Saturday, February 21, 2015

जीवन में मन की यात्रा अधूरी ही होती है

         वैसे तो आदमी जीता पूरा है और पूरी तरह से जीने का प्रयास करता है, पर वह जी नहीं पाता। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह जीने के लिए प्रयास करता है। उन प्रयासों में वह कुछ संभावनाओं में डूबकर जीता है। कुछ कल्पनाओं में डूबकर जीता है और कभी-कभी ख्वाब में इस तरह खोकर जीता है जैसे उसका यही सत्य है।

         यही जीवन है। आदमी का यह मन ही तो है। मन जो मान लेता है उसी की यात्रा करने लगता है। उसी के नशे में डूबकर कुछ समय काट लेता है। मन सभी चीजों को स्वीकार कर लेता है। मन सभी तरह की बातों को बर्दाश्त कर लेता है। वह केवल अपना रास्ता खोजता रहता है। वह खाने में, पीने में, सोने-जागने में भी अपना प्रभाव रखता है। इसलिए आदमी पूरी तरह से सो भी नहीं पाता। सोकर भी वह स्वप्न में खो जाता है। सोकर वह यात्राएं करने लगता है। स्वप्न में ही उठकर चलने लगता है। स्वप्न में ही मन के भटकाव को मुक्ति देने का प्रयास करता है और कभी-कभी तो सो भी नहीं पाता। पूरी रात स्वप्नों में ही गुजार देता है और करवट पर करवट बदलकर अपनी जिंदगी के कुछ क्षण को, समय को काट लेता है।

         वैसे तो मनुष्य पूरी व्यवस्थाओं के साथ जन्म लेता है। जब वह जन्म लेता है तो प्रेम के अनुग्रह का अथाह सागर उसके लिए उमड़ पड़ता है, पर जैसे-जैसे उसकी दुनिया बढ़ती जाती है, वह अपने जीवन के प्रश्नों के समाधान में उलझ जाता है। मांग बढ़ती जाती है। प्रश्नों का चक्रव्यूह बढ़ता जाता है। चाहतें बढऩे लगती हैं। समाधान की खोज में यात्राएं होती रहती हैं। किसी स्थूल यात्रा को वह पूरा कर लौट आता है। तो किसी में उलझ कर छोड़ आता है। आदमी के प्रश्न भी अनेक तरह के हैं और समाधान के मार्ग भी भिन्न तरह के हो जाते हैं।

         आदमी की कई तरह की चाहत है। कोई धन से प्यार करता है, कोई पद प्रतिष्ठा से, तो कोई कला से प्रेम कराने लगता है। इस प्रकार मन के कहने पर वह हर काम करता है, लेकिन बाद में उसे यह अहसास होता है कि मन के कहने पर वह जो भी करता है, अंतत: हाथ कुछ नहीं आता। मन की नीरसता व रिक्तता दूर नहीं होती। यह रिक्तता तो ध्यान से ईश्वर की शरण में जाने से ही पूरी हो सकती है।

विचार अच्छे हों तो व्यक्ति भी महान होता है

         अच्छे विचारों वाला व्यक्ति निश्चित ही महान होता है। शायद ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा। सद्विचार से हम एक ऐसी उच्चता को प्राप्त करते हैं जो धीरे-धीरे हमें परमात्मा की ओर अग्रसर करने में सहायक होते हैं। गांधीजी हों, विनोबा भावे हों या कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर-सबके सब लोग शरीर से सामान्य थे, परंतु उनकी विचार शक्ति ने उन्हें महान बनाया। इन महापुरुषों के पास आत्मिक बल था, उनकी सोच सकारात्मक थी, उनकी दृष्टि में महान भारत का नक्शा था।

        वे विचारों से हमेशा सजग और सतर्क रहते थे। तभी वे हर छोटा-बड़ा सृजन अनूठे रूप से कर सके। उन्होंने जीवन के मानवीय मूल्यों को समझा। वे जानते थे कि ईश्वर की इस प्रकृति में यदि हम भी कुछ कर सकें तो हम इस संसार को और सुंदर बना सकेंगे। वे अपनी शक्तियों को भली भांति पहचानते थे। वे समय के साथ चले, उन्होंने हमेशा ही अपने अंदर सकारात्मक सोच के बीज को आरोपित किया। ये महापुरुष जीवन के अंतिम समय तक कर्मरत रहे। ये उनके सद्विचारों का ही प्रभाव था कि वे आज भी अमर हैं, उनकी हर कृति अनुपम है। भारत के नवनिर्माण में उनके विचारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे सभी महानायक जिन्होंने इस समाज को कुछ दिया वे दूरदृष्टा थे। उन्होंने संपूर्ण मानवता का भला किया। वे हमेशा ही परमात्मा के प्रिय रहे।

         आज भी जो लोग जिस किसी क्षेत्र में लोगों के लिए श्रद्धेय माने जाते हैं, वे सभी कहीं न कहीं अपने अंदर संपोषित विचारों को ही महत्व देते हैं। जो अपने मन की आवाज सुनता है, जो दूसरे के विचारों को महत्व देते हुए विनम्रता के साथ विचारों का आदान-प्रदान करता है, वह महान हो ही जाता है। ईश्वर का सृजन हमेशा चलता रहता है। पर कुछ लोग इस भीड़ में ऐसे होते हैं, जो उसकी रचना में कुछ ऐसा कर बैठते हैं जो उन्हें उत्साह, उल्लास और सुख की अनुभूति कराता है। वे अपने मन की सुनते हैं। दुनियादारी की मैल उनके मन को गंदा नहीं कर पाती है। वे स्वयं की बात तो दूर कई बार कुछ ऐसा कर जाते हैं, जिससे आम इंसान का जीवन भी रूपांतरित होते देर नहीं लगती। वे सद्विचारों के पोषक होते हैं, इसलिए धर्म को साथ रखते हुए वे हर कार्य को गति प्रदान करते हैं।

हमारा जीवन स्वयं में एक अनसुलझी पहेली है

         मनुष्य का जीवन स्वयं में एक अनबुझ पहेली है। अपार रहस्यों से भरा हमारा जीवन एक साथ अनेक दिशाओं में चलते हुए अनेक अर्थो को प्रतिपादित करता है। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति इस जीवन को अपने अनुरूप धारण करता है।

जीवन के रहस्यों को जब हम जानने का प्रयास करते हैं, तो एक साथ कई रहस्य सामने आ जाते हैं। कभी यह विचार आता है कि हमारा जीवन सार्थक है। कभी निर्थक दिखता है, कभी भगवान पर शंका की उंगली उठती है। इस तरह के अनेक प्रश्न मन को झकझोरते रहते हैं। उनमें से एक प्रश्न यह भी उठता है कि हम अपने इष्टदेव को भगवान क्यों कहते हैं? इस भगवान शब्द का औचित्य क्या है? दरअसल, हम जब अपने इष्टदेव का नाम लेते हैं, तो हम उनके साथ अनेक श्रद्धावाचक शब्द जोड़ देते हैं। कभी-कभी तो हम अपने नाम के आगे या पीछे भी कई शब्द जोड़ते हैं जिसका अर्थ होता है, हम अपने से बड़ों को सीधे नाम लेकर नहीं पुकारना चाह रहे हैं। हमारा नाम तो साधारण होता है, लेकिन उसमें कुछ विशेषण लगा देने पर नाम का थोड़ा वजन बढ़ जाता है।

         प्रश्न यह उठता है कि हम अपने इष्टदेव को जब भगवान कहते हैं, तो भगवान शब्द को ठीक से समझ लेना चाहिए। मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ी अभिलाषा होती है कि उसे अधिक से अधिक आयु मिले, विद्या मिले, बल हो, अपार बुद्धि हो, ऐश्वर्य हो और शांति मिले। इन छह तत्वों की कामना हमारे जीवन में होती है, लेकिन मनुष्य का जीवन कामनाओं से भरा है, जिस कारण मरुभूमि की रेत की तरह जितनी हम कामनाओं की पूर्ति का प्रयास करते हैं, रेत पर पानी की बूंद की तरह सब विलीन होता रहता है।

         जो वस्तु हमारे पास नहीं होती और जिसे पाने की ललक मन में हमेशा बनी रहती है, अगर वह वस्तु किसी के पास होती है तो हम उसे अपने से अधिक श्रेष्ठ मानने लगते हैं। भगवान शब्द भग और वान से बना है। भग का अर्थ होता है आयु, विद्या, बल, बुद्धि, ऐश्वर्य और शांति का सम्मिलित स्वरूप और वान का अर्थ होता है जिनके पास ये तमाम शक्तियां हों, उसी को भगवान कहते हैं।

         जब हम अपने इष्टदेव की अर्चना, पूजा करते हैं, तो हम अपने इष्टदेव से यही चाहते हैं कि उनके पास जो ये समस्त गुण हैं, वे सभी हमें प्राप्त हों। परमात्मा की प्रार्थना में मनुष्य अपना आत्मिक विकास चाहता है।

मनुष्य सबसे अधिक विवेकशील प्राणी है

         जीवन का महत्व इसी से पता चलता है कि प्रत्येक व्यक्ति या प्रत्येक जीव अपने जीवन से प्यार करता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को अधिक सुंदर और सफल बनाना चाहता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि जीवन से बढ़कर कुछ नहीं होता, इसलिए अपनी जान सभी को प्यारी होती है।

         भले ही पशु-पक्षियों को प्रखर विवेक नहीं होता, लेकिन जब जान बचाने की बारी आती है तो वह भाग खड़ा होता है। मनुष्य विवेकशील प्राणी है, इसलिए वह अन्य जीवों से अलग है। मनुष्य को पता है कि जीवन को कैसे सुंदर और सुखी बनाए। इसलिए मनुष्य पढ़ाई करता है, धन कमाता है, नाम, यश कमाता है।

         मनुष्य और पशु में यही अंतर है कि मनुष्य अपनी भलाई कर सकता है, वह जानता है कि वह अच्छा कर्म करेगा, अच्छी पढ़ाई करेगा, धन-वैभव प्राप्त करेगा, तो उसे सुख मिलेगा। ऐसा पशु नहीं सोचता। यही कारण है कि मनुष्य को विवेकशील कहा गया है। जो अपनी भलाई की बात सोचता हो, अपने अच्छे भविष्य की कामना करता हो, वही विवेकशील है। दूसरी ओर जो अपनी भलाई, अपने जीवन को सुखमय, आनंदमय बनाने का प्रयास नहीं करता उसे पशु-वृत्ति वाला जीव माना जाता है। जो अपना नुकसान स्वयं करता हो वह मनुष्य की तरह रहता अवश्य है, लेकिन उसकी वृत्ति मनुष्यों वाली नहीं होती।

        इसलिए विद्यालयों में, सत्संगों में लोगों को यह बताया जाता है कि तुम अपने जीवन को सुखमय और आनंदमय बनाने का प्रयास करो। हमारा जीवन हमेशा विकारों और बुरी प्रवृत्तियों से भरा रहता है। बुरा काम करने में अच्छा लगता है। इसलिए लोग बुराई की ओर अधिक दौड़ते हैं। बुरा काम करते समय अच्छा भले ही लगता हो, जैसे गलत आचरण, नशापान, गलत काम करना, यह थोड़ी देर के लिए भले ही अच्छा लगता हो, इसका परिणाम बहुत ही बुरा होता है। इसलिए हम अपने बच्चों को समझाते हैं कि बचपन से ही बुरे कामों से बचे रहो। बचपन में जिसका शरीर स्वस्थ और सुंदर नहीं रहता उसकी जवानी तो और भी कुरूप बन जाती है। इसलिए हमें बचपन को बचाने का प्रयास करना चाहिए। स्वस्थ बचपन ही सुंदर जवानी देता है और सुंदर जवानी में ही बुढ़ापे का फूल खिलता है। जीवन का सुख भी आपका है और दुख भी आपका है। अगर आप जीवन में सुंदर बनते हैं, सफल बनते हैं तो इसके लिए केवल आप ही जिम्मेदार हैं।

जीवन में आघात कष्टदायी होता

         भयभीत मन जब निर्बल और शक्तिहीन हो जाता है, तो जरा सा आघात भी व्यक्ति के लिए कष्टदायी हो जाता है। ऐसे ही आघात से विश्व प्रसिद्ध चित्रकार कोरजियो की दिल की धड़कनें बंद हो गई थीं। कारण बहुत मामूली था कि कोरजियो के एक बेशकीमती व अमूल्य चित्र की कीमत बहुत कम लगी थी। यह आघात कोरजियो सह न सके। प्रत्येक व्यक्ति हर मोड़ पर सफलता और खुशियों की कामना ही करता है। ऐसे में जब उसका सामना विपरीत स्थितियों से होता है, तो उसे आघात पहुंचता है, जिससे उसका मानसिक संतुलन तक बिगड़ जाता है। अक्सर निजी जीवन में भी लोग प्रेम में असफल होने पर, नौकरी या साक्षात्कार में फेल होने पर, गरीबी से तंग आकर, अपना मखौल उड़ते हुए देखकर, बीमारी से परेशान होकर और परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के आघात को सह नहीं पाते और अपने जीवन को खत्म करने तक की ठान लेते हैं। आजकल छोटी-छोटी बातें भी व्यक्ति को आघात पहुंचा देती हैं। जिंदगी केवल फूलों की सेज नहीं है, बल्कि इसमें कांटों का भी अस्तित्व है। जिस तरह खूबसूरत गुलाब के साथ कांटे उसे और भी सुंदर बनाते हैं, उसी तरह आघात भी व्यक्ति के जीवन को निखारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

         आघात का सामना दृढ़ता और हिम्मत से करना चाहिए ताकि उससे उबरकर सफलता के साथ ही लंबी कामयाबी का प्रवेश जीवन में हो।
 
         वॉल्ट वाइट मैन इस संदर्भ में कहते हैं कि 'हमें अंधकार, तूफान, भूख, दुर्घटना, मखौल और विरोध का उसी प्रकार सामना करना चाहिए जिस प्रकार सावधानी, धैर्य और साहस को जुटाकर पशु-पक्षी करते हैं। आघात जीवन का एक अंग हैं। उन्हें दिन व रात की भांति आना ही है। स्वेट मार्डेन कहते हैं कि आघात से कमजोर और दुर्बल हृदय वाले घबराते हैं। दृढ़ निश्चयी और महत्वाकांक्षा से पूरित लोगों को आघात एक ऐसा बल और शक्ति प्रदान करता है, जो उनके जीवन को एक नई दिशा देता है। थॉमस अल्वा एडीसन अमेरिका के टेनेसी राज्य की विल्मा गोल्डीन रुडाल्फ व नेत्रहीन हेलेन केलर दृढ़ निश्चयी और महत्वाकांक्षी थे, तभी तो इन्होंने आघात सहकर उन्हें मात दी और अपनी सफलताओं से इतिहास रच दिया। वर्तमान समय में भी वही जीतते हैं, जो आघातों और रुकावटों से परेशान नहीं होते।

उत्तम चरित्र ही सबसे बड़ा धन है


         धन से अधिक महत्व चरित्र का माना गया है। अमेरिका के प्रसिद्ध विचारक इमर्सन ने लिखा है था कि 'उत्तम चरित्र ही सबसे बड़ा धन है। इसी तरह ग्रीन नामक विद्वान का कथन था, 'चरित्र को सुधारना ही मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए। स्वामी विवेकानंद प्राय: युवाओं को संबोधित करते हुए कहा करते थे, 'युवाओ! उठो! जागो! अपने चरित्र का विकास करो। इस तरह विभिन्न विद्वानों ने चरित्र के महत्व पर प्रकाश डाला है और मानव जीवन में इसे सर्वोपरि माना है।

         राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चरित्र इसीलिए आकर्षक और प्रभावशाली था कि उन्होंने सदैव अपने चरित्र का ख्याल रखा। वह अपने काम समय पर करते थे। कभी लेट-लतीफी नहीं करते थे। सदा सच बोलते थे, झूठ नहीं बोलते थे, दया, करुणा, मानवता के गुणों से युक्त थे। वस्तुत: आज इसी चरित्र को बनाए रखने की परम आवश्यकता है। हम चाहें किसी भी क्षेत्र में कार्य कर रहे हों, किसी भी पद पर अपना योगदान कर रहे हों, हमें चरित्र को बनाकर और बचाकर रखना चाहिए। छात्र जीवन में तो चरित्र का महत्व और भी बढ़ जाता है। छात्र देश-निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं।

        राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की एक प्रसिद्ध पंक्ति है, जिसमें वह कहते हैं , 'वही मनुष्य है, जो मनुष्य के लिए मरे। भारतीय संस्कृति की यही तो विशेषता रही है। यही संस्कृति 'बहुजन हिताय और 'बहुजन सुखाय और 'वसुधैव कुटुंबकम् की पावन भावना का विकास करती है। हमारे भीतर 'स्व और 'पर का भेद नहीं होना चाहिए। 'स्व की संकुचित सीमा से निकलकर 'पर के लिए अपने आपको बलिदान कर देना ही सच्ची मानवता है। यही सबसे बड़ा गुण है और यही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है। जितने भी महापुरुष हुए, उन सभी ने अपने बाल्यकाल से ही चरित्र की रक्षा का ध्यान रखा। बड़े-बड़े दार्शनिक, चिंतक, विचारक, संत, लेखक और नेता-सबका लक्ष्य देश-निर्माण कर मानवीय गुणों का प्रचार-प्रसार करना रहा है, लेकिन उनके जीवन को झांककर देखेंगे, तो स्पष्ट पता चलेगा कि वे चरित्र की दृष्टि से कितने महान और विशिष्ट थे। उन्होंने अपने चरित्र को कभी दूषित नहीं होने दिया। इसी कारण आज उनका इस संसार में नाम है और हम सब उनके आदर्श को याद रखने का प्रयास करते हैं।

दूसरों की कमियों के बजाय अपनी कमियों पर ध्यान दें

         कुछ भारतीय मनीषियों ने विनोदप्रियता का सहारा लेते हुए पर-छिद्रान्वेषण यानी निंदा को निंदारस कहा है। कारण स्पष्ट है। दूसरे की निंदा और दूसरे की बुराई करने में हमें इतना स्वाद मिलता है, जो कदाचित मनपंसद स्वादिष्ट व्यंजन में भी संभव नहीं। हम प्राय: उनकी निंदा तो करते ही हैं, जिनके प्रति शत्रुभाव रखते हैं, मित्रों को भी नहीं बख्शते और पीठ पीछे उनकी पोलपट्टी बढ़ा-चढ़ाकर खोलते ही रहते हैं।

        दूसरे के चरित्र पर बना सुई की नोक के बराबर छिद्र भी हमें तत्काल नजर आ जाता है और हम पूरी तत्परता से उसे चौड़ा करने में यानी बढ़ा-चढ़ाकर दूसरों से कहने में व्यस्त हो जाते हैं। बगैर इस बात की परवाह किए कि हममें सामने वाले से कई गुना अधिक कमियां हो सकती हैं, किंतु इस ओर हमारा ध्यान जाता भी नहीं और हम निंदारसपान में व्यस्त रहते हैं।
 
        हालांकि ये अवगुण महिलाओं में भी पाए जाते हैं, किंतु पुरुष भी इनसे पीछे नहीं। निंदारस की व्यापकता यत्र-यत्र सर्वत्र नजर आती है। ऐसा क्यों होता है? दूसरों की निंदा करके बहुधा लोगों को सुखानूभूति क्यों होती है? कहीं, ऐसा तो नहीं कि हमारे मन में स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ दर्शाने की भावना उस समय सूक्ष्म अंहकार के रूप में मौजूद रहती हो? निश्चय ही ऐसा ही है। अंहकार सूक्ष्म-सूक्ष्मतर व छद्मवेशी होता है। इसीलिए हम उसे पहचान नहीं पाते। परिणामस्वरूप उसके मकडज़ाल में हम उलझ जाते हैं। दूसरी किसी भी वस्तु को देखने के लिए हमें फासले की जरूरत होती है। आईने में हमें अपनी शक्ल तभी नजर आती है, जब थोड़ा फासला हो।

        चूंकि हमारा स्वयं से फासला रंचमात्र भी नहीं होता। इसलिए हमें अपनी शक्ल तभी नजर नहीं आती और अगर कोई उधर ध्यानाकर्षण भी करे तो हम अपने ही पक्ष में उल्टे सीधे तर्क जुटा लेते हैं। जबकि दूसरा फासले पर होता है इसलिए उसकी कमियां हमें नजर आ जाती हैं और अहंकार के वशीभूत होकर हम उन्हें निर्ममता पूर्वक उधेडऩे में लग जाते हैं, किंतु सावधान। कहीं ऐसा न हो कि सामने वाला बुद्धिमान हंसे और अपनी कमियों के प्रति सजग होकर आत्म सुधार में जुट जाए और हम निंदा करके आत्मपतन के मार्ग पर अग्रसर रहें।
मनीषी वही है जो दूसरों की कमियों पर ध्यान देने के बजाय अपनी कमियों पर ध्यान दें, तभी आत्म-सुधार संभव है।

आलस्य किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का सबसे बड़ा शत्रु है

         अमेरिका के लेखक स्वेट मॉर्डन ने अपनी एक किताब में लिखा है कि आलस्य (प्रमाद) किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का सबसे बड़ा शत्रु है, क्योंकि आलस्य के कारण व्यक्ति के गुण भी क्षीण हो जाते हैं। सच तो यह है कि आलस्य का रोग जिस किसी को भी जीवन में पकड़ लेता है, तो फिर वह संभल नहीं पाता। आलस्य से देह और मन दोनों कमजोर पड़ जाते हैं। आलसी व्यक्ति जीवनपर्यन्त लक्ष्य से दूर भटकता रहता है।

         कहा भी गया है कि आलसी को विद्या कहां, बिना विद्या वाले को धन कहां, बिना धन वाले को मित्र कहां और बिना मित्र के सुख कहां? आलस्य को प्रमाद भी कहा जाता है। कुछ काम नहीं करना ही प्रमाद नहीं है, बल्कि अकरणीय, अकर्तव्य यानी नहीं करने योग्य काम को करना भी प्रमाद है। जो आलसी है, वह कभी भी अपनी आत्म-चेतना से जुड़ाव महसूस नहीं करता है। कई बार व्यक्ति कुछ करने में समर्थ होता है, फिर भी उस कार्य को टालने लगता है और धीरे-धीरे कई अवसर भी हाथ से निकल जाते हैं। तब पश्चाताप के अलावा और कुछ नहीं बचता। 'आज नहीं कलÓ आलसी व्यक्तियों का जीवन सूत्र है। शायद आलसी व्यक्ति यह नहीं सोचता है कि जंग लगकर नष्ट होने की अपेक्षा श्रम करके, मेहनत करके घिस-घिसकर खत्म होना कहीं ज्यादा अच्छा होता है।

         मैं तो यही कहूंगा कि आज ही एक संकल्प लें-जीवन जाग्रति का, जागरण का। जागरण का मतलब आंखें खोलना नहीं, बल्कि अंतसचेतना या अंतर्चक्षुओं को खोलना है। वेद का उद्घोष है कि उठो, जागो और जो इस जीवन में प्राप्त करने आए हो उसके लक्ष्य के लिए जुट जाओ। जो जगकर उठता नहीं है, वह भी आलसी है। जो अविचल भाव से लक्ष्य के प्रति समर्पित होकर कार्य सिद्धि तक जुटा रहता है, वही व्यक्ति सही मायने में जाग्रत कहलाएगा। आलसी वही नहीं है, जो काम नहीं करता, बल्कि वह भी है जो क्षमता से कम काम करता है। आशय यह है कि जो अपने दायित्व के प्रति ईमानदार नहीं है, जिसे कर्तव्य बोध नहीं है, वह भी आलसी है। क्षमता से कम काम करने पर हमारी शक्ति क्षीण होती जाती है और हम अपनी असीमित ऊर्जा को सीमा में बांधकर उसका सही उपयोग नहीं कर पाते हैं।

         आलसी व्यक्ति अकर्मण्य होता है। इसलिए उसे दरिद्रता भी जल्दी ही आती है। आलसी व्यक्ति उत्साही नहीं होने के कारण जीवन में अक्सर असफलता का सामना करते हैं।

दिव्य दृष्टि क्या है

         ज्ञान दृष्टि से मनुष्य ज्ञान जगत से संबंधित समस्त बातों को साक्षात भाव में अनुभव कर सकता है। उसी तरह अज्ञान दृष्टि से अज्ञान के जगत और जगत के सभी पदार्थो को भिन्न-भिन्न रूप में अनुभव कर लेता है। जिन दो आंखों से हम परिचित हैं, जिन दो आंखों से हम देखते हैं, जिन दो चक्षुओं को हम जानते हैं, वे अज्ञान के चक्षु हैं। अज्ञान की स्थिति में ये दो आंखें काम करती हैं और ज्ञान की दृष्टि बंद रहती है। जब ज्ञान दृष्टि खुल जाती है, तब अज्ञान दृष्टि बंद हो जाती है। जिस तरह अज्ञान दृष्टि बाहर की ओर (बाहरी जगत) काम करती है, उसी प्रकार ज्ञान दृष्टि भीतर (आंतरिक जगत) की ओर काम करती है। दोनों में क्रिया एक ही तरह है।

          महायोगी पायलट बाबा इस सम्बन्ध में सुन्दर लिखा है कि ज्ञान और विज्ञान परिचित आंखों और अदृश्य आंखों का एक भाव भी है। एक सम स्थिति भी है। जहां दोनों नहीं होते हैं, इन दोनों से अलग तीसरी आंख हैं, जिसे त्रिनेत्र भी कहा जाता है। त्रिनेत्र को दिव्य दृष्टि कह सकते हैं, जो ज्ञानमय दृष्टि है। अज्ञानमय दृष्टि का जिस तरह से उत्तराधिकारी मनुष्य है, उसी प्रकार से इस तीसरी आंख का भी अधिकारी मनुष्य होता है। त्रिनेत्र शक्ति का स्थान है। जब त्रिनेत्र शक्ति का जागरण होता है तो हमें दृश्य जगत के माया का बोध हो जाता है। आशय यही है कि संबंधित व्यक्ति को सत्य और असत्य के बीच का अंतर पता लग जाता है। दृश्य जगत से अदृश्य जगत के बोध के लिए और इस भौतिक अज्ञानमय जगत के तत्वों से अलग हटकर सूक्ष्म जगत की सूक्ष्म गति विधियों में रहने के लिए त्रिनेत्र का विशेष महत्व है। दिव्य भाव में आत्ममय होने और भगवत अनुग्रह पाकर भगवतमय होने के लिए आंतरिक ज्ञानमय शक्ति आवश्यक है, जो त्रिनेत्र पर ध्यान केंद्रित होने पर ही संभव है। त्रिनेत्र पर ध्यान केंद्रित होने पर परम सत्ता के साथ साक्षात्कार होता है। इस पूर्णता को प्राप्त कर लेने पर तीसरी आंखें खोल लेने के बाद ज्ञान शक्ति और अज्ञान शक्ति दोनों ही उस मनुष्य के अधिकार में होती है। स्पष्ट है, आंतरिक त्रिनेत्र के खुलने के बाद संबंधित व्यक्ति संसार और परम चेतन तत्व की अच्छी तरह से अनुभूति करने लगता है।

सुख का संबंध आत्मा से होता है

         समाज में सभी सुखी रहना चाहते हैं, लेकिन यह हो कैसे? इसका एक सूत्र है-प्रेम। वस्तुत: प्रेम वह तत्व है जो प्रेम करने वाले को सुखी तो बनाता ही है, जिससे प्रेम किया जाता है वह भी सुखी होता है।

         याद रखें, सुख और सुविधा दो भिन्न चीजें हैं। जो शरीर को आराम पहुंचाता है वह सुख नहीं, सुविधा है, लेकिन सुख का संबंध आत्मा से होता है। आप अच्छे घर में रहते हैं, अच्छी कार में बैठते हैं, एयरकंडीशन ऑफिस में काम करते हैं उससे आपके शरीर को सुविधा प्राप्त होती है, परंतु आप सत्य बोलते हैं, सबको प्रेम करते हैं, ईमानदारी और नैतिकता का व्यवहार अपनाते हैं, सच्चाई और संवेदना दर्शाते हैं, अहिंसा के मार्ग पर चलते हैं तो उससे आपको जो सुख मिलता है वह आत्मिक सुख कहलाता है। यही सुख व्यक्ति और समाज को सुखी बनाता है। जिंदगी के सफर में नैतिक व मानवीय उद्देश्यों के प्रति मन में अटूट विश्वास होना जरूरी है। कहा जाता है आदमी नहीं चलता, उसका विश्वास चलता है। आत्मविश्वास सभी गुणों को एक जगह बांध देता है यानी विश्वास की रोशनी में मनुष्य का संपूर्ण व्यक्तित्व और आदर्श उजागर होता है। दुनिया में कोई भी व्यक्ति महंगे वस्त्र, आलीशान मकान, विदेशी कार, धन-वैभव के आधार पर बड़ा या छोटा नहीं होता। उसकी महानता उसके चरित्र से बंधी है और चरित्र उसी का होता है जिसका खुद पर विश्वास है।

         मनुष्य के भीतर देवत्व है, तो पशुत्व भी है। 'सर्वे भवंतु सुखिन: का पुरातन भारतीय मंत्र संभवत: दानवों को नहीं सुहाया और उन्होंने अपने दानवत्व को दिखाया। पूर्वजों के लगाए पेड़ आंगन में सुखद छांव और फल-फूल दे रहे थे, लेकिन जब शैतान जागा और दानवता हावी हुई तो भाई-भाई के बीच दीवार खड़ी हो गई। बड़े भाई के घर में वृक्ष रह गए और छोटे भाई के घर में छांव पडऩे लगी। अधिकारों में छिपा वैमनस्य जागा और बड़े भाई ने सभी वृक्षों को कटवा डाला। पड़ोसियों ने देखा तो दुख भी हुआ। उन्होंने पूछा इतने छांवदार और फलवान वृक्ष को आखिर कटवा क्यों दिया? उसने उत्तर दिया, क्या करूं पेड़ों की छाया का लाभ दूसरों को मिल रहा था और जमीन मेरी रुकी हुई थी। वर्तमान में हमने जितना पाया है, उससे कहीं अधिक खोया है। भौतिक मूल्य इंसान की सुविधा के लिए हैं, इंसान उनके लिए नहीं है।

दर्द एक अनुभूति है

         चलते-चलते रुक जाने का कोई कारण तो होता है। फिर रुककर बैठा हुआ आदमी पुन: क्यों चल पड़ता है? तब ऐसा नहीं लगता कि इसमें कोई स्वाभाविकता है। किसी न किसी चीज का अहसास है। वह अहसास मन को होता है या तन को, प्रवाह तो कभी अहसास से नहीं रुकता।

        वह बहता ही रहता है। पानी बहता ही रहता है। जीवन प्रवाह भी बहता रहता है। जिस तरह से अनुकूल पानी न मिलने से खेत सूख सकता है, पौधों का विकास रुक सकता है, उसी तरह से अनुकूल जीवन प्रवाह के न होने से दर्द का अहसास हो सकता है। सुख और शांति छिन सकती है, पर दर्द का अहसास कोई बुरी बात तो नहीं है।

         अगर बुरा होता, तो मीरा ने जहर न पिया होता। जीसस सूली पर न लटके होते। श्रीकृष्ण ने भील से बाण खाकर जीवन को न गंवाया होता। राम चौदह वर्ष के लिए वनवास नहीं जाते। महावीर को पत्थर, ढेले नहीं खाने पड़ते। गौतम बुद्ध को राज छोड़कर भटकना नहीं पड़ता और दर्द के अहसास के भय से दुनिया की हर औरत मां बनने को तैयार नहीं होती। बहरहाल, हर दर्द के पीछे कोई रहस्य है। दर्द एक अनुभूति है, भविष्य है और कोई अंतर्दीप की प्रच्च्वल शिखा पर यह सब जानते हुए भी दुनिया के लोग दर्द व दुख की कल्पना से डरते हैं। भागते हैं और इनसे मुक्ति पाने के लिए संघर्ष करते हैं। क्या आज तक कभी इंसान को दर्द से मुक्ति मिली है?

         जाने-अनजाने में आदमी उसी रास्ते पर चलता है, चल पड़ता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि जन्म का योग मृत्यु से है। प्यार का योग घृणा से है। सुख का योग दुख से है। आनंद का योग दर्द से है। मिलन का योग बिछुडऩे से है और संयोग का वियोग से। जब बच्चा जन्म लेता है, तो दर्द होता है, पर भीतर ही भीतर औरत को मां बनने में जो सुख का अहसास होता है उसे वह महसूस करती है। उसे दर्द की अनुभूति से लाखों गुना ज्यादा सुख और आनंद का अनुभव होता है। मनुष्य को जीवन के भौतिक सुखों का अहसास होता है। इसलिए इसे छोडऩे में वह दुखी होता है, क्योंकि वह उसे अपना समझता है। प्रेम तो एक अनुभव है, प्रेम हृदय-कमल का पुष्पित अंग है। प्रेम जब अंकुरित होता है, तब वृक्ष बनने का प्रयास करता है, पर बहुत कम लोग ही प्रेमरूपी वृक्ष को वृक्ष बनने देते हैं। प्रेम केवल थोड़ा ही विकसित होकर भोग बनकर रह जाता है। तभी तो आज का आदमी केवल अपने लाभ के लिए प्रेम करता है।

मनुष्य का जीवन स्वयं में एक अनसुलझी पहेली है


         अपार रहस्यों से भरा हमारा जीवन एक साथ अनेक दिशाओं में चलते हुए अनेक अर्थो को प्रतिपादित करता है। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति इस जीवन को अपने अनुरूप धारण करता है।

         जीवन के रहस्यों को जब हम जानने का प्रयास करते हैं, तो एक साथ कई रहस्य सामने आ जाते हैं। कभी यह विचार आता है कि हमारा जीवन सार्थक है। कभी निर्थक दिखता है, कभी भगवान पर शंका की उंगली उठती है। इस तरह के अनेक प्रश्न मन को झकझोरते रहते हैं। उनमें से एक प्रश्न यह भी उठता है कि हम अपने इष्टदेव को भगवान क्यों कहते हैं? इस भगवान शब्द का औचित्य क्या है? दरअसल, हम जब अपने इष्टदेव का नाम लेते हैं, तो हम उनके साथ अनेक श्रद्धावाचक शब्द जोड़ देते हैं। कभी-कभी तो हम अपने नाम के आगे या पीछे भी कई शब्द जोड़ते हैं जिसका अर्थ होता है, हम अपने से बड़ों को सीधे नाम लेकर नहीं पुकारना चाह रहे हैं। हमारा नाम तो साधारण होता है, लेकिन उसमें कुछ विशेषण लगा देने पर नाम का थोड़ा वजन बढ़ जाता है।

         प्रश्न यह उठता है कि हम अपने इष्टदेव को जब भगवान कहते हैं, तो भगवान शब्द को ठीक से समझ लेना चाहिए। मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ी अभिलाषा होती है कि उसे अधिक से अधिक आयु मिले, विद्या मिले, बल हो, अपार बुद्धि हो, ऐश्वर्य हो और शांति मिले। इन छह तत्वों की कामना हमारे जीवन में होती है, लेकिन मनुष्य का जीवन कामनाओं से भरा है, जिस कारण मरुभूमि की रेत की तरह जितनी हम कामनाओं की पूर्ति का प्रयास करते हैं, रेत पर पानी की बूंद की तरह सब विलीन होता रहता है।

         जो वस्तु हमारे पास नहीं होती और जिसे पाने की ललक मन में हमेशा बनी रहती है, अगर वह वस्तु किसी के पास होती है तो हम उसे अपने से अधिक श्रेष्ठ मानने लगते हैं। भगवान शब्द भग और वान से बना है। भग का अर्थ होता है आयु, विद्या, बल, बुद्धि, ऐश्वर्य और शांति का सम्मिलित स्वरूप और वान का अर्थ होता है जिनके पास ये तमाम शक्तियां हों, उसी को भगवान कहते हैं।

         जब हम अपने इष्टदेव की अर्चना, पूजा करते हैं, तो हम अपने इष्टदेव से यही चाहते हैं कि उनके पास जो ये समस्त गुण हैं, वे सभी हमें प्राप्त हों। परमात्मा की प्रार्थना में मनुष्य अपना आत्मिक विकास चाहता है।

Friday, February 20, 2015

जीवन को संपूर्णता के साथ जिया जा सकता है

                       हम सबकी लालसा रहती है कि हमेशा स्फूर्ति और उल्लास की स्थिति को कैसे प्राप्त किया जाए। जिस प्रकार शरीर अपनी शारीरिक और मानसिक भूख को मिटाने के लिए प्रयत्न करता है, उसी प्रकार आत्मा भी अपने स्वाभाविक गुण स्फूर्ति और उल्लास का अवसर प्राप्त करने के लिए लालायित रहती है, भले ही व्यावहारिक जीवन में वैसे अवसर न मिलते हैं।

                         वैसे स्फूर्ति शारीरिक समझी जाती है, पर उसके पीछे भी मानसिक प्रसन्नता छिपी रहती है। उल्लास की स्थिति तब आती है, जब मनुष्य भ्रम-जंजाल से निकलकर कल्याणकारी मार्ग पर संकल्पों के साथ आगे बढ़ता है। वैसे तो उल्लास असाधारण लाभ, यश के अवसर मिलने पर भी हासिल होता है, पर वह स्थायी नहीं रहता। समय-क्रम के अनुसार स्थिति में निरंतर परिवर्तन होता रहता है। ऐसी दशा सफलताओं के मिलने पर जो उल्लास महसूस होता है, लेकिन भौतिक वस्तुओं के सुखों से पृथक होने के कुछ समय बाद वह भी समाप्त हो जाता है। सुखद स्मृतियों की घटनाएं जब आंखों के आगे से होकर गुजरती हैं और उनके फिर से प्राप्त कर सकने का अवसर चला गया होता है तो कसक भरा पश्चाताप ही शेष रह जाता है, लेकिन आत्मिक उल्लास का कभी अंत नहीं होता, वह निश्चित संकल्पों के साथ अनंतकाल तक प्रगति की ओर बढता रहता है।

                      जब तक यश की दिशा में भाव उमड़ते रहेंगे और प्रयत्न चलते रहेंगे तब तक उल्लास में कभी कमी नहीं आती है। संकल्प अपना है, प्रयास अपना है, इसलिए उल्लास की सुखद अनुभूति भी अपनी है, न उसके घटने की आशंका है और न व्यवधान पडऩे की। यही है जीवन का आनंद जो शरीर क्षेत्र में स्फूर्ति के रूप में और मनक्षेत्र में उल्लास-मस्ती के रूप में सतत् अनुभव किया जा सकता है। उस सरसता का निरंतर रसास्वादन किया जा सकता है। जीवन को संपूर्णता के साथ जिया जा सकता है। स्फूर्ति और उल्लास का आनंद उठाना गलत बात नहीं, पर उसका साधन और प्रभाव उपयुक्त होना चाहिए। उचित रीति से जब तक इनकी पूर्ति नहीं होगी, तब तक उसका परिणाम सुखद नहीं हो सकता।

युवाओं के प्रेरणाक्षश्रोत स्वामी विवेकानंद

          विवेकानंद युवाओं के लिए एक बड़ा आदर्श हैं। हालांकि उनका सिर्फ 39 साल का जीवन रहा, इसके बावजूद उन्होंने अपने विचारों और कार्र्यों से पूरे विश्व को एक नई दिशा दी। स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व के गुणों को अपना कर कोई भी आगे बढ़ सकता है।

          आत्मविश्वासी बनें : स्वामी विवेकानंद के मुताबिक, आस्तिक वही है, जो खुद पर विश्वास करे। कोई व्यक्ति भगवान पर विश्वास करता है, पर खुद पर विश्वास नहीं करता, तो वह नास्तिक है। यानी आत्मविश्वास सबसे महत्वपूर्ण है। खुद पर भरोसा रखने से ही व्यक्ति कोई भी कार्य कर सकता है।

          तन-मन हो स्वस्थ : आत्मविश्वास को मजबूत करने के लिए स्वामी विवेकानंद ने तन और मन को मजबूत बनाने की शिक्षा दी। उन्होंने कहा कि गीता वीरों के लिए है, कायरों के लिए नहीं। यानी ज्ञान प्राप्त करने के लिए पहले शरीर और मन को मजबूत बनाएं।

          दूर करें हीनता-बोध : विवेकानंद ने लोगों के हीनता-बोध दूर करने के लिए ही सबको शिक्षा दी कि खुद को शरीर नहीं, आत्मा समझें। वह आत्मा, जो शक्तिशाली परमात्मा है। इससे हीनता बोध खत्म होता है और आत्मविश्वास बढ़ता है। इसलिए कभी भी ऐसी सोच न रखें कि मैं कमजोर, पापी या दु:खी हूं।

          संयम-अनुशासन : खुद पर नियंत्रण करना संयम होता है। संयमी व्यक्ति सारे व्यवधानों के बीच भी अपने कार्य को सहजता से आगे बढ़ाता रहता है। सेवा की भावना, शांति, कर्मठता आदि गुण संयम से आते हैं। संयमी व्यक्ति तनाव से मुक्त होता है, इसीलिए वह हर काम गुणवत्ता से करता है। विवेकानंद ने कहा है - किसी भी क्षेत्र में शासन वही कर सकता है, जो खुद अनुशासित है।

          भय को तिलांजलि दें : स्वामी विवेकानंद के मुताबिक, हमेशा यह सोचें कि मेरा जन्म कोई बड़ा काम करने के लिए हुआ है। यह सोचकर बिना किसी से डरे, अपने काम को ईश्वर का आदेश समझ कर करें। भय तब दूर हो जाएगा, जब हम खुद को अनश्वर आत्मा मानेंगे, नश्वर शरीर नहीं।

स्वावलंबी बनें : स्वामी जी ने कहा है कि भाग्य पर भरोसा न करें, बल्कि अपने कर्र्मों से अपना भाग्य खुद गढ़ें। 'उठो, साहसी और शक्तिमान बनो।Ó इसमें आत्मनिर्भर बनने का सूत्र दिया गया है। स्वामी जी कहते हैं कि सारी शक्ति तुम्हारे अंदर ही है। तुम्हींअपने मददगार हो, कोई दूसरा तुम्हारी मदद नहींकर सकता। भगवान भी उसी की मदद करता है, जो अपनी मदद खुद करता है। यानी स्वावलंबी बनना आवश्यक है।

सेवा परमोधर्म: : स्वामी जी ने नि:स्वार्थ भाव से सेवा को सबसे बड़ा कर्म माना है। सेवा भाव का उदय होने से व्यक्ति दूसरों के दुखों को दूर करने की चेष्टा में अपने दुखों या परेशानियों को भूल जाता है और उसके तन-मन की सामथ्र्य बढ़ जाती है।

आत्मशक्ति जगाएं : विवेकानंद के अनुसार, आत्मा परमशक्तिशाली है, वही ईश्वर है। इसलिए अपने आत्म-तत्व को पहचानकर उसकी शक्ति को जगाएं। तब आप स्वयं को ऊर्जावान महसूस करेंगे। असफलता से परेशान होकर अपने प्रयासों को छोड़े नहीं और किंचित सफलता पाकर संतुष्ट होकर बैठें नहीं। स्वामी जी ने कहा, उठो, जागो और लक्ष्य पाने तक नहीं रुको।

क्या आप जानते हैं आप दुखी क्यों हैं

           इन दिनों प्रत्येक व्यक्ति अपनी उदासी और अपने दुखों का कारण दूसरे व्यक्ति को मान रहा है। वह दुखी क्यों है, उदास और हताश क्यों है? इसके लिए वह दूसरों को कारण मानता है। समाज का प्रत्येक व्यक्ति उसके दुख का कारण है।

           वह उदास है, इसलिए नहीं कि उसने अपने मन में विकार पाल रखा है, बल्कि इसलिए कि संसार के लोग नहीं चाहते कि वह खुश रहे। चौराहे पर खड़े लोग एक-दूसरे को अपने दुख और अपनी उदासी के लिए उलाहना दे रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति यही कह रहा है कि आजकल सभी लोग बुरे हो गए हैं और केवल वही सही है। ऐसे ही लोग मानसिक रूप से दरिद्र होते हैं। अगर वे दरिद्र हैं तो अपने कारण से किसी दूसरे के कारण नहीं, लेकिन अपनी भूल कोई नहीं मानता। अपना चेहरा कोई नहीं देखना चाहता, क्योंकि उसे अपनी कुरूपता से डर लगता है। दूसरे की कुरूपता से उसे मजा आता है। यह बड़ी अजीब बात है। लोग दूसरे की प्रसन्नता में मजा लेते हैं और ऐसे लोग अपनी ही उदासी और दुख में मजा लेते हैं। यह एक तरह की मानसिक कुरूपता है जिससे हमें मुक्ति पाना बेहद जरूरी है। ऐसे लोगों के जीवन में न कोई प्रेम होता है और न कोई आकर्षण होता है। ऐसे ही लोग प्रत्येक सुंदरता और आकर्षण के विरोधी होते हैं। मनोविज्ञान में ऐसे लोगों को आत्महंता कहते हैं।

          परमात्मा ने तुम्हें सुंदर बनाया है, लेकिन तुम कुरूप बनकर दूसरों को दुखी कर रहे हो। अपनी कुरूपता से किसी को दुखी करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। आप कुरूप रहना चाहते हो, रहो। लेकिन अपनी कुरूपता से दूसरों को क्यों दुखी कर रहे हो। अपना कुरूप चेहरा, उदास, दुखी और हताश मुखमंडल दूसरों को क्यों दिखाना चाहते हैं। आप केवल यह साबित करना चाहते हो कि मैं दुखी हूं। सभी लोग मेरे पास आएं और मुझे अपनी सहानुभूति दें, मुझे प्रेम करें, लेकिन आप किसी को प्रेम न करें। इसी स्वार्थ के कारण ऐसे उदास, हताश लोगों से सभी घृणा करते हैं। ऐसे ही लोग न स्वयं जीना चाहते हैं और न दूसरों को जीने देना चाहते हैं। यह उदासी आज पूरे समाज में प्रत्येक परिवार में बड़ी तेजी से फैल रही है। पति-पत्नी, बाप-बेटा, भाई-भाई एक दूसरे से दुखी हैं।

समस्याएं क्यों होती है और क्या है इसका समाधान

          धूप और छांव की तरह जीवन में कभी दुख ज्यादा तो कभी सुख की स्थितियां ज्यादा होती हैं। जिंदगी की सोच का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि जिंदगी में जितनी अधिक समस्याएं होती हैं, सफलताएं भी उतनी ही तेजी से कदमों को चूमती हैं।

          समस्याओं के बगैर जीवन के कोई मायने नहीं हैं। समस्याएं क्यों होती हैं, यह एक विचारणीय प्रश्न है। यह भी एक प्रश्न है कि हम समस्याओं को कैसे कम कर सकते हैं। इस प्रश्न का समाधान आध्यात्मिक परिवेश में ही खोजा जा सकता है। अति चिंतन, अति स्मृति और अति कल्पना-ये तीनों समस्याएं पैदा करती हैं। शरीर, मन और वाणी-इन सबका उचित उपयोग होना चाहिए। यदि इनका उपयोग न हो, इन्हें बिल्कुल काम में न लें तो ये निकम्मे बन जाएंगे। यदि इन्हें बहुत ज्यादा काम में लें, अतियोग हो जाए तो ये समस्या पैदा करेंगे। इस समस्या का कारण व्यक्ति स्वयं है और वह समाधन खोजता है दवा में, डॉक्टर में या बाहर ऑफिस में। यही समस्या व्यक्ति को अशांत बनाती है। जरूरत है संतुलित जीवन-शैली की। जीवन-शैली के शुभ मुहूर्त पर हमारा मन उगती धूप की तरह ताजगी-भरा होना चाहिए, क्योंकि अनुत्साह भयाक्रांत, शंकालु और अधमरा मन समस्याओं का जनक होता है। यदि हमारे पास विश्वास, साहस, उमंग और संकल्पित मन है, तो दुनिया की कोई ताकत हमें अपने पथ से विचलित नहीं कर सकती।

          हम सबसे पहले यह खोजें, जो समस्या है उसका समाधान मेरे भीतर है या नहीं? बीमारी पैदा हुई, डॉक्टर के पास गए और दवा ले ली। यह एक समाधान है पर ठीक समाधान नहीं है। पहला समाधान अपने भीतर खोजना चाहिए। एक व्यक्ति स्वस्थ रहता है क्या वह दवा या डॉक्टर के बल पर स्वस्थ रहता है या अपने मानसिक बल यानी सकारात्मक सोच पर स्वस्थ रहता है? हमारी सकारात्मक सोच अनेक बीमारियों और समस्याओं का समाधान है। जितने नकारात्मक भाव या विचार हैं, वे हमारी बीमारियों और समस्याओं से लडऩे की प्रणाली को कमजोर बनाते हैं। प्राय: यह कहा जाता रहा है-ईष्र्या मत करो, घृणा और द्वेष मत करो। एक धार्मिक व्यक्ति के लिए यह महत्वपूर्ण निर्देश है, किंतु आज यह धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बन गया है। विज्ञान ने यह प्रमाणित कर दिया है कि जो व्यक्ति स्वस्थ रहना चाहता है उसे निषेधात्मक भावों से बचना चाहिए।

संशय एक प्रकार से मनुष्य के जीवन का विकार है-

          संशय मनुष्य के जीवन के विकास का बड़ा अवरोधक है। संशय का अर्थ है कि किसी वस्तु के न होने पर भी आशंका से भयभीत होना। संशय का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। दरअसल, यह होता ही नहीं है। यह काल्पनिक भावना है, जो हमारी आंखों पर धुएं की तरह छा जाती है।

          संशय एक प्रकार से मनुष्य के जीवन का विकार है। जो संशय अस्तित्वहीन होने पर भी सारे जीवन को प्रभावित कर देता हो, उस संशय के संदर्भ में मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य स्वयं इस कल्पना का निर्माण कर लेता है और फिर उससे भयातुर होकर कांपने लगता है। संशय से मुक्ति का सबसे सरल उपाय यही है कि मनुष्य प्रभु की शरणागति में समर्पित हो जाए। सच्चे मन से प्रभु के लिए समर्पित व्यक्ति को परमात्मा में विश्वास हो जाए तो वह एक ही साथ क्रोध, भय और संशय से मुक्त हो जाता है, लेकिन प्रश्न यह है कि हम कितनी आस्था और विश्वास से परमात्मा के चरणों में सिर नवाते हैं।

          जो परमात्मा इस ब्रह्मांड के नियंता है, जो स्वयं सृष्टि का कारण है, उसकी शरणागति में जाने वाला कैसे भ्रामक मनोवेग से ग्रस्त हो सकता है? संशय में मनुष्य अपनी शक्ति को भुला देता है, उसमें जो कार्य करने की शक्ति है, उसे नष्ट कर देता है, वह कंपित होने लगता है और उससे उसके जीवन में निराशा आ जाती है।

          अंतत: संशय से ग्रस्त व्यक्ति मनुष्य जीवन से हताश होकर अकर्मण्य की स्थिति में पहुंच जाता है। संशय एक साथ संपूर्ण शरीर को निष्क्रिय कर देता है। उसके जीवन की सारी विकास यात्रा रुक जाती है और वह अपने भाग्य पर रोते-रोते जीवन गंवा देता है। स्पष्ट है, संशय एक नकारात्मक भाव है और नकारात्मकता से नकारात्मक भाव ही उत्पन्न होता है, सकारात्मक भाव नहीं। इसलिए जब तक नकारात्मक भाव को नहीं छोड़ा जाता, तब तक आशा का दीपक प्रज्ज्वलित नहीं हो सकता।

          परमात्मा में विश्वास रखने वाला व्यक्ति हमेशा संशय से मुक्त होता है और अपनी विवेकशक्ति को जाग्रत कर जीवन में अवरोध पैदा करने वाले तमाम विकारों को नष्ट करने की कला जान जाता है। शरीर में विकार होना तो स्वाभाविक है। काम, क्रोध, भय और संशय ये सारे विकार जीवन को संतुलित होने से रोकते हंै, लेकिन विवेकी पुरुष इन विकारों को अपने जीवन में नहीं आने देते और अपने जीवन को सार्थक बनाने में लगे रहते हैं।

क्षमा से प्रेम बढ़ता है और द्वेष से घृणा

          क्षमा साधकों का एक बड़ा गुण है। क्षमा के सामने आतंकी भी शर्मिदा हो जाता है। यही पशुबल पर आत्मबल की विजय है। परमाणु बम केवल ध्वंस कर सकता है, किंतु क्षमा की कोख से अभिनव निर्माण का जन्म होता है।

          एक अंग्रेज विचारक ने स्वीकार किया है कि गांधी की क्षमाशीलता के समक्ष विजय की चाह हमें असहाय बना देती थी। हृदय संपूर्ण व्यक्तित्व का राजा है। हृदय से निकली क्षमावृत्ति दूसरों का दिल जीत लेती है, जबकि युद्ध शरीर को जीतने की भाषा बोलता है। अक्रोध से क्रोध, प्रेम से घृणा और क्षमा से आतंक का अंत हो जाता है। आतंक एक मनोरोग है, जिसकी अचूक औषधि क्षमा ही है। क्षमा वह ताकत है जो आततायी को झुकने के लिए मजबूर कर देती है।

          सद्भाव ही हृदय परिवर्तन का एकमात्र उपाय है। प्रतिहिंसा इंसानी दुर्बलता है और क्षमा वीरों का आभूषण है। इसीलिए ईसा ने शत्रुओं से भी प्यार करने की बात की है। अहंकार के दंश और अंतहीन प्रतिहिंसा से निजात तभी मिल सकती है जब हृदय में क्षमा का वर्चस्व कायम हो जाता है। वर्तमान पीढ़ी इतनी प्रतिक्रियावादी है कि वह एक शब्द सहन करने के लिए तैयार नहीं है। डॉक्टरों के अनुसार क्षमावृत्ति अपनाने से मानसिक तनाव उत्पन्न करने वाले हार्मोन भी क्षीण हो जाते हैं। क्षमा का भाव जगने से अनिद्रा, अवसाद और हृदयाघात की संभावना कम हो जाती है। शत्रुता एक प्रकार से सतत चलने वाला 'क्रोध है। भारतीय ऋषियों ने स्पष्ट कहा है कि जो व्यक्ति क्षमा करने के बाद भी शत्रुता नहीं भूलता है तो यह मान लेना चाहिए कि उसने क्षमा की ही नहीं। तनाव को जीतना क्षमा की जीत है।

          भारतीय धर्म-दर्शन की मान्यता है कि क्षमा वही कर सकता है, जो शक्तिमान हो। निर्बल व्यक्ति क्षमा नहीं कर सकता। क्षमा करने से मन शांत हो जाता है और मन में प्रतिशोध का भाव खत्म हो जाता है। ध्यान रहे, जब तक मन में किसी व्यक्ति के प्रति प्रतिशोध का भाव रहता है तब तक उसे शांति हासिल नहीं हो सकती। नि:संदेह शांति से बढ़कर इस विश्व में कुछ भी नहीं है। शांति आपकी सकारात्मक सोच में निहित है और क्षमा एक बड़ा सकारात्मक गुण है।

मनुष्य बौद्धिक प्राणी होने के साथ-साथ सामाजिक प्राणी भी है

           मनुष्य बौद्धिक प्राणी होने के साथ-साथ सामाजिक प्राणी भी है। इसीलिए स्वभावत: मनुष्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अंत:क्रिया करता है। पारस्परिक क्रियाएं, जिनका संबंध भावना, संवेग, इच्छा आदि से न होकर विशुद्ध विवेक से होता है और ये क्रियाएं प्रत्यक्ष या परोक्ष, तत्काल या तदोपरांत, अच्छे या बुरे रूप में व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं, जिन्हें आचरण कहा जाता है।

          अगर आपके आचरण से किसी अन्य व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक या अन्य किसी तरह से नुकसान नहीं पहुंचता, तो उसे अच्छा आचरण और जिस आचरण से किसी व्यक्ति का अकारण नुकसान होता है, तो उसे बुरा आचरण कहा जाता है।

          मनुष्य की सामाजिकता यानी अन्य लोगों के साथ संबंध बनाकर रहने की प्राकृतिक और स्वाभाविक बाध्यता मानवीय आचरण के लिए एक अपरिहार्य मांग करती है। वह मांग है-आचरण का नैतिक मूल्यांकन। इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य आंतरिक और स्वैच्छिक रूप से इस प्रकार का आचरण करे, जो सामाजिक कल्याण के अनुकूल हो। यदि ध्यान से देखा जाए तो समाज में आचरण संबंधी मूल्यों को प्रतिस्थापित करने में कुछ ही लोग या वर्ग होते हैं, जैसे शिक्षक, राजनेता, धार्मिक गुरु, सिनेमा के नायक और नायिकाएं आदि। इस वर्ग को हम संवेदनशील समूह कह सकते हैं।

          प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामान्य लोग इनका अनुसरण करने लगते हैं। इस वर्ग को अपना उत्तरदायित्व समझना चाहिए, तभी समाज का कल्याण हो सकता है। इस वर्ग के द्वारा किए गए गलत कार्यो की भर्तसना की जानी चाहिए और अच्छे कार्यो की प्रशंसा भी आवश्यक है। संवेदनशील समूह के द्वारा किए गए अवमूल्यात्मक आचरण व चरित्र को अक्षम्य माना जाए, तभी समाज से बुरे आचरण का लोप संभव होगा। इसके अलावा आचरण को सुधारने में धार्मिक पुस्तकों या सत्साहित्य का भी अमूल्य योगदान है। यदि आप 'गीताÓ में भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों पर पांच फीसदी भी अमल करते हैं तो आपके जीवन में सकारात्मक सोच के साथ सदाचरण की भी शुरुआत होने लगती है। वस्तुत: विभिन्न धर्मों के विविध धर्मग्रंथ हमें सदाचरण पर चलने का ही संदेश देते हैं। सदाचरण से जीवन में सुख, शांति और आनंद का अहसास किया जा सकता है।

परमात्मा सर्वत्र है, बशर्ते आपके पास 'दृष्टि हो

          यह सामान्य मन की प्रक्रिया है कि वह साधन और लक्ष्य को पृथक-पृथक देखता है। मन की इसी प्रक्रिया के कारण मानव लक्ष्य की आशा में जीवन के प्रतिपल आनंद को विलीन कर देता है और जब लक्ष्य प्राप्ति भी हो जाता है तो उससे भी संतुष्ट नही होता, बल्कि पुन: नवीन लक्ष्य को निर्मित कर उसकी प्राप्ति के लिए जीवन को बलिवेदी पर लगा देता है।

          जीवन पर्यंत यही प्रक्रिया चलने के बाद जीवन के अंतिम छोर पर उसे आभास होता है कि उसे तो कुछ प्राप्त ही नहीं हुआ और जीवन भी समाप्त हो गया, तो सिर्फ हाथ मलने के अतिरिक्त शेष कुछ नहीं रहता। वर्तमान परिवेश में भौतिकता के नशे में चूर प्रत्येक व्यक्ति धन कुबेर बनने की प्रबल इच्छा लिए जीवन के रस को भूल गया है। दिन-रात इकाई, दहाई और सैकड़ा में उलझे व्यक्ति के पास आत्म-साधना के लिए समयाभाव है, जबकि धनार्जन के लिए वह समस्त मर्यादाएं त्यागकर उत्सुक होता है। यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर मानव को कितना धन चाहिए, जो उसके जीवन की तृष्णाओं को पूर्णकर सके?

          आखिरकार इसी धन के लिए तो उसने प्रसन्नता के समस्त द्वार बंद कर स्वयं को मशीन बनाया हुआ है। जब तक मानव अपने तथा परिवार के भरण-पोषण के लिए सीमित साधनों से आय अर्जित करता रहा, तब तक वह सुखमय जीवन का स्वामी बना रहा, लेकिन जब वह येन-केन-प्रकारेण धनार्जन कर लक्ष्यों की प्राप्ति की अंधी दौड़ में शामिल हो गया, तो उसकी प्राप्ति में उसने जीवन रस खो दिया। उसने कल-कल करती जीवन सरिता को एक पोखर में परिवर्तित कर दिया। धन के प्रति जरूरत से ज्यादा आसक्ति ने मानव को असली आनंद से दूर कर दिया। इस कारण मानवीय रिश्ते तार-तार हो गए और समाज से संस्कार व मूल्य विलुप्त हो गए।

          संक्षिप्त रूप से मानव मन की सामान्य प्रक्रिया ने भस्मासुर का रूप लेकर जीवन को ही भस्म कर दिया। जिस मन पर मानव का स्वामित्व होना चाहिए था, वह उसका मात्र दास बनकर रह गया। बेहतर यही रहेगा कि मानव आत्मपीड़क न बनकर आत्मसाधक बने और भौतिक लक्ष्यों के स्थान पर आध्यात्मिक लक्ष्य निर्मित कर ज्ञान से इंद्रियों से पार पाए। परमात्मा सर्वत्र है, बशर्ते आपके पास 'दृष्टि हो।

भक्ति मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ संपदा है

          भक्ति तत्व भौतिक जगत से जुड़े हुए हमारे अस्तित्व-बोध को आध्यात्मिक जगत की परम अनुभूति से भली-भांति जोड़ देता है। हम सभी सामाजिक भावना से भी ओतप्रोत हैं, जिसकी सीमा भौगोलिक भावना से बड़ी है। सामाजिक भावना भौगोलिक सीमा में बंधी नहीं रहती, बल्कि किसी विशेष समुदाय से संबंधित लोगों के मस्तिष्क पर छाई रहती है।

          इससे प्रभावित मनुष्य केवल अपने समुदाय के कल्याण के बारे में ही सोचता रहता है। अपने लोगों का कल्याण करने की धुन में दूसरों का अहित करने से भी नहीं हिचकिचाता। इसके अतिरिक्त मानवतावाद एक अन्य भावना है। अतीत में इस धरती पर ऐसे बहुत से लोगों ने जन्म लिया है, जिनकी आंखें पीडि़त मानवता के दुखों को देखकर आंसुओं से भींग गईं। मनुष्य को समझबूझकर चलना होगा। अपने अस्तित्व की रक्षा करते समय अपने परिवेश को भी बचाना होगा।

          मनुष्य के भीतर प्राणों का जो छंदमय स्पंदन है वही मनुष्य को मानवतावाद की ओर आकर्षित करता है। इसी सत्ताबोध को यदि समग्र विश्व ब्रह्मांड में फैला दिया जाए, तभी मनुष्य के रूप में हमारा अस्तित्व पूरी तरह सार्थक होगा। अपने आंतरिक प्रेम को समस्त जीव-जगत में फैलाने की यह जो भावना है, इसके पीछे एक विराट सत्ता की उपस्थिति को भी स्वीकार करना होगा। वह विराट सत्ता मानवतावाद की भावना को समस्त दिशाओं में फैलाएगी।

          हमारे मन में संपूर्ण जीव-जगत के प्रति ममत्व पैदा करेगी। भक्ति मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ संपदा है। इस विश्व ब्रह्मंड के समस्त अणुओं, परमाणुओं, इलेक्ट्रान, न्यूट्रान आदि अदृश्य शक्ति ईश्वर की ही अभिव्यक्तियां हैं। जो लोग इस तथ्य को अच्छी तरह समझकर, इस अनुभूति को अपने हृदय में हमेशा संजोकर रखे रहते हैं, उन्हीं का अस्तित्व और जीवन सार्थक है। वही सच्चे भक्त हैं।

          अंतत: भक्ति तत्व को पूरे विश्व में फैलाना उनके जीवन का उद्देश्य हो जाता है। इस तथ्य को केंद्रित कर मानवतावाद की भावना को, मानवजाति की सीमा को तोड़ते हुए, उसे जब संपूर्ण चर-अचर जगत में फैला दिया जाता है, उसी भावना का नाम मैंने नव्य मानवतावाद रखा है। यह नव्य-मानवतावाद लोगों को मानवतावाद के धरातल से ऊपर उठाकर उन्हें विश्व एकतावाद में स्थापित कर समस्त जगत और जीवों को अपना समझकर उनसे प्रेम करना सिखाएगा।

संस्कार वह है जिसके करने से कोई पदार्थ उपयोगितापूर्ण बन जाता है

          संस्कारों का उद्देश्य हिंदू संस्कृति की पृष्ठभूमि में व्यक्ति का समाजीकरण करना है। इसलिए व्यक्ति को पवित्र बनाने वाले विभिन्न अनुष्ठानों और क्रिया-कलापों को ही हम संस्कार कहते हैं।

          संस्कार पूर्णतया धार्मिक ही नहीं होते, बल्कि ये सामाजिक बी होते हैं, जिसकी अभिव्यक्ति हमारे सामाजिक जीवन में होती है। संस्कार वह विधि-विधान है, जो व्यक्ति को जैविक, मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्राणी बनाने में सहायक होता है। संस्कार व्यक्ति के क्रमिक विकास की प्रक्रिया से संबद्ध होते हैं। इनका आधार व्यक्ति की आंतरिक क्षमताओं का सही रूप से मार्ग-दर्शन करना है।

          संस्कारों का उद्देश्य मानव के सरल मन और उसकी विशेषताओं को अभिव्यक्त करना है। अशुभ शक्तियों से व्यक्ति की रक्षा करना है, अभीष्ट इच्छाओं की प्राप्ति कराना है। संस्कारों के द्वारा ही व्यक्ति में नैतिक गुणों का विकास होता है। संस्कारों का अत्यधिक महत्वपूर्ण उद्देश्य आंतरिक शक्तियों का उन्नयन करना है। गर्भाधान संस्कार से लेकर मृत्यु तक के सभी संस्कार इसलिए बनाए गए हैं कि इनसे समाज का हित हो और समस्त प्राणि मात्र योग्य बने।

          संस्कार का अभिप्राय केवल वाह्य धार्मिक क्रिया-कलापों, अनुष्ठानों, व्यर्थ के आडंबरों, कोरे कर्मकांडों आदि औपचारिकताओं से नहीं हैं। जैसा कि साधारणतया समझा जाता है। संस्कार शब्द का पर्याय वह कृत्य है, जो आंतरिक और आत्मिक सौंदर्य को अभिव्यक्त करता है। इसलिए मीमांसा सूत्र में कहा गया है कि संस्कार वह है जिसके करने से कोई पदार्थ उपयोगितापूर्ण बन जाता है। इसलिए संस्कार प्रमुख ऋणों से उऋण होने के एकमात्र साधन हैं। ऋण शब्द को मीमांसाकारों ने प्रतीकात्मक स्वरूप में लिया हैं यानी मनुष्य मात्र के अलावा प्रत्येक जीव मात्र के प्रति कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए। इस प्रकार संस्कार का आधारभूत उद्देश्य स्वधर्म पालन द्वारा आध्यात्मिकता और मोक्ष की साधना करना है।

          धर्मशास्त्रों के अनुसार की गई कामना और उसकी पूर्ति और वेद विहित धार्मिक आचरण और क्रिया-कलापों के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति संभव है। अधर्म से की गई इच्छाओं की पूर्ति कभी भी मोक्ष प्राप्ति का साधन नहीं हो सकता। संस्कार शब्द भले ही प्राचीनकाल से प्रयुक्त हो रहा हो, किंतु आज भी उतना ही प्रासंगिक है। आज के बदलते परिवेश में और आधुनिकीकरण के वातावरण में भी मनुष्य को नैतिक मूल्यों, आचरणों और संस्कारों के संवर्धन की अत्यंत आवश्यकता है, जिसके बल पर ही व्यक्ति का समग्र विकास संभव है

दिव्यलोक के परमतत्व से ब्रह्मंड को शक्ति प्राप्त होती है


         परा शक्ति -परा का अर्थ होता है ब्रह्म विद्या और आध्यात्मिक तथ्यों का विवेचन करने वाला। ब्रह्मंड का अर्थ यही लगाया जाता है कि जहां दृश्य-अदृश्य जीवों और प्राण-ऊर्जा का संचरण होता है। इसके विस्तार की कल्पना असंभव जान पड़ती है, लेकिन कुछ लोगों ने अनुमान लगाया है कि इस समस्त ब्रह्मंड का क्षेत्रफल 50 करोड़ प्रकाशवर्ष होना चाहिए।

          संपूर्ण ब्रह्मंड को समझने के लिए बहुत दिमाग लगाने पर थोड़ी बहुत बात समझ में आ सकती है, लेकिन इस विराट ब्रह्मंड के किसी एक अंश को अगर समझा जाए तो उसी के अनुसार संपूर्ण ब्रह्मंड की कल्पना की जा सकती है। पहले अंश को समझें तब अंशी को समझे। जिस मूल उद्गम से यह अंश पैदा हुआ है, इसी के द्वारा अंशी तक पहुंचने का प्रयास किया जा सकता है।

          वैसे ब्रह्मांड का अर्थ है-जहां से अंतरिक्ष की उत्पत्ति हुई है और जहां से रेडियो सक्रिय किरणों वायुमंडल को प्रभावित करती हैं, जो सब का आदि कारण हो, जहां से ब्रह्म की उत्पत्ति हुई हो और जो संपूर्ण विश्व को प्राणवायु संचारित करता हो। उसी को लौकिकता के आधार पर ब्रह्मंड कहा जाता है। यहां इस प्रश्न पर भी विचार करना चाहिए कि इस ब्रह्मंड को शक्ति प्रदान करने वाली दिव्यशक्ति कौन है? अध्यात्म में उसी दिव्यशक्ति को दिव्यलोक कहा जाता है, जहां तत्वरूप में परमात्मा का मूलस्थान माना जाता है। उसी परमतत्व से ब्रह्मंड को शक्ति प्राप्त होती है। भारत के आध्यात्मिक संत उसी परमलोक में जाकर परमानंद की अनुभूति प्राप्त करना चाहते हैं। स्थूल शरीरधारी जीव शरीर छोड़कर उसी दिव्यलोक में जाकर ब्रह्मतत्व में विलीन हो जाते हैं। इसीलिए इस रहस्यमय दिव्यलोक को 'नेति कहा जाता है। जिसका कोई अंत न हो। यह तो ब्रह्मंड की बात हुई। विज्ञान में इसी ब्रह्मंड को कॉस्मोलॉजी साइंस के नाम से जानते हैं और इसी से कॉस्मिक डस्ट या धूल की चर्चा विज्ञान में होती है। इसी को चिदाकाश भी कहा जाता है। यह कॉस्मिक धूल कहां से आती है, विज्ञान इसका उत्तर देने में असमर्थ है, लेकिन अध्यात्म कहता है कि यह कॉस्मिक धूल दिव्यलोक से आती है।

प्रात:काल का समय हमारे जीवन में बड़ा महत्व है

          प्रात:काल का समय हमारे जीवन में बड़ा महत्व रखता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि वहीं से हमारा दिन प्रारंभ होता है। इसलिए प्रात:काल को अपने विवेक से प्रारंभ करना चाहिए। हमारे जीवन का कोई भी पल अगर मनोविकारों से ग्रस्त होता है तो हम मानसिक रूप से अस्त-व्यस्त हो जाते हैं।

          हमारी थोड़ी-सी भूल हमारे जीवन को कांटों से भर देती है। मनोविकारों में काम, क्रोध, लोभ और मद प्रमुख हैं। वे हमारे संतुलित जीवन में असंतुलन पैदा कर देते हैं। इसका कारण यह है कि जो व्यक्ति रात में पूरी नींद सोता है, वह सुबह अनमना बन जाता है। उसके मन में कोई प्रसन्नता नहीं होती। वह उखड़ा-उखड़ा अपना दिन प्रारंभ करता है और ऐसी ही अवस्था में वह क्रोधी बन जाता है।
 
          सुबह का क्रोध दिन भर उसे उद्विग्न बनाए रखता है। हमें कोई चीज अच्छी नहीं लगती। बात-बात में मित्रों से लड़ पड़ते हैं। एक प्रकार से हम क्रोध के वशीभूत होकर पागल की तरह व्यवहार करने लगते हैं। सुबह का क्रोध विष के समान होता है, जो हमें अपनों से दूर कर देता है और मित्रों के मन में घृणा पैदा कर देता है। क्रोधी व्यक्ति को समाज में सम्मान नहीं मिलता। कामी व्यक्ति और अहंकारी व्यक्ति दोनों को लोग अछूत की नजरों से देखते हैं, लेकिन जो लोग सत्संग में बैठते हैं, विवेक की बात करते हैं, वे सबसे पहले प्रयास करते हैं कि उनका प्रात:काल आनंदमय हो। ऐसा इसलिए, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति खुश रहने के बारे में सोचता जरूर है, लेकिन रह नहीं पाता।

          अगर हम प्रात:काल को आनंद रूप में स्वीकार करें, उगते हुए लाल सूर्य का प्रसन्नतापूर्वक स्वागत करें, मंद-मंद बयार में शरीर को प्रफुल्लित करें और हंसते हुए मुस्कुराते हुए दिन का स्वागत करें तो कोई कारण नहीं है कि हमारा दिन खराब हो। काम के वशीभूत हो, और मद के वशीभूत हो, अगर हम दिन का प्रारंभ करेंगे तो सारा दिन विकृतियों से भर जाता है। मनोवैज्ञानिक मानने लगे हैं कि प्रात:काल बिस्तर परित्याग के बाद प्रसन्नतापूर्वक अच्छे विचारों का धारण करना चाहिए और किसी भी कारण से क्रोध के वशीभूत न हो, ऐसा उपाय करना चाहिए। साधना में जो लोग उतरते हैं, वे सबसे पहले यह प्रयास करते हैं कि मन को विकृति से दूर रखते हुए आनंद के क्षेत्र में प्रवेश करें। जिस प्रकार स्वस्थ रहना हमारा मूल धर्म है, उसी प्रकार प्रसन्न रहना भी हमारा अधिकार है।

अन्न से ही जीवन का संचरण होता है

           भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि अन्न से ही जीवन का संचरण होता है। शरीर की रक्षा के लिए आहार एक महत्वपूर्ण साधन है। शरीर की बनावट और उसकी आवश्यकता को देखते हुए अलग-अलग ढंग से प्रत्येक जीव के लिए आहार निर्धारित हैं। एक ओर जहां मनुष्य के लिए सुपाच्य आहार बनाया गया वहीं दूसरी ओर पशु-पक्षियों के लिए दूसरे प्रकार के आहार की व्यवस्था की गई। मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, जिसके लिए सुपाच्य और सुगम आहार की व्यवस्था इसलिए की गई है, क्योंकि उसकी पाचन क्रिया सामान्य होती है। हर हालत में गरिष्ठ या भारी आहार से बचने की सलाह दी गई है।

          दरअसल, यह वैज्ञानिक तथ्य भी है। जब आहार पेट में जाता है तो शरीर की सारी ऊर्जा या शक्ति उसे पचाने में लग जाती है। शरीर में जो ऊर्जा है उसी से मनुष्य चिंतन करना है, प्रसन्न रहता है और हंसता-बोलता है। अगर यह ऊर्जा भोजन पचाने में लग जाए तो शरीर का दूसरा काम लगभग बंद हो जाता है। यही कारण है कि जो लोग अपने मस्तिष्क से अधिक काम लेते हैं, उनकी सारी ऊर्जा व शक्ति उसी में खर्च हो जाती है और आहार पचाने में ऊर्जा की कमी हो जाने से पाचन क्रिया ठीक से काम नहीं करती। जितने भी बड़े-बड़े चिंतक और विचारक हुए हैं वे सभी नाममात्र का आहार ग्रहण करते थे। महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन अल्प आहार ग्रहण किया करते थे। ऐसा कहा जाता है कि कणाद ऋषि अन्न के कुछ कण लेकर ही स्वस्थ जीवन जीते थे और निंबार्क नीम की छाल खाकर ही दार्शनिक सिद्धांतों की विवेचना किया करते थे। स्पष्ट है कि शरीर को संचालित करने के लिए अत्यंत सामान्य भोजन की आवश्यकता है। जो लोग शरीर से अधिक परिश्रम करते हैं और मस्तिष्क से कम काम लेते हैं उन्हें अधिक भोजन की आवश्यकता होती है।

          सरल और सुपाच्य आहार ही ग्रहण करें। हमारे यहां उपवास का जो विधान है उसका अर्थ यही है कि जब पेट खाली हो तो जिस व्रत का अनुष्ठान आप कर रहे हैं उसके चिंतन में आपके शरीर की सारी ऊर्जा मदद करेगी। जब ऊर्जा का बहाव मस्तिष्क की ओर पूरी शक्ति से होने लगेगा तो मस्तिष्क का विकास होगा और जब पेट की ओर होने लगेगा तो पेट का विकास होगा। आहार का महत्व शास्त्रों में निर्धारित किया गया है। जो साधक होगा, जो जिज्ञासु होगा उसका आहार सरल व सुपाच्य होगा।

प्रेम, समर्पण, ईमानदारी व निष्ठा से बनाई जगह घर कहलाता

          अक्सर लोग सुख के लिए बाहर घूमने जाते हैं, पिकनिक पर जाते हैं और संबंधियों के यहां जाते हैं। इसके बावजूद वास्तविक सुख उन्हें इन स्थानों पर भी प्राप्त नहीं होता। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह सुख उनके अपने घर में ही उपलब्ध होता है।

          एक दार्शनिक का कहना भी है कि 'घर मात्र ईंट-पत्थरों से बना हुआ मकान नहीं होता, बल्कि घर वह होता है जिसे परिवार के सदस्य मिलकर बनाते हैं। यदि लोग प्रेम, समर्पण, ईमानदारी और निष्ठा से रहें, तो उन्हें स्वर्ग का आनंद और सुख अपने घर में ही मिलेगा। घर एक ऐसा स्थान होता है, जहां पर व्यक्ति अपनी मर्जी से अपने स्वाभाविक रूप में रहता है। यहां उसे किसी मुखौटे की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके विपरीत बाहर निकलने पर व्यक्तियों को अनेक अवसरों पर झूठी मुस्कान और झूठ का सहारा लेना पड़ता है, लेकिन फिर भी उन्हें सुकून नहीं मिलता। सुकून और सुख का स्थान घर ही है। प्रसिद्ध विद्वान लांगफेलो का कहना है कि 'अपने घर से प्रेम करने वाले और उसके प्रति निरंतर आकर्षण प्राप्त करने वाले व्यक्ति ही संसार के सबसे अधिक सुखी प्राणी हैं।

          आज घर में व्यक्तियों को सुकून नहीं है। अक्सर घर के सदस्य जब बाहर से लौटते हैं तो थके हुए तनावग्रस्त और चिंताओं से घिरे होते हैं। ऐसे में यदि वे आपस में ही कलह में लगे रहते हैं, तो घर का सुख, दुख में बदल जाता है। स्वेट मार्डेन 'सुख की साधना नामक पुस्तक में कहते हैं कि 'कलह-क्लेश, कुत्सित भावनाएं, कटु आलोचना, चिड़चिड़ापन, अधीरता घर की शांति को हर लेते हैं और अशांति का कारण बना करते हैं। बहुत से लोग घर में होने वाले झगड़ों और तनाव के कारण समय से पहले ही मौत को गले लगा लेते हैं। घर में सुख व सुकून के बजाय तनाव और दुख मिलने के कारण ऐसे लोग शारीरिक कष्ट, असफलता, भावनात्मक क्षति, अपराध, गुस्सा, आर्थिक नुकसान और विपरीत सामाजिक परिस्थितियों को झेल नहीं पाते। वे दुखों से इतने भयभीत हो जाते हैं कि आत्महत्या करने में ही उन्हें इन सबका हल नजर आता है। घर मात्र ईट व पत्थरों से बना निवास नहीं होता, बल्कि उसमें प्रेम, करुणा, स्नेह और ममता का वास होता है।

हमें जीवन में सदैव संतुलन बनाकर चलना चाहिए

          आज के भौतिकवादी युग में मनुष्य की भाग-दौड़ इतनी बढ़ गई है कि जीवन का सारा आनंद जैसे खो गया है। इससे आदमी में चिड़चिड़ाहट और तनाव बढ़ गया है। इसी कारण विनोदी स्वभाव वाला व्यक्ति भी प्राय: परिवार में और बाहर भी छोटी-छोटी बातों पर क्रोधित हो उठता है।

          अक्सर लोग क्रोध करके प्रायश्चित के भाव से भर जाते हैं, लेकिन पुन: क्रोधित होते रहते हैं। इस पर एक फारसी कवि ने फरमाया था, 'हम प्रायश्चित करके भले ही परमात्मा की विपत्तियों से बच जाएं, परंतु लोगों की फब्तियों से नहीं बच सकते। कहते हैं कि दराती के एक ओर दांत होते हैं, किंतु लोगों की जिह्वा के दोनों ओर दांत होते हैं। दराती एक ओर से और जिह्वा दोनों ओर से वार करती है। यह सत्य है कि जीवन-चक्र की गति बड़ी न्यारी होती है और हमारे सामने घटित होती घटनाएं हमें प्रभावित करती हैं। हम बात-बात पर बिगड़ उठते हैं। सामान्य बात पर भी हम अपनी सहजता त्याग कर क्रोधित हो जाते हैं। यह सर्वथा अनुचित है। हमें जीवन में सदैव संतुलन बनाकर चलना चाहिए। सामने वाले की संपूर्ण बात धैर्य से सुनकर तब कोई निर्णय लेने से क्रोध से बचा जा सकता है।

          यह बहुत आसान है। सामने वाले की कही बात और किन परिस्थितियों में वह घटना घटी, इस बात का मूल्यांकन करें। उसे तौलें और परखें। इससे अकारण क्रोध और फिर प्रायश्चित से बचा जा सकता है।

          कहा गया है कि मनुष्य का मुख्य शत्रु क्रोध है। यह देह में रहता हुआ ही देह को नष्ट कर देता है। गीता में क्रोध के संबंध में इसी बात को और स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है और मूढ़ता से स्मृति भ्रांत होती है। स्मृति भ्रांत होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट हो जाने से प्राणी स्वयं नष्ट हो जाता है। हममें से अधिकतर लोग गीता आदि ग्रंथ पढ़ते हैं, किंतु अवसर आने पर क्रोध कर बैठते हैं। ऋषि-मुनियों ने क्रोध को जीतने का तरीका बताया है, लेकिन हम जानते हैं कि संसार में रहकर मन से भी अधिक कठिन क्रोध पर विजय पाना है। क्रोध को जीतने से पहले यदि हम काम, मोह, लोभ पर विजय पा लें, तो तनाव दूर हो जाएंगे। इसके दूर होते ही हम संतोषी बन जाएंगे और संतोष के आते ही क्रोध से बच जाएंगे। तनाव से बचने के लिए योग करें, योग से क्रोध भी शमित होता है। योग हमें जीवन की बुराइयों से दूर रखता है।

हमारे मन में अनंत शक्तियां विद्यमान हैं

          संसार के सभी प्राणी सुख और शांति की कामना करते हैं, समृद्धि की कामना करते हैं, लेकिन आज का मानव आधुनिक जीवनयापन, भोग-लिप्सा और भौतिकवाद के नीचे दबकर दुख की अनुभूति कर रहा है। व्यक्ति अनंत सुख का स्वामी होकर भी दुख और तनाव के महासागर में डूबता जा रहा है।

          इन समस्याओं का समाधान वाह्य और भौतिक साधनों से शायद संभव नहीं है। जब तक व्यक्ति अपने अंदर आनंद की खोज नहीं करेगा, तब तक वह दुख से मुक्त कैसे हो सकता है? हमें सुख की प्राप्ति के लिए अपनी समृद्ध परंपरा की ओर देखना होगा, जहां व्यक्ति को एक सशक्त मार्ग मिलता है-योग।

          हमारे मन में अनंत शक्तियां विद्यमान हैं। आवश्यकता है, उन्हें जाग्रत करने की। 'योग के द्वारा हम अपनी सुप्त शक्तियों को जाग्रत कर अनंत आनंद, अनंत शक्ति और अनंत शांति की प्राप्ति कर सकते हैं। हम अनंत शक्तियों के स्वामी होते हुए भी निर्बल बने हुए हैं। इसी निर्बलता को सबलता में बदलता है ध्यान और योग। महर्षि पतंजलि को योग का प्रणोता माना गया है। उनका 'योगदर्शन जन सामान्य के लिए बहुत उपयोगी शास्त्र है। इसमें अतिसूक्ष्मता से जीवन को संयमित ढंग से उपयोगी बनाने की बात सहजता से प्रकट की गई है। इसी कारण आज के युग में न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में योग के महत्व को स्वीकार किया गया है, बल्कि दैनिक जीवनचर्या और चिकित्सा के क्षेत्र में भी इसका महत्व सिद्ध हो गया है। इसका महत्व अब प्रबंधन के क्षेत्र में भी समझा जा रहा है।

          महर्षि पतंजलि ने अपने 'योगशास्त्र में लिखा है कि 'चित्त की वृतियों को रोकना ही योग है। योग शब्द का अर्थ है-जोडऩा या मिलाप। योग शब्द का भावार्थ आत्मा का परमात्मा से सबंध जोडऩा या फिर मिलन है। आचार्य श्रीमहाप्रज्ञ ने योग को मुक्ति का साधन बताया है और कहा है कि योग से चित्त निर्मल होता है और व्यक्ति अपने आवेगों-संवेगों पर नियंत्रण कर सकता है। प्रेम का मार्ग योग है और व्यक्ति अपनी जकडऩों को तोड़कर वाह्य आडंबर को चकनाचूर कर अपने अंदर स्फुटित होने वाली आनंद की तरंगों का अनुभव करता है। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, 'यह चंचल और अस्थिर मन जहां-जहां दौड़कर जाए, वहां-वहां से हटाकर बार-बार इसे परमात्मा में ही लगाना चाहिए। यही योग है।

मधुर वाणी एक प्रकार का वशीकरण है

          मधुर वाणी एक प्रकार का वशीकरण है। जिसकी वाणी मीठी होती है, वह सबका प्रिय बन जाता है। प्रिय वचन हितकारी और सबको संतुष्ट करने वाले होते हैं। फिर मधुर वचन बोलने में दरिद्रता कैसी? वाणी के द्वारा कहे गए कठोर वचन दीर्घकाल के लिए भय और दुश्मनी का कारण बन जाते हैं।

          इसीलिए साधारण भाषा में भी एक कहावत है कि गुड़ न दो, पर गुड़ जैसा मीठा अवश्य बोलिए, क्योंकि अधिकांश समस्याओं की शुरुआत वाणी की अशिष्टता और अभद्रता से ही होती है। सभी भाषाओं में आदरसूचक शिष्ट शब्दों का प्रयोग करने की सुविधा होती है। इसलिए हमें तिरस्कारपूर्ण अनादरसूचक शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हमें वाणी की मधुरता का दामन नहीं छोडऩा चाहिए। मीठी वाणी व्यक्तित्व की विशिष्टता की परिचायक है। हमारी जीवन-शैली शहद के घड़े के ढक्कन के समान होनी चाहिए। मीठी वाणी जीवन के सौंदर्य को निखार देती है और व्यक्तित्व की अनेक कमियों को छिपा देती है, किंतु हमें इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि अपने स्वार्थ के लिए हमें चापलूसी या दूसरों को ठगने के लिए मीठी वाणी का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

          हमारा हृदय निर्मल होना चाहिए और वाणी में एकरूपता होनी चाहिए। कोई व्यक्ति कितना भी प्रकांड विद्वान क्यों न हो, लेकिन उसे अल्पज्ञानी का उपहास कभी भी नहीं उड़ाना चाहिए। जिस प्रकार जहरीले कांटों वाली लता से लिपटा होने पर उपयोगी वृक्ष का कोई आश्रय नहीं लेता, उसी प्रकार दूसरों का उपहास करने और दुर्वचन बोलने वाले को कोई सम्मान नहीं देता। उपहास में कहे गए द्रौपदी के वचन महाभारत के युद्ध का कारण बना।

          एक विद्वान कहते हैं कि कटु टिप्पणियों के कारण जिंदगी में बनते काम भी बिगड़ जाते हैं। कुछ लोग मामूली कहासुनी होने पर क्षुब्ध हो जाते हैं, पर हममें सहनशीलता होनी चाहिए। प्रतिकार की भावना का त्यागकर कलह रूपी अग्नि का परित्याग करना चाहिए। एक सुभाषित में भी कहा गया है कि जो सदा सुवचन बोलता है, वह समय पर बरसने वाले मेघ की तरह सदा प्रशंसनीय व जनप्रिय होता है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हम जिन शब्दों का उच्चारण करते हैं, उनकी गूंज वातावरण के जरिये सामने वाले व्यक्ति के दिमाग में समा जाती है। अगर हम मृदु वचन बोलेंगे तो इनका प्रभाव दूसरे व्यक्ति पर अच्छा पड़ेगा।

मनुष्य को चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए

          आयुर्वेद में दो प्रकार के रोग बताए गए हैं। पहला, शारीरिक रोग और दूसरा, मानसिक रोग। जब शरीर का रोग होता है, तो मन पर और मन के रोग का शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। शरीर और मन का गहरा संबंध है।

          काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंधकार, ईष्र्या, द्वेष आदि मनोविकार हैं। ये मन के रोग हैं। इन मनोविकारों में एक विकार है-चिंता। यह मन का बड़ा विकार है और महारोग भी है। जब आदमी को चिंता का रोग लग जाता है तो यह मनुष्य को धीरे-धीरे मारता हुआ आदमी को खोखला करता रहता है। चिंता को चिता के समान बताया गया है, अंतर केवल इतना है चिंता आदमी को बार-बार जलाती है और चिता आदमी को एक बार।

          शारीरिक रोगों की चिकित्सा वैद्य, हकीम व डॉक्टर कर देते हैं, लेकिन मानसिक रोगों का इलाज करना इन लोगों द्वारा भी मुश्किल हो जाता है। मन के रोगों में जब कोई भी चिकित्सा काम नहीं करती है, तो उस समय धर्म शास्त्रों की चिकित्सा काम देती है।

          चिंता के इलाज के लिए शास्त्र बताते हैं कि मनुष्य को चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। जब भी चिंता सताती है, तब-तब मनुष्य को भगवान का चिंतन करना चाहिए। चिंता से घिरा जो भी आदमी चिंता का भार भगवान पर छोड़ निश्चित होने का अभ्यास करेगा उसको चिंता का रोग भी नहीं लगता और उसकी समस्याओं के समाधान भगवद्कृपा से स्वत: निकलते रहते हैं। चिंता करने वाले व्यक्ति के लिए एक दरवाजा ऐसा है जो उसके लिए कभी भी बंद नहीं होता। वह है भगवान का दरवाजा। चारों तरफ से घिरे इंसान को भगवान का दरवाजा पार निकालता है। गीता में कहा गया है कि जो भक्त अपने को भगवान के प्रति समर्पित करता हुआ अपना भार भगवान पर छोड़ देता है तो भगवान उसके भार को वहन करते हैं।
 
          जो चिंता करता रहता है उसका चेहरा बुझता-मुरझाता रहता है और जो परमात्मा का चिंतन करता है उसका चेहरा चमकता है। इसलिए गीता में बताया गया है कि आदमी अभ्यास व वैराग्य से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। स्पष्ट है कि चिंता के संबंध में भी आदमी को परमात्मा पर पूरा भरोसा करके अभ्यास के द्वारा अपने स्वभाव में परिवर्तन करते हुए चिंता मुक्ति और सुखमय जीवन जीने का प्रयत्न करना चाहिए।

परमात्मा प्राणरूप में आपके अंतर्मन में बैठा है

          इस संपूर्ण ब्रह्मंड में केवल परमात्म तत्व है और कुछ नहीं है। विज्ञान जिसे सुपर पावर मानता है, वही अध्यात्म में परमतत्व है, जो संपूर्ण जीव-जगत को प्राणवान बनाए हुए है। माया, अविद्या और अहंकार के कारण जीव उस परमसत्ता से अलग है। यह जो संपूर्ण रहस्यमय सृष्टि है, वह सब दृष्टिभ्रम है। ऐसा इसलिए क्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तुएं भ्रम हैं, तरंगें हैं और ऊर्जा का वेग हैं। अध्यात्म के रहस्य को समझने में सामान्यत: लोगों को कठिनाई होती है लेकिन विज्ञान की भाषा आसानी से समझ में आ जाती है।

          दरअसल, हमारे मन में यह आम धारणा व्याप्त है कि परमात्मा हमारे पवित्र मंदिर में निवास करता है और स्थायी तौर पर वह स्वर्ग, साकेत या ब्रह्मलोक में रहता है। दूसरी ओर हमारे सिद्ध-संतों का मानना है कि परमात्मा तो कण-कण में निवास करता है, वह तो विभु है, अव्यक्त है, तो उसे किसी मंदिर में कैसे रखा जाए। अगर हम अपने कार्यों, विचारों और संस्कारों को पवित्र कर लें और अपने तन-मन को मंदिर बना लें, तो हमारे तन और आत्म तत्व में परमात्मा का निवास होने लगेगा। भगवान श्रीराम ने अपनी मां कौशल्या को इसी शरीर में ब्रह्मंड का दर्शन कराया था और श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाया था। इसका अर्थ है कि हम विराट हैं, अज्ञानतावश विराट बन नहीं पा रहे हैं। यही अज्ञान अविद्या है, जो हमारे मूल स्वरूप को अपनी माया से ढके हुए हैं।

          गिलास में पानी भरा हो, अगर उसमें लकड़ी डाली जाए, तो लकड़ी टेढ़ी दिखती है। जबकि लकड़ी टेढ़ी नहीं है। उसी तरह संसार सत्य दिखता है, माता-पिता, भाई-बहन, सत्य दिखते हैं लेकिन हैं नहीं। सत्य तो केवल परमात्मा है। जिस शरीर को तुम प्यार करते हो, जब उस शरीर से प्राणरूप परमात्मतत्व निकल जाता है, तो तुम उसी शरीर से घृणा करने लगते हो। हमारे जीवन का सत्य यही है कि हम अपने सद्कर्मों से इस जीवन को पापरहित बना लें, जिसमें कोई विकार न हो। काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और ईष्र्या से हम प्रभावित न रहें। जिस दिन आप यह मान लेंगे कि जो हो रहा है, वह सब प्रभु की इच्छा है, आप इस घटना में कहीं नहीं हो, उसी दिन आप निष्पाप बन जाओगे और आपका शरीर मंदिर की तरह पवित्र बन जाएगा। फिर किस मंदिर में किसकी पूजा करने कहां जाओगे। प्राणरूप परमात्मा आपके अंतर्मन में बैठा है।

असफलता हमारी जिंदगी में स्पीड ब्रेकर का काम करती है


          असफलता हमारी जिंदगी में स्पीड ब्रेकर का काम करती है। जिस तरह गाड़ी को हमेशा एक समान गति में चलाना असंभव है, उसी तरह जीवन भी एक समान गति से नहीं चलता। उतार-चढ़ाव इस जीवन के अनिवार्य अंग हैं, जिनका सामना न चाहते हुए भी प्रत्येक व्यक्ति को करना ही पड़ता है।

          कुछ व्यक्ति असफलता से हिम्मत हार बैठते हैं, तो कुछ असफल होकर सफलता का ऐसा नया इतिहास रचते हैं कि उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित हो जाता है। महान वैज्ञानिक थॉमस अल्वा एडीसन, स्टीफन हॉकिंग और हेलेन केलर आदि इसके उदाहरण हैं। थॉमस अल्वा एडीसन ने तो अपनी हर असफलता को स्पीड ब्रेकर की तरह ही लिया। उनका कहना था कि 'मैं सात सौ बार असफल नहीं हुआ। मैं एक बार भी असफल नहीं हुआ। मैं यह सिद्ध करने में सफल रहा कि वे सात सौ तरीके सही नहीं थे। जब मैंने उन रास्तों को नष्ट किया, तो मुझे वह रास्ता मिला जो मंजिल तक ले गया। असफलता के स्पीड ब्रेकर को पार करके ही थॉमस अल्वा एडीसन बिजली के बल्ब का आविष्कार कर पाए। इसके साथ ही ब्लेड बनाने वाले जिलेट ने भी असफलता को केवल एक स्पीड ब्रेकर की तरह ही लिया था। वह कुछ देर रुके और फिर अपने रास्ते की ओर बढ़ चले।

          आखिर उस स्पीड ब्रेकर को पार कर उन्हें अपनी मंजिल प्राप्त हुई। असफलता केवल कार्य में उत्पन्न होने वाली बाधा है, जिसे धैर्य, बुद्धि और सतर्कता से दूर किया जा सकता है। प्रसिद्ध लेखिका व समाजसेवी हेलन केलर का कहना था कि 'अवरोध असफलता नहीं हैं, बल्कि आपकी सफलता के मापदंड हैं। जब आप अवरोधों का निडरता से सामना कर सफल हो जाएंगे तो आपको इन्हीं अवरोधों और असफलता से जूझने में आनंद आएगा। यदि असफलता रूपी स्पीड ब्रेकर आपने अपने जीवन में पार नहीं किए तो सफलता तक पहुंचना असंभव है। अल्फ्रेड आरमंड मोंटापर्ट असफलता के स्पीड ब्रेकर से न डरने की सलाह देते हुए कहते हैं कि 'बहुसंख्यक लोग बाधाओं को देखते हैं, सिर्फ चंद लोग ही लक्ष्यों पर नजरें टिकाए रखते हैं। इतिहास बाद वालों की सफलताएं दर्ज करता है और पहले वालों को भुला देता है।

जीवन के सही मूल्यों को समझ कर जीवन में उपयोग धर्म है


          धर्म चर्चा का नहीं, बल्कि दिनचर्या का विषय है। धर्म एक रथ है, संस्कारित मन उसका सारथी और मनुष्य की आत्मा उस रथ का रथी है। यानी धर्म वह रथ है, जो आत्मा को परमात्मा से मिलाता है। जीवन के चार पुरुषार्थो में इसे पहला स्थान दिया गया है। आज के परिवेश में मनुष्य धर्म की चादर ओढ़कर कई बार आडंबर कर बैठता है, जो समाज के लिए घातक है। हम भूल जाते हैं कि धर्म का फल मनुष्य को तभी प्राप्त होता है, जब व्यक्ति निष्ठापूर्वक धर्म का आचरण करता है। जब वह दया, प्रेम, करुणा आदि गुणों को जीवन में अमल में लाकर मानव सेवा में तत्पर होता है। जो कार्य मानवता के कल्याण के लिए हो, उसी का दूसरा नाम धर्म है।

          जो व्यक्ति धार्मिक है, जिसकी वृत्तियां श्रेष्ठ हैं उसे परमात्म की अनुभूति में देर नहीं लगती है। धर्म है गिरतों को उठाना, भूखे को भोजन कराना, प्यासे को पानी पिलाना। है।धर्म वह नहीं, जो सिर्फ धार्मिक स्थलों पर पूजा-पाठ के द्वारा ही दिख सकता है, बल्कि इसे नित्यप्रति के जीवन में उतारना आवश्यक है। मानव सेवा करना मानव धर्म है तो वहीं राष्ट्र के प्रति समर्पित होना राष्ट्र धर्म है। एक धर्म गृहस्थ का भी है।

          धार्मिक व्यक्ति वह है, जो प्रेम, शांति और करुणा को जीवन में महत्व देता है। जो अपने खाने की चिंता तो दूर अपने साथ-साथ न जाने कितने लोगों का उद्धार करता है। धर्म वह है, जो किसी के आंख के आंसू पोंछ सके, किसी के चेहरे पर मुस्कराहट ला सके। ऐसा धार्मिक व्यक्ति दीपक जलाते समय इस बात का ध्यान रखता है कि वह दीपक से और दीपक प्रदीप्त करे। धरा से अंधेरा मिटे, और लोगों में जाग्रति आए। स्वयं के प्रति और समाज के प्रति। धार्मिक व्यक्ति जीवन में कुछ ऐसा कर गुजरता है कि लोग उसके जाने के बाद भी उसे याद करते हैं। धर्म का संबंध ईश्वर में मनुष्य की आस्था से है। यह जीवन का आधार है। मानव समाज को यथार्थ ज्ञान देकर जीवन के सही मूल्यों को समझाना धर्म है। धर्म विराट है। इसकी व्यापकता को किसी चहारदीवारी में नहीं बांध सकते हैं।

अध्यात्म आज के युग की मूल आवश्यकता है

         अध्यात्म आज युग की मूल आवश्यकता है। लगभग सभी चिंतक, विचारक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक अध्यात्म की आवश्यकता का अनुभव करने लगे हैं, परंतु वर्तमान में अध्यात्म का जो स्वरूप है, क्या यह उस आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है?

          आज अध्यात्म सुंदर शब्दों पर टिक गया है। जो जितना अध्यात्म के गूढ़ तत्वों को अलंकृत शैली में बोल सके, वह उतना ही बड़ा आध्यात्मिक व्यक्ति माना जा रहा है। फिर इसके एक भी तत्व को भले ही अनुभव न किया गया हो। जबकि अध्यात्म ऐसा है नहीं। इसे ऐसा कर दिया गया है। अध्यात्म एक वैज्ञानिक प्रयोग है, जो पदार्थ के स्थान पर जीवन के नियमों को जानना, समझना, प्रयोग करना और अंत में जीवन जीने का तरीका सिखाता है। अध्यात्म जीवन-दृष्टि और जीवन-शैली का समन्वय है। यह जीवन को समग्र ढंग से न केवल देखता है, बल्कि इसे अपनाता भी है। आज कई लोग ऐसे हैं, जो अध्यात्म से नितांत अनभिज्ञ हैं, लेकिन वही अध्यात्म की भाषा बोल रहे हैं। आज अध्यात्म के तत्वों की कार्यशालाओं में चर्चा की जाती है। यह कटु सत्य है कि आध्यात्मिक भाषा बोलने वाले कुछ लोगों का जीवन अध्यात्म से नितांत अपरिचित, परंतु भौतिक साधनों और भोग-विलासों में आकंठ डूबा हुआ मिलता है।
 
          आज के तथाकथित कई अध्यात्मवेत्ता भय, आशंका, संदेह, भ्रम से ग्रस्त हैं, जबकि अध्यात्म के प्रथम सोपान को इनका समूल विनाश करके ही पार किया जाता है। चेतना की चिरंतन और नूतन खोज ही इसका प्रमुख कार्य रहा है, परंतु चेतना के विभिन्न आयामों को खोजने के बदले इससे जुड़े कुछ तथाकथित लोगों ने इसे और भी मलिन और संकुचित किया है।

          अध्यात्म को वर्तमान स्थिति से उबारने के लिए आवश्यक है कि इसे प्रयोगधर्मी बनाया जाए। अध्यात्म के मूल सिद्धांतों को प्रयोग की कसौटी पर कसा जाए। आध्यात्मिकता के बहिरंग और अंतरंग दो तत्व जीवन में परिलक्षित होने चाहिए। संयम और साधना ये दो अंतरंग तत्व हैं और स्वाध्याय व सेवा बहिरंग हैं। अंतरंग जीवन संयमित हो और तपश्चर्या की भट्टी में सतत गलता रहे। आज भी वास्तविक आध्यात्मिक विभूतियां विद्यमान हैं, परंतु उनके पदचिन्हों पर चलने का साहस करने वालों की कमी है। यही वह परिष्कृत अध्यात्म है, जो कहीं बाहर नहीं, हमारे ही अंदर है। हमें इसी की खोज करनी चाहिए।

अध्यात्म आज के युग की मूल आवश्यकता है

                   अध्यात्म आज युग की मूल आवश्यकता है। लगभग सभी चिंतक, विचारक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक अध्यात्म की आवश्यकता का अनुभव करने लगे हैं, परंतु वर्तमान में अध्यात्म का जो स्वरूप है, क्या यह उस आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है?

                    आज अध्यात्म सुंदर शब्दों पर टिक गया है। जो जितना अध्यात्म के गूढ़ तत्वों को अलंकृत शैली में बोल सके, वह उतना ही बड़ा आध्यात्मिक व्यक्ति माना जा रहा है। फिर इसके एक भी तत्व को भले ही अनुभव न किया गया हो। जबकि अध्यात्म ऐसा है नहीं। इसे ऐसा कर दिया गया है। अध्यात्म एक वैज्ञानिक प्रयोग है, जो पदार्थ के स्थान पर जीवन के नियमों को जानना, समझना, प्रयोग करना और अंत में जीवन जीने का तरीका सिखाता है। अध्यात्म जीवन-दृष्टि और जीवन-शैली का समन्वय है। यह जीवन को समग्र ढंग से न केवल देखता है, बल्कि इसे अपनाता भी है। आज कई लोग ऐसे हैं, जो अध्यात्म से नितांत अनभिज्ञ हैं, लेकिन वही अध्यात्म की भाषा बोल रहे हैं। आज अध्यात्म के तत्वों की कार्यशालाओं में चर्चा की जाती है। यह कटु सत्य है कि आध्यात्मिक भाषा बोलने वाले कुछ लोगों का जीवन अध्यात्म से नितांत अपरिचित, परंतु भौतिक साधनों और भोग-विलासों में आकंठ डूबा हुआ मिलता है।

                  आज के तथाकथित कई अध्यात्मवेत्ता भय, आशंका, संदेह, भ्रम से ग्रस्त हैं, जबकि अध्यात्म के प्रथम सोपान को इनका समूल विनाश करके ही पार किया जाता है। चेतना की चिरंतन और नूतन खोज ही इसका प्रमुख कार्य रहा है, परंतु चेतना के विभिन्न आयामों को खोजने के बदले इससे जुड़े कुछ तथाकथित लोगों ने इसे और भी मलिन और संकुचित किया है।

                   अध्यात्म को वर्तमान स्थिति से उबारने के लिए आवश्यक है कि इसे प्रयोगधर्मी बनाया जाए। अध्यात्म के मूल सिद्धांतों को प्रयोग की कसौटी पर कसा जाए। आध्यात्मिकता के बहिरंग और अंतरंग दो तत्व जीवन में परिलक्षित होने चाहिए। संयम और साधना ये दो अंतरंग तत्व हैं और स्वाध्याय व सेवा बहिरंग हैं। अंतरंग जीवन संयमित हो और तपश्चर्या की भट्टी में सतत गलता रहे। आज भी वास्तविक आध्यात्मिक विभूतियां विद्यमान हैं, परंतु उनके पदचिन्हों पर चलने का साहस करने वालों की कमी है। यही वह परिष्कृत अध्यात्म है, जो कहीं बाहर नहीं, हमारे ही अंदर है। हमें इसी की खोज करनी चाहिए।

मनुष्य के एक-एक शब्द उसके व्यक्तित्व का प्रत्यक्षीकरण है

                  जब वाणी शब्दों के माध्यम से प्रकट होती है, तो वह गहरा प्रभाव छोड़ती है। जैसे जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है वैसे ही वाणी का अंतिम सत्य मौन है। अक्षर को ब्रह्म कहा गया है। अक्षर से शब्द बनता है और शब्द ही वाणी का विन्यास है।

                  मनुष्य के एक-एक शब्द उसके व्यक्तित्व का प्रत्यक्षीकरण है। जीभ वाणी का माध्यम है। सुनने वाला आनंद विभोर भी हो सकता है। अगर जीभ के माध्यम से गलत शब्द निकल गए तो व्यक्ति बुरी तरह आहत भी हो जाता है। सारे खेल शब्दों के हैं। आधुनिक मनोविज्ञान भी मानता है कि शब्दों का व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर प्रबल प्रभाव पड़ता है। कोई शख्स किसी को अपशब्द कहता है, तब वह दूसरा शख्स उत्तेजित हो जाता है। जब हम किसी से प्रेमपूर्वक बात करते हैं तो वह दूसरा व्यक्ति प्रसन्न हो जाता है। दुनिया के विभिन्न धर्मों की प्रार्थनाएं ऊर्जावान शब्दों का सुंदर संगठन ही हैं। मंत्र शक्ति को महान माना जाता है। मंत्र शक्ति शब्दों के सुंदर समन्वय व संगठन से ही संबंधित है। कभी आपने सोचा है कि संगीत हमें रुचिकर क्यों लगता है। वैज्ञानिकों के अनुसार संगीत के प्रभाव का असर मनुष्यों पर ही नहीं, बल्कि वनस्पतियों पर भी पड़ता है। संगीत भी सुर-लय व ताल के साथ शब्दों का सुंदर संगठन ही है।

                 हम बिना विचारे जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं और किसी को अकारण दुखी करने का दोषी बन जाते हैं। जीभ पर अगर विवेक का नियंत्रण न हो, जीभ अगर मर्यादा में न रहे तो अकारण हम तमाम दुश्मन पैदा कर लेते हैं। महाभारत की द्रौपदी ने एक बार दुर्योधन को शब्दों से घायल किया था और दूसरी बार अपने स्वयंवर में कर्ण को भी शब्दों से आहत किया था। इसका परिणाम कितना भयंकर हुआ। हम अपने जीवन में सुंदर शब्दों के प्रयोग से मित्रों और प्रशंसकों की संख्या बढ़ा सकते हैं और कड़े शब्दों के प्रयोग से हजार दुश्मन पैदा करते हैं। इसीलिए महावीर कहते हैं सम्यक वाणी बोलो और नानक कहते हैं कि अगर अच्छी वाणी नहीं बोल सकते हो, तो मौन रहना बेहतर है, क्योंकि मौन में वाणी का दुरुपयोग नहीं होता और कंटीले शब्दों से कोई घायल भी नहीं होगा। हमारा धर्म यही है कि हम अपने कार्यो और वाणी से किसी को दुखी न करें। यह भी एक प्रकार का तप है।

हमारा जीवन अमरत्व की साधना है-आनंदमय स्वरूप का चिंतन करें

                एकाकीपन नीरसता लाता है। संसार में विविधता है और इस विविधता में ही पार पाना है। इसमें रमना नहीं है, बल्कि नदी-नाव-संयोग से हिल मिलकर पार हो जाना है। जीवन उत्सवमय तभी होता है जब सभी को साथ लेकर चलें। समूह-भाव से ही जीवन-उत्सव बनता है। परिजन मिलकर रहें। सबको साथ लेकर चलना ही अभीष्ट है। पर्व को तो विशेष उत्साह से मनाएं। सबके मंगल की कामना करें।

                  पर्वों पर अड़ोस-पड़ोस और परिजनों का विशेष ध्यान रखें। कोई भूखा न रह जाए। केवल अपने लिए जीना या स्व उदरपूर्ति तक केंद्रित रहना अच्छी बात नहीं है। जीवन संस्कारमय तो तभी होगा जब समग्रता के साथ गुणों का संवर्धन होगा। इसलिए आत्मचेतना का सामाजिक विस्तार निरंतर बना रहना चाहिए। जब ईश्वर ने हमें सेवा के योग्य बनाया है, तो सेवा से संबंधित विविध कार्यों का विस्तार होना चाहिए। सेवा, हमारे मन की पावन भावना है, जो हमें राग-द्वेष और भेदभाव से ऊपर उठाती है। सामूहिक भाव मन में प्रसन्नता लाता है। पर्व और मेले सामूहिक संस्कार को जगाते हैं, किंतु आज की भागमभाग जिंदगी में हम पर्वे का आनंद भी नहीं उठा पाते। ये तो ऐसे अवसर हैं, जब हम उपासना करें। ईश्वर से प्रार्थना करें कि 'हे नाथ आपकी बड़ी कृपा है। आपने हमें शुभ अवसर प्रदान कर हमारे जीवन को आनंद से भर दिया है।

                आपकी यह कृपा जीवों पर सदैव बनी रहे। सत्संग में नियमित सम्मिलित होना चाहिए। जीवन को दिशा देने के लिए, विषाद को दूर करने के लिए ये बहुत उपयोगी हैं। इनसे ईश्वरीय विचार पुष्ट होते हैं और मानव जीवन की महिमा पुष्ट होती है। इसलिए आवश्यकता यही है कि हम अपना सोचने का तरीका और दृष्टिकोण बदलें। आनंदमय जीवन की कल्पना तभी प्रत्यक्ष होगी, जब मन में सत्संकल्प और सद्विचार सुदृढ़ होंगे। आइए, अपने आनंदमय स्वरूप का चिंतन करें, सर्वकल्याण की कामना करें और परमात्मा की प्रकृति का सदुपयोग करें। ईश्वर ने इतने उपहार दिए हैं, उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें। जब परमात्मा ने बिना किसी शुल्क के हमें इतने वरदान दिए हैं, तो क्यों न हम भी प्राणिमात्र की सेवाओं को जीवन का अनिवार्य अंग बनाएं? पूर्ण आत्मविश्वास के साथ निडर होकर जीवन क्षेत्र में आगे बढ़ते रहें। हमारा जीवन अमरत्व की साधना है। मृत्यु से अमरत्व की ओर बढऩा ही जीवन का पर्व है।

जीवन के सिद्ध सूत्र-श्रीमद्भगवद्गीता का जन्म

              धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य के युद्ध महाभारत में कौरव और पाडंवों की सेना आमने-सामने थी। अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण ने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य आगे लाकर खड़ा कर दिया। अर्जुन ने देखा कि उनके अपने भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और उनके भाई, रिश्तेदार विरोधी खेमे में खड़े हैं।

              डॉ. प्रणव पण्ड्या ने इस सम्बन्ध में सुन्दर प्रस्तुति दी है कि अर्जुन की हिम्मत जवाब दे गई। उन्होंने कृष्ण से कहा कि अपने स्वजनों और बेगुनाह सैनिकों के अंत से हासिल मुकुट धारण कर मुझे कोई सुख हासिल नहीं होगा। अर्जुन पूरी तरह अवसादग्रस्त हो चुके थे। अपने अस्त्र-शस्त्र कृष्ण के सम्मुख भूमि पर रख उन्होंने सही मार्गदर्शन चाहा। तब श्रीमद्भगवद्गीता का जन्म हुआ।

               मान्यता है कि लगभग 40 मिनट तक श्रीकृष्ण और अर्जुन में जो संवाद हुआ, उसे महर्षि व्यास ने सलीके से लिपिबद्ध किया, वही श्रीमद्भगवद्गीता कहलाई।
इसके आध्यात्मिक सिद्धांत स्वयंसिद्ध हैं। विश्व भर के विद्वानों ने इसे धर्म, ज्ञान, भक्ति, उपासना और कर्म के क्षेत्र में गूढ़ गंभीर मीमांसा के विषय का ग्रंथ स्वीकार किया है। भारतीय वेदाचार्यों ने इसे उपनिषद् माना है।

                 मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को मोक्षदा एकादशी या गीता जयंती के रूप में मनाने का प्रचलन है। महाभारत के युद्ध में मोहित हुए अर्जुन को भगवान कृष्ण ने कर्मयोग का पाठ देकर उन्हें कर्म में प्रवृत्त किया था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन ने यह समझा दिया कि उनके शत्रु तो महज मानव शरीर हैं। अर्जुन तो सिर्फ उन शरीरों का अंत करेगा, आत्माओं का नहीं। हताहत होने के बाद सभी आत्माएं उस अनंत आत्मा में लीन हो जाएंगी। शरीर नाशवान है, लेकिन आत्मा अमर है। आत्मा को किसी भी तरह से नष्ट नहीं किया जा सकता।
तब श्रीकृष्ण ने परमतत्व की उस प्रकृति का दर्शन अर्जुन को कराया। भगवान के जिस विराट रूप में अनंत ब्रह्मांड निहित है। ताकि अर्जुन समझ सकें कि वे जो भी कर रहे हैं वह विधि निर्धारित है। 18 अध्यायों के माध्यम से जीवन के सिद्ध सूत्र श्रीकृष्ण ने समस्त प्राणी जगत को प्रदान किए हैं, जिसमें ज्ञान, कर्म, भक्ति, राजविद्या, विभूति से मोक्ष तक की यात्रा कराई है।

सिखाना सभी चाहते हैं, पर स्वयं सीखना कोई नहीं चाहता

            सिखाना सभी चाहते हैं, पर स्वयं सीखना कोई नहीं चाहता। जो सिखाता है वह भी महापुरुषों की सीख को नहीं मानता है। उसका मानना होता है कि उसने जो जानकारी प्राप्त की है वह पर्याप्त है वही सही है और उसे अपने व्यवहार में, चरित्र में ढालने की कोई आवश्यकता नहीं है।

            ऐसा इसलिए होता है कि अब वह ऐसा ज्ञाता हो गया है कि जिसे कुछ सीखने या सीखे हुए पर अमल करने की कोई जरूरत नहीं है। वह बेचारा यह नहीं जानता है कि उसके ज्ञाता होने का यह झूठा अहंकार उसके आध्यात्मिक उन्नयन में कितना अवरोध उत्पन्न कर रहा है? हम भक्तों-संतों और महापुरुषों की जीवनियों और उनके कृतित्व को बचपन से पढ़ते-सुनते रहते हैं, पर हमारा यह पढऩा-सुनना तोते की तरह राम-राम कहना है। काश! हम उनकी सीख को समझ पाते, उसे अपने आचरण में उतार पाते।

            गोस्वामी तुलसीदास ने 'विनय-पत्रिका में अपनी दुर्बलताओं को बताते समय यह भी कहा है- 'सीख देता हूं, सिखाया हुआ नहीं मानता। तुलसीदासजी ने ऐसा कहा है, पर यह सत्य नहीं है। जिस व्यक्ति ने वेदों, पुराणों, इतिहास, साहित्य आदि विविध स्रोतों से तथ्यों को ग्रहण कर रामचरितमानस जैसी कालजयी रचना हमें दी है, वह किसी का सिखाया नहीं मानता था, इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है? सत्य बात तो यह है कि अपने बहाने उन्होंने मनुष्यमात्र की इस एक बड़ी कमजोरी की ओर इंगित किया है और कहा है कि जो सीखने के लिए तैयार नहीं है उसे सिखाने का भी अधिकार नहीं है। तुलसी के इस कथन को पढ़ा-सुना तो अनेक लोगों ने होगा, पर इसके संकेत को अत्यल्प लोगों ने ही समझा होगा। साधारण मनुष्य दूसरों की जरा-सी गलती का तो बखान करने लगता है, पर अपनी पहाड़-सी दुर्बलता को भी जानने का प्रयास नहीं करता और यदि उसे जान भी ले तो उसे स्वीकार करने का साहस उसमें नहीं होता।

             तुलसीदास की 'विनय-पत्रिका का एक-एक पद, उसका एक-एक शब्द अध्ययन-मनन करने योग्य है और उससे प्राप्त संकेतों से अपनी दुर्बलताओं को जानने-सुधारने की आवश्यकता है। मगर मुश्किल यह है कि हम अपने ऋषियों, भक्तों, संतों, महापुरुषों आदि की बातों में निहित संकेतों को समझने-जानने का प्रयास ही कहां करते हैं।

दया का भाव क्या है

              गौतम ऋषि ने मनुष्य के लिए आवश्यक संस्कारों का निर्देश देते हुए आठ आत्मगुणों पर बल दिया है। उन्होंने ‘दया सर्वभूतेषु’ कहकर यानी सभी मनुष्यों के लिए दया को प्रथम स्थान प्रदान किया है। दया का भाव क्या है? दुखी जनों का दुख दूर करने की अभिलाषा को दया कहते हैं। दया के बगैर इस संसार का संचालन संभव नहीं है।

               बालक का जन्म होते ही माता सर्वप्रथम उस पर दया करती है। माता की सदैव इच्छा रहती है कि मेरा बच्चा कभी भूखा न रहे, बीमार न पड़े, मुस्कराता व साफ-स्वच्छ रहे। इसी दया से प्रेरित होकर वह स्वयं अनेक कष्ट सहकर बच्चे का लालन-पोषण करती है। इसी तरह गुरु यदि दया कर दे तो सामान्य शिष्य भी शास्त्र-पारंगत हो सकता है।

              दयावान के शासन में समस्त प्रजा अपने को सुखी मानती है। हममें दया है, लेकिन वह सीमित है। मनुष्य ज्ञानवान अवश्य है, परंतु सर्वज्ञ नहीं। अज्ञानवश मनुष्य किसी से राग और किसी से द्वेष रखता है। इसीलिए संसारी मनुष्य की दया की सीमा होती है। ज्ञान के संदर्भ में शास्त्र का मत है कि मनुष्य का ज्ञान सीमित होने से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। आकाश सीमा में बंधा हुआ नहीं है। कहीं भी हम आकाश के अभाव का अनुभव नहीं कर सकते। हमारी सीमित दया का भी कोई प्रतियोगी अवश्य है, जो नित्य और सर्वज्ञ है। वही समान रूप से संपूर्ण जीवों का हित करता है। माता-पिता तो अपने परिवार पर ही दया करते हैं, परंतु प्रभु तो सर्वत्र दया करते हैं। प्रभु सारे संसार के पिता हैं। वे भक्तों के अंत:करण में बैठकर अपने ज्ञानदीप से हमें प्रकाश दे रहे हैं। इसलिए हमें दया के दायरे को परिवार की सीमाओं से बाहर निकालना होगा।

             सभी प्राणियों के प्रति दया का भाव रखें। यह समझो कि दया मनुष्य जाति को दिया गया एक ऐसा गुण है, जो किसी वरदान से कम नहीं है। शास्त्रों में मानव जाति के अलावा अन्य जीव-जंतुओं पर भी दया करने के महत्व को रेखांकित किया गया है। हम कष्ट आने पर दूसरों से दया चाहते हैं। प्रभु भक्ति मात्र से संतुष्ट होकर कष्टों का निवारण करते हैं। भगवान् की भव्य-भक्ति का आश्रय लेकर उसकी दया प्राप्त करने से ही मनुष्य-जन्म सार्थक होगा।

जिन्दगी का हर पल हमें सिखाकर जाता है


                  हम लोग पूरे जीवन में खुशियां तलाशते हैं। बावजूद इसके, हमें वह तृप्ति नहीं मिल पाती, जिसकी हम तलाश करते हैं। वह सुकून हमें नहीं मिल पाता जो हमें आत्म-संतुष्टि दे सके और सार्थकता का अनुभव करा सके। इसके लिए हमें अपनी चाहतों के ढेर में से सही चाहत को तलाशना होगा। जो चाहतें हम पूरा करने में लगे हैं, उनके पूरा हो जाने पर क्या हम सतुंष्ट हो जाएंगे या फिर हमारी अतृप्ति बढ़ जाएगी? ऐसा क्या है, जिसकी हमें परम आवश्यकता है, जिसके मिल जाने से हमारी अतृप्ति समाप्त हो सकती है, इस प्रश्न को बार-बार सोचना होगा और सही उत्तर की प्रतीक्षा करनी होगी।

                    जीवन प्रबंधन एक ऐसा विषय है, जिसे सीखने की जरूरत हर किसी को है। जिंदगी का हर पल हमें कुछ सिखा कर जाता है, लेकिन यदि हम बिल्कुल भी होश में नहीं हैं तो हम इसका लाभ नहीं ले सकते। यदि आज भी जीने के तौर-तरीके नहीं सीखे गए और इन भूलों को दोहराते रह गए तो आने वाला भविष्य अंधकरामय हो सकता है। निश्चित तौर पर जीवन को संवारने के लिए जीवन की गहराई को समझना जरूरी है और अपनी क्षमताओं को पहचानना जरूरी है। वस्तुत: मानव जीवन के दो पक्ष हैं। एक दृश्य और दूसरा अदृश्य। दृश्य जीवन में हर व्यक्ति का बाहरी रूप, उसका व्यवहार, किए गए कर्म आदि नजर आते हैं। जबकि आंतरिक जीवन में उसके विचार, रुचियां, इच्छाएं और भावनाएं होती हैं, जो दिखाई नहीं पड़तीं, लेकिन व्यक्ति इन्हें महसूस करता है। व्यक्ति जो भी व्यवहार किसी वस्तु के प्रति करता है तो उस वस्तु पर किए गए व्यवहार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि उसके अंदर विचार या भावनाएं नहीं होती, लेकिन यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के प्रति व्यवहार करता है तो उसकी भावनाएं प्रभावित होती हैं। अच्छा व्यवहार दूसरे व्यक्ति को अपना बना लेता है और बुरा व्यवहार उसकी भावनाओं को बुरी तरह से उद्वेलित कर देता है, जिससे उसकी भावनाएं भी शब्दों में प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं, भले ही पूरी तरह से कह न सके।

                 भावनाओं की यह पीड़ा ही दूसरे व्यक्ति के लिए संस्कार बन जाती है। यदि हमें अपने इन हिसाब-किताब वाले रिश्तों से मुक्त होना है तो एक उपाय यह है कि हम इन रिश्तों का आदर करते हुए संबंधित व्यक्ति के प्रति अच्छा व्यवहार करें।