1-प्रशन्नचित्त रहना सम्पन्नता लाता है
यह अनुमान सही नहीं है कि जो व्यक्ति सुखी और साधन संपन्न होता है वह प्रसन्न रहता है। वास्तविकता इससे बिल्कुल उल्टी है। जो प्रसन्न रहता है वही सुखी और साधन संपन्न बनता है। प्रसन्नता विशुद्ध रूप से एक ऐसी मनोदशा है जो पूर्णतया आंतरिक सुसंस्कारों पर निर्भर रहती है।
गरीबी में भी मुस्कराने और कठिनाइयों के बावजूद जी खोलकर हंसने वाले तमाम व्यक्ति देखे जा सकते हैं। इसके विपरीत ऐसे भी तमाम लोग हैं, जिनके पास प्रचुर मात्रा में साधन संपन्नता है, पर उनकी आंखें, नसें, तेवर तने और मुखाकृति तनी रहती है। चिंतित, असंतुष्ट और उद्विग्न रहना एक मानसिक दुर्बलता मात्र है, जो अंत:करण की दृष्टि से पिछड़े हुए लोगों में ही पाई जाती है। परिस्थितियां नहीं, मनोभूमि का पिछड़ापन ही इस क्षुब्धता का कारण है।
उदात्त और संतुलित दृष्टिकोण वाले व्यक्ति हर परिस्थिति में हंसते-हंसते रहते हैं। मानव जीवन सुविधाओं-असुविधाओं, अनुकूलताओं व प्रतिकूलताओं के ताने-बाने से बुना गया है। संसार में अब तक एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जन्मा, जिसे केवल सुविधाएं और अनुकूलताएं ही मिली हों और जिसे कठिनाइयों का सामना न करना पड़ा हो। इसके प्रतिकूल जिसने अनुकूलताओं पर विचार करना आरंभ किया और अपनी तुलना पिछड़े हुए लोगों के साथ करना शुरू किया उसे लगेगा कि हम करोड़ों से अच्छे हैं। हमारे पास जो प्रसन्नता है वह एक ईश्वरीय वरदान है और यह हर सुसंस्कृत मनोभूमि के व्यक्ति को प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो सकती है।
जिसे शुभ देखने की आदत है वह सर्वत्र आनंद बटोरेगा, मंगल देखेगा, ईश्वर की अनुकंपा और लोगों की सद्भावना पर विश्वास रखेगा। ऐसी दशा में हंसने-हंसाने के लिए उसके पास बहुत कुछ होगा, किंतु जिन्हें अशुभ चिंतन की आदत है, दूसरों के दोष, दुर्गण और अपने अभाव खोजने की आदत है, जो इसी शोध में लगे रहते हैं और जो प्रतिकूलताएं दिखती हैं, उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर सोचते हैं, ऐसे लोगों को क्षुब्ध ही रहना पड़ेगा। वे असमंजस, खिन्नता और उद्विग्नता ही अनुभव करते रहेंगे। रोष उनकी वाणी से और असंतोष उनकी आकृति से टपकता रहेगा। ऐसे व्यक्ति स्वयं दुखी रहते हैं और अपने संपर्क में आने वाले दूसरों को दुखी करते रहते हैं। हमें असंतुष्ट और क्षुब्ध नहीं रहना चाहिए।
2-स्वाभिमान से सकारात्मक का जन्म होता है--
कहते हैं कि जीवन में नाम, मान, शान, शोहरत आदि सब कुछ चला जाए तो कोई बात नहीं, परंतु यदि चरित्र पर दाग लग जाए तो मानो जीवन खत्म हो जाता है। हम सभी जीवन भर अपनी चारित्रिक रक्षा के लिए जूझते रहते हैं ताकि जब इस दुनिया से जाने का वक्त आए तो हम बेदाग होकर जाएं।
ठीक ऐसा ही सम्मान के बारे में कहा जा सकता है। दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, जो सम्मान की इच्छा न रखता हो। हम सभी चाहते हैं कि हमें सदैव सभी लोगों द्वारा सम्मान प्राप्त हो, परंतु ज्यादातर लोग सम्मान देना नहीं चाहते, वे सिर्फ लेना चाहते हैं। कोई भी बेआबरू या अपमानित होकर जीना पसंद नहीं करता। जब दूसरे हमारी आलोचना करते हैं और हमारी पीठ के पीछे यदि हमारी आलोचना करते हैं, तब हम नाराज होकर या क्रोधित होकर उन्हें प्रतिक्त्रिया देते हैं। इस स्थिति में हम जैसे उन्हें स्वयं के लिए यह सिद्ध कर बताते हैं कि हमारा आत्मसम्मान इतना कमजोर है, जो किसी के भी पत्थर मारने से टूट जाएगा।
इस दुर्बलता का मुख्य कारण है हमारे आत्म-सम्मान की कमजोर बुनियाद। हम बड़ी आसानी से यह भूल जाते हैं कि हमारे इर्द-गिर्द जो भी लोग हैं, उन सभी की हमारे प्रति अलग-अलग राय होती है, जिसके बारे में हम कभी पता भी कर नहीं पाते, क्योंकि हम किसी के मन में क्या चल रहा है, यह सुन नहीं सकते हैं।
मान लीजिए यदि हम किसी का मन पढ़ भी लें तो क्या उनको अपनी स्वतंत्र राय रखने का अधिकार नहीं है? बिल्कुल है। इसलिए समझदार व्यक्ति वह है, जो दूसरों की राय की फिक्र करने के बजाय अपने आत्म-सम्मान की ऊंचाई पर स्थिर रहकर, निंदा को महिमा और अपमान को स्व-अभिमान में परिवर्तित करे। इसलिए जब हमें अपने आप की पहचान हो जाती है, तब हमें दूसरों की राय पर निर्भर होने की कोई भी आवश्यकता नहीं रहती है। स्वमान और आत्म-सम्मान में बहुत गहरा रिश्ता है। इनमें से किसी एक के बिना दूसरा संभव नहीं है। हम सभी को बचपन से ही दूसरों को सम्मान देने का पाठ पढ़ाया गया है, परंतु क्या आज तक किसी ने हमें यह सिखाया कि हम अपने आपको कैसे सम्मान दें? शायद नहीं। आज हमारे संबंधों में सामंजस्य नहीं रहा और हम संघर्ष से सदा जूझते रहते हैं। स्वमान की कमी के कारण हमारे जीवन में बेसुरापन और नकारात्मकता आ गई है।
3-सुख दुख में समष्टि दृष्टि होना सफल व सार्थक जीवन की पहचान है
सफल और सार्थक जीवन के लिए सुख और दुख में हमारी समदृष्टि का होना जरूरी है। आप अपने स्वामी खुद हैं। इसलिए जिस तरह जीवन को बनाना चाहेंगे, बना सकते हैं, केवल दृढ़ संकल्प, एकाग्रता, सच्ची लगन हो तो ऊंचे से ऊंचा लक्ष्य पाने में कोई समस्या नहीं होती।
न्याय और सत्य के स्वयं पक्षधर बनें तो कोई ताकत आपको महानता के मार्ग में बाधक नहीं बना सकती है। पैसा समय की महत्वपूर्ण आवश्यकता है, किंतु उसके इतने भी दीवाने नहीं बनें कि घर की और स्वयं की सुख-शांति तक में दरारें पड़ जाएं और बाद में आप अपने घर में अकेले पड़ जाएं। अनासक्ति भाव से कमाएं और जरूरी खर्च करने में कभी संकोच भी मत करें। मितव्ययी बनें, कंजूस नहीं। पैसा और नाम कमाना ही जीवन का लक्ष्य न हो। आपको जो मिलना है वह मेहनत, कार्य के प्रति ईमानदारी और प्रभु इच्छा से मिलना सुनिश्चित है फिर किस बात की हाय-तौबा।
समय आने पर ही काम होते हैं, किंतु समय की प्रतीक्षा में टकटकी लगाए रहने वाला भी-'कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे' की स्थिति में दुखी होता है। इसलिए समय से पहले किसान को भी फसल की तैयारी करनी ही पड़ती है, तभी वह फसल की सही कीमत और आनंद प्राप्त कर पाता है। कर्मठ बनने वाला कभी भी घाटे में नहीं रहता। जो मिलना है, वह तो मिलता ही है, उससे श्रेष्ठ कार्य उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाकर आगे के भविष्य को भी संवार देते हैं। युधिष्ठिर जब भीष्म पितामह के अंतिम क्षणों में सफलता का रहस्य पूछते हैं तो वह कहते हैं-'अपनी असफलताओं से अपने को अपमानित अनुभव नहीं करना चाहिए। सफलता को सदैव अपने करीब ही समडों। उसे (अपने लक्ष्य के लिए) तलाशें और प्राप्त करने के लिए सतत् लगे रहें।'
कोई भी व्यक्ति मन, वचन व कर्म से एक है तो वह सदैव मस्त रह सकता है। उसे कभी आडंबर, शो-बाजी का मुखौटा ओढ़ना नहीं पड़ता। त्याग, तप, तपस्या (साधना) के बगैर आदमी अपने क्षेत्र में सर्वोच्च शिखर पर नहीं पहुंच सकता है। सत्य के लिए मितभाषी बनें, संतभाषी बनें। व्यसनों से दूर रहकर संयमित, सादा जीवन, मौसम के अनुरूप आहार-विहार होना, स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का होना आवश्यक है। व्यभिचार, चोरी, ठगी, झूठ और जालसाजी से बचने वाला ही सदैव प्रसन्न रह सकता है।
अपने आदर्श को ताक में रखने वाला अवसरवादी व्यक्ति उदास चेहरे को लेकर भटकता रहता है। सुख के पीछे भागने की इच्छा जब समाप्त हो जाती है तो वह जीवन में स्थायी आनंद की स्थिति का कारण बनती है
4-प्रेम किसी सीमा में बंधने से, प्रेम हल्का हो जाता है
प्रेम एक ऐसा शब्द है, जिसके अनगिनत आयाम हैं। लिखने वालों ने इस पर बहुत कुछ लिखा है, पर यह विषय कभी भी चुका नहीं है। हर पीढ़ी ने इसको अपने-अपने तरीके से व्याख्यायित किया है, परंतु अनवरत रूप से और भी नए-नए ढंग से इसके व्याख्यायित होने की संभावनाएं कभी समाप्त नही होने वाली हैं।
राधा-कृष्ण के अमर प्रेम ने धर्मो की आपसी सीमाएं तोड़ रखी हैं। हिंदू और मुस्लिम साहित्यकारों ने इस दिव्य प्रेम का अपने-अपने ढंग से बखान किया है। प्रकृति और पुरुष के सनातन प्रेम की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति हैं-राधा-कृष्ण का प्रेम, जिसके आध्यात्मिक पहलुओं को श्रीमद्भागवत में बखान किया गया है।
प्रेम को स्त्री-पुरुष की दैहिक सीमाओं से बांधना प्रेम के वास्तविक सत्य के साथ सबसे बड़ा अन्याय है। प्रेम को जब भी किसी सीमा में बांधा जाता है, प्रेम हल्का हो जाता है, समझौतों में दम तोड़ने लगता है और तमाम सामाजिक विसंगतियों को जन्म देता है।
सच्चा प्रेम आकाश के सदृश विस्तृत होता है, अपेक्षाओं से परे होता है और सिर्फ देते रहने के लिए प्रतिबद्व होता है। प्राणी का प्रभु से प्रेम, प्रेम का अत्यंत उदात्त स्वरूप है। जब यह वास्तविक स्वरूप में हमारे जीवन में घटता है तो परमानंद जन्मता है। प्रेम की व्याख्या उसी तरह नहीं की सकती जिस तरह परम आनंद की अनुभूति को शब्दों के माध्यम से बताया नहीं जा सकता, यह तो महज अनुभव करके ही जाना जा सकता है। प्राणी का परमात्मा से प्रेम आध्यात्मिक चेतना का सर्वोत्तम फल है। इस फल को जो भी चख पाता है, वही प्रेम के सच्चे मायनों को पूर्णतया समझ पाता है। प्रेम ईश्वर की तरह अनंत और अनादि है।
ऐसा प्रेम अपने आप में पूर्ण होता है और उसे अभिव्यक्ति के लिए शब्दों की दरकार नहीं होती, वह तो अनुभूति का सागर होता है। इस अनुभूति के सागर में जो भी कभी डूबा, उसने कभी बाहर नहीं आना चाहा। वस्तुत: प्रेम का रसायन शास्त्र (केमिस्ट्री) विलक्षण है। इस केमिस्ट्री में दो चेतन तत्वों की भावनाएं मिलकर एक हो जाती हैं। प्रेम की इस केमिस्ट्री में अचेतन तत्वों को भी शामिल किया गया है। पहाड़, समुद्र, झरने और प्रकृति के अनेक रूप हैं, जो हमें प्रकृति प्रेम की ओर आकर्षित करते हैं।
5-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता, क्योंकि अकेला रहना एक बहुत बड़ी साधना है। जो लोग समाज या परिवार में रहते हैं वे इसलिए रहते हैं कि उन्हें एक दूसरे की सहायता की आवश्यकता होती है। परिवार का अर्थ ही है माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, भाई-बहन का समूह। इन्हींसे परिवार बनता है और कई परिवारों के मेल से समाज बनता है। व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से शहर, राज्य और राष्ट्र बनता है।
इसलिए जो भी व्यक्ति समाज में रहता है, वह एक-दूसरे से जुड़ा रहता है। मित्रता मनुष्य के जीवन की एक अद्भृत उपलब्धि है। जिस व्यक्ति के मित्रों की जितनी अधिक संख्या होती है, वह उतना बड़ा आदमी होता है। मनुष्य धन से बड़ा नहीं होता, मित्रों और शुभचिंतकों से बड़ा होता है। जो व्यक्ति समाज में जितना अधिक लोकप्रिय होता है उस व्यक्ति को ही लोग आदर और सम्मान की नजर से देखते हैं, लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि गलत लोगों से मित्रता न हो। जो झूठी प्रशंसा करने वाले हों, चाटुकार हों, किसी प्रलोभन में पड़कर मित्रता करना चाहते हों, उनसे दूर रहना चाहिए।
मित्र का अर्थ है, जो व्यक्ति हमें सुख-दुख में साथ दे। अगर कोई व्यक्ति सुख में साथ दे और किसी संकट में धोखा दे तो ऐसा व्यक्ति मित्र नहीं शत्रु होता है। जब मनुष्य किसी संकट में पड़े और उस समय जो सहायता करे, वही सच्चा मित्र है। वे लोग बड़े भाग्यशाली होते हैं, जिन्हें सच्चा मित्र मिल जाता है। आजकल गलत मित्रों की संख्या बढ़ गई है, जो किसी स्वार्थ में पड़कर दोस्ती करते हैं और जब स्वार्थ पूरा हो जाता है तो लात मारकर भाग जाते हैं।
इसलिए किसी को मित्र बनाते समय ध्यान रखना चाहिए कि वह व्यक्ति किसी स्वार्थ में पड़कर, कोई लाभ उठाने के लिए मित्रता कर रहा है या सही अर्थ में मित्र बनाना चाहता है। जब तक इसकी पूरी पहचान न हो जाए, तब तक कभी भी किसी नए व्यक्ति से मित्रता नहीं करनी चाहिए और न किसी नए व्यक्ति को अपने मन की बात कहनी चाहिए। सोच-समझकर अगर मित्रता की जाए तो वह मित्रता सफल रहती है। एक बात और ध्यान रखना चाहिए कि मित्रता बराबर वालों में होनी चाहिए। बहुत धनी और निर्धन के बीच मित्रता नहीं होती। दोस्ती और शत्रुता हमेशा बराबर वालों से ही की जाती है।
6-क्यों करते हैं हम पूजा- पाठ
पूजा हमारी श्रद्धा का प्रतिफल है। किसी में श्रद्धा होती है, तो उसे पूजने का मन करता है। सगुण उपासक कीे पूजा के लिए एक स्वरूप की आवश्यकता है। निर्गुण उपासना के लिए उपासक की श्रद्धा एक परम-शक्ति में होती है, जिसे हम परमात्मा कहते हैं या अल्लाह कहते हैं। इस धरा पर पूजा कैसे शुरू हुई, इस पर सभी धर्म समुदायों के अपने-अपने मत हो सकते हैं, परंतु एक तटस्थ शोधकर्ता के लिए यह शोध का एक महत्वपूर्ण विषय हो सकता है।
कुछ लोग रोज पूजा करते हैं और कुछ लोग कभी-कभी। कुछ लोगों के लिए कर्म ही पूजा है तो कुछ लोग व्यक्ति विशेष के पूजन में ही मगन रहते हैं। आम आदमी से विशेष आदमी तक पूजा फल के लिए की जाती है। गीता जैसे ग्रंथ निष्काम पूजा की वकालत करते हैं। अपने कर्मो के फल की इच्छा किए बगैर प्रभु को समर्पित कर देना ही श्रेयस्कर माना जाता है। भारतीय अध्यात्म कर्म करने को कहता है, पर फल की इच्छा में कर्म का बंधन उचित नहीं है। कर्म बंधन से मुक्त रहकर कार्य करना ही निष्काम-कर्म दर्शन का आधार है।
महाभारत युद्ध के आरंभ में रिश्तों में बंधा अर्जुन कृष्ण के गीता उपदेश के अठारहवें अध्याय तक पहुंचते-पहुंचते निष्काम युद्ध के लिए तैयार हो जाता है। जीवन के महाभारत का युद्ध निष्काम होकर लड़ना ही शायद सच्ची पूजा है। माला फेरने से प्रभु को प्रसन्न करना अच्छी बात है, परंतु जीवन संघर्ष से भागकर केवल माला फेरना, संकीर्तन करना, आरती करना, पाठ करना या हवन करना प्रभु को भी नहीं भाता होगा। संसार में लोगों के बीच रहकर की जाने वाली पूजा ही सर्वश्रेष्ठ है। प्रभु की कृपा उन्हीं पर होती है, जो अपने विहित कर्मो का कुशल संपादन करता है और साथ में निष्काम-भाव से प्रभु की पूजा करता है। ऐसा भक्त अपनी कुशल-क्षेम प्रभु के हाथों में सौंप कर परमानंद में जीता है।
अगर आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से विश्लेषण करें, तो पूजा व्यक्ति के अंतर्मन में बैठे अहंकार या दंभ को कम कर व्यक्ति के मन में सकारात्मक भाव पैदा करती है। पूजा मन से और निष्काम की जाए तभी फलीभूत होती है। अगर मन विचलित है तो विधि-विधान से की गई पूजा-अर्चना भी शांति और संतोष नहीं देती।
7-संवाद की परम्परा भारतीय संस्कृति का अंग है
सम्यक संवाद की भारत में एक दीर्घ परंपरा रही है। जबसे असहिष्णुता हमारे समाज में घर करने लगी है और उदारता की भावना क्षीण होने लगी है, तब से हमारा समाज संवाद से संवादहीनता की ओर बढ़ने लगा है। आज समाज की अनेक समस्याओं का समाधान संवाद में निहित है। हत्या व आत्महत्या आदि अपराधों से बचा जा सकता है, बशर्ते हम परस्पर संवाद की भावना का विकास करें।
आज के वैश्रि्वक महानगरीय जीवन में किसी के पास दूसरे के लिए समय नहीं है। सभी अपनी-अपनी दिनचर्या में व्यस्त हैं। अन्य समस्त कार्यो के संपादन के लिए समय है, परंतु स्वस्थ संवाद की स्थापना के लिए समयाभाव की स्थिति है। माता-पिता के पास अपने बच्चों से बात करने तक का समय नहीं है। समाज के हर वर्ग में परस्पर बातचीत की प्रक्रिया सिकुड़ गई है। ऐसे में हम न केवल अपने सुख को बांटने से वंचित रह जाते हैं, बल्कि अपना दुख भी नहीं बांट पाते।
सुख बांटने के लिए कोई न भी मिले तो भी कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, परंतु दुख बांटने के लिए यदि कोई न मिले तो जीवन हताशा व अवसादग्रस्तता की ओर बढ़ता है, जो आगे चलकर आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध का कारण बन सकता है। स्वस्थ संवाद भ्रमों और संदेहों का निवारण करता है और जीवन को सही दिशा की ओर ले जाता है। संवाद के अभाव से वैचारिक संकीर्णता घर करती जा रही है।
बढ़ती वैचारिक संकीर्णता और जड़ता परस्पर लड़ाई-झगड़े का कारण है। संवाद का स्तर गिरने से समाज में अशांति का वातावरण बनता है। प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने लगता है। यही संदेह आगे चलकर भयंकर विनाश और त्रसदी का कारण बनता है। सामाजिक और पारिवारिक जीवन में विभिन्न व्यक्तियों में परस्पर मतभेद और मनमुटाव एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। ऐसा इसलिए, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न विचार होते हैं, परंतु यही मतभेद और मनमुटाव परस्पर संवाद के अभाव के चलते कब बड़ी दरार में परिवर्तित होकर अपूर्णनीय क्षति का कारण बनता है, इसका पता ही नहीं चलता। संबंध बिखर रहे हैं। परिवार टूट रहे हैं। व्यक्ति का जीवन एकाकी और अवसादग्रस्त बनकर नर्क में परिवर्तित हो रहा है। चारों तरफ बेतहाशा दौड़ है, जिसमें कहीं विराम नहीं दिखाई पड़ता।
8-हमें निराशावादी नहीं होना चाहिए
न जाने क्यों इन दिनों मन बहुत परेशान है।' यह विचार किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि तमाम लोगों का है। इन लोगों को थोड़ा सा कुरेदने पर बड़ी आसानी से इस तरह के शब्द आप सुन सकते हैं। जैसे 'काम में जी नहीं लगता, बात-बात में गुस्सा आता है। हर समय चिड़चिड़ाहट घेरे रहती है। मन में घाव-सा हो गया है।'
ऊपरी तौर पर ऐसे लोग यदा-कदा ठहाके भी लगा लेते हैं, पर उनके अंतर्मन में क्रोध का ज्वालामुखी दहकता-धधकता रहता है। विख्यात मनोचिकित्सक मौरिस फ्रेडमैन उपयुक्त लक्षणों का ब्योरा देते हुए कहते हैं कि यदि ऐसा है तो परखिए, जरूर कहीं मन की किसी निचली परत में कोई गांठ पड़ गई है। भले ही यह बात सतही तौर पर समझ में न आए, परंतु ये सारी परेशानियां होती इसी कारण से हैं। यही गांठ जब-तब कसकती है, चुभती है, टीसती, दुखती है, आक्रोश दिलाती है और रुलाती भी है। मन की गहरी परतों के विश्लेषक जेडी फ्रैंक ने इस विषय पर काफी ज्यादा शोध-अनुसंधान किए हैं।
उन्होंने अपने अनुसंधान-निष्कर्षो का ब्योरा 'हिडेन माइंड ए फॉरगॉटन चैप्टर ऑफ अवर लाइफ' नामक पुस्तक में प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में प्रकाशित विवरण के अनुसार मन में ऐसी गांठ प्राय: किसी के उस कटु व्यवहार के कारण पड़ जाती है, जिसे हम भूल नहीं पाते।
किसी के द्वारा की गई अवहेलना, उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान के क्षण हमारे मन में गांठ बनकर पड़े रहते हैं। यह कसक कभी तो बदला लेने के आक्रोश का च्वालामुखी बनना चाहती है और कभी असहाय होने के अहसास की पीड़ा बनकर छटपटाती रहती है। आक्रोश और छटपटाहट का यह दर्द अपने अंतर को अनचाहे टूक-टूक करता रहता है।
जापानी चिकित्सा वैज्ञानिक के. कुरोकावा के अनुसार मन की यह पीड़ा तन में उतरे बिना नहीं रहती। उनके शोध-निष्कर्ष बताते है कि मन की परेशानी जैसे-जैसे गहरी होती जाती है वैसे-वैसे वह मन की बीमारी का रूप ले लेती है। बीते दिनों कुरोकावा और उनकी सहवैज्ञानिक योशीयुकी कागो ने अपने वैज्ञानिक शोध से इस तथ्य का खुलासा किया है कि जो लोग नकारात्मक भावों में डूबे रहते हैं, वे उच्च रक्तचाप और हृदय व गुर्दा रोगों आदि से संबंधित अनेक बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं।
9-परम आनंद क्या है
अक्सर अध्यात्म के ज्ञाता कहते हैं कि ईश्वर की शरण में जाने से मनुष्य को परम आनंद की प्राप्ति होती है। क्या है परम आनंद और कहां है ईश्वर जहां जाकर वह उनके चरणों में शरण ले। एक आम आदमी को इन दोनों प्रश्नों का उत्तर प्राप्त नहीं होता। इसीलिए उसकी अध्यात्म के पथ पर उन्नति नहीं हो पाती।
परम आनंद के बारे में भगवान ने गीता में बताया है कि वह स्थिति जिसमें मनुष्य सुख, दुख, हानि, लाभ, क्रोध, मोह और अहंकार आदि से मुक्त होकर स्वयं में स्थापित हो चुका हो। यानी मन का पूर्णतया निग्रह। मन, इंद्रियों द्वारा मनुष्य को संसार में लिप्त करके उसकी प्रवृत्ति को वाह्य बनाता है और वह संसार में इंद्रियों के द्वारा सुख की खोज में भटकता रहकर जीवन-मरण का चक्कर लगाता रहता है।
इसीलिए परमानंद की प्राप्ति के लिए सबसे पहले मन की प्रवृत्ति को अपने अंदर की ओर मोड़ना चाहिए। अज्ञानवश लोग मन को बलपूर्वक संसार से विरक्त करने की कोशिश करते हैं जो पूर्णतया निर्थक व गलत मार्ग है। ऐसा इसलिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में जब भी मन का नियंत्रण ढीला पड़ता है वह दोबारा इंद्रिय भोग द्वारा संसार के भोगों में लिप्त हो जाता है। इसीलिए आनंद के लिए पहले कदम के रूप में सर्वप्रथम मनुष्य को संसार का लेन-देन समाप्त करना चाहिए। लेन-देन केवल धन तक ही सीमित नहीं है बल्कि भावनात्मक पहलू धन से भी ज्यादा अहम व आवश्यक है।
नकारात्मक भावों के कारण वह कामना रूपी प्रेम, अहंकार, जलन, ईष्र्या और बदले की भावना व क्रोध से पीड़ित रहता है। नकारात्मक भावों के कारण ही उसे शारीरिक रोगों जैसे उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदयरोग होने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। भगवान का गीता में बताया गया यह कथन कि विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है और क्रोध से विवेक समाप्त होकर बुद्धि भी नष्ट हो जाती है। इस प्रकार मनुष्य का पतन हो जाता है।
सनातन धर्म में मनुष्य के जीवन चक्र को नियंत्रित करने के लिए आश्रम व्यवस्था है। वानप्रस्थ आश्रम में मनुष्य को धीरे-धीरे अपने आपको गृहस्थ आश्रम व दुनियादारी के लेन-देन से मुक्त कर लेना चाहिए और जीवन के शेष भाग को सम स्थिति में रहकर परमानंद में स्थित हो जाना चाहिए।
10--कल्पना-शक्ति का उपयोग एक कला है
कल्पना एक शक्ति है और इसका उपयोग करना आना चाहिए। कल्पना-शक्ति का उपयोग एक कला है। इस कला में पारंगत व्यक्ति ही कल्पना-शक्ति का अच्छे ढंग से प्रयोग कर सकते हैं। कल्पना निरभ्र गगन में उन्मुक्त होकर रोचक-रोमांचक उड़ान भरती है। मन और देह की सीमाओं में आबद्ध नहीं होती।
यह मन के सरोवर में तरंगों के समान उठती है और इन तरंगों की लपटें अनंत अंतरिक्ष में व्याप्त हो जाती हैं। कल्पना जीवन को बहुविध रंगों से उकेरती है। कल्पना एक शक्ति है, क्षमता है। जब यह ठहरती है तो जीवन नीरस हो जाता है और यह बहती है तो जीवन में नई कोंपलें फूटती हैं। यह जिधर भी बहे, वहीं सुरम्य तरंगों और सरसता का आलोक बिखेर देती है। यह भौतिक क्षमता को पंख देने का कार्य करती है। सुखद कल्पना शीतल छांव के समान है और दुखद कल्पना अंगारों की जलन पैदा करती है।
कल्पनाओं की बनावट और बुनावट अत्यंत मार्मिक है। साहित्य की ऐसी तमाम कृतियां हैं, जिनमें विचारों के साथ कल्पनाशीलता का सटीक सामंजस्य होता है और वे सभी सुखद अहसासों से ओत-प्रोत होती हैं। कल्पना जब परिष्कृत बुद्धि के साथ उड़ान भरती है, तो जीवन के व्यापक अस्तित्व को स्पर्श करती है।
इसी से साधनाओं के तमाम रहस्य अनावृत होते हैं और नई-नई साधनाओं का प्रादुर्भाव होने लगता है। कल्पना से कुछ भी संभव है। यह हमारी मौलिक प्रतिभा का विकास करती है। कल्पना में अपार ऊर्जा की खपत होती है। सृजनशील कल्पना से ऊर्जा के इस अनंत भंडार को एक नई दिशा प्रदान की जा सकती है और जीवन के कई अनछुए पहलुओं को जाग्रत किया जा सकता है। फिर भी सामान्यत: इसका घोर दुरुपयोग किया जाता है। इच्छाओं और वासनाओं से आक्रांत मन सदैव कुकल्पनाओं का आदी हो जाता है। ध्यान से अनगढ़ कल्पनाआें को संवारा जाता है।
कुकल्पनाओं से बचने के लिए हमें मनोनुकूल किसी विशिष्ट कार्य में कल्पना की ऊर्जा को उड़ेलना चाहिए। जैसे-जैसे कल्पना प्रगाढ़ होने लगेगी, इच्छित वस्तु मन में साकार होने लगेगी। यह प्रक्रिया अपनी प्रगाढ़ता में ध्यान के रूप में परिवर्तित होने लगेगी और इसमें मन आनंदित होने लगेगा। कुकल्पनाओं की खरपतवार अपने आप समाप्त हो जाएगी और कल्पना अपने रोमांचक यात्रा पथ पर चल निकलेगी।
11--नि:स्वार्थ प्रेम करें
इस स्वार्थमय होती दुनिया में हाशिये पर खिसकते जा रहे मानवीय सरोकारों के बीच अपना सब कुछ दांव पर लगाकर दिलों में रोशनी बिखेरने वाले लोगों की महत्ता कहीं बढ़कर है। स्वार्थ की आंधी में उड़ते मानवीय रिश्तों के बीच यदि कोई प्यार, सहकार और सेवा की ज्योति जलाए, तो ऐसा लगता है कि इस दुनिया के घने अंधेरों में भी कुछ लोग हैं जो सबको थामे मशाल के समान जलते रहते हैं।
इन देवदूतों को देखकर लगता है कि धरा कभी भी ऐसे महान बलिदानियों से और नि:स्वार्थ सेवाभावियों से रिक्त नहीं हो सकती। फिर चाहे ऐसे लोग किसी रूप में क्यों न हों? आज भी इस टूटते-बिखरते संबंधों वाले समाज में ऐसे लोग हैं, जो गुमनाम होकर शांत व निर्विकार भाव से अपने कार्य को अंजाम देने में भरोसा रखते हैं। ऐसे लोगों की जिंदगी किसी श्रेष्ठ साधना अथवा महान यज्ञ से कम नहीं है।
वर्तमान समय में कुछ न करके भी मुफ्त में यश और सम्मान बटोरने के लिए और प्रतिष्ठा पाने के लिए अखबारों और टीवी चैनलों पर भीड़ लगी रहती है। ऐसे आडंबरों और पाखंडपूर्ण प्रचार के बीच कोई व्यक्ति इतना त्याग और सेवा करने के बावजूद लाभ पाने से भी परहेज कर रहा हो तो सोचा जा सकता है कि उसका उद्देश्य और नियम कितना पवित्र है।
इस स्वार्थमय समाज में अभी भी कोई ऐसा है, जो केवल दूसरों के कल्याण के लिए सोचता ही नहीं, बल्कि अपनी पूरी क्षमता से उसे क्रियान्वित भी करता है। समाजसेवा के नाम पर चल रहे कथित गोरखधंधों से दूर, किसी की सहायता के बगैर अपनी हिम्मत और साहस के बल पर इतना बड़ा काम करना अवश्य ही प्रशंसनीय है। ऐसा इसलिए. क्योंकि सेवा के साथ तमाम चुनौतियां भी संलग्न होती हैं।
ऐसी मान्यता है कि उच्चतम उद्देश्य के लिए किया गया कोई प्रयास अधूरा नहीं रहता, उसे दैवीय सहयोग अवश्य मिलता है। ऐसे नि:स्वार्थ समाजसेवियों से प्रेरणा और प्रकाश मिलता है। व्यक्ति सोचने के लिए मजबूर होता है कि दूसरों के लिए करके जो सुख मिलता है उसका कोई विकल्प नहीं है। ऐसे लोगों का हमें हृदय से सम्मान और आदर करना चाहिए, ताकि समाज में उनके कार्यो का प्रभाव बढ़े और लोग उनके जैसे महान कार्यो में नियोजित करके स्वयं को धन्य मानें।
12- सकारात्मक सोच आध्यात्मिकता को जन्म देती है
व्यक्ति को अपनी जरा-सी तकलीफ भी बहुत बड़ी लगती है जबकि दूसरे लोगों की बड़ी समस्या भी समस्या नहीं लगती। अधिकांश व्यक्ति परेशानी में अपना धैर्य खो बैठते हैं, सोचने-समझने की शक्ति गंवा देते हैं। ऐसे समय में यदि कोई दूसरे की पीड़ा सुलझाने का प्रयास करे, तो इससे न केवल समस्या हल होती है, बल्कि समस्या हल करने वाले व्यक्ति की विचार क्षमता में भी वृद्धि होती है। अकसर तमाम लोग अपनी परेशानी का समाधान तलाशने के बजाय नकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। नकारात्मक नजरिये से आध्यात्मिकता का लोप हो जाता है। उन्हें जीवन में नकारात्मक बातें ही नजर आती हैं। ऐसे में उनके दिमाग में हानिकारक रसायन उत्पन्न होते हैं, जो उनकी समस्या को सुलझाने के बजाय और बढ़ा देते हैं।
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जब व्यक्ति दूसरे की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है, तब उसके दिमाग में एंडॉर्फिन्स नामक केमिकल का स्त्राव होता है, जो दिमाग को ऊर्जावान बनाता है। यह न्यूरो केमिकल सोच को परिवर्तित करता है। ऐसा तभी संभव होता है, जब व्यक्ति समस्या को सुलझाने के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण से विचार करे। दूसरे की परेशानी स्वयं के लिए पीड़ादायक नहीं होती। ऐसे समय में यदि प्रसन्नचित्त व्यक्ति सात्विक भाव से बीमार, निर्धन या समस्या से पीड़ित किसी व्यक्ति की मदद करे, तो उसकी आध्यात्मिकता उच्चतम बिंदु पर पहुंच जाती है, जो उसके शरीर में अनेक सकारात्मक बदलावों को उत्पन्न करती है।
दूसरे की परेशानी का समाधान करने से व्यक्ति का व्यक्तित्व श्रेष्ठ बनता है। उसे अंदरूनी रूप से अच्छा महसूस होता है। लेखक विलियम ग्लॉसर भी इस बात को मानते हैं। उनका कहना है कि हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि हम कभी भी दूसरे की पीड़ा खुद महसूस नहीं कर सकते। इसलिए दूसरे की पीड़ा के समय उसकी परेशानी हल करने से न केवल हम किसी के दुख को दूर करने में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं, बल्कि अपने व्यक्तित्व को भी बेहतर तरीके से संवार सकते हैं। किसी व्यक्ति की मुसीबत में मदद करने से आंतरिक सुख की अनुभूति होती है। दूसरे की पीड़ा और समस्या को दूर करके ही व्यक्ति अपने जीवन में खुश रह सकता है और उसे सच्चा सुख व संतोष मिल सकता है।
13--तीर्थों की शक्ति पवित्रता से बनती है
सामान्यत: तीर्थ अनेकार्थी शब्द है, जिसका केंद्रीय अर्थ है-पवित्र करने वाला। श्रीमद्भागवत में उल्लेख मिलता है कि संत और महापुरुष ईश्वरीय गुणों की परिपूर्णता के कारण ही परमतीर्थ कहे जाते हैं। इसी प्रकार स्कंद पुराण में भी कहा गया है कि तीर्थ करने का मुख्य प्रयोजन संत-महापुरुष और देव-दर्शन का लाभ प्राप्त करना ही होता है। यही कारण है जिस भू-भाग में संत-महात्मा निवास करते हैं वह तीर्थ कहलाता है।
ऐसा कहा गया है कि संत-महापुरुष तीर्थ को सुतीर्थ, कर्म को सुकर्म और शास्त्रों को 'सत्शास्त्र' बना देते हैं, क्योंकि वे क्षण-क्षण में क्षीण होने वाले संसार की सभी वस्तुओं से प्राप्त होने वाले सुखों की अस्थिरता को समझकर मोह-वासनाओं से विरत और ईश्वरीय गुणों से युक्त होकर व सुखों की अस्थिरता को समझकर शांतचित्त होते हैं।
संतजन अपनी नैसर्गिक ऊर्जा से वास्तविक सत्संग के परिवेश का निर्माण करते हुए अपने सद्गुणों और सद्विचारों से हमारे मन में शुचिता (पवित्रता) का सृजन और संवर्धन करते हैं। यह मान्यता है कि जहां साधुजन सत्संग के माध्यम से श्रीहरि की कथा का गायन करते हैं, वहां सभी 'तीर्थ' आ जाते हैं। मानव-मन की चंचलता और स्वच्छंदता की नैसर्गिक विशेषता के कारण ही दर्शनशास्त्री 'मन' को उस जलाशय की भांति मानते हैं, जिसका स्थिर जल किंचित हवा से लहरों में परिवर्तित होकर गतिमान हो जाता है।
मछली की भांति चंचल 'मन' को स्थिर और एकाग्र करते हुए संत-महापुरुष उसकी शुचिता पर विशेष बल देते हैं। मन को सप्तपुरियों की भांति सत्य, क्षमा, इंद्रिय-संयम, दया, प्रियवचन, ज्ञान और तप को भी 'सप्ततीर्थ' के रूप में 'मानस-तीर्थ' माना गया है। श्रीमद्भागवत में 'तीर्थद्वयम' के द्वारा स्पष्ट किया गया है कि पवित्र जल से काया के वाह्य भाग को तो धोया जा सकता है, लेकिन बाहरी शुद्धता के साथ ही संत तुलसीदास के शब्दों में 'अभ्यंतर मल' को पवित्र करने के लिए ईश्वरीय प्रेम और भक्ति के 'जल' की परम आवश्यकता होती है।
संत-दर्शन और संत-महापुरुषों के सद्वचन ही हमारे मन की शुद्धता के सुगम माध्यम हैं। मन की शुद्धता के माध्यम से ही हम जगत में व्याप्त अदृश्य सत्ता की अनुभूति करने में सक्षम हो सकते हैं।