संस्कारों का उद्देश्य हिंदू संस्कृति की पृष्ठभूमि में व्यक्ति का समाजीकरण करना है। इसलिए व्यक्ति को पवित्र बनाने वाले विभिन्न अनुष्ठानों और क्रिया-कलापों को ही हम संस्कार कहते हैं।
संस्कार पूर्णतया धार्मिक ही नहीं होते, बल्कि ये सामाजिक बी होते हैं, जिसकी अभिव्यक्ति हमारे सामाजिक जीवन में होती है। संस्कार वह विधि-विधान है, जो व्यक्ति को जैविक, मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्राणी बनाने में सहायक होता है। संस्कार व्यक्ति के क्रमिक विकास की प्रक्रिया से संबद्ध होते हैं। इनका आधार व्यक्ति की आंतरिक क्षमताओं का सही रूप से मार्ग-दर्शन करना है।
संस्कारों का उद्देश्य मानव के सरल मन और उसकी विशेषताओं को अभिव्यक्त करना है। अशुभ शक्तियों से व्यक्ति की रक्षा करना है, अभीष्ट इच्छाओं की प्राप्ति कराना है। संस्कारों के द्वारा ही व्यक्ति में नैतिक गुणों का विकास होता है। संस्कारों का अत्यधिक महत्वपूर्ण उद्देश्य आंतरिक शक्तियों का उन्नयन करना है। गर्भाधान संस्कार से लेकर मृत्यु तक के सभी संस्कार इसलिए बनाए गए हैं कि इनसे समाज का हित हो और समस्त प्राणि मात्र योग्य बने।
संस्कार का अभिप्राय केवल वाह्य धार्मिक क्रिया-कलापों, अनुष्ठानों, व्यर्थ के आडंबरों, कोरे कर्मकांडों आदि औपचारिकताओं से नहीं हैं। जैसा कि साधारणतया समझा जाता है। संस्कार शब्द का पर्याय वह कृत्य है, जो आंतरिक और आत्मिक सौंदर्य को अभिव्यक्त करता है। इसलिए मीमांसा सूत्र में कहा गया है कि संस्कार वह है जिसके करने से कोई पदार्थ उपयोगितापूर्ण बन जाता है। इसलिए संस्कार प्रमुख ऋणों से उऋण होने के एकमात्र साधन हैं। ऋण शब्द को मीमांसाकारों ने प्रतीकात्मक स्वरूप में लिया हैं यानी मनुष्य मात्र के अलावा प्रत्येक जीव मात्र के प्रति कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए। इस प्रकार संस्कार का आधारभूत उद्देश्य स्वधर्म पालन द्वारा आध्यात्मिकता और मोक्ष की साधना करना है।
धर्मशास्त्रों के अनुसार की गई कामना और उसकी पूर्ति और वेद विहित धार्मिक आचरण और क्रिया-कलापों के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति संभव है। अधर्म से की गई इच्छाओं की पूर्ति कभी भी मोक्ष प्राप्ति का साधन नहीं हो सकता। संस्कार शब्द भले ही प्राचीनकाल से प्रयुक्त हो रहा हो, किंतु आज भी उतना ही प्रासंगिक है। आज के बदलते परिवेश में और आधुनिकीकरण के वातावरण में भी मनुष्य को नैतिक मूल्यों, आचरणों और संस्कारों के संवर्धन की अत्यंत आवश्यकता है, जिसके बल पर ही व्यक्ति का समग्र विकास संभव है
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