Monday, August 13, 2012

जीवन का संचार-सहजयोग


1-मन की पवित्रता के लिए कुण्डलिनी जागृत करें-
        जब भी आप किसी बुरी आदत में फसने लगते हैं तो आपका अपने पर नियन्त्रण समाप्त होजाता है ,कोई प्रेतात्मा आप में बैठ जाती है और आप समझ नहीं पाते कि उस आदत से कैसे छुटकारा पाया जाय। सहज योग में जब कुण्डलिनी उठती है तो ये मृत आत्मायें आपको छोड देती हैं और आप ठीक हो जाते हैं । मैं तुम्हैं यह कहूंगी कि महॉवीर ने केवल नर्क की बात कही,किजीवन में पाप के दण्डस्वरूप आपको कौन सा नर्क प्राप्त होगा ।अपना हित चाहने वाले मनुष्य के लिए तो नर्क के लिए सोचना कितना भयावह है ।इसलिए कुण्डलिनी जागृत करके नर्क के रास्ते से मुक्ति प्राप्त करें ।


 
2-प्रेम से ह्दयचक्र का पोषण होता है–
        एक सशक्त ह्ददय-चक्र स्वस्थ व्यक्तित्व का आधार है।प्रेम से पोषण पाकर ह्दयचक्र सुख प्रदान करता है। जैसे एक डाक्टर की आत्मीयता और प्रेम उसके इलाज की क्षमता में वृद्धि करता है । आत्मीय और प्रिय होना भी मर्ज का इलाज है । ऐसे व्यक्तित्व की चैतन्य लहरें दूसरे व्यक्तियों को उसी प्रकार आकर्षित करती है,जैसे मधुमक्खी फूलों में स्थित मधु की ओर आकर्षित होती है । प्रेम से ही करुणॉ का जन्म होता है,जिससे हम पिघल जाते हैं ।और विना सोचे-विचारे मानवता की सहायता के लिए निकल पडते हैं । उस समय नैतिक विवशता या मानसिक निर्णय नहीं अपितु एक सहज कार्य होता है ।ह्दय दूसरों के दुखों को देखकर पसीज जाता है,क्योंकि वह दूसरों की परछाई है ।श्री माता जी अक्सर कहती हैं कि दूसरा व्यक्ति है ही कौन,जब मन की सीमित क्षमता परमेश्वर को जानने के लिए असीम हो जाती है ? यदि आप सुर्य और उसका प्रकाश है,यदि आप चन्द्रमा और उसका प्रकाश हैं,तो फिर एक से दो भेद ही कहॉ ? केवल जहॉ अलगाव है वहॉ अलगाव के कारण लगाव महसूस करते हैं । इसलिए आप उससे चिपक जाते हैं। जब मन अपने स्तित्व को भूल जाता है,तब वह सीमित मन असीम आत्मा में बदल जाता है। श्री माता जी के जीवन में तो ऐसी घटनाएं घटती हैं कि दूसरों की पीडा उनके शरीर में महसूस होती है ।और माता जी का शरीर इतना करुणॉमय है कि वह दूसरों के दुखों को अपने में खीच लेती हैं ।और वीमार व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है ।।

3-मन की सफाई के लिए ध्यान आवश्यक है-
        यदि मन को साफ करना होता है तो ध्यान करना आवश्यक है ।जिस प्रकार गन्दे पानी में जब हल चल होती हैतो हम अपना प्रतिबिम्ब नहीं देख पाते हैं, उसी प्रकार मन में भी हल-चल होती है तो हम अपने स्वरूप को नहीं देख पाते हैं । इसलिए ध्यान करना आवश्यक होता है। दूसरों की सेवा करें,सेवा से मन शॉत होता है।और जब सेवा करते हो तो उसके बदले में कुछ भी न लें अन्यथा वह सेवा नहीं बल्कि व्यापार हो जायेगा ।

4-ध्यान में आध्यात्मिकता की शक्ति का केन्द्र बनो-
        सत्य से सभी कल्याण होते हैं, सत्य कभी पक्षपात नहीं करता । स्थिरभाव और शान्त चित्त से उसका ध्यान करो,अपने मन को उसके ऊपर एकाग्र करो,इस आत्मा के साथ अपने को एकभावापत्र कर डालो।तब शव्दों का कोई प्रयोजन नहीं रहेगा,तुम्हारा मौन ही सत्य का संचार करेगा । बोलने में शक्ति का ह्रास मत करो,शान्त होकर ध्यान करो ।वाह्य जगत की गतिविधिधियों से अपने को विचलित न होने दें । जब तुम्हारा मन सर्वोच्च अवस्था में पहुंचता है,तब उसकी चेतना तुम्हैं नहीं रहती । शान्त रहकर संचय करो और आध्यात्मिकता के शक्ति का केन्द्र बन जाओ ।।
 

5-एकाग्रता से ज्ञान की प्राप्ति-
        अगर ज्ञान प्राप्त करना है तो एकमात्र उपाय है एकाग्रशक्ति का प्रयोग करना। एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में जाकर अपने मन की समस्त शक्तियों को केन्द्रित कर, वस्तुओं का विश्लेषण करता है,उनपर प्रयोग करता, और फिर उनका रहस्य जान लेता है। खगोलशास्त्री अपने मन की समस्त शक्तियों को एकत्र कर दूरवीन के भीतर से आकाश में प्रयोग करता है,और फिर सूर्य व तारों के रहस्यों का पता लगता है। हम किसी वस्तु में मन का जितना निवेश करते हैं उतना ही हम उस विशय में अदिक जान सकते हैं । यदि प्रकृति के द्वार को खटखटाने और उसपर आघात करने का ज्ञान प्राप्त हो जाय तो प्रकृति अपना रहस्य स्वतः खोल देती है। उस आघात की शक्ति और तीव्रता, एकाग्रता से ही आती है। मानव मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं है,वह जितना एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है, यही एक रहस्य है ।


 
6-योगाभ्यास से विवेकशक्ति में वृद्धि होती है-
        योगाभ्यास से विवेक शक्ति बढने से हमें शुद्धता प्राप्त होती है। हमारे आंखों के सामने का आवरण हट जाता है,तब हम जान लेते हैं कि प्रकृति एक यौगिक पदार्थ है, और उसके सारे दृश्य केवल साक्षी स्वरूप हैं। फिर हमें इस बात का भी ज्ञान होता है कि प्रकृति ईश्वर नहीं है। इस प्रकृति के सारे नियम, सारे संयोग ह्दय के राजा आत्मा को दिखाने के लिए हैं ।दीर्घकाल तक अभ्यास के फलस्वरूप विवेक का जन्म होता है,फलस्वरूप हमारा भय चला जाता है,और मोक्ष की प्राप्ति होती है













7-योगियों का कर्म योग-
        विभिन्न व्यक्तियों में हम जो विभिन्न प्रकार के मन देखते हैं, उनमें वही मन सबसे ऊंचा होता है,जिसे समाधि अवस्था प्राप्त हुई है। औषधि,तपस्या या मंत्रो के वल से शक्ति प्राप्त कर लेते हैं अनकी वासनाएं तो बनी रहती हैं,पर जो व्यक्ति योग के द्वारा समाधि प्राप्त कर लेता है,केवल वही वासनाओं से मुक्त होता है। इस प्रकार का योगी पूर्णता प्राप्त कर लेता है,फिरवासना उनको स्पर्श नहीं कर सकती। वे केवल कर्म किये जाते हैं,दूसरों के हित के लिए,लेकिन उसके फल की चाह नहीं रखते। लेकिन साधारण मनुष्यों के लिए जिन्हैं यह अवस्था प्राप्त नहीं हुई है,उनके कर्म पाप-पुण्य से मिश्रित होते हैं।

 
8-महॉ शक्ति की अभिव्यक्ति-
        इस प्रकृति में महॉशक्ति देखी जाती है,लेकिन स्वप्रकाश नहीं है,वह अपने स्वभाव से चैतन्यरूप नहीं है,केवल आत्मा ही स्वप्रकाश है,उसके प्रकाश से ही प्रत्येक वस्तु प्रकाशित होती है। यदि चित्त का स्वप्रकाश होता तो वह एक साथ ही अपना तथा अपने विषय का अनुभव कर पाता। लेकिन ऐसा नहीं होता। चित्त जब किसी विषय वस्तु में तल्लीन रहता है,तो यह अपने सम्बन्ध में कोई भी चिन्तन नहीं कर सकता। इसलिए मन प्रकाश नहीं है, केवल आत्मा ही स्वप्रकाश है।


9-मॉ होने का मतलब सम्पूर्ण संरक्षण-
        आप अच्छी तरह से जान लें कि मैं आपकी मॉ हूं ।मॉ होने का मतलव होता है कि सम्पूर्ण सिक्योरिटी (संरक्षण)है। मैं आदि मॉ हूं। आदिशक्ति हूं। मॉ बच्चे को जानती है कि उसमें क्या दोष है उसे कैसे ठीक किया जा सकता है कभी ढॉटना पडता है,कभी दुलार से समझाना पडता है ये सिर्फ मॉ का काम है।और कोई कर भी नहीं सकता है आप चाहे मुझसे हजारों मील दूर हों, आपके सॉसारिक नाम चाहे मुझे पता नहो अपने अंग प्रत्यंग के रूप में मैं सबको जानती हूं मैं आप सबके विषय में जानती हूं ।मैने देखा कि जितने भी अवतरण हुये वे बहुत जल्दी चले गये । मगर मॉ की स्थिति भिन्न है। वह तो अपने बच्चे के लिए लडती रहेगी,संघर्ष करती रहेगी,अंतिम झण तक संघर्ष करती रहेगी किउसके बच्चे को सभी आशीर्वाद मिल जाये । एक सच्ची मॉ की यही पहचान है। अपने बच्चे के लिए वहकिसी भी सीमॉ तक जा सकती है ।इस कलयुग में आपकी सहायता करने तथा प्रेम पूर्वक आपको हर बात बताने के लिए आपकी मॉ अवतरित हुई है ।

 
10-यह कहना पाप है कि मैं दुर्वल र्हूं -
        यह न सोचें कि हमारी आत्मा दुर्वल है,ऎसा कहना ही नास्तिकता है,यदि पाप नाम की कोई वस्तु है तो यह कहना ही एकमात्र पाप है कि मैं दुर्वल हूं।आप जो सोचेंगे वही हो जाता है,यहद आप अपने को दुर्वलसमझोगे तो आप दुर्वल हो जायेंगे और यदि बलवान समझोगे तो बलवान बन जाओगे ।

11-सहज योग तथा परमात्मा की खोज-
        हर व्यक्ति के मन में परमात्मा के दर्शन की लालसा होती है,उसकी जिन्दगी में ऐसा क्षण आता है कि वह अपने अहं और संस्कारों को भुलाकर अपनी खोज का विश्लेषण करता है,और फिर दोबारा सत्य की खोज में निकलता है, इसी सत्य का साक्षात्कार तथा अपनी आत्मा की उपस्थिति की अनुभूति ही सहजयोग का संदेश है ।आत्मा प्रेरित करती है और सरस्वती की कृपा से शव्द जुडते जाते हैं ।श्री माता निर्मला देवी ही वे मॉ हैं जिन्होंने इस युग में सत्य को पाने की एक सरल युक्ति सहजयोग का वरदान मानव जाति को दिया है। परमात्मा द्वारा हमारे शरीर में जिस आत्मा को जन्म दिया है उसका अनुभव करने की शक्ति हमें जन्म से ही प्राप्त है,लेकिन इसके प्रकटीकरण करने के लिए हमारे भीतर तीव्र इच्छा तथा सही मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है, जब हमारे अन्दर इस शक्ति को जानने तथा पाने की तीव्र इच्छा होती है,तब श्री माता जी स्वयं मार्ग दर्शन करती हैं और हमें स्वयं ही अपनी आत्मा का अनुभव होने लगता है्, और सहज स्थिति में उस आत्मा का परमात्मा से योग हो जाता है। वैसे इच्छाओ की तृप्ति में मनुष्य कभी सन्तुष्ट नहीं होता मगर जब उसे उस परमात्मा का प्रेम और परम चैतन्य की अनुभूति होती है तो,वह तृप्त हो जाता है।जिसमें सत्य के साथ रहने तथा सत्य के लिए अपने आप से प्रश्न करने की हिम्मत हो, परमात्मा की कृपा से उसकी इच्छाऐं पूर्ण होती हैं ।

 
12-सहज योग में ध्यान धारण कैसे क्रियान्वित होता है-
        सहज योग में ध्यान धारण कैसे क्रियान्वित होता है?-सहजयोग-(सह+ज=हमारे साथ जन्मा हुआ)जिसमें हमारी आन्तरिक शक्ति अर्थात कुण्डलिनी जागृत होती है, कुण्डलिनी तथा सात ऊर्जा केन्द्र जिन्हैं चक्र कहते हैं,जो कि हमारे अन्दर जन्म से ही विद्यमान हैं। ये चक्र हमारे शारीरिक,मानसिक,भावनात्मक तथा आध्यात्मक पक्ष को नियन्त्रित करते हैं । इन सभी चक्रों में अपनी-अपनी विशेषता होती है,सबके कार्य बंटे हुये हैं ।कुण्डलिनी के जागृत होने पर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैली हुई ईश्वरीय शक्ति के साथ एकाकारिता को योग कहते हैं ।और कुण्डलिनी के सूक्ष्म जागरण तथा अपनेअन्तरनिहित खोज को आत्म साक्षात्कार(Self Realization) कहते हैं।आत्म साक्षात्कार के बाद परिवर्तन स्वतः आ जाता है ।वर्तमान तनावपूर्ण तथा प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में भी सामज्स्य बनाना सरल हो जाता है और सुन्दर स्वास्थ्य,आनंद,शान्तिमय जीवन तथा मधुर सम्बन्ध कायम करने में सक्षम होते हैं ।
विद्यार्थियों को ध्यान धारण से लाभ-
1-शॉत एवं एकाग्र चित्त – (Silent and Concentrated Attention) (स्वाधिष्ठा चक्र से)
2-स्मरण शक्ति तथा सृजनशीलता में वृद्धि- (Increased Memory and Creativity) (स्वाधिष्ठान तथा मूलाधार चक्र द्वारा )
3-बडों के प्रति आदर तथा सम्मान- (Respect towards Elders) (स्वतः जागृति, नाभि चक्र द्वारा)
4-स्व अनुशासन,परिपक्व और जिम्मेदारी पूर्ण आचरण – (Self Discipline) (आज्ञा चक्र द्वारा)
5-आई क्यू के स्तर में वृद्धि- (Increased IQ, ) (सहस्रार चक्र द्वारा)
6-जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोंण- (Positive Attitude) ( बॉयॉ पक्ष, इडा नाडी)
7-आत्म विश्वास में वृद्धि- (Self Confidence) (ह्दय चक्र) शिक्षकों तथा जन सामान्य को लाभः-
1- सबके प्रति प्रेम एवं करुंणॉमय आचरण (उदार ह्दयचक्र के कारण प्रेम एवं आनंद का भाव)
2-सहन शीलता और धैर्य में वृद्धि (प्रकाशित आज्ञाचक्र – क्षमा शक्ति का उदय)
3-अध्यापकों में विद्यार्थियों के उत्थान के लिए रुचि रखना(सबके प्रति संतुलित एवं समान व्यवहार)


13-कुण्डलिनी शक्ति-
        हमारे शरीर में कुण्डलिनी महॉनतम् शक्ति है जिसने कुण्डलिनी का उत्थान कर दिया उस साधक का शरीर तेजोमय हो उठता है।इसके कारण शरीर के दोष एवं अवॉच्छित चर्वी समाप्त हो जाती है।अचानक साधक का शरीर अत्यन्त संतुलित एवं आकर्षक दिखाई देने लगता है।आंखें चमकदार और पुतलियॉ तेजोमय दिखाई देती हैं। संत ज्ञानेश्वर जी ने कहा है कि शुषुम्ना नाडी में उठती हुई कुण्डलिनी द्वारा बाहर छिडका गया जल अमृत का रूप धारण करके उस प्राणवायु की रक्षा करताहै जो“उठती हैं,अन्दर तथा बाहर शीतलता का अनुभव प्रदान करती है” ।।

14-निर्विचारिता की शक्ति-
        जब आप निर्विचारिता में होते हैं तो आप परमात्मा की श्रृष्ठि का पूरा आनंद लेने लगते हैं,बीच में कोई वाधा नहीं रहती है ।विचार आना हमारे और सृजनकर्ता के बीच की बाधा है ।हर काम करते वक्त आप निर्विचार हो सकते हैं, और निर्विचार होते ही उस काम की सुन्दरता,उसका सम्पूर्ण ज्ञान और उसका सारा आनंद आपको मिलने लगता ङै ।।


15-सहजयोग जीवन का आधार है-
        जीवन में परिपक्व बनने के लिए उदारता गुण होना चाहिए। इसके लिए भौतिक चीजों से मोह त्यागना होगा, उदारता का आनन्द पाने के लिए तो कुछ देना होता है।यदि एक बार आप उदारता का आनन्द लेने लगेंगे तो आप जान जायेंगे कि प्रेम और करुणॉ आपसे दूसरों तक बहने लगी है,यह प्रेम और करुणॉ सभी लोगों तक फैलनी चाहिए। आत्म निरीक्षण करें ,निसंदेह आप उदार बन सकते हो। उदार विवेक आपमें तभी आयेगा जब आप अपने जीवन का लक्ष्य जान जान जायेंगे और यह जानेंगे कि आप किसलिए हैं।

 
16-हमें साक्षी भाव विकसित करना है-
        आदिशक्ति माता जीः- साक्षी स्वरूप का मतलव है कि जब आप चीजों को देखते हैं तो लगता है कि आप नाटक    देख रहे हैं और उस समय आपको लगेगा कि आप नाटक कर रहे हैं।तो हमें स्वयं में साक्षी भाव विकसित करना है। प्रतिक्रिया करने की आदत हमें पड गई हैऔर ऎसा करना हम अपना अधिकारमान बैठे हैं।आपका यह अधिकार आत्मघातक है ।प्रतिक्रिया करना गलत है। साक्षी रूप में आप सभी कुछ देखिए ।एक बार जब आप साक्षी रूप मे देखने लगेंगेतो आप हैरान होंगे किआप माया का खेल देखने लगे हैंऔर इसमें अपना स्थान भी आप देख पायेंगे ।वास्तवमें हम प्रतिक्रिया तब करते हैं जब हमारी निर्णय शक्ति पूर्णतः नष्ट हो जाती है।अपनी इस शक्ति को अन्तर्मुखी बना लीजिए और सेवयं की आलोचना कीजिए ।आप देखेंगे कि आपका अहंकार धीरे-धीरे खत्म होते जा रहा है।


17-क्षमा शक्ति विकसित करें-
        स्वयं में क्षमा शक्ति विकसित करें,आपvमें क्षमा शक्ति जितनी अधिक होगी उतने ही आप शक्तिशाली होंगे। सबको क्षमा कर दें।इस कलियुग में क्षमा के सिवाय और कोई बडा साधन नहीं है । इसके बिना उन्नति सम्भव नहीं है,यदि कोई गलत कहे भी तो उसे सद्बुद्धि से जानें,उसको बकवास करने दो।हमारा ख्याल तो इस तरफ होना चाहिए कि इस गलत बात को सुनकर हमारे अन्दर कोई गलत बात तो नहीं जा रही है। ईसा मसीह ने भी एक ही चीज बताई थी कि सबको क्षमा कर दो ।क्षमा करना जरूरी है। उन्होंने प्रेम पूर्वक उन लोगों के लिए क्षमा की प्रार्थना की थी जिन्होंने उन्हैं क्रूसारोपित किया था ।इसके लिए एक बहुत बडा मंत्र है-तीन बार कहें-(क्षम-क्षम-क्षम) ।


18-क्षमा से भार मुक्त हो जाते हैं—
        क्षमा भूतकाल को भूल जाने से आती है। जो हो गया जो बीत गया उसे भूल जाओ,वर्तमान में तुम खडे हो।सहजयोग में योग्यता पाने के लिए आपको अपने भूतकाल से मुक्त होना पडेगा ।अपराध स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है-क्षमा होनी चाहिए,यदि आपने क्षमा कर दिया तो आप भार मुक्त हो जायेंगे। और जो क्षमा नहीं कर सकता वह सहजयोगी नहीं हो सकता ।यदि क्षमा करना नहीं सीखोगे तो क्षमाशील नहीं आयेगी,जिससे एक दिन हमारे अन्दर ज्यादा नष्ट करने की शक्ति आयेगी और हम ही अपने लोगों को नष्ट करेंगे ।
 
 
19-क्षमा करने से आज्ञा चक्र ठीक हो जाता है-
        आपको यह बात समझनी होगी कि आप अन्य लोगों से ऊपर उठ चुके हो,क्षमा वही कर सकता है जो बडा होता है,छोटा आदमी क्या क्षमा करेगा ,बडी तबियत के लोग क्षमा करते हैं,उनकी क्षमाशीलता बहुत जवर्दस्त होती है।यदि किसी ने गलती कर दी तो उसे माफ कर दीजिए,यदि कल हम गलती करते हैं तो कौन हमको सजा देगा,किसी की गलती पर हमें तो उसे सजा देने का अधिकार ही नहीं है,बस आप क्षमा कर दें सबको। आपका आक्षा चक्र ठीक हो जायेगा।

 
20-अहं (मूर्खतापूर्ण बातें) से मुक्ति पायें-
        अहं का अर्थ है स्वयं अपने से प्रेम करना अर्थात झूठी महानता ।छोटी-छोटी बातों के लिए नाराज हो जाते हैं। आप स्वयं को महान मान बैठते हैं। आपको देखना होगा कि किस प्रकार उसमें अहं कार्यरत है यही तो पतन का कारण है।इसके लिए आपको यह करना है कि जब आप स्वयं में अहं देखने लगते हैं तो इस पर हंसें और सोचें कि मुझमें क्या कमी है ।अहं एक बन्धन नहीं है क्योंकि बन्धन तो बाहर से आता है जबकि अहं आन्तरिक है, किसी भी चीज से यह आ सकता है। अहं को ठीक करने के लिए हमें उसका साक्षी होना है कि सिर्फ इस स्थिति को नाटक के रूप में महशूस करें । साक्षी अवस्था में यह देखना है कि किस प्रकार ये हमें अच्छे मार्ग चलने से रोकता है ।जब अहं भाव बढने लगे तो स्वयं से कहें कि श्रीमान जी आप यह कार्य नहीं कर रहे हैं ,ये कार्य आप नहीं कर रहे हैं, यह बात आप स्वयं सुझाते रहेंगे तो आपमें अहं नहीं बैठेगा ।


21-अहंकार एक दीर्घकाय समस्या है-
        अहंकार जीवन भर चलने वाली समस्या है ।और परमात्मा ने खासकर मनुष्य को अहंकार का वरदान दिया है,इसलिए ये अहंकार मारने से नहीं मरता बल्कि सहजयोग में ये तो स्वयं अपने आप छूट जाता है। इसका समाधान दूसरों को क्षमा करना है,आपको क्षमा करना सीखना है,प्रातःकाल से संध्या तक क्षमा प्रार्थी बनें रहें,अपने दोनों कानों को खींचकर कहें कि हे परमात्मा हमें क्षमा करें,प्रातः काल से सायं-काल तक असका स्मरण करते रहें ।अहं को जीतने के लिए भाषा शैली में परिवर्तन करना होगा ।


22-कर्म-काण्डों से अहंकार बढता हैं-
        उपवास रखने, जप,तपकरने,हवन करने आदि से अहंकार बडता है,क्योंकि अग्नि दायें ओर है।हम जो भी कर्म काण्ड करते हैं उससे अहंकार बढता है इसका इलाज ईसा मसीह ने बताया कि आप सबसे प्रेम करें,अपने दुश्मनों से भी प्रेम करें प्यार के अलावा और कोई इलाज नहीं है-यह परम चैतन्य का प्यार है। यह अहंकार तो हमारा शत्रु है,जिसका सृजन स्वयं हमने किया है,पहला कार्य जो अहं करता है कि वह दूसरे को मूर्ख बनाना चाहता है।अनियंत्रित अहंकार परमात्मा को चुनौती देना है।ये अहं उस स्थान पर है जिसे पार करके आपको सहस्रार में जाना है,आपमें तो एक हजार शक्तियॉ हैं परन्तु अहंकार के कारण आप उनका प्रयोग नहीं कर पाते हैं ।इस अहं में तो कोई विवेक नहीं होता यह तो सिर्फ हमारे मार्ग की बाधा है। माता जी कहती हैं कि अहं के कारण आप विघटित हो जाते हैं ।आप अकेले पड जायेंगे ।अपने अहं की कार्य शैली को देखते रहें।अहं से लडाई नहीं करनी है,बल्कि समर्पण करोयहीं एक मात्र उपाय है अहं को दूर करने का ।


23–धर्म तत्व से मनुष्य की पहचान –
        धर्म ही एक ऎसा तत्व है जो मनुष्य को पशु से अधिक विलक्षण सिद्ध करता है यदि मनुष्य में ईश्वर और धर्म की भावना न रहे तो मनुष्य पशु ही है,वह जडत्व में अपने खाने-पीने तथा शान से जीने को ही जीवन को मानकर अपना मानव जीवन निरर्थक कर देता है । बस धर्म की भावना ही उसे जीवन में अपने भगवान के दर्शन की प्रेरणा देकर उनके हित और सेवा में लगने की ओर प्रवृत्त करती है।


24- सहजयोग कर्मकाण्डों के विरुद्ध है-
        “अहं करोति साहंकारः” अर्थात अगर हम अपने अहंकार को कम करने की कोशिश करते हैं तो अहंकार बढेगा क्योंकि हम अहंकार से ही कोशिश करते हैं।जो लोग सोचते हैं कि हम अपने अहंकार को दबा लेंगे,हर तरह के प्रयोग करते हैं,लेकिन इससे अहंकार नष्ट नहीं होता है बल्कि बढता है क्योंकि अग्नि दायें तरफ है।जो भी कर्मकाण्ड हम करते हैं,उससे अहंकार बढता है,हवन से भी अहंकार बढता हैक्योंकि अग्नि दायें तरफ है।जो भी कर्मकाण्ड हम करते हैं उससे अहंकार बढता है,और हम सोचते हैं कि हम ठीक हैं।हजारों वर्षों से कर्म काण्ड होते आये हैं,लेकिन सहजयोग कर्मकाण्ड का विरोधी है,कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं है ।

 
25-आध्यात्मिकता-
        यदि हम धर्म या सम्प्रदाय के झगडे की बात करते हैं तो यही प्रकट होता है कि यह आध्यात्मिकता नहीं है।धार्मिक बातें तो हमेशा धोखली बातों के लिए होती हैं। अगर पवित्रता न हो तो आध्यात्मिकता नष्ट हो जाती है। फलस्वरूप आत्मा नीरस हो जाती है, जिससे झगडे शुरू होने लगते हैं। सिद्धान्त,मत,सम्प्रदाय,चर्च,मन्दिर ये तो आध्यात्मिकता की तुलना में नगण्य हैं, इनकी तो आध्यात्मिकता से तुलना नहीं करनी चाहिए,जिस मनुष्य में आध्यात्मिकता जितनी अधिक उन्नत होगी, वह व्यक्ति अच्छाई की दृष्टि से उतना ही उधिक ऊंचा होगा। इसलिए सबसे पहले आध्यात्मिकता अर्जित करना होगा।इसे न भूलें ।धर्म का अर्थ शव्दों,नामों,सम्प्रदायों से नहीं, बल्कि यह एक आध्यात्मिक अनुभूति है।

 
26-आत्म साक्षात्कार का मूल्य समझें-
        आप एक सहजयोगी हैं तो आपको आत्म साक्षात्कार का मूल्य मालूम है,आप अपनी रक्षा स्वयं करते हैं। और आपकी पूरी तरह से रक्षा की जाती है,यह रक्षा आदि शक्ति करती है। लेकिन विश्व में एक विध्वंसक शक्ति भी कार्यरत है, यह आसुरी शक्ति नहीं बल्कि शिव की दिव्य विनाशात्मक शक्ति है। जब कार्य ठीक चलता है तो प्रशन्न होते हैं।परन्तु वे दूर बैठकर हर व्यक्ति को देख रहे हैं,यदि उन्हैं गडबड लगता है तो वे नियन्त्रित करते है, वे नष्ट करना प्रारम्भ करते है। प्राकृतिक विपत्तियॉ,जैसे भूचाल, भूकम्प,या तूफान आदि इसमें फिर आपकी कोई मदद नहीं यदि आप आत्म साक्षात्कारी हैं और आप लोगों को आत्म साक्षात्कार दें तो इन्हैं टाला जा सकता है।
 

27-शक्ति का अन्तिम निर्णय-
        अभी तक हम यह नहीं जानते कि मानव के इतिहास में यह अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा भयानकसमय है।अन्तिम निर्णय प्रारम्भ हो चुका है।आज हम अन्तिम निर्णय का सामना कर रहे हैं ।हमें इस बात का ज्ञान नहीं कि सभी शैतानी शक्तियॉ भेड की खाल पहने भेडिये आपको भ्रमित करने के लिए अवतरित हो गये हैं। आपको चाहिए कि बैठकर सच्चाई को पहचॉनें।परमात्मा तो करुंणॉमय है,दयालू है,उन्होंने हमें स्वयं को ज्ञान प्राप्त करने के लिए स्वतंत्रता दी है,परमात्मा ने तो हमें अमीबा से इस मानव तक विकसित किया है । चारों ओर इतने सुन्दर विश्व का सृजन किया है। लेकिन उनके निर्णय का हमें सामना करना होगा। परमात्मा निर्णय वैसा नहीं कि जैसा वह एक नायायाधीश की तरह बैठा हो और बारी-बारी से आपको बुलाये बल्कि परमात्मा ने आपकेअन्दर निर्णायक शक्तियॉ स्थापित कर दी हैं। आपका अकलन करने के लिए परमात्मा ने न्यायाधीशों का एक समूह दण्डाधिकारियों के रूप में आपके अन्दर बैठा दिया है। ये आपके मेरुरज्जु तथा आपके मस्तिष्क में बनाये गये चक्रों में ये विद्यमान हैं।

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