Friday, January 23, 2015

गीता एक संजीवनी है


              गीता का पहला अध्याय ‘विषाद योग’ है। मोह और अज्ञान से उत्पन्न विषाद के कारण अर्जुन कहता है कि न योत्सि (मैं नहीं लड़ूंगा)। वह तरह तरह की दलीलें दे कर उचित ठहराता है तो भगवान उसे जिस तत्वज्ञान का उपदेश देते हैं, उसका समापन अठारहवें अध्याय में होता है। उस अन्तिम अध्याय का नाम ‘मोक्ष संन्यास योग’है। गीता के प्रभाव से विषाद में फंसा साधक मोक्ष संन्यास योग-यानी मोक्ष की कामना से भी परे की स्थिति में पहुंच जाता है।



              महाभारत में कहा गया है-‘सर्व शास्त्रमयी गीता’ (भीष्म कहते हैं); परन्तु इतना ही कहना यथेष्ट नहीं है; क्योंकि सम्पूर्ण शास्त्रों की उत्पत्ति वेदों से हुई, वेदों का प्राकट्य भगवान् ब्रह्माजी के मुख से हुआ और ब्रह्माजी भगवान् के नाभि-कमल से उत्पन्न हुए। इस प्रकार शास्त्रों और भगवान् के मध्य अत्यधिक दूरी हो गई है।



              लेकिन गीता तो स्वयं भगवान् के मुख से निकली है, इसलिए उसे शास्त्रों से बढ़कर माना गया है। इसकी पुष्टि के लिए स्वयं वेदव्यास का कथन द्रष्टव्य है- गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता॥ (महा० भीष्म ) अर्थात्- ‘‘गीता का ही भली प्रकार से श्रवण कीर्तन, पठन-पाठन मनन और धारण करना चाहिए, अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता है? क्योंकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान् के साक्षात् मुख-कमल से निकली है।’’



              इसके अतिरिक्त भगवान् ने गीता में मुक्तकण्ठ से यह घोषणा की है कि जो कोई मेरी इस गीतारूप आज्ञा का पालन करेगा, वह निःसंदेह ही मुक्त हो जाएगा। जो मनुष्य इसके उपदेशों के अनुसार अपना जीवन बना लेता है और इसका रहस्य भक्तों को धारण कराता है, उसके लिए तो भगवान् कहते हैं कि वह मुझ को अत्यधिक प्रिय है। भगवान् अपने ऐसे भक्तों के अधीन बन जाते हैं।



              सारांश यह है कि गीता भगवान् की वाणी है, हृदय है और भगवान् की वाङ्मयी मूर्ति है। जिसके हृदय में, वाणी में, शरीर में तथा समस्त इन्द्रियों एवं उनकी क्रियाओं में गीताव्याप्त हो गई है, वह पुरुष साक्षात् गीता की मूर्ति है। उसके दर्शन, स्पर्श, भाषण एवं चिन्तन से भी दूसरे मनुष्य परम पवित्र बन जाते हैं।इसलिए गीता को  संजीवनी कहा गया है। 

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