Friday, February 20, 2015

प्रात:काल का समय हमारे जीवन में बड़ा महत्व है

          प्रात:काल का समय हमारे जीवन में बड़ा महत्व रखता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि वहीं से हमारा दिन प्रारंभ होता है। इसलिए प्रात:काल को अपने विवेक से प्रारंभ करना चाहिए। हमारे जीवन का कोई भी पल अगर मनोविकारों से ग्रस्त होता है तो हम मानसिक रूप से अस्त-व्यस्त हो जाते हैं।

          हमारी थोड़ी-सी भूल हमारे जीवन को कांटों से भर देती है। मनोविकारों में काम, क्रोध, लोभ और मद प्रमुख हैं। वे हमारे संतुलित जीवन में असंतुलन पैदा कर देते हैं। इसका कारण यह है कि जो व्यक्ति रात में पूरी नींद सोता है, वह सुबह अनमना बन जाता है। उसके मन में कोई प्रसन्नता नहीं होती। वह उखड़ा-उखड़ा अपना दिन प्रारंभ करता है और ऐसी ही अवस्था में वह क्रोधी बन जाता है।
 
          सुबह का क्रोध दिन भर उसे उद्विग्न बनाए रखता है। हमें कोई चीज अच्छी नहीं लगती। बात-बात में मित्रों से लड़ पड़ते हैं। एक प्रकार से हम क्रोध के वशीभूत होकर पागल की तरह व्यवहार करने लगते हैं। सुबह का क्रोध विष के समान होता है, जो हमें अपनों से दूर कर देता है और मित्रों के मन में घृणा पैदा कर देता है। क्रोधी व्यक्ति को समाज में सम्मान नहीं मिलता। कामी व्यक्ति और अहंकारी व्यक्ति दोनों को लोग अछूत की नजरों से देखते हैं, लेकिन जो लोग सत्संग में बैठते हैं, विवेक की बात करते हैं, वे सबसे पहले प्रयास करते हैं कि उनका प्रात:काल आनंदमय हो। ऐसा इसलिए, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति खुश रहने के बारे में सोचता जरूर है, लेकिन रह नहीं पाता।

          अगर हम प्रात:काल को आनंद रूप में स्वीकार करें, उगते हुए लाल सूर्य का प्रसन्नतापूर्वक स्वागत करें, मंद-मंद बयार में शरीर को प्रफुल्लित करें और हंसते हुए मुस्कुराते हुए दिन का स्वागत करें तो कोई कारण नहीं है कि हमारा दिन खराब हो। काम के वशीभूत हो, और मद के वशीभूत हो, अगर हम दिन का प्रारंभ करेंगे तो सारा दिन विकृतियों से भर जाता है। मनोवैज्ञानिक मानने लगे हैं कि प्रात:काल बिस्तर परित्याग के बाद प्रसन्नतापूर्वक अच्छे विचारों का धारण करना चाहिए और किसी भी कारण से क्रोध के वशीभूत न हो, ऐसा उपाय करना चाहिए। साधना में जो लोग उतरते हैं, वे सबसे पहले यह प्रयास करते हैं कि मन को विकृति से दूर रखते हुए आनंद के क्षेत्र में प्रवेश करें। जिस प्रकार स्वस्थ रहना हमारा मूल धर्म है, उसी प्रकार प्रसन्न रहना भी हमारा अधिकार है।

अन्न से ही जीवन का संचरण होता है

           भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि अन्न से ही जीवन का संचरण होता है। शरीर की रक्षा के लिए आहार एक महत्वपूर्ण साधन है। शरीर की बनावट और उसकी आवश्यकता को देखते हुए अलग-अलग ढंग से प्रत्येक जीव के लिए आहार निर्धारित हैं। एक ओर जहां मनुष्य के लिए सुपाच्य आहार बनाया गया वहीं दूसरी ओर पशु-पक्षियों के लिए दूसरे प्रकार के आहार की व्यवस्था की गई। मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, जिसके लिए सुपाच्य और सुगम आहार की व्यवस्था इसलिए की गई है, क्योंकि उसकी पाचन क्रिया सामान्य होती है। हर हालत में गरिष्ठ या भारी आहार से बचने की सलाह दी गई है।

          दरअसल, यह वैज्ञानिक तथ्य भी है। जब आहार पेट में जाता है तो शरीर की सारी ऊर्जा या शक्ति उसे पचाने में लग जाती है। शरीर में जो ऊर्जा है उसी से मनुष्य चिंतन करना है, प्रसन्न रहता है और हंसता-बोलता है। अगर यह ऊर्जा भोजन पचाने में लग जाए तो शरीर का दूसरा काम लगभग बंद हो जाता है। यही कारण है कि जो लोग अपने मस्तिष्क से अधिक काम लेते हैं, उनकी सारी ऊर्जा व शक्ति उसी में खर्च हो जाती है और आहार पचाने में ऊर्जा की कमी हो जाने से पाचन क्रिया ठीक से काम नहीं करती। जितने भी बड़े-बड़े चिंतक और विचारक हुए हैं वे सभी नाममात्र का आहार ग्रहण करते थे। महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन अल्प आहार ग्रहण किया करते थे। ऐसा कहा जाता है कि कणाद ऋषि अन्न के कुछ कण लेकर ही स्वस्थ जीवन जीते थे और निंबार्क नीम की छाल खाकर ही दार्शनिक सिद्धांतों की विवेचना किया करते थे। स्पष्ट है कि शरीर को संचालित करने के लिए अत्यंत सामान्य भोजन की आवश्यकता है। जो लोग शरीर से अधिक परिश्रम करते हैं और मस्तिष्क से कम काम लेते हैं उन्हें अधिक भोजन की आवश्यकता होती है।

          सरल और सुपाच्य आहार ही ग्रहण करें। हमारे यहां उपवास का जो विधान है उसका अर्थ यही है कि जब पेट खाली हो तो जिस व्रत का अनुष्ठान आप कर रहे हैं उसके चिंतन में आपके शरीर की सारी ऊर्जा मदद करेगी। जब ऊर्जा का बहाव मस्तिष्क की ओर पूरी शक्ति से होने लगेगा तो मस्तिष्क का विकास होगा और जब पेट की ओर होने लगेगा तो पेट का विकास होगा। आहार का महत्व शास्त्रों में निर्धारित किया गया है। जो साधक होगा, जो जिज्ञासु होगा उसका आहार सरल व सुपाच्य होगा।

प्रेम, समर्पण, ईमानदारी व निष्ठा से बनाई जगह घर कहलाता

          अक्सर लोग सुख के लिए बाहर घूमने जाते हैं, पिकनिक पर जाते हैं और संबंधियों के यहां जाते हैं। इसके बावजूद वास्तविक सुख उन्हें इन स्थानों पर भी प्राप्त नहीं होता। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह सुख उनके अपने घर में ही उपलब्ध होता है।

          एक दार्शनिक का कहना भी है कि 'घर मात्र ईंट-पत्थरों से बना हुआ मकान नहीं होता, बल्कि घर वह होता है जिसे परिवार के सदस्य मिलकर बनाते हैं। यदि लोग प्रेम, समर्पण, ईमानदारी और निष्ठा से रहें, तो उन्हें स्वर्ग का आनंद और सुख अपने घर में ही मिलेगा। घर एक ऐसा स्थान होता है, जहां पर व्यक्ति अपनी मर्जी से अपने स्वाभाविक रूप में रहता है। यहां उसे किसी मुखौटे की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके विपरीत बाहर निकलने पर व्यक्तियों को अनेक अवसरों पर झूठी मुस्कान और झूठ का सहारा लेना पड़ता है, लेकिन फिर भी उन्हें सुकून नहीं मिलता। सुकून और सुख का स्थान घर ही है। प्रसिद्ध विद्वान लांगफेलो का कहना है कि 'अपने घर से प्रेम करने वाले और उसके प्रति निरंतर आकर्षण प्राप्त करने वाले व्यक्ति ही संसार के सबसे अधिक सुखी प्राणी हैं।

          आज घर में व्यक्तियों को सुकून नहीं है। अक्सर घर के सदस्य जब बाहर से लौटते हैं तो थके हुए तनावग्रस्त और चिंताओं से घिरे होते हैं। ऐसे में यदि वे आपस में ही कलह में लगे रहते हैं, तो घर का सुख, दुख में बदल जाता है। स्वेट मार्डेन 'सुख की साधना नामक पुस्तक में कहते हैं कि 'कलह-क्लेश, कुत्सित भावनाएं, कटु आलोचना, चिड़चिड़ापन, अधीरता घर की शांति को हर लेते हैं और अशांति का कारण बना करते हैं। बहुत से लोग घर में होने वाले झगड़ों और तनाव के कारण समय से पहले ही मौत को गले लगा लेते हैं। घर में सुख व सुकून के बजाय तनाव और दुख मिलने के कारण ऐसे लोग शारीरिक कष्ट, असफलता, भावनात्मक क्षति, अपराध, गुस्सा, आर्थिक नुकसान और विपरीत सामाजिक परिस्थितियों को झेल नहीं पाते। वे दुखों से इतने भयभीत हो जाते हैं कि आत्महत्या करने में ही उन्हें इन सबका हल नजर आता है। घर मात्र ईट व पत्थरों से बना निवास नहीं होता, बल्कि उसमें प्रेम, करुणा, स्नेह और ममता का वास होता है।

हमें जीवन में सदैव संतुलन बनाकर चलना चाहिए

          आज के भौतिकवादी युग में मनुष्य की भाग-दौड़ इतनी बढ़ गई है कि जीवन का सारा आनंद जैसे खो गया है। इससे आदमी में चिड़चिड़ाहट और तनाव बढ़ गया है। इसी कारण विनोदी स्वभाव वाला व्यक्ति भी प्राय: परिवार में और बाहर भी छोटी-छोटी बातों पर क्रोधित हो उठता है।

          अक्सर लोग क्रोध करके प्रायश्चित के भाव से भर जाते हैं, लेकिन पुन: क्रोधित होते रहते हैं। इस पर एक फारसी कवि ने फरमाया था, 'हम प्रायश्चित करके भले ही परमात्मा की विपत्तियों से बच जाएं, परंतु लोगों की फब्तियों से नहीं बच सकते। कहते हैं कि दराती के एक ओर दांत होते हैं, किंतु लोगों की जिह्वा के दोनों ओर दांत होते हैं। दराती एक ओर से और जिह्वा दोनों ओर से वार करती है। यह सत्य है कि जीवन-चक्र की गति बड़ी न्यारी होती है और हमारे सामने घटित होती घटनाएं हमें प्रभावित करती हैं। हम बात-बात पर बिगड़ उठते हैं। सामान्य बात पर भी हम अपनी सहजता त्याग कर क्रोधित हो जाते हैं। यह सर्वथा अनुचित है। हमें जीवन में सदैव संतुलन बनाकर चलना चाहिए। सामने वाले की संपूर्ण बात धैर्य से सुनकर तब कोई निर्णय लेने से क्रोध से बचा जा सकता है।

          यह बहुत आसान है। सामने वाले की कही बात और किन परिस्थितियों में वह घटना घटी, इस बात का मूल्यांकन करें। उसे तौलें और परखें। इससे अकारण क्रोध और फिर प्रायश्चित से बचा जा सकता है।

          कहा गया है कि मनुष्य का मुख्य शत्रु क्रोध है। यह देह में रहता हुआ ही देह को नष्ट कर देता है। गीता में क्रोध के संबंध में इसी बात को और स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है और मूढ़ता से स्मृति भ्रांत होती है। स्मृति भ्रांत होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट हो जाने से प्राणी स्वयं नष्ट हो जाता है। हममें से अधिकतर लोग गीता आदि ग्रंथ पढ़ते हैं, किंतु अवसर आने पर क्रोध कर बैठते हैं। ऋषि-मुनियों ने क्रोध को जीतने का तरीका बताया है, लेकिन हम जानते हैं कि संसार में रहकर मन से भी अधिक कठिन क्रोध पर विजय पाना है। क्रोध को जीतने से पहले यदि हम काम, मोह, लोभ पर विजय पा लें, तो तनाव दूर हो जाएंगे। इसके दूर होते ही हम संतोषी बन जाएंगे और संतोष के आते ही क्रोध से बच जाएंगे। तनाव से बचने के लिए योग करें, योग से क्रोध भी शमित होता है। योग हमें जीवन की बुराइयों से दूर रखता है।

हमारे मन में अनंत शक्तियां विद्यमान हैं

          संसार के सभी प्राणी सुख और शांति की कामना करते हैं, समृद्धि की कामना करते हैं, लेकिन आज का मानव आधुनिक जीवनयापन, भोग-लिप्सा और भौतिकवाद के नीचे दबकर दुख की अनुभूति कर रहा है। व्यक्ति अनंत सुख का स्वामी होकर भी दुख और तनाव के महासागर में डूबता जा रहा है।

          इन समस्याओं का समाधान वाह्य और भौतिक साधनों से शायद संभव नहीं है। जब तक व्यक्ति अपने अंदर आनंद की खोज नहीं करेगा, तब तक वह दुख से मुक्त कैसे हो सकता है? हमें सुख की प्राप्ति के लिए अपनी समृद्ध परंपरा की ओर देखना होगा, जहां व्यक्ति को एक सशक्त मार्ग मिलता है-योग।

          हमारे मन में अनंत शक्तियां विद्यमान हैं। आवश्यकता है, उन्हें जाग्रत करने की। 'योग के द्वारा हम अपनी सुप्त शक्तियों को जाग्रत कर अनंत आनंद, अनंत शक्ति और अनंत शांति की प्राप्ति कर सकते हैं। हम अनंत शक्तियों के स्वामी होते हुए भी निर्बल बने हुए हैं। इसी निर्बलता को सबलता में बदलता है ध्यान और योग। महर्षि पतंजलि को योग का प्रणोता माना गया है। उनका 'योगदर्शन जन सामान्य के लिए बहुत उपयोगी शास्त्र है। इसमें अतिसूक्ष्मता से जीवन को संयमित ढंग से उपयोगी बनाने की बात सहजता से प्रकट की गई है। इसी कारण आज के युग में न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में योग के महत्व को स्वीकार किया गया है, बल्कि दैनिक जीवनचर्या और चिकित्सा के क्षेत्र में भी इसका महत्व सिद्ध हो गया है। इसका महत्व अब प्रबंधन के क्षेत्र में भी समझा जा रहा है।

          महर्षि पतंजलि ने अपने 'योगशास्त्र में लिखा है कि 'चित्त की वृतियों को रोकना ही योग है। योग शब्द का अर्थ है-जोडऩा या मिलाप। योग शब्द का भावार्थ आत्मा का परमात्मा से सबंध जोडऩा या फिर मिलन है। आचार्य श्रीमहाप्रज्ञ ने योग को मुक्ति का साधन बताया है और कहा है कि योग से चित्त निर्मल होता है और व्यक्ति अपने आवेगों-संवेगों पर नियंत्रण कर सकता है। प्रेम का मार्ग योग है और व्यक्ति अपनी जकडऩों को तोड़कर वाह्य आडंबर को चकनाचूर कर अपने अंदर स्फुटित होने वाली आनंद की तरंगों का अनुभव करता है। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, 'यह चंचल और अस्थिर मन जहां-जहां दौड़कर जाए, वहां-वहां से हटाकर बार-बार इसे परमात्मा में ही लगाना चाहिए। यही योग है।

मधुर वाणी एक प्रकार का वशीकरण है

          मधुर वाणी एक प्रकार का वशीकरण है। जिसकी वाणी मीठी होती है, वह सबका प्रिय बन जाता है। प्रिय वचन हितकारी और सबको संतुष्ट करने वाले होते हैं। फिर मधुर वचन बोलने में दरिद्रता कैसी? वाणी के द्वारा कहे गए कठोर वचन दीर्घकाल के लिए भय और दुश्मनी का कारण बन जाते हैं।

          इसीलिए साधारण भाषा में भी एक कहावत है कि गुड़ न दो, पर गुड़ जैसा मीठा अवश्य बोलिए, क्योंकि अधिकांश समस्याओं की शुरुआत वाणी की अशिष्टता और अभद्रता से ही होती है। सभी भाषाओं में आदरसूचक शिष्ट शब्दों का प्रयोग करने की सुविधा होती है। इसलिए हमें तिरस्कारपूर्ण अनादरसूचक शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हमें वाणी की मधुरता का दामन नहीं छोडऩा चाहिए। मीठी वाणी व्यक्तित्व की विशिष्टता की परिचायक है। हमारी जीवन-शैली शहद के घड़े के ढक्कन के समान होनी चाहिए। मीठी वाणी जीवन के सौंदर्य को निखार देती है और व्यक्तित्व की अनेक कमियों को छिपा देती है, किंतु हमें इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि अपने स्वार्थ के लिए हमें चापलूसी या दूसरों को ठगने के लिए मीठी वाणी का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

          हमारा हृदय निर्मल होना चाहिए और वाणी में एकरूपता होनी चाहिए। कोई व्यक्ति कितना भी प्रकांड विद्वान क्यों न हो, लेकिन उसे अल्पज्ञानी का उपहास कभी भी नहीं उड़ाना चाहिए। जिस प्रकार जहरीले कांटों वाली लता से लिपटा होने पर उपयोगी वृक्ष का कोई आश्रय नहीं लेता, उसी प्रकार दूसरों का उपहास करने और दुर्वचन बोलने वाले को कोई सम्मान नहीं देता। उपहास में कहे गए द्रौपदी के वचन महाभारत के युद्ध का कारण बना।

          एक विद्वान कहते हैं कि कटु टिप्पणियों के कारण जिंदगी में बनते काम भी बिगड़ जाते हैं। कुछ लोग मामूली कहासुनी होने पर क्षुब्ध हो जाते हैं, पर हममें सहनशीलता होनी चाहिए। प्रतिकार की भावना का त्यागकर कलह रूपी अग्नि का परित्याग करना चाहिए। एक सुभाषित में भी कहा गया है कि जो सदा सुवचन बोलता है, वह समय पर बरसने वाले मेघ की तरह सदा प्रशंसनीय व जनप्रिय होता है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हम जिन शब्दों का उच्चारण करते हैं, उनकी गूंज वातावरण के जरिये सामने वाले व्यक्ति के दिमाग में समा जाती है। अगर हम मृदु वचन बोलेंगे तो इनका प्रभाव दूसरे व्यक्ति पर अच्छा पड़ेगा।

मनुष्य को चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए

          आयुर्वेद में दो प्रकार के रोग बताए गए हैं। पहला, शारीरिक रोग और दूसरा, मानसिक रोग। जब शरीर का रोग होता है, तो मन पर और मन के रोग का शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। शरीर और मन का गहरा संबंध है।

          काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंधकार, ईष्र्या, द्वेष आदि मनोविकार हैं। ये मन के रोग हैं। इन मनोविकारों में एक विकार है-चिंता। यह मन का बड़ा विकार है और महारोग भी है। जब आदमी को चिंता का रोग लग जाता है तो यह मनुष्य को धीरे-धीरे मारता हुआ आदमी को खोखला करता रहता है। चिंता को चिता के समान बताया गया है, अंतर केवल इतना है चिंता आदमी को बार-बार जलाती है और चिता आदमी को एक बार।

          शारीरिक रोगों की चिकित्सा वैद्य, हकीम व डॉक्टर कर देते हैं, लेकिन मानसिक रोगों का इलाज करना इन लोगों द्वारा भी मुश्किल हो जाता है। मन के रोगों में जब कोई भी चिकित्सा काम नहीं करती है, तो उस समय धर्म शास्त्रों की चिकित्सा काम देती है।

          चिंता के इलाज के लिए शास्त्र बताते हैं कि मनुष्य को चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। जब भी चिंता सताती है, तब-तब मनुष्य को भगवान का चिंतन करना चाहिए। चिंता से घिरा जो भी आदमी चिंता का भार भगवान पर छोड़ निश्चित होने का अभ्यास करेगा उसको चिंता का रोग भी नहीं लगता और उसकी समस्याओं के समाधान भगवद्कृपा से स्वत: निकलते रहते हैं। चिंता करने वाले व्यक्ति के लिए एक दरवाजा ऐसा है जो उसके लिए कभी भी बंद नहीं होता। वह है भगवान का दरवाजा। चारों तरफ से घिरे इंसान को भगवान का दरवाजा पार निकालता है। गीता में कहा गया है कि जो भक्त अपने को भगवान के प्रति समर्पित करता हुआ अपना भार भगवान पर छोड़ देता है तो भगवान उसके भार को वहन करते हैं।
 
          जो चिंता करता रहता है उसका चेहरा बुझता-मुरझाता रहता है और जो परमात्मा का चिंतन करता है उसका चेहरा चमकता है। इसलिए गीता में बताया गया है कि आदमी अभ्यास व वैराग्य से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। स्पष्ट है कि चिंता के संबंध में भी आदमी को परमात्मा पर पूरा भरोसा करके अभ्यास के द्वारा अपने स्वभाव में परिवर्तन करते हुए चिंता मुक्ति और सुखमय जीवन जीने का प्रयत्न करना चाहिए।

परमात्मा प्राणरूप में आपके अंतर्मन में बैठा है

          इस संपूर्ण ब्रह्मंड में केवल परमात्म तत्व है और कुछ नहीं है। विज्ञान जिसे सुपर पावर मानता है, वही अध्यात्म में परमतत्व है, जो संपूर्ण जीव-जगत को प्राणवान बनाए हुए है। माया, अविद्या और अहंकार के कारण जीव उस परमसत्ता से अलग है। यह जो संपूर्ण रहस्यमय सृष्टि है, वह सब दृष्टिभ्रम है। ऐसा इसलिए क्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तुएं भ्रम हैं, तरंगें हैं और ऊर्जा का वेग हैं। अध्यात्म के रहस्य को समझने में सामान्यत: लोगों को कठिनाई होती है लेकिन विज्ञान की भाषा आसानी से समझ में आ जाती है।

          दरअसल, हमारे मन में यह आम धारणा व्याप्त है कि परमात्मा हमारे पवित्र मंदिर में निवास करता है और स्थायी तौर पर वह स्वर्ग, साकेत या ब्रह्मलोक में रहता है। दूसरी ओर हमारे सिद्ध-संतों का मानना है कि परमात्मा तो कण-कण में निवास करता है, वह तो विभु है, अव्यक्त है, तो उसे किसी मंदिर में कैसे रखा जाए। अगर हम अपने कार्यों, विचारों और संस्कारों को पवित्र कर लें और अपने तन-मन को मंदिर बना लें, तो हमारे तन और आत्म तत्व में परमात्मा का निवास होने लगेगा। भगवान श्रीराम ने अपनी मां कौशल्या को इसी शरीर में ब्रह्मंड का दर्शन कराया था और श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाया था। इसका अर्थ है कि हम विराट हैं, अज्ञानतावश विराट बन नहीं पा रहे हैं। यही अज्ञान अविद्या है, जो हमारे मूल स्वरूप को अपनी माया से ढके हुए हैं।

          गिलास में पानी भरा हो, अगर उसमें लकड़ी डाली जाए, तो लकड़ी टेढ़ी दिखती है। जबकि लकड़ी टेढ़ी नहीं है। उसी तरह संसार सत्य दिखता है, माता-पिता, भाई-बहन, सत्य दिखते हैं लेकिन हैं नहीं। सत्य तो केवल परमात्मा है। जिस शरीर को तुम प्यार करते हो, जब उस शरीर से प्राणरूप परमात्मतत्व निकल जाता है, तो तुम उसी शरीर से घृणा करने लगते हो। हमारे जीवन का सत्य यही है कि हम अपने सद्कर्मों से इस जीवन को पापरहित बना लें, जिसमें कोई विकार न हो। काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और ईष्र्या से हम प्रभावित न रहें। जिस दिन आप यह मान लेंगे कि जो हो रहा है, वह सब प्रभु की इच्छा है, आप इस घटना में कहीं नहीं हो, उसी दिन आप निष्पाप बन जाओगे और आपका शरीर मंदिर की तरह पवित्र बन जाएगा। फिर किस मंदिर में किसकी पूजा करने कहां जाओगे। प्राणरूप परमात्मा आपके अंतर्मन में बैठा है।

असफलता हमारी जिंदगी में स्पीड ब्रेकर का काम करती है


          असफलता हमारी जिंदगी में स्पीड ब्रेकर का काम करती है। जिस तरह गाड़ी को हमेशा एक समान गति में चलाना असंभव है, उसी तरह जीवन भी एक समान गति से नहीं चलता। उतार-चढ़ाव इस जीवन के अनिवार्य अंग हैं, जिनका सामना न चाहते हुए भी प्रत्येक व्यक्ति को करना ही पड़ता है।

          कुछ व्यक्ति असफलता से हिम्मत हार बैठते हैं, तो कुछ असफल होकर सफलता का ऐसा नया इतिहास रचते हैं कि उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित हो जाता है। महान वैज्ञानिक थॉमस अल्वा एडीसन, स्टीफन हॉकिंग और हेलेन केलर आदि इसके उदाहरण हैं। थॉमस अल्वा एडीसन ने तो अपनी हर असफलता को स्पीड ब्रेकर की तरह ही लिया। उनका कहना था कि 'मैं सात सौ बार असफल नहीं हुआ। मैं एक बार भी असफल नहीं हुआ। मैं यह सिद्ध करने में सफल रहा कि वे सात सौ तरीके सही नहीं थे। जब मैंने उन रास्तों को नष्ट किया, तो मुझे वह रास्ता मिला जो मंजिल तक ले गया। असफलता के स्पीड ब्रेकर को पार करके ही थॉमस अल्वा एडीसन बिजली के बल्ब का आविष्कार कर पाए। इसके साथ ही ब्लेड बनाने वाले जिलेट ने भी असफलता को केवल एक स्पीड ब्रेकर की तरह ही लिया था। वह कुछ देर रुके और फिर अपने रास्ते की ओर बढ़ चले।

          आखिर उस स्पीड ब्रेकर को पार कर उन्हें अपनी मंजिल प्राप्त हुई। असफलता केवल कार्य में उत्पन्न होने वाली बाधा है, जिसे धैर्य, बुद्धि और सतर्कता से दूर किया जा सकता है। प्रसिद्ध लेखिका व समाजसेवी हेलन केलर का कहना था कि 'अवरोध असफलता नहीं हैं, बल्कि आपकी सफलता के मापदंड हैं। जब आप अवरोधों का निडरता से सामना कर सफल हो जाएंगे तो आपको इन्हीं अवरोधों और असफलता से जूझने में आनंद आएगा। यदि असफलता रूपी स्पीड ब्रेकर आपने अपने जीवन में पार नहीं किए तो सफलता तक पहुंचना असंभव है। अल्फ्रेड आरमंड मोंटापर्ट असफलता के स्पीड ब्रेकर से न डरने की सलाह देते हुए कहते हैं कि 'बहुसंख्यक लोग बाधाओं को देखते हैं, सिर्फ चंद लोग ही लक्ष्यों पर नजरें टिकाए रखते हैं। इतिहास बाद वालों की सफलताएं दर्ज करता है और पहले वालों को भुला देता है।

जीवन के सही मूल्यों को समझ कर जीवन में उपयोग धर्म है


          धर्म चर्चा का नहीं, बल्कि दिनचर्या का विषय है। धर्म एक रथ है, संस्कारित मन उसका सारथी और मनुष्य की आत्मा उस रथ का रथी है। यानी धर्म वह रथ है, जो आत्मा को परमात्मा से मिलाता है। जीवन के चार पुरुषार्थो में इसे पहला स्थान दिया गया है। आज के परिवेश में मनुष्य धर्म की चादर ओढ़कर कई बार आडंबर कर बैठता है, जो समाज के लिए घातक है। हम भूल जाते हैं कि धर्म का फल मनुष्य को तभी प्राप्त होता है, जब व्यक्ति निष्ठापूर्वक धर्म का आचरण करता है। जब वह दया, प्रेम, करुणा आदि गुणों को जीवन में अमल में लाकर मानव सेवा में तत्पर होता है। जो कार्य मानवता के कल्याण के लिए हो, उसी का दूसरा नाम धर्म है।

          जो व्यक्ति धार्मिक है, जिसकी वृत्तियां श्रेष्ठ हैं उसे परमात्म की अनुभूति में देर नहीं लगती है। धर्म है गिरतों को उठाना, भूखे को भोजन कराना, प्यासे को पानी पिलाना। है।धर्म वह नहीं, जो सिर्फ धार्मिक स्थलों पर पूजा-पाठ के द्वारा ही दिख सकता है, बल्कि इसे नित्यप्रति के जीवन में उतारना आवश्यक है। मानव सेवा करना मानव धर्म है तो वहीं राष्ट्र के प्रति समर्पित होना राष्ट्र धर्म है। एक धर्म गृहस्थ का भी है।

          धार्मिक व्यक्ति वह है, जो प्रेम, शांति और करुणा को जीवन में महत्व देता है। जो अपने खाने की चिंता तो दूर अपने साथ-साथ न जाने कितने लोगों का उद्धार करता है। धर्म वह है, जो किसी के आंख के आंसू पोंछ सके, किसी के चेहरे पर मुस्कराहट ला सके। ऐसा धार्मिक व्यक्ति दीपक जलाते समय इस बात का ध्यान रखता है कि वह दीपक से और दीपक प्रदीप्त करे। धरा से अंधेरा मिटे, और लोगों में जाग्रति आए। स्वयं के प्रति और समाज के प्रति। धार्मिक व्यक्ति जीवन में कुछ ऐसा कर गुजरता है कि लोग उसके जाने के बाद भी उसे याद करते हैं। धर्म का संबंध ईश्वर में मनुष्य की आस्था से है। यह जीवन का आधार है। मानव समाज को यथार्थ ज्ञान देकर जीवन के सही मूल्यों को समझाना धर्म है। धर्म विराट है। इसकी व्यापकता को किसी चहारदीवारी में नहीं बांध सकते हैं।

अध्यात्म आज के युग की मूल आवश्यकता है

         अध्यात्म आज युग की मूल आवश्यकता है। लगभग सभी चिंतक, विचारक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक अध्यात्म की आवश्यकता का अनुभव करने लगे हैं, परंतु वर्तमान में अध्यात्म का जो स्वरूप है, क्या यह उस आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है?

          आज अध्यात्म सुंदर शब्दों पर टिक गया है। जो जितना अध्यात्म के गूढ़ तत्वों को अलंकृत शैली में बोल सके, वह उतना ही बड़ा आध्यात्मिक व्यक्ति माना जा रहा है। फिर इसके एक भी तत्व को भले ही अनुभव न किया गया हो। जबकि अध्यात्म ऐसा है नहीं। इसे ऐसा कर दिया गया है। अध्यात्म एक वैज्ञानिक प्रयोग है, जो पदार्थ के स्थान पर जीवन के नियमों को जानना, समझना, प्रयोग करना और अंत में जीवन जीने का तरीका सिखाता है। अध्यात्म जीवन-दृष्टि और जीवन-शैली का समन्वय है। यह जीवन को समग्र ढंग से न केवल देखता है, बल्कि इसे अपनाता भी है। आज कई लोग ऐसे हैं, जो अध्यात्म से नितांत अनभिज्ञ हैं, लेकिन वही अध्यात्म की भाषा बोल रहे हैं। आज अध्यात्म के तत्वों की कार्यशालाओं में चर्चा की जाती है। यह कटु सत्य है कि आध्यात्मिक भाषा बोलने वाले कुछ लोगों का जीवन अध्यात्म से नितांत अपरिचित, परंतु भौतिक साधनों और भोग-विलासों में आकंठ डूबा हुआ मिलता है।
 
          आज के तथाकथित कई अध्यात्मवेत्ता भय, आशंका, संदेह, भ्रम से ग्रस्त हैं, जबकि अध्यात्म के प्रथम सोपान को इनका समूल विनाश करके ही पार किया जाता है। चेतना की चिरंतन और नूतन खोज ही इसका प्रमुख कार्य रहा है, परंतु चेतना के विभिन्न आयामों को खोजने के बदले इससे जुड़े कुछ तथाकथित लोगों ने इसे और भी मलिन और संकुचित किया है।

          अध्यात्म को वर्तमान स्थिति से उबारने के लिए आवश्यक है कि इसे प्रयोगधर्मी बनाया जाए। अध्यात्म के मूल सिद्धांतों को प्रयोग की कसौटी पर कसा जाए। आध्यात्मिकता के बहिरंग और अंतरंग दो तत्व जीवन में परिलक्षित होने चाहिए। संयम और साधना ये दो अंतरंग तत्व हैं और स्वाध्याय व सेवा बहिरंग हैं। अंतरंग जीवन संयमित हो और तपश्चर्या की भट्टी में सतत गलता रहे। आज भी वास्तविक आध्यात्मिक विभूतियां विद्यमान हैं, परंतु उनके पदचिन्हों पर चलने का साहस करने वालों की कमी है। यही वह परिष्कृत अध्यात्म है, जो कहीं बाहर नहीं, हमारे ही अंदर है। हमें इसी की खोज करनी चाहिए।

अध्यात्म आज के युग की मूल आवश्यकता है

                   अध्यात्म आज युग की मूल आवश्यकता है। लगभग सभी चिंतक, विचारक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक अध्यात्म की आवश्यकता का अनुभव करने लगे हैं, परंतु वर्तमान में अध्यात्म का जो स्वरूप है, क्या यह उस आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है?

                    आज अध्यात्म सुंदर शब्दों पर टिक गया है। जो जितना अध्यात्म के गूढ़ तत्वों को अलंकृत शैली में बोल सके, वह उतना ही बड़ा आध्यात्मिक व्यक्ति माना जा रहा है। फिर इसके एक भी तत्व को भले ही अनुभव न किया गया हो। जबकि अध्यात्म ऐसा है नहीं। इसे ऐसा कर दिया गया है। अध्यात्म एक वैज्ञानिक प्रयोग है, जो पदार्थ के स्थान पर जीवन के नियमों को जानना, समझना, प्रयोग करना और अंत में जीवन जीने का तरीका सिखाता है। अध्यात्म जीवन-दृष्टि और जीवन-शैली का समन्वय है। यह जीवन को समग्र ढंग से न केवल देखता है, बल्कि इसे अपनाता भी है। आज कई लोग ऐसे हैं, जो अध्यात्म से नितांत अनभिज्ञ हैं, लेकिन वही अध्यात्म की भाषा बोल रहे हैं। आज अध्यात्म के तत्वों की कार्यशालाओं में चर्चा की जाती है। यह कटु सत्य है कि आध्यात्मिक भाषा बोलने वाले कुछ लोगों का जीवन अध्यात्म से नितांत अपरिचित, परंतु भौतिक साधनों और भोग-विलासों में आकंठ डूबा हुआ मिलता है।

                  आज के तथाकथित कई अध्यात्मवेत्ता भय, आशंका, संदेह, भ्रम से ग्रस्त हैं, जबकि अध्यात्म के प्रथम सोपान को इनका समूल विनाश करके ही पार किया जाता है। चेतना की चिरंतन और नूतन खोज ही इसका प्रमुख कार्य रहा है, परंतु चेतना के विभिन्न आयामों को खोजने के बदले इससे जुड़े कुछ तथाकथित लोगों ने इसे और भी मलिन और संकुचित किया है।

                   अध्यात्म को वर्तमान स्थिति से उबारने के लिए आवश्यक है कि इसे प्रयोगधर्मी बनाया जाए। अध्यात्म के मूल सिद्धांतों को प्रयोग की कसौटी पर कसा जाए। आध्यात्मिकता के बहिरंग और अंतरंग दो तत्व जीवन में परिलक्षित होने चाहिए। संयम और साधना ये दो अंतरंग तत्व हैं और स्वाध्याय व सेवा बहिरंग हैं। अंतरंग जीवन संयमित हो और तपश्चर्या की भट्टी में सतत गलता रहे। आज भी वास्तविक आध्यात्मिक विभूतियां विद्यमान हैं, परंतु उनके पदचिन्हों पर चलने का साहस करने वालों की कमी है। यही वह परिष्कृत अध्यात्म है, जो कहीं बाहर नहीं, हमारे ही अंदर है। हमें इसी की खोज करनी चाहिए।

मनुष्य के एक-एक शब्द उसके व्यक्तित्व का प्रत्यक्षीकरण है

                  जब वाणी शब्दों के माध्यम से प्रकट होती है, तो वह गहरा प्रभाव छोड़ती है। जैसे जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है वैसे ही वाणी का अंतिम सत्य मौन है। अक्षर को ब्रह्म कहा गया है। अक्षर से शब्द बनता है और शब्द ही वाणी का विन्यास है।

                  मनुष्य के एक-एक शब्द उसके व्यक्तित्व का प्रत्यक्षीकरण है। जीभ वाणी का माध्यम है। सुनने वाला आनंद विभोर भी हो सकता है। अगर जीभ के माध्यम से गलत शब्द निकल गए तो व्यक्ति बुरी तरह आहत भी हो जाता है। सारे खेल शब्दों के हैं। आधुनिक मनोविज्ञान भी मानता है कि शब्दों का व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर प्रबल प्रभाव पड़ता है। कोई शख्स किसी को अपशब्द कहता है, तब वह दूसरा शख्स उत्तेजित हो जाता है। जब हम किसी से प्रेमपूर्वक बात करते हैं तो वह दूसरा व्यक्ति प्रसन्न हो जाता है। दुनिया के विभिन्न धर्मों की प्रार्थनाएं ऊर्जावान शब्दों का सुंदर संगठन ही हैं। मंत्र शक्ति को महान माना जाता है। मंत्र शक्ति शब्दों के सुंदर समन्वय व संगठन से ही संबंधित है। कभी आपने सोचा है कि संगीत हमें रुचिकर क्यों लगता है। वैज्ञानिकों के अनुसार संगीत के प्रभाव का असर मनुष्यों पर ही नहीं, बल्कि वनस्पतियों पर भी पड़ता है। संगीत भी सुर-लय व ताल के साथ शब्दों का सुंदर संगठन ही है।

                 हम बिना विचारे जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं और किसी को अकारण दुखी करने का दोषी बन जाते हैं। जीभ पर अगर विवेक का नियंत्रण न हो, जीभ अगर मर्यादा में न रहे तो अकारण हम तमाम दुश्मन पैदा कर लेते हैं। महाभारत की द्रौपदी ने एक बार दुर्योधन को शब्दों से घायल किया था और दूसरी बार अपने स्वयंवर में कर्ण को भी शब्दों से आहत किया था। इसका परिणाम कितना भयंकर हुआ। हम अपने जीवन में सुंदर शब्दों के प्रयोग से मित्रों और प्रशंसकों की संख्या बढ़ा सकते हैं और कड़े शब्दों के प्रयोग से हजार दुश्मन पैदा करते हैं। इसीलिए महावीर कहते हैं सम्यक वाणी बोलो और नानक कहते हैं कि अगर अच्छी वाणी नहीं बोल सकते हो, तो मौन रहना बेहतर है, क्योंकि मौन में वाणी का दुरुपयोग नहीं होता और कंटीले शब्दों से कोई घायल भी नहीं होगा। हमारा धर्म यही है कि हम अपने कार्यो और वाणी से किसी को दुखी न करें। यह भी एक प्रकार का तप है।

हमारा जीवन अमरत्व की साधना है-आनंदमय स्वरूप का चिंतन करें

                एकाकीपन नीरसता लाता है। संसार में विविधता है और इस विविधता में ही पार पाना है। इसमें रमना नहीं है, बल्कि नदी-नाव-संयोग से हिल मिलकर पार हो जाना है। जीवन उत्सवमय तभी होता है जब सभी को साथ लेकर चलें। समूह-भाव से ही जीवन-उत्सव बनता है। परिजन मिलकर रहें। सबको साथ लेकर चलना ही अभीष्ट है। पर्व को तो विशेष उत्साह से मनाएं। सबके मंगल की कामना करें।

                  पर्वों पर अड़ोस-पड़ोस और परिजनों का विशेष ध्यान रखें। कोई भूखा न रह जाए। केवल अपने लिए जीना या स्व उदरपूर्ति तक केंद्रित रहना अच्छी बात नहीं है। जीवन संस्कारमय तो तभी होगा जब समग्रता के साथ गुणों का संवर्धन होगा। इसलिए आत्मचेतना का सामाजिक विस्तार निरंतर बना रहना चाहिए। जब ईश्वर ने हमें सेवा के योग्य बनाया है, तो सेवा से संबंधित विविध कार्यों का विस्तार होना चाहिए। सेवा, हमारे मन की पावन भावना है, जो हमें राग-द्वेष और भेदभाव से ऊपर उठाती है। सामूहिक भाव मन में प्रसन्नता लाता है। पर्व और मेले सामूहिक संस्कार को जगाते हैं, किंतु आज की भागमभाग जिंदगी में हम पर्वे का आनंद भी नहीं उठा पाते। ये तो ऐसे अवसर हैं, जब हम उपासना करें। ईश्वर से प्रार्थना करें कि 'हे नाथ आपकी बड़ी कृपा है। आपने हमें शुभ अवसर प्रदान कर हमारे जीवन को आनंद से भर दिया है।

                आपकी यह कृपा जीवों पर सदैव बनी रहे। सत्संग में नियमित सम्मिलित होना चाहिए। जीवन को दिशा देने के लिए, विषाद को दूर करने के लिए ये बहुत उपयोगी हैं। इनसे ईश्वरीय विचार पुष्ट होते हैं और मानव जीवन की महिमा पुष्ट होती है। इसलिए आवश्यकता यही है कि हम अपना सोचने का तरीका और दृष्टिकोण बदलें। आनंदमय जीवन की कल्पना तभी प्रत्यक्ष होगी, जब मन में सत्संकल्प और सद्विचार सुदृढ़ होंगे। आइए, अपने आनंदमय स्वरूप का चिंतन करें, सर्वकल्याण की कामना करें और परमात्मा की प्रकृति का सदुपयोग करें। ईश्वर ने इतने उपहार दिए हैं, उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें। जब परमात्मा ने बिना किसी शुल्क के हमें इतने वरदान दिए हैं, तो क्यों न हम भी प्राणिमात्र की सेवाओं को जीवन का अनिवार्य अंग बनाएं? पूर्ण आत्मविश्वास के साथ निडर होकर जीवन क्षेत्र में आगे बढ़ते रहें। हमारा जीवन अमरत्व की साधना है। मृत्यु से अमरत्व की ओर बढऩा ही जीवन का पर्व है।

जीवन के सिद्ध सूत्र-श्रीमद्भगवद्गीता का जन्म

              धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य के युद्ध महाभारत में कौरव और पाडंवों की सेना आमने-सामने थी। अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण ने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य आगे लाकर खड़ा कर दिया। अर्जुन ने देखा कि उनके अपने भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और उनके भाई, रिश्तेदार विरोधी खेमे में खड़े हैं।

              डॉ. प्रणव पण्ड्या ने इस सम्बन्ध में सुन्दर प्रस्तुति दी है कि अर्जुन की हिम्मत जवाब दे गई। उन्होंने कृष्ण से कहा कि अपने स्वजनों और बेगुनाह सैनिकों के अंत से हासिल मुकुट धारण कर मुझे कोई सुख हासिल नहीं होगा। अर्जुन पूरी तरह अवसादग्रस्त हो चुके थे। अपने अस्त्र-शस्त्र कृष्ण के सम्मुख भूमि पर रख उन्होंने सही मार्गदर्शन चाहा। तब श्रीमद्भगवद्गीता का जन्म हुआ।

               मान्यता है कि लगभग 40 मिनट तक श्रीकृष्ण और अर्जुन में जो संवाद हुआ, उसे महर्षि व्यास ने सलीके से लिपिबद्ध किया, वही श्रीमद्भगवद्गीता कहलाई।
इसके आध्यात्मिक सिद्धांत स्वयंसिद्ध हैं। विश्व भर के विद्वानों ने इसे धर्म, ज्ञान, भक्ति, उपासना और कर्म के क्षेत्र में गूढ़ गंभीर मीमांसा के विषय का ग्रंथ स्वीकार किया है। भारतीय वेदाचार्यों ने इसे उपनिषद् माना है।

                 मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को मोक्षदा एकादशी या गीता जयंती के रूप में मनाने का प्रचलन है। महाभारत के युद्ध में मोहित हुए अर्जुन को भगवान कृष्ण ने कर्मयोग का पाठ देकर उन्हें कर्म में प्रवृत्त किया था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन ने यह समझा दिया कि उनके शत्रु तो महज मानव शरीर हैं। अर्जुन तो सिर्फ उन शरीरों का अंत करेगा, आत्माओं का नहीं। हताहत होने के बाद सभी आत्माएं उस अनंत आत्मा में लीन हो जाएंगी। शरीर नाशवान है, लेकिन आत्मा अमर है। आत्मा को किसी भी तरह से नष्ट नहीं किया जा सकता।
तब श्रीकृष्ण ने परमतत्व की उस प्रकृति का दर्शन अर्जुन को कराया। भगवान के जिस विराट रूप में अनंत ब्रह्मांड निहित है। ताकि अर्जुन समझ सकें कि वे जो भी कर रहे हैं वह विधि निर्धारित है। 18 अध्यायों के माध्यम से जीवन के सिद्ध सूत्र श्रीकृष्ण ने समस्त प्राणी जगत को प्रदान किए हैं, जिसमें ज्ञान, कर्म, भक्ति, राजविद्या, विभूति से मोक्ष तक की यात्रा कराई है।

सिखाना सभी चाहते हैं, पर स्वयं सीखना कोई नहीं चाहता

            सिखाना सभी चाहते हैं, पर स्वयं सीखना कोई नहीं चाहता। जो सिखाता है वह भी महापुरुषों की सीख को नहीं मानता है। उसका मानना होता है कि उसने जो जानकारी प्राप्त की है वह पर्याप्त है वही सही है और उसे अपने व्यवहार में, चरित्र में ढालने की कोई आवश्यकता नहीं है।

            ऐसा इसलिए होता है कि अब वह ऐसा ज्ञाता हो गया है कि जिसे कुछ सीखने या सीखे हुए पर अमल करने की कोई जरूरत नहीं है। वह बेचारा यह नहीं जानता है कि उसके ज्ञाता होने का यह झूठा अहंकार उसके आध्यात्मिक उन्नयन में कितना अवरोध उत्पन्न कर रहा है? हम भक्तों-संतों और महापुरुषों की जीवनियों और उनके कृतित्व को बचपन से पढ़ते-सुनते रहते हैं, पर हमारा यह पढऩा-सुनना तोते की तरह राम-राम कहना है। काश! हम उनकी सीख को समझ पाते, उसे अपने आचरण में उतार पाते।

            गोस्वामी तुलसीदास ने 'विनय-पत्रिका में अपनी दुर्बलताओं को बताते समय यह भी कहा है- 'सीख देता हूं, सिखाया हुआ नहीं मानता। तुलसीदासजी ने ऐसा कहा है, पर यह सत्य नहीं है। जिस व्यक्ति ने वेदों, पुराणों, इतिहास, साहित्य आदि विविध स्रोतों से तथ्यों को ग्रहण कर रामचरितमानस जैसी कालजयी रचना हमें दी है, वह किसी का सिखाया नहीं मानता था, इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है? सत्य बात तो यह है कि अपने बहाने उन्होंने मनुष्यमात्र की इस एक बड़ी कमजोरी की ओर इंगित किया है और कहा है कि जो सीखने के लिए तैयार नहीं है उसे सिखाने का भी अधिकार नहीं है। तुलसी के इस कथन को पढ़ा-सुना तो अनेक लोगों ने होगा, पर इसके संकेत को अत्यल्प लोगों ने ही समझा होगा। साधारण मनुष्य दूसरों की जरा-सी गलती का तो बखान करने लगता है, पर अपनी पहाड़-सी दुर्बलता को भी जानने का प्रयास नहीं करता और यदि उसे जान भी ले तो उसे स्वीकार करने का साहस उसमें नहीं होता।

             तुलसीदास की 'विनय-पत्रिका का एक-एक पद, उसका एक-एक शब्द अध्ययन-मनन करने योग्य है और उससे प्राप्त संकेतों से अपनी दुर्बलताओं को जानने-सुधारने की आवश्यकता है। मगर मुश्किल यह है कि हम अपने ऋषियों, भक्तों, संतों, महापुरुषों आदि की बातों में निहित संकेतों को समझने-जानने का प्रयास ही कहां करते हैं।

दया का भाव क्या है

              गौतम ऋषि ने मनुष्य के लिए आवश्यक संस्कारों का निर्देश देते हुए आठ आत्मगुणों पर बल दिया है। उन्होंने ‘दया सर्वभूतेषु’ कहकर यानी सभी मनुष्यों के लिए दया को प्रथम स्थान प्रदान किया है। दया का भाव क्या है? दुखी जनों का दुख दूर करने की अभिलाषा को दया कहते हैं। दया के बगैर इस संसार का संचालन संभव नहीं है।

               बालक का जन्म होते ही माता सर्वप्रथम उस पर दया करती है। माता की सदैव इच्छा रहती है कि मेरा बच्चा कभी भूखा न रहे, बीमार न पड़े, मुस्कराता व साफ-स्वच्छ रहे। इसी दया से प्रेरित होकर वह स्वयं अनेक कष्ट सहकर बच्चे का लालन-पोषण करती है। इसी तरह गुरु यदि दया कर दे तो सामान्य शिष्य भी शास्त्र-पारंगत हो सकता है।

              दयावान के शासन में समस्त प्रजा अपने को सुखी मानती है। हममें दया है, लेकिन वह सीमित है। मनुष्य ज्ञानवान अवश्य है, परंतु सर्वज्ञ नहीं। अज्ञानवश मनुष्य किसी से राग और किसी से द्वेष रखता है। इसीलिए संसारी मनुष्य की दया की सीमा होती है। ज्ञान के संदर्भ में शास्त्र का मत है कि मनुष्य का ज्ञान सीमित होने से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। आकाश सीमा में बंधा हुआ नहीं है। कहीं भी हम आकाश के अभाव का अनुभव नहीं कर सकते। हमारी सीमित दया का भी कोई प्रतियोगी अवश्य है, जो नित्य और सर्वज्ञ है। वही समान रूप से संपूर्ण जीवों का हित करता है। माता-पिता तो अपने परिवार पर ही दया करते हैं, परंतु प्रभु तो सर्वत्र दया करते हैं। प्रभु सारे संसार के पिता हैं। वे भक्तों के अंत:करण में बैठकर अपने ज्ञानदीप से हमें प्रकाश दे रहे हैं। इसलिए हमें दया के दायरे को परिवार की सीमाओं से बाहर निकालना होगा।

             सभी प्राणियों के प्रति दया का भाव रखें। यह समझो कि दया मनुष्य जाति को दिया गया एक ऐसा गुण है, जो किसी वरदान से कम नहीं है। शास्त्रों में मानव जाति के अलावा अन्य जीव-जंतुओं पर भी दया करने के महत्व को रेखांकित किया गया है। हम कष्ट आने पर दूसरों से दया चाहते हैं। प्रभु भक्ति मात्र से संतुष्ट होकर कष्टों का निवारण करते हैं। भगवान् की भव्य-भक्ति का आश्रय लेकर उसकी दया प्राप्त करने से ही मनुष्य-जन्म सार्थक होगा।

जिन्दगी का हर पल हमें सिखाकर जाता है


                  हम लोग पूरे जीवन में खुशियां तलाशते हैं। बावजूद इसके, हमें वह तृप्ति नहीं मिल पाती, जिसकी हम तलाश करते हैं। वह सुकून हमें नहीं मिल पाता जो हमें आत्म-संतुष्टि दे सके और सार्थकता का अनुभव करा सके। इसके लिए हमें अपनी चाहतों के ढेर में से सही चाहत को तलाशना होगा। जो चाहतें हम पूरा करने में लगे हैं, उनके पूरा हो जाने पर क्या हम सतुंष्ट हो जाएंगे या फिर हमारी अतृप्ति बढ़ जाएगी? ऐसा क्या है, जिसकी हमें परम आवश्यकता है, जिसके मिल जाने से हमारी अतृप्ति समाप्त हो सकती है, इस प्रश्न को बार-बार सोचना होगा और सही उत्तर की प्रतीक्षा करनी होगी।

                    जीवन प्रबंधन एक ऐसा विषय है, जिसे सीखने की जरूरत हर किसी को है। जिंदगी का हर पल हमें कुछ सिखा कर जाता है, लेकिन यदि हम बिल्कुल भी होश में नहीं हैं तो हम इसका लाभ नहीं ले सकते। यदि आज भी जीने के तौर-तरीके नहीं सीखे गए और इन भूलों को दोहराते रह गए तो आने वाला भविष्य अंधकरामय हो सकता है। निश्चित तौर पर जीवन को संवारने के लिए जीवन की गहराई को समझना जरूरी है और अपनी क्षमताओं को पहचानना जरूरी है। वस्तुत: मानव जीवन के दो पक्ष हैं। एक दृश्य और दूसरा अदृश्य। दृश्य जीवन में हर व्यक्ति का बाहरी रूप, उसका व्यवहार, किए गए कर्म आदि नजर आते हैं। जबकि आंतरिक जीवन में उसके विचार, रुचियां, इच्छाएं और भावनाएं होती हैं, जो दिखाई नहीं पड़तीं, लेकिन व्यक्ति इन्हें महसूस करता है। व्यक्ति जो भी व्यवहार किसी वस्तु के प्रति करता है तो उस वस्तु पर किए गए व्यवहार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि उसके अंदर विचार या भावनाएं नहीं होती, लेकिन यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के प्रति व्यवहार करता है तो उसकी भावनाएं प्रभावित होती हैं। अच्छा व्यवहार दूसरे व्यक्ति को अपना बना लेता है और बुरा व्यवहार उसकी भावनाओं को बुरी तरह से उद्वेलित कर देता है, जिससे उसकी भावनाएं भी शब्दों में प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं, भले ही पूरी तरह से कह न सके।

                 भावनाओं की यह पीड़ा ही दूसरे व्यक्ति के लिए संस्कार बन जाती है। यदि हमें अपने इन हिसाब-किताब वाले रिश्तों से मुक्त होना है तो एक उपाय यह है कि हम इन रिश्तों का आदर करते हुए संबंधित व्यक्ति के प्रति अच्छा व्यवहार करें।

Thursday, February 19, 2015

अभ्यास किसी भी कार्य की कुशलता के लिए परमावश्यक है

                अभ्यास किसी भी कार्य की कुशलता के लिए परमावश्यक है। जीवन की सभी परीक्षाओं में सफल होने के लिए अभ्यास सबसे महत्वपूर्ण घटक है। किसी कार्य में विशेषज्ञता, कला में पारंगतता तब प्राप्त होती है जब कार्य व कलाएं ज्ञान के स्वरूप को छोड़कर व्यवहारिकता धारण करती हैं।

                 ज्ञान संबंधी विशेषताओं को कार्य में बदलकर कार्य का निरंतर अभ्यास करना यही ज्ञान की उपयोगिता है। कार्य-निष्पादन दशाओं में सुधार, अपेक्षित संशोधन कर कार्यरूप को विशेष बनाना भी अभ्यास से ही संभव है। क्रियाओं-प्रक्रियाओं में उत्पन्न होने वाली भौतिक और भाव आधारित समस्याओं को पहचान कर उन्हें सुलझाने की समझ केवल कार्याभ्यास से ही विकसित हो सकती है।

                हमारे जीवन का प्रत्येक उपक्रम सामान्य अभ्यास की सहायता से संपन्न होना चाहिए। यदि कोई किसी को कहे कि वह एक अच्छा व कुशल अध्यापक है, परंतु अध्यापक अध्यापन का निरंतर अभ्यास न करे, तो उसकी ज्ञान-विज्ञान की जानकारियां प्रकटीकरण व प्रयोग के अभाव में पहले तो आधी-अधूरी रह जाएंगी और एक दिन भुलावे की भेंट चढ़ जाएंगी। इसी तरह किसी को तरह-तरह के भोजन बनाने की विधियां भले ही ज्ञात हों, लेकिन वह प्रतिदिन भोजन बनाने का अभ्यास न करे, तो एक दिन वह भोजन बनाना ही भूल जाएगा। शिक्षण, संगीत, पाकशास्त्र और किसी भी अन्य विषय का पुस्तकीय ज्ञान इन विषयों का परिचय भर कराता है, जबकि विषयगत ज्ञान को फलीभूत कर किसी समाज कल्याण कार्य में बदलना ही मौलिकता है और यह तभी संभव है, जब विषय-ज्ञान बारंबार अभ्यास से व्यवहार में तब्दील हो। संपूर्ण मानव जीवन को सुगम, सोद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए विभिन्न कार्यो को सदैव सकारात्मक दृष्टि से टटोलने की जरूरत है। रोजगारों से संबंधित कार्र्यो को अभ्यास के जरिये अच्छी तरह करने से ज्ञान बढ़ता है और कार्य-निष्पादन के नए व सरल उपायों तक पहुंच बनती है। अभ्यास को अनुशासन बनाने वाले तो कार्यसंस्कृति का एक समग्र समुचित साहित्य तक रच डालते हैं। जिस प्रकार शारीरिक व्यायाम का दैनिक अभ्यास शरीर को स्वस्थ रखता है, योगाभ्यास मन-मस्तिष्क के साथ-साथ आत्मगौरव में वृद्धि करता है।

परमात्मा सर्वशक्तिमान है


                         सेवा का भाव मन में रखना उत्तम है, परमात्मा का सेवक बनकर सभी कार्यों को करते रहने से मनुष्य स्वयं को श्रेष्ठता की ओर ले जाता है। इस जगत को परमात्मा का साकार रूप समझकर इस प्रकार अपना जीवनयापन करना चाहिए कि वे प्रभु ही इस जगत के एकमात्र मालिक हैं और मैं उनका एक छोटा सा सेवक हूं।

                          ऐसा विचार मन में जाग्रत हो कि हर हाल में परमात्मा के आदेशों का पालन करता हुआ अपना जीवन जिया जाए। इस संसार में आकर मनुष्य को मालिक समझने की भूल कदापि नहीं करना चाहिए। इसलिए कि इस जगत की एक-एक वस्तु ईश्वर की बनाई हुई है। ईश्वर ही इस प्रकृति के रचनाकर्ता हैं और वह ही इस प्रकृति की रचना को क्षण भर में नष्ट कर सकते हैं और पलभर में एक नई रचना पुन: रच सकते हैं। इस सामथ्र्यवान ईश्वर के हाथ में सभी कुछ है। जो इस सत्य को न समझने की भूल करते हैं और स्वयं को सर्वशक्तिमान मानने लगते हैं, वे मनुष्य दंड के पात्र बनते हैं।

                         उनके अनुसार यह संसार उनकी जागीर है परमात्मा सर्वशक्तिमान है। शक्तिऔर सामथ्र्य हेाते हुए भी वह सभी पर दया करता है। वह दया का सागर है, प्रेम का भंडार है। उससे कोई प्रीति करे न करे, वह सबसे प्रीत करता है। भगवान तो अपने सेवक पर अति प्रीत रखते हैं।

                           भगवान के चरणों में मन लगाकर उनकी सेवा में तत्पर रहने का भाव अति उत्तम है। सारे संसार का राज्य मिल जाए, यहां तक कि यदि तीनों लोकों का राज्य भी मिल जाए तो भी भगवान का सेवक बनने के सामने तुच्छ है। दुनिया का कोई भी वैभव, धन-दौलत, ऐश्वर्य ईश्वर के समक्ष तुछ है यहां तक कि हमारा अपना भौतिक नश्वर जीवन भी। ईश्वर की आराधना ही जीवन का एक मात्र लक्ष्य है इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह भौतिक माया-मोह में पड़े बिना ईश्वर की सतत रूप से आराधना करे। निष्कपट भाव से किसी स्वार्थ के बगैर ईश्वर के प्रति सेवारत होना जीव को उच्चतम अवस्था में ले जाता है। इस संसार में किसी स्वार्थ व दिखावे के बगैर सभी में ईश्वर के अंश का दर्शन करना चाहिए। परमात्मा की सेवा में रहने का भाव रखकर समाज के असहाय, निर्धन और रोगी आदि की सहायता करते रहना चाहिए। यही उस परमात्मा की सच्ची सेवा कहलाएगी।

चरित्र मानव जीवन की स्थायी निधि है

                          सद्विचारों और सत्कर्मों की एकरूपता ही चरित्र है। चरित्र सद्भावना के लिए आवश्यक है । जो अपनी इच्छाओं को नियंत्रित रखते हैं और उन्हें सत्कर्मों का रूप देते हैं, उन्हीं को चरित्रवान कहा जा सकता है। संयत इच्छाशक्ति से प्रेरित सदाचार का नाम ही चरित्र है। चरित्र मानव जीवन की स्थायी निधि है। जीवन में सफलता का आधार मनुष्य का चरित्र ही है। सेवा, दया, परोपकार, उदारता, त्याग, शिष्टाचार और सद्व्यवहार आदि चरित्र के बाह्य अंग हैं, तो सद्भाव, उत्कृष्ट चिंतन, नियमित-व्यवस्थित जीवन, शांत-गंभीर मनोदशा चरित्र के परोक्ष अंग हैं। किसी व्यक्ति के विचार इच्छाएं, आकांक्षाएं और आचरण जैसा होता है, उन्हीं के अनुरूप चरित्र का निर्माण होता है।

                            उत्तम चरित्र जीवन को सही दिशा में प्रेरित करता है। चरित्र निर्माण में साहित्य का बहुत महत्व है। विचारों को दृढ़ता और शक्ति प्रदान करने वाला साहित्य आत्म निर्माण में बहुत योगदान करता है। इससे आंतरिक चेतना जाग्रत होती हैं। यही जीवन की सही दिशा का ज्ञान है। मनुष्य जब अपने से अधिक बुद्धिमान, गुणवान, विद्वान और चरित्रवान व्यक्ति के संपर्क में आता है, तो उसमें स्वयं ही इन गुणों का उदय होता है। वह सम्मान का पात्र बन जाता है। जब मनुष्य साधु-संतों और महापुरुषों की संगति में रहता है, तो यह प्रत्यक्ष सत्संग होता है, किंतु जब महापुरुषों की आत्मकथाएं और श्रेष्ठ पुस्तकों का अध्ययन करता है, तो उसे परोक्ष रूप से सत्संग का लाभ मिलता है, जो सद्भावना के लिए आवश्यक है। मनुष्य सत्संग के माध्यम से अपनी प्रकृति को उत्तम बनाने का प्रयत्न कर सकता है, जिससे सद्भावना कायम रखी जा सके।

                             ईश्वर मनुष्य का एक ऐसा अंतर्यामी मित्र है कि मन में ज्यों ही बुरे संस्कार और विचार उठते हैं उसी समय भय, शंका और लज्जा के भाव पैदा करके वह बुराई से बचने की प्रेरणा देता है। इसी प्रकार अच्छा काम करने का विचार आते ही उल्लास और हर्ष की तरंग मन में उठती है। किसी भी कार्य की सफलता और असफलता की भी चर्चा की जाए, तो भी स्नेह और सहानुभूति के बगैर सफलता भी असफलता में बदल जाएगी या फिर वह प्राप्त ही नहीं होगी। जो लोग क्रूर और असंवेदनशील हैं, उनके ये दोष ही मार्ग में कांटें बनकर बिखर जाएंगे।

विपदा में नकारात्मक विचार आते जो दुघर्टनाओं को जन्म देते

                  दुर्घटनाएं अक्सर मन की पीड़ा और संताप के रूप में हमारे शरीर में एकत्र होती रहती हैं। जब हम उस पीड़ा से अत्यंत व्यथित होते हैं, तो अपने साथ कुछ बुरा कर डालते हैं या मार्ग में बुरा हो जाता है। उसे ही दुर्घटना का नाम दे दिया जाता है।

                  परेशानी से हमारे मानसिक विचार नकारात्मक हो जाते हैं जो दुर्घटना को बढ़ावा देते हैं। दुर्घटनाएं कभी-कभी क्रोध की अभिव्यक्ति होती हैं। क्रोध में व्यक्ति इतना पागल हो जाता है कि वह अपने साथ होने वाले अहित की भी परवाह नहीं करता।

                     पाइथागोरस कहते हैं कि क्रोध मूर्खता से शुरू होता है और पश्चाताप पर खत्म होता है। फिर भी कई लोग क्रोध से दूर नहीं रहते और दुर्घटनाओं को अपने गले लगाते हैं। दुर्घटनाएं कुंठा का संकेत होती हैं, जो कई बार बोल न पाने की मजबूरी महसूस करने से भी घटित होती हैं। प्रसिद्ध लेखिका लुइस एल ने, 'यू कैन हील योर लाइफ नामक पुस्तक में लिखा है, 'विपदा में नकारात्मक विचारों से लोगों के साथ दुर्घटनाएं होती हैं। इसके विपरीत सकारात्मक भावों के साथ सहजता से जीवन जीने वाले लोगों को जीवन भर एक खरोंच तक नहीं आती। इसलिए अपने मन में दूसरों के प्रति ईष्र्या या द्वेष नहीं रखना चाहिए। अध्यात्म व्यक्ति को शांति प्रदान करता है। उसे अहिंसक बनाता है और हिंसक प्रवृत्तियों से दूर रखता है। जिस तरह जीवन में सुख, प्रसन्नता और धन का आना-जाना लगा रहता है, उसी तरह दुर्घटनाएं भी व्यक्ति के जीवन के साथ जुड़ी हुई हैं।


                    आकस्मिक दुर्घटना स्वाभाविक है, लेकिन वे दुर्घटनाएं जो जानबूझकर किसी व्यक्ति के साथ की जाती हैं, गलत हैं। सार्वजनिक स्थलों पर बम विस्फोट आदि ने मानव जाति को भयभीत कर दिया है। ये सभी आतंकवाद की आड़ में ऐसी दुर्घटनाएं हैं, जिन्हें नकारात्मक विचारों से ग्रस्त व्यक्तियों के द्वारा अंजाम दिया जाता है। दुर्घटनाएं परिवार समाज और देश को हिला देती हैं। इनसे परिवार व देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर फर्क पड़ता है। ऐसा नहीं है कि दुर्घटनाओं को अंजाम देने वाले इनसे अछूते रहते हैं, बल्कि कुत्सित इरादों के साथ व्यक्तियों व देश को नुकसान पहुंचाने से स्वयं की भी क्षति होती है। हृदय से नकारात्मक भावों को निकाल कर भी दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है। जब मन में सुंदर विचार होंगे तो व्यक्ति देश व विश्व को सुंदर बनाने में अपना सहयोग करेगा।

मानव में समाज के लिए उपयोगी बनने का भाव होना चाहिए

                 आचार्य चाणक्य कहते हैं- 'शांति के समान कोई तप नहीं, संतोष से बढ़कर कोई धर्म नहीं। सुख के लिए विश्व में सभी चाहते हैं, पर सुख उसी को मिलता है, जिसे संतोष करना आता है। एक जिज्ञासा उठती है कि संतोष है क्या? संतोष का अभिप्राय है-इच्छाओं का त्याग।

                 सभी इच्छाओं का त्याग करके अपनी स्थिति पर संतोष करना ही सुख को प्राप्त कर लेना है। जीवन के साथ इच्छाएं, कामनाएं व आकांक्षाएं रहती ही हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि सुखी जीवन के लिए हमारी इच्छा-शक्ति पर कहीं तो विराम होना चाहिए। इच्छा के वेग में विराम को ही संतोष की संज्ञा दे सकते हैं। संतोष मन की वह वृत्ति या अवस्था है, जिसमें मनुष्य पूर्ण तृप्ति या प्रसन्नता का अनुभव करता है, अर्थात इच्छा रह ही नहीं पाती। जीवन की गति के साथ संपत्ति और समृद्धि की दौड़ से वह सुख नहीं मिलता, जो संतोष रूपी वृक्ष की शीतल छांव में अनायास मिल जाता है। हमें चाहिए कि हम प्रयत्न और परिश्रम के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली प्रसन्नता पर संतोष करना सीखें।

                     निष्काम कर्म-योग, इच्छाओं का दमन, लोभ का त्याग और इंद्रियों पर अधिकार-यह सभी उपदेश संतोष की ओर ले जाने वाले हैं। भारतीय संस्कृति संतोष पर ही आधारित है। श्रम-साधना के अनंतर जिसके मस्तिष्क में संतोष आ समाया है, उसने राज्य और राजमुकुट का वैभव प्राप्त कर लिया। सच तो यह है कि संतोष प्राकृतिक संपदा है, ऐश्वर्य कृत्रिम रूप से् गरीबी है। संतोष का आदर्श यही है कि हम इच्छाओं को सीमित रखकर सत्य व ईमानदारी से श्रम करें और फल की चिंता न करते हुए उसे परमात्मा और परिस्थितियों पर छोड़ दें। प्रत्येक मानव में समाज के लिए उपयोगी बनने का भाव होना चाहिए। ऐसी उपयोगिता में हृदय को सरस बनाने की अपारशक्ति है। हमें इस तथ्य का भली भांति बोध होना चाहिए कि सुखी होने का भाव है-दूसरों को सुखी बनाना। आत्मा में सुख-सौंदर्य की विपुल वर्षा के लिए संतोष एक उपयुक्त मेघ है। संतोष मूल है और सुख उसका फल या संतोष मेघ है और सुख उससे बरसने वाला जल। संतोष सुख का सबसे बड़ा साधन है, जो मस्तिष्क के झुकाव पर निर्भर करता है। यदि मन से सुख मान लिया, तो विपुल व्याधियां भी कपूर की भांति उड़ जाती हैं।

सत्य सदैव एक रूप में स्थित रहता

             सत्य सदैव एक रूप में स्थित रहता है। वह किसी भी काल, किसी भी युग किसी भी परिस्थिति में परिवर्तित नहीं होता। वह प्रकाशमान तत्व सदैव एक समान बना रहता है।
 
              यानी जो अपरिवर्तनशील है, वही सत्य है और वह अपरिवर्तनशील तत्व नित्य, शुद्ध परमात्मा है जो समस्त देहधारियों में आत्मा के रूप में विद्यमान रहता है। उसी परमात्मा ने सारे जगत को धारण कर रखा है और सारा जगत उसी के भीतर व्याप्त है। सभी मानव शरीरों के अंदर रहते हुए भी कोई परमात्मा को जान नहीं पाता। वह इसलिए कि उसी की सत्ता से सारे शरीर प्रकाशमान होते हैं। उसी चेतन सत्ता के कारण मन-बुद्धि, इंद्रियां क्रियाशील होती हैं। सभी शरीरधारियों में मानव देह ही मात्र साधन धाम कहलाता है।

             ऐसा इसलिए, क्योंकि समस्त शरीरों में चाहे वह मनुष्य का हो या फिर किसी अन्य का, सभी में आहार, निद्रा, भय और मैथुन आदि क्रियाएं एक समान रूप से होती हैं, लेकिन मनुष्य को ईश्वर ने अतिरिक्त एक अन्य गुण भी प्रदान किया है, वह है विवेक। परमात्मा ने मनुष्य को विवेकशील प्राणी बनाया है। जो व्यक्ति अपने उसी विवेक का प्रयोग कर सार-असार का विभेदन करता हुआ विश्व रूप परमात्मा की शरण में जाता है, तो ईश्वर की कृपा रूपी प्रसाद को प्राप्त कर उस परम सत्य का साक्षात्कार कर लेता है। दूसरी ओर ईश्वर रचित माया (प्रकृति) चंचल, अनित्य व परिवर्तनशील है। इसमें नित्य एकरूपता नहीं रहती।

             पंच महाभूतों-आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तत्वों से निर्मित मनुष्य के शरीरों का संश्लेषण मां के गर्भ में होता है। इन्हीं पांचों तत्वों से निर्मित मनुष्य के शरीरों में सतत परिवर्तन होता रहता है। वह बालक से किशोर, जवान, फिर अधेड़ होते हुए वृद्ध हो जाता है। अंत में उसी शरीर का विलय पंच महाभूतों में हो जाता है। इसी प्रकार ऋतुओं में भी समयानुसार परिवर्तन होता रहता है। गर्मी बरसात में, बरसात जाड़े में और जाड़ा पुन: गर्मी में परिवर्तित हो जाता है। बीज वृक्ष बनता है। वृक्ष में अनेक शाखाएं फूट जाती हैं। इसमें फूल आता है। फूल से फल निकलते हैं। अंत में उसी वृक्ष से फिर बीज बनता है। यही प्रकृति की निश्चित नियति है।
 
             जो वस्तु पहले नहीं थी, बीच में दृष्टिगोचर प्रतीत होती है और अंत में फिर नहीं रहती, वही असत्य है और जो पहले भी थी अभी भी है और अंत में भी रहेगी, वही सत्य है।


आत्मा अंतत: परमात्मा रूपी सागर में विलीन हो जाती है

               भारतीय धर्म-दर्शन में भक्ति मार्ग को परमात्मा की प्राप्ति का सर्वाधिक सरल व सुगम स्वर्ण सोपान माना गया है।कारण यह कि हमारे हृदय में भक्ति का भाव तभी प्रस्फुटित होता है, जब हमारे अंतस में परमात्मा को प्राप्त करने की प्यास का अभ्युदय होता है। यही प्यास अंतत: भक्त की विरह-वेदना में बदल जाती है, जिसमें अनन्य प्रेम व तड़प का मिला-जुला भाव होता है। यह भाव पूर्ण समर्पण के बाद अनन्य आनंद का स्रोत भी बन जाया करता है। हम सबके भीतर अपरोक्ष रूप में परमात्मा को पाने की प्यास मौजूद है, किंतु हम उसे पहचान नहीं पाते और धन, पद, प्रतिष्ठा, यश आदि प्राप्त करने के लिए गलत दिशा दे देते हैं। तब हमारी स्थिति उस मछली की तरह हो जाती है, जो रेत पर पड़ी तड़पते हुए यह सोचे कि धन, पद, यश, प्रतिष्ठा आदि मिल जाने से उसे जीवन मिल जाएगा, जबकि अनेक लोगों का जीवन गवाह है कि हमें कोई भी धन, पद, यश तभी तक प्यारा लगता है, जब हम उससे दूर हों।

             हर कीमत अदा करने के बाद जब हम वहां पहुंचते हैं, तो पता चलता है कि हमारे हाथ ज्यों के त्यों खाली हैं। कारण यह कि मन द्वारा तैयार किया गया नई आकांक्षाओं का हवामहल खड़ा हो चुका होता है। इसी प्रकार गलत दिशा में दौड़ते हुए हम समाप्त हो जाते हैं।

            भक्त उस मछली की भांति है, जिसे पता चल चुका है कि धन, पद, यश और आसक्ति आदि में जीवन नहीं, बल्कि जल (परमात्मा) में ही परम जीवन के द्वार खुलते हैं। भक्त परमात्मा की ही चाह में जीता है, किंतु भक्त के भीतर द्वैत अर्थात मैं और तू (परमात्मा) का भेद मौजूद होता है। जबकि ज्ञान-परमज्ञान की स्थिति में परमात्मा को प्राप्त करने के लिए आसक्ति का भी विलय मैं और तू का भेद मिटाने के साथ ही हो जाया करता है। द्वैत का झीना आवरण हटते ही भक्त या ज्ञानी भगवान के सदृश हो जाया करता है।
ठीक उस प्रकार जैसे सागर में डूबा घड़ा टूट जाए और उसके भीतर का पानी अगाध सागर में मिल जाए। उसी स्थिति में पहुंचकर कबीर दास कहते हैं, 'बूंद समानी समुद्र में सो कत हेरी जाये।Ó स्पष्ट है, आत्मा अंतत: परमात्मा रूपी सागर में विलीन हो जाती है। इस स्थिति में द्वैत, अद्वैत में विलीन हो जाया करता है।

क्षमा करना आत्मा का स्वभाव है


              सम्यक दर्शन, ज्ञान, चरित्र का अलंकरण आत्मा को सुसज्जित कर दिव्यता की श्रेणी में ला देता है। तब कहीं जीवन में क्षमा का अवतरण होता है। क्षमा आत्मा का स्वभाव है। क्षमा का आध्यात्मिक सूत्र है-मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं और सब जीव मुझे क्षमा करें।

सब जीवों से मेरा मैत्री भाव है, किसी से शत्रु भाव नहीं। इस प्रकार क्षमा को मन में, अंत:करण में स्थापित कर लेना और स्वभाव में आसीन कर लेना विशेष महत्व रखता है। जब क्षमा अंतस से उद्धृत हो रही होती है तो मानव जाने-अनजाने में अपनी बांहें फैलाकर गले लग जाना चाहता है। हृदय से वात्सल्य फूट पड़ता है, पर वर्तमान में मानव आंतरिक भावों पर पर्दा डालकर बाहरी संसार में अभिनय-नाटक करने लगा है। इसलिए पुण्य का वास्तविक लाभ नहीं ले पाता।है।वर्तमान में सारी भागदौड़ भौतिक पदार्थो के संचयन के लिए चल रही है। इस कारण क्रोध-प्रतिशोध, आतंकवाद, अत्याचार, उत्पीडऩ आदि नकारात्मक गुण क्षमा की विपरीत स्थिति में पनप रहे हैं। शासक-प्रशासक, धनवान-गरीब या फिर किसी व्यक्ति के हृदय में वीरता का प्रतिरूप क्षमा का स्नोत एक बार प्रस्फुटित हो जाए तो वह कभी सूखता नहीं। यह तो अलौकिक अक्षय भंडार है, जो समाप्त होता ही नहीं। ऐसी क्षमा मात्र संतपुरुषों में ही संभव हो पाती है।

            वास्तव में क्षमा जीवन में सुख-शांति की स्थिति को प्रदान करने वाली व्यवस्था है, अनुभूति है। क्षमा के बिना ज्ञान की ऊर्जा संयमित और संचित न होकर बिखर जाती है।

             इसलिए आत्मिक और बौद्धिक ऊर्जा का संरक्षण करने के लिए क्षमा की विराट शांति को संचित रखना होता है। मानव जीवन में क्रोध, घृणा, ईष्र्या और अहंकार आदि नकारात्मक प्रवृत्तियों का परिणाम बड़ा ही भयानक होकर उभरता है। इसलिए इसे ऋण और अग्नि के समान वृद्धि होने से पूर्व समाप्त कर देना उचित होता है। अपेक्षाओं की पूर्ति न होने से खिन्नता पैदा होती है और वही क्रोध का आधार बनकर व्यवहार में क्षमा और विवेक को क्षीण कर देती है। क्षमा मानवीय सफलता की ही नहीं, बल्कि जीवन की सार्थकता की भी द्योतक है। आत्मिक समता और आध्यात्मिक क्षमा स्वाति-जल को मुक्ता बनाकर मुक्त-प्रदायनी बनती है, तो व्यावहारिक जीवन में क्षमा भी कमल की पंखुडी पर ओस बिंदु-सी मुक्ता का आभास देकर हर्षानंद से भर देती है।

दो तत्वों का मिलन योग कहलाता है--

          सामान्य भाव में योग का अर्थ है जुडऩा। यानी दो तत्वों का मिलन योग कहलाता है। अर्थात आत्मा का परमात्मा से जुडऩा । योग की पूर्णता इसी में है कि जीव भाव में पड़ा मनुष्य परमात्मा से जुड़कर अपने निज आत्मस्वरूप में स्थापित हो जाए।

          महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्र में स्पष्ट किया है कि चित्त को विभिन्न वृत्तियों में परिणत होने से रोकना योग है। मनुष्य के शरीर में सभी ओर बिखरी चित्तवृत्तियों को सब ओर से खींचकर एक ओर ले जाना यानी केंद्र की ओर जाना ही योग कहलाता है। हमें तो आत्मा पर छाए चित्त के विक्षेप को समाप्त कर उसे शुद्ध करना होता है। योग द्वारा हम अपने चित्त को शुद्ध करके आत्मा का साक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं।

          भक्ति का भाव भी यही है, भक्त अपने भगवान से अलग नहीं होना चाहता। वह सदैव अपने इष्ट की शरण में रहता है। शरणागत होने के कारण ईश्वर का संग उसे सदैव प्राप्त होता रहता है। ईश्वर से सहज मिलन हो जाए, यही योग सिखलाता है। अब परमात्मा के इस योग यानी मिलने में कौन बाधक है। ये बाधक तत्व हैं-हमारी चित्तवृत्तियां। तालाब के शांत जल में यदि कंकड़ का एक टुकड़ा गिर जाए तो उसमें अनेक तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं। उसमें छोटी-छोटी और बड़े आकार के वृत्तों वाली कई तरंगें उत्पन्न होने लगती हैं। उस अशांत जल में मनुष्य का चेहरा स्पष्ट नहीं दिखलाई पड़ेगा।यदि जल की तरंग समाप्त हो तो जल पुन: शांत हो जाता है। इस स्थिति में आकृति स्पष्ट दिखाई पडऩे लगेगी। ठीक इसी प्रकार हमारे चित्त की वृत्तियां हैं। इंद्रियों के विषयों के आघात से उसमें अनेक तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं और उत्पन्न तरंगों के कारण मानव अपने निज स्वरूप को नहीं देख पाता। यदि उसकी चित्तवृत्तियां समाप्त हों तो वह अपने निज आत्मस्वरूप को देखने में सक्षम हो जाए।

          महर्षि पंतजलि ने योग की व्यापक विवेचना की है। इसमें कई सोपान हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। अष्टांग योग की इस पद्धति के माध्यम से साधना करने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति सद्गुरु के सान्निध्य में इन सोपानों पर यम-नियम को साधते हुए ध्यान और समाधि की उच्चतम अवस्था पर पहुंच कर चिन्मय आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है। फिर अपने आत्मा में परब्रह्म परमात्मा के दर्शन प्राप्त कर तद्स्वरूप होता हुआ आनंद को प्राप्त कर सकता है।

सत्य के समान कोई धर्म नहीं है



                श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास जी कहते हैं कि सत्य के समान कोई धर्म नहीं है। सत्य सृष्टि का मूल है। सत्य ही सबसे बड़ा तप है, सत्य ही सबसे बड़ा धर्म है। सत्य ही पुण्यशाली कर्म और सबसे बड़ी सिद्धि है।

               सत्यनिष्ठ व्यक्ति दुष्कर्म, अवसाद, अपयश, अशांति, असंतोष और अपमान से बचा रहता है। जीवन में उन्नति और उत्कर्ष के लिए सत्य ही सबसे सच्चा मार्ग है। निर्विकार, निर्भय और निश्चिंत जीवन जीने के लिए इससे बढ़कर दूसरा कोई मार्ग नहीं है। संसार में अनेक धर्म प्रचलित हैं, पर उनके रीति-रिवाजों और दिशा-निर्देशों में काफी अंतर भी पाया जाता है, पर फिर भी उनका मूल उद्देश्य एक है। वह यह कि अपने अनुयायियों को संयमी, सदाचारी, उदार और सज्जन बनाना। इन सभी धर्म संस्थापकों का मूल उद्देश्य एक ही रहा है, सत्य के निकट पहुंचना।


               पद्मपुराण में कहा गया है कि सत्य से पवित्र हुई वाणी बोलें और मन से जो पवित्र जान पड़े, उसी का आचरण करें। मन, वचन और कर्म को एकरूप किए बगैर हम, कितना ही प्रयास क्यों न करें, पर हम सिद्धि की प्राप्ति नहीं कर सकते। सत्य और सरलता का अटूट संबंध है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि 'सत्य सरल होता है।


                  हमारी भलाई इसी में है कि हम इस जगत के सत्य को पहचानें, सत्य के पथ पर चलने का संकल्प लें। सत्य का वास्तविक अर्थ परब्रह्म है। वेदों के वक्तव्य हैं कि 'सृष्टि के मूल में यही ब्रह्म सत्य रूप में विद्यमान था, त्रिगुणात्मक संसार इसके बाद में रचा गया। जिसके चित्त ने सत्य को छोड़ दिया, उसे भला आनंद की प्राप्ति कैसे हो सकेगी। यदि हमें आनंद की तलाश है, सच्चे सुख की लालसा है, तो हमें सत्य के मार्ग पर चलना ही होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि सत्य ही जीवन का आधार है, सत्य ही विद्या और जीवन जीने की सच्ची कला है। वस्तुत: यह हमारे हाथों में जलते हुए दीपक की तरह है, जिसके सहारे हम असत्य के अंधेरे को पार कर सकते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि असत्य ही अज्ञान है और अभाव में ही सारे दुख हैं। असत्य के मिटते ही सारे दुख अपने आप मिट जाएंगे।


           इसीलिए 'सत्यमेव जयते, हमारा सदियों से आदर्श रहा है। मानवीय सभ्यता के इतिहास में न जाने कितने नियम बनाए और बिगाड़े गए, पर सृष्टि के आदि में, सत्य की जो प्रतिष्ठा थी, वह आज भी उसी रूप में विद्यमान है।

जैसे विचार होंगे वैसी ही आदतें बनेंगी --


          इस संसार में हम जो कुछ देखते हैं वह सब हमारे विचारों का ही मूर्त रूप है। यह समस्त सृष्टि विचारों का ही चमत्कार है। किसी भी कार्य की सफलता-असफलता, अच्छाई-बुराई और उच्चता-न्यूनता के लिए मनुष्य के अपने विचार ही उत्तरदायी होते हैं। जिस प्रकार के विचार होंगे, सृजन भी उसी प्रकार का होगा। विचार अपने आप में एक ऐसी शक्ति है जिसकी तुलना में संसार की समस्त शक्तियों का समन्वय भी हल्का पड़ता है। विचारों का दुरुपयोग स्वयं और संसार का विनाश भी कर सकता है।

          सूर्य की किरणों जब शीशे द्वारा एक ही केंद्र पर डाली जाती हैं तो अग्नि उत्पन्न हो जाती है। इसी प्रकार विचार एक केंद्र पर एकाग्र होने से बलवान बनते हैं। आशय यह है कि हमारे विचारों की ताकत हमारे मन की एकाग्रता पर निर्भर करती है। एकाग्रता के बगैर मन में बल नहीं आ सकता। परमार्थ के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि संसार के व्यावहारिक कार्र्यो में भी एकाग्रता की बड़ी आवश्यकता पड़ती है। जो मनुष्य जैसा विचार करता है, वैसा ही कार्य करता है। फिर वैसी ही उसकी आदत बन जाती है और अंत में वैसा ही उसका स्वभाव बन जाता है। ऐसा ही गीता में भी कहा गया है कि जो जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है। यदि आप उत्तम जीवन जीना चाहते हैं तो आपको वैसे ही विचार करने का अभ्यास करना चाहिए। विचारों के सदुपयोग से मनुष्य विश्व विजयी हो सकता है। हजारों आविष्कार उन्हीं अच्छे विचारों के परिणाम हैं। विचार करते समय सकारात्मक बातों, दृश्यों, वस्तुओं और पदार्थो के बारे में ही चिंतन करना चाहिए कि हमारे मन में आनंदपूर्ण विचारों का ही प्रवाह बहेगा और उदासीनता के विचार मेरे पास फटकने तक न पाएंगे।

          बेईमानी, धोखेबाजी और खुदगर्जी के विचार लौकिक और पारलौकिक दोनों ही दृष्टि से बहुत ही घातक हैं। इस प्रकार के विचारों वाले व्यक्ति को पग-पग पर घृणा, उपहास, बदनामी और अविश्वास का सामना करना पड़ता है। विचारों का सदुपयोग करने के लिए विचारों को योजनाबद्ध बनाना चाहिए। एकाग्रता का तात्पर्य है कि अस्त-व्यस्त ढंग से सोचने की बुरी आदत को क्रमबद्ध और सुसंस्कृत बनाया जाए।

फूल के समान जीवन जियेा


           हमें इस भौतिकवादी संसार में कमल के फूल की भांति जीवन जीना चाहिए। जिस प्रकार कमल का फूल माया रूपी कीचड़ में रहते हुए भी संसार को प्रसन्नचित करता है और स्वयं भी ऐसा सम्मान व स्थान पाता है कि देवताओं को अर्पित किया जाता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी चाहिए कि वे अपनी इन्द्रियों और व्यसनों पर अंकुश लगाते हुए, इस माया रूपी संसार की गंदगी को दूर करते हुए एक श्रेष्ठ व्यक्ति के उत्तरदायित्व और आचरण को अपनाना चाहिए।

          मोह ही सभी प्रकार के बंधनों का स्त्रोत है। जैसे नशे की लत में व्यक्ति को न कुछ दिखाई देता है और न ही कुछ सूझता है। उसी प्रकार मोह माया में लिप्त व्यक्ति को भी स्वार्थ के सिवाय और कुछ नहीं सूझता और धीरे-धीरे वह कुव्यसनों की ओर अग्रसर होता जाता है। वह स्वयं भी अपना शत्रु बन जाता है एवं औरों को भी बना लेता है। धन का संग्रह भी एक बुराई है।

नैतिक चरण की शुद्धता ही धर्म है


            जीवन का जहाज, आज तरंगों और तूफानों से भरे संसार के सागर में भटकता जा रहा है। क्योंकि इसका नैतिक-बोध, इसका दिशासूचक यंत्र खराब हो चुका है। जीवन-ऊर्जा जीवन को गतिशील बनाने के लिए आवश्यक है, परंतु उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है उसका सही दिशा में चलना है । सादगी का सौंदर्य, संघर्ष का हर्ष, समता का स्वाद और आस्था का आनंद-ये सब हमारे आचरण से पतझड़ के पत्तों की भांति गिरगए हैं। हृदय से मानवीय-प्रेम या करुणा का संवेदनशील स्वर, मस्तिष्क से नैतिक चिंतन की अवधारणा और नाभि से उद्भुत संयम और सम्यक आचरण का संकल्प कहीं खो गया है। आज अहिंसा के आलोक की तलाश है। महावीर, बुद्ध और महात्मा गांधी की अहिंसा किसी कठघरे में कैद है। हिंसा उन्मुक्त अट्टहास कर रही है।

              सत्ता और संपत्ति के गलियारे में नैतिक आचरण ताक पर रख दिए गए हैं। व्यक्ति की अस्मिता एक अंधे मोड़ से गुजर रही है। भौतिक भोगवाद जनसंख्या बढ़ा रहा है, जो आणविक विस्फोट से कम खतरनाक नहीं है। आधुनिक पीढ़ी की त्रासदी यह है कि 'सबसे बड़ा रुपया जैसे जीवन का लक्ष्य बन गए हैं। हमें आचरण शुद्धि द्वारा नैतिकता का विकास करना होगा। नि:संदेह अध्यात्म एक गूढ रहस्य है जिसका कोई ओर-छोर नहीं। अध्यात्म के अंतहीन व्यूहचक्र में उलझने से व्यावहारिक नैतिकता श्रेयस्कर है। भगवान महावीर का प्रारंभिक दर्शन भी सर्वोपयोगी नैतिक आचार संहिता में ही निहित था। अध्यात्म आदि प्रसंग बाद में जुड़ते गए।

           नैतिक आचरण का पालन ही सच्चे धर्म का प्रतीक है। नैतिकता को प्रतिरोधक शक्ति का स्वरूप देकर ही अनैतिक आचरण के छिद्र बन्द किए जा सकते हैं। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र में विचारशुद्धि चलाकर ही बुराइयों और पाप कर्मो को निरुत्साहित किया जा सकता है। आचार-विचार की शुद्धता का दूसरा नाम ही धर्म है। मानवता यदि पुष्प है, तो नैतिकता उसकी सुगंध है। आचरण यदि सोना है, तो नैतिकता उस पर सुहागा है। मानवता की महिमा आचरण से है और आचरण की महिमा नैतिकता है। यह धारणां प्राचीन काल की रही है मगर आज भी उतनी ही उपयोगी है, बल्कि आज की दुनिया को नैतिक आचरण की ठोस जमीन और भी अधिक आवश्यक है।

निंदा से आत्म-परीक्षण की प्रेरणा मिलती है-


           इस युग में अपनी निंदा सुनना किसे प्रिय है? निंदा करने वाले को शत्रु और प्रशंसा करने वाले को मित्र मान लिया जाता है। जो प्रशंसा योग्य है, उसे औरों से प्रशंसा की आशा होती है ताकि वह स्वयं पर गर्व कर सके। जो इस योग्य नहीं है वह अपनी प्रशंसा के लिए अनेक उपाय करता है और प्रशंसा को प्रायोजित करता है ताकि वह किसी से पीछे न रह सके।

            ज्ञानी हो या अज्ञानी, किसी को भी निंदा और आलोचना सहन नहीं होती। निंदा करने वाले को हतोत्साहित करने, दबाने और उसे दंडित करने के प्रयास होते हैं। निंदा का उत्तर देने के बजाय उसका उपहास उड़ाकर अथवा नकार कर स्वयं की उच्च सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। कबीरदास ने कहा था कि निंदा उन्हें प्रिय है और अपने निंदकों को वे अपने निकट रखना चाहते हैं। आज सकारात्मक दृष्टिकोण की बात की जाती है, किंतु सकारात्मक होना मात्र उन विचारों को साथ रखना नहीं है, जो निजी महत्वाकांक्षाओं को ऊर्जावान बनाए। ऐसे तो मनुष्य एक दिशा में चलता चला जाएगा और उसे आभास ही नहीं हो सकेगा कि उसकी दिशा और दशा क्या है। सकारात्मकता कबीरदास के विचार के बिना पूर्ण नहीं हो सकती। कबीरदास के अनुसार निंदा से आत्म-परीक्षण की प्रेरणा मिलती है। निंदा तभी होती है, जब कोई गलती होती है।

              अगर देखें तो निंदक का उद्देश्य सुधार करना नहीं वरन अपयश करना ज्यादा होता है, उसका कार्य किसी की बुराई करके अपने मन की ईष्र्या, कुंठा और प्रतिशोध की भावना को शांत करना है। निंदा के संदर्भ में सकारात्मक सोच अपने लिए अच्छाई तलाशना है। कबीरदास ने तो निंदक का आभार व्यक्त किया कि उसने निंदा करके उनके अवगुणों को धोने का कार्य किया है। निंदा अवगुणों और त्रुटियों की ओर इंगित करके उन्हें दूर करने के लिए प्रेरणा देती है। अनसुना करने के स्थान पर अपनी निंदा को पूरे ध्यान से सुनकर उस पर विचार करना चाहिए। उस निंदा में यदि कोई सार हो, तो उसे ग्रहण करके अपने में सुधार लाना उचित है। यदि निंदा सारहीन हो तो उससे चिंतित और व्यथित होने की आवश्यकता नहीं है। निंदा सारहीन भी हो, तो भी वह एक अवसर तो देती ही है अपने को देखने का और स्व मूल्यांकन करने का।

Tuesday, February 17, 2015

बाहरी दिखावा अहंकार को बढ़ाता है


         गुरु जी की दिनचर्या अत्यंत कठोर एवं संयमित थी इसलिए उनके सबसे अच्छे शिष्य ने उनका अनुसरण करना शुरू कर दिया। वह बिस्तर के बजाय जमीन पर सोने लगा, अल्प शाकाहार करने लगा और सफेद वस्त्र पहनने लगा। गुरु को शिष्य के व्यवहार में भी परिवर्तन दिखाई दिया। उन्होंने शिष्य से परिवर्तन का कारण पूछा तो वह बोला, 'मैं कठोर दिनचर्या का अभ्यास कर रहा हूं। मेरे श्वेत वस्त्र मेरे शुद्ध ज्ञान की खोज को दर्शाते हैं, शाकाहारी भोजन से मेरे शरीर में सात्विकता बढ़ती है और सुख-सुविधा से दूर रहने पर मैं आध्यात्मिक पथ पर बढ़ता हूं।



         गुरु जी शिष्य की बात सुनकर मुस्कुराए और उसे खेतों की ओर ले गए। खेत में एक घोड़ा घास चर रहा था। गुरु जी ने कहा, 'तुम खेत में घास चर रहे इस घोड़े को देख रहे हो। यह श्वेत रंग का है, यह केवल घास-फूस खाता है और अस्तबल में जमीन पर सोता है, क्या तुम्हें इस घोड़े में जरा-सा भी ज्ञान और सात्विकता दिखती है? तुम्हारी बात मानें, तो यह घोड़ा आगे चलकर बड़ा गुरु बन सकता है।



         अर्थात बाहरी दिखावा अहंकार को बढ़ाता है। इसलिए दिखावे के बजाय हमें अपने लक्ष्य पर एकाग्र होना चाहिए।

जिसके भीतर सुबह हो जाती है, उसकी कभी रात नहीं होती

          जिसके भीतर सुबह हो जाती है, उसकी कभी रात नहीं होती। यदि हम अपने अंदर के सूरज का उदय करेंगे तो अंधकार का अस्तित्व स्वत: ही समाप्त हो जाएगा।



          पचास यानी 5 (पांच) और 0 (शून्य)...। शून्य हटते ही पचास पांच हो जाता है। पचास वर्ष का व्यक्ति अगर अपने जीवन से मात्र पांच चीजों को शून्य (समाप्त) कर दे तो वह पांच साल के बच्चे जैसा मासूम और निर्दोष हो सकता है। क्या हैं वे पांच चीजें?



क-         पहली चीज है-   अहंकार- यह कभी भी नहीं होना चाहिए, मगर पचास साल के बाद तो बिल्कुल शून्य हो जाना चाहिए। ऐसा करना आसान नहीं है। इसके लिए आपको किसी का होना पड़ेगा। किसी का होने पर ही अपनापन छूटता है। हो जाओ राम के, कृष्ण के, सद्गुरु के। अहंकार छूटने लगेगा। शंकराचार्य ने भी कहा है कि व्यक्ति का अहंकार शून्य होना चाहिए। मैं अक्सर सोचता हूं कि आखिर व्यक्ति में अहंकार करने लायक है क्या? एक अहंकार के कारण कितने दोष व्यक्ति को ग्रस रहे हैं? हम क्यों घाटे का सौदा करते हैं?



ख-        दूसरी बात है-   अंधकार से शून्य हो जाओ। तमसो मा ज्योतिर्गमय...। अंधेरे से उजाले की तरफ बढ़ो। अंधकार का मतलब है अज्ञानता, राग-द्वेष, परनिंदा, क्रोध, स्वार्थ, मोह आदि...। ज्ञान का, भक्ति का और सेवा का प्रकाश हमारे इंतजार में रहता है और हम अंधेरे की चादरों को ओढ़े घूमते रहते हैं। एक बात याद रखना, जिसके भीतर सुबह हो जाती है, उसकी कभी रात नहीं होती। अंदर के सूरज का उदय करो तो अंधकार खुद-ब-खुद शून्य अर्थात विलीन हो जाएगा।



ग-         तीसरा है-    अधिकार को शून्य कर दो। एक उम्र के बाद मन से अधिकार की भावना खत्म हो जानी चाहिए। घर-परिवार, समाज में हमारे हिसाब से लोग चलें, इस भावना को शून्य कर देना चाहिए। पचास वर्ष की आयु के बाद भी अगर बड़प्पन का अहसास नहीं छोड़ा जाएगा तो हमारा आने वाला कल उसे छुड़वा देगा। कोई घटनाक्रम छुड़वा देगा, कोई बीमारी छुड़वा देगी। एक सीमा से ज्यादा बोझ किसी पर नहीं लादा जा सकता। जरा सोचिए तो सही, हमने अपने ही परिवार के सदस्यों पर अपने अधिकार का कितना अधिक बोझ लाद रखा है। जो अधिकार जताना था, जता लिया। पचास के बाद उसे समेट लेना चाहिए। याद रखना, अधिकार कभी मांगने से नहीं मिलता। मिलेगा भी तो नकली होगा। अधिकार हमेशा बिना मांगे, बिना जताए ही मिलता है। जब अधिकार का आग्रह छोड़ दोगे तो परिवार हो या समाज, लोग मुट्ठी भर-भरकर अधिकार देंगे। इसकी शुरुआत अपने परिवार से, अपने आसपास से करके तो देखो।



घ-         चौथा है-     अलंकार शून्य हो जाएं। हमारे नाम के आगे कोई उपाधि लगे, कोई विशेषण लगे, इस भावना से मुक्त हो जाओ। नाम के साथ उपाधि लगते ही मोहग्रस्त हो जाना, कोई दोष आ जाना स्वाभाविक है। सीता की खोज कर जब हनुमान लौटे तो राम ने उनकी प्रशंसा की। हनुमान ने नजरें नीचे करते हुए कहा कि प्रभु, लंका के राक्षसों से कोई डर नहीं था, मगर आप मेरी प्रशंसा कर रहे हैं तो डर लग रहा है कि कहीं मेरे मन में अहंकार न आ जाए। इस बात का ध्यान रखना कि समाज अगर हमारे नाम के आगे कोई विशेषण लगाता है तो वह हमारी योग्यता का प्रमाण नहीं है। वह तो समाज की हमसे अपेक्षा है कि वह हमें इस रूप में देखना चाहता है। यदि लोग हमें परम पूज्य कहने लगें तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम सचमुच परम पूज्य हैं। इसका मतलब यह है कि लोग चाहते हैं कि हम परम पूज्य बनें।



च-         पांचवां है-      अंगीकार शून्य हो जाएं। पचास की उम्र के बाद किसी वस्तु को अंगीकार करने की भावना मिटा देनी चाहिए।



      कोई भी परिस्थिति ऐसी आती है   जिसमें किसी वस्तु को अंगीकार करना पड़े तो कम से कम उतना लौटा भी देना चाहिए। वह भी इस तरह कि किसी को पता भी न चले।

सकारात्मकता से जीवन की महक बढती है


         हमारी नकारात्मकता हमें सभी संबंधों से दूर कर देती है और हम अकेले पड़ जाते हैं, जबकि सकारात्मकता हमें जिन रिश्तों से जोड़ती है, वे हमारे जीवन को महका देते हैं।
 
        मॉनस्टर इंक नाम की हॉलीवुड फिल्म की कहानी है कि एक ऐसा संसार, जहां राक्षस रहते हैं। हमारे संसार से बहुत उन्नत। उनके लोग धरती के बच्चों के सपनों में आते हैं। उन्हें डराकर चीखने पर मजबूर करते हैं। उनकी चीख से जो ऊर्जा निकती है, उसे इकट्ठा करके अपने लोक में ले जाकर उससे बिजली बनाते हैं। राक्षसों के उस संसार में बिजली का श्चोत धरती के बच्चों की चीखें है।

         एक बार एक छोटे राक्षस को धरती के बच्चों के सपनों में घुस कर उन्हें डराने की जिम्मेदारी मिलती है, लेकिन वह बच्चों को डराना नहीं चाहता। वह धरती के बच्चों के पास आता तो है, लेकिन इस काम को अंजाम नहीं देता। इसके लिए उसे राक्षस लोक में सजा मिलती है। मजबूरी में वह अपने काम को फिर अंजाम देने आता है।

         एक बच्चे के सपने में घुस कर डराने की कोशिश में वह बच्चे को हंसा देता है। बच्चा नींद में हंसता है और उसकी हंसी से जो ऊर्जा निकलती है, उसे अपने लोक तक ले जाता है। हंसी की ऊर्जा देखकर उसके अधिकारी नाराज होते हैं। तमाम तकलीफों के बाद आखिर वह सभी को समझा पाने में कामयाब हो जाता है कि उसे ऊर्जा लाने से मतलब है। अगर वह हंसा कर लाए तो किसी को क्या तकलीफ? वह धरती पर फिर आता है। बच्चों के सपनों में आकर उनसे एक प्यारा सा रिश्ता कायम करता है। बच्चे उसे देख कर खुश होते हैं, और नींद में ही जोर-जोर से हंसने लगते हैं।

         राक्षस लोक में जब उस ऊर्जा का परीक्षण होता है, तो सचमुच हंसी से निकली ऊर्जा चीख की तुलना में निकली ऊर्जा से ज्यादा कारगर थी।
 
         मॉनस्टर इंक नाम की हॉलीवुड फिल्म की कहानी यह संदेश देते हुए खत्म होती है कि राक्षसों का संसार नकारात्मक बिजली की जगह सकारात्मक बिजली पाने के प्रयास में जुट जाता है। यह भले ही बच्चों के लिए बनाई गई हो, लेकिन बड़ों के लिए यह ज्यादा काम की है। यह बताती है कि जब हम कोई काम अच्छे मन से करते हैं तो उसका फल अच्छा मिलता है। जब हम कोई काम बुरे मन से करते हैं, तो उसका फल बुरा मिलता है। सकारात्मक होकर जब हम रिश्तों के तार दूसरों से जोड़ते हैं, तो उसका सकारात्मक असर होता है, जो हमारे जीवन को महका देता है।

          जो व्यक्ति अपने अहं और अपनी श्रेष्ठता का गुलाम होता है, वह एक दिन इस संसार में अकेला रह जाता है। दुनिया के किसी तानाशाह की कहानी पढ़ लीजिए, उसकी जवानी चाहे जितनी हसीन रही हो, बुढ़ापा बहुत तन्हा रहा। अकेलेपन का दंश बेहद दुखद होता है। अपने टूटते रिश्तों को अगर आपने आज नहीं जोड़ा तो देर हो जाएगी। जोड़ लीजिए उन सबसे अपने रिश्तों के तार, जिनसे आपने अपनी नकारात्मक ऊर्जा के कारण टूटने दिया है। ढूंढ़ने चलेंगे तो हर चीज में बुराई है। मत ढूढि़ए बुराई।सकारात्मक ऊर्जा से बनी बिजली से अपने घर को रोशन तो करके देखिए। फिल्म में राक्षसों ने तो पहचान लिया था सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा का फर्क। हम कब पहचानेंगे?

समर्पण से सबकुछ प्राप्त हो जाता है


         जो सब समर्पण करता है वह सब पा लेता है। जो कतार में सबसे पीछे खड़ा हो जाता है अपने अहं और दोषों को त्याग कर वह कतार में सबसे आगे जगह पा लेता है क्योंकि वह अहं के भारी बोझ से दबा नहीं होता। ऐसा व्यक्ति अपनी बारी आने का इंतजार सब्र के साथ करता है।

         यह भी कहा जा सकता है कि जब अहं से खाली हो जाता है दिमाग तो उसमें सब्र खुदबखुद बैठता चला जाता है। और जब सब्र आता है तब गुस्सा आ ही नहीं सकता। ये एक चेन है...एक सीरीज है...जो अपनी पहली कड़ी से यात्रा शुरू करती है और एक एक कर उसमें सभ्यता की ऊंचाई पर पहुंचाने वाली कई कड़ियां जुड़ती जाती हैं और अंतिम कड़ी तक पहुंचने की यात्रा के इस क्रम में जो कमजोरियों को जकड़े रहता है, वह ही असभ्य समाज की नींव रखता है वह कारण बन जाता है अनेक आक्रमणों का, अनैतिकताओं का व अनाचारों का। अहं से रहित समर्पण, प्रेम के वृक्ष की न सिर्फ नींव रखता है बल्कि उसको ईश्वर की ऊंचाई तक पहुंचाने की शक्ति भी रखता है ठीक जैसे राधा पहुंचीं श्रीकृष्ण तक ।

         यूं तो संस्थागत दृष्टि से समर्पण का पहला अधिकार रुक्मणि का था और इसी अधिकार से जन्मे कर्तव्य के कारण उनके समर्पण को नि:स्वार्थ समर्पण कहने से बचा गया जबकि राधा के समर्पण को भक्ति व प्रेम का आधार माना गया है क्योंकि वहां समर्पण के बाद श्रीकृष्ण से कुछ वापस पाने का भाव नहीं था, बस समर्पण से प्रेम को करते चले जाना था। इसीलिए रुक्मणि और राधा में ऐतिहासिक दृष्टि से भले ही अंतर देखा गया मगर प्रेम और समर्पण में अपनी भावनाओं को 'ईश्वर बनाने तक ले जाना' इसे तो सिर्फ और सिर्फ राधा ही सार्थक कर पाईं। इसीलिएश्रीकृष्ण के संग रुक्मिणि की अनुपस्थिति और राधा की अतिशय उपस्थिति समर्पण का सर्वोच्च उदाहरण बन गई ।

         कृष्ण के आगे राधा का नाम आगे रखा जाना इसी समर्पण का हिस्सा है। ओशो कहते भी हैं कि कृष्ण चूंकि पूर्णपुरुष माने गये हैं इसलिए उनके साथ आना किसी पूर्ण स्त्री के ही वश की बात हो सकती है। रुक्मिणि दावेदार थीं कृष्ण नाम के संग अपना नाम जोड़ने की। मगर वो दावेदार थीं...अर्थात् दावा करने का अर्थ ही ये रह गया कि कहीं कुछ बाकी रह गया है जिसे पाने के लिए उन्हें संस्थागत रिवाजों का सहारा लेना पड़ रहा है, ऐसे में वह मेंटीनेंस भी मांग सकती है जबकि राधा को किसी रिवाज में बांधा नहीं जा सकता। उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं है।

         निश्चित ही ईश्वर के अंशमात्र में भी रमने के लिए किसी अदालती दावे, किसी समाज या किसी संस्थागत बंधन में रहने की आवश्यकता ही नहीं होती, ईश्वर तो हवा की तरह घुलता जाता है मन में। मन में घुलने के लिए बिल्कुल पानी का सा रंग लेना पड़ता है तभी समर्पण शतप्रतिशत होता है, जैसे राधा का था कृष्ण के लिए। इसीलिए रुक्मिणी पीछे छूटती चली गई और राधा आगे आती गईं। इतना आगे कि कृष्ण नाम के आगे राधा खड़ी हो गईं जबकि वे संस्थागत संबंधों की कतार में सबसे पीछे खड़ी थीं। सबसे पीछे खड़े होने का अर्थ है कि सब कुछ छोड़ो, सबकुछ दे दो और हल्के हो जाओ। हल्के हो जाओ इतने कि अपने ईश में रमने के लिए किसी कोशिश की जरूरत ही ना पड़े।

एकाग्रता के अभ्यास से स्मरणशक्ति बढती है


          उस समय की बात है जब स्वामी विवेकानंद इतने विख्यात नहीं हुए थे। उन्हें अच्छी पुस्तकें पढ़ने का बहुत शौक था। एक बार वे देश में ही कहीं प्रवास पर थे। उनके गुरुभाई उन्हें एक बड़े पुस्तकालय से अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाकर देते थे।



           स्वामी जी की पढ़ने की गति बहुत तेज थी। मोटी-मोटी कई किताबें एक ही दिन में पढ़कर अगले दिन वापस कर देते। उस पुस्तकालय का अधीक्षक बड़ा हैरान हो गया। उसने स्वामी जी के गुरु भाई से कहा, 'आप इतनी सारी किताबें क्यों ले जाते हैं, जब आपको इन्हें पढ़ना ही नहीं है? रोज इतना वजन उठाने की क्या जरूरत है? स्वामी जी के गुरु भाई ने कहा, 'मैं अपने गुरुभाई विवेकानंद के लिए ये पुस्तकें ले जाता हूं। वे इन सब पुस्तकों को पूरी गंभीरता से पढ़ते हैं।



          अधीक्षक को विश्वास ही नहीं हुआ। उसने कहा, 'अगर ऐसा है तो मैं उनसे मिलना चाहूंगा। अगले दिन स्वामी जी उससे मिले और कहा, 'महाशय, आप हैरान न हों। मैंने न केवल उन किताबों को पढ़ा है, बल्कि उन्हें याद भी कर लिया हैं। स्वामी विवेकानंद ने जब उन किताबों के कई महत्वपूर्ण अंश सुना दिए, तो पुस्तकालय अधीक्षक चकित रह गया। उसने उनकी याददाश्त का रहस्य पूछा। स्वामी जी बोले, 'मन को एकाग्र करके पढ़ा जाए तो वह दिमाग में अंकित हो जाता है। एकाग्रता का अभ्यास करके आप जल्दी पढ़ना भी सीख सकते हैं।


अर्थात पूर्ण एकाग्रता से कार्य करने पर हम उसे शीघ्रता और गुणवत्ता से करते हैं और अभ्यास से सब कुछ संभव है।

जैसा मन होगा वैसा मनुष्य बनेगा

         मनुष्य मनोमय है अर्थात मन की जैसी प्रवृत्ति होती है, वैसा ही मनुष्य बन जाता है। आत्मा प्रज्ञा के रूप में मन में प्रतिबिंबित होती है।-----उपनिषद

 

           मन की सक्रियता का आधार आत्मा है और इसको जानने पर बल दिया जाना चाहिए। ज्ञान का आधार तप, संयम और नि:स्वार्थ कर्म है।--उपनिषद



           मन दसों इंद्रियों का अधिपति है और जब मन इनसे संयुक्त होता है तभी उन विषयों का ज्ञान होता है। मन अनंत है। मन ही ज्योति है, मन ही सम्राट है और मन ही परम ब्रहम है।---वृहदारण्यक उपनिषद



          मन आत्मा द्वारा निर्देशित अंतरइंद्रिय है, जो दूसरी इंद्रियों को निर्देशित करता है। जिसने अपना चरित्र शुद्ध नहीं किया, जिसकी इंद्रियां शांत नहींरह सकतीं, जिसका चित्त स्थिर नहीं, मन सदैव अशांत रहता है, वह केवल बाहृय जगत के आधार पर आत्मा को प्राप्त नहींकर सकते।

देश का ही क्यों ?स्वयं के जीवन का संविधान होना चाहिए


        गणतंत्र दिवस हमें एकजुट होने की प्रेरणा देता है। क्यों न हम दूसरों से जुड़कर शक्तिशाली बन जाएं और अपने देश के लिए काम कर सकें।

         शक्ति का व्यावहारिक रहस्य जुड़ाव में ही निहित होता है, चाहे वह एक व्यक्ति की शक्ति हो अथवा व्यक्तियों के समूह की। गण एक वैदिक शब्द है, जिसका अर्थ ही है समूह। जब तक हम व्यक्तिगत स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर पर और वैश्विक स्तर पर सामूहिकता की भावना प्रदर्शित नहीं करेंगे, तब तक हमारा विकास नहीं होगा।

          हमारे गणतंत्र में विकास की ताकत सामूहिकता या एक-दूसरे से जुड़ने में ही है। हमारे लोक जीवन की एक कहावत है,'एक और एक ग्यारह होते हैं। गणित की दृष्टि से यह तब तक सही नहीं होगा, जब तक हम एक के सामने एक का आंकड़ा लिखकर उसे न पढ़ें। अन्यथा एक और एक का जोड़ दो ही होता है, ग्यारह नहीं। लेकिन जीवन में यह ग्यारह होता है। इस कहावत के मर्म को समझने की जरूरत है। जब दो लोग एक-दूसरे से जुड़ते हैं, तो उन दोनों की अपनी-अपनी दुनिया भी जुड़ती है। लड़के और लड़की के विवाह का होना इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। गणित में दो, लेकिन व्यवहार में दो सौ। इन दोनों की भी तो अपनी-अपनी दुनिया होती है। इस प्रकार उस जुड़ाव के योगफल का आंकड़ा हम निकाल नहीं सकते। यही इसका सबसे बड़ा रहस्य है और सबसे बड़ी शक्ति भी।नहीं फोड़ता। यानी अकेला आदमी इतना शक्तिशाली नहीं होता। भारतीय योग की प्रक्रिया भी मूलत: हमारे अंदर की विभिन्न क्षमताओं को एक-दूसरे के साथ जोड़कर उनका भरपूर उपयोग करने की प्रक्रिया ही है। सूर्य की किरणों को यदि एक लेंस के निश्चित बिंदु पर केंद्रित कर दिया जाए, तो उसकी ऊर्जा अपने नीचे रखे कागज के टुकड़े को जला देगी, अन्यथा उस कागज पर सूर्य की किरणों का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। दरअसल, गणतंत्र अपने राजनीतिक स्वरूप में तो एक राजव्यवस्था है, लेकिन कार्य पद्धति के रूप में यह सभी लोगों तथा राज्यों के जुड़ने का ही विधान है। इस दिन सभी रजवाड़ों ने संविधान को स्वीकार करके एक साथ इस देश के लिए काम करने का वचन दिया था। सबने यह माना था कि अलग-अलग रहकर काम चल तो सकता है, लेकिन कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। न ही हम शक्तिशाली हो सकते हैं। ऐसे में जो शक्तिशाली होगा, वह हमारा दमन करेगा। क्यों न दूसरों से जुड़कर खुद ही शक्तिशाली बन जाएं, ताकि स्वाभिमान के साथ देश की सेवा कर सकें। यह व्यवस्था हमारे पूर्वजों की इस महान और उदार भावना के बिल्कुल अनुकूल थी कि 'सारी पृथ्वी हमारा कुटुंब है।

         इसी प्रकार यदि हर व्यक्ति अपने लिए इस युग की आवश्यकताओं के अनुरूप अपने जीवन का संविधान बना ले, तो वह एक आदर्श व्यक्ति बन सकता है :ईश्वर को न्यायकारी मानकर हम उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।

         शरीर को ईश्वर का घर मानकर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखेंगे।मर्यादाओं का पालन करेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का अविच्छिन्न अंग मानेंगे।चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण बनाएंगे।अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता का वरण करेंगे।लोगों को उनकी सफलता, योग्यता या धन-दौलत से नहीं, बल्कि उनके अच्छे विचारों और सत्कर्र्मों से आंकेगे।दूसरों के साथ वह व्यवहार नहींकरेंगे, जो हमें अपने लिए पसंद नहीं।प्रत्येक व्यक्ति के लिए समानता का भाव रखेंगे, किसी भी तरह का भेदभाव नहीं बरतेंगे। परंपराओं की अपेक्षा विवेक को अधिक महत्व देंगे।अपने राष्ट्र को उन्नति की ओर ले जाने में योगदान करेंगे।

कार्य उत्कृष्ट चाहते हो तो सधा हुआ ध्यान करेना सीखें


           ज्यादातर लोग समझते हैं कि ध्यान करने से व्यक्ति अंतर्मुखी हो जाता है और सांसारिकता से कट जाता है, लेकिन यह गलत धारणा है। ध्यान को साधकर व्यक्ति सांसारिक जीवन को सही ढंग से जी पाता है। यह व्यक्ति को अधिक चेतनावान बनाता है। ध्यान में हम भीतर जाकर अपने बाहर को और भी स्पष्ट रूप से देखने लगते हैं।

          एक जैन गुरु अपने शिष्यों को ध्यान का प्रशिक्षण दे रहे थे। एक शिष्य उनसे कहने लगा कि अब मैं ध्यान में निष्णात हो गया हूं, अब मुझे लोगों को प्रशिक्षित करने की अनुमति दीजिए। गुरु ने कहा- कल मैं तुम्हारी परीक्षा लूंगा। अगले दिन बारिश हो रही थी। शिष्य छाता लेकर पहुंचा। गुरु के कक्ष में प्रवेश करने से पहले उसने अपनी चप्पल, छाता और झोला बाहर छोड़ गुरु जी के सम्मुख आकर बैठ गया। गुरु जी ने पूछा- तुम क्या-क्या लेकर आए थे? शिष्य बोला- मैं छाता और झोला लेकर आया था, जिसे मैं कक्ष के बाहर छोड़कर आया हूं। गुरु जी बोले- तुमने जब अपनी चप्पल उतारी, तो छाते को बाएं रखा या झोले को? शिष्य अचकचा गया। बोला- मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता, लेकिन मुझे लगता है कि मैंने झोले को बाएं रखा। गुरु जी बोले- तुम अभी ध्यान का प्रशिक्षक नहीं बन सकते, क्योंकि तुम्हारा ध्यान अभी सधा नहीं है।

           हम कोई काम ध्यान से क्यों नहीं कर पाते? क्योंकि हमारी चेतना तनाव, दबाव और कुंठा में दबी रहती है। हम फूलों की सुंदरता को देखकर भी नहीं देख पाते। किसी की बात को सुनकर भी नहीं सुन पाते। हमारे ध्यान पर दबाव और कुंठाएं छाई रहती हैं। एेसा हमारे अहंकार यानी 'अपने होने का बोधÓ (अहंकार) के कारण होता है। हम किसी सभा में बोल नहींपाते, किसी के सामने गाना गाते हैं, तो सुर बिगड़ जाते हैं या कोई नया काम करने का साहस नहींकर पाते। आखिर हमें कौन रोकता है? दरअसल, यह अपने होने का बोध ही है, जो हीनता बनकर हमारे भीतर एक डर पैदा कर देता है। अहंकार के जाते ही हम सभी विकारों से बाहर आ जाते हैं और खुल कर पूरी सृष्टि को समग्रता से देखने लगते हैं। यह काम ध्यान से संभव होता है। ऐसे में हम जो भी काम करते हैं, वह उत्कृष्ट होता है। यही कारण है कि बौद्ध धर्म से निकले ध्यान पर आधारित जेन के साधक जापान में सेमुराई थे, जिनका वार अचूक माना जाता था। जूड़ो, कराटे आदि युद्ध कलाओं के पीछे भी ध्यान बड़ी भूमिका निभाता है।