हम जिस रास्ते पर चले थे वहीं पहुंचे, हम ऐसा कुछ भी करते हैं जिससे दुख फलित होता है तो हम अपने मित्र नहीं कहे जा सकते। स्वयं के लिए दुख के बीज बोने वाला व्यक्ति तो अपना शत्रु है।
और हम सब स्वयं के लिए दुख के बीज बोते हैं। निश्चित ही, बीज बोने में और फसल काटने में बहुत वक्त लग जाता है। इसलिए हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने ही बीजों के साथ की गई मेहनत की फसल काट रहे हैं।
अक्सर फासला इतना हो जाता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोए थे अमृत के,लेकिन न मालूम कैसा दुर्भाग्य था कि फल जहर का और विष का प्राप्त हुवा हैं! लेकिन इस जगत में जो हम बोते हैं, उसके अतिरिक्त हमें कुछ भी न मिलता है।
हम वही पाते हैं, जो हम अपने को निर्मित करते हैं। हम वही पाते हैं, जिसकी हम तैयारी करते हैं। हम वहीं पहुंचते हैं, जहां की हम यात्रा करते हैं। हम वहां नहीं पहुंच सकते, जहां की हमने यात्रा ही न की हो। यद्यपि हो सकता है, यात्रा करते समय हमने अपने मन में कल्पना की मंजिल कोई और बनाई हो। रास्ते को इससे कोई प्रयोजन नहीं है।
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