1-मनुष्य जीवन स्वतंत्र नहीं है-
क्या आप स्वयं को स्वतंत्र महशूस करते है?नहीं,आप तो परतंत्र हैं,स्वतंत्र तो केवल परमात्मा है।हम तो भ्रमवश ऎसा समझते हैं कि हम स्वतंत्र हैं,मुक्त हैं,किन्तु जिसे लोभ सताता है,वह क्रोध के वःश में होता है वह स्वतंत्र कैसे हो सकता है।यदि मोह,माया,काम,क्रोध,के अधीन रहने वाला मनुष्य अपने को स्वतंत्र माने यह तो केवल विडम्बना ही हो सकती है।।
2-अपराध-
पाप करना इतना बडा अपराध नहीं है,जितना कि पाप को स्वीकार न करना है ।पाप को स्वीकार न करना और पाप के लिए पछतावा न करना बडा अपराध है।पाप करने के बाद जिसने पछतावा नहीं किया, वह वह मनुष्य नहीं है। सच्चा मनुष्य तो वह है जो बुरे कर्म के बाद आत्म ग्लानि अनुभव न करे ।।
3-मनुष्य स्वयं में पूर्ण है-
वह मुक्त है ।उसके अपूर्ण दिखने का कारण है उसकी दुर्वलतायें हैं। उसे,भ्रम,
राग,भय,तथा क्रोध की बेडियों ने जकड कर रखे हुये हैं ।यदि वह इन्हैं निकाल कर फेंक दें तो वह स्वयं पुरुषोत्तम बन जाता है ।।
4-पुरुषार्थ क्या है-
योजनाबद्ध होकर नियमित रूप से कर्तव्यों का पालन करना ही पुरुषार्थ है। पुरुषार्थी तो सतयुग में जीताहै।जबकि आलसी और विलासी का जीवन तो कलयुग है ।और कलयुग से सतयुग में प्रवेश करना जीवन में शुभ प्रभात होना है। तो फिर उठो,जागो,प्राप्त करो । प्रभात की वेला तो तुम्हैं आगे बढने के लिए पुकार रही है ।अपने जीवन की वाटिका को पुरुषार्थ के सुमनों से सजाकर मुस्कराओ। तो फिर देखना दैव(भाग्य) भी मुस्करा रहे होंगे ।।
5-बुद्धि के सदुपयोग से सुख –
शॉति का जीवन यापन करें यदि मनुष्य को अपने चिंतन का तथा अपनी बुद्धि का का सदुपयोग करने की कला आ जाय तो वह संसार में खूब आनंद,शॉति और प्रेंम से जी सकता है। और स्वर्ग के सुख से कई गुना अधिक गुना सुख पा सकता है।मृत्यु से पहले और बाद भी मुक्ति का अनुभव करें ।।
6-ज्ञान की उपयोगिता-
पहली बात है कि ज्ञान स्वयं ज्ञान प्राप्ति का सर्वोच्च पुरुस्कार है। यह हमारे सारे दुखों का हरण करने करने वाला है। जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते-करते ऐसी एक वस्तु से साक्षात्कार कर लेता है, तो उसको फिर दुःख नहीं रहता, उसका सारा विषाद गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही तो समस्त दुखों का मूल है। मनुष्य समझ जाता है कि मृत्यु किसी काल में है ही नहीं, तो फिर उसे मृत्यु से मुक्ति मिल जाती है, अपने को पूर्ण समझने से वासनाएं नहीं रहतीं। फिर कोई दुःख नहीं रहता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है ।।
7-चलते रहो-
जीवन में सोते ही रहना कलयुग है,निद्रा से उठकर बैठना ही द्वापर है,और उठकर खडा हो जाना त्रेता युग है और चल पडना सतयुग है।इसलिए जीवन में चलते रहो-चलते रहो ।।
8–चरित्र जितना ही अधिक परिस्कृत होगा उतना ही अधिक भगवान का प्यार मिलेगा -
परमात्मा तक पहुचने के लिए जीवन का शोधन करना होगा,पाप और पतन सरल है, घर में आग लगा दीजिए और दस हजार रुपये जला दीजिए यह तो सरल है, लेकिन मकान बनाना और दस हजार रुपये कमाना कठिन है । आत्मा को परमात्मा तक पहुंचाने के लिए रास्ता सरल नहीं है, संयमी- सदाचारी और ईमानदार बनिए कीमत को चुकाङये ।।
9 – कर्तव्यों का पालन ही स्वर्ग है -
कर्तव्यों का पालन करना स्वर्ग की अनुभूति है,कर्तव्य पालन से आंखों में एक नईं ज्योति आती है,यह आत्म बल से उत्पन्न हुई शॉति होती है,कर्तव्य करते हुये यदि हम असफल हो भी जाते हैं तो कोई बात नहीं गॉधी,सुकरात,या ईसामसीह भी असफल हो गये थे, मगर यह असफलता सफलता से सौ गुनी अच्छी है ।।
10-स्मरण शक्ति का विकास करें-
आध्यात्म में विस्मरण का निवारण ध्यान योग है,ध्यान योग का उद्देश्य मूलभूत स्थिति के बारे में,सोच विचार कर सकने योग्य स्मृति को वापिस लौटाना है,जीव का ब्रह्म के साथ मिलन से स्मृति ताजा हो जाती है, ध्यान
योग हमें ङसी लक्ष्य की पूर्ति में सहायता करता है, ङससे आत्म बोध होता है, जो कि जीवन में सबसे बडी
उपलब्धि है ।।
11 –मानसिक असंतुलन से मुक्ति के उपाय-
मानसिक असंतुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए ध्यान साधना से बढकर और कोई उपयुक्प उपाय नहीं है,ङसका सीधा लाभ आत्मिक और भौतिक दोनों रूपों में मिलता है,कई बार मन क्रोध, शोक, प्रतिशोध, कामुकता, विक्षोभ जैसे उद्वेगों में उलझ जाता है, ङससे कुछ भी अनर्थ हो सकता है, मस्तिष्क को ङन विक्षोभों से कैसे उबारा जाय ङसका समाधान ध्यान साधना से जुडा है ।।
12 – मुसीबत अपने साथ विपत्तियों का नया परिवार समेटकर लाती है -
जिन्दगी में कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं कि एक मुसीबत के साथ कई मुसीबतें आ जाती हैं, ङसका कारण जब व्यक्ति आवेश में आता है तो संतुलन खो बैठता है, फिर न सोचने योग्य बातें सोचने लगता है,न कहने योग्य कहता है, न करने योग्य करता है, उनके दुष्परिणाम निश्चित रूप से होते हैं ।।
13 – देवता कभी बूढे नहीं होते हैं -
आपने राम,कृष्ण या किसी देवी मातृ की शक्ल को बूढी नहीं देखी होगी।बूढे तो वे होते हैं जिनके अन्दर उत्साह उमंग नहीं रहता है ।श्रीकृष्ण भगवान108 वर्ष मे मरे थे,उनके बाल सफेद हो गये थे,दॉत उखड गये थे लेकिन उनको बूढा नहीं कहा गया,क्योंकि जिनके अन्दर उमंग ,उत्साह है और जो निराशा की बात नहीं करते उन्हैं जवान कहते हैं ।
।
14 -ईश्वर भक्ति का नशा -
जिस प्रकार शराबी को शराब का नशा होता है, उसी प्रकार भक्त को भक्ति का नशा होता है, हनुमान ने सारा जीवन भगवान के काम लगाया, सुग्रीव ने भी यही किया,बुद्ध ने अपने सारे सुखों का त्याग कर दिया था, स्वामी विवेकानन्द तथा गॉधी जी ने अपना जीवन भगवान के सुपुर्द कर दिया था,विभीषण तथा शिवाजी की भक्ति को देखिए सारा जीवन भगवान को समर्पित कर दिया था ।।
15 -आध्यात्म जीवन के लिए आवश्यक है -
आध्यात्म से शारीरिक,मानसिक,आर्थिक समस्याओं का समाधान हो जाता है।आध्यात्म का जीवन में आने से परिवारों में राम-कृष्ण,भीम-अर्जुन, हनुमान जैसी सन्तानें पैदा होंगी ,व्यक्ति,परिवार,समाज एवं राष्ट का कल्याण होगा जिस प्रकार रामलीला के लिए पहले रिहर्सल करते हैं उसी प्रकार आध्यात्म को जीवन में अपनाने के लिए हमें प्रेक्टिकल करना होता है ।।
16 – श्रेष्ठ परम्पराओं को बढाना ही वंश परम्परा है -
वंश परम्परा का मतलव औलाद से नहीं है बल्कि श्रेष्ठ परम्पराओं को आगे बढाना है हमारे पूर्वजों द्वारा आाध्यात्म की जो नीव रखी है उसे हमें संजोकर तथा परिष्कृत करके रखना है,ताकि अगली पीढी को ङसमें सन्देह न हो,महान श्रृषि गुफा में ही नहीं बैठते थे बल्कि लोगों को अपना ज्ञान बॉटते थे, ईसा मसीह, मुहम्मद
साहब,गॉधी जी ने सारा जीवन दुनियॉ की सेवा में समर्पित किया ।।
17–सम्पत्ति जमा करने से अहंकार बढता है-
जहॉ सम्पत्ति होती है वहॉ कलह होता है प्रशन्नता नहीं होगी । जब शरीर मोटा होता है तो वह कुछ भी काम नहीं कर सकता है, उसी प्रकार बडा आदमी बनने से कोई फायदा नहीं, अहंकार बढता है, जो कि जीवात्मा को पसन्द नहीं है। महात्मॉ गॉधी जी ने जब आंतरिक महानता को स्वीकार किया तो पूरे विश्व में अपनी छाप छोड गये ।बडप्पन
से महानता बडी है।।
18–सुख और शॉन्ति का जीवन-
इस शरीर को सुख चाहिए जबकि आत्मा के लिए शॉन्ति । सुख का सम्बन्ध भौतिक सम्पदा से है जैसे बीबी बच्चे,मकान, मोटर गाडी,रुपये पैसे अगर हैं तो कहते हैं सुखी है, लेकिन आत्मॉ के लिए ये चीजें व्यर्थ हैं ङन
चीजों से शॉन्ति नहीं मिल सकती है,सुखों को बॉटने से शॉन्ति मिलती है,रावण हो या कंस या सिकन्दर सभी सुखी थे,मगर शॉन्ति नहीं थी ।।
19-मुझे नहीं चाहिए आप लीजिए मंत्र का प्रयोग करके देखें-
जी हॉ ङस महॉ मंत्र का प्रयोग करके देखें, विश्व में आज व्याप्त वैचेनी, पीडा,छीना- झपटी,और युद्धों की जैसी स्थिति को ङस नीति से समाप्त किया जा सकता है । सतयुग में ङसी नीति का प्रयोग होता था,जिससे मानव सुखी था । ङतिहास की धटनाओं में कई उदाहरण हैं -जैसे रामायण युग में कैकई ने जब ङस नीति का उलंघन किया था और, मैं लूंगा आपको न दूंगा ,नीति को अपनाई थी तो सारी अयोध्या नगरी नरक धाम बन गयी थी, राम को चौदह वर्ष का वनवास और भरत को राज गद्दी ।दशरथ ने प्राण त्याग दिये। लेकिन जब भरत ने ,मुझे नहीं चाहिए आप लीजिए, की नीति अपनाई तो, धटना क्रम बदलकर दूसरे ही दृष्य उपस्थित हो गये, भरत ने राज-पाट को लात मारकर भाई के चरणों में लिपटकर बच्चों की तरह रोने लगे, और बोले भाई मुझे राज्य नहीं चाहिए,यह राजपाट मेरे लिए नहीं है, ङसे आप ले लीजिए,श्री राम ने कहा भरत भाई मेरे लिए तो वनवास ही श्रेष्ठ है,राज्य का सुख तुम भोगो ।ङधर सीता जी ने भी कहा कि नाथ यह राज्य भवन मुझे नहीं चाहिए ,मैं तो आपके साथ रहूंगी ।सुमित्रा ने लक्ष्मण को निर्देश दिया, कि हे पुत्र अगर सीता जी श्री राम चन्द्र जी के साथ वन जा रहीं हैं तो, उनकी सेवा के लिए तुम भी वन में जाओ । आज के युग में ङस नीति की नितान्त आवश्यकता है, ङस नीति से त्याग ,दूसरों की सुख-सुविधा,उन्नति का अधिक ध्यान रखकर मानवताकी रक्षा और विकास हो सकता है
20-चार पुरुषार्थ
हिन्दू धर्म में प्रत्येक मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थ बताये गये हैं –
धर्म,अर्थ,काम,नोक्ष । प्रत्येक मनुष्य को अवश्य ही इन्हैं प्राप्त करना चाहिए, या जितना अधिक सम्भव हो प्राप्त करना चाहिए -
1-धर्म का तात्पर्य है अपने अन्दर सद्गुणों का विकास करना,जैसे ज्ञान प्राप्त करना और समाज के संदर्भ में व्यावहारिक जानकारी प्राप्त करना ।
2-अर्थ से तात्पर्य –परिश्रम और ईमानदारी से धन का उपार्जन करना ।
3- काम से तात्पर्य –आदर्श गृहस्थ जीवन व्यतीत करना एवं अपनी सन्तान को सुयोग्य नागरिक बनाना । मोक्ष से तात्पर्य –अपने घर-व्यापार के कार्यों से मुक्त होकर समाज-देश –धर्म के हित के लिए कार्य करना । जो मनुष्य इन चारों में से एक भी पुरुषार्थ प्राप्त नहीं कर पाते हैं,उनकता जीवन व्यर्थ एवं निष्फल है ।
21-बोलने में संयम वरतें-
जब वसंत ऋतु आती है- तभी कोयल कूकना शुरू करती है, अन्य ऋतुओं में वह मौन रहती है । इसी प्रकार से, बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि- वह भी मौन रहे और सही अवसर आने पर सोच-विचार करके मीठी वॉणी में अपनी बात कहे । विना अवसर के बोलना,दूसरों के वीच में बोलना,बार-बार बोलना,सोचविचार किये बिना बोलना-यह मूर्खता के लक्षण हैं ।।
22-गुंण-दोषों में केवल गुणों को ही ग्रहण करें-
अनेक वस्तुएं इस प्रकार की होती हैं कि जिनका सेवन करने से मनुष्य को नशा होता है और लगातार कई दिनों तक सेवन करने से बुद्धि भी नष्ट हो जाती है।इनका अधिक मात्रा में सेवन करने से मृत्यु तक होसकती है ।जैसे तम्बाकू,भॉग,गॉजा,धतूरा आदि ।लेकिन ध्यान देने वाली बात है कि –इन सभी वस्तुओं से विभिन्न प्रकार आयुर्वेदिक और होमियोपैथिक दवाइयॉ भी बनाई जाती हैं । इसलिए इन वस्तुओं का महत्व नकारा नहीं जा सकता है ।ध्यान रखने वाली बात होगी कि यदि किसी वस्तु में गुंण और दोष दोनों ही हैं तो हमें उनसे केवल गुँणों को ही ग्रहण करना चाहिए ।।
23-मूल्यवान कहीं भी हो ग्रहण कर लें-
कोई भी उत्तम पदार्थ या मनुष्य किसी भी स्थान में मिल रहे हों तो उन्हैं ग्रहण कर लेना चाहिए,अपने मन में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं रखना चाहिए । मूल्यवान वस्तु यदि किसी अशुद्ध स्थान पर हो तो भी उसे प्राप्त करके उसे संरक्षण करना चाहिए ।यदि आपका धन या आभूषण कहीं सडक पर गिर जाये तो आप क्या उसे वापस नहीं उठायेंगे ? उठायेंगे,अवश्य उठायेंगे । और यदि नहीं उठायेंगे तो आपको भारी आर्थिक हानि पहुंचेगी ।इसी प्रकार यदि कोई मनुष्य उत्तम गुंणों से युक्त हो अर्थात वह गुंणवान,चरित्रवान,तथा विद्वान हो तो हमें उसका आदर करना चाहिए और उसके गुंणों को सीखने का प्रयास करना चाहिए-भले ही वह किसी भी जाति –धर्म का क्यों न हो। इसी लिए कहा गया है कि-विष में से अमृत को,अशुद्ध पदार्थों में से सोने को,नीच मनुष्य से उत्तम विद्या को और दुष्ट कुल से भी स्त्री रत्न को ले लेना चाहिए ।।
24- बच्चों से प्यार करें मगर अधिक नहीं-
बच्चों को प्यार करना आवश्यक है लेकिन जब यह प्यार बहुत ज्यादा हो जाय तो हानिकारक हो जाता है । जिस प्रकार अधिक मिठाई खाने से मधुमेह की वीमारी हो जाती है उसी प्रकार अधिक लाड प्यार से बच्चे विगड जाते हैं । इसीलिए बच्चों के कार्यों का निरन्तर निरीक्षण करते रहना चाहिए और जब भी कोई गलत कार्य करता दिखाई दे तो तुरन्त उसे समझाना चाहिए कि – यह कार्य गलत है और सही कार्य इस प्रकार से होगा ।यदि बच्चा फिर भी न माने तो उसे दण्डित करना चाहिए-उसकी गलतियों को क्षमा नहीं करना चाहिए ।इस प्रक्रिया से बच्चों में सद्बुद्धि तथा विवेक का विकास होता है और योग्यमनुष्य बनता है ।।
25--योग्य गुँणवान पुत्र से परिवार को सम्मान मिलता है-
जिस प्रकार सुगन्ध से भरपूर एक ही वृक्ष से सारा वन महक उठता है या जिस प्रकार एक मात्र चन्द्रमा के निकलने से ही रात्रि का अन्धकार दूर हो जाता है,उसी प्रकार से केवल एक योग्य पुत्र अपने पूरे परिवार को समाज में प्रतिष्ठा दिलवाता है ।इसलिए सभी को चाहिए कि अपने सन्तान में गुणों का विकास करें ।।
26-मोह के समान कोई शत्रु नहीं है-
हम अपने सम्बंधियों के प्रति अत्यधिक प्रेम भाव रखने से हम उनके दोषों को देख पाने में असमर्थ रहते हैं और इस मोह के कारण हानि भी उठाते हैं।माता अगर मोह के अधीन होकर अपनी सन्तान के अवगुंणों को न देखे और उसे दण्डित न करे तो वह संतान पूर्णतः अयोग्य बन जायेगी ।।
27-दुष्ट लोगों के अंग-
अंग में विष होता है-
सॉप के दॉतों में विष होता है,मक्खी के सिर में विष होता है,विच्छू के पूंछ में विष होता है- इन प्रॉणियों के तो केवल एक अंग में ही विष होता है।लेकिन दुष्ट मनुष्य के तो सभी अंगों में विष होता है और वह अन्य लोगों को सदा हानि पहुंचाने की चेष्टा करता है।अतः दुर्जन मनुष्य से सदैव दूर ही रहना चाहिए ।।
28-मैं नाम की कोई वस्तु है ही नहीं-
मैं कौन हूं,इसका भली भॉति विचार करने पर दिखाई देता है कि मैं नाम की कोई वस्तु है ही नहीं-ठीक उस प्याज के समान जिसके छिलकों को एक-एक करके निकाल दिया जॉय तो अंत में तुम्हैं कुछ भी नहीं मिलेगा । यह मनुष्य शरीर भी उसी प्रकार का है,पंच्चतत्वों में विलय के बाद इस शरीर का कोई रूप शेष नहीं रहता । उस अवस्था में मनुष्य को अपने अहं का अस्तित्व ही नही मिलता और उसे ढूंडने वाला ही कहॉ रह जाता ? उस अवस्था में उसे अपने शुद्ध बोध में ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप का जो अनुभव होता है,उसका वर्णन कौन कर सकता है।।
29-मूर्ख लोगों में ज्ञान का अभाव होता है-
बहुत से मूर्ख लोग इस प्रकार के होते हैं कि जिन्हैं किसी भी विषय में कोई जानकारी नहीं होती है लेकिन फिर भी वह प्रत्येक वस्तु में –कमी और मीन-मेख निकालते रहते हैं ।इस प्रकार के लोग केवल अपने समय और ऊर्जा को ही नष्ट करते हैं क्योंकि इस प्रकार की निन्दा करने से न तो स्वयं उनके कोई लाभ होता है और न ही उस वस्तु का कुछ विगडता है ।।
30-दुष्ट लोगों से मित्रता न करें-
दुष्ट और अयोग्य व्यक्तियों से कभी भी मित्रता नहीं करनी चाहिए लेकिन किन्हीं कारणों से ऐसे लोगों से मित्रता हो भी जाय तो भी उन पर विश्वास नहीं करना चाहिए ।लेकिन यदि आपका कोई योग्य और घनिष्ठ
मित्र है तो उसपर भी आंख बंद करके विश्वास नहीं करना चाहिए ।यदि घनिष्ठ मित्र से आपने अपने विषय में समस्त वातें बता दी और वह आपसे रुष्ट हो गया तो, आपके विरोधियों को आपके विषय में सभी जानकारियॉ देकर आपको हानि पहुंचा सकता है ।और यदि रुष्ट न भी हुआ तब भी धन आदि के लालच में आपके विरोधियों से मिल सकता है ।।
31-धन का सदुपयोग करें-
मधुमक्खियॉ अत्यधिक परिश्रम करके अपने छते में शहद एकत्र करती हैं ।लेकिन उस मधु का न तो उपभोग करती है और न किसी को दान करती है ।और जब उसका छता बडा हो जाता है तो अन्य प्रॉणी जैसे भालू,
मनुष्य आदि उन छतों कोतोडकर मधु को निकाल देते हैं । तब उन मधुमक्खियों को बहुत दुख होता है कि हमारा सारा परिश्रम बेकार हो गया ।इसी प्रकार कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं जो कि दिन-रात परिश्रम करके अपार धन एकत्रित करते हैं लेकिन उस धन को न तो वे स्वयं अपने उपभोग में खर्च करते हैं और न उसका प्रयोग देश-धर्म के हित के कार्य में व्यय करते हैं अतः उसका समस्त धन व्यर्थ हो जाता है। अतः बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जो भी धन प्राप्त करता है,उससे स्वयं के सुख के साधन एकत्रित करें और देश-धर्म के हित के लिए भी कार्य करें ।।
32-धन और ज्ञान दोनों का मेल असंभव है-
मनुष्य अपने जीवन में कितना ही परिक्षम करले लेकिन धन और ज्ञान दोनों को बहुत अधिक मात्रा में प्राप्त कर ले यह सम्भव नहीं है। इस संसार में कोई भी ऐसा नहीं है जिसको धन और ज्ञान दोनों एक साथ प्राप्त हो गये हों ।सच तो यह है कि धनवान लोग विद्वान नहीं होते हैं ।इसी प्रकार विद्वान लोग बहुत अधिक धनवान नहीं होते।इसलिए यदि आपको अधिक धन कमाना हो तो आपको उसी क्षेत्र में प्रयास करना चाहिए और बहुत अधिक ज्ञान प्राप्त करने की आशा छोड देनी चाहिए।और यदि आपको अधिक मात्रा में ज्ञान प्राप्त करना हो तो आपको उसी क्षेत्र में प्रयास करना चाहिए और बुत अधिक धन प्राप्त करने की आशा छोड देनी चाहिए ।।
33-स्त्री-पुरुष का भेद-भाव छोड दें-
यदि आप पूर्ण योगी होना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको स्त्री पुरुष का भेद भाव छोड देना होगा ।आत्मा का कोई लिंग नहीं होता है-उसमें न स्त्री है ,न पुरुष ह,तब क्यों स्त्री –पुरुष के भेद-ज्ञान द्वारा अपने आपको कलुषित करें? यह अच्छी तरह समझना होगा कि ये भाव हमें छोड देना चाहिए ।।
34-रोना बन्द करें-
मेरे दोस्त, तुम रोते क्यों हो?तुम्हारे लिए तो न जन्म है न मरण,क्यों रोते हो ? तुम्हें रोग शोक कुछ भी नहीं है,तुम तो अनंत आकाश के समान हो ।उस पर नाना प्रकार के मेघ आते हैं और कुछ देर खेलकर न जाने कहॉ अन्तर्निहित हो जाते हैं,पर वह आकाश जैसा पहले नीला था,वैसा ही नीला रह जाता है ।संसार की बुराई की बात मन में न लाओ,रोओ कि जगत में अब भी तुम बुराई देखने को मजबूर हो,रोओ कि अब भी तुम सर्वत्र पाप देखने को बाध्य हो और यदि तुम जगत का उपकार करनाचाहते हो,तो जगत का दोषारोपण करना छोड दो ।उसे और भी दुर्वल मत करो। आखिर ये सब पाप,दुख आदि क्या है ?ये तो दुर्वलता के ही फल हैं।इस प्रकार की शिक्षा से संसार दिन प्रति दिन दुर्वल होता जा रहा है।।
35-घर का मालिक अंधेरे कमरे में है-
वह सर्वशक्तिमान उस अंधेरे कमरे में सो रहा है वही तो हमारे घर का मालिक है।उसे ढूंडने के लिए कोई अंधेरे कमरे में टटोलता फिरता है।वह खाट छूता है और कहता है,नहीं यह वह नहीं है। वह दरवाजा छूता है और कहता है,नहीं,यह भी नहीं है।वह दरवाजा छूता है और कहता है,नहीं यह वह नहीं है।वेदॉत में इस प्रकृति को नेति कहते हैं ।अंत में उसका हाथ मालिक पर पड जाता है और वह एकदम कह उठता है,यह है ।अब उसे मालिक के अस्तित्व का ज्ञान हो गया है।उसने उसे पा लिया है,परन्तु अभी भी वह उसे घनिष्ठ रूप से नहीं जान पाया है ।।
36-यश शक्ति का स्रोत है-
त्याग से यश मिलता है धोखाधडी से नहीं । यश तो मित्र का काम करता है,सभा समाज मेंप्रधानता प्राप्त करता है, इसको प्राप्त करके सभी प्रशन्न होते हैं । क्योंकि यश के द्वारा तो शक्ति मिलती है और सब प्रकार से लाभ होता है।यश के कपाट सदा खुले रहते हैं और उनपर भीड भी हमेशा बनी रहती है, कुछ लोग घुसपैठ करते हैं तो कुछ धक्का देकर ।।
37-यश शक्ति का स्रोत है-
त्याग से यश मिलता है धोखाधडी से नहीं ।यशतो मित्र का काम करता है,सभा समाज में प्रधानता प्राप्त करता है , इसको प्राप्त करके सभी प्रशन्न होते हैं । क्योंकि यश के द्वारा तो शक्ति मिलती है और सब प्रकार से लाभ होता है। यश के कपाट सदा खुले रहते हैं और उनपर भीड भी हमेशा बनी रहती है, कुछ लोग घुसपैठ करते हैं तो धक्का देकर ।।
38-यह शरीर और दुनियॉ अपनी नहीं है-
यह संसार अपना नहीं और यह शरीर भी अपना नहीं है ये तो हमें प्राप्त हुये हैं और हमसे विछुड जायेंगे।जबकि ईश्वर हमको मिला हुआ नहीं है,यह हमसे विछुडने वाला भी नहीं है,ईश्वर तो हमेशा हमारे साथ रहने वाला है,ईश्वर हमसे दूर नहीं रहता बल्कि हम ही ईश्वन से दूर रहते हैं,हमें ईश्वर चाहे प्रिय लगे, मीठे लगे या जैसा भी लगे लेकिन खास विशेषता यहीं है कि यह ईश्वर अपना है इसलिए उस ईश्वर को अपना मानें, इस संसार को अपना न मानें ।।
39-विचार करने की शैली में परिवर्तन कर सुखी जीवन यापन करें-
आज मनुष्य निराश और दुखी क्यों है! जबकि उसके पास सुख-सुविधाओं की कमी नहीं है, वह वैभवशाली जीवन यापन करता है, बटन दबाते ही हर कार्य पूर्ण हो जाता है। इसके विपरीत सतयुग में लोग जंगलों में रहकर कंद-मूल फल खाते थे, कठोर तथा अभावग्रस्त जीवन होने पर भी लोग खुश और मस्त रहते थे आखिर कैसे ,इसका रहस्य जानने के लिए हमें गहराई में उतरकर इसके मूल श्रोत पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। हमारे सुख-दुख का कारण है हमारे विचार करने की शैली है। वैज्ञानिक प्रगति के कारण सभी सुख सुविधाओं के रहते हुये जिन्दगी में नीरसता,अशॉति,दुख आदि का कारण विचार करने की शैली में परिवर्तन का न होना है । हमने परिस्थितियों को तो बदला है मगर अपने चिन्तन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है। हम कैसे हैं और हमारा भविष्य कैसा होगा, यह सब विचार शैली पर निर्भर करता है, विचारों में अपार शक्ति होती है, वे हमेशा कर्म करने की प्रेरणा देते हैं, विचार शक्ति यदि अच्छे कार्यों में लगा दी जाय तो अच्छे और यदि बुरे कार्यों में लगा दी जाय तो बुरे परिणाम प्राप्त होते हैं ।विचार अच्छे हों या बुरे लेकिन यह निश्चित है कि विचार मनुष्य की अनिवार्य पहिचान है मनुष्य विचारहींन नहीं हो सकता है । हॉ विशेष योगिक क्रियाओं में विचार शून्यता की स्थिति प्राप्त की जा सकती है इसका उद्देश्य व्यर्थ के विचारों को त्यागकर लोकमंगल के विचारों को प्रधानता देना है । संसार में आजतक जितने भी श्रेष्ठ कार्य हुये इसका कारण व्यक्ति या समाज में उत्कृष्ठ विचारों का होना रहा है । हमें प्रकृति द्वारा निशुल्क वेशकीमती धरोहर प्राप्त है हम जब चाहें इसका उपयोग कर सकते हैं तो फिर आज हम इतने निराश,चिंतित,दुखी या हतोत्साहित क्यों हैं । आओ हम अपने भाग्य और सुखद भविष्य का निर्माण करें, इसके लिए हमें अपनी विचार शैली में परिवर्तन करना होगा निराशा से छुटकारा पाने के सूत्र -. जिन्दगी में आशावादी बनें। निराशा से छुटकारा पाने के लिए कुछ सूत्र सुझाव के रूप में दिए जा रहे हैं इन्हैं अपनाकर जीवन को उपयोगी बना सकते हैं ः-
1- किसी भी कार्य पर नकारात्मक सोच व्यक्त करने वाले व्यक्तियों से कोई सलाह मसवरा न करें ।
2- हर समय उदास रहने वाले लोगों से संम्बन्ध न बनायें, उनसे दूर रहने का प्रयास करें ।
3- श्रेष्ठ अध्ययन व चिन्तन करते रहें ।
4- स्वयं को कुंठित न रखें ,स्वयं को हर कार्य को करने योग्य समझें ।
5- असफलताओं से न घबरायें ,उनसे शिक्षा लें और दुबारा गलती न करें ।
6- समय का पालन करें,और हमेशा के लिए इसे अपने संस्कार का अंग बनायें ।
7- दूसरे लोगों के द्वारा दी गई प्रतिक्रियाओं पर ध्यान न देकर निराशा को दूर रखने का प्रयास करें ।
8- कर्म में निष्ठा रखने वाले आशावादी लोगों से मित्रता बढायें ।
9- हमेशा प्रशन्न व खुशदिल लोगों से दोस्ती रखने से निराशा दूर भागेगी ।
10-मस्तिष्क को हमेशा सार्थक एवं सकारात्मक विचारों पर ही केन्द्रित रखें ।
11- बुरे समय में हिम्मत न हारें, खुश रहकर संघर्शशील बनें । मुसीबतों का मुकाबला करें ।
12- महॉपुरुषों के संघर्षमय जीवन के बारे मे पढें ।
13- आशा ही जीवन है ,जीवन ही आशा है को स्मरण करते रहें ।
14- साहस और परिश्रम कठिन से कठिन परिस्थितियों को भी आसान तथा असम्भव को सम्भव बना देता है। 15- जिसमें सत्य के साथ रहने तथा सत्य के लिए अपने आप से प्रश्न करने की हिम्मत हो, परमात्मा की कृपा से उनकी इच्छायें पूर्ण होती हैं ।
40-कानों को पौष्टिक भोजन देना न भूलें-
हम पेट को तो भोजन देते हैं,पर कान को भोजन देना भूल जाते हैं,इस बात का हमें अहसास ही नहीं होता है ।
अगर पेट भूखा रहता है तो शरीर क्षीण हो जाता है,लेकिन अगर कान भूखे रहेंगे तो हमारी बुद्धि मन्द हो जायेगी ।इसलिए यदि श्रेष्ठ पुरुषों के अभिवचन सुनने का अवसर मिलता है तो अन्य कार्यों को छोडकर वहॉ पहुंच जाओ,क्योंकि उनके वचन तुम्हें वह वस्तु देंगे जो रुपये-पैसों की अपेक्षा हजारों गुना मूल्यवान होती है । जो लोग जीभ से अच्छा खाना खाने में तो कुशल होते हैं, पर कानों से सदुपदेश सुनने का आनंद नहीं जानते,उन्हैं तो बहरा ही कहना चाहिए।ऐसे लोगों का जीना और मर जाना तो एक ही समान है ।।