सामान्य भाव में योग का अर्थ है जुडऩा। यानी दो तत्वों का मिलन योग कहलाता है। अर्थात आत्मा का परमात्मा से जुडऩा । योग की पूर्णता इसी में है कि जीव भाव में पड़ा मनुष्य परमात्मा से जुड़कर अपने निज आत्मस्वरूप में स्थापित हो जाए।
महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्र में स्पष्ट किया है कि चित्त को विभिन्न वृत्तियों में परिणत होने से रोकना योग है। मनुष्य के शरीर में सभी ओर बिखरी चित्तवृत्तियों को सब ओर से खींचकर एक ओर ले जाना यानी केंद्र की ओर जाना ही योग कहलाता है। हमें तो आत्मा पर छाए चित्त के विक्षेप को समाप्त कर उसे शुद्ध करना होता है। योग द्वारा हम अपने चित्त को शुद्ध करके आत्मा का साक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं।
भक्ति का भाव भी यही है, भक्त अपने भगवान से अलग नहीं होना चाहता। वह सदैव अपने इष्ट की शरण में रहता है। शरणागत होने के कारण ईश्वर का संग उसे सदैव प्राप्त होता रहता है। ईश्वर से सहज मिलन हो जाए, यही योग सिखलाता है। अब परमात्मा के इस योग यानी मिलने में कौन बाधक है। ये बाधक तत्व हैं-हमारी चित्तवृत्तियां। तालाब के शांत जल में यदि कंकड़ का एक टुकड़ा गिर जाए तो उसमें अनेक तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं। उसमें छोटी-छोटी और बड़े आकार के वृत्तों वाली कई तरंगें उत्पन्न होने लगती हैं। उस अशांत जल में मनुष्य का चेहरा स्पष्ट नहीं दिखलाई पड़ेगा।यदि जल की तरंग समाप्त हो तो जल पुन: शांत हो जाता है। इस स्थिति में आकृति स्पष्ट दिखाई पडऩे लगेगी। ठीक इसी प्रकार हमारे चित्त की वृत्तियां हैं। इंद्रियों के विषयों के आघात से उसमें अनेक तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं और उत्पन्न तरंगों के कारण मानव अपने निज स्वरूप को नहीं देख पाता। यदि उसकी चित्तवृत्तियां समाप्त हों तो वह अपने निज आत्मस्वरूप को देखने में सक्षम हो जाए।
महर्षि पंतजलि ने योग की व्यापक विवेचना की है। इसमें कई सोपान हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। अष्टांग योग की इस पद्धति के माध्यम से साधना करने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति सद्गुरु के सान्निध्य में इन सोपानों पर यम-नियम को साधते हुए ध्यान और समाधि की उच्चतम अवस्था पर पहुंच कर चिन्मय आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है। फिर अपने आत्मा में परब्रह्म परमात्मा के दर्शन प्राप्त कर तद्स्वरूप होता हुआ आनंद को प्राप्त कर सकता है।
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