Saturday, February 21, 2015

संस्कारों का जीवन में बहुत महत्व है

         हमारे जीवन में संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। देवपूजन और देवदर्शन भारतीय संस्कृति के जीवंत संस्कारों के साथ ही श्रेष्ठ सदाचार भी हैं। सामान्यत: हमारा जन्म, हमारे कार्य, हमारा मन और हमारी वाणी के द्वारा सर्वसमर्थ की सेवा करने का नाम देवार्चन है, जो हमारी वैदिक संस्कृति और आस्था का केंद्र है। हमारी देवपूजा-पद्धति पूर्णतया वैज्ञानिक और व्यावहारिक है।

         हमारी आस्था-ज्योति के आलोक से अज्ञानता के सघन-अंधकार को नष्ट कर शांति प्रदान करती है। देवार्चन के प्रमुख तरीकों में सूर्य भगवान को अ‌र्घ्य, देवदर्शन, प्राणायाम, दैनिक सेवा, स्तुति, आरती, चरणोदक व प्रसाद ग्रहण करना, घंटाध्वनि, शंखनाद, परिक्रमा आदि क्रियाओं का प्रमुख रूप से समावेश होता है। इन क्रियाओं का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्व है। सूर्य-विज्ञानियों के अनुसार नेत्र-ज्योति के प्रदाता और बुद्धि विकासक भगवान सूर्य को अ‌र्घ्य देना आवश्यक है। जलधार से सूर्यदेव की रश्मियों के घर्षण से उत्पन्न ऊर्जा से नेत्र-ज्योति के साथ ही अनेक लाभ होते हैं।

         भगवान् की दैनिक सेवा के पश्चात् छलरहित और शुद्ध मन की 'स्तुति' ही प्रभु को प्रभावित करती है। आरती पूजा-विधि का एक आवश्यक अंग है। पूजा के अंत में 'आरती' देवार्चन में अज्ञानतावश होने वाली त्रुटि की पूर्ति करती है। भक्त की भावना और मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण आरती की 'लौ' के ताप से प्रभावित शरीर का खुला हिस्सा वैज्ञानिक कारणों से पुष्ट होता है। 'घंटाध्वनि' और 'शंखनाद' फेफड़ों और वक्ष:स्थल को सदृढ़ करते हैं। 'देवमंदिर' के भीतरी वातावरण के प्रभाव से व्यक्ति का 'शारीरिक रसायनशास्त्र' बदलता है, जो बीमारियों के इलाज में सहायक होता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि ध्वनि तरंगों और ऊर्जा तरंगों के टकराने से व्यक्ति नवीन ऊर्जा और स्फूर्ति का अनुभव करता है। परंपरागत देवद्वार की नंगे पैरों से 'परिक्त्रमा' करने पर 'एक्यूप्रेशर' के लाभ प्राप्त होते हैं।

     देवप्रतिमा और शालिग्राम के चरणों का अभिषेक करने से प्राप्त अभिमंत्रित और तुलसी-दलयुक्त 'चरणामृत' लेने के साथ ही भगवान को निवेदित 'नैवेद्य' ग्रहण करने से एक साथ सभी तीर्थो का फल प्राप्त हो जाता है।

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