Friday, February 20, 2015

सिखाना सभी चाहते हैं, पर स्वयं सीखना कोई नहीं चाहता

            सिखाना सभी चाहते हैं, पर स्वयं सीखना कोई नहीं चाहता। जो सिखाता है वह भी महापुरुषों की सीख को नहीं मानता है। उसका मानना होता है कि उसने जो जानकारी प्राप्त की है वह पर्याप्त है वही सही है और उसे अपने व्यवहार में, चरित्र में ढालने की कोई आवश्यकता नहीं है।

            ऐसा इसलिए होता है कि अब वह ऐसा ज्ञाता हो गया है कि जिसे कुछ सीखने या सीखे हुए पर अमल करने की कोई जरूरत नहीं है। वह बेचारा यह नहीं जानता है कि उसके ज्ञाता होने का यह झूठा अहंकार उसके आध्यात्मिक उन्नयन में कितना अवरोध उत्पन्न कर रहा है? हम भक्तों-संतों और महापुरुषों की जीवनियों और उनके कृतित्व को बचपन से पढ़ते-सुनते रहते हैं, पर हमारा यह पढऩा-सुनना तोते की तरह राम-राम कहना है। काश! हम उनकी सीख को समझ पाते, उसे अपने आचरण में उतार पाते।

            गोस्वामी तुलसीदास ने 'विनय-पत्रिका में अपनी दुर्बलताओं को बताते समय यह भी कहा है- 'सीख देता हूं, सिखाया हुआ नहीं मानता। तुलसीदासजी ने ऐसा कहा है, पर यह सत्य नहीं है। जिस व्यक्ति ने वेदों, पुराणों, इतिहास, साहित्य आदि विविध स्रोतों से तथ्यों को ग्रहण कर रामचरितमानस जैसी कालजयी रचना हमें दी है, वह किसी का सिखाया नहीं मानता था, इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है? सत्य बात तो यह है कि अपने बहाने उन्होंने मनुष्यमात्र की इस एक बड़ी कमजोरी की ओर इंगित किया है और कहा है कि जो सीखने के लिए तैयार नहीं है उसे सिखाने का भी अधिकार नहीं है। तुलसी के इस कथन को पढ़ा-सुना तो अनेक लोगों ने होगा, पर इसके संकेत को अत्यल्प लोगों ने ही समझा होगा। साधारण मनुष्य दूसरों की जरा-सी गलती का तो बखान करने लगता है, पर अपनी पहाड़-सी दुर्बलता को भी जानने का प्रयास नहीं करता और यदि उसे जान भी ले तो उसे स्वीकार करने का साहस उसमें नहीं होता।

             तुलसीदास की 'विनय-पत्रिका का एक-एक पद, उसका एक-एक शब्द अध्ययन-मनन करने योग्य है और उससे प्राप्त संकेतों से अपनी दुर्बलताओं को जानने-सुधारने की आवश्यकता है। मगर मुश्किल यह है कि हम अपने ऋषियों, भक्तों, संतों, महापुरुषों आदि की बातों में निहित संकेतों को समझने-जानने का प्रयास ही कहां करते हैं।

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