स्वाभिमान और अभिमान लगभग दोनों समोच्चारित शब्द हैं और उनके अर्थ भी लगभग समानार्थी जैसे प्रतीत होते हैं। इसके बावजूद ये दोनों शब्द परस्पर एक दूसरे से भिन्न ही नहीं एकदम विपरीतार्थी हैं। स्वाभिमान शब्द आत्मगौरव और आत्मसम्मान के लिए प्रयुक्त होता है। यह ऐसा शब्द है जो हमें जाग्रत करता है, प्रेरित करता है और हमें कर्तव्य के प्रति आगे बढ़ने के लिए ललकारता है।
स्वाभिमान हमारे अपने विश्वास को जाग्रत करता है। हमें जीवन मूल्यों के प्रति, अपने देश के प्रति, अपनी संस्कृति, अपने समाज और अपने कुल के प्रति स्वाभिमानी बनने की प्रेरणा देता है। मानव तीन ऋणों को लेकर जन्मता है। पहला-पितृ ऋण। दूसरा ऋण है-सामाजिक ऋण। हम जिस समाज में है, उस समाज को अपने कौशल और विवेक-बुद्धि से समाज-सेवा करने में स्वाभिमान की पवित्र भावना रखें। हमारे ऊपर तीसरा ऋण है-राष्ट्र ऋण। हम अपने राष्ट्र में रहकर उसके अन्न-जल से पोषण प्राप्त करके अपना, अपने परिवार और अपने समाज के विकास में सहयोगी बनते हैं। इसलिए उस राष्ट्राभिमान को जाग्रत रखना चाहिए। राष्ट्र पर किसी भी प्रकार की आपदा या परतंत्रता आए तो राष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए अनेक राष्ट्रभक्तों व विवेकी पुरुषों ने स्वाराष्ट्राभिमान के वशीभूत होकर अपने को उत्सर्ग कर दिया। ऐसा स्वाभिमान हमारे विवेक को प्रकाशित करता है।
देश की अस्मिता की रक्षा के लिए हजारों ललनाओं ने जौहर की आग में कूदकर अपने स्वाभिमान की रक्षा की। अपने स्वाभिमान के लिए झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने फिरंगियों से युद्ध करते हुए अपना जीवन राष्ट्र के लिए बलिदान कर दिया। यह स्वाभिमान ही है, जो हमें हमारे निश्चय से डिगा नहीं सकता। स्वाभिमान हमारे डिगते कदमों को को ऊर्जावान कर उनमें दृढ़ता प्रदान करता है। कठिन परिस्थितियों और विपन्नावस्था में भी स्वाभिमान हमें डिगने नहीं देता। इसके विपरीत अभिमान हमें अहं से ग्रस्त करता है। अभिमान मिथ्या ज्ञान, घमंड और अपने को बड़ा ताकतवर समझकर झूठा व दंभी बनाता है। अभिमान अज्ञान के अंधेरे में ढकेलता है। अभिमान मानव का, समाज का और राष्ट्र का शत्रु है। इसलिए हमें अभिमानी न बनकर स्वाभिमानी बनना चाहिए। अपने राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान रखकर इस देश को उन्नतिशील और विकासशील बनाना चाहिए।