Thursday, March 26, 2015

भारतीय संस्कृति की सुगन्ध

1-ध्यान: मनुष्य के जीवन का आदर्श संस्कार है
 
          अगर देखें तो मेडिटेशन आजकल एक फैशन की तरह इस्तेमाल होने लगा है। कोई किताब पढ़ कर तो कोई किसी से कुछ सुनकर मेडिटेशन का अपना मतलब और अपना तरीका विकसित कर लेता है। ऐसे में बहुत जरूरी है यह जानना कि आखिर मेडिटेशन है क्या? 'मेडिटेशन शब्द के साथ लोगों के दिमाग में कई तरह की गलत धारणाएं हैं।
 
          सबसे पहली बात तो यह कि अंग्रेजी के मेडिटेशन शब्द का कुछ सार्थक मतलब नहीं है। अगर आप बस आंखें बंद कर बैठ जाएं तब भी अंग्रेजी में इसे मेडिटेशन करना ही कहा जाएगा। आप अपनी आंखें बंद करके बैठे हुए बहुत से काम कर सकते हैं- जप, तप, ध्यान, धारना, समाधि, शून्या कुछ भी कर सकते हैं। पश्चिमी समाज में देखें तो जाहिर है कि आज आप जिन चीजों को पाने का सपना देखते हैं, वे ज्यादातर पहले से ही उनके पास हैं।
 
          क्या आपको लगता है, वे संतुष्ट हैं, आनंद की स्थिति में हैं? नहीं आनंद के आसपास भी नहीं हैं वे। या यह भी हो सकता है कि आपको बस सीधे बैठकर सोने की कला में महारत हासिल हो। तो आखिर वह चीज है क्या, जिसे हम मेडिटेशन कहते हैं? आमतौर पर हम ऐसा मान लेते हैं कि मेडिटेशन से लोगों का मतलब ध्यान से होता है। अगर आप ध्यान को मेडिटेशन समझते हैं तो यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे आप कर सकते हैं। जिन लोगों ने भी ध्यान करने की कोशिश की है, उनमें से ज्यादातर अंत में इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि इसे करना या तो बेहद मुश्किल है या फिर असंभव। और इसकी वजह यह है कि उसे आप करने की कोशिश कर रहे हैं। आप मेडिटेशन नहीं कर सकते, लेकिन आप मेडिटेटिव हो सकते हैं।
 
          ध्यान एक खास तरह का गुण है, कोई काम नहीं। अगर आप अपने तन, मन, ऊर्जा और भावनाओं को परिपक्वता के एक खास स्तर तक ले जाते हैं, तो ध्यान स्वाभाविक रूप से होने लगेगा। यह ठीक ऐसे है, जैसे आप किसी जमीन को उपजाऊ बनाए रखें, उसे वक्त पर खाद पानी देते रहें और सही समय पर सही बीज उसमें डाल दें तो निश्चित तौर से इसमें फूल और फल लगेंगे ही। एक पौधे पर फूल और फल इसलिए नहीं आते हैं, क्योंकि आप ऐसा चाहते हैं। बल्कि इसलिए आते हैं, क्योंकि आपने उनके खिलने के लिए एक उचित वातावरण और अनुकूल परिस्थितियां पैदा कर दी है। ठीक इसी तरह अगर आप अपने भीतर भी एक उचित और जरूरी माहौल पैदा कर लें, अपने सभी पहलुओं को सही परिस्थितियां प्रदान कर दें तो मेडिटेशन आपके भीतर अपने आप होने लगेगा। यह तो एक खास तरह की खुशबू है, जिसे कोई इंसान अपने भीतर ही महसूस कर सकता है।  
 
फिर क्यों करें ध्यान? --
          ध्यान का अर्थ है अपने भौतिक शरीर और मन की सीमाओं से परे जाना। जब आप अपने शरीर और मन की सीमाओं से परे जाते हैं, केवल तभी आप अपने अंदर जीवन के पूर्ण आयाम को पाते हैं। जब आप खुद को शरीर के रूप में देखते हैं तो आपकी पूरी जिंदगी बस भरण पोषण में निकल जाती है। अगर आप बस आंखें बंद कर बैठ जाएं तब भी अंग्रेजी में इसे मेडिटेशन करना ही कहा जाएगा।
 
        आप अपनी आंखें बंद करके बैठे हुए बहुत से काम कर सकते हैं- जप, तप, ध्यान, धारना, समाधि, शून्या कुछ भी कर सकते हैं।जब आप खुद को मन के रूप में देखते हैं तो आपकी पूरी सोच सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक नजरिए से तय होती है। आपकी सोच एक तरह से गुलाम बन जाती है। फिर आप उससे आगे देख ही नहीं सकते। जब आप अपने मन की चंचलता से मुक्त हो जाएंगे, केवल तभी आप शरीर और दिमाग से परे के पहलुओं को जान पाएंगे।
 
        यह शरीर और यह मन आपका नहीं है, इन्हें आपने धीरे-धीरे समय के साथ इकठ्ठा किया है। आपका शरीर उस भोजन का बस एक ढेर भर है, जो आपने खाया है। आपका मन भी बस बाहरी दुनिया के असर और उससे मिले विचारों का ढेर है। आपके मकान और बैंक बैलेंस की तरह ही आपके पास एक शरीर और एक मन है। अच्छा जीवन जीने के लिए इनकी जरूरत होती है, लेकिन कोई भी इंसान इन चीजों से संतुष्ट नहीं होगा। इन चीजों के जरिये लोग अपने जीवन को केवल आरामदायक और सुखमय बना लेते हैं।
 
         पश्चिमी समाज में देखें तो जाहिर है कि आज आप जिन चीजों को पाने का सपना देखते हैं, वे ज्यादातर पहले से ही उनके पास हैं। क्या आपको लगता है, वे संतुष्ट हैं, आनंद की स्थिति में हैं? नहीं आनंद के आसपास भी नहीं हैं वे। बस खाना, सोना, बच्चे पैदा करना और मर जाना, इससे पूर्ण संतुष्टि नहीं होती।
 
        इन सभी चीजों की जीवन में जरूरत पड़ती है। लेकिन इन चीजों से हमारा जीवन पूर्ण नहीं हो पाता। अगर आपने अपने जीवन में इन सारी चीजों को पा लिया है तो भी आपका जीवन पूर्ण नहीं होता। इसकी वजह यह है कि मानव जागरूकता की एक खास सीमा को लांघ चुका है।
 
          इंसान हमेशा कुछ और अधिक चाहता है, नहीं तो वह कभी संतुष्ट नहीं होगा। इसकी असल इच्छा असीमित होने की या फिर अनंत होने की है। तो ध्यान एक ऐसा जरिया है जो आपको, असीमित व अनंत की ओर ले जाता है।
 
 
2-भक्ति भावना एक ऐसा प्रेम हैं जिसमें मनुष्य सेवक बनना पसन्द करता है         
 
        बहुत कम लोग ऐसे प्रेम प्रसंग के लिए तैयार होते हैं, जो दो जिंदगियों को एक कर दे और उन्हें परम-तत्व से मिलन की अवस्था तक पहुंचा दे। बेशर्त प्यार परम मिलन का रास्ता है- दो लोगों का अनुभव में एक होने के लिए, एक अलग तरह की तैयारी की जरुरत है। ज्यादातर लोग प्यार को घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। वे उससे आगे नहीं जाना चाहते।
 
        घरेलु जरूरतों से आगे जाने के लिए दोनों को तैयार होना होगा। अगर एक तैयार है और दूसरा नहीं, या एक कोशिश कर रहा है और दूसरा नहीं, तो ऐसा लग सकता है कि एक व्यक्ति पायदान बन रहा है, या एक का शोषण हो रहा है। मगर जो परम मिलन के लिए खुद ही प्यार बन जाना चाहता है, उसे पायदान या कुछ और बनने की परवाह नहीं होनी चाहिए।  
 
          ऐसा प्यार जिसमें पायदान बनना मंजूर हो भारत में हमारे यहां एक ऐसी संस्कृति है, जहां लोग अपनी मर्जी से खुद को दास बना लेते हैं। आप तुलसीदास, कृष्णदास, या किसी और तरह के 'दास को जानते हैं? वे खुलेआम कहते हैं, 'मैं एक दास हूं। वे पायदान के रूप में इस्तेमाल किए जाने से डरते नहीं हैं। वे तो खुद पायदान बनना चाहते हैं। इस तरह का प्यार परम मिलन के लिए होता है, सिर्फ घरेलू मकसद के लिए नहीं।
 
          अगर आप परम मिलन की खोज में हैं, तो प्यार अलग ही तरीके से होना चाहिए। अगर आप प्यार से सिर्फ घरेलू कामकाज चलाने का रास्ता खोज रहे हैं, तो फिर जरूर आपको शिष्ट तरीके से यह देखना होगा कि 'इस प्यार से किसको क्या मिलता है। अगर कोई जरूरत से ज्यादा दूसरे का इस्तेमाल करता है, तो नतीजा यह होगा कि 'अगर तुम मुझे यह नहीं दोगे, तो मैं तुम्हें वह नहीं दूंगा।
 
          यह एक सामाजिक चीज है। वरना, अगर आप परम मिलन चाहते हैं, तो आपको इन सब चीजों के बारे में नहीं सोचना चाहिए। या दूसरे शब्दों में, अगर प्यार एक खास स्तर से आगे चला जाता है, तो आप हमेशा सुरक्षित रहने की मानसिकता छोड़ देते हैं, और अपने-आप एक तरह से आघात-योग्य बन जाते हैं। हमेशा सुरक्षित रहने की मानसिकता छोड़े बिना, कोई प्रेम संबंध नहीं हो सकता।
 
          सच्चे प्रेम के लिए, आपको प्रेम में गिरना होता है। जब आप गिरते हैं, तो कोई आपको उठा सकता है, या कोई आपको कुचल कर भी जा सकता है। प्रेम के अनुभव का स्त्रोत यह अनुभव सुंदर होता है क्योंकि आप गिरते हैं या फिर हमेशा सुरक्षित रहने की मानसिकता छोड़ कर खुद को आघात-योग्य बना लेते हैं। यह सुन्दर इसलिए नहीं होता क्योंकि आपको उठाया गया, इसलिए भी नहीं कि आपको कुचला गया। इसमें सुन्दरता इसलिए आती है, क्योंकि प्यार में गिरने के लिए आपने अपने अंदर त्याग की भावना पैदा कर ली।
 
          अंग्रेजी का मुहावरा, 'प्यार मे गिरना वाकई सही और बहुत खूबसूरत है। वहां हमेशा प्यार में गिरने की बात की गई। किसी ने कभी प्यार में खड़े होने या प्यार में चढऩे या प्यार में उडऩे की बात नहीं की। क्योंकि आपके 'अहम् के गिरने पर ही आपके अंदर प्यार का एक गहरा अनुभव हो सकता है। आपके प्रेम की सुंदरता उसमें नहीं थी जो उन्होंने आपको दिया या जो उन्होंने आपके लिए किया।
 
          आप अकेले बैठे और सोचा कि वाकई आप इस इंसान को इतना प्रेम करते हैं, कि उसके लिए आप मरने के लिए तैयार हैं वह पल सबसे खूबसूरत पल होता है। वह पल नहीं, जब उन्होंने आपको एक बड़ा तोहफा दिया, वह पल नहीं, जब उन्होंने आपको हीरे की अंगूठी दी, वह पल नहीं जब उन्होंने आपके बारे में ऐसी-वैसी चीजें कहीं नहीं। एक ऐसा पल था जब आप दूसरे व्यक्ति के लिए मरने को तैयार थे वही सच्चे प्यार का पल था। आप न सिर्फ पायदान बनने को, बल्कि उनके पैरों की धूल बनने को तैयार थे। भक्ति का पागलपन मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आपको खुद को वैसा बना लेना चाहिए मैं यह कह रहा हूं कि जब प्रेम भक्ति में बदल जाता है, तो आप ऐसे ही बन जाते हैं। अगर आप प्यार में गिरते हैं, तो आप असुरक्षा को अपनाने और आघात-योग्य बनने को तैयार हो जाते हैं। मगर फिर भी प्रेम प्रसंगों में थोड़ी-बहुत 'समझदारी काम करती है आप उस स्थिति को छोड़ कर बाहर आ सकते हैं। लेकिन अगर आप भक्त बन जाते हैं, तो आपके अंदर कोई 'समझदारी नहीं बचती और आप उससे उबर नहीं सकते।  
 
          आप सिर्फ इसलिए भक्त नहीं बनते क्योंकि आपने खुद को किसी एक धर्म, पंथ या किसी और चीज से जोड़ लिया है। एक भक्त खुद को किसी चीज से नहीं जोड़ सकता, वह बस भक्ति की ओर खिंचता है। इसलिए इससे पहले कि आप भक्ति के क्षेत्र में कदम रखें, आपको देख लेना चाहिए कि आप उसके लिए तैयार हैं या नहीं।  
 
          सबसे पहले तो आपके लक्ष्य क्या हैं? अगर आपका लक्ष्य बस दूसरे जीवन को अपना एक हिस्सा बनाना हैं, तो आपके लिए एक संतुलित प्रेम संबंध अच्छा है। लेकिन अगर आप बस एक अच्छा जीवन जीना नहीं चाहते, बल्कि आप खुद को जीवन की प्रक्रिया में विलीन कर देना चाहते हैं अगर आप एक विस्फोटक-जीवन जीना चाहते हैं, अगर आप परवाह नहीं करते कि आपको क्या मिला और क्या नहीं मिला, तो आप एक भक्त बन जाते हैं। एक भक्त 'किसी का भक्त नहीं होता। भक्ति एक गुण है। भक्त का मतलब एक खास एकाग्रता होता है, आप लगातार एक ही चीज पर ध्यान लगाते हैं। जब कोई इंसान इस तरह बन जाता है, कि उसके विचार, उसकी भावनाएं और सब कुछ एक दिशा में केंद्रित हो जाते हैं, तो उस इंसान को कुदरती रूप से कृपा मिल जाती है। वह ग्रहणशील बन जाता है।
 
          भक्ति का मतलब है कि आप अपने भक्ति के केंद्र में खो जाने का इरादा रखते हैं। एक भक्त के रूप में आप यह नहीं सोचते कि आप एक पायदान बनते हैं, या किसी के सिर के ताज। आप जो भी बनते हैं, उससे आपको कोई आपत्ति नहीं होती, जब तक कि आप उस एक के पैरों या सिर या और कुछ को स्पर्श कर सकें। यह अस्तित्व की एक अलग अवस्था है। मुझे नहीं लगता कि घरेलू किस्म के प्रेम संबंध की तलाश में रहने वाले किसी इंसान को यह सवाल पूछना भी चाहिए।
 
 
3-हमारे शरीर की ऊर्जा अच्छी और बुरी हो सकती है
 
          आधुनिक भौतिक शास्त्र के अनुसार अस्तित्व में जो कुछ भी मौजूद है वह ऊर्जा ही है। तो फिर क्या कारण है कि सब कुछ एक होने के बाद भी दुनिया में मतभेद दिखाई देते हैं? क्या एक ऊर्जा दूसरी के खिलाफ है? क्या अच्छी और बुरी ऊर्जा जैसी कोई चीज़ है?----विद्वानों के विचारों के आधार पर आइये जानने का प्रयास करते हैं- आधुनिक विज्ञान ने साबित कर दिया है कि हर चीज एक ही ऊर्जा है।
 
          दुनिया भर के धर्म कहते रहे हैं कि ईश्वर हर जगह है। चाहे आप यह कहें कि ईश्वर हर जगह है, या आप यह कहें कि हर चीज एक ही ऊर्जा है ये दोनों ही बातें एक ही सच्चाई को बताती हैं। सब कुछ एक ही ऊर्जा है यह सृष्टि एक ऊर्जा है, जो खुद को लाखों तरीके से अभिव्यक्त कर रही है। जो पानी गिर रहा है, वह ऊर्जा है, वही ऊर्जा यहां एक पेड़ के रूप में खड़ी है। वही ऊर्जा आपके रूप में बैठी है। वही ऊर्जा मेरे रूप में यहां मौजूद है। वही ऊर्जा एक चट्टान के रूप में खड़ी है।
 
          आधुनिक विज्ञान ने साबित कर दिया है कि हर चीज एक ही ऊर्जा है। दुनिया भर के धर्म कहते रहे हैं कि ईश्वर हर जगह है। चाहे आप यह कहें कि ईश्वर हर जगह है, या आप यह कहें कि हर चीज एक ही ऊर्जा है – ये दोनों ही बातें एक ही सच्चाई को बताती हैं। एक ही बात को दो अलग-अलग तरीकों से कह दिया गया है।
 
          वैज्ञानिकों ने गणितीय आधार पर यह नतीजा निकाला है। धार्मिक लोग बस इस पर विश्वास करते रहे हैं, लेकिन दोनों के जीवन में यह अभी तक जीती जागती हकीकत नहीं है। इसी वजह से हमारे जीवन में रूपांतरण नहीं आता। ऊर्जा के गणित की खोज के बाद आइंस्टीन के जीवन में कोई मूलभूत बदलाव नहीं आया। उन लाखों धार्मिक लोगों के जीवन में भी इससे कोई बदलाव नहीं आया, जो इस पर विश्वास करते रहे हैं। क्योंकि यह बात उनके लिए एक जीवंत सच्चाई नहीं बन पाई है।
 
          अब जब आप यह सवाल पूछते हैं कि क्या एक ऊर्जा दूसरी ऊर्जा पर हावी होती है, तो उसका जवाब है कि ऊर्जा तो एक ही है। यह दूसरी पर हावी कैसे हो सकती है? तो क्या इसका मतलब यह है कि लोग अलग-अलग तरह के नहीं हैं? अलग अलग तरह के लोग मौजूद हैं। अब अगर आप एक आदमी को एक उर्जा के रूप में और दूसरे आदमी को दूसरी उर्जा के रूप में लेते हैं, तो आप पूछ सकते है कि क्या यह ऊर्जा उस ऊर्जा पर हावी हो सकती है? यह इंसान उस इंसान पर हावी हो सकता है, शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से, भावनात्मक रूप से और उर्जा के स्तर पर भी। लेकिन यह ऊर्जा के खिलाफ ऊर्जा नहीं है। यह एक इंसान है जो कि दूसरे इंसान के खिलाफ है। वह अपनी ऊर्जा का प्रयोग किसी पर हावी होने के लिए कर रहा है। जैसे पहाड़ों से जब पानी गिरता है तो वह चट्टानों को तोड़ता है।
 
          एक तरह से पानी की ऊर्जा, पत्थर की ऊर्जा पर हावी हो रही है। इसी तरह से लोग भी अपनी ऊर्जा का एक खास तरह से उपयोग करके किसी दूसरे पर हावी हो सकते हैं। ऊर्जा का इस्तेमाल करने का पूरा विज्ञान है आपको लगता है की शायद यह बहती हुई ठंडी हवा सकारात्मक ऊर्जा है, और भयंकर तूफान नकारात्मक ऊर्जा। ऐसा नहीं है। बस बात इतनी है कि इनमें से एक चीज आपको पसंद है और दूसरी नहीं।क्या आप टोने-टोटके और खास तरह की क्रियाओं की मदद से दूसरे लोगों की जिंदगी पर हावी होने के बारे में बात कर रहे हैं? अगर आप उस संदर्भ में जानना चाह रहे हैं कि ऐसा संभव है या नहीं, तो हां ऐसा बिल्कुल संभव है, लेकिन काफी हद तक यह मनोवैज्ञानिक स्तर पर होता है।
 
          ऊर्जा के हावी होने के बारे में अगर आप जानना चाहते हैं कि क्या ऐसी कोई चीज है, तो मैं कहूंगा कि बिल्कुल है। इस दिशा में पूरा एक विज्ञान और कला है। चारों वेदों में से अंतिम वेद, जिसे अथर्ववेद कहा जाता है, उसमें यही बताया गया है कि ऊर्जाओं का अपने फायदे और दूसरों का नुकसान करने के लिए कैसे इस्तेमाल किया जाए। लेकिन आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले लोगों को कभी इन चीज़ों के बारे में नहीं सोचना चाहिए, क्योंकि यह सब आपको उलझाता है, फंसाता है। इससे आपका जीवन विकसित नहीं होता, बल्कि कई तरह से उलझ जाता है।  
 
          क्या है सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा आपको किसने बताया कि ऊर्जाएं सकारात्मक और नकारात्मक होती हैं। मैं बिजली के सर्किट की बात नहीं कर रहा हूं। मैं जीवन-ऊर्जा की बात कर रहा हूं। विज्ञान कहता है कि केवल एक ऊर्जा है, धर्म कहता है कि ईश्वर हर जगह है। मैं तो केवल एक ही ऊर्जा के बारे में जानता हूं, लेकिन आपने दो बना लीं। क्यों? क्योंकि अगर आप दो नहीं बनाते तो आप इसके बारे में सोच नहीं पाते। अगर आप इसे बस एक के रूप में ही देखें, तो आपका पूरा का पूरा ज्ञान ही खत्म हो जाएगा। ऊर्जा एक ही तरह की होती है। एक ही ऊर्जा है जो एक खास तरीके से काम कर रही है। आपके कहने का मतलब शायद यह है कि ठंडी बहती हवा सकारात्मक ऊर्जा है, और भयंकर तूफान नकारात्मक ऊर्जा। ऐसा नहीं है। ये एक ही बात है। बस बात इतनी है कि इनमें से एक चीज आपको पसंद है और दूसरी नहीं।
 
 
4-जानें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाडियों का रहस्य
 
          अस्तित्व में सभी कुछ जोड़ों में मौजूद है स्त्री-पुरुष, दिन-रात, तर्क-भावना आदि। इस दोहरेपन को द्वैत भी कहा जाता है। हमारे अंदर इस द्वैत का अनुभव हमारी रीढ़ में बायीं और दायीं तरफ मौजूद नाडिय़ों से पैदा होता है। आइये जानते हैं इन नाडिय़ों के बारे में--- 'नाड़ी का मतलब धमनी या नस नहीं है। नाडिय़ां शरीर में उस मार्ग या माध्यम की तरह होती हैं जिनसे प्राण का संचार होता है, शरीर के ऊर्जा?-कोष में, जिसे प्राणमयकोष कहा जाता है, 72,000 नाडिय़ां होती हैं। ये 72,000 नाडिय़ां तीन मुख्य नाडिय़ों- बाईं, दाहिनी और मध्य यानी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना से निकलती हैं।
 
          अगर आप रीढ़ की शारीरिक बनावट के बारे में जानते हैं, तो आप जानते होंगे कि रीढ़ के दोनों ओर दो छिद्र होते हैं, जो वाहक नली की तरह होते हैं, जिनसे होकर सभी धमनियां गुजरती हैं। ये इड़ा और पिंगला, यानी बायीं और दाहिनी नाडिय़ां हैं। शरीर के ऊर्जा?-कोष में, जिसे प्राणमयकोष कहा जाता है, 72,000 नाडिय़ां होती हैं। ये 72,000 नाडिय़ां तीन मुख्य नाडिय़ों- बाईं, दाहिनी और मध्य यानी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना से निकलती हैं। 'नाड़ी का मतलब धमनी या नस नहीं है। नाडिय़ां शरीर में उस मार्ग या माध्यम की तरह होती हैं जिनसे प्राण का संचार होता है। इन 72,000 नाडिय़ों का कोई भौतिक रूप नहीं होता।
 
          यानी अगर आप शरीर को काट कर इन्हें देखने की कोशिश करें तो आप उन्हें नहीं खोज सकते। लेकिन जैसे-जैसे आप अधिक सजग होते हैं, आप देख सकते हैं कि ऊर्जा की गति अनियमित नहीं है, वह तय रास्तों से गुजर रही है। प्राण या ऊर्जा 72,000 अलग-अलग रास्तों से होकर गुजरती है। इड़ा और पिंगला जीवन की बुनियादी द्वैतता की प्रतीक हैं। इस द्वैत को हम परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का नाम देते हैं। या आप इसे बस पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं, या यह आपके दो पहलू लॉजिक या तर्क-बुद्धि और इंट्यूशन या सहज-ज्ञान हो सकते हैं। जीवन की रचना भी इसी के आधार पर होती है। इन दोनों गुणों के बिना, जीवन ऐसा नहीं होता, जैसा वह अभी है। सृजन से पहले की अवस्था में सब कुछ मौलिक रूप में होता है। उस अवस्था में द्वैत नहीं होता। लेकिन जैसे ही सृजन होता है, उसमें द्वैतता आ जाती है।  
 
          पुरुषोचित और स्त्रियोचित का मतलब लिंग भेद से या फिर शारीरिक रूप से पुरुष या स्त्री होने से नहीं है, बल्कि प्रकृति में मौजूद कुछ खास गुणों से है। प्रकृति के कुछ गुणों को पुरुषोचित माना गया है और कुछ अन्य गुणों को स्त्रियोचित। आप भले ही पुरुष हों, लेकिन यदि आपकी इड़ा नाड़ी अधिक सक्रिय है, तो आपके अंदर स्त्रियोचित गुण हावी हो सकते हैं। आप भले ही स्त्री हों, मगर यदि आपकी पिंगला अधिक सक्रिय है, तो आपमें पुरुषोचित गुण हावी हो सकते हैं।
 
          अगर आप इड़ा और पिंगला के बीच संतुलन बना पाते हैं तो दुनिया में आप प्रभावशाली हो सकते हैं। इससे आप जीवन के सभी पहलुओं को अच्छी तरह संभाल सकते हैं। अधिकतर लोग इड़ा और पिंगला में जीते और मरते हैं, मध्य स्थान सुषुम्ना निष्क्रिय बना रहता है। लेकिन सुषुम्ना मानव शरीर-विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। जब ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, जीवन असल में तभी शुरू होता है। वैराग्य- आप अगर इड़ा या पिंगला के प्रभाव में हैं तो आप बाहरी स्थितियों को देखकर प्रतिक्रिया करते हैं। लेकिन एक बार सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश हो जाए, तो आप एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं।मूल रूप से सुषुम्ना गुणहीन होती है, उसकी अपनी कोई विशेषता नहीं होती।
 
          वह एक तरह की शून्यता या खाली स्थान है। अगर शून्यता है तो उससे आप अपनी मर्जी से कोई भी चीज बना सकते हैं। सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश होते ही, आपमें वैराग्य आ जाता है। 'राग का अर्थ होता है, रंग। 'वैराग्य का अर्थ है, रंगहीन यानी आप पारदर्शी हो गए हैं। अगर आप पारदर्शी हो गए, तो आपके पीछे लाल रंग होने पर आप भी लाल हो जाएंगे।
 
          अगर आपके पीछे नीला रंग होगा, तो आप नीले हो जाएंगे। आप निष्पक्ष हो जाते हैं। आप जहां भी रहें, आप वहीं का एक हिस्सा बन जाते हैं लेकिन कोई चीज आपसे चिपकती नहीं। आप जीवन के सभी आयामों को खोजने का साहस सिर्फ तभी करते हैं, जब आप आप वैराग की स्थिति में होते हैं। अभी आप चाहे काफी संतुलित हों, लेकिन अगर किसी वजह से बाहरी स्थिति अशांतिपूर्ण हो जाए, तो उसकी प्रतिक्रिया में आप भी अशांत हो जाएंगे क्योंकि इड़ा और पिंगला का स्वभाव ही ऐसा होता है।
 
          अगर आप इड़ा या पिंगला के प्रभाव में हैं तो आप बाहरी स्थितियों को देखकर प्रतिक्रिया करते हैं। लेकिन एक बार सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश हो जाए, तो आप एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं, एक अंदरूनी संतुलन, जिसमें बाहर चाहे जो भी हो, आपके अंदर एक खास जगह होती है, जो किसी भी तरह की हलचल में कभी अशांत नहीं होती, जिस पर बाहरी स्थितियों का असर नहीं पड़ता। आप चेतनता की चोटी पर सिर्फ तभी पहुंच सकते हैं, जब आप अपने अंदर यह स्थिर अवस्था बना लें।
 
 
5-शरीर के पांच तत्वों का शुद्धिकरण अपने हित में किया जा सकता है
 
             विज्ञान के अनुसार हमारा शरीर और यह सारा अस्तित्व पांच तत्वों से मिलकर बना है। ऐसे में खुद को रूपांतरित करने का मतलब होगा बस इन पांच तत्वों को अपने लिए फायदेमंद बना लेना। आइये जानते हैं ऐसी ही यौगिक प्रक्रियाओं के बारे में योग में पांच तत्वों से मुक्त होने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया बनाई है, जिसे भूत-शुद्धि कहते हैं।
 
          अगर आप इन तत्वों का बखूबी शुद्धीकरण करते हैं, तो आप ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं जिसे भूत-सिद्धि कहते हैं। भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पांच तत्व इस शरीर, धरती, और पूरी सृष्टि के आधार हैं। इन्हीं पांच तत्वों से सृजन होता है। अगर ये पांच तत्व एक खास तरह से मिलते हैं, तो कीचड़ बन जाते हैं। अगर थोड़ा अलग तरह से मिलते हैं, तो भोजन बन जाते हैं।
 
          अगर वे दूसरी तरह का खेल खेलते हैं, तो वह मानव रूप ले लेते हैं। अगर वे एक अलग तरह का खेल खेलते हैं, तो चैतन्य बन जाते हैं। आप इस सृष्टि में जो कुछ भी देखते हैं, वह बस इन पांच तत्वों की बाजीगरी है। मैं एक पहाड़ पर गाड़ी चलाते हुए जा रहा था, जब मैं पहाड़ पर पहुंचने वाला था, तो मुझे लगा कि लगभग आधा पहाड़ जल रहा है! वहां कोहरा था और मैंने उस पूरी जगह को आग से घिरे हुए देखा। मैं जानता था कि मेरी कार का ईंधन तुरंत आग पकड़ सकता है, इसलिए आग की ओर नहीं जाना चाहता था, फिर भी सावधानी से गाड़ी चलाता रहा। मैं जितना आगे बढ़ता, आग थोड़ी और दूर नजर आती। फिर मुझे एहसास हुआ कि असल में मैं उन सभी जगहों से गाड़ी चलाते हुए आ चुका हूं, जो पहाड़ की तराई से देखने पर जलते नजर आ रहे थे। जब मैं आग की असली जगह पर पहुंचा, तो मैंने देखा कि एक ट्रक खराब पड़ा है, और वहां मौजूद लोगों ने ठंड से बचने के लिए थोड़ी सी आग जलाई हुई है। वह थोड़ी सी आग, कोहरे की वजह से लाखों गुना अधिक लग रही थी और नीचे से ऐसा लग रहा था मानो पूरे पहाड़ में आग लगी हुई हो। उस अदभुत घटना ने मुझे वाकई अचंभित कर दिया। वह बस गरमी के लिए जलाई गई थोड़ी सी आग थी, लेकिन कोहरे का एक-एक कण उसे बढ़ा कर ऐसे दिखा रहा था, कि वह पूरा इलाका आग में जलता हुआ दिख रहा था।
 
          सृष्टि ऐसी ही है जितनी है उससे कई गुना बड़ी लगती है। जिन लोगों ने करीब से उसे देखा है, उन्हें यह बात समझ आ गई है और वे कहते हैं, बढ़ा-चढ़ा रूप देखने की कोई जरूरत नहीं है। बस जीवन के इस छोटे से अंश को देखिए, जिसे आप 'मैं कहते हैं। बाकी का ब्रह्मांड सिर्फ उन पांच तत्वों का ही बढ़ा-चढ़ा रूप भर है। आप जिस वायु में सांस लेते हैं, जो पानी पीते हैं, जो खाना खाते हैं, जिस भूमि पर चलते हैं और अग्नि जो जीवन-ऊर्जा के रूप में काम कर रही है- अगर इन सभी को आप नियंत्रित और केंद्रित रखें, तो आपके लिए स्वास्थ्य, सुख और सफलता सुनिश्चित है। योग में, पांच तत्वों से मुक्त होने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया बनाई है, जिसे भूत-शुद्धि कहते हैं।  
 
          अगर आप इन तत्वों का बखूबी शुद्धीकरण करते हैं, तो आप ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं जिसे भूत-सिद्धि कहते हैं। योग-प्रणाली में भूत-शुद्धि की इस बुनियादी परंपरा से ही कई दूसरी परंपराएं निकली हैं। दक्षिणी भारत में, लोगों ने इन पांच तत्वों के लिए पांच बड़े मंदिर भी बनाए। ये मंदिर अलग-अलग तरह की साधना के लिए बनाए गए थे। जल तत्व से मुक्त होने के लिए, आप एक खास मंदिर में जाते हैं और एक तरह की साधना करते हैं। वायु से मुक्त होने के लिए, आप दूसरे मंदिर में जाते हैं और दूसरी तरह की साधना करते हैं। इसी तरह, सभी पांच तत्वों के लिए बनाए गए पांच अद्भुत मंदिरों में खास तरह की ऊर्जा स्थापित की गई जो उस किस्म की साधना में मदद करती है।
 
          योगी एक मंदिर से दूसरे मंदिर जाया करते थे और साधना करते थे। योग की बुनियादी प्रक्रिया का मकसद भूत-सिद्धि की स्थिति हासिल करना है, ताकि जीवन की प्रक्रिया कोई आकस्मिक प्रक्रिया न रहे। हमारी जीवन-प्रक्रिया परिस्थितियों के आगे एक विवशता भर न रहे, बल्कि एक सचेतन प्रक्रिया बन जाए। एक बार ऐसा हो जाने के बाद, खुश और आनंदित रहना स्वाभाविक है और फिर मोक्ष की ओर बढऩा तय है। आप जिस वायु में सांस लेते हैं, जो पानी पीते हैं, जो खाना खाते हैं, जिस भूमि पर चलते हैं और अग्नि जो जीवन-ऊर्जा के रूप में काम कर रही है- अगर इन सभी को आप नियंत्रित और केंद्रित रखें, तो आपके लिए स्वास्थ्य, सुख और सफलता सुनिश्चित है। मेरी कोशिश है कि ऐसे कई यंत्र तैयार कर सकूं जो लोगों को इसे साकार करने में मदद करें, लोगों के जीने का ढंग ही पंच-भूत की आराधना बन जाए।
 
          यह शरीर, यह भौतिक रूप जिस तरह से यहां मौजूद है, वह पांच तत्वों की आराधना बन जाए। इसे अपने भौतिक सुख के लिए, अपनी सांसारिक कायमाबी के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है और साथ ही, यह इंसान की परम मुक्ति का एक उत्तम साधन भी हो सकता है। 6-शारीरिक संबंध एक से ही क्यों होना चाहिए समाज में वैवाहिक रिश्ते से बाहर के संबंधों में हो रही वृद्धि को देखते हुए एक सरल सा सवाल एक जिज्ञासु के मन में उठता है कि शारीरिक संबंध किसी एक से रखने और अनेक से रखने में क्या आध्यात्मिक फर्क आएगा? आइए इस कौतुहल का उत्तर जानते हैं जिज्ञासु क्या ईश्वर चाहता है कि इंसान एक ही साथी के साथ जीवन बिताए? क्या एक समर्पित रिश्ते में होना किसी व्यक्ति के लिए बेहतर है? सद्गुरु आपके शरीर की याददाश्त की तुलना में आपके दिमाग की याददाश्त बहुत कम है। अगर आप किसी चीज या किसी इंसान को एक बार छू लें, तो आपका दिमाग भूल सकता है मगर शरीर नहीं ।
 
          जब लोग एक-दूसरे के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं, तो मन उसे भूल सकता है, मगर शरीर कभी नहीं भूलेगा।हो सकता है कि ईश्वर का आपके लिए कोई इरादा न हो। सवाल यह है कि आपके लिए समझदारी वाली बात क्या है? इसके दो पहलू हैं एक सामाजिक पहलू है। आम तौर पर हमेशा समाज को स्थिर या मजबूत रखने के लिए 'एक पुरुष एक स्त्री की बात की गई। दुनिया के कई हिस्सों में, जहां 'एक पुरुष-कई स्त्रियां की बात की गई, वहां समाज को स्थिर रखने के लिए सख्ती से शासन चलाना पड़ा। मैं इसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। दूसरा पहलू यह है कि अस्तित्व में सभी पदार्थों की स्मृति या याददाश्त होती है।
 
          आपके शरीर को अब भी जीवंत तरीके से याद है कि एक लाख वर्ष पहले क्या हुआ था। जेनेटिक्स याददाश्त ही तो है। भारतीय संस्कृति में इस भौतिक याददाश्त को ऋणानुबंध कहा गया है। आपकी याददाश्त ही आपको अपने आस-पास की चीजों से बांधती है। मान लीजिए कि आप घर गए और भूल गए कि आपके माता-पिता कौन हैं, तो आप क्या करेंगे? यह खून या प्यार का असर नहीं होता, यह आपकी याददाश्त होती है जो बताती है कि यह व्यक्ति आपकी मां या पिता है। याददाश्त ही रिश्तों और संबंधों को बनाती है। अगर आप अपनी याददाश्त खो बैठे, तो हर कोई आपके लिए पूरी तरह अजनबी होगा।
 
          जब भी आप किसी ऐसे इंसान को देखते हैं, जिसके साथ आप जुडऩा नहीं चाहते, तो सिर्फ 'नमस्कार करें क्योंकि जब आप दोनों हाथों को साथ लाते हैं , तो यह शरीर को याददाश्त ग्रहण करने से रोक देता है। आपके शरीर की याददाश्त की तुलना में आपके दिमाग की याददाश्त बहुत कम है। अगर आप किसी चीज या किसी इंसान को एक बार छू लें, तो आपका दिमाग भूल सकता है मगर शरीर में वह हमेशा के लिए दर्ज हो जाता है। जब लोग एक-दूसरे के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं, तो मन उसे भूल सकता है, मगर शरीर कभी नहीं भूलेगा। अगर आप तलाक लेते हैं, तो चाहे आप अपने साथी से कितनी भी नफरत करते हों, फिर भी आपको पीड़ा होगी क्योंकि शारीरिक याददाश्त कभी नहीं खो सकती।  
 
          चाहे आप थोड़ी देर तक किसी का हाथ पर्याप्त अंतरंगता से पकड़ें, आपका शरीर कभी उसे नहीं भूल पाएगा क्योंकि आपकी हथेलियां और आपके तलवे बहुत प्रभावशाली रिसेप्टर यानी ग्राहक हैं। जब भी आप किसी ऐसे इंसान को देखते हैं, जिसके साथ आप जुडऩा नहीं चाहते, तो सिर्फ 'नमस्कार करें क्योंकि जब आप दोनों हाथों को साथ लाते हैं (या अपने पैर के दोनों अंगूठों को साथ लाते हैं), तो यह शरीर को याददाश्त ग्रहण करने से रोक देता है। इसका मकसद शारीरिक याददाश्त को कम से कम रखना है, नहीं तो आपको अनुभव के एक भिन्न स्तर पर ले जाना मुश्किल हो जाएगा।
 
          जो लोग भोगविलास में अत्यधिक लीन होते हैं, उनके चेहरे पर एक खास मुस्कुराहट होती है, जिसमें एक धूर्तता भरी होती है, उसमें कोई खुशी नहीं होती। उससे छुटकारा पाने में बहुत मेहनत लगती है क्योंकि भौतिक याददाश्त आपको इस तरीके से उलझा देती है कि आपका दिमाग उसे समझ भी नहीं पाता। इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आप अपने शरीर को जिन चीजों के संपर्क में लाते हैं, उनके प्रति जागरूक होना सीखें। कीमत चुकानी पड़ती है बहुत ज्यादा अंतरंगता की कीमत हर जगह चुकानी पड़ती है जब तक कि आप यह नहीं जानते कि इस शरीर को खुद से एक दूरी पर कैसे रखें। जिसने यह दूरी बनानी सीख ली, वैसे इंसान को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह क्या करता है। मगर ऐसे इंसान का ऐसी चीजों की ओर कोई झुकाव नहीं होता।
 
          वह शरीर की सीमाओं और विवशताओं से मजबूर नहीं होता वह अपने शरीर को एक साधन या उपकरण की तरह इस्तेमाल करता है। वरना, अंतरंगता को कम से कम तक रखना सबसे अच्छा होता है। इसलिए हमने कहा कि एक के लिए एक, जब तक कि उनमें से किसी एक की मृत्यु नहीं होती और दूसरा पुनर्विवाह नहीं कर लेता। लेकिन अब तो हालत यह है कि 25 साल का होने से पहले, आप 25 साथी बदल चुके होते हैं इसकी कीमत लोग चुका रहे हैं अमेरिका की 10 फीसदी जनसंख्या डिप्रेशन या अवसाद की दवाओं पर निर्भर है। उसकी एक बड़ी वजह यह है कि उनमें स्थिरता की कमी होती है क्योंकि उनका शरीर भ्रमित होता है। अब तो हालत यह है कि 25 साल का होने से पहले, आप 25 साथी बदल चुके होते हैं इसकी कीमत लोग चुका रहे हैं अमेरिका की 10 फीसदी जनसंख्या डिप्रेशन या अवसाद की दवाओं पर निर्भर है।
 
          शरीर को स्थिर याददाश्त की जरूरत होती है लोग इसे महसूस करते हैं। हो सकता है कि कोई पति या पत्नी बौद्धिक रूप से महान न हो, हो सकता है कि वे आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हों, फिर भी वे साथ रहने के लिए कुछ भी छोडऩे के लिए तैयार हो जाएंगे क्योंकि कहीं न कहीं वे यह समझते हैं कि इससे उन्हें अधिक से अधिक आराम और खुशी मिलती है। इसकी वजह यह है कि आपकी शारीरिक याददाश्त आपकी मानसिक याददाश्त से कहीं अधिक आपके जीवन पर असर डालती है।  
 
          अभी आप जैसे हैं, वह आपकी शारीरिक याददाश्त से तय होता है, आपकी दिमागी याददाश्त से नहीं। दिमागी याददाश्त कल सुबह दिमाग से निकाल फेंकी जा सकती है मगर आप अपनी शारीरिक याददाश्त को नहीं फेंक सकते। इसके लिए आपके अंदर बिल्कुल अलग तरह के आध्यात्मिक विकास की जरूरत होगी।
 
          भौतिक याददाश्त को कम करना आधुनिक विज्ञान यह कहता है, और योग प्रणाली में हम हमेशा से यह बात जानते रहे हैं कि पंचतत्वों जैसे जल, वायु, धरती, आदि में काफी जबरदस्त याददाश्त होती है। अगर मैं किसी ऐसी जगह जाता हूं, जो ऊर्जा के लिहाज से महत्वपूर्ण है, तो मैं उसके बारे में लोगों से नहीं पूछता मैं बस किसी पत्थर पर अपने हाथ रख देता हूं। इससे ही मुझे उस जगह की सारी कहानी
 
          पता चल जाती है। वैसे ही जैसे किसी पेड़ के छल्ले आपको उस जगह की इकोलॉजी का इतिहास बता देते हैं। पत्थरों में तो उससे भी बेहतर याददाश्त होती है। आम तौर पर कोई पदार्थ जितना ठोस होता है, याददाश्त को बरकरार रखने की उसकी काबिलियत उतनी ही बेहतर होती है और बेजान चीजों में सजीव चीजों से बेहतर याददाश्त होती है। आज की तकनीक इसे साबित भी कर रही है आपके कंप्यूटर में आपसे बेहतर याददाश्त है। मानव दिमाग याददाश्त के लिए नहीं है वह अनुभव के लिए है। निर्जीव या बेजान चीजें अनुभव नहीं कर सकतीं वह बस याद रख सकती हैं। देवी-देवताओं और दूसरी प्रतिष्ठित वस्तुओं को इसलिए बनाया गया क्योंकि वे याददाश्त के शक्तिशाली रूप हैं।  
 
          बेजान चीजों में सजीव चीजों से बेहतर याददाश्त होती है। आज की तकनीक इसे साबित भी कर रही है आपके कंप्यूटर में आपसे बेहतर याददाश्त है। मानव दिमाग याददाश्त के लिए नहीं है वह अनुभव के लिए है।भारत में एक ऐसा समय था, जब आप किसी शिवमंदिर में बिना कपड़ों के ही प्रवेश कर सकते थे। देश में अंग्रेजों के आने और इन सब चीजों पर उनके प्रतिबंध लगाने के बाद ही हम बहुत संकोची और लज्जालु हो गए हैं। मंदिर में नंगे बदन जाने का मकसद ईश्वर या चैतन्य की स्मृति को अपने शरीर में ग्रहण करना था। आप डुबकी लगाकर गीले बदन फर्श पर लेट जाते थे ताकि वह ईश्वर की स्मृति को सोख ले।
 
          मन बेशक दूसरे लोगों देखता रहे कि आसपास क्या हो रहा है, मगर शरीर उस स्थान की ऊर्जा को अपने अंदर समा लेता है। ध्यानलिंग और लिंग भैरवी मंदिरों के प्रवेश द्वार पर दंडवत करते भक्तों की मूर्तियां हैं। यह आपको दिखाने के लिए है कि शरीर, दिमाग से ज्यादा बेहतर तरीके से ईश्वर को ग्रहण कर लेता है। बात बस इतनी है कि इंसान अब नंगे बदन नहीं जा सकते क्योंकि हम बहुत सभ्य हो गए हैं हम इतने सारे कपड़े पहन लेते हैं कि हमें पता नहीं होता कि शरीर है भी या नहीं। केवल यौन इच्छाओं के उभरने के बाद लोगों को पता चलता है कि उनके पास एक शरीर है। शारीरिक याददाश्त को मिटाना आप गहरी भक्ति या कुछ दूसरे अभ्यासों से अपनी शारीरिक याददाश्त को मिटा सकते हैं। मैंने इस तरह के कुछ भक्त देखे हैं, मगर एक व्यक्ति ने वाकई मुझे प्रभावित किया।
 
          एक महिला सुदूर दक्षिण में कन्याकुमारी आई, जो भारत का दक्षिणी छोर है। हम नहीं जानते कि वह कहां से आई थी, मगर अपने चेहरे से वह नेपाल की लगती थी। वह बस इधर-उधर घूमती रहती थी, कभी कुछ नहीं बोलती थी। कुत्तों का एक झुंड हमेशा उसके पीछे-पीछे चलता था। वह सिर्फ इन कुत्तों का पेट भरने के लिए खाना तक चुरा लेती थी और कई बार इसकी वजह से उसे मार भी खानी पड़ती थी। मगर फिर, लोगों ने कभी-कभार उसे लहरों पर तैरते हुए पाया। यह एक तटीय शहर था, जहां तीन समुद्र मिलते हैं। वह तट पर जाती, पानी पर पालथी मार कर बैठती और तैरती रहती। फिर लोगों ने उसकी पूजा करनी शुरू कर दी। जब वह आती थी, तो वे अपना खाना बचा कर रखते थे मगर वे अब उसे पीटते नहीं थे क्योंकि वह कोई विलक्षण महिला थी। वह पूरी जिंदगी खुली जगहों में ही रही थी। वह सड़क पर या समुद्र तट पर बिना किसी आश्रय के सोती थी। उसके चेहरे पर मौसम के थपेड़ों का पूरा असर था, उसका चेहरा मौसम के असर की वजह से कुछ पुराने मूल अमरीकियों की तरह भी था। उसके जीवन के अंतिम समय में – जब वह 70 साल से अधिक उम्र की थी -एक मशहूर दक्षिण भारतीय संगीतकार ने उसे देखा और उसका भक्त बन गया। वह उसे सलेम, तमिलनाडु ले कर आया और वहां उसके लिए एक छोटा सा घर बनाया। वहां उसके आस-पास कुछ भक्त इकठे हो गए।
           
          अगर आप अपनी शारीरिक याददाश्त मिटा दें, तो आपका शरीर वैसा बन जाएगा जो आपके लिए सबसे ज्यादा मायने रखता है। आपके अंदर सब कुछ पूरी तरह बदल जाएगा। इसका मतलब है कि आप अपनी जेनेटिक विवशताओं से आजाद हो जाएंगे। जब कोई संन्यास लेता है, तो हम उसके माता-पिता और पूर्वजों के लिए एक खास प्रक्रिया करते हैं। आम तौर पर यह प्रक्रिया हम मृत लोगों के लिए करते हैं, मगर संन्यासियों के लिए हम इसे तब भी करते हैं, अगर उनके माता-पिता जीवित हों। ऐसा नहीं है कि हम उनके मरने की कामना करते हैं – इसका मकसद बस इंसान की शारीरिक याददाश्त को मिटाना है। जब आप 18 साल के थे, तो हो सकता है कि आपने अपने माता-पिता के खिलाफ विद्रोह किया हो, या फिर आपको उनकी बातें तब बिल्कुल पसंद नहीं आती हों, मगर 45 का होने तक, चाहे आपको पसंद हो या नहीं, आपकी बातचीत और बर्ताव उन्हीं की तरह हो जाता है। केवल आपके माता-पिता नहीं, आपके पूर्वजों का भी आप पर असर होता है।
 
          आपका व्यवहार उन्हीं से पैदा और नियंत्रित होता है। इसीलिए, अगर आप आध्यात्मिक प्रक्रिया को लेकर गंभीर हैं, तो पहला कदम अपनी जेनेटिक याददाश्त से खुद को दूर करना है। इसके बिना आप अपने पूर्वजों की विवशताओं से छुटकारा नहीं पा सकते। आपके जरिये वे जीवित रहेंगे और बहुत से तरीकों से आप के ऊपर हावी रहेंगे। जब शरीर की याददाश्त आप पर इस कदर हावी होती है, तो इस जीवन में उसे कम से कम रखना बेहतर है। आखिरकार, आपको अपने पूर्वजों से मिली लाखों सालों की याददाश्त से भी तो छुटकारा पाना है। आपका पास रेंगने वाला मस्तिष्क है – रेंगने वाले सर्प और छिपकली की तरह, यहां तक कि बिच्छू भी आपमें जीवित होता है। यह न सोचें कि मस्तिष्क मन है – मस्तिष्क शरीर है।
 
          कम से कम इस जीवन में, आप इन असरों को सीमित रखना चाहते हैं ताकि आपका शरीर भ्रमित न हो। जो लोग इस विषय से परिचित थे, उन्होंने आध्यात्मिक प्रक्रियाओं को इस रूप में तैयार किया कि शरीर पूरी तरह अनुकूल बन जाए। दुनिया में हर कहीं यह ज्ञान है कि अगर कोई अपनी आध्यात्मिक प्रक्रिया को लेकर बहुत गंभीर है, तो वह पहली चीज यह करता है कि हर तरह के रिश्तों से दूर हो जाता है। क्योंकि अगर वह कोई शारीरिक रिश्ता बनाता है, तो स्वाभाविक रूप से चीजें पेचीदा हो जाती हैं। या तो वह इतना विवश हो कि उसे उसकी जरूरत हो, आप अभी उसे इसके परे नहीं ले जा सकते, या फिर वह इतना आजाद हो कि उसकी पहचान शरीर से न हो, तभी हम उसे इसकी इजाजत देते हैं, वरना हम आम तौर पर शारीरिक रिश्ता बनाने की इजाजत नहीं देते। लेकिन अगर आपके लिए यह जरूरी है, तो कम से कम एक शरीर तक सीमित रहें। ज्यादा शरीर भौतिक प्रणाली को भ्रमित कर देंगे।
 
 
7-गुरु पर भरोसा करें या न करें हमारी संस्कृति में हमेशा से गुरु-शिष्य के संबंध को बहुत अहम माना गया है
 
          आध्यात्मिक पथ पर ऐसा क्या ख़ास है कि साधक को एक अनुभवी या आत्मज्ञानी गुरु की ज़रूरत होती है? और क्या एक साधक को अपने गुरु के ऊपर पूरा भरोसा होना जरुरी है? अगर हां तो क्यों? आइये जानते हैं- आप कहते हैं कि हमें किसी चीज पर यूं ही यकीन नहीं कर लेना चाहिए, बल्कि खुद ही जीवन के साथ प्रयोग करके देखना चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि आध्यात्मिक विकास के लिए गुरु में जबर्दस्त भरोसा रखना जरूरी है। फिर विश्वास और भरोसे में क्या अंतर है? इस सम्बनन्द में हमारे महान लोग कहते हैं कि जब लोग भरोसे की बात करते थे, तो उनका मतलब होता था कि आप किसी और को अपने अंदर प्रवेश करने दें।
 
          अगर आपको किसी और को अपने अंदर प्रवेश करने देना है, तो आपको ऐसा बनना होगा कि वह आपको भेद सके। एक बार वह उर्जा आपके अंदर प्रवेश कर ले, तो आपके साथ कुछ भी किया जा सकता है।विश्वास आपकी उम्मीदों से पैदा होता है। जब आप कहते हैं, 'मैं आप पर विश्वास करता हूं, तो आप उम्मीद करते हैं कि मैं आपकी सही-गलत की समझ के मुताबिक काम करूंगा। मान लीजिए कि मैं कुछ ऐसा करता हूं जो सही और गलत के आपके दायरे के भीतर नहीं आता, तो पहली चीज यह होगी कि आप मेरे पास आ कर कहेंगे, 'मैंने आपका विश्वास किया और अब आपने मेरे साथ ऐसा किया।
 
          अगर आपके गुरु को आपकी सीमाओं के भीतर कैद किया जा सकता हो, तो बेहतर है कि आप उस आदमी के करीब भी न फटकें क्योंकि वह आपकी कोई मदद नहीं कर सकता। वह आपको तसल्ली दे सकता है, आपको दिलासा दे सकता है मगर वह आदमी बंधन है। वह आदमी मुक्ति नहीं है। भरोसा अलग चीज है। भरोसा आपका गुण है। यह किसी और चीज पर निर्भर नहीं है, यह आपके अंदर मौजूद होता है। जब आप कहते हैं, 'मैं भरोसा करता हूं, तो इसका मतलब है, 'चाहे आप जो कुछ भी करें, मैं आप पर भरोसा करता हूं। यह आपकी सीमाओं के दायरे में नहीं होता है। कभी मुझ पर भरोसा करने के लिए नहीं कहा। मैं लोगों के साथ कभी 'भरोसा शब्द का इस्तेमाल नहीं करता क्योंकि यह शब्द बहुत बुरी तरह भ्रष्ट हो चुका है। अगर यहां किसी ने कभी भरोसे की बात की है, तो इसका मकसद आपको अपनी पसंद-नापसंद, अपनी सीमाओं के परे ऊपर उठाना है। मैं आप पर भरोसा करता हूं की भावना ही आपको पसंद और नापसंद के इस ढेर से ऊपर उठा देती है। 'चाहे आप कुछ भी करें, मैं आप पर भरोसा करता हूं।
 
          अगर आप वाकई एक गुरु की मौजूदगी का फायदा उठाना चाहते हैं, तो आपको इस बात के लिए तैयार रहना होगा कि वह मौजूदगी आपको वश में कर ले, अभिभूत कर दे, एक तरीके से आपके अस्तित्व को ध्वस्त कर दे। कम से कम उन चंद पलों में, जब आप उसके साथ होते हैं, आपको अपना अस्तित्व भूल जाना चाहिए। आप खुद को जो भी समझते हैं, वह उसकी मौजूदगी में गायब हो जाना चाहिए। खुद को संवेदनशील बनाना जब लोग भरोसे की बात करते थे, तो उनका मतलब होता था कि आप किसी और को अपने अंदर प्रवेश करने दें।
 
          अगर आपको किसी और को अपने अंदर प्रवेश करने देना है, तो आपको ऐसा बनना होगा कि वह आपको भेद सके। एक बार वह (उर्जा के रूप में) आपके अंदर प्रवेश कर ले, तो आपके साथ कुछ भी किया जा सकता है। आपने दीवारें इसलिए खड़ी की हैं क्योंकि कहीं न कहीं जब आपने खुद को संवेदनशील बनाया, तो किसी ने कुछ ऐसा किया जो आपकी उम्मीदों के मुताबिक नहीं था। इसलिए आप डर गए और आप हमेशा अपना बचाव करने लगे। अब, जब आप कहते हैं, 'मैं आप पर भरोसा करता हूं, तो आप उस दीवार को गिराना चाहते हैं। इसका मतलब है कि सामने वाले इंसान को आपकी उम्मीदों के ढांचे के भीतर रहने की जरूरत नहीं है। इस तरह से भरोसा करने के दो पहलू हैं – एक पहलू है गुरु की मौजूदगी। गुरु के निकट होने भर से आपमें बदलाव आने लगता है।
 
          दूसरा पहलू है – अगर आप इस बात से बेपरवाह हो जाते हैं कि आपके साथ क्या होगा, तो वह अपने आप में रूपांतरण है। लोगों के साथ मैं एक सीमित समय तक ही काम कर सकता हूँ। इसलिए मैं सिर्फ एक मौजूदगी के रूप में खुद को उपलब्ध बना रहा हूं, एक व्यक्ति के रूप में नहीं। एक व्यक्ति के रूप में मैं बस एक खास चेहरा बरकरार रखता हूं जो कई रूपों में आपकी उम्मीदों के ढांचे के भीतर होता है।
 
          अगर मुझे अपने व्यक्ति को एक उपकरण के रूप में भी इस्तेमाल करना हो, तो इसके लिए बहुत ज्यादा भरोसे और शायद ज्यादा समय की जरूरत होती है। जो लोग लंबे समय तक मेरे साथ रहते हैं, वे मुझे एक मुश्किल इंसान पाते हैं। जागरूकता से बनाया गया व्यक्तित्व- जिसे आप गुरु कहते हैं, वह कोई इंसान नहीं है। आत्मज्ञान की पूरी प्रक्रिया का यह मतलब है कि कोई अपनी शख्सियत से परे चला गया है और वह सावधानी से एक शख्सियत या व्यक्तित्व तैयार करता है, जो उस तरह की भूमिका के लिए जरूरी हो, जिसे वह निभाना चाहता है।फिलहाल, जिस शख्सियत को आप 'मैं खुद कहते हैं, वह एक संयोग से बना है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपने किन हालातों का सामना किया है। आपकी शख्सियत लगातार विकसित हो रही है, जो जीवन के थपेड़ों से बनती है। जीवन आप पर जिस रूप में भी आघात करता है, आप उस तरह का रूप और आकार अपना लेते हैं।
 
          आपकी शख्सियत लगातार बाहरी हालातों से बनाई जाती है। जिसे आप गुरु कहते हैं, वह कोई इंसान नहीं है। आत्मज्ञान की पूरी प्रक्रिया का यह मतलब है कि कोई अपनी शख्सियत से परे चला गया है और वह सावधानी से एक शख्सियत या व्यक्तित्व तैयार करता है, जो उस तरह की भूमिका के लिए जरूरी हो, जिसे वह निभाना चाहता है। एक सीमित तरीके से आप भी अपनी शख्सियत इस तरह गढ़ रहे हैं, जो आपके कामों के लिए उपयुक्त होती है। जो प्राणी सीमाओं से परे जाकर खुद का अनुभव कर रहा है, वह ऐसा बहुत गहरे रूप में करता है। वह अपने जीवन के हर पहलू को इस तरह बनाता है जो उसकी चुनी हुई भूमिका के लिए जरूरी हो। यह पूरी जागरूकता में गढ़ी जाती है।
 
          जब कोई ढांचा जागरूकता के साथ तैयार किया जाता है, तो वह सिर्फ एक उपकरण या साधन होता है, वह बंधन नहीं रह जाता। वह किसी भी पल उसे गिरा सकता है। अभी भी, मैं एक इंसान के रूप में अलग-अलग जगहों पर बहुत अलग-अलग तरीके से काम करता हूं। अगर आप दूसरी तरह के हालातों में मुझे देखें, तो आप हैरान हो जाएंगे। आप एक तरह के इंसान को जानते हैं और उससे अच्छे से वाकिफ हैं, इसलिए जब आप उसे किसी दूसरी तरह से बर्ताव करते देखते हैं, तो उसे समझ नहीं पाते। एक गुरु अपनी शख्सियत को इस तरह से तैयार करता है कि लोग समझ नहीं पाते कि उसे प्यार करें या उससे नफरत करें। वह सावधानी से एक शख्सियत गढ़ता है, जहां एक पल आप सोचते हैं, 'हां, मुझे वाकई इस आदमी से प्रेम है।
 
          अगले ही पल आप उसके बारे में बिल्कुल अलग महसूस कर सकते हैं। इन दोनों भावनाओं को कुछ रेखाएं पार करने की इजाजत नहीं होती। उन रेखाओं के भीतर, आप पर लगातार आघात किया जाता है कि कुछ समय के बाद आपको पता चल जाएगा कि यह कोई व्यक्ति नहीं है। यह कोई इंसान नहीं है। या तो वह शैतान है या भगवान। अंतिम लक्ष्य तक का सफऱ- अपनी ऊर्जा को आज्ञा चक्र में ले जाने के कई तरीके हैं। मगर आज्ञा से सहस्रार तक जाने के लिए कोई एक तरीका नहीं है। अगर आपको यह छलांग लगानी है, तो आपको गहरे भरोसे की जरूरत है वरना यह संभव नहीं है। जो आपके अनुभव में नहीं होता, वह आपको बौद्धिक रूप में नहीं सिखाया जा सकता।
 
          किसी व्यक्ति को अनुभव के एक आयाम से दूसरे आयाम तक ले जाने के लिए, आपको एक ऐसे साधन की जरूरत होती है जो तीव्रता और ऊर्जा के एक उच्च स्तर पर हो। उसी साधन या उपकरण को हम गुरु कहते हैं। गुरु-शिष्य का रिश्ता एक ऊर्जा के आधार पर होता है। एक गुरु आपको ऐसे आयाम में स्पर्श करता है, जहां कोई और आपको स्पर्श नहीं कर सकता। अपनी ऊर्जा को आज्ञा चक्र में ले जाने के कई तरीके हैं। मगर आज्ञा से सहस्रार तक जाने के लिए कुछ भी करने का कोई एक तरीका नहीं है। वह बस एक छलांग है। इसी वजह से गुरु-शिष्य रिश्ते को इस संस्कृति में सबसे पवित्र रिश्ता माना गया है।
 
          अगर आपको यह छलांग लगानी है, तो आपको गहरे भरोसे की जरूरत है वरना यह संभव नहीं 8-आप नकल ही कर सकते हैं सिर्फ, सृजन नहीं चाहे कला हो, संगीत हो या किसी भी तरह की तकनीक इनमें सृजन जैसी कोई चीज नहीं है। मतलब पृथ्वी पर मानव ने नया कुछ नहीं रचा है। यह सब कुछ पहले से ही मौजूद था। अगर विज्ञान और तकनीक की बात करें तो भी हमने ऐसा कुछ खास नहीं बनाया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपने कितनी अच्छी मशीनें बनाई हैं, क्योंकि सबसे शानदार मेकैनिकल-सिस्टम, सबसे बढिय़ा यांत्रिकी तो आपके शरीर के भीतर है।इस बारे में मैं जो कहना चाहता हूं, उसे सुनकर हो सकता है आप लोगों को धक्का लगे। मैं तो यह कहता हूं कि सृजनशीलता जैसी कोई चीज होती ही नहीं है।
 
          इंसान ने जो कुछ भी किया है, वह इस विशाल सृष्टि की नकल या उन चीज़ों में थोड़ी सी तबदीली मात्र ही है जो यहां पहले से मौजूद है। इस धरती पर क्या हमने वाकई किसी चीज की रचना की है? रचना करने के नाम पर हमने जो कुछ भी किया है, वह पहले से मौजूद चीजों की बस मामूली नकल भर ही तो है। अगर आप विज्ञान और तकनीक की भी बात करें तो भी हमने ऐसा कुछ खास नहीं बनाया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपने कितनी अच्छी मशीनें बनाई हैं, आप देखेंगे कि सबसे शानदार मेकैनिकल-सिस्टम, सबसे बढिय़ा यांत्रिकी तो आपके शरीर के भीतर है। सबसे बेहतरीन इलेक्ट्रिकल-सिस्टम हो या सबसे कारगर इलेक्ट्रॉनिक-सिस्टम, या फिर सबसे जटिल कैमिकल कारखाना ये सब आपके शरीर के भीतर हैं। ये सारी चीजें पहले से ही शरीर में मौजूद हैं।
 
          अगर आप कला के बारे में बात करें तो कोई भी रचना जो आप करते हैं, वह प्रकृति का छोटा सा अनुकरण या नक़ल मात्र ही है। कहने का मतलब यही है कि चाहे कला हो, संगीत हो या कोई और चीज, रचनात्मकता जैसी कोई चीज नहीं है। दरअसल, इन सबको नकल कहना थोड़ा अपमानजनक लगता है, इसलिए लोग इसे सृजनशीलता कह देते हैं। सृजन- बस गौर से देखें अगर आप ध्यान से यह देखते हैं कि आपके भीतर और आपके आसपास क्या कुछ हो रहा है, तो आप हर छोटे से छोटे काम को रचनात्मक तरीके से कर सकते हैं। रचनात्मकता का मतलब यह नहीं है कि आपने किसी शानदार चीज का आविष्कार कर दिया।
 
          रचनात्मकता तो इस बात में भी है कि कोई झाड़ू कैसे लगाता है। हो सकता है, कोई इसी काम को नीरस तरीके से कर रहा हो और कोई दूसरा इसे बड़े रचनात्मक तरीके से।अगर आप किसी भी क्षेत्र में रचनात्मक होना चाहते हैं, तो कुल मिलाकर आपको बस एक ही काम करना होगा- अवलोकन यानी निरीक्षण। चीजों को पूरी गहराई में ध्यान से देखें। यह आपके दृष्टिकोण को बड़ा कर देगा, जिससे आप अपने हर छोटे-छोटे काम को और बेहतर तरीके से कर पाएंगे। अगर आपने गहराई से अवलोकन करने या ध्यान देने की क्षमता विकसित कर ली, तो आप देखेंगे कि आप जो भी कर रहे हैं, उसमें अपने आप रचनात्मकता आ रही है। रचनात्मकता का मतलब यह नहीं है कि आपने किसी शानदार चीज का आविष्कार कर दिया। रचनात्मकता तो इस बात में भी है कि कोई झाड़ू कैसे लगाता है। हो सकता है, कोई इसी काम को नीरस तरीके से कर रहा हो और कोई दूसरा इसे बड़े रचनात्मक तरीके से।
 
          अगर आप ध्यान से यह देखते हैं कि आपके भीतर और आपके आसपास क्या कुछ हो रहा है, तो आप हर छोटे से छोटे काम को रचनात्मक तरीके से कर सकते हैं। आपके भीतर सभी स्तरों पर जो भी हो रहा है, इसका गहराई से अवलोकन करने के साधन अगर आप विकसित कर लें तो आप एक जबर्दस्त सृजनशील व्यक्ति हो जाएंगे। वैसे अगर आप सिर्फ अपने आसपास की चीजों पर ही गहराई से नजर रखें तो भी आप पाएंगे कि आप जो भी काम करते हैं, उन्हें करने के और भी तरीके हो सकते हैं। यानी उसी काम को आप नए और रचनात्मक तरीकों से कर सकते हैं।
 
 
9-आध्यात्मिक मिलन क्या है
 
           एक होना या मिलन न केवल सामाजिक स्तर पर बल्कि आध्यात्मिक स्तर पर भी महत्वपूर्ण समझा जाता है  प्रेमी युगल अकसर तन, मन और भावना से एक होने की बात करते हैं। लेकिन क्या यह संभव है? इस सृष्टि में तन, मन या भावना के धरातल पर कोई भी दो प्राणी क्या एक हो सकते हैं? नहीं। अगर एक हो सकते हैं तो सिर्फ ऊर्जा के स्तर पर, ऊर्जा के कई स्तर होते हैं। इसके एक स्तर को तो आप जानते ही हैं वह भोजन जो आप खाते हैं, वह पानी जो आप पीते हैं, वह हवा जिसमें आप सांस लेते हैं और वह धूप जिसका आप उपयोग करते हैं, ये सभी चीजें आपके शरीर के भीतर जाकर ऊर्जा बन रही हैं। रोजमर्रा के जीवन में आप जिस ऊर्जा का अनुभव करते हैं, वह अलग-अलग लोगों में अलग-अलग सीमा तक होती है। इसे देखने का दूसरा तरीका भी है।
 
          जिसे आप जीवन कहते हैं या जिसे आप 'मैं कहते हैं, वह भी अपने आप में एक ऊर्जा है। आप कितने जीवंत हैं, आप कितने सजग हैं, उसी से यह तय होता है कि आप कितने ऊर्जावान हैं मान लीजिए कोई आपके पास आता है और आपको 'बेवकूफ कह देता है, आप फट पड़ते हैं। अब आपको लगता है कि आप क्रोधित हैं, लेकिन यह भाव पहले से पनप रहा था। लेकिन अपने ऊर्जा स्तर की वजह से आप इसके प्रति जागरूक नहीं हैं।
 
          आप जो भोजन करते हैं, जो पानी पीते हैं, जो सांस लेते हैं या जो कुछ भी भीतर लेते हैं, उसे सक्रिय और लाभकारी ऊर्जा में बदलने के लिए एक खास क्षमता की जरूरत होती है। यह क्षमता अलग-अलग लोगों में अलग-अलग होती है। इस क्षमता से हमारा मतलब अपने भीतर लिए गए पदार्थ को बस पचा लेने या उसे अपने शरीर का एक हिस्सा बना लेने से नहीं है। भी चीज अपने भीतर लेते हैं, उसका ऊर्जा में रूपांतरित होना इस बात पर भी निर्भर करता है कि आप कितने जीवंत हैं या आपके भीतर पहले से मौजूद ऊर्जा कितनी सजग है।
 
          आपने अपने आसपास ऐसे कई लोगों को देखा होगा या खुद भी कभी ऐसा महसूस किया होगा कि जब आप किसी आध्यात्मिक क्रिया का अभ्यास करना शुरू करते हैं तो आपकी ऊर्जा का स्तर बिल्कुल अलग होता है। एक बार जब आप ऐसे अभ्यास करने लगते हैं फिर आपके सजग रहने की क्षमता में पहले से बढ़ोत्तरी हो जाती है, आप पहले जितनी जल्दी थकते नहीं हैं और आप बड़े ही सहज तरीके से जीवन के साथ आगे बढ़ते रहते हैं। अगर आप किसी ऐसी क्रिया का रोज अभ्यास करते हैं तो आप देखेंगे कि अगर किसी दिन आप क्रिया न करें तो एक अलग तरह का फर्क आपको महसूस होगा।
 
          देखा जाए तो क्रिया, प्राणायाम या ध्यान जैसे अभ्यासों का असली मकसद आपके ऊर्जा स्तर को ज्यादा सजग बनाना ही है। अगर आप जीवन के और ऊंचे स्तर पर जाकर काम करना चाहते हैं, तो आपको उच्च स्तर और उच्च गुणवत्ता वाली ऊर्जा की जरूरत होगी। इसलिए सारी आध्यात्मिक प्रक्रियाएं ऊर्जा के इस स्तर को उठाने की है। इसे करने के कई तरीके हैं। आपमें से कइयों ने कुछ आसान से तरीकों से इसकी शुरुआत भी कर दी होगी। किसी इंसान के भीतर ऊर्जा का संचार करने के कई और तरीके भी हैं, जो थोड़े नाटकीय हो सकते हैं। ऐसे तरीकों के लिए खास तैयारी की जरूरत होती है। इसके लिए जीवन पर नियंत्रण और संतुलन चाहिए तो ऊर्जावान होने का मतलब अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों के लिए अलग-अलग है।
 
          आपके लिए अगर ऊर्जावान होने का मतलब सिर्फ इतना है कि आप अपने रोजमर्रा के कामों को बेहतर तरीके से बिना जल्दी थके कर सकें, तो इसके लिए आप जो अभ्यास कर रहे हैं, वही काफी है। अगर वह अभ्यास काफी नहीं लग रहा हो, तो उसमें थोड़ा सा सुधार करने से आपकी जरूरतें पूरी हो सकती हैं। एक आसान सा तरीका और है। आपने जरूर गौर किया होगा कि किसी दिन जब आप खुश होते हैं, आप अपने भीतर अधिक ऊर्जा महसूस करते हैं। दूसरे दिन अगर आप उतने खुश नहीं हैं तो आपको अपने भीतर उतनी ऊर्जा महसूस नहीं होती।
 
          हम जो अक्सर हमेशा खुश और शांत रहने की बात करते रहते हैं, उसका कारण यही है कि अगर इंसान भीतर से खुश और शांत होगा तो उसकी ऊर्जाएं एक खास तरीके से सजग होने लगेंगी, नहीं तो उनमें रुकावट आती रहेगी। जब ये ऊर्जाएं सजग होंगी, तभी आप उन्हें ऊंचे स्तर तक ले जा सकते हैं। जब आप एक आध्यात्मिक प्रक्रिया शुरू करते हैं, तो ऊर्जावान होने का अर्थ है अपनी सीमाओं के परे जाना। क्योंकि ऊर्जा के स्तर पर सब कुछ एक होता है।
 
          मेरे लिए सही मायने में ऊर्जावान होने का मतलब यह है कि अगर आप यहां बैठे हैं तो आपकी सीमा शरीर न रहे। अगर आपकी ऊर्जाएं वास्तव में सक्रिय हैं तो आपका शरीर आपके लिए बंधनकारी नहीं होगा। ऊर्जा ही संपर्क का मुख्य साधन बन जाती है। अभी बाकी दुनिया से आपका जो भी संपर्क है, वह आपके शरीर, मन और आपकी भावनाओं के जरिए ही है। इन्हीं के जरिए आप अपनी बात कहते हैं, दूसरों तक अपनी पहुंच बनाते हैं। या तो आप किसी को शारीरिक रूप से छू कर या अपने विचारों के जरिए मानसिक रूप से, या फिर भावनात्मक रूप से अपनी बात दूसरों तक पहुंचाते हैं। लेकिन एक बार अगर आप वास्तव में ऊर्जावान हो गए, तो इस अस्तित्व की हर चीज के साथ आप ऊर्जा के स्तर पर जुड़ सकते हैं।
 
          एक बार अगर आपने ऊर्जा के स्तर पर संपर्क बनाना शुरू कर दिया, तो दो चीजों के बीच कोई अंतर नहीं रह जाएगा। एक बार अगर यह बंधन टूट गया, तो आप अपनी परम प्रकृति को पा लेंगे। ऊर्जावान होने का मतलब अलग-अलग लोगों के लिए बेशक अलग-अलग हो सकता है लेकिन जब आप एक आध्यात्मिक प्रक्रिया शुरू करते हैं, तो ऊर्जावान होने का अर्थ है अपनी सीमाओं के परे जाना। क्योंकि ऊर्जा के स्तर पर सब कुछ एक होता है। शारीरिक स्तर पर हम दूसरों के साथ एक कभी नहीं हो सकते।
 
          मानसिक विचारों में भी कभी एकत्व नहीं हो सकता। हम एक होने की बात कर सकते हैं, लेकिन वह कभी नहीं होने वाला। भावनात्मक स्तर पर भी हम बेशक ऐसा सोच सकते हैं कि हम एक हैं, लेकिन हम अलग-अलग ही होंगे। कोई भी दो लोग एक ही तरह से कभी नहीं महसूस कर सकते। हो सकता है कि हम ऐसा मानते हों, ऐसा विश्वास करते हों कि दो लोग एक जैसा महसूस करते हैं, लेकिन ऐसा होता नहीं है।
 
          कुछ लोगों को इसका अनुभव करने में सालों का वक्त लग जाता है। हो सकता है कुछ लोग बहुत जल्दी इसे अनुभव कर लें। लेकिन कभी न कभी यह अनुभव हर किसीको होगा कि शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से कोई भी दो लोग बिल्कुल एक जैसे नहीं हो सकते। ऐसा संभव ही नहीं है। लेकिन जब आप वास्तव में ऊर्जावान हो जाते हैं, तो एक हो जाना स्वाभाविक है।