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पंडितों का शास्त्र-
पंडित अपने शास्त्र खोले बैठे रहते हैं, और बैठे-बैठे समाप्त हो जाते हैं,लेकिन उसे सत्य का कोई पता नहीं चलता है । पापी सत्य तक पह्ंच जाते है, लेकिन पंडित नहीं पहुंच पाते है । क्योंकि पापी कमसे कम विनम्र तो होता है, रो तो सकता है परमात्मा के सामने,डूब तो सकता है,घुटने टेक ते सकता है । लेकिन पंडित का अहंकार बहुत भारी होता है,पंडित का अहंकार चुनौती दे सकता है, विवाद कर सकता है लेकिन वह परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता है । कभी भी नहीं पहुंच सकता है । आजतक कभी भी यह नहीं सुनाई दिया कि कोई पंडित परमात्मा के पास पहुंचा हो ,अगर कभी पहुंचा भी होगा तो उसने पहले परमात्मा को चुनौती दी होगी कि तुम गलत हो क्योंकि हमारे शास्त्र में तो कुछ और ढंग से लिखा है ।
इसलिए परमात्मा को जानना हो तो पंडित से बचकर रहना चाहिए । परमात्मा को प्राप्ति के रास्ते में पंडित एक अवरोध होता है । पंडित कोई भी हो हिन्दू का है या मुसलमान का है, सिक्ख का है या जैन का है या ईसाई का इससे कोई फर्क नहीं पडता ,पंडित तो पंडित ही है सारे पंडित तो एक जैसे होते हैं.उनकी किताबें अलग हो सकती है,उनके शव्द अलग होंगे,सिद्धान्त अलग होंगे लेकिन पंडित का मन व माइण्ड एक जैसा होता है । वह शव्दों पर जीता है,सिद्धान्तों पर जीता है लेकिन सत्य से दूर रहता है । क्यों ? क्योंकि सत्य की पहली मॉग है पहले स्वयं को मिटाओ । लेकिन पंडित अपने को मिटाने को कभी राजी नहीं होगा । क्योंकि पंडित कहता है कि मेरे पास जो है वह सत्य है । और सत्य के लिए पहली शर्त कि पहले स्वयं को मिटाना होगा । पंडित तो सत्य को अपने बगल में खडा रखता है,और जिसे सत्य को जानना हो उसे खुद ही जाकर सत्य के बगल में खडा होना पडता है । सत्य को अपने बगल में खडा नहीं किया जा सकता है और न मुठ्ठी में बन्द किया जा सकता है । सत्य के लिए न तो कोई दावा किया जा सकता है और न कोई विवाद संभव है,और न सत्य के लिए कोई शास्त्रार्थ संभव है, न तर्क की गुंजाइस है लेकिन पंडित तर्क का भरोसा रखता है । पंडित कहता है कि तर्क करेंगे तो सत्य को खोज लेंगे ।
एक सागर तट पर बडे-बडे वि्द्वान अपने -अपने शास्त्रों को खोलकर रखे हुये हुये थे सागर की गहराई को जानने के लिए । अध्ययन कर रहे थे । गहराई की बहुत सी बातें थी, कौन सी सही होगी,यह निर्णय कर पाना कठिन हो रहा था । क्योंकि सागर की गहराई का पता सागर में जाने से ही पता चल सकता है । विवाद बढता गया,विवाद बढा समझो निर्णय मुश्किल होता चला गया । असल में अगर निर्णय लेना हो तो विवाद से बचना चाहिए । और निर्णय न लेना हो तो विवाद से ज्यादा सरल रास्ता कोई नहीं है ।
इसी भीड में भूल से दो नमक के पुतले भी आ गये थे, उन्होंने विवाद करने वालों को सलाह दी कि रुको,हम सागर में कूदकर पता लगाते हैं कि सागर कितना गहरा है । विवाद करने वालों ने कहा कि सागर में जाने की जरूरत ही क्या है, जबकि शास्त्र हमारे पास है,और इस शास्त्रों में गहराई लिखी हुई है,क्योंकि ये शास्त्र ईश्वर ने लिखे हैं । नमक के पुतले को संतुष्टि नहीं हुई वह सागर में कूद गया । गहरे और गहरे सागर में, लेकिन जितना गहरा गया ,एक नई समस्या शुरू हो गई गहराई का तो पता चलने लगा लेकिन पुतला मिटने लगा, नमक का पुतला था पिघलने लगा । तल में पहुंच भी गया मगर लौटने का कोई उपाय नहीं बचा । सागर में खो गया सागर की गहराई भी जान ली,लेकिन बताएं कैसे ? इसलिए सत्य को जानने के लिए मिटना होता है, स्वयं को खोना होता है । सागर की गहराई का पता फिर भी नहीं लग पाया ।
किनारे पर बैठे लोग कह रहे थे कि इस सागर में कूदकर कई लोग खो चुके हैं,गहराई का कोई खबर नहीं ला सका । हमने पहले ही कहा था कि शास्त्रों में खोजना चाहिए ।वह नमक का पुतला तो पागल था । फिर विवाद शुरू हुआ । नमक केदूसरे पुतले कहा मैं अपने मित्र को खोजकर लाता हूं ,खेोजने चला गया । मित्र तो नहीं मिला लेकिन खुद ही खो गया,लेकिन खुद को खोकर मित्र तो मिल गया । मित्र तो तभी मिलता है जब खुद को खोने की क्षमता रखता हो ।उससे पहले कोई मित्र नहीं मिलता । मित्रता का अर्थ है खुद को खोना । स्वयं खो गया,मित्र भी मिल गया,सागर भी मिल गया, गहराई का पता भी चल गया । लेकिन कहा जाता है कि वे दोनों लहरों-लहरों में चिल्लाने लगे कि इतनी है गहराई है ! इतनी है गहराई है !
लेकिन किनारे बैठे लोग शास्त्रों में फिर खो चुके थे, लहरों की कौन सुने !बल्कि कई बार ये पंडित कह रहे थे कि इन सागर की लहरों के शोरगुल के कारण हमारी बहस में बडी वाधा पड रही है । अच्छा हो हम सागर से दूर चलें और वहॉ हम अपने शास्त्रों पर बहस करें । जबकि सागर कह रहा है कि जानलो रे सागर की गहराई कितनी है लेकिन पंडितों ने अनसुनी कर दी । वे सागर का पता लगाने के लिए सागर तट से दूर चले गये । लेकिन लोग कहते हैं कि अब भी वे शास्त्रों को खोलकर विवाद कर रहे हैं । वे सदा ही करते रहेंगे ।