Thursday, August 9, 2012

जीवन का संचार सहजयोग


1- सहजयोग कर्मकाण्डों के विरुद्ध है-
        अगर हम अपने अहंकार को कम करने की कोशिश करते हैं तो अहंकार बढेगा क्योंकि हम अहंकार से ही कोशिश करते हैं।जो लोग सोचते हैं कि हम अपने अहंकार को दबा लेंगे,हर तरह के प्रयोग करते हैं,लेकिन इससे अहंकार नष्ट नहीं होता है बल्कि बढता है क्योंकि अग्नि दायें तरफ है।जो भी कर्मकाण्ड हम करते हैं,उससे अहंकार बढता है,हवन से भी अहंकार बढता हैक्योंकि अग्नि दायें तरफ है।जो भी कर्मकाण्ड हम करते हैं उससे अहंकार बढता है,और हम सोचते हैं कि हम ठीक हैं।हजारों वर्षों से कर्म काण्ड होते आये हैं,लेकिन सहजयोग कर्मकाण्ड का विरोधी है,कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं है ।

2-श्रीकृष्ण ने जीवन को लीला माना-
        श्री कृष्ण के अवतरण से विचारों में एक नयॉ परिवर्तन आया कि यह सब खेल है,परन्तु इसमें लिप्त रहने के कारण हम इस खेल को नहीं देख सकते हैं।लेकिन यदि हम उन्नत होते हैं तो यह हमें सिर्फ खेल के रूप में दिखाई देगा । जैसे पानी में रहकर आपको डर लगता है लेकिन जब नाव में बैठ जाते हैं तो वहॉ से पानी देख सकते हो और यदि तैरना आता है तो अन्य लोगों को भी डूबने से बचा सकते हो ।श्री कृष्ण कहते हैं कि आप साक्षी भाव को विकसित करें,साक्षी स्वरूप बन जायें , तब सारी चीजों को आप नाटक के रूप में देखेंगे।तब कोई भी चीज आपको प्रभावित नहीं करेगी।किसी भी चीज की आपको चिन्ता नहीं होगी,समस्या को तो आप देखेंगे, परन्तु आप उससे ऊपर हैं इसलिए आप इन्हैं हल कर सकते हैं ,ये उनका महान अवतरण था,जिसमें उन्होंने उत्क्रॉति की ओर पहला कदम सिखाया कि आपको साक्षी बनना है।आपको साक्षी बनना है ।


3–“ध्यान किया नहीं जाता है बल्कि ध्यान में होते हैं -“
        आप कहते हैं कि हम ध्यान कर रहे थे तो यह वाक्य उपयुक्त नहीं है क्योंकि ध्यान किया नहीं जाता है यह अर्थहीन है । बल्कि ध्यान में हो सकते हैं ।आप या तो घर के अन्दर होते हैं या बाहर तो यह नहीं कहते हैं कि मैं घर के अन्दर हूं,लेकिन जब आप अपने अन्दर होते हैं तो निर्विचार चेतना में होते हैं,तब आप वहीं नहीं होते हैं, सर्वत्र होते हैं, क्योंकि यही वह स्थान है,यही वह विन्दु है जहॉ आप वास्तव में ब्रह्मॉण्डीय अस्तित्व में होते हैं।वहॉ से आप तत्व से,शक्ति से,उस शक्ति से जो जर्रे-जर्रे में प्रवेश कर सकती है,चलते हुये ,हर विचार से,हर योजना से और पूरे विश्व की सोच से जुडे हुये होते हैं ।आप उन सभी तत्वों में प्रवेश कर जाते हैं जिनसे इस सुन्दर पृथ्वी का सृजन हुआ।आप पृथ्वी में प्रवेश कर जाते हैं,आकाश में प्रवेश कर जाते हैं,तेज में और ध्वनि में प्रवेश कर जाते हैं,परन्तु आपकी गति अत्यन्त धीमी होती है।तब आप कहते हैं कि मैं ध्यान कर रहा हूं,अर्थात आप ब्रह्मांडीय अस्तित्व में प्रवेश करते हुये चल रहे हैं। परन्तु आप स्वयं नहीं चल रहे होते हैं । और जो चीजें आपको चलने में वाधा पहुंचाती है उनके बोझ से मुक्त होने में,अपना बोझ उतारने में लगे होते हैं ।

 
4-सिद्धॉत की निर्वलता ही अशॉति का कारण है-
        हम चाहते हैं कि किसी प्रकार संतुष्ट होकर शॉति जैसी दैवी सम्पदा का सुख हम प्राप्त कर सकते हैं।लेकिन शॉति-शॉति चिल्लाकर हमारी मायावी प्रगति हमें शॉति से दूर ले जाती है ।यदि प्रगति इसी प्रकार होती रही तो शॉति सदा के लिए हमसे अलग हो जायेगी ।आज हर क्षेत्र में शॉति-शॉति की व्यापक पुकार है चाहे राजनीति में हो या सामाज,या साहित्य में,सभी जगह उथल-पुथल है।सभी जानते हैं कि भौतिक वाद से शॉति प्राप्त होने वाली नहीं है लेकिन फिर भी भौतिकवाद को अपनाये हुये हैं ।आज के भोगवाद में खाओ-पिओ,मौज मनाओ एक सभ्य व्यक्ति का सिद्धांत बन चुका है ,वह अधिक से अधिक सॉसारिक सुख चाहता है,खाने-पीने के पश्चात वासना के सुख लूटता है,लेकिन फिर भी खोया–खोया सा रहता है,कुछ स्थान खाली-खालीसा है। फिर वह इस जगत से वैराग्य स्थापित की सोचता है,क्योंकि उच्च आध्यात्मिक जीवन सॉसारिक भोग पदार्थों से ऊपर है ।जिसमें भोग वाद के स्थान पर त्याग की महत्ता है,अपने सुख के स्थान पर दूसरे को सुखी करने की भावना है,देने की भावना है,यही आदर्श इस खोखलेपन को दूर करने का एक उपाय है ।


5–आत्म निर्माण कैसे करें-
        अपने स्वभाव या चरित्र की त्रुटियों को दूर करना तथा निर्भयता,सत्यता,प्रेम,पवित्रता,प्रशन्नताता तथा सबमें आत्मभाव देखना, अपने को शरीर नहीं आत्मा समझना और तदनुकूल उच्च देवोचित आचरण करना,अपनी शारीरिक,मानसिक,आर्थिक,सामाजिक,,नैतिक तथा आध्यात्मिक स्थिति को ऊंचा उठाना और अपने को एक आदर्श नागरिक बनाना आत्म निर्माण है ।आत्म निर्माण एक लम्बी योजना है जिसका उद्देश्य उत्तरोत्तर अभिबृद्धि करना है। यह एक जीवन दर्शन है,जो कि आशावादी दृष्टकोण द्वारा हमेशा ऊंचा उठने,सर्वांगींण विकास में विश्वास करता है ।यह निरन्तर आगे बढने की यात्रा है,इसमें ठहराव नहीं है,उत्तरोत्तर प्रगति है।आत्मविश्वासी शक्ति और प्रतिभा का निर्माण कर सकता है ।अच्छे का निर्माण और बुरे का ध्वंश- यही शक्ति का सदुपयोग कहलाता है।प्रत्येक नव प्रभात एक नयी उन्नति की सम्भानायें लाने वाला है।

 
6-आत्म निर्माण के साधन-
        आत्मनिर्माण के साधनों को निम्न भागों में विभाजित किया जा सकताहैः-पहला-मानव शरीर की पूर्णता तथा निरोगता द्वारा ।-दूसरा-अपनी भावनाओं पर विजय प्राप्त करके ।–तीसरा-बुद्धि का विकास ।चौथा-आत्म ज्ञान ।व्यक्तित्व के इन चारों पक्षों का उत्तरोत्तर विकास होना चाहिए ।शरीर एक साधन है जिसके द्वारा आत्मउन्नति होती है,इसलिए शरीर को चाहिए कि वह रोगों को उसी प्रकार त्याग दें जैसे हम मन से अपवित्रता दूर करते हैं ।इस शरीर को निर्विकार,स्वस्थ,सशक्त रखकर ही हम इस दिशा में आगे बढ सकते हैं ।हमारे प्राचीन योगियों ने शरीर को परमेश्वर का पवित्र मंदिर माना है।इस शरीर की रक्षा हेतु हमारा कर्तव्य है कि हम परिश्रम करें ।व्यायाम करें,पवित्र जलवायु में निवास करें ,शुद्ध दूध,छॉछ,फलों का रस,पौष्टिक भोजन,अधिक मात्रा में लेने चाहिए ।सात्विक पदार्थों को ग्रहण करें। अनिष्ठकारी व्यसन जैसे-धूम्रपान,मद्यपान, आदि से बचें,संयम रखें। उपवास,अल्पाहार,या रसाहार द्वारा हमें अन्तरंग शुद्धि करनी चाहिए ।प्रकृति के मार्ग पर चलकर शरीर को निर्विकार अवस्था में रख सकते हैं ।

 
7-अपने मनोभावनाओं पर विजय प्राप्त करें-
        यह आत्म विकास का महत्वपूर्ण साधन है।हमारी मनोभावनायें दो प्रकार की होती हैं-1-कुप्रवृत्तियॉ-इसमें हमारी वासना,क्रोध,घृणा,द्वेष,लोभ,ईर्ष्या,निराशा आदि भावनायें सम्मिलित हैं।सतत् प्रयत्न और अभ्यास से इन अनिष्ठकारी प्रवृतियों का दमन करना चाहिए। 2-सद्वृत्तियों का विकास-कुप्रवृतियों से मुक्ति का सरल उपाय सद्वृत्तियों का विकास करना है इससे अनिष्ठभाव स्वयं दूर हो जायेंगे ।प्रकाश के सम्मुख अन्धकार कैसे टिक सकता है ।जैसे-जैसे हम अपने तुच्छ अहं से मुक्त होते जाते हैं वैसे ही हमारे अंदर एक प्रकाशमय बलशाली  चेतना का विकास होता जाता है । 

 
8-अपनी बुद्धि का विकास करें-
        अपनी दुद्धि के बल पर मनुष्य अन्य प्राणियों से उच्च स्तर पर है ।बुद्धि के विकास के लिए सतत् प्रयत्न करते रहो,ज्ञान की पिपासा उत्तरोत्तर बढती रहनी चाहिए, बुद्धि के विकास के दो साधन हैं- अध्यन करना और महॉपुरुषों का सत्संग करना।हमेशा उच्चकोटि की पुस्तकें समीप रखकर मनुष्य विद्वानों के साथ रहता है,जो दिन-रात उसे कुछ न कुछ ज्ञान देते रहते हैं। स्वयं विचार और चिंतन करो ।अपनी भूलों से लाभ उठओ ।प्रत्येक भूल हमारी शिक्षिका है।जो किसी न किसी दृष्टि से हमें ऊंचा उठाती है,हम जो कुछ पढते हैं उसे स्मरण रखें,इससे हम सम्मुन्नत बनते हैं ।


9-आत्मज्ञान का विकास करें-
        आत्म ज्ञान आत्म भाव से प्राप्त होता है। हम यह शरीर नहीं हैं,बल्कि हम आत्मा हैं जो अजर-अमर हैं। इस क्षंणभंगुर संसार में आत्मतत्व ही सत्य,स्थिर,और स्थाई है।दुखों की अनुभूति तो निम्नस्तर पर रहने वाले लोगों को होती है ।दुख भोग की क्षमता तो हमारे शरीर का प्रत्येक भाग रखता है लेकिन सच्चे आनंद का मार्ग केवल आत्मा ही है,आत्मज्ञान और आत्म सम्मान को प्राप्त करना तथा उसकी रक्षा करना मनुष्योंच्चित मार्ग अपनाना है।यह जीवन का सत्वगुणी विकासक्रम है। आत्म दृष्टि जागृत करते रहें,सबमें आत्मा के दर्शन करें ।सहयोग,प्रेम,आत्मीयता,संतोष,आनंद,एवं प्रशन्नता ऐसी दिव्य विभूतियॉ हैं जिनसे जीवन का सत्वगुणी क्रम ठीक रहता है। मैं पवित्र आत्मा हूं।इस महान सत्य को ह्दय में ग्रहण कीजिए और तदनुकूल आचरण करें ।जबतक अपना सुधार न हो जाय दूसरों को उपदेश देने की मूर्खता न करें,अपने निर्बलताओं पर प्रहार करें,जैसे कि कोमल शय्या पर कॉटे पडे हों और हमें खटकते हैं,और जबतक अन्हैं हटाया नहीं, कष्ट पहुंचाते रहते हैं,उसी प्रकार हमारे दुर्गुंण,व्यसन,चरित्र,और स्वभावगत दुर्वलतायें हमारे असंतोष के कारण हैं ।हमें अपनी इन्द्रियों को वश में करना है,शारीरिक वासनाओं की तृप्ति तो जीवन का निम्नकोटि का सुख है।खाओ-पिओ मौज उडाओ यह निम्नकोटि के व्यक्तियों का उद्देश्य होता है ,परमेश्वर की दुनियॉ में यह कलंक है।तुम्हारा मार्ग तो परमात्मा का दिव्य आदर्श मार्ग है।तुम्हैं अपनी पाश्विक वृत्तियों पर विजय प्राप्त करना है।जिस प्रकार एक राजा अपने अनिष्ठ तत्वों को मजबूती से दबाकर रखता है,उसी प्रकार तुम्हैं समस्त विषय वासनाओं पर कडा निग्रह एवं अनुशासन रखना होगा ।तुम अपने शरीर के स्वामी बनो,अपने विवेक से अपनी आसुरी प्रवृतियों को काबू में रखो ।देवत्व की शक्तियों को फैलाओ ।दैवत्व का विकास करते करते चलो। तुम दैवत्व के अंश हो, उसी का विकास तुम्हारा सच्चा विकास है ।देवता बनो और ऊंचे उठो।


10- सत् से सुख उपजता है-
        हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि ‘सत्वं सुखे संज्जयति’ अर्थात सत् से सुख उपजता है।यदि आप जीवन के उच्चतम् लाभ को प्राप्त करना चाहते हैं तो वह वाह्य जगत में नहीं है,अन्तर्जगत में प्राप्त होगा ।स्वर्ग,भावनाओं –जैसे काम,क्रोध,मोह,इच्छा,तृष्णा आदि से दूर रहना। जो व्यक्ति इन वासनाओं का दास है, वह नरक की यातनाएं भुगत रहा है।संसार की वस्तुओं से मनुष्य को कोई स्थाई सुख प्राप्त नहीं होता ।थोडी देर बाद पुनः दूसरी वस्तु की ओर मन तेजी से भागता है,एक इच्छा की पूर्ति से हजार नईं इच्छायें जन्म लेती हैं।इच्छा और वासनाओं क चक्र निरन्तर चलता रहता है। जो व्यक्ति भोग मार्ग को तिलॉजलि देता है वह संसार के सबसे बडे खेद को पार करताहै।मस्तिष्क में निर्बलता,चिडचिडापन,अनिद्रा,उद्वेग,अरुचि,भ्रम,व्याकुलता आदि दुष्ट भावनायें के कारण ही तो उत्पन्न होती हैं।अहितकर सॉसारिक भोगमार्ग को त्यागकर सत् मार्ग पर अग्रसर होना स्वर्ग की ओर यात्रा प्रारम्भ करना है ।


11-परमपद प्राप्त करें-
        परमपद आत्मविकास का वह स्तर है,जिसमें मनुष्य संसार में रहकर भी जल में कमलवत् संसार के क्षणिक प्रलोभनों ,कष्टों,मोह,चिन्ताओं से ऊपर रहता है। मन के विकारों की आंधी आती है जो ऊपर से निकल जाती है।रुपये पैसों के मोह आते हैं मगर परम पद् प्राप्त व्यक्ति विचलित नहीं होते ।समुद्रों में जहाजों को उचित मार्ग निर्देशन के लिए प्रकाश स्तम्भ बनाये जाते हैं,विद्वानों के उपदेश ऐसे ही प्रकाश स्तम्भ हैं।ऐसा नहीं कि आंख मूंदकर इन्हैं ग्रहण करें बल्कि तर्क और अपनी बुद्धि से प्रयोग में लें।सत्य और न्याय का पथ इनसे स्पष्ट हो जाता है ।आपको कोई दूसरा अच्छी सलाह दे,उसको सुनना आपका कर्तव्य है, मगर आप अपनी आत्मा की सलाह से काम करते रहें कभी धोखा नहीं खाओगे । 


12-सदुपदेश सुनना शुभ सात्विक वातावरण निर्मित करना है-
        जिन्होंने अच्छे उपदेश सुने हैं वे देवतास्वरूप हैं। क्योंकि मनुष्य की प्रवृत्ति अच्छाई की ओर होती है,तभी वह सदुपदेशों को पसन्द करता है,तभी सत्संग में बैठता है,तभी मन में और अपने चारों ओर बैसा शुभ सात्विक वातावरण निर्मित करता है। किसी विचार के सुनने का तात्पर्य चुपचाप अन्तःकरण द्वारा उसमें रमण करनाहै। जो जैसा सुनता है,कालॉतर में बैसा ही बन जाता है।आज आप जिन उपदेशों को ध्यापूर्वक सुन रहे हैं कल निश्चय ही बैसे ही बन जाओगे ।सुनने का तात्पर्य अपनी मानसिक प्रवृतियों को देवत्व की ओर मोडना है ।एक विद्वान ने कहा है कि “जल जैसी जमीन पर बहता है उसका गुण बैसा ही बदल जाता है”इसी प्रकार मनुष्य का स्वभाव भी अच्छे –बुरे लोगों या विचारों के संग के अनुसार बदल जाता हैं।चतुर मनुष्य इसीलिए बुरे लोगों का संग करने से डरते हैं,मूर्ख तो बुरे लोगों से घुल-मिल जाते हैं।आदमी का घर चाहे जहॉ हो पर वास्तव मेंउसका निवास स्थान वह है जहॉ वह उठता-बैठता है,और जिन लोगों के विचारों का संग उसे पसन्द है।आत्मा की पवित्रता तो मनुष्य के कार्यों पर निर्भर है और उसके कार्य संगति पर निर्भर है।बुरे लोगों के साथ रहने वाला अच्छा काम करे यह बहुत कठिन है।धर्म से तो स्वर्ग की प्राप्ति होती है,किन्तु धर्माचरण करने की बुद्धि सत्संग या सदुपदेशों से ही प्राप्त होती है।स्मरण रखें कुसंग से बढकर कोई हानिकारक वस्तु नहीं है और संगति से बढकर कोई लाभ नहीं है।

13-यदि जीवन एक प्रश्न है तो मृत्यु उसका उत्तर-
        मृत्यु से डरने की आवस्यकता नहीं है,क्योंकि यह एक अनिवार्य स्थिति है।जितने श्वास आपको मिले हैं,उनसे एक भी अधिक मिलने वाला नहीं है।इसलिए मृत्यु की अनिवार्यता को समझते हुये जो भी महत्वपूर्ण कार्य आपको करने हैं,शीघ्र ही कर लेने चाहिए-कबीरदास जी ने सत्य ही लिखा है –कि मनुष्य जीवन एक पानी के बुलबुले के समान क्षणिक है।जैसे प्रभात होते ही सारे तारे छिप जाते हैं, वैसे ही क्षण मात्र में जीवन का अंत हो जायेगा । मृत्यु कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो औरों पर न आई हो और केवल मात्र हमी पर आ पडने वाली हो,कोई भी चाहे वैद्य,रोगी,यति,-ज्ञानी,महात्मा, विद्वान,मूर्ख सभी मृत्यु के मार्ग से गये हैं।धन इत्यादि कुछ भी साथ नहीं गया ।और जब मृत्यु का बुलावा आता है तो कोई भी उसे नहीं रोक सकता ।अर्थात नश्वर शरीर के लिए रोना वृथा है।यह तो हाड, मॉस,रक्त,मज्जा,इत्यादि निर्जीव पदार्थों का बना एक ढॉचा मात्र है ।मरने के बाद यह शरीर मिट्टी के रूप में ज्यों की त्यों पडी रहती है।वास्तविक वस्तु तो आत्मा है।जो अजर अमर है। उसका नाश नहीं होता ।और उसे हम कहते हैं वह वस्तु शरीर नहीं वह अजर -अमर आत्मा है ।शरीर छोड देने के बाद भी आत्मा ज्यों का त्यों जीवित रहता है, फिर जो जीवित है उसके लिए शोक करने से क्या प्रयोजन ?भगवान ने गीता में कहा है कि-जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है,वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नये शरीर को प्राप्त होता है ।।

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