धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य के युद्ध महाभारत में कौरव और पाडंवों की सेना आमने-सामने थी। अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण ने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य आगे लाकर खड़ा कर दिया। अर्जुन ने देखा कि उनके अपने भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और उनके भाई, रिश्तेदार विरोधी खेमे में खड़े हैं।
डॉ. प्रणव पण्ड्या ने इस सम्बन्ध में सुन्दर प्रस्तुति दी है कि अर्जुन की हिम्मत जवाब दे गई। उन्होंने कृष्ण से कहा कि अपने स्वजनों और बेगुनाह सैनिकों के अंत से हासिल मुकुट धारण कर मुझे कोई सुख हासिल नहीं होगा। अर्जुन पूरी तरह अवसादग्रस्त हो चुके थे। अपने अस्त्र-शस्त्र कृष्ण के सम्मुख भूमि पर रख उन्होंने सही मार्गदर्शन चाहा। तब श्रीमद्भगवद्गीता का जन्म हुआ।
मान्यता है कि लगभग 40 मिनट तक श्रीकृष्ण और अर्जुन में जो संवाद हुआ, उसे महर्षि व्यास ने सलीके से लिपिबद्ध किया, वही श्रीमद्भगवद्गीता कहलाई।
इसके आध्यात्मिक सिद्धांत स्वयंसिद्ध हैं। विश्व भर के विद्वानों ने इसे धर्म, ज्ञान, भक्ति, उपासना और कर्म के क्षेत्र में गूढ़ गंभीर मीमांसा के विषय का ग्रंथ स्वीकार किया है। भारतीय वेदाचार्यों ने इसे उपनिषद् माना है।
मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को मोक्षदा एकादशी या गीता जयंती के रूप में मनाने का प्रचलन है। महाभारत के युद्ध में मोहित हुए अर्जुन को भगवान कृष्ण ने कर्मयोग का पाठ देकर उन्हें कर्म में प्रवृत्त किया था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन ने यह समझा दिया कि उनके शत्रु तो महज मानव शरीर हैं। अर्जुन तो सिर्फ उन शरीरों का अंत करेगा, आत्माओं का नहीं। हताहत होने के बाद सभी आत्माएं उस अनंत आत्मा में लीन हो जाएंगी। शरीर नाशवान है, लेकिन आत्मा अमर है। आत्मा को किसी भी तरह से नष्ट नहीं किया जा सकता।
तब श्रीकृष्ण ने परमतत्व की उस प्रकृति का दर्शन अर्जुन को कराया। भगवान के जिस विराट रूप में अनंत ब्रह्मांड निहित है। ताकि अर्जुन समझ सकें कि वे जो भी कर रहे हैं वह विधि निर्धारित है। 18 अध्यायों के माध्यम से जीवन के सिद्ध सूत्र श्रीकृष्ण ने समस्त प्राणी जगत को प्रदान किए हैं, जिसमें ज्ञान, कर्म, भक्ति, राजविद्या, विभूति से मोक्ष तक की यात्रा कराई है।
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