Saturday, August 11, 2012

तर्क से बुद्धि सत्य को जान लेती है

1- तर्क से बुद्धि सत्य को जान लेती है-


         भावनाओं के स्रोत ह्दय द्वारा अनुभूत होता है न कि तर्क के द्वारा बुद्धि तो सत्य को जान लेती है। इस प्रकार बुद्धि और भावना दोनों एक ही क्षण में आलोकिक हो उठते हैं, ह्दय ग्रन्थि खुल जाती है जिससे सब संशय मिट जाते हैं । प्राचीन काल में ऋषियों के ह्दय में ज्ञान और भाव एक साथ प्रस्फुटित हो उठते थे,तबसर्वोच्च सत्य ने काव्य की भाषा ग्रहण की, फलस्वरूप वेद और अन्य ग्रन्थ रचे गये । उन्हैं पढते समय लगता है कि मानो भाव और ज्ञान की दोनों सामान्तर रेखायें अन्ततः मिलकर एकाकार हो गई हैं और एक दूसरे से अभिन्न हैं ।।

2-भौतिक वस्तुओं के भीछे भागना मृत्यु के पाश में बंधना है-
        मनुष्य बाहरी वस्तुओं के पीछे दौडते फिरते हैं,जिससे व्याप्त मृत्यु के पाश में बंध जाते हैं,लेकिन ज्ञानीपुरुष अमृत्व को जानकर अनित्य वस्तुओं में नित्य वस्तु की खोज नहीं करते ।अनन्त की खोज अनन्त में ही करनी होगी,और हमारी अन्तवर्ती आत्मा की एकमात्र अनन्त वस्तु है । शरीर, मन आदि जो प्रपंच हम देखते हैं अथवा जो हमारी चिन्ताएं या विचार हैं,अनमें से कोई भी अनन्त नहीं हो सकता ।मनुष्य की आत्मा जो सदा जाग्रत है,वही एकमात्र अनन्त है ।जो नाना रूप दिखते है,वे बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।

3-अद्भुत विषय के प्रति जिज्ञासा-
        जब लोग किसी अद्भुत विषय के सम्बन्ध में सुनते हैं.तो वे समझने लगते हैं कि वे उसे एकदम प्राप्त कर लेंगे ।क्षणभर में वे विचारते हैं कि उसकी प्राप्ति के लिए उन्हैं उसका रास्ता तय करना पडेगा ।वे कूदकर पहुंच जाना चाहते हैं । यदि वह स्थान उच्च है तब भी पहुंच जाना चाहते हैं। वे यह नहीं सोचते कि हममें उतनी शक्ति है या नहीं । नतीजा यह होता है कि वे कुछ नहीं कर पाते हैं ।हम किसी व्यक्ति को जबर्दस्ती उठाकर ऊपर नहीं धकेल सकते हैं,हम आप कुछ नहीं कर सकते हैं । हम सबको प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है । अतः धर्म का यह पहला भक्ति का भाग है, यह उपासना की पहली और निचली सीढी है।

4-ईश्वर को अनुभव करने की सामर्थ्य-
        सामान्यतः आपकी उस सर्वशक्तिमान के सम्बन्ध में क्या कल्पना हुआ करती है ?कुछ भी नहीं । ईश्वर के बारे में आपकी जो कल्पना है उसका अनुभव करना ही धर्म है । और ईश्वर के विषय में,जो आपकी कल्पना है, उसका अनुभव करने में जब आप समर्थ हो जायेंगे,तब हम आपको ईश्वर का उपासक कहेंगे । अभी तो आप शब्द तक के बारे में ही जानकारी रखते हैं । इससे अधिक आप कुछ भी नहीं जानते । उस अवस्था में पहुंचने के लिए, जिसमें ईश्वर का अनुभव कर सकेंगे,साकार माध्यम से ठीक उसी प्रकार जाना होगा जैसे बच्चे प्रथम बार साकार वस्तुओं का अभ्यास करके क्रमशः भाववाचक की ओर जाते हैं ।धीरे-धीरे चलने का तरीका है । यहॉ धर्म के क्षेत्र में सब बच्चे ही हैं, उम्र में चाहे हम बूढे हों,संसार की सारी पुस्तकों का अध्ययन चाहे हमने कर लिया हो, आध्यात्मिक क्षेत्र में तो हम सब बच्चे ही हैं । अनुभव करने की इसशक्ति से ही धर्म बनता है ।

5-अपने को प्रेम से भर लो-
        नफरत से बहुत शक्तिशाली है प्यार की बात,समुद्र की जैसी होती है प्रेम की थाह,समुद्र कितना भी बढ जाय उसकी थाह बढती ही रहती है ।कितनी भी नफरत बढ जाय संसार की, पर प्यार उससे भी ज्यादा बढता रहेगा।आपके अन्दर जो चैतन्य बह रहा है वह प्रेम ही तो है। आज के मानव जीवन के भयानक तौर-तरीकों को समाप्त करने के लिए हमें अपने ह्दयों में प्रेम की शक्ति विकसित करनी होगी, प्रेम की पहचान है वह कभी किसी का अहित करने की नहीं सोच सकता, जो कुछ भी होगा हितकारी ही होगा । अबोधिता प्रेम का स्रोत है । पवित्रता का सम्मान करने पर ही हम प्रेम मय हो सकते हैं,घृणॉ से तो प्रेम को धोया जाता है,हमारा लक्ष्य अपने प्रेम को उन्नत करना होना चाहिए । ध्यान धारण से प्रेम की शक्ति विकसित की जा सकती है । अगर किसी से मार-पीट भी होती है तो प्रेम में,सबकुछकरना धरना प्रेम में हो सकता है,जिसमें जिसका जितना हित हो वही प्रेम है, इसी को तो प्रेममय जीवन कहते हैं।

6-तुम्हारी कमजोरी अगले की ताकत है-
        अपनी कमजोरी कभी भी प्रकट मत करो,एक दिन आपको धोखा मिलेगा। क्योंकि आपकी कमजोरी अगले की ताकत बन जाती है।जैसे कमजोर की बीबी सबकी भाभी होती है और पहलवान की बीवी सबकी बहन ।कमजोर दिलवाला तो हर जगह दुत्कारा जाता है। बस कमर कसो, तुम्हारी फतह होगी ।

7-त्रुटियॉ करना मानवीय स्वभाव है-
        अपनी त्रुटियों के सम्बन्ध में हम अपने आपको स्वयं धोखा देते रहते हैं और अंत में उन्हैं को अपना सद्गुंण समझने लगते हैं। गलतियों की सबसे बडी औषधि तो उनको विस्मृति करना है।वैसे संसार में कुछ भी त्रुटि रहित नहीं है।त्रुटि करना तो मानवीय स्वभाव है, जबकि क्षमा कर देना स्वर्गिक। त्रुटि निकालना सरल है,अच्छा कार्य करना कठिन है। यदि आपको अपने पडोसियों की त्रुटियों के बारे में कहना है तो पहले अपनी त्रुटियों पर दृष्टि डालें। वैसे पुरुषों की त्रुटियों में उसकी स्वार्थपरता निहित होती है,जबकि नारियों की त्रुटियों के मूल में उनकी

8-दुःख जीवन की सबसे बडी पाठशाला है-
        जीवन में दुःख से न घबडायें,दुःख तोसबसे बडी पाठशाला है,यह हमें अपने अन्दर झॉकने का अवसर देता है और कुछ नया करने को मजबूर करता है। दुख के लिए किस्मत या भगवान को कभी न कोसें । होंसला रखें जो काम सामने आये उसे जी जान से करें ।फिर आप महशूस करेंगे कि आपके पास मातम मनाने के लिए भी वक्त नहीं है। दुःख तो सिर्फ तबतक है जब तक आप मातम मनाते हैं ।

9-दुःख से मुक्ति पायें-
        हम अपनी आत्मा से अपरचित होने के कारण स्वयं को दीन-हीन और दुःखी मानते हैं ।यदि अपने आपको दीन-हीन मानते रहें तो जीवनभर रोते रहोगे। ऎसा है कौन जो आपको दुखी कर सके। यदि आप न चाहो तो दुःख की क्या मजाल कि आपको स्पर्श भी कर सकें।जो इस ब्रह्मॉण्ड को संचालित कर रहा है वह चेतन तो आपके भीतर चमक रहा है,इसलिए अपनी आत्म महिमा में जग कर उसकी अनुभूति कर लो,वही तो हमारा-तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है ।

10-दुर्भावना एक कलंक है-
        दुर्भावना तो मनुष्य के लिए एक कलंक है।जो कि अपने विश का आधा भाग स्वयं पी लेती है। दूसरों के दुर्भाग्य से दुद्धिमान व्यक्ति यह शिक्षा ग्रहण करते हैं कि उन्हैं किस बात से बचना चाहिए। आदमी की दुर्भावना उसके दुश्मन के बजाय उसे ही अधिक दुख देती है ।दूसरों के दुर्भाग्य सहने के लिए भी हमसब में पर्याप्त सहनशीलता है।यदि सारा दुर्भाग्य एक ही स्थान पर एक ढेर में रख दिए जॉय और उनमें सबको समान भाग लेना पडे तो हममें से धिकॉंश अपना ही भाग लेकर संतुष्ट होकर विदा हो जायेंगे।

11-दुष्ट मनुष्य का साथ न करें-
        दुष्ट मनुष्य के पास न तो किसी को ठहरना चाहिए और न उसके साथ कहीं जाना चाहिए ।दुष्ट व्यक्ति तो दूसरों के कार्य को नष्ट करना ही जानते हैं।सिद्ध करना नहीं। जिस प्रकार वायु वृक्षों को उखाडना ही जानती उन्हैं खडा करना नहीं ।इन्हैं तो महॉन लोगों के कार्य अच्छे नहीं लगते,इसीलिए वे उनसे द्वेष करते हैं। दुष्टों और कॉटों को सही रास्ते पर लाने के केवल दो ही उपाय हैं,या तो जूते से उनका मुंह तोड दिया जाय या उनकी अवहेलना कर दी जाय। दुष्ट यदि विद्वान हो तब भी उसके संग से बचना चाहिए,।दुष्ट बुद्धि के लोग दूसरों के उत्तम गुंणों को जानने की वैसी इच्छा नहीं करते,जैसी इच्छा उनके अवगुंणों को जानने की करते हैं। बिना कारण शत्रुता दिखाने वाले व्यक्ति से कौन नहीं डरता,जिसके मुंह में सॉप के विष जैसे असह्य अपशब्द रहते हैं।

12-दूसरे की विवशता को समझें-
        जब कभी हमसे कोई गलती होती है तो हम कहते हैं कि हमसे भूल हो गई लेकिन जब कोई दूसरा वैसी ही गलती करता है तो हमको इसके पीछे कुछ गलत मंशा दिखने लगती है। हम तो यही सोचते हैं कि उसने जान बूझकर ऐसा किया।जबकि सच बात तो यह है कि हम दूसरे व्यक्तियों को वैसा नहीं देखते जैसे वे हैं अगर हम दूसरे की विवशता को समझें तो हम परेशान नहीं होंगे बल्कि उससे सहानुभूति रखते ।

13द्वेष-भाव हानिकारक है-
        जिसका ह्दय द्वेष या वैर की आग में जलता है, उसे रात में नींद नहीं आती है।यदि आप द्वेष भाव कोमिटाना चाहते हैं तो,प्रेम की शक्ति ही उसे मिटा सकती है।किसी दूसरे की द्वेषयुक्त बुद्धि को हम द्वेष से नहीं मिटा सकते हैं बस द्वेष और कपट को त्याग दो,संगठित होकर दूसरे की सेवा करना सीखो,यही हमारे देश की पहली आवश्यकता है ।

14ध्यान क्या है-
        ध्यान का अर्थ हैं एकाग्रचित्त होना, अर्थात जागृत होकर एकाग्रचित्त में किसी कार्य को करना ध्यान है। चलना,उठना, सुनना,ध्यान हो सकता है पक्षियों की चहचहाहट सुनना ध्यान हो सकता है,य़दि आप एकाग्रचित्त तथा जागृत होकर सुनते हैं या अपने भीतर की आवाजों को सुनना ध्यान हो सकता है।अर्थात सोये न रहें जागृत होकर जो करोगे ध्यान हो सकता है।ध्यान को चार चरणों में विभाजित किसा जा सकता हैः-
पहला चरण- अपने शरीर को पूर्ण जागृत रखकर,एकाग्रचित्त, निर्विचारिता की स्थिति में ले जाना है,
इससे आपके शरीर को अधिक विश्राम और शॉति मिलेगी। आपका शरीर लयबद्ध हो जाता है,महशूस करोगे कि शरीर में एक सूक्ष्म संगीत सा फैलता जा रहा है।
दूसराचरण-अपने लक्ष्य के अनुरूप शरीर में निहित सूक्ष्म विचार के प्रति जागृत होना।फिर धीरे-धीरे महशूस करोगे कि आपके अन्दर उस विचार के प्रति क्या अनुभूति होती है अगर लिख डालते हो तो,स्वयं चकित हो जाओगे।
तीसरा चरण-यदि आप अपने विचारों के प्रति जागृत हैं तो फिर एक कदम और आगे बढना है कि उस विचार के प्रति अधिक गहन जागृत होना है बस ये तीनों आयाम जुडकर एक घटना बन जाती है फिर देखोगे कि क्या अनुभूति होती है।
चौथा चरण–यह तुरीय स्थिति की घटना की अवस्था है, जो जब प्रथम तीन चरणों को साधचुके होते हैं उनके लिए यह पुरुष्कार प्राप्त होता है।जिसमें व्यक्ति बुद्ध हो जाता है

15-ध्यान से प्रेम होता है क्रोध नहीं-
        जब ध्यान की बात आती है तो उस समय निर्विचारिता की स्थिति उत्पन्न होती है,और जहॉ निर्विचारिता होगी वहॉ ईश्वरीय शक्ति उत्पन्न होगी ,प्रेम जिसका प्रतीक है, इसलिए ध्यान करने पर प्रेम स्वतःही उत्पन्न हो जाता है अकबर ने अपनी आत्म कथा में ध्यान के सम्बन्ध मे एक रोचक घटना का उल्लेख किया हैः-कि जब मैं शिकार खेलने जंगल में गया था और साथियों से बिछुड गया, रास्ता भी भूल गया अंधेरा होनो लगा,मैं डरा हुआा था रात को कहॉ रुकूंगा,जंगल में खतरा था, भाग रहा था, तभी उसे सॉझ के वक्त प्रार्थना की याद आई यह तो जरूरी है, अपनी चादर विछाकर नमाज पढने लगा उसी समय अकबर ने देखा कि कोई स्त्री भागती हुई जा रही थी उसकी चादर में पॉव रखकर और उसपर घक्का देकर चली गई।अकबर को बडा क्रोध आया जल्दी-दल्दी नमाज पूरी कर घोडे पर सवार होकर भागा और रास्ते में उस स्त्री को पकड लिया और कहा बदतमीज तुम्हारी यही तमीज हैकि नमाज पढते वक्त तुमने ऎसा व्यवहार किया और फिर में तो एक सम्राट हूं। उस स्त्री ने जवाव में कहा महॉराज मुझे क्षमा करें मुझे पता नहीं था कि आप नमाज पढ रहे हैं,लेकिन महॉराज मुझे आपसे एक बात पूछनी है कि मैंअपने प्रेमी से मिलने जा रही थी तो मुझे कुछ भी नहीं दिखाई दिया कि मेरा प्रेमी राह देख रहा होगा,लेकिन आप तो परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे,मेरा धक्के का आभास आपको कैसे हो गया आपकी यह कैसी प्रार्थना है और ध्यान में तो प्रेम होता है आप तो गुस्से में हैं,इसका मतलव आप ढोंग कर रहे थे ।जो परमात्मा के सामने डा हो ,उसे तो सब भूल जाना चाहिए था,कोई आपकी गर्दन भी तलवार से काट लेता तो भी पता न चलता अकबर के दिल को कठोर चोठ पहुंची और इस घटना को अपनी आत्म कथा में लिखवाई । अकबर को महशूस हुआ कि प्रेम का ही विकास प्रार्थना है ।ध्यान में प्रेम का जागरण होता न कि क्रोध का

16-ध्यान से मन शॉत होता है-
        किसी काम को करने के लिए मन को जितना मना करते हैं मन उतना ही उस काम को करना चाहता है, इसलिए मन को मना न करें,मन जो कर रहा है करने दें। बस ध्यान रहे कि आप शरीर से न करें । उस मन को अपने आप में लगाइये,बाहर न लगने दें,क्योंकि बाहर लगने से दुख होगा,कष्ट होगा ।इस बात को ध्यान में रखें कि ध्यान से मन शॉत होता है, स्थिर होता है। जब मन शॉत होगा तो आत्मा का दर्शन होगा । इसलिए ध्यान करना न भूले।

17–आहार में ईश्वरीय शक्ति का प्रवेश -
        शुद्ध आहार ग्रहण करने से अन्त-करण की शुद्धि होती है। जिस भोजन को हम खाते हैं उससे केवल हमारे शरीर का पोषण ही नहीं होता है, बल्कि उस समय जिन संस्कारों या वातावरण में हम भोजन ग्रहण करते हैं,वे हमारे शरीर में बसते है और मॉस, रक्त, मज्जा,आदि का निर्माण करते हैं।क्योंकि भोजन के साथ हम विचार, भावनायें,मनोभावनाओ को भोजन व जल के साथ ग्रहण करते हैं इसलिए हमारा मन भी वैसा ही बन जाता है ।

18 – भय और वैराग्य-
        भय का मनुष्य से गहरी मित्रता होती है, वह मनुष्य का पीछा नहीं छोडता है, ङसीलिए भोग विलास में मनुष्य को रोग का भय रहता है, बल में बैरी का भय,धन होने पर राजा का भय, मौन में दीनता का भय,रूप में बुढापे का भय,गुणों में दुष्टों का भय,शरीर को मृत्यु का भय,शास्त्र में विवाद का भय, कुल में च्युत होने का भय अर्थात संसार की सभी वस्तुओं..

19 -नयें स्वस्थ विचारों का विकास कैसे किया जाय -
        मारे अन्दर यदि बुरे विचार हैं और उनके स्थान पर हम अच्छे विचारों को विकसित करना चाहते हैं ,तो ङसके लिए हमें उन बुरे विचारों को दबाने के लिए विरोधी शुभ विचार विकसित करने होंगे, जैसे क्रोध को दूर करने के लिए हमें प्रेम और शॉत विचारों का विकास करना होगा, यदि गंदे विचार या वासनाओं को दूर करना है तो उन्हैं दबाने के लिए विरोधी शुभ विचारों को विकसित करना होगा।

20 -स्थान परिवर्तन से विचारों में भी परिवर्तन हो जाता है -
        प्रत्येक विचार या वासना का सम्बन्ध स्थान विशेष से होता है, किसी विशेष स्थान में रहने से मन में विशेष प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं। क्योंकि उस स्थान के ङर्द-गिर्द उस स्थान से सम्बन्धित गुप्त विचारों का वातावरण छाया रहता है। जैसे मन्दिर में जाने पर पवित्र विचारों का प्रवाह स्वतः आने लगता है,और ङसके विपरीत दूषित स्थान में रहने से विचार दूषित हो जाते हैं।

21निर्जीव साधन सजीव हो जाते हैं-
        साधन तो निर्जीव होते हैं,और योग्यता जीवन का लक्षण है। यदि ये निर्जीव साधन किसी योग्य व्यक्ति के हाथ में पहुंचते हैं तो वे सजीव हो उठते हैं। इसलिए योग्यता आवश्यक है,साधन तो योग्य व्यक्ति के चरणों में खुद जा गिरते हैं

22- निर्विचार समाधि ही उत्थान का मार्ग है-
        उत्थान पाने के लिए निर्विचार समाधि में होना आवश्यक है,बिना इसके उत्थान नहीं हो सकता है।इसके बिना चाहे आप कोई भी योजना बना लें,जो चाहें करें,यह कार्यान्वित नहीं होगा।सहज योग में यह सहज ही कार्यान्वित होता है।आप जागृत हो जॉय फिर देखना सहज किस प्रकार आपकी सहायता करता है। निर्विचार समाधि एक सुन्दर स्थिति है जो कि आपको पाना है,इस जीवन को नाटक मानकर लोगों को साक्षी भाव में देखते हुये आनंद की अनुभूति के साथ उत्थान की ओर अग्रसर होना है ।

23- समर्ण का अर्थ है परमात्मा के साम्राज्य में स्थापित हो जाना-
        समर्पण का अर्थ यह नहीं है कि आप अपने बच्चों और घर को त्याग करें वल्कि अहं एवं वन्धनों का त्याग करें ।समर्पण से आपके अन्दर एक ऎसी स्थिति विकसित होती है जिसमें आन्तरिक रूप में आप सन्यासी बन जाते हैं।समर्पण का अर्थ है स्वयं को पूर्णतया शुद्ध करना। यह निर्लिप्सा ही उत्थान का एक मात्र मार्ग है।आपको यह मान लेना चाहिए कि मैं एक सहजयोगी हूँ,सारी शक्तियों को मैं अपने अन्दर आत्मसात कर सकता हूं।उन शक्तियों को अपने अन्दर बनाये रखें, ग्रहण करें और विश्वस्त हो जॉय कि मेरे अन्दर ये शक्तियॉ हैं।आपका सर्वव्यापक शक्ति से सम्बन्ध सच्चा,दृढ और निष्कपट होना चाहिए।तो फिर परमात्मा से एकाकारिता का आभास होना सहज है।आप जितना उन्नत होना चाहेंगे आपकी शक्ति आपको उतनी ही अधिक सामर्थ्य देगी ।आत्म निरीक्षण करें।समर्पण का अर्थ है आप( आदि शक्ति मॉ) सहज योग,सत्य से दृढतापूर्वक जुडे हैं।समर्पण में आपको किसी का कोई भय नहीं है,अपनी हानियों का भी नहीं ।समर्पण से गतिशील बन जाते हैं आप वास्तविक सृजनात्मकता शक्ति बन जाते हैं।

24-जहॉ कोई नहीं होता है वहॉ परमात्मा का निवास होता है-
        यह सत्य है कि जहॉ कोई नहीं है वहॉ परमात्मॉ का निवास होता है, मस्तिष्क को विचारशून्य रखें यही निर्विचारिता है। निर्विचारिता की अवस्था में जो भी घटित होता है वह प्रकाशवान होता है, निर्विचारिता में आपके मन में जो विचार आता है वह एक अन्तः प्रेरणा होती है।निर्विचारिता में आप परमात्मा की शक्ति के साथ एक रूप हो जाते है,अर्थात आप परमात्मा में आकर मिल जाते हैं । परमात्मा की शक्ति आपके अन्दर आ जाती है।कोई भी निर्णय लेने से पहले निर्विचारिता में जाओ, अब जो निर्णय सामने आ जाए, उसी को कीजिए, यही सबसे उपयुक्त निर्णय होगा, क्योंकि उसमें आपका ईगो और सुपर ईगो दोनों काम करते हैं ।आपका संसार आपके पीछे खडा है,आपने जो भी लौकिक कमाया है,वह आपके पीछे खडा होगा लेकिन निर्विचारिता में करोगो तो आलौकिक व चमत्कारिक निर्णय होगा,आप ऎसा निर्णय लेंगे जो बडे-बडे लोगों के बस में नहीं। किसी भी कार्य को निर्वचारिता में करने से जान जाओगे कि कहॉ से कहॉ डाएनैमिक हो गया मामला। निर्विचारिता में रहना सीखें यही आपका स्थान है, आपका धन,आपका बल,शक्ति,आपका स्वरूप, सौन्दर्य तथा यही आपका जीवन है।निर्विचार होते ही बाहर का यन्त्र पूरा आपके हाथ में घूमने लग जाता है। सिर्फ जीवंतता का दर्शन होगा,आपको उस जगह से दिखाई देगा जहॉ से जीवन की धारा बहती है। इसलिए निर्विचारिता समाधि से स्वयं को ज्योतिर्मय बनाइयें यह कार्य कठिन नहीं है, यह स्थिति आपके अन्दर है, क्योंकि विचार या तो इधर से आते हैं या उधर से,ये आपके मस्तिष्क की लहरियॉ नहीं हैं,ये तो आपकी प्रतिक्रियायें हैं। लेकिन ध्यान धारण करने पर आप निर्विचार चेतना में चले जाते हैं, यह स्थिति प्राप्त करना आवश्यक है और तब आपके मस्तिष्क में आने वाले मूर्खतापूर्ण एवं व्यर्थ विचार समाप्त हो जाते है, इन विचारों के समाप्त होने पर ही आपका उत्थान सम्भव है तभी हम आप उन्नत होते हैं।

25-निर्विचारिता में निर्णय लें-
        कोई भी निर्णय लेने से पहले निर्विचारिता मे जाओ, अब जो निर्णय सामने आ जाय,वह करिए,कभी गलत हो ही नहीं सकता है क्योंकि इसमें आपका ईगो और सुपर ईगो दोनों काम करते हैं।हर काम को करते समय हम निर्विचार हो सकते हैं,और निर्विचारिता होते ही उस की सुन्दरता,उसका सम्पूर्ण ज्ञान और सारा आनन्द आपको मिलने लगता है।

सहज योग उत्थान के लिए वरदान है



1-आदिशक्ति माता जी श्री निर्मला देवी का आध्यात्म-
        अपने जीवन में अपने हिन्दू धर्म के अनुसार देवी-देवताओं की उपासना में मैं हमेशा भ्रमित रहता था,ईश्वर को तलासने के लिए कभी इस मंदिर में सभी उस मंदिर में भटकता रहा,लेकिन कुछ वर्षों पूर्व जब माता जी के आध्यात्म के सम्पर्क में आया तो ईश्वर के प्रति विचारधारा ही बदल गई । इस आध्यात्म में सबसे बडी बात यह है कि हमें किसी गुरु के शरण में जाने की आवश्यकता नहीं हैं,हम अपने गुरु स्वयं अपने आप हैं।जबकि सभी उपदेश देने वाले कहते हैं कि बिना गुरु के ईश्वर प्राप्त हो ही नहीं सकता । दूसरी बात माता जी ने कहा कि ईश्वर को रुपये पैसों की भाषा समझ में नहीं आती है आप इस कार्य में कोई खर्चा न करें ।तीसरी बात माता जी ने कहा बाहर जितने भी देवता हैं वे सभी हमारे शरीर में अलग-अलग तत्वों के रूप में विद्यमान हैं, इसलिए हमें बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं है,हमें तो इन्हैं अपने शरीर के अन्दर ही प्रशन्न करना है । अपने शरीर के अन्दर सात चक्र हैं, कुण्डलिनी मूलाधार में बैठी होती है, अगर हमारे सातों चक्र जागृत अवस्था में हैं तो कुण्डलिनी हर चक्र से होकर अन्त में सहस्रार का भेदन कर सदा शिव में मिल जाती है, यह परम चैतन्य प्राप्ति की स्थिति है । इस स्थिति में शरीर को अथाह आध्यात्मिक ऊर्जा मिलती है जोकि किसी लक्ष्य की प्राप्ति में सक्षम मानी जाती है ।इस धरती पर जितनी भी शक्तियॉ या देवता हैं उनमें मॉ का स्थान प्रथम है,उसी मॉ की आस्था में मैं विश्वास करता हूं ।यहॉ पर जो लिखा गया है उन्हीं के संरक्षण में लिखा जाता है,यह आपके लिए है।


 
2- सहज योग उत्थान के लिए वरदान है-
        आप जिस ऊंचाई तक पहुंच रहे हैं उसका लाभ आपको होना चाहिए।आपको सारे आशीर्वाद मिल रहे हैं- सौन्दर्य,प्रेम, आनन्द. ज्ञान, मित्र, तथा सुवुधा। आप चालाकी करते हैं तो आपको बाहर फेंक दिया जायेगा ।लेकिन आपकी मॉ की करुंणा इतनी महान है कि वे सदा क्षमा करने और आपको अवसर प्रदान करने के लिए प्रयत्नशील रहती है ।सारे देवताओं को जो आप से रूठ गये थे को शॉत करने का प्रयास करती रहती है, देवता एक सीमा तक मान भी जाते हैं। सहज योग दूसरे धर्मों की तरह नहीं है जहॉ कि आप गलती करते चले जाते हैं,मन मर्जी करते हैं,हत्या करते हैंऔर धोखा देते हैं लेकिन यहॉ तो आपको एक सहजयोगी होना पडेगा ।सहजयोग में आपको यह जानना होगा कि वास्तव में आपको समर्पित और ईमानदार होना पडेगा ।
 
 

3-अत्यन्त भाउक होना नाडीतंत्र की कमजोरी का फल है-
        जब नाडी तंत्र कमजोर होती है तो हम किसी भी बात पर भाउक हो जाते हैं। इससे हर्ष और विषाद के बीच एक नाटकीय द्वंद बना रहता है ।इससे वे आलसी, नकारात्मक,तामसी,और अपने आप से पीढित रहते हैं।बायें ओर की यह चन्द्रनाडी मस्तिष्क के दायें भाग पर प्रतिअहंकार के रूप में अधिक दबाव डालती है,तो मनुष्य पागलपन,पाक्षाघात तथा वृद्धावस्था को प्राप्त होता है और जो लोग अत्यधिक भाउक होते हैं वे सन्तुलन खो देते हैं।परिणाम स्वरूप उसका प्रतिअहंकार दाहिने मस्तिष्क के ऊपर फूल जाता है,और जब यह अधिक बढ जाता है तब बायें ओर स्थित अहंकार को दबाता है, ताकि सूर्यनाडी को राहत मिले।इस प्रकार वह असंतुलन की स्थिति में रहता है ।।

 
4-मन की पवित्रता के लिए कुण्डलिनी जागृत करे-
        जब भी आप किसी बुरी आदत में फसने लगते हैं तो आपका अपने पर नियन्त्रण समाप्त होजाता है ,कोई प्रेतात्मा आप में बैठ जाती है और आप समझ नहीं पाते कि उस आदत से कैसे छुटकारा पाया जाय। सहज योग में जब कुण्डलिनी उठती है तो ये मृत आत्मायें आपको छोड देती हैं और आप ठीक हो जाते हैं । मैं तुम्हैं यह कहूंगी कि महॉवीर ने केवल नर्क की बात कही,किजीवन में पाप के दण्डस्वरूप आपको कौन सा नर्क प्राप्त होगा ।अपना हित चाहने वाले मनुष्य के लिए तो नर्क के लिए सोचना कितना भयावह है ।इसलिए कुण्डलिनी जागृत करके नर्क के रास्ते से मुक्ति प्राप्त करें ।


 
5--सहज योग में ध्यान धारण कैसे क्रियान्वित होता है?-
        सहजयोग-(सह+ज=हमारे साथ जन्मा हुआ)जिसमें हमारी आन्तरिक शक्ति अर्थात कुण्डलिनीजागृत होती है, कुण्डलिनी तथा सात ऊर्जा केन्द्र जिन्हैं चक्र कहते हैं,जो कि हमारे अन्दर जन्मसे ही विद्यमान हैं।ये चक्र हमारे शारीरिक,मानसिक,भावनात्मक तथा आध्यात्मक पक्ष को नियन्त्रित करते हैं । इन सभी चक्रों में अपनी-अपनी विशेषताहोती है,सबके कार्य बंटे हुये हैं ।कुण्डलिनी के जागृत होने पर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैली हुई ईश्वरीय शक्ति के साथ एकाकारिता को योग कहते हैं । और कुण्डलिनी के सूक्ष्म जागरण तथा अपने अन्तरनिहित खोज को आत्म साक्षात्कार(Self Realization)कहते हैं ।आत्म साक्षात्कार के बाद परिवर्तन स्वतः आ जाता है ।वर्तमान तनावपूर्ण तथा प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में भी सामज्स्य बनाना सरल हो जाता है और सुन्दर स्वास्थ्य,आनंद,शान्तिमय जीवन तथा मधुर सम्बन्ध कायम करने में सक्षम होते हैं ।

 

6--हमारे शरीर में कुण्डलिनी महॉनतम् शक्ति है-
        जिसने कुण्डलिनी का उत्थान कर दिया उस साधक का शरीर तेजोमय हो उठता है।इसके कारण शरीर के दोष एवं अवॉच्छित चर्वी समाप्त हो जाती है।अचानक साधक का शरीर अत्यन्त संतुलित एवं आकर्षक दिखाई देने लगता है।आंखें चमकदार और पुतलियॉ तेजोमय दिखाई देती हैं। संत ज्ञानेश्वर जी ने कहा है कि सुषुम्ना में उठती हुई कुण्डलिनी द्वारा बाहर छिडका गया जल अमृत का रूप धारण करके उस प्राणवायु की रक्षा करताहै जो “उठती हैं,अन्दर तथा बाहर शीतलता का अनुभव प्रदान करती है” ।।


 
7-निर्विचारिता का आनन्द-
        जब आप निर्विचारिता में होते हैं तो आप परमात्मा की श्रृष्ठि का पूरा आनंद लेने लगते हैं,बीच में कोई वाधा नहीं रहती है ।विचार आना हमारे और सृजनकर्ता के बीच की बाधा है ।हर काम करते वक्त आप निर्विचार हो सकते हैं, और निर्विचार होते ही उस काम की सुन्दरता,उसका सम्पूर्ण ज्ञान और उसका सारा आनंद आपको मिलने लगता ङै ।

 
8 -अपनी शक्ति को सन्तुलित करें-
        कुछ लोग सहज योग के लिए खूब प्रचार करते हैं लेकिन अपनी ओर ध्यान नहीं देते,वे बाह्य में तो बहुत काम करते हैं मगर अन्दर की शक्ति की ओर ध्यान नहीं देते, जिससे उत्थान की ओर गति प्राप्त नहीं करते।कुछ लोग अन्दर की शक्ति की ओर ध्यान देते हैं मगर वाह्य की ओर ध्यान नहीं देते,जिससे उनमें संतुलन नहीं आ पाता है वाह्य शक्ति की ओर बढने पर उनकी अन्दर की शक्ति क्षीण हो जाती है जिससे वे अहंकार में डूबने लगते हैं। इन लोगों का दूसरों से सम्बन्ध नहीं हो पाता उनका सम्बन्ध तो इतना होता है कि किस तरह दूसरों पर रौब झाडें,वे अपने ही महत्व तक सोचते हैं,उनके लिए चैतन्य कहता है कि अच्छा तुझे जो करना है कर मिटा ले स्वयं को। वह आपको रोकेगा नहीं । हम तॉ एक विराट शक्ति हैं, अगर हम चाहते हैं कि कमरे में बैठकर म़ाता की पूजा करें दुनिय़ा से हमारा क्या मतलव तो वे लोग भी आगे बढ नहीं सकते। यह तो एसा हो गया कि हाथ की एक अंगुली कह रही हो कि मेरा इस हाथ से कोई सम्बन्धनहीं है। इसलिए हमें आंतरिक और वाह्य दोनों शक्तियों की ओर ध्यान देना होगा तभी हमारे अन्दर पूरी शक्ति का संतुलन होगा ।

 
9 -मध्य संतुलन की स्थिति में रहें-
        स्वयं पर नियंत्रण रखें कोई अति करने की आवश्यकता नहीं है,वैसे अति में जाना मानवीय गुंण है।यदि आप तर्कसंगत हैं तो तर्कसंगत ठहराते चले जाते हैं,मैं एसा नहीं कर सकता,ये ही होता रहा है,मै वैसा नहीं कर सकता आप इतने भावक हो जाते हैं कि भावनात्मक के नाम पर गलत काम करने लगते हैं ।स्वयं पर दृष्टि रखें।मध्य में आने की कोशिस करें,जहॉ पर कि आप पूरी परिधि को देख सकते हैं।यदि आप मध्य से हटकर दायें –बॉयें चले गये तो सारा ही वैलेंस खत्म हो जायेगा। आदमी सोचता है कि वह राइट साइड है तो थोडा अपने को लेफ्ट साइड में ले जाना चाहिए,लेफ्ट साइड यानी आप भाउकता में बढ गये तो आपको चाहिए कि अपने को सन्तुलन में रखें।

 
10 -परमात्मा की बुद्धि मध्य में है उसी में समाकर रहें-
        अति अक्लमंद किसी काम का नहीं है। परमात्मा की बुद्धि तो बीच में है। उसी में समाकर रहना चाहिए।हम अति पर चले जाते हैं, और अपनी आदतें नहीं बदलते,हर बार हम अति पर चले दजाते हैं। हमारा स्वयं पर नियंत्रण नहीं है,जिस तरह हमारा मस्तिष्क बताता है हम वही बात मान लेते हैं,न हमारे अन्दर सन्तुलन है और न हमारी शारीरिक आवश्यकतायें सन्तुलित हैं,किसी भी प्रकार का सन्तुलन नहीं है,जैसा हम ठीक समझते हैं बिना सोचे समझे किये चले जाते हैं। यह हमारी विवेकशीलता नहीं है। सहजयोग में आने से सारे दोष दूर हो जाते हैं। और जब वे दोष समाप्त हो जाते हैं तो समझ लेना चाहिए कि आपने बडी भारी चीज हासिल कर ली है,जब तक आपके अन्दर वे दोष होंगे तब तक आप उन्हीं चीजों में लगे रहेंगे दूसरों से झगडा करना, आदि तो समझलेना चाहिए कि आप मध्य में नहीं हैं।जब आप मध्य में होंगे तो आप किसी एक चीज से लिप्त नहीं होंगे, आप सब में समाये रहेंगे। आपको देखना होगा कि आप अहं या प्रति अहं में तो नहीं हैं यदि प्रति अहं है तो आप बायें ओर की बाधा से ग्रस्त हैं आलसी व्यक्ति को चाहिए कि काम की आदत डालें,मस्तिष्क को भविष्य की योजनाओं को बनाने में लगा दें इस प्रकार बायें ओर से खिंचाव से बचकर धीरे-धीरे स्वयं को संतुलित करें।और यदि दायें ओर अधिक गतिशील हों तो, तामसिकता द्वारा नहीं बल्कि मध्य का इस्तेमाल करें। बायें ओर तमोगुंण है और दॉयी ओर रजोगुंण है । हमेशा मध्य में रहें ।संतुलन में रहें।
 
 

11 -सत्य की खोज-
        प्रचीनकाल में अनेक महान लोग इस पृथ्वी पर सत्य को बताने के लिए अवतरित हुये और अपने-अपने स्तर से मानव को समझाने का जी जान से प्रयास करने लगे कि आध्यात्म क्या है,लेकिन विषमता इतनी अधिक थी कि लोग इस बात को कभी नहीं समझे कि आध्यात्मिकता हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है।हमें परमात्मा से उनके प्रेम की सर्वव्यापी शक्ति से एकाकारिता करनी है।उन्होंने अपने प्रयत्न गलत दिशा की ओर दिये।लेकिन मानव तो बुद्धिमान था उसने खोज प्रारम्भ की, सत्य की नहीं बल्कि अपनी मुक्ति की,अपनी उन्नति की,इस दिशा की ओर वे भूल गये कि सर्व प्रथम तो आध्यात्म की खोज करनी चाहिए थी, क्योंकि आध्यात्म ही महत्वपूर्ण है। उससमय हमारे सामने दो प्रकार की यात्रायें थी एक तो बायें ओर और दूसरी दायें ओर से ।सत्य की खोज में लोग जंगलों में चले गये और संत बन गये लेकिन वे लोग दायीं ओर की तपस्या कर रहे थे अर्थात अपने पंच्चतत्वों पर स्वामित्व प्राप्त करना ।सभी तत्वों की आन्तरिक चेतना के विषय में वे जानते थे इन्हीं कारणों से वे इनकी पूजा करने लगे।पर यह तो दांयें ओर की गतितविधि बनगई।अर्थात कर्म काण्ड में बायी ओर के विना दॉयां पक्ष अत्यन्त भयानक होता है। यदि आप में दॉयॉ पक्ष नहीं है तो भी तो भी भयानक बात है,लेकिन सर्व प्रथम आपको अपने बॉये पक्ष को विकसित करना होगा ।करुणॉ,प्रेम,और सबके लिए सौहार्द ही बॉयॉ पक्ष है।बायें ओर बहुत सी चीजें हैं देवी आपके अन्दर भिन्न रूपों में विराजमान है, इसलिए अपना बॉयॉ पक्ष सबसे पहले मजबूत करें ।जिन लोगों ने दॉयॉ पक्ष अपनाया वे अत्यन्त आक्रामक हो गये और पंच्च तत्वों के सार का स्वामित्व प्राप्त कर लिया । यह तो ठीक है पर वे लोग क्रोधी स्वभाव के हो गये कि लोगों को श्राप देने लगे,कठोर वातें वे कहते थे।जो लोग दायें ओर का मार्ग पकडते हैं,परमात्मा के आशीर्वाद के बिना चलते है,वास्तव में वे राक्षस बन जाते हैं यह मानवता के लिए एक खतरा है।

 
12-महॉमाया की शक्तियॉ-
        सारे संसार में जो चैतन्य बह रहा है वे उसी महॉमाया(आदिशक्ति)की शक्ति है इस महॉमाया की शक्ति से ही सारे कार्य होते हैं,यह शक्ति सब चीजों सोचती हैं,देखती हैं व जानती है। तथा सबको पूरी तरह से ब्यवस्थित रूप से लाती है, और सबसे बडी चीज है कि यह आपसे प्रेम करती है, इस प्रेम में कोई मॉग नहीं है,सिर्फ देने की इच्छा है, आपको पनपाने की इच्छा,आपको बढाने कीइच्छा, आपकी भलाई की इच्छा ।।

 
13-आदिशक्ति क्या है-
        यह शक्ति सर्वशक्तिमान परमात्मा श्री सदाशिव की शुद्ध इच्छा है,आदिशक्ति परमात्मा के प्रेम की प्रतिभूति है,परमात्मा का विशुद्ध प्रेम है। अपने प्रेम में उनहोंने इच्छा की कि ऐसे मानव का सृजन हो जो आज्ञाकारी हो,उत्कृष्ट हो,देवदूतों की तरह हो और इसी विचार से उन्होंने सृजन किया,ये आदिशक्ति प्रेम की शक्ति है,आदिशक्ति का प्रेम इतना सूक्ष्म है कि कभी आप इसे समझ ही नहीं सकते हैं।सारे ब्रह्माण्ड का सृजन करने वाली .ही शक्ति है।यह ब्रह्म चैतन्य है।परम सत्य तो यह है कि सृष्टि ब्रह्म चैतन्य के सहारे चल रही है।यह सारा चैतन्य परमात्माकी की ही इच्छा है और इस परम चैतन्य की इच्छा से ही आज हम मनुष्य स्थिति में पहुंचे हैं ।।

 
14-शब्द की शक्ति-
        आदिशक्ति माता का नाम लिर्मला है, जिसमें नि- पहला अक्षर है, जिसका अर्थ है नहीं।अर्थात कोई वस्तु जिसका कोई अस्तित्व नहीं है,लेकिन जिसका अस्तित्व प्रतीत होता है उसे तो महॉमाया (भ्रम) कहते हैं।सम्पूर्ण विश्व इसी प्रकार का है ।यह दिखता तो है मगर वास्तव में है नहीं।यदि हम इसमें तल्लीन हो जाते हैंतो प्रतीत होता है कि यह सबकुछ है ।तब हमें लगता है कि हमारी आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं है,सामाजिक व पारिवारिक परिस्थितियॉ असंतोषजन है,हमारे चारों ओर जो कुछ भी है सब खराब है।हम किसी चीज से संतुष्ट नहीं हैं ।

 
15-सहजयोगी अपने पैर न छुआने दें-
        समान्य व्यक्ति के लिए हर सहजयोगी गुरु हो सकता है,इस स्थिति में आप किसी से अपने पैर न छुआने दें,जैसै कि भारत में अपने से बडों के पैर छूने की परम्परा है,उस स्थिति मे तो कोई बात नहीं है, मगर गुरु के नाते यदि आप अपने छूने देते हैं तो यह आपके लिए हानिकारक हो सकता है,आप यहजयोग से बाहर चले जाते हैं। आपको भी किसी अवतरण के अतिरिक्त किसी अन्य के सम्मुख समर्पित नहीं होना चाहिए ।अपने गुरु के पैर अवश्य छू लें मगर इससे पहले आपको चाहिए कि अपने कान पकड लें।

 
16-चैतन्य लहरियों से स्वयं को सत्यापित करें-
        यदि आप चैतन्यलहरियों के द्वारा स्वयं को सत्यापित करते हैं तो वह आपका ज्ञान बन जाता है,और धीरे-धीरे यही ज्ञान आपको बताया जाता है।पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में बताने वाली पुस्तकों में न उलझें, इससे आपका मस्तिष्क दूसरी दिशा में चला जायेगा।आप ऐसे ज्ञान की ओर चले जायेंगे जो सम्भवतः ज्ञान है ही नहीं।फिर आप सोचने लगोगे कि यह तो मुझे पता ही नहीं था मैं जानता ही नहीं था,आपको तो जानना यह है कि आप क्या हैं।आप तो आत्मा हैं और सामर्थ्य के अनुसार आत्मा का जो प्रकास आप लेकर चल रहे हैं वह साधारण प्रकास से अलग है,जो प्रकास दिखता है वह न सोचता है न समझता है,और जो प्रकास आप लेकर चल रहे हैं वह सोचता भी है और समझता भी है,प्रभु आपको उतना ही प्रकास देता है जितनी आपकी सामर्थ्य है,यह प्रकास न तो चकाचौध करता है और न ही मध्यम पडता है,एकदम उतना ही जितना आप समझ सकते हैं।लेकिन यदि आप इन्हैं आप आत्मसात नहीं करते हैं तो आदिशक्ति को बहुत कष्ट होता है इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि इधर- उधर का ज्ञान महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण तो यह है कि आप कहॉ पहुंचे और सहजयोग में आपने कितनी परिपक्वता प्राप्त की ।

 
17-जीवन साथी चयन के लिए ध्यान केन्द्रों को अपवित्र न करें-
        हमें उन मर्यादाओं के बारे में बात करनी है जिनका पालन सहजयोगी को करन हा ।इसके लिए सहजयोगी को आपने मूलाधार के महत्व को समझना होगा,इसके विना उत्क्रॉति प्राप्ति नहीं हो सकती है ।सहजयोगी जीवन साथी चयन के लिए आश्रमों, ध्यानकेन्द्रों का उपयोग करते हैं उन्हैं अपवित्र न करें ।इस बात का सम्मान करें आपको विवाह करना है तो सहजयोगी से बाहर जीवनसाथी ढूंड सकते हैं,क्योंकि कई लोग सहजयोग से बाहर सम्बन्ध बनाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। कई उदाहरण मिलेंगेकि लोगों ने सहजयोग से बाहर शादी करके अच्छे लोंगों को सहजयोग में लाये हैं।सहजयोग में तो यह प्रयत्न सम्भव नहीं है,इससे आपका हित नहीं होगा ,ध्यान रखे यदि आप ऐसा करते हैं तो आपका मूलाधार कभी भी स्थापित नहीं हॉ पायेगा।आपकी उन्नति के लिए यब भयानक झटका होगा एक ही नगर में इसप्रकार का सम्बन्ध बनाना अत्यन्त गलत होगा, इससे गलत परम्परा बनती हो छेडना,अच्छी जोडी है या तुम अच्छे लगते हो या इस प्रकार की बातें कहने से मूलाधार विकृत होता है,ब्रह्मचर्य का जीवन ही आपके हित में है।किसी भी स्थिति में सहजयोग के नियमों का पालन किया जाना चाहिए ।

 
18-बॉईं ओर के लोगों नमक अधिक खाना चाहिए-
        दॉईं ओर के लोगों को चीनी का परामर्श दिया गया है और बॉईं ओर के लोगों को नमक का।नमकसे वे बहुत सी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं,क्योंकि नमक उन्हैं व्यक्तित्व प्रदान करता है।,आत्मविश्वास दे सकता है,जिससे वे गरिमामय ढंग से ,अपनी अभिव्यक्ति कर सकेते हैं।

 
19-सहस्रार पकडना गम्भीर बात है-
        सहजयोगी का अगर सहस्रार पकडता है तो यह गम्भीर बात है क्योंकि सहस्रार तो आदिशक्ति का स्थान है,उसे आदिशक्ति को पहचानना होगा,ऐसे लोग सहजयोग के प्रति द्वंद में रहते हैं।उन्हैं यह बात समझानी चाहिए कि आपको आत्मसाक्षात्कार माता जी ने दिया है किसी और ने नहीं। जबतक आप इस बात को नहीं समझते कि राम कृष्ण,शिव,विष्णु आपसे नाराज हो जायेंगे।

 
20- नकारात्मकता शक्ति से स्वयं को खतरा है-
        आप एक बहुत बडे तपस्वी बन सकते हैं जो दूसरों को श्राप दे सकें, उन्हैं कष्टों में डाल सकें, और आप यहीं सोचते हैं कि यह बहुत बडी शक्ति है।बल्कि यह बहुत बडी शक्ति नहीं है,आपकी अपनी शक्ति ही आपका जीवन ले लेगी। इसलिए आप जब अपनी कुण्डलिनी उठाते हैं तो आपको भक्ति मार्ग पर चलना होगा अपने अन्दर अवलोकन करें कि मुझमें क्या कमी है,यह खोजने का प्रयत्न करें कि आपका क्या आदर्श है। आपको अपने बॉये पक्ष पर स्वामित्व पाना होगा। आपमें कुंण्डलिनी जागृत हो गई, परमात्मा से एकाकारिता हो गई, तब आप दांईं ओर गतिशील हों ।

 
21- मूलाधार जागृत करें तो पवित्र बन जाओगे-
        आपका मूलाधार जागृत होता है तो आप अत्यन्त पवित्र हो जाते हैं ।आपमें वासना समाप्त हो जाती है,आपका छिछलापन समाप्त हो जाता है जब तक यह नहीं होगा आप सहजयोग में नहीं रह सकते हो । आप अपने अन्दर पवित्र विवेक विकसित करें उसका सम्मान करें और उसका आनंद लें और यह तभी घटित होगा जब आपका मूलाधार जागृत होगा। क्योंकि बॉयें मूलाधार में गणेश जी विद्यमान हैं जिससे हम अपने दॉये ओर के दोषों को दूर करते हैं ।
22- स्वादिष्ठान जागृत करें तो यश मिलेगा-
        स्वादिष्ठान ऊंचा उठाने के कारण सृजन करने की क्षमता जाग उठती है ।इतिहास गवाह है कि पूरे विश्व में प्राचीन काल से यश और धन कमाने की होड रही है यह शक्ति स्वादिष्ठन से ही प्राप्त होती है ।यहॉ से हमें सभी प्रकार की अटपटी और गन्दी चीजों का सृजन करने की आक्रामकता पैदा होती है। वे लोग जो यश कमाना चाहते हैं या पद हासिल करना चाहते हैं दॉयें स्वादिष्ठान से प्राप्त होते हैं । मध्य स्वाधिष्ठन पर जब हम होते हैं तो हमारे अन्दर सृजनात्मकता पैदा होती है सुन्दर गहनता पूर्ण आध्यात्मिक कला का सृजन होता है। लेकिन इस उन्नत्ति के साथ सभी प्रकार की गन्दगी भी आ जाती है।लेकिन हमें जीवन के उत्थान की बात सोचकर चलना है ।

 
23- इतिहास के पन्नों की दृष्टि-
        विश्व इतिहास में वक्त ऐसा आया कि लोग धन कमाने के पीछे पड गये यह नाभि चक्र का कमाल है। विश्व में बॉये ओर (भारत क्षेत्र)के लोग धन कमा रहे थे, जबकि दायें ओर(पश्चिमी देश) के लोग धन के कारण आक्रामक हो गये थे उन्होंने सोचा कि वे विश्व के शिखर पर हैं हम से श्रोष्ठ कोई नहीं हैं। उनकी इस सोच ने उन्हैं समाप्त कर दिया और उन्हैं उस विन्दु तक ले गई कि उन्हैं सोचने का मौका मिला कि धन विनाश के लिए नहीं है।धन तो निर्माण के लिए होता है,देश का निर्माण के लिए,मानव शॉति,प्रेम,सहयोग तथा सभी प्रकार के अच्छे गुणों के निर्माण के लिए। ह्दय चक्र में यही लोग मातायें भी भयानक थीं अपने बच्चों तथा अन्य लोगों पर रौब जमाने का प्रयत्न किया । अपने बच्चों के लिए वे कोई बलिदान न कर सकीं, वे अपने बच्चों व पति के प्रति आक्रामक थीं पितृत्व भाव समाप्त हो गया था। विशुद्धि चक्र में इन लोगों ने पूरे विश्व पर अपना कब्जा करना चाहा, ताकि वे सम्राट बन सकें । उन्होंने साम्राज्य बनाये और इस प्रकार से अमानवीय व्यवहार किये जिसे करना मानव के लिए शर्मनाक है। वास्तव में वे लोग राक्षश थे,ये राक्षशी गुंण आज भी बने हुये हैं। इन लोगों के कारण ही विश्व दो भागों में बंटा है। कुछ लोग तो आक्रामक हैं और दूसरों को कष्ट देते हैं।परन्तु दूसरे वे लोग भी हैं जो सूझ -बूझ वाले हैं उनके द्वारा अच्छी संस्थायें स्थापित की गईं हैं लेकिन लक्ष्य प्राप्ति में वे अधिक सफल नहीं हो पाये हैं,क्योंकि उनके उच्च पदों के लोग ही पूरा नियंत्रित कर रहे हैं। जबकि वे स्वयं को नियंत्रित नहीं कर पाते हैं उनके आचरण ने इस चक्र के सारे कार्य विगाड दिया है।

 
24- विश्व शॉति के लिए आध्यात्म को गतिशील होना होगा-
        आज पूरे विश्व में अशॉति का माहौल बना हुआ है सर्वत्र युद्ध चल रहे हैं। मार-काट और विनाश की स्थिति बनी हुई है। यह क्यों ?लगता है आध्यात्मिक लोग अत्यन्त मौन हो गये हैं, और वे स्वयं अपने आध्यात्मिक जीवन का भरपूर आंनंद ले रहे हैं।विश्व में आध्यात्मिक लोगों की कमी नहीं है। बस उन्हैं गतिशील होना होगा,विश्व शॉति के लिए कुछ न कुछ करना होगा।हम अपनी आध्यात्मिक उन्नति से सन्तुष्ट हैं,हमें यह देखना होगा कि हमने अन्य लोगों की आध्यात्मिक उन्नत्ति में कितना योगदान दिया।और वे कहॉ तक पहुंचे हैं। क्या हम उन्हैं परिवर्तित कर सकते हैं? आपने क्या किया ? आज विश्व में सबसे बडी विपत्ति यही है कि जो लोग आध्यात्मिक हैं,जिन्होंने कि महान बुलंदियॉ प्राप्त कर ली हैं, उन्हैं तनिक भी चिन्ता नहीं है कि क्या किया जानाचाहिए।अपनी आध्यात्मिकता का आनंद लेने के लिए वे पूजाओं में जाते हैं, अधिक से अधिक आध्यात्मिकता प्राप्त करते हैं, परन्तु अन्य लोगों को परिवर्तित करने के लिए उन्होंने कोई सामूहिक कार्य नहीं किया। अपना अन्तर्वलोकन करके देखें और अधिक से अधिक लोगों को सहज योग में लाने का प्रयास करें।