Saturday, February 21, 2015

श्रेष्ठ भाव क्या हैं

         यह वाह्य दृश्यमय जगत की रचना ईश्वर द्वारा की गई है। इस पृथ्वी पर मनुष्य समेत अनेक जीव-जंतु अपना जीवनयापन करते हैं। अन्यान्य जीवों में मनुष्य विवेकयुक्त होने के कारण सबसे श्रेष्ठ प्राणी है। उसे ईश्वर ने बुद्धि के द्वारा विचार करने की शक्ति प्रदान की है। विचारों को पवित्रकर आत्मभाव में जाग्रत होने की युक्ति मात्र मनुष्य के पास है।

         अशोक बाजपेयी जी ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि इस भूमि पर अनेकानेक ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने अपने को पवित्र कर आत्मा का साक्षात्कार किया है। अनेक ऐसे भी महापुरुष जन्मे हैं, जिन्होंने ईश्वर की अनन्य भक्ति कर उनके दर्शन किए हैं। सूक्ष्मावलोकन करने से ऐसा विदित होता है कि पूर्व में मनुष्य का हृदय अत्यंत पवित्र था और उसके विचारों में निर्मलता व्याप्त रहती थी। पवित्रता, शुद्धता व मनन की सरलता उनके लिए सर्वाधिक महत्व रखती थी। लोग वाह्य दृष्टि से वैभवशाली नहीं थे, पर हृदय से बहुत संपन्न हुआ करते थे, उनके अंतर्जगत में भावों की उत्कृष्टता कूट-कूट कर भरी थी। सादा जीवन उच्च विचार उनका मूलमंत्र होता था। काल की गति के अनुसार विचारों का अवमूल्यन शुरू हुआ तो अंतस प्रदेश के भाव जगत में शुष्कता आने लगी। लोग विचारों की उच्चता को छोड़कर मात्र भौतिक जगत की संपन्नता को श्रेष्ठ मानकर उसकी ओर आकर्षित होते चले गये। वाह्य चमक-दमक में भावों की शुद्धता कुम्हलाने लगी। स्वयं को भौतिक रूप से संवारने की और वाह्य जगत को ही सर्वस्व समझने की इस दौड़ में लोग शामिल होते चले गये। प्रेम, सहिष्णुता, दया परोपकार के स्थान पर वाह्य जगत की संपन्नता हावी होती चली गई। घर, नगर, गांव इससे ग्रस्त होते गये। इस दौड़ के कारण अंदर झांकना बंद हो गया। इसका परिणाम भी अब सामने आने लगा है। अब तो अनेक लोग जीवन की अमूल्यता को ही नहीं समझ पा रहे हैं और अपनी जीवन-लीला को समाप्त करने में लग गये हैं। जीवन जीने के लिए भौतिक साधनों की आवश्यकता है, पर भाव की शुद्धता और पवित्रता से मन को सींचते रहने की भी आवश्यकता है। जीवन की निरंतरता के लिए इनकी आवश्यकता को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।

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