Wednesday, August 15, 2012

ध्यान धारण में सामज्जस्य





  








वैदिक कालीन और वर्तमान ध्यान धारण में सामज्जस्य-
        हमारे सामने एक प्रश्न बार-बार उठता है कि समय के बदलते स्वरूप के साथ बैदिक कालीन ध्यान के स्वरूप में परिवर्तन अपेक्षित है? अथवा मूल रूप में उसे स्वीकार किया जाय! क्योंकि उस समय मनुष्य जीवन की चार अवस्थाएं थी,और अन्तिम अवस्था सन्यास आश्रम का लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति था,जिसके लिए ध्यान धारण ही मुख्य क्रिया थी। लेकिन कुछ लोग पहले ही सन्यास में प्रवेश करते थे। । जैसे स्वामी विवेकान्द जी । ध्यान धारण जिसे प्राचीनकाल में तपस्या भी कहते थे वर्तमान में किसी उम्र से नहीं बॉध लेना चाहिए ।स्वामी विवेकानन्दजी के ध्यान के कुछ प्रसंग निम्न हैः-
1-        श्री रामकृष्ण ने पहली बार नरेन्द्र से मिलकर प्रश्न पूछा था कि क्या सोने से पहले प्रकाश को देखते हो? तो लडके ने आश्चर्यपूर्ण आवाज में कहा,हॉ देखता हू,क्या इसे हर कोई नहीं देख सकता क्या? श्री रामकृष्ण को इसी उत्तर में इस बालक में विलक्षण युवा दिखाई दिया। जो कि बाद में स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुआ।

2-        स्वामी विवेकानन्द जी ने स्वयं ही असाधारण मनःशक्ति का वर्णन किया है,जिसमें उन्होंने लिखा है कि जबसे मैने होश सम्भाला,तब से ही,जैसे ही मैं सोने के लिए आंखें बन्द करता था तो भूमध्य में प्रकाश का एक अद्भुत बिन्दु देखा करता था,तथा अति ध्यानपूर्वक मैं इसके अनेक परिवर्तनों को देखता था। प्रकाश का यह बिन्दु रंग बदलता था,और एक गेंद की आकृति लेता था,अंत में यह फटकर मेरे सिर से पैरों तक सम्पूर्ण शरीर को दुधिया तरल प्रकाश से व्याप्त कर देता था। फिर मेरी वाह्य चेतना विलुप्त हो जाती थी और मैं सो जाता था। उन्होंने लिखा है कि मैं यही समझता था कि प्रत्येक व्यक्ति इसी प्रकार सोता होगा।

3-        जब मैं बडा होकर ध्यान का अभ्यास करने लगा तो आंखें बन्द करते ही वह प्रकाश विन्दु मुझे दिखाई देने लगा,जिसपर में एकाग्र होता था।

4-        श्री रामकृष्ण ने एक बार अपने ध्यान में एक दिव्य शिशु को देखा था,जब उन्होंने नरेन्द्र को पहली बार देखा तो वे समझ गये थे कि यही वह दैवीय पुरुष है। वह दिव्य शिशु और कोई नहीं यही है।

5-        नरेन्द्र में बचपन से ही ध्यान, खेल का एक अंग बन चुका था,छोटी सी उम्र में जब वे ध्यान कर रहे थे तो एक जहरीला नाग निकला। सभी लडके भयभीत होकर भाग गये,मगर नरेन्द्र अचल बैठे रहे,नाग कुछ देर बाद सरक गया। नरेन्द्र ने बताया कि मुझे कुछ पता ही नहीं,मैं तो अवर्णीय आनन्द का अनुभव कर रहा था।

6-         मात्र पन्द्रह वर्ष में उन्होंने आध्यात्मिक परमानन्द का अनुभव किया था।,जब वे मध्यभारत में एक बैलगाडी से यात्रा कर रहे थे,उन्होंने प्रकृति का जो दृश्य देखा कि, विशाल चट्टान की दरार में मधुमक्खी का विशाल छत्ता,चारों ओर पुष्प,लताएं,चमकीले पंख वाले पक्षियों की धुन देखकर उनका मन विधाता के प्रति विस्मय तथा श्रद्धा से भर उठा ,वे वाह्य चेतना खो बैठे थे,और उन्हैं दिव्य दर्शन की अनुभूति हुई।

7-        अपने विद्यार्थी काल में उन्होंने लिखा है कि मैने ध्यान में बैठकर भगवान बुद्ध के दर्शन किये थे।

8-        विवेकानन्द जी चाहते थे कि मैं लगातार कई दिनों तक समाधि में रहूं, रामकृष्ण ने उनकी भ्रत्सना करते हुये फटकार लगाई थी कि तुम्हैं शर्म आनी चाहिए, मैने सोचा था हजारों लोग तुम्हारी छाया में विश्राम करेंगे,लेकिन तुम तो अपनी ही मुक्ति की सोच रहे हो। ऱामकृष्ण के ह्दय की विशालता जानकर वे रोने लगे थे।

9-        काशीपुर के उद्यान भवन में भी उन्होंने निर्विकल्प समाधि का अनुभव किया था।

10-         एक दिन जब वे गोपाल भाई के साथ ध्यानावस्था में थे,तो उन्हैं लगा कि जैसे उनके सिर के पीछे एक ज्योति रख दी गई है,और वह ज्योति प्रवल होती जै रही है,वे परमसत्ता में विलीन हो गये थे,लेकिन जब वे कुछ चेतनावस्था में आये तो उन्हैं सिर्फ अपने सिर का ही अहसास हो रहा था,बाकी शरीर नहीं है। वे चिल्ला उठे कि गोपाल भाई मेरा शरीर कहॉ है? गोपाल भाई ने सांत्वना देते हुये कहा, यही तो है। लेकिन जब वे स्वामी जी को विश्वास नहीं दिला पाये तो,गोपाल भाई दौडे-दौडे श्री रामकृष्ण के पास चले आया। श्री रामकृष्ण ने यही कहा था कि,उसे और कुछ देर तक इसी अवस्था में रहने दो,उसने मुझे इसके लिए बहुत तंग किया है। लेकिन जब काफी समय बाद स्वामी जी होश में आये तो अकथनीय शान्ति और आनन्द से उनका ह्दय भर गया था।

11-        एक दिन की रोचक घटना कि स्वामी विवेकानन्द और गृहस्थ शिष्य गिरीशचन्द्रघोष एक वृक्ष के नीचे ध्यान में बैठे थे। वहॉ असंख्य मच्छर थे जिन्होंने गिरीश को इतना परेशान किया कि वे रह सके,उन्होंने जब आंखें खोली तो,देखा कि स्वामी विवेकानन्द का शरीर मानों एक कम्बल से ढका है,लेकिन स्वामी जी अनजान थे,सहज अवस्था में आने पर ही उन्हैं इसका अहसास हुआ।

12-        हिमालय का भ्रमण करते हुये एक दिन जब वे एक नदी के तट पर ध्यानावस्था में बैठे थे तो उन्हैं वहॉ पर ब्रह्मॉण्ड तथा व्यक्ति के एक्य की ऐसी अनुभूति हुई कि मनुष्य ब्रह्मॉण्ड का ही छोटा रूप है,उन्होंने अनुभव किया कि ब्रह्मॉण्ड में जो कुछ है,वही इस शरीर में भी है।उन्होंने इस अनुभव को एक पुस्तिका में दर्ज कर दिया,और अपने गुरुभाई अखण्डानन्द को बताया कि आज मैने अपने जीवन की सबसे जटिल समस्या का समाधान पा लिया है। इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो,प्रचीन काल में गृहस्थ में रहकर ध्यान करने का अर्थ, ईश्वर का स्मरण करना था। सन्यासी के ध्यान का नाम तपस्या करने के रूप में था,कुछ का लक्ष्य सिद्धि प्राप्त करना तो कुछ का मोक्ष की प्राप्ति था। लेकिन ऐसा लगा कि स्वामी विवेकानन्द जी महर्षि पतंज्जलि के विचारों से ओत-प्रोत थे। स्वामी जी ने जब व्यक्त किया कि अब मुझे ज्ञात हो गया कि मैं क्या हूं! और कम उम्र में ही समाधि में बैठकर इस शरीर को छोडकर चले गये। जबकि लम्बी उम्र तक वे मानव जाति को बहुत कुछ दे सकते थे। लेकिन वर्तमान में ध्यान-धारण का लक्ष्य समग्र जीवन को खुशहाल बनाना है। आप चाहें तो ध्यान धारण से हर पल ईश्वरीय शक्ति का संचार कर प्रशन्नचित जीवन यापन कर सकते हैं,सम्भवत् यही मोक्ष की प्राप्ति का स्वरुप है।