज करते हैं। इसके विपरीत आत्मबलहीनता बहुत ही खतरनाक रोग है, जो हमें कमजोर ही नहीं करता, बल्कि दूसरों के समक्ष दब्बू भी बना देता है। इसलिए हमें इससे बचना चाहिए और अपने आत्मबल को बरकरार रखना चाहिए। आत्मबल से ओत-प्रोत व्यक्ति किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति को अपने अनुरूप बदल देने की सामर्थ्य रखता है।
आत्मबल मानव में सात्विक गुणों का विकास कर उसे स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देने के लिए साहस बंधाता है और ईश्वर की ओर उन्मुख करता है। आत्मबल का औचित्य भी इसी में है कि व्यक्ति ईश्वरोन्मुख हो जाए। परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, हम सबको हरदम आत्मबल के माध्यम से आगे बढ़ने का प्रयास करते रहना चाहिए। समस्याओं और परेशानियों से कतई घबराना नहीं चाहिए।
हम यदि इन समस्याओं पर विजय पा लेंगे तो हमारा आत्मविश्वास बढ़ेगा और हमें आत्मसंतुष्टि भी प्राप्त होगी। किसी समस्या को भार या परेशानी समझना हमारी कायरता है, जो हमें असफलता के पथ की ओर उन्मुख करती है। यदि हम परेशानियों और समस्याओं पर हमला कर उनके सम्मुख डटे रहेंगे, तब हमारी आर्थिक और नैतिक उन्नति अवश्य होगी। हम जीवन की सामान्य स्थिति से ऊपर उठ जाएंगे और सब लोग हमें पहले से कहीं ज्यादा आदर-सम्मान देंगे। समस्या के वक्त हमें धैर्य और साहस से कार्य लेना चाहिए।
3-दिव्य भूमि को ही तीर्थ कहते हैं
जब कभी इस असीम ब्रह्मांड में ऊर्जा का संग्रह किया जाता है और जब किसी स्थान पर उसे केंद्रित कर दिया जाता है तो वह स्थान दिव्य बन जाता है। इन्हीं दिव्य स्थानों पर दिव्य आत्माओं का अवतरण होता है। इसलिए ऐसे स्थानों को दिव्यभूमि, तीर्थस्थल या तीर्थस्थान कहा जाता है। कोई भी महापुरुष साधना से अनंत परमात्मशक्ति प्राप्त कर लेता है। वह संसार में व्याप्त दिव्य शक्तियों को एकत्रकर उन्हें अपने शरीर में केंद्रित कर लेता है और फिर वह अपनी शक्ति को निकटवर्ती वातावरण में प्रसारित करता है।
इसीलिए हमारे देश में जहां कहीं भी तीर्थस्थान हैं वहां का वातावरण वृक्ष आदि सब कुछ ऊर्जावान बन जाते हैं। उनमें दिव्यता का बोध होने लगता है। जैसे भगवान बुद्ध की साधना से गया का बोधिवृक्ष, साईंबाबा के आश्रम के निकट स्थित मीठे नीम का पेड़ आदि। इसी तरह महावीर ने जहां साधना की उसे अहिंसा क्षेत्र कहते हैं। उस स्थान के प्रभाव के कारण हिंसक जीव भी वहां पर अहिंसक बन गए थे। देश में ऐसे कई स्थानों पर ऊर्जा क्षेत्रों से परिपूर्ण तीर्थस्थल हैं।
तीर्थ का एक अर्थ सामान्य तौर पर यह भी है-वह स्थान जहां की भूमि, पेड़, पौधे, नदी-झरने आदि दिव्य ऊर्जा से ओत-प्रोत हो गए हों। इसलिए जब कभी हम देवभूमि में प्रवेश करते हैं तो हमारे जड़ता मूलक अज्ञान को झटका लगता है। हमारा तन-मन वहां की दैवीय ऊर्जा से प्रभावित होने लगता है। शायद ऐसा हर जगह नहीं होता है, लेकिन यदि आप काशी विश्वनाथ मंदिर, वैष्णोमाता, अमरनाथ, केदारनाथ, या अजमेर शरीफ आदि स्थानों पर जाएं तो निश्चित ही वहां का वातावरण हमें प्रभावित करने लगता है। हम तुरंत बदल जाते हैं। हम वह नहीं रहते हैं जो पहले थे। गुरुस्थान भी ऐसा ही होता है। वहां से लौटने पर हमारे अंदर कुछ न कुछ रूपांतरण होता ही है। ऐसी अवधारणा है कि जिन स्थानों पर हमारे तीर्थस्थान या मंदिर हैं, उन स्थानों पर प्राचीनकाल में कभी दिव्यशक्तियों का वास था। पवित्र देवभूमि से, उसके मूल स्थान से आज भी मिट्टी लाने का प्रचलन है।
4-भक्त सेवक,और सेवक का स्वामी के प्रति समर्पण
भक्त का अर्थ है-सेवक। सेवक का अर्थ है-स्वेच्छा से स्वामी के प्रति समर्पण। प्रेम, आनंद और प्रसन्नता के कारण जब कोई भक्त अपने स्वामी के प्रति समर्पित हो जाता है तो वह सेवक हो जाता है। उसे ही धर्मग्रंथों में सच्चा भक्त, सेवक या दास कहते हैं। रामचरितमानस में सेवक के धर्म को सबसे कठिन बताया गया है। सेवक की अपनी कोई इच्छा नहीं होती। वह अपने मालिक की इच्छा को सर्वोपरि मानता है। भक्त तो प्रतिपल अपने स्वामी की कृपा के लिए इंतजार करता है। वह हर पल रोम-रोम से धन्यवादी और अहोभाव से, कृतज्ञता से परिपूर्ण होता है। भक्त कभी विभक्त नहीं हो सकता। उसकी भक्ति में कमी नहीं आती।
तत्वज्ञानी भक्त जीव, जगत और ब्रह्म के भेद को समझता है। वह जानता है कि इस सृष्टि से पार जाने के लिए, माया को लांघने के लिए मायापति प्रभु की वरण-शरण में जाना ही पड़ेगा। भक्त संसार की नश्वरता और ब्रह्म की शाश्वतता को जानता है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि उसे ही जागा हुआ जानना जिसमें वीतरागता पैदा हो चुकी हो। जिसने जान लिया कि हर विषय-भोग के पीछे 'विष' छिपा है। भक्त के पास तो अपने आराध्य प्रभु के लिए प्रेम-पुष्प ही होता है।
वह अपने हृदय मंदिर में उस प्रभु को बिठाकर अपने अहंकार का सदैव परित्याग करना चाहता है। प्रेम ही भक्त है, प्रेम ही पूजा-अर्चना है। प्रेम के सामने प्रभु को भी झुकना पड़ता है। भक्त तो हर पल प्रार्थना करता है और कहता है- हे प्रभु! आप अंतर्यामी हैं, आप हमारे हर भाव-कुभाव को जानते और समझते हैं। अपने प्रकाश स्वरूप से हमारे अंदर छिपे अज्ञान, अंधकार और असत्य को दूरकर हमें ज्ञानी, प्रकाशवान और सत्य संकल्पी बनाएं। हमें विवेक प्रदान करें।
जब ऐसी प्रार्थना भक्त करता है तो प्रभु उसकी पुकार जरूर सुनते हैं। परमपिता परमेश्वर पर पूर्ण भरोसा ही भक्ति है। भगवान भी भक्तों के बीच ही रहते हैं। जहां उनके नाम का गुणगान होता है। भक्ति आती है, तो संतुष्टि भी स्वयं आ जाती है। भक्त विनम्रता, सरलता, सहजता की साक्षात प्रतिमूर्ति होता है। जो भक्त हैं वे सदैव उस सर्वव्यापक परमात्मा के परमपद का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं। भक्त ऐश्वर्य में भी ईश्वर को नहीं भूलता।
5-भगवान तो हमेशा भाव के भूखे रहते हैं
जीवन में हमें जो कुछ मिला है, वस्तुत: वह हमारे कर्मो का फल होता है, परंतु जब हम उसे प्रभु का दिया हुआ प्रसाद मानकर ग्रहण करते हैं तो बात कुछ और होती है। हमारा हर कर्म पूजा बन जाता है। यही बात भोजन के संदर्भ में भी लागू हो सकती है। कोई चीज जब हम खाने से पहले भगवान को चढ़ाकर यानी अर्पित करके खाते हैं तो वह भोजन भी प्रसाद बन जाता है। इसलिए जो भगवान के भक्त होते हैं वे भोजन से पहले कहते हैं-हे प्रभु, तुम्हारी दी हुई वस्तु पहले मैं तुम्हें समर्पित करता हूं। और भला वे ऐसा क्यों न करें, क्योंकि हमें यह जो मानव शरीर मिला है वह उसका दिया हुआ ही तो है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि कोई भक्त यदि प्रेमपूर्वक मुझे फल-फूल, अन्न, जल आदि अर्पित करता है तो उसे मैं प्रेमपूर्वक सगुण रूप में प्रकट होकर ग्रहण करता हूं।
भक्त की यदि भावना सच्ची हो, श्रद्धा और आस्था प्रबल हो तो भगवान उसके भोजन को अवश्य ग्रहण करते हैं। जैसे उन्होंने शबरी के बेर खाए, सुदामा के तंदुल (चावल) खाए, विदुरानी का साग खाया। प्रभु की कृपा महान है। उसकी कृपा से जो कुछ भी अन्न-जल हमें प्राप्त होता है, उसे प्रभु का प्रसाद मानकर प्रभु को अर्पित करना, कृतज्ञता प्रकट करने के साथ एक मानवीय गुण भी है। कुछ लोग यह प्रश्न भी करते हैं कि जब भगवान चढ़ाया हुआ प्रसाद खाते हैं तो घटता क्यों नहीं? उनका कथन भी सत्य है।
जिस प्रकार फूलों पर भौंरा बैठता है और फूल की सुगंध से तृप्त हो जाता है, किंतु फूल का वजन नहीं घटता उसी प्रकार प्रभु को चढ़ाया प्रसाद अमृत होता है। प्रभु व्यंजन की सुगंध और भक्त के प्रेम से तृप्त हो जाते हैं। वे भाव के भूखे हैं, भोजन के नहीं। जैसे एक मां बच्चे को कुछ खाने को दे और बच्चा उसे तोतली भाषा में सिर्फ पूछ भर दे तो मां उसे सीने से लगा लेती है। इसी प्रकार भगवान भी तृप्त होते हैं, प्रसन्न होते हैं और अपनी कृपा बरसाते हैं। यह मानव शरीर भी उसकी अनंत कृपा से प्रसाद स्वरूप मिला है। हमें ईश्वर की इस कृपा को कभी नहीं भूलना चाहिए। जब हम इसकी सार्थकता को समझेंगें, तभी जीवन धन्य होगा।
6-धन दौलत के बजाय चरित्र सही हो
चरित्र का निखार। मौजूदा दौर में व्यक्ति जल्द से जल्द सुख-सुविधाओं की प्राप्ति की लालसा के कारण अनेक समस्याआें और परेशानियों से जूझ रहा है। ये समस्याएं लोगों के चरित्र को प्रभावित करती हैं। ऐसे में अधिकतर व्यक्ति समस्याओं और परेशानियों के दबाव में अपने चरित्र को दांव पर लगा देते हैं और अपने कदमों को गलत मार्ग पर मोड़ लेते हैं। अनुचित व गलत मार्ग सहज-सीधा नजर आता है, जो सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है।
यह मार्ग ऐसा होता है जिसमें व्यक्ति को अधिक मेहनत व प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन वह व्यक्ति के सबसे कीमती गुणों व चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है। जिंदगी में समस्याओं और परेशानियों का भी एक अनूठा महत्व है। यदि व्यक्ति साहस, धैर्य और ईमानदारी से परेशानियों का मुकाबला करे तो वह न सिर्फ अपनी परेशानियों को दूर भगाता है, बल्कि सफलता को भी अपने जीवन का एक अंग बना लेता है। ऐसे में उसका चरित्र और अधिक निखर उठता है।
जिस प्रकार सोना आग में तप कर और अधिक निखरता है, उसी तरह चरित्र भी कठिन परिस्थितियों और संघर्ष का सामना करते हुए अधिक निखर आता है। सामान्य परिस्थितियों में तो सभी अपने चरित्र को संभाल कर रखने का दावा करते हैं, लेकिन जब हालात विपरीत हों, उस समय अपनी सूझबूझ, दया और शालीनता को बरकरार रखना अधिक महत्वपूर्ण होता है। एक रूसी कहावत है कि हथौड़ा कांच को तोड़ देता है, पर लोहे का कुछ नहीं बिगाड़ता। इसका तात्पर्य है कि सुदृढ़ और सद्कर्मो पर चलने वाला व्यक्ति अपने चरित्र के साथ कभी समझौता नहीं करता।
कहते हैं कि योग्यता की वजह से सफलता मिलती है और वह चरित्र ही है, जो सफलता को संभालता है। जो सफल व्यक्ति अपने चरित्र को नहीं निखारते सफलता भी उनके पास ज्यादा देर तक नहीं टिकती। ऐसे लोग शीघ्र ही गुमनामियों के अंधेरों में गुम हो जाते हैं। आध्यात्मिक रुझान से न सिर्फ व्यक्ति का चरित्र सुदृढ़ होता है, बल्कि उसके अंदर धैर्य, ईमानदारी, परोपकार आदि सद्गुणों का भी विकास होता है।
वर्तमान समय में चरित्र का मजबूत होना अत्यंत आवश्यक है। चरित्र को बचपन से ही मजबूत बनाया जाए तो व्यक्ति संस्कारों और अध्यात्म की छांव में बड़ा होकर समाज व देश का नाम रोशन करता है। यदि चरित्र सही नहीं है, तो धन-दौलत भी व्यर्थ है।
7-हमारा मन तो परमात्मा की अमानत है
मिथ्या है अभिमान। मानव वही है जो दूसरों के भी काम आए और दूसरों का दुख-दर्द समझे। किसी भी प्रकार से किसी को दुख या कष्ट न पहुंचाए। जो सुखाभिमानी दूसरों को दुख में देखकर प्रसन्न होता है उसे एक दिन स्वयं भी दुखी होना पड़ता है। प्रभु प्रेम में आंसू बरसाने वाले को दुख के आंसू नहीं बरसाने पड़ते। जीवों पर करुणा व दया बरसाएं। पूर्ण रूपेण अहिंसा व्रत का पालन करें। मन की चंचलता को रोकें। मन, परमात्मा की अमानत है। इसे परमात्मा में ही लगाएं। इसे संसार, सांसारिकता, भोग-विलासों में लगाने पर अंतत: दुखी होना पड़ेगा। छोटी-छोटी बातों से अपने प्रेम, एकता व सद्भाव को समाप्त न करें। श्रद्धा व विश्वास से ही अंत:करण में स्थित ईश्वर की अनुभूति कर सकते हैं।
अभिमान प्रभु की प्राप्ति में बाधक है। अभिमान चाहे किसी भी प्रकार (जैसे धन, वैभव, तप और ज्ञान आदि) का क्यों न हो, ठीक नहीं होता। मानव के जीवन पर संगति का प्रभाव अवश्य पड़ता है। इसलिए अच्छा देखें, अच्छा सुनें, अच्छा बोलें, अच्छा विचारें और अच्छी संगति करें। खान-पान व जीवन को सात्विक, शुद्ध और संयमित बनाएं। प्रकृति के नियमों का पालन करें।
शांति को जीवन में प्रमुखता से स्थान दें। अशांत व्यक्ति को कहीं भी सुख नहीं मिलता। सत्य परमात्मा का स्वरूप है। सत्य जहां भी जुड़ेगा वहां विकृति नहीं आएगी। जिसे सदाचारी व्यक्ति का संग मिले उसका जीवन धन्य है। जिसके जीवन में करुणा, क्षमा, उदारता, कोमलता, सेवा, परोपकार, और परमार्थ का भाव है वही संत है। जीना भी एक कला है। गिरना व गिराना बहुत सरल है, परंतु उठना व उठाना उतना सरल नहीं है। स्वयं जागो व औरों को जगाओ, अपने कल्याण के साथ औरों के कल्याण के भी भागीदार बनो।
कठिनाइयों, बाधाओं व परीक्षाओं से न घबराकर निरंतर चलते रहो, जब तक कि आपको आपका लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। लक्ष्यविहीन मानव का जीवन पेंडुलम की भांति है, जो हिलता-डुलता है। धर्म वह अखंड धारा है, जो कभी टूटती नहीं। धर्म वही है जो जीवन में धारण किया जाए। धर्म व परमात्मा को मात्र मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च या सत्संग तक ही सीमित न करें। धर्म को जीवन का अभिन्न अंग बनाएं। धर्म निरंतर सदा-सर्वदा, यत्र-तत्र-सर्वत्र हमारे साथ रहेगा, तभी समाज में आ रही विकृतियों से बच सकेंगे।
8-जैसा संस्कार होगा चलने का मार्ग भी वैसे ही होगा
जीवन का मार्ग। रास्ते तो अनेक हैं, पर किसी एक ही रास्ते से यात्रा कर सकते हैं आप? सभी रास्ते उसी रास्ते में जाकर मिल जाते हैं। सभी रास्ते सबके लिए हैं, जो जिस रास्ते से चल पड़े। जिसका संस्कार जैसा होता है वह उसी रास्ते पर चल पड़ता है। तुम्हें तो वह रास्ता मिल गया है जो तुम्हारा रास्ता है और जो तुम्हारा लक्ष्य है। अगर अब किसी भी चौराहे पर ठहर जाओगे तो तुम्हारा रास्ता भटक जाएगा। तुम्हारी मंजिल भटक जाएगी और तुम्हारी जीवन यात्र कहीं बीच में ही समाप्त हो जाएगी।
रास्ता प्रतीक्षा करता ही रह जाएगा, तुम्हारी मंजिल राह देखती रह जाएगी। तुम्हारा उद्देश्य अधूरा रह जाएगा। यह संसार है। यहां अनगिनत लोग हैं। भिन्न-भिन्न तरह के जीव हैं। तरह-तरह की जातियां हैं। तरह-तरह के विकार हैं। कोई किसी की प्रकृति है, तो कोई किसी का विकार। कहीं मनुष्यों का मेला है तो कहीं पशु-पक्षियों का जमघट। कहीं कीड़े-मकोड़ों की अधिकता है तो कहीं पेड़-पौधों का जंगल। कहीं पानी का सुंदर प्रवाह है, तो कहीं सागर की लहरों का खेल। संसार के सभी लोगों के अपने-अपने क्षेत्र हैं। अपना-अपना संस्कार है। अगर तुम इसका अतिक्रमण करोगे तो भटक कर रह जाओगे।
तुम्हारे आस-पास में एक विराट दुनिया है उस दुनिया में तुम कितनों को जानते हो और अगर सभी को जानने की कोशिश करोगे तो समय साथ नहीं देगा, क्योंकि जिंदगी इतनी लंबी नहीं है। संस्कार भूमि इतनी विराट नहीं है। इस संसार में कुछ ही लोग तुम्हारे हैं। अगर इनसे अधिक और अपेक्षाएं करोगे तो अपेक्षाओं में ही जीवन समाप्त हो जाएगा, भूख बनी की बनी रह जाएगी। इसलिए आज तक आदमी को न सुखी तुमने देखा है और न सुख से प्राण त्यागते हुए किसी व्यक्ति को देखा होगा। कुछ लोग तो ऐसे हैं जो सुख से सो भी नहीं पाते। लोगों को उनका गम खा रहा है। चिंताएं जला रही हैं। वे दुनिया से कहते हैं कि अपने परिवार, अपने बच्चों और समाज के लिए सब कुछ कर रहे हैं, पर इस सबके पीछे उनकी अपनी पद-प्रतिष्ठा और मान अपमान भी जुड़ा हुआ है।
इच्छाओं की पूर्ति की कामनाएं हैं। अगर तुम भी सांसारिक दुखों का शिकार होना चाहते हो तो चल पड़ो अनेक रास्तों पर, तमाम लोगों के साथ। अनेक अपेक्षाओं के साथ। तब देखना कि जिंदगी को क्या मिलता है।
9-भगवान कण-कण में है
किसी घर में नहीं आखिर हमारे लक्ष्मीनारायण भला दरिद्रनारायण कैसे हो सकते हैं? फकीरों के संदेश तो इसी ओर इशारा करते हैं, 'बेबस गिरे हुओं के बीच तू खड़ा था। मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहां चरन में।' दीनबंधु हम पर प्रसन्न तभी होंगे जब हम वंचित लोगों को प्रेम से गले लगाएं और निश्छल भाव से उनकी सेवा करें। दीनों की 'आह' बनकर परमात्मा प्रतिफल हमें पुकारता है और हम हैं कि भव्य मंदिरों में जाकर भजन में उसकी पुकार सुनना चाहते हैं। मंदिर जाना अच्छी बात है, लेकिन जरूरतमंदों की मदद करना भी ईश्वर की अनुभूति करा सकता है।
दुखियों के द्वार पर खड़ा होकर ईश्वर हमारी बाट जोहता है और हम उसे गिरि-कंदराओं में खोजते-फिरते हैं। दुखियों की झोपड़ी में कृष्ण की बज रही वंशी को सुनिए और मजदूरों के पसीने में उसे निहारें। अपने हृदय-द्वार खोलें, यहीं पर उसका दीदार हो जाएगा। भगवान का कोई घर नहीं है। वह सृष्टि के कण-कण में रम रहा है। हम तो दीन-दुखियों को ठुकराकर देवालयों में प्रभु को ढूंढ़ते हैं। प्रभु का असली द्वार दीनों का हृदय है। जिसका कोई नहींहै उसका भगवान है। वह जरूरतमंदों की आह में मिलेगा, भूखों की भूख में मिलेगा और मजलूमों के चीथड़ों में मिलेगा। दुखियों का दिल दुखाना मानो मंदिर को ढहाना है। कमजोरों को दबाना सबसे बड़ा अधर्म है।
संत मलूकदास भी यही कहते हैं। दरिद्र की सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है। आस्तिक वही है, जिसका दिल गरीबों को देखते ही पसीजने लगता है। तभी तो कबीरदास कहते हैं, 'कबिरा सोई पीर है, जो जाने परपीर'। आस्तिक वह नहीं है जो इस पाखंड में उलझा रहता है कि पानी से भरा लोटा दाहिने हाथ से पिएं या बाएं हाथ से। इनसे बेहतर तो ऐसे नास्तिक हैं जो स्वयं अच्छे ढंग से जीते हैं और जरूरतमंदों के काम आते हैं। भगवान सुदामा को मित्र बनाते हैं और झूठी पत्तलें उठाते हैं।
प्रभु के प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए कि उसने करुणा के सदुपयोग का अवसर दिया है। दरिद्रों की सेवा करते समय यह भाव भी मन में नहीं आना चाहिए कि हम सेवा कर रहे हैं। लेने का भाव हमारे मन में इतनी गहराई तक पैठ गया है कि हम प्रेम, माधुर्य, समता और करुणा आदि गुणों से दूर होते जा रहे हैं। दीन को केवल मुस्कान दे दो तो वह धन्य हो जाएगा। जिसके दिल में सेवा का जच्बा नहीं है उस पर खुदा रहम नहीं करता।
10--हमारा शरीर विनाशी है,जबकि आत्मां अविनाशी है
शरीर विनाशी और आत्मा अविनाशी है। यही शाश्वत सत्य है। ऐसा जानकर आत्म तत्व की ही उपासना करनी चाहिए। उपनिषदों में कहा गया है कि आत्म-मंथन करना चाहिए। आत्मसाक्षात्कार और भगवत दर्शन ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। इस परम लक्ष्य से सांसारिक कर्तव्यों की कोई असंगति नहींहै। ऐसा नहीं है कि इसके लिए घर-बार छोड़ना आवश्यक है। आशय यह है कि संसार में रहते हुए सांसारिक कार्र्यो और अपने लौकिक दायित्वों का निर्वाह करना जरूरी है।
अपने सांसारिक दायित्वों को पूरा करने में यदि हम असफल रहते हैं तो हम अपने आध्यात्मिक दायित्व का निर्वहन भी नहीं कर सकेंगे। इसके लिए आवश्यकता मात्र यह है कि ऐसे कार्र्यो से हमारी किसी तरह की आसक्ति (लगाव) न हो। आसक्ति का अभाव ही तो मुक्ति है। दुख का कारण हमारी अनंत इच्छाएं ही तो हैं। जब इच्छाएं पूरी नहीं होतीं तब हम दुखी हो जाते हैं। प्रयास करके इच्छाओं को कम करना चाहिए। संसार के समस्त पदार्थ विनाशी हैं। अविनाशी तो केवल आत्मा है।
यह आत्मा ही है, जिसके लिए कहा गया है कि शरीर के नष्ट हो जाने पर भी यह नहीं मरती। साधकों को इस जीवन में ही सचेत होकर निरंतर आत्म-चिंतन करना चाहिए। जीवन की समापन बेला आने से पहले ही प्रभु प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करें। प्रभु से प्रार्थना करें कि 'हे ईश्वर! मेरा मन आपके चरणों में लग जाए।'1जीवन में सत्कर्र्मो को अपनाएं। पाप कर्र्मो से विमुख हो जाएं। कर्म सिद्धांत अटूट है।
किए गए अपराधों के दुष्परिणामों को तो भुगतना ही होगा। इसलिए प्रयास करना चाहिए कि गलत आचरण न हो। किसी को मत सताइए, किसी को मत पीड़ा दीजिए। चेत जाइए। अभी समय है। समय रहते ही स्वयं को सुधार लेना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। समय बर्बाद करने पर दुखी होने से कुछ नहीं होगा। प्राण जाने से पहले ही सुधार किया जाना अपेक्षित है। अंतकाल में अचानक कुछ भी न हो सकेगा। तैयारी अभी से होनी चाहिए। शुभ संकल्प अभी से जगाने होंगे। संतों ने संदेश दिया है कि अच्छे कार्य करते रहें। भक्ति, ध्यान का मार्ग अपनाएं। आराधना द्वारा भगवान को अपना बनाएं। आपकी मुक्ति सुनिश्चित है।
11- आत्मा और मन के संयोग से इच्छाशक्ति बनती है
इच्छाशक्ति आत्मा और मन का संयोग। जीवन में सफलता और विफलता के निर्णायक तत्वों में इच्छाशक्ति का स्थान सर्वोपरि है। इच्छाशक्ति के माध्यम से व्यक्ति असंभव लगने वाले कार्यो को संभव बना सकता है। इच्छाशक्ति के अभाव में व्यक्ति सब कुछ होते हुए भी दुर्भाग्य का रोना रोता रहता है। इच्छाशक्ति का अभाव जीवन की विफलताओं और संकटों का मूल कारण है। इसके रहते व्यक्ति छोटी-छोटी आदतों व वृत्तियों का दास बनकर रह जाता है।
छोटी-छोटी नैतिक व चारित्रिक दुर्बलताएं जीवन की बड़ी-बड़ी त्रसदियों को जन्म देती हैं। इच्छाशक्ति की दुर्बलता के कारण ही व्यक्ति छोटे-छोटे प्रलोभनों के आगे घुटने टेक देता है और उतावलेपन में ऐसे-दुष्कृत्य कर बैठता है कि बाद में पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता। जीवन की इस मूलभूत त्रासदी की स्वीकारोक्ति महाभारत में दुर्योधन के मुख से भगवान श्रीकृष्ण के सामने होती है- 'धर्म को, क्या सही है, इसको मैं जानता हूं, किंतु इसे करने की ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। इसी तरह अधर्म को, जो अनुचित व पापमय है, इसको भी मैं जानता हूं, किंतु इसको करने से मैं नहीं रोक सकता।
' दुर्योधन की इस स्वीकारोक्ति में मानवीय इच्छाशक्ति की दुर्बलता व विफलता का मर्म निहित है। जीवन की सफलता के लिए एकमात्र रास्ता इच्छाशक्ति का विकास रह जाता है। इसके विकास से पूर्व प्रथम यह जानना उचित होगा कि इच्छाशक्ति है क्या? दर्शनकार की भाषा में यह माया यानी प्रकृति से संयुक्त होने वाली आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। स्वामी विवेकानंद के शब्दों में- इच्छाशक्ति आत्मा और मन का संयोग है।
व्यवहारिक जीवन में इच्छाशक्ति मन की वह रचनात्मक शक्ति है, जो निर्णित क्त्रिया को एक निश्चित ढंग से करने की क्षमता देती है। इच्छाशक्ति के विकास के संदर्भ में दूसरा तथ्य यह है कि इसको प्रत्येक व्यक्ति द्वारा बढ़ाया जा सकता है। इच्छाशक्ति के विकास में एकाग्रता बहुत सहायक है। हम जो भी कार्य करें, उसे पूरे मन से करें। इससे इच्छाशक्ति के विकास में बहुत सफलता मिलेगी। साथ ही ऐसे कार्यो से बचें, जिनमें ऊर्जा अनावश्यक क्षय होती है।
स्पष्ट है, जब आप आत्मजागरण, आत्म-विकास व ईश्वरभक्ति में संलग्न होंगे, उतना ही इच्छाशक्ति के विकास का पथ प्रशस्त होता जाएगा और उतना ही हमारा जीवन सुख, शांति व सफलता से परिपूर्ण होता जाएगा।
12-नियमित साधना के द्वारी ही आध्यात्मिक अनुभूति होती है
मन का मापदंड। मनुष्य जब भी किसी छोटे या बड़े मुद्दे या वस्तु के विषय में कोई निर्णय लेने का प्रयास करता है तो वह प्राय: भूल कर बैठता है। चूंकि वर्तमान संदर्भ में सवाल यह है कि मानव मन सीमित है इसलिए उसका निर्णय सही कैसे हो? इस प्रकार जहां तक मनुष्य के मापदंड का प्रश्न है, उसके विषय में विचारने पर आप यह बात दर्ज करेंगे कि मनुष्य के मापदंड का आधार ही अत्यंत सीमित है।
किसी जलाशय को हम अपने हाथों के मापदंड से नापने में समर्थ होते हैं, किंतु यदि हम किसी समुद्र को उसी प्रकार नापना चाहें तो हम असहाय हो जाएंगे। मान लें कि जलाशय अगर समुद्र से भी गहरा हो तो उसको माप सकना हमारे लिए असंभव हो जाएगा। मनुष्य के माप की परिधि में जो है वह यदि बहुत बड़ा हो तो संस्कृत में हम उसे 'विशाल' कहेंगे।
जैसे हिमालय बहुत ही बड़ा है, पर उसे भी मापा जा सकता है। हम कहते हैं कि वह पूर्व से पश्चिम तक इतने मील लंबा है, उत्तर से दक्षिण तक इतने मील तक चौड़ा है, पर मनुष्य के छोटे मापदंड से मन की सीमित शक्ति की सहायता से और छोटे मापक यंत्र के द्वारा जिसे मापना असंभव हो उसे 'वृहत्' कहते हैं । इसी कारण ईश्वर को वृहत् कहा जाता है, क्योंकि उन्हें मापने में मनुष्य का मन असमर्थ रह जाता है। उन्हें मापे जाने के बाद मन लौटकर कह उठता है-'नहीं, मैं माप नहीं सका।' इसी को कहा जाता है 'वृहत्'। वह कुछ ऐसे भी हैं कि जो भी उनके निकट जाता है, वह भी बहुत बड़ा हो जाता है।
जो उनका ध्यान करते हैं उन्हें भी वह अपने समान बना लेते हैं। वह उन्हें अपना बना लेते हैं कि उनकी अपनी पृथक सत्ता रहती ही नहीं। इसी कारण उन्हें कहा जाता है 'विपुल'। विपुल हैं, इस कारण ही वह ब्रह्म हैं। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि वह अपने नाम की मर्यादा बनाए रखना चाहते हैं तो जो उनका ध्यान करेंगे, जो उनकी कामना करेंगे उसे भी ईश्वर बड़ा बनाने के लिए बाध्य हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि यदि वह ऐसा नहीं करेंगे, तो मैं उनसे कहूंगा, 'दया करके अपना ब्रह्म नाम छोड़ दें।' उन्हें भक्त बृहत् कहते हैं, और साथ ही कहते हैं 'दिव्य'। उस दिव्य शक्ति को पहचानने के लिए आध्यात्मिकअनुभूति की जरूरत है। यह आध्यात्मिक अनुभूति नियमित साधना के द्वारा संभव है।
13-इस युग की हचान है कि एक दूसरे के प्रति संवेदना शून्य होना
संतोष का अर्थ। आज बाजारवाद से प्रभावित होकर भौतिकवाद के प्रति प्रबल आकर्षण इतना विकराल रूप लेता जा रहा है कि वैश्रि्वक स्तर पर मानव मानव के प्रति संवेदनाशून्य हो गया है। अधिकतर मनुष्य केवल बाजारवाद को ध्यान में रखकर ही कार्य-व्यवहार कर रहे हैं। भौतिक उन्नति के लिए केवल अर्थ की ही प्रधानता होने के कारण लोग येन-केन-प्रकारेण अर्थोपार्जन में लिप्त हैं। इसीलिए भ्रष्टाचार का आचरण पनपता जा रहा है।
भारतीय संस्कृति का आधार रखने वालों ने बहुत सोच-विचार के बाद और अनुभवों के आधारपर भौतिक संपन्नता के लिए मृग-मरीचिका की तरह माया-मोह व तृष्णा से परे रहकर अपना जीवन आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होने का आग्रह किया है। आज व्यक्ति असीमित इच्छाओं की पूर्ति के लिए असंतोष का जीवन जी रहा है। वह भूल रहा है कि सभी इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति संभव नहीं होती। एक इच्छा की पूर्ति होने पर अनेक पूरक-इच्छाएं पनपने लगती हैं। इसीलिए व्यक्ति को संतोषी होना चाहिए। कहा गया है कि संतोष ही परम सुख है। धर्म के बगैर धन का सही उपयोग नहीं हो सकेगा। धर्म हमें मर्यादित होकर जीना सिखाता है। इस प्रकार मेहनत से कमाया धन अधिक सुख, शांति व संतोष प्रदान करता है।
प्रख्यात विचारक आचार्य चाणक्य ने संतोष को परिभाषित करते हुए बताया है कि हमें किन पर संतोष करना चाहिए और किन पर संतोष नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा है, अपने भोजन और अपने धन पर जितना, जो कुछ, जैसा है, उस पर संतोष करने से हमें आनंद और सुख मिलेगा।' संतोष जहां हमारे लिए आनंद का सागर है, वहीं आचार्य चाणक्य ने एक संदर्भ विशेष में असंतोष करना भी स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है-विद्या, जप और दान करने में संतोष नहींकरना चाहिए। हमने थोड़ा ही अध्ययन किया, थोड़ी ही परमेश्वर की भक्ति की और कुछ ही दान दिया तो ये संतोष के कारक न बनें।
इन तीन उपादानों पर असंतोष रहा तो हमारा ज्ञानार्जन के प्रति, भगवत् भक्ति के प्रति और असहाय, दुखी व जरूरतमंदों के प्रति दान देने की प्रवृत्ति बनी रहेगी। जीवन में संतोष करते हुए संतुष्ट रहना ही श्रेयस्कर है।
14-प्रेम आत्मविश्वास से ही जागृत होता है
आत्मविश्वास। आज हर आदमी सुख की खोज में लगा है और उस थके-हारे इंसान के संदर्भ में दार्शनिक खलील जिब्रान को पढ़ना अच्छा लगता है। जिब्रान लिखते हैं, 'मैं भी कहता हूं कि जीवन सचमुच अंधकारमय है, यदि आकांक्षा न हो। सारी आकांक्षाएं अंधी हैं, यदि ज्ञान न हो। सारा ज्ञान व्यर्थ है, यदि कर्म का ज्ञान न हो। जब तुम प्रेम से प्रेरित होकर कर्म करते हो तब तुम स्वयं से बंधते हो, एकदूसरे से बंधते हो, भगवान से बंधते हो।' जिब्रान के इस कथन में प्रेम का निहितार्थ आत्मविश्वास से है। इसी आत्मविश्वास के बल पर हम वह सब कर सकते हैं जो हम करना चाहते हैं।
मैं अच्छा आदमी तभी बन सकता हूं, यदि मुझमें आत्मविश्वास है। दृढ़ निश्चय है। साहसपूर्ण निर्णायक क्षमता है। आशावादी दृष्टिकोण है। सकारात्मक सोच है। उत्साही मन है। ऊर्जस्वी पराक्रम है। मैं दुख में से सुख खोज लेना चाहता हूं और ऐसा सोचते हुए, आत्मविश्वास से भरकर सचमुच सुख खोज लेता हूं। आज का आदमी समय के साथ चले, लेकिन उसे बुरे आचरण को छोड़कर अच्छी जिंदगी का सपना देखने का हक है।
सोचना यह है कि हम गहराई में जमे बैठे संस्कारों को कैसे सुधारें? जड़ों तक कैसे पहुंचें? जड़ के बगैर सिर्फ फूल-पत्तों का क्या मूल्य? पतझड़ में फूल-पत्ते सभी झड़ जाते हैं, मगर वृक्ष कभी इस वियोग पर शोक नहीं करता। उसके पास जड़ की सत्ता सुरक्षित है, जिससे वसंत आने पर पुन: वृक्ष फूल-पत्तों से लहलहा उठते हैं। आज हमें भी आत्मविश्वास को मुकाम तक पहुंचाने के लिए मूल्यों को स्वयं में सहेजना होगा, बाहरी अवधारणाओं को बदलना होगा, जीने की दिशा को मोड़ देना होगा। तभी बंधन ढीले पड़ेंगे और निर्माण का रास्ता साफ-सुथरा बन सकेगा। अंधेरा तभी तक डरावना है जब तक हाथ दीये की बाती तक न पहुंचे।
आप एकदम से अपने आत्मविश्वास को प्राप्त नहीं कर सकते। अपने आप को अपना भविष्य निर्माता मानिए और फिर कार्य की शुरुआत कर दीजिए। अपने भविष्य की कल्पना कीजिए। सोचिए कि आज से एक वर्ष बाद, दो वर्ष बाद या पांच वर्ष बाद आप कहां पहुंचना चाहते हैं। जहां आपको मनचाही सफलता और जिंदगी हासिल हो। आपको यह मानना होगा कि आप बदल सकते हैं और उस बदलाव के लिए आपके पास पर्याप्त आत्मशक्ति है। एक चीनी कहावत है कि महापुरुषों में आत्मविश्वास होता है और दुर्बलों की केवल इच्छाएं।
15-प्रेम ही तो परमेश्वर है
प्रेम ही संसार में प्रेरक शक्ति है, जो निरंतर स्फूर्त रखता है और बड़े से बड़ा काम करने को प्रेरित करता है। यही प्रेम सर्वव्यापी होकर ईश्वर का रूप ले लेता है। स्वामी विवेकानंद का चिंतन.. विवेकानन्द के अएनुसार प्रेम सर्वसाक्षी, सर्वव्यापी और सर्वत्र है। चेतन और अचेतन में, व्यष्टि और समष्टि में यही भगवत्प्रेम आकर्षक शक्ति के रूप में प्रकट होता है।
संसार में यही एक प्रेरक शक्ति है। इसी प्रेम की प्रेरणा से ईसा मानव जाति के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करता है और बुद्ध एक प्राणी तक के लिए, माता अपनी संतान के लिए और पुरुष स्त्री के लिए कुछ भी कर सकता है। इसी प्रेम की प्रेरणा से मनुष्य अपने देश के लिए प्राण निछावर करने को उद्यत रहते हैं। संसार की यह प्रेरक शक्ति प्रेम निर्लेप और सभी में प्रकाशमान है। इसके बिना संसार क्षण भर में चूर्ण होकर नष्ट हो जाएगा। यह प्रेम ही परमेश्वर है।
'पति से कोई पत्नी पति के लिए प्रेम नहीं करती, वरन पति में जो आत्मा है, उसी के लिए वह प्रेम करती है। कोई पति पत्नी से पत्नी के लिए नहीं, वरन उसमें जो आत्मा है, उसके लिए प्रेम करता है। कोई किसी भी चीज पर केवल आत्मा को छोड़कर और किसी अन्य बात के लिए प्रेम नहींकरता। (वृहदारण्यकोपनिषद)।' यह भी उसी प्रेम का ही एक रूप है। इस खेल को छोड़कर अलग खड़े हो जाओ, उसमें अपने को शामिल न करो, वरन इस अद्भुत दृश्य को, इस अपूर्व नाटक को, एक के बाद दूसरे अंक के अभिनय को देखते चलो और इस अद्भुत स्वर-संगति को सुनते जाओ। सभी उसी प्रेम की अभिव्यक्तियां हैं।
स्वार्थपरायणता में भी वही आत्मा या 'स्व' अनेक हो जाता है और बढ़ता ही जाता है। वही एक आत्मा मनुष्य का विवाह हो जाने पर दो आत्मा और बच्चे पैदा होने पर अनेक आत्मा हो जाएगी। वही पूरा गांव हो जाएगा, शहर हो जाएगा और फिर भी बढ़ता ही जाएगा, जब तक कि वह सारी दुनिया को आत्मस्वरूप अनुभव न करने लगे। वही आत्मा अंत में सभी पुरुषों, सभी स्त्रियों, सभी बच्चों, सभी जीवधारियों, यहां तक कि समग्र विश्व को अपने में ढक लेगा। वही सामान्य प्रेम आगे चलकर बढ़कर सर्वव्यापी प्रेम अर्थात अनंत प्रेम का स्वरूप धारण कर लेगा और वही प्रेम ही तो ईश्वर है।
16-सफलता के लिए कठिन तप जरूरी है
तप के आयाम। जीवन में कठिन तप के बिना सफलता नहीं मिलती। तप का सीधा सा अर्थ है-तपना। ठीक वैसे ही जैसे सोना आग में तप कर कुंदन बनता है। तभी तो इस देश के सिद्ध-साधकों और ऋषि-मुनियों ने तप के सहारे जीवन में परम लक्ष्य की प्राप्ति की। सत्य के महान खोजियों ने तप को एक दर्शन माना। तप एक कठोर साधना है। इस साधना के अंतर्गत तप मनुष्य करता है और सिद्धि परमात्मा देता है। अध्यात्म में तप के विविध आयामों की चर्चा की गई है। कहा गया है कि अपने जीवन के दीपक को तपस्या से प्रकाशित करो। तप के भी कई प्रकार हैं। बहुत से लोग शरीर के तप को महत्व देते हैं।
जो सच्चा साधक है वह तपस्वी होगा ही। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसके जीवन में तप स्वत: बस जाता है। वह दुविधा में भी हर कार्य सुविधा से करता है। उसके आभामंडल का तो कहना ही क्या। देश को राजनीतिक आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी तप को जीवन में प्रमुखता दी।
जहां गांधीजी सत्याग्रह कर रहे थे वहीं भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसे तपस्वी क्त्रांतिकारी आजादी की अलख जगा रहे थे। गौतम बुद्ध ने करुणा को साधा और महावीर ने अहिंसा को साधा। लोग उनकी तपश्चर्या की चर्चा आज भी करते हैं। सदाचरण की साधना दैहिक तप है। वैचारिक रूप से पवित्र रहना मानसिक तप है। एक तप वाणी का भी है। जो कहा वह सोच-समझकर। जो तपस्वी होता है उसका जीवन संतुलित होता है, परंतु अफसोस कि कई बार कुछ तथाकथित लोग इसका भी आडंबर रचकर समाज से छलावा करते हैं। ऐसे लोगों से सतर्क व सजग रहने की आवश्यकता है।
भारत का स्वाधीनता संग्राम हम परम तपस्वियों के तप से जीत सके। तप कठोर व अनवरत साधना के बाद ही फल देता है। प्रभु श्रीराम 14 वर्षो तक वन में रहे और आसुरी शक्तियों को हराने के लिए तप किया। यह उत्कृष्ट तप है। मनुष्य जीवन में तप का संबंध भी जन्म-जन्मांतरों से होता है। भगवान श्रीराम तो कहते हैं कि एक साधक की साधना को मैं जन्म-जन्मांतर तक निरंतरता प्रदान करता हूं। प्रभु तो हम पर हर पल कृपा बरसाने को तैयार बैठे हैं, लेकिन हम अपने जीवन को सही तरीके से साधें तो।