चलते-चलते रुक जाने का कोई कारण तो होता है। फिर रुककर बैठा हुआ आदमी पुन: क्यों चल पड़ता है? तब ऐसा नहीं लगता कि इसमें कोई स्वाभाविकता है। किसी न किसी चीज का अहसास है। वह अहसास मन को होता है या तन को, प्रवाह तो कभी अहसास से नहीं रुकता।
वह बहता ही रहता है। पानी बहता ही रहता है। जीवन प्रवाह भी बहता रहता है। जिस तरह से अनुकूल पानी न मिलने से खेत सूख सकता है, पौधों का विकास रुक सकता है, उसी तरह से अनुकूल जीवन प्रवाह के न होने से दर्द का अहसास हो सकता है। सुख और शांति छिन सकती है, पर दर्द का अहसास कोई बुरी बात तो नहीं है।
अगर बुरा होता, तो मीरा ने जहर न पिया होता। जीसस सूली पर न लटके होते। श्रीकृष्ण ने भील से बाण खाकर जीवन को न गंवाया होता। राम चौदह वर्ष के लिए वनवास नहीं जाते। महावीर को पत्थर, ढेले नहीं खाने पड़ते। गौतम बुद्ध को राज छोड़कर भटकना नहीं पड़ता और दर्द के अहसास के भय से दुनिया की हर औरत मां बनने को तैयार नहीं होती। बहरहाल, हर दर्द के पीछे कोई रहस्य है। दर्द एक अनुभूति है, भविष्य है और कोई अंतर्दीप की प्रच्च्वल शिखा पर यह सब जानते हुए भी दुनिया के लोग दर्द व दुख की कल्पना से डरते हैं। भागते हैं और इनसे मुक्ति पाने के लिए संघर्ष करते हैं। क्या आज तक कभी इंसान को दर्द से मुक्ति मिली है?
जाने-अनजाने में आदमी उसी रास्ते पर चलता है, चल पड़ता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि जन्म का योग मृत्यु से है। प्यार का योग घृणा से है। सुख का योग दुख से है। आनंद का योग दर्द से है। मिलन का योग बिछुडऩे से है और संयोग का वियोग से। जब बच्चा जन्म लेता है, तो दर्द होता है, पर भीतर ही भीतर औरत को मां बनने में जो सुख का अहसास होता है उसे वह महसूस करती है। उसे दर्द की अनुभूति से लाखों गुना ज्यादा सुख और आनंद का अनुभव होता है। मनुष्य को जीवन के भौतिक सुखों का अहसास होता है। इसलिए इसे छोडऩे में वह दुखी होता है, क्योंकि वह उसे अपना समझता है। प्रेम तो एक अनुभव है, प्रेम हृदय-कमल का पुष्पित अंग है। प्रेम जब अंकुरित होता है, तब वृक्ष बनने का प्रयास करता है, पर बहुत कम लोग ही प्रेमरूपी वृक्ष को वृक्ष बनने देते हैं। प्रेम केवल थोड़ा ही विकसित होकर भोग बनकर रह जाता है। तभी तो आज का आदमी केवल अपने लाभ के लिए प्रेम करता है।
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