Tuesday, April 16, 2013

पूर्णता के तत्व

1-हंसना सच्ची प्रार्थना है-
           यदि आपका कभी ईश्वर से मिलना हो तो जानते है आप उन्हें क्या कहेंगे? ‘‘अरे! मैं तो अपने भीतर आपसे मिल चुका हूं। आपको मालूम है कि-‘‘ईश्वर आप में नृत्य करते हैं उस दिन जिस दिन आप हंसते और प्रेम में होते हो। सुबह तो हंसना ही सच्ची प्रार्थना है। दिखाने का हंसना नही बल्कि अंदर की गहराई से हंसना। हंसना आपके भीतर से आपके हृदय से आती है। सच्ची हंसी ही सच्ची प्रार्थना है। जब आप हंसते हो तो सारी प्रकृति आपके साथ हंसती है। यही हंसी प्रतिध्वनि होती है और गूंजती है, यही वास्तविक जीवन है। जब सब कुछ आपके अनुसार हो रहा हो तो कोई भी हंस सकता है, लेकिन जब आपके विपरीत हो रहा हो और आप हंस सके तो समझो विकास हो रहा है। आपके जीवन में आपकी हंसी से मूल्यवान और कुछ नही। चाहे जो भी हो जाये इसे खोना नही है।

           घटनाएं तो जिन्दगी में आती हैं और जाती है। कुछ तो सुखद होगी और कुछ दुखद, लेकिन जो कुछ भी हो आप को वे छु न न सकें। आपके अस्तित्व के भीतर ऐसा कुछ है जो कि अनछुआ है। उस पर ही रहे जो अपरिवर्तनशील है। तभी आप हंसने के योग्य होंगे। हंसने में भी भेद है। कभी-कभी आप अपने आप को नही देखने के लिये या कुछ सोचने से बचने के लिये हंसते हो। लेकिन जब आप हर क्षण यह देखते हो और अनुभव करते हो कि जीवन हर क्षण है और जीवन का हर क्षण अपराजेय है तो आपको कोई परेशान नही कर सकता।

           आपने एक नवजात हो देखा होगा, छ माह का या एक वर्ष का। जब वे हंसते हैं तो उनका पूरा शरीर हिलता और कूदता है। उनकी हंसी उनके मुंह से ही नही आती, उनके शरीर का हर एक कण हंसता है। यह समाधि है। यह हंसी अबोध है, शुद्ध है, बिना किसी तनाव की है। हंसी हमें खोलती है, हमारे दिल को खोलती है। और जब हम इस अबोधता को प्राप्त नही हो पाते तो क्या करे? आप पूछे -‘‘मैं उस मुक्ति को या अबोधता को अनुभव नही कर पा रहा हूं। मैं क्या करुं? ‘‘ आपके अस्तित्व के कई स्तर हैं। पहला, शरीर- ध्यान रखे कि आपने पूरा विश्राम किया है, सही भोजन किया है और कुछ व्यायाम किया है। फिर श्वास पर ध्यान दें।

         श्वास की अपनी एक लय है। मन की प्रत्येक स्थिति के लिये श्वास की एक निश्चित लय है। श्वास की उस लय को प्राप्त करके तन और मन दोनो को ऊपर उठाया जा सकता है। तब आप उन धारणाओं और विचारों को देखें जो कि आप मन में सदैव बने रहते हैं। अच्छे, बुरे, सही, गलत, ऐसा करना चाहिये, ऐसा नही करना चाहिये ये सब आपको बांध लेते हैं। हर विचार किसी ना किसी स्पंदन या भावना से जुड़ा है। स्पंदनों को देखें और शरीर में अनुभव को देखें। भावना की लय को देखें- यदि आप देखेंगे तो आप कोई गलती नही करेंगे। आप के पास एक ही तरह की भावनाओं का पथ है, लेकिन आप इन भावनाओं को अलग कारणों से, अलग-अलग वस्तुओं से, अलग अलग लोगों से, स्थितियों-परिस्थितियों से जोड़ लेते हो।

           एक विचार को विचार के रुप में ही देखें, एक भावना को भावना के रुप में ही देखे तब आप खुल जायेगें, अपने आप में ईश्वरत्व को देख पाएंगे। देखना इन्हें अलग-अलग परिणाम देता है। जब आप नकारात्मकता को देखते हैं तो ये तुरंत समाप्त हो जाती है और जब आप सकारात्मकता को देखते हैं तो वे बढ़ने लगती हैं। जब आप क्रोध को देखेंगे तो यह समाप्त हो जाएगा और जब आप प्रेम को देखेंगे तो यह बढ़ जायेगा।

           यही सर्वोत्तम और एकमात्र उपाय है। आने वाले हर विचार को देखें और उन्हें जाते हुये देखें। नकारात्मक विचारों के आने का एकमात्र कारण तनाव है। यदि आप किसी दिन बहुत तनाव में हों तो उसके अगले दिन या उस से अगले दिन आप में नकारात्मक विचार आने लगेंगे और आप परेशान हो जाएंगे। इन विचारों से, जिनका कोई अर्थ नही है, पीछा छुड़ाने के स्थान पर आप उन बिंदुओं को, कारणों को खोजें जिनके कारण ये विचार आ रहे हैं। यदि स्रोत स्वच्छ है तो मात्र सकारात्मक विचार ही आएंगे। यदि नकारात्मक विचार आते है तो आप ये मान ले, ‘‘तो क्या।‘‘ वे आयेंगे और तुरंत गायब हो जाएंगें। हमें जो जैसा है उसे वैसा ही देखने की आवश्यकता है, विषय और पूर्णता के साथ। यह जीवन के लिये सारभूत है। जब आप में ऐसा होने लगे तो आपके जीवन में सही अर्थों में हंसी जन्म लेती है।

2-शब्दों का उद्देश्य मौन बनाना है शोर नहीं-
           वैशाख माह की पूर्णिमा को बुद्ध को जब बोध प्राप्त हुआ था तो ऐसा कहा जाता है कि वे एक सप्ताह तक मौन रहे। उन्होनें एक भी शब्द नहीं बोला। पौराणिक कथायें कहती हैं कि स्वर्ग के सभी देवता चिंता में पड़ गये। वे जानते थे कि करोड़ों वर्षों में कोई विरला ही बुद्ध के समान ज्ञान प्राप्त कर पाता है। और वे अब चुप हैं!

           देवताओं नें उनसे बोलने की विनती की। महात्मा बुद्ध ने कहा, ''जो जानते हैं, वे मेरे कहने के बिना भी जानते हैं और जो नहीं जानते है, वे मेरे कहने पर भी नहीं जानेंगे। एक अंधे आदमी को प्रकाश का वर्णन करना बेकार है। जिन्होनें जीवन का अमृत ही नहीं चखा है उनसे बात करना व्यर्थ है, इसलिए मैनें मौन धारण किया है। जो बहुत ही आत्मीय और व्यक्तिगत हो उसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? शब्द उसे व्यक्त नहीं कर सकते। शास्त्रों में कहा गया है कि, "जहाँ शब्दों का अंत होता है वहाँ सत्य की शुरुआत होती है''।

           देवताओं ने उनसे कहा, ''जो आप कह रहे हैं वह सत्य है परन्तु उनके बारे में सोचें जो सीमारेखा पर हैं, जिनको पूरी तरह से बोध भी नहीं हुआ है और पूरी तरह से अज्ञानी भी नहीं हैं। उनके लिए आपके थोड़े से शब्द भी प्रेरणादायक होंगे, उनके लाभार्थ आप कुछ बोलें और आपके द्वारा बोला गया हर एक शब्द मौन का सृजन करेगा''।

           शब्दों का उद्देश्य मौन बनाना है। यदि शब्दों के द्वारा और शोर होने लगे तो समझना चाहिए, वे अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। बुद्ध के शब्द निश्चित ही मौन का सृजन करेंगे, क्योंकि बुद्ध मौन की प्रतिमूर्ति हैं। मौन जीवन का स्त्रोत है और रोगों का उपचार है। जब लोग क्रोधित होते हैं तो वे मौन धारण करते है। पहले वे चिल्लाते हैं और फिर मौन उदय होता है। जब कोई दुखी होता है, तब वह अकेला रहना चाहता है और मौन की शरण में चला जाता है। उसी तरह जब कोई शर्मिंदा होता है तो भी वह मौन का आश्रय लेता है। जब कोई ज्ञानी होता है, तो वहाँ पर भी मौन होता है।

           अपने मन के शोर को देखें। वह किसके लिए है? धन? यश? पहचान? तृप्ति? सम्बन्धों के लिये? शोर किसी चीज़ के लिए होता है; और मौन किसी भी चीज़ के लिए नहीं होता है। मौन मूल है; जबकि शोर सतह है।