Saturday, February 21, 2015

नि:स्वार्थ सेवा के फल को पुण्य कहा जाता

         अठारह पुराणों के रचनाकार महर्षि व्यास का यह कहना था कि यदि आप कुछ अच्छा कार्य करते हैं तो इस स्थिति में आपको कुछ प्रतिकर्म मिलते हैं। प्रत्येक कार्य का एक समान और विपरीत प्रतिकर्म मिलता है, बशर्ते तीन आपेक्षिक तत्व अर्थात देश, काल और पात्र अपरिवर्तित रहें। यही नियम है। यदि आप कुछ अच्छा करते हैं, तो स्वाभाविक रूप से वहां एक अच्छा प्रतिकर्म प्राप्त होगा।

         जब कहीं आप किसी मनुष्य की सेवा करते हैं, और विशेषकर नि:स्वार्थ सेवा तो उसके प्रतिकर्म स्वरूप आप कुछ पाएंगे। आप चाहें या न चाहें, किंतु उसका प्रतिकर्म प्राप्त होगा और प्रतिकर्म के फल को पुण्य कहा जाता है। यदि आपने कुछ बुरा किया, किसी को क्षति पहुंचाई या कर्म के द्वारा अधोगति तक पहुंच गए तो इस प्रतिकर्म को पाप कहा जाता है। आप पुण्य कर्म में दिन-रात व्यस्त रहे। इसलिए आपको इन चौबीस घंटों को किस कार्य में व्यतीत करना है? स्पष्ट है, 'पुण्य' में और पुण्य क्या है? अब कोई कह सकता है कि दिन के समय पुण्य कर्म किया जा सकता है, लेकिन रात्रि में सोते समय पुण्य कर्म कैसे किए जा सकते हैं? इसका उत्तर है कि पुण्य कर्म करते समय आपको मानसिक, आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता होती है।

         कोई बुरा कार्य करते समय आपको किसी नैतिक साहस या किसी आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता नहीं पड़ती है, लेकिन कुछ अच्छा कार्य करने के लिए आपको नैतिक साहस और आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता पड़ सकती है। वह शक्ति आपको ध्यान और जप के माध्यम से प्राप्त हो सकती है। अर्थात मानसिक जप के द्वारा। यद्यपि आप सो रहे हैं तो भी स्वचालित, श्वास-प्रश्वास के साथ आपकी यह जप क्रिया स्वचालित रूप से चलती रहेगी, जिसे 'अजपा' जप कहते हैं। वहां आपको कोई विशेष प्रयत्‍‌न अपनी ओर से नहीं करना है। जप अपने आप स्वचालित रूप से चलता रहेगा। इस प्रकार रात्रि के समय भी आप पुण्य कर सकते हैं। आप 24 घंटे पुण्य कर सकते हैं। आप हमेशा याद रखें कि आप यहां अल्प समय के लिए आए हैं। आप इस पृथ्वी पर दीर्घ समय तक नहीं रहेंगे।

ममता, स्नेह, आदर्श व प्रणय, क्या यह सब प्रेम है

         प्रेम की बूंद तो सब ने देखी है। ममता, स्नेह, आदर्श और प्रणय, यह सब प्रेम ही है, जिसे मनुष्य सदियों से निभा रहा है। आप भी प्रेम की भाषा इसी तरह समझ रहे हैं। आप भी बह रहे हैं। नदी के दो पाटों के बीच आपका बहना-आपके साथ नहीं है। आप समय के साथ नहीं हैं। बस आप बह रहे हो जीने के लिए।

         जीना ही आपका स्वभाव बन गया है। जीने के लिए ही कुछ करना आपका कर्म बन गया है। इसलिए आप सांसारिक प्रेम की बूंद में ही डूब गए हो। प्रेम की बरसात को कुछ लोगों ने ही जाना है। रिम-झिम फुहारों के साथ प्रेम की अनेक बरसातों को आपने बिताया होगा, पर प्रेम को पड़ाव डालते आपने नहीं देखा। और आज तक मैंने भी नहीं देखा है। मीरा का प्रेम पदों में सिमटकर रहा है। वह भाव के सागर में लहरों से ही खेलती रह गईं। विष को प्रेम का प्याला समझ कर पी गईं।

         इतिहास के पन्नों पर प्रेम की अनेक गाथाएं अंकित हैं। कहीं पर बुद्ध व महावीर का निर्वाण और बुद्धत्व की शांति प्रदायनी प्रेमकथा है, तो कहीं पर कबीर, नानक, रहीम, रसखान, बिहारी के दोहे, सत्संग और वाणी है, तो कहीं पर पतंजलि, गोरखनाथ, भैरव का योग प्रेम। कहीं पर गौतम, कणाद, पुलस्त्य, अत्रि, अनुसूया, व्यास व सुखदेव का भक्ति प्रवाह है। कहीं पर जीसस, मुहम्मद, अरस्तू, सुकरात का प्रेम है तो कहीं पर राम-सीता की प्रेम विरह यात्रा है। कहीं पर कृष्ण की रासलीला प्रेम की अद्भूत लोक यात्राएं हैं। गोपियों की विरह वेदना में राधा की प्रेम गाथा। ये सब प्रेम के बहाव का अंग बन कर लुप्त हो गए, केवल श्रृंखलाओं की कड़ियों में माला की कोई प्रथम श्रृंखला बन गया तो कोई माध्यम की कड़ी। किसी ने अंतिम श्रृंखला बनने का प्रयास किया, लेकिन प्रेम ने किसी के साथ पड़ाव नहीं किया। सब कुछ अभिव्यक्ति बन कर रह गई। सब कुछ अनुभूतियों के बहाव में केवल स्मृतियां ही शेष रह गईं।

         इन स्मृतियों से सुसज्जित पुराण और इतिहास की गाथाएं, जिन्हें पढ़-पढ़कर आप सब अपने आपको समझाते हो, सांत्वना देते हो और इस तरह से अपने आपको धोखा भी देते हो। आप भी अपना अतीत उन्हीं की तरह बनाना चाहते हो, लिखना चाहते हो। इसलिए उस कल को आप आज तक ढो रहे हो। आपका कल तो खराब हो ही गया। आप आज को भी उस कल के बोझ से दबाये हुए हो। आप जो हो, उसे समझ नहीं पाते। आप जो हो, वह बन नहीं पाते।

एकाग्रता तभी सम्भव है जब मन पर नियंत्रण होगा

         मन के सभी संकल्पों-विकल्पों का किसी एक केंद्र पर स्थित हो जाना एकाग्रता है। दीपक का लौ पर ठहर जाना एकाग्रता है। भंवरे का फूल पर फिदा हो जाना ही एकाग्रता है। गीता में अर्जुन ने भी भगवान श्रीकृष्ण से यही प्रश्न किया कि मन अत्यंत चंचल है, दृढ़ है, बलवान है। आंधी से भी ज्यादा वेगवान है।
 
         भगवान ने बताया कि लगातार अभ्यास से हम स्थितप्रज्ञ मन वाले बन सकते हैं। स्वयं को एकाग्र कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्वता ही एकाग्रता है। हमने जो लक्ष्य जीवन में निर्धारित किया, उसके लिए हम मन व प्राणों से समर्पित हों और तब तक उसमें लगे रहें जब तक कि अभीष्ट की प्राप्ति न हो जाए। एकाग्रता के लिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है, जो स्वयं एक साधना है। मन को वश में करना इतना आसान भी नहीं है।
 
         हमें एकाग्र होने के लिए कुछ बातों का विशेष ध्यान देना होगा। हम सीधे दसवीं मंजिल पर चढ़ने की बात करें, यह ठीक नहीं होगा। इसके लिए मैं तो कहूंगा कि क्रमश: आगे बढ़ने का प्रयास करें। अभ्यास करते समय अपनी स्थिति उस कछुए की तरह बनाएं, जिसे मारने पर भी वह अपने हाथ और पैर अंदर सिकोड़ कर बैठा रहता है, बाहर नहीं निकालता। उसका इंद्रियों पर अद्भूत नियंत्रण होता है। साधक को 'स्व' की चिंता करते हुए यह विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए कि मन को साधते समय उसका चित्त, शांत व निर्मल हो। बाहर चाहे कितना ही कोलाहल क्यों न हो, समुद्र का ज्वार ही क्यों न उमड़ आए।
 
         सबसे पहले तन को साधें, तन की एकाग्रता आसन के स्थिर होने से आएगी। प्राणायाम श्वास को एकाग्र करने में मदद करता है। एकाग्रता में मौन संजीवनी का काम करता है। साथ ही विचारों को भी एकाग्र करने का प्रयास करें। सांसों की लयबद्धता मन की गहराई तक ले जाती है। मन के लयबद्ध होते ही जीवन में एक अनूठी लय बन जाती है। एकाग्र बुद्धि वाला व्यक्ति हर निर्णय सोच समझकर सटीक लेता है। मन रूपी झील में दुनियादारी का कंकड़ पड़ने से जो हलचल आ गई थी वह भी प्राणायाम से धीरे-धीरे शांत होने लगती है। लगातार प्रयास से कुछ नियमों का पालन करके व्यक्ति आसानी से एकाग्रता के रथ पर सवार हो सकता है।

प्रेम व आनंद ही हमारी अनुभूतियों का संसार है

         मानव धर्म सभी के साथ एकता की अपेक्षा करता है। परमपिता परमेश्वर ने जब सृष्टि की रचना की तो धरती पर उसने कहीं भी सीमाएं नहीं बनाई, परंतु अफसोस कि फिर भी मनुष्य ने कागज के नक्शे बनाकर समस्त मानव जाति को भिन्न-भिन्न सीमाओं और संप्रदायों में बांट रखा है, पर आज आवश्यकता है तो यह जानने और समझने की कि मानव धर्म के महासागर में कहीं भी गोता लगाओ, उसका स्वाद एक जैसा होगा।

         इस सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन में हम भूल गए कि हम सब एक ही धागे से बंधे हुए हैं। यह धागा है-केवल इंसानियत का और प्रेम का। बहती हुई नदियां, लहराता पवन और हमारी यह पावन धरा-सब कुछ ईश्वर की अनमोल देन है। आज आवश्यकता है तो पुजारी बनने की, उस मानवता के प्रति जो आज हमारे बीच धड़कन बनकर धड़क रही है। हमारे देश की परंपरा ने हमेशा ही भावना, सद्भावना और प्रेममय वातावरण का निर्माण किया है। भारत महान है, क्योंकि इसकी संस्कृति और सभ्यता सदियों से शांति और प्रेम की पोषक रही हैं।

         शांति और प्रेम के पुजारी हमारे राष्ट्र ने हमेशा ही ऐसे बीज बोए हैं जिनसे प्रेम के फूल मुस्कराते रहे हैं। उन फूलों से ही शांति की अनवरत सुगंध बहती रही है। हमें यह भी जानना चाहिए कि प्रेम और आनंद ही हमारी अनुभूतियों का संसार है। इसी से हमने समस्त विश्व को आलोकित किया है। परम-पिता परमेश्वर ने जब सृष्टि की रचना की थी तो उसने मनुष्य को हर प्रकार की आध्यात्मिक और भौतिक संपदा से संपन्न किया। सांसारिक संपदाओं में मनुष्य इतना उलझ गया है कि उसने मानवीय संवेदनाओं पर प्रहार करना शुरू कर दिया। जरा सोचिए! क्या उस परमपिता ने हमें यही शिक्षा दी है? क्या जीवन जीने का यही तरीका है? क्या सिर्फ शक्तिशाली को जिंदा रहना होगा? अच्छा तो तब होगा, जब हम हर द्वेष, दुराव व मतभेद को मिटाकर नए युग में नयी चेतना के सूत्रपात का संकल्प लें। जहां कोई लड़ाई न हो, अगर हो तो मात्र प्रेम, सौहार्द, एकता और भाईचारा। उस परमपिता का यही संदेश है। एकता से ही हम अपने समाज और देश को मजबूत बना सकते हैं और लोगों को प्रगति के पथ पर अग्रसर कर सकते हैं।

जैसा स्वभाव होगा व्यवहार भी वैसा ही होगा

         व्यक्ति का परम लक्ष्य है शांति और आनंद की प्राप्ति। दैनिक जीवन में साधना के द्वारा हम अपने व्यक्तित्व को बदल सकते हैं। स्वस्थ जीवन के लिए सर्वप्रथम आत्मावलोकन करना होता है। स्वयं के द्वारा स्वयं को देखना होगा। इस तरह से स्वयं के सही अस्तित्व का बोध होने लगता है।

         केवल लक्ष्य के निर्धारण से शांति और आनंद की प्राप्ति नहीं हो जाती। लक्ष्य के अनुरूप पुरुषार्थ भी अपेक्षित है। पुरुषार्थ के अभाव में लक्ष्य उपलब्ध नहीं होता। आसन और प्राणायाम केवल शरीर को ठीक रखने या बीमारियों को दूर करने का ही मार्ग नहीं है, बल्कि शरीर के यंत्र को सम्यक और प्राण को सशक्त करने का साधन है। आसन-प्राणायाम के सम्यक् अभ्यास से मुद्रा प्रगट होती है। मुद्रा का संबंध भावों से है, जिसकी भावधारा निर्मल है, उसकी मुद्रा भी सुंदर बनेगी, क्योंकि मुद्रा भाव से निर्मल बनती है। मुद्रा और भाव का गहरा संबंध है, इसलिए आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान के अंतर्गत एक फामरूला मापदंड के लिए निर्मित किया।

         जैसी मुद्रा वैसा भाव, जैसा भाव वैसा स्नाव, जैसा स्नाव वैसा स्वभाव बन जाता है, जैसा स्वभाव वैसा व्यवहार बन जाता है। इसलिए अपनी भावधारा को निर्मल बनाने से रोग मिटता है, योग होता है और व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है। योग और ध्यान साधना केवल चिकित्सा पद्धति नहीं है, यह स्वस्थ जीवन-शैली है, जिससे व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास करता है। उससे परम अस्तित्व को उपलब्ध होता है।

         मंत्र साधना, 'विज्ञान भैरव' पर आधारित तंत्र साधना, शक्ति साधना आदि कितनी तरह की पद्धतियां इस देश में विकसित हुईं। महापुरुषों का कथन है कि ध्यान तो जीवन जीने की एक कला है। ज्यों-ज्यों ध्यान में गहरी डुबकी लगती चली जाएगी, तो फिर किसी समय या स्थान की सीमा नहीं रह जाएगी। फिर तो उसे प्रभु की याद अहर्निश अखंड रूप से जीव पर स्वत: ही भीतर कृपा बनकर बरसेगी।

       राबिया नाम की महान सूफी फकीर से किसी ने पूछा, 'मां, प्रभु को याद करने का कौन-सा समय अनुकूल है? आप किस समय प्रभु को याद करने के लिए ध्यान में बैठती हैं? राबिया यह अटपटा प्रश्न सुनकर हंस पड़ी और बोली-'क्या प्रभु को याद करने का भी कोई समय होता है? उसकी याद, उसका ध्यान ही तो मेरा जीवन है।

जीवन को हम जैसा चाहें, वैसा बना सकते हैं

         निद्रा का जन्म आलस्य से होता है और आलस्य जीवन के पतन का मार्ग प्रशस्त करता है। निद्रा का विज्ञान यह है कि निद्राकाल में जब शरीर की सारी इंद्रियां काम करना बंद कर देती हैं तो शरीर ऊर्जा का संग्रह करने लगता है। यह एक प्राकृतिक व्यवस्था है। जो ऊर्जा जाग्रत अवस्था में खर्च हो जाती है उसे पुन: प्राप्त करने के लिए निद्रा में जाना आवश्यक है।
 
         जितनी ऊर्जा हमारे शरीर को चाहिए उसके लिए छह घंटे का समय काफी होता है। जन्मकाल के बाद बच्चा लगभग 23 घंटे सोता है। ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, निद्रा कम होती जाती है। यही कारण है कि आम तौर पर वृद्ध लोग 2 से 3 घंटे से अधिक नहीं सोते। इतने ही समय में उनके शरीर के लिए आवश्यक ऊर्जा संग्रहीत हो जाती है।

         जो लोग आलस्य के कारण अधिक सोते हैं, धीरे-धीरे सोना उनकी आदत बन जाता है और वे आलसी बन जाते हैं। आलस्य, नींद और जम्हाई लेना अच्छा लक्षण नहीं माना जाता। जो लोग साधक होते हैं, उनके लिए आवश्यक है कि वे नींद के वश में न रहें, क्योंकि नींद साधना की विरोधी है। साधना करते समय साधक को अगर आलस्य आ जाए, नींद आने लगे, तो साधना में उतरना संभव नहीं है। हमारा जीवन किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हैं, उसे उद्देश्यहीन बनाकर अपनी मूल प्रवृत्तियों के वश में होकर इसे नष्ट नहीं करना है।

         जीवन की सार्थक भूमिका यही है कि हम आत्मिक चिंतन करें और सारी ऊर्जाशक्ति को संग्रहित कर जीवन में विवेकशक्ति को जाग्रत करें और इसके लिए दूसरों को भी प्रेरित करें। जो शरीर साधना के मार्ग से बुद्धि और विवेक से नियंत्रित होकर परमात्मा की अनुभूति नहीं करता है अंतत: उसका लौकिक और अलौकिक जीवन निर्थक हो जाता है। मूल प्रवृत्तियां शरीर को स्थिर करने में सहायक मात्र होती हैं और जब शरीर सही ढंग से काम करता रहता है तभी आत्म तत्व को परमात्म तत्व में मिलने का सहज मार्ग बन पाता है। इसलिए सभी को आलस्य और निद्रा से वशीभूत होने से बचने की आवश्यकता है। हमारा जीवन बड़ा महत्वपूर्ण है। इस जीवन को हम जैसा चाहें, वैसा बना सकते हैं। अगर हमारा जीवन कर्मशील है, तो हम जीवन में यशस्वी बन सकते हैं। अगर आलसी है, तो समाज में निंदा के पात्र भी बन सकते हैं।

पाप और पुण्य क्या है

          प्राय: पाप-पुण्य के सबंध में प्रश्न उठा करते हैं। विद्धानों का मानना है कि इनकी कोई निश्चित सर्वमान्य परिभाषा नहीं है। लोगों का विश्वास है कि परिस्थितियां पाप को पुण्य में और पुण्य को पाप में बदल दिया करती हैं।

          जिस प्रकार सुबह के प्रकाश के लिए सूर्य को अंतरिक्ष का वक्ष चीरना होता है, इसी प्रकार पुण्य की महिमा से दीक्षित होने के निमित्त, संभवत: हर क्षण पाप की ज्वाला से पिघलने की जरूरत होती है। जीवन पुण्य के बिना संभव है, किंतु पाप की परछाई भी जीवन का स्पर्श करती है। समाज में रहकर हम परिवार को चलाने के लिए अनेक उद्यम करते हैं, किंतु कहां कितना पाप हो रहा है और कितना पुण्य, हम इसका लेखा-जोखा नहीं रखते। हमारा एकमात्र लक्ष्य धनार्जन होता है। यदि धन, झूठ और पाप से अर्जित है तो वह पेट में खप जाता है, किंतु पाप तो आपके पास संचित है। याद रहे पाप से अर्जित धन तो व्यय हो जाता है, लेकिन पाप व्यय नहीं होता।

          यही बात पुण्य के संबंध में भी है। शास्त्र कहते हैं जीव मात्र ही भूल करता है। ऐसा कौन है जो इससे बचा हो? जो इससे पृथक है वह मनुष्य नहीं देवता है, किंतु जो पाप करके प्रायश्चित नहीं करता, वह दानव है। जब तक मनुष्य अज्ञानी है, तब तक पाप, वासना व असत्य आदि उसके हृदय में उपस्थित रहते हैं। इसलिए तत्व ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है। इसके अभाव में पाप वासना नहीं मिटती।

          ज्ञान प्राप्ति से सभी भेद मिट जाते हैं और व्यक्ति जन-कल्याणकारी कार्य में लग जाता है। इस अनुशासित जीवन से पाप-वासना से वह मुक्त होकर, तपस्या, ब्रह्मचर्य, इंद्रियों को वशीभूत करने, स्थिर मति, दान, सत्य और अंतर्मन की पवित्रता आदि से अतीत के पापों से मुक्त हो जाता है, लेकिन इसके लिए प्रभु में निष्कपट विश्वास रखना जरूरी है।

          पुण्य प्राप्ति की अगली कड़ी है- आंतरिक शत्रुओं को पराजित करने के लिए आत्मज्ञान की उपलब्धि। इससे ही तत्वज्ञान प्राप्त होते हैं। काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, ईष्र्या-ये छह शत्रु मन को उद्वेलित करते रहते हैं। इनका दमन करने पर मनुष्य दुख और पाप से मुक्त हो जाता है। मन के भीतर झांकते ही प्रभु कृपा से इन शत्रुआें का नाश आरंभ हो जाता है। हमें पुण्य प्राप्ति के लिए बस इतना करना है कि हम शास्त्र सम्मत ढंग से जीवनयापन और धनार्जन करते हुए, लोक कल्याणकारी कायरें में लगे रहें और अपने सभी कमरें को प्रभु आश्रित कर दें। यही पाप मुक्त होने का तरीका है।

सुखी रहने के लिए किसी से कोई अपेक्षा न रखें

          इस पृथ्वी पर अगर जीवन है, अगर जीवन का संचार हो रहा है, प्राण ऊर्जा का संचार हो रहा है, तो उसका मूल केंद्र सूर्य है। सूर्य के तेज से यह शरीर कार्यरत है, सूर्य के तेज से यह सारी प्रकृति कार्यरत है, पर सूर्य को न कुछ देने का भाव है, न लेने का कुछ भाव है, न उसको हमसे कुछ अभीष्ट इच्छाएं हैं, न अपेक्षाएं हैं, फिर भी वह दे रहा है। हमारे जीवन का केंद्रबिंदु, इस जगत का केंद्रबिंदु, जिससे हम प्राणशक्ति पा रहे हैं, वह बगैर देने के भाव से है, वह बगैर किसी अपेक्षा के भाव से है। न ले कुछ, न दे कुछ, परंतु आप अपने जीवन को देखें तो आपका जीवन अमावस्या की काली रात्रि जैसा हो गया है जिसमें सिर्फ घनघोर अंधकार है अपेक्षाओं का।

          किसी से कुछ चाहते हैं, किसी से कुछ मांगते हैं। किसी से आप तमन्नाएं करते हैं, कोई आपसे तमन्नाएं करता है। किसी से आप अपेक्षाएं करते हैं, कोई आपसे अपेक्षा कर रहा है और इन्हीं अपेक्षाओं के जाल में बंधा हुआ आदमी का मन विश्रामपूर्ण कभी नहीं हो सकता। ऋषि कहते हैं कि सूर्य की भांति दैदीप्यमान बनो। सूर्य की भांति तेजस्वी बनो। सूर्य की भांति दाता बनो, पर देने के भाव के बगैर।

          ऋषियों ने सूर्य को देव कहकर उसे नमस्कार भी किया है। पतंजलि योग शास्त्र में एक प्राणायाम है, जिसका नाम सूर्य से जोड़ा गया है, एक आसन है, जिसका नाम सूर्य ही सूर्य नमस्कार है। सूर्य दे रहा है, लेकिन अगर सीधे सूर्य से यह पूछें कि आपने हमें कुछ दिया? तो वह कहेंगे नहीं। सच कहूं, कोई किसी को कुछ दे भी नहीं सकता। ऐसा विचार रखना किसी भी व्यक्ति के लिए ठीक नहीं। यह सब हमारी अपनी ही मन की धारणाएं होती हैं, हमारे अपने ही मन की कुछ व्याख्याएं होती हैं, जिससे हम अपने आपको संतुष्ट कर लेते हैं। बात कुछ भी नहीं है, आप सुबह घर में जगे और बाहर उठकर आए।

          आपके घर के सदस्यों ने आपको नमस्कार कह दिया तो आप खुश हो गए। नमस्कार नहीं कहते तो आप व्यथित होते और कहते कि 'इनको अक्ल नहीं है, संस्कार नहीं रह गए, प्रणाम नहीं करते हैं।' आदर-सम्मान नहीं करते हैं, तो हम कुढ़ते हैं। कहने वाला बेमन से भी नमस्कार कह सकता है, तो आप प्रसन्न हो जाते हैं। अगर आप शांत मन से संतुष्ट जीवन जीना चाहते हैं तो बस देने का भाव रखें। किसी से कोई अपेक्षा न रखें।

जीवन में अहंकार भी पतन का एक कारण है

          छह विकारों में मद अर्थात अहंकार पतन का चौथा कारण द्वार है। यह मनुष्य का स्वयं अर्जित किया हुआ मनोरोग है। रोग का अर्थ होता है शरीर की प्रक्रिया को विकृत कर देना। जिस प्रकार भला-चंगा हाथी मदांध हो जाता है तो वह विवेक खो देता है और गलत आचरण करने लगता है उसी प्रकार मनुष्य जब मदांध हो जाता है तब उसका विवेक नष्ट हो जाता है।

          विवेक के बगैर मनुष्य पशु से भी बदतर हो जाता है। पशु का अर्थ होता है जो पाश में बंधा हो। पशु को इसलिए बांधा जाता हैं कि वह अविवेकी प्राणी है। कभी-कभी मदांध व्यक्ति को भी पाश में बांधा जाता है ताकि वह गलत आचरण न करे। ऐसा इसलिए, क्योंकि, पशुता केवल पशु का ही धर्म नहीं है, कुछ मनुष्य भी पशुतुल्य बन जाते हैं, जब उनका अपना सब कुछ नष्ट हो जाता है और वे गलत आवरण ओढ़ लेते हैं। मद मनुष्य का प्राकृतिक गुण नहीं है। इसे हम अपने बारे में गलत खयालों के कारण धारण कर लेते हैं।

          हमारे संतों ने इसीलिए कहा कि मदांध व्यक्ति भीतर से पूरी तरह खाली होता है और इस खालीपन को भरने के लिए वह कभी काम के माध्यम से तो कभी क्रोध के माध्यम से और कभी लोभ के माध्यम से अपने गलत अभिमान को प्रदर्शित कर दूसरों के बीच अपनी स्वीकृति चाहता है। ऐसा इसलिए क्योंकि मद का अर्थ ही होता है जो आप नहीं है, वैसा होने का आचरण करना। फलों से भरी डाली झुकी रहती है, लेकिन सूखी डाली तनी खड़ी रहती है। इस सूखी डाली को भी फल होने का गौरव चाहिए।
 
          इसीलिए वह फलयुक्त होने का व्यवहार करती है। हमारे जीवन में भी वैसे लोग आते हैं जो स्वयं तो कंगाल होते हैं, लेकिन कभी अपनी बातों से, कभी व्यवहार से ऐसा आचरण करने लगते हैं जिससे लोग उनकी झूठी शान को वास्तविक समझ लें। मदांध व्यक्ति बाहर और भीतर दोनों तरफ से दरिद्र होता है, कंगाल होता है और वह अपनी दरिद्रता को छिपाने के लिए बार-बार घोषणा करता रहता है कि मैं दरिद्र नहीं हूं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार यदि व्यक्ति अपने बड़े होने की सफाई दे, तो निश्चित रूप से वह बड़ा नहीं है। यही कारण है कि जो मदांध होते हैं उसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। उनकी राय में मदांध व्यक्ति अपनी विकृतियों का शिकार होता है। साधना के क्षेत्र में मदांध व्यक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है।

ध्यान का अर्थ है, जो शक्तियां सुषुप्त हैं वे जाग्रत हो जाए

          व्यक्ति में आत्मविश्वास उत्पन्न होना जरूरी है। आत्मविश्वास का सूत्र है- मेरी समस्याओं का समाधान कहीं बाहर नहीं, भीतर ही है। इस समाधान का सशक्त माध्यम है ध्यान। ध्यान का प्रयोजन है कि व्यक्ति में आत्मविश्वास पैदा हो जाए।

          समस्याओं से मुक्ति का जो मार्ग मुझे चाहिए वह है ध्यान, जो मेरे भीतर है। यदि यह भावना प्रबल बने तो मानना चाहिए-ध्यान का प्रयोजन सफल हुआ है। ध्यान का अर्थ यही है कि हमारे शरीर के भीतर जो शक्तियां सुषुप्त हैं, वे जाग्रत हो जाएं। ध्यान से व्यक्ति में यह चेतना जगनी चाहिए कि मुझमें शक्ति है और उसे जगाया जा सकता है और उसका सही दिशा में प्रयोग किया जा सकता है।

          शक्ति का बोध, जागरण की साधना और उसका सम्यक दिशा में नियोजन, इतना विवेक जग गया तो समझो कि सफलता का स्त्रोत खुल गया और समस्याओं से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया।

          हमारे भीतर ऐसी शक्तियां हैं, जो हमें बचा सकती हैं। संकल्प की शक्ति बहुत बड़ी शक्ति है। अनावश्यक कल्पना मानसिक बल को नष्ट करती है। लोग अनावश्यक कल्पना बहुत करते हैं। यदि उस कल्पना को संकल्प में बदल दिया जाए, तो वह एक महान शक्ति बन सकती है। एक विषय पर दृढ़ निश्चय कर लेने का अर्थ है- कल्पना को संकल्प में बदल देना। इस संकल्प का प्रयोग करें, तो वह बहुत सफल होगा। संकल्प एक आध्यात्मिक ताकत है। संकल्पवान व्यक्ति अंधकार को चीरता हुआ स्वयं प्रकाश बन जाता है। चंचलता की अवस्था में संकल्प का प्रयोग उतना सफल नहीं होता जितना वह एकाग्रता की अवस्था में होता है।

          हर व्यक्ति रात्रि के समय सोने से पहले एक संकल्प करे और उसे पांच-दस मिनट तक दोहराए कि मैं यह करना या होना चाहता हूं। इस भावना से स्वयं को भावित करे, एक निश्चित भाषा बनाए, जिसे वह कई बार मन में दोहराए। ऐसा करने से संकल्प लेने में शीघ्र सफलता मिलती है और इसमें ध्यान का चमत्कारिक प्रभाव है। ध्यान आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी है। ध्यान से निषेधात्मक भाव कम होते हैं, विधायक भाव जाग्रत होते हैं। ध्यान एक ऐसी विधा है, जो हमें भीड़ से हटाकर स्वयं की श्रेष्ठताओं से पहचान कराती है। हममें स्वयं पुरुषार्थ करने का जज्बा जगाती है।

जीवन में मौन मन की आदर्श अवस्था है

          अधिक बोलना हमारे व्यक्तित्व पर ग्रहण लगने के समान है। जरूरत से ज्यादा बोलने पर शिष्टता-शालीनता की मर्यादाओं का उल्लंघन होता है। इससे मानसिक शक्तियां कमजोर और दुर्बल होती हैं, स्नायुतंत्र पर विपरीत असर पड़ता है। यदि लंबे समय तक ऐसी स्थिति बनी रहे तो कई प्रकार की मानसिक विकृतियां और शारीरिक रोगों का पनपना प्रारंभ हो जाता है। वाचाल व्यक्ति का व्यक्तित्व उथला माना जाता है। कोई भी उस पर विश्वास नहीं करता। अविश्वास एक ऐसी सजा है कि जिसे झेल पाना अत्यंत कठिन है। मौन मन की आदर्श अवस्था है। मौन का अर्थ है-मन का निस्पंद होना। मन की चंचलता समाप्त होते ही मौन की दिव्य अनुभूति होने लगती है। मौन मन का अलंकार है, जो इसके स्थिर होते ही सहजता से प्राप्त किया जा सकता है। मौन से मानसिक ऊर्जा का क्षरण रोककर इसे मानसिक शक्तियों के विकास में नियोजित किया जाना संभव है। मौन में मन शांत, सहज व उर्वर होता है और सृजनशील विचारों को ग्रहण कर पाता है।

         इसलिए मौन चुप रहने की अवस्था नहीं है। मौन से वाणी पर अंकुश लगाया जा सकता है। मौन का अभ्यास करके निर्थक और बेलगाम प्रलाप से निजात पाई जा सकती है। इससे मन स्थिर और प्रशांत होता है। प्रशांत मन समस्त मानसिक शक्तियों का द्वार होता है।

         मौन चुप या शांत रहना नहीं है बल्कि अनावश्यक विचारों की उधेड़बुन से मुक्ति पाना है। चुप रहने को यदि मौन की संज्ञा दी जाए तो समझना चाहिए कि इस के मर्म और तथ्य से हम बहुत दूर हैं। सामान्यत: व्यक्ति बोलकर जितनी मानसिक ऊर्जा बर्बाद करता है, उससे कहीं ज्यादा विवशतावश चुप रहकर करता है। ऐसी अवस्था में विचारों की आड़ी टेढ़ी लकीरें मन में आपस में टकराने लगती हैं और अपने को अभिव्यक्त करने के लिए मन का संधान करती है। चुप रहते हैं और मन की इस व्यथा को भी सहते हैं। बोलना चाहते हैं और बोलते भी नहीं।
 
         इस कशमकश से तो अच्छा है कि बोलकर अपने को हल्का कर लिया जाए। इसके अभाव में मानसिक शक्तियां कुंठित हो जाती हैं। उनमें गांठें पड़ जाती हैं और अंतत: ये गांठें हमारे अचेतन मन को जख्मों से छलनी कर देती हैं। ऐसा मौन संघातक होता है। मौन की शक्ति असीमित और अनंत है। मौन मनुष्य की ही नहीं संपूर्ण प्रकृति की अमोघशक्ति है।

कल्पना और संकल्पना क्या हैं

         प्राय: जीवन में कुछ विशेष कार्य करने से पहले व्यक्ति तरह-तरह के संकल्प करता है। संकल्प सकारात्मक और कल्याणकारी कार्यो को करने से पूर्व की इच्छाशक्ति पर केंद्रित होने की प्रक्रिया है।

         नकारात्मक व मानव-विरोधी काम करने से पहले किए जाने वाले समस्त मानसिक और भाविक यत्‍‌न संकल्प नहीं हो सकते। संकल्पना सद्भावनाओं से जन्म लेती है। सद्विचारों के क्रियान्वयन के लिए जो कार्यनीति बनती है उसकी प्रेरणा संकल्प से ही मिलती है।

         धार्मिक अनुष्ठान सिद्ध करने के लिए भी तन-मन से व आत्मिक स्तर पर शुद्ध होना परमावश्यक है और अनुष्ठान की समाप्ति तक शरीर और हृदय से सात्विक स्थिति में स्थिर होना जातक के संकल्प की परीक्षा होती है।

         जीवन में बड़ा व अच्छा काम करने के लिए व्यक्ति को उस काम के प्रति एक अतिरिक्त ऊर्जा की जरूरत होती है। सद्गुणात्मक मनुष्य-प्रकृति अतिरिक्त ऊर्जा का सबसे बड़ा स्नोत है और इसे संकल्प द्वारा बढ़ाया जा सकता है।

         अनेक मानवीय सद्गुणों को अपने व्यक्तित्व में समाहित कर उन्हें अनुरक्षित करने के लिए मनुष्य को कठिन शारीरिक-मानसिक प्रयत्‍‌न करने पड़ते हैं। प्रयत्‍‌नों के निरंतर अभ्यास के लिए कठोर संकल्प चाहिए। कोई भी व्यक्ति केवल भौतिक सामग्रियों की सहायता से अच्छे काम में सफल नहीं हो सकता। उसमें भौतिक सामग्रियों के संतुलित प्रयोग की समझ भी होनी चाहिए। इसके लिए उसे एक दूरद्रष्टा, परोपकारी व आशावादी व्यक्ति बनना होगा और ये सभी गुण उसी व्यक्ति में हो सकते हैं, जो सद्भावनाओं को बेहतर संकल्प-शक्ति से सद्कायरें में परिवर्तित कर सके। संकल्पना व्यक्ति की जन्मजात प्रवृत्ति है। शिशु मानव में यह प्रवृत्ति अधिक होती है। जैसे-जैसे व्यक्ति बड़ा होता है, उसकी जीवन संबंधी कल्पनाएं दो भागों में बंट जाती हैं। ये हैं कल्पना और संकल्पना। कल्पनाओं में विकार व विसंगतियां हो सकती हैं, परन्तु संकल्पनाएं सदाचार, सत्यनिष्ठा, सद्प्रवृत्ति, सद्चि्छा से परिपूर्ण होती हैं। संसार में बीज से वृक्ष बनने की प्रक्त्रिया एक प्रकार से संकल्प का ही द्योतक है। संकल्प की शक्ति से ही ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न आयाम प्राप्त हो सके हैं। आज मनुष्य जीवन के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती अपने नैसर्गिक-प्राकृतिक गुणों की सुरक्षा की है। इसके लिए सामूहिक प्रयासों को व्यावहारिक बनाना होगा।

प्रेम की भावना क्या है

                 एक दवा ऐसी है, जिसे व्यक्ति को बाजार से नहीं खरीदना पड़ता। वह दवा प्रत्येक व्यक्ति के पास है और उसके सहारे वह हर बड़ी से बड़ी बीमारी व समस्या को दूर कर सकता है। वह दवा प्रेम है। प्रेम इंसान के अंदर की एक ऐसी भावना है, जो उस समय बढ़ती है, जब व्यक्ति किसी से गहराई से जुड़ता है। जब व्यक्ति सकारात्मक भावों के साथ इनसे प्रेम करता है, तो जिंदगी बेहद खूबसूरत हो जाती है। 'द बॉयोलॉजी ऑफ लव' पुस्तक के लेखक डॉ जेनव कहते हैं, 'मनुष्य एक संवेदनशील जीव है, इसलिए प्रेम जैसी भावना की कमी उसके विकास और जीने की क्षमता को कमजोर कर सकती है। मनोवैज्ञानिक प्रेम को मनुष्य के अंतर्मन में मौजूद सबसे मजबूत और सकारात्मक संवेदना के रूप में देखते हैं और मानते हैं। इससे शरीर में गहरे बदलाव आते हैं। जिस तरह दवा रसायनों के मिश्रण से बनती है, उसी तरह प्रेम की दवा में भी रसायनों का ही हाथ है। अमेरिका के वैज्ञानिक रॉबर्ट फ्रेयर के अनुसार प्रेम मानव शरीर में उपस्थित न्यूरो-केमिकल के कारण होता है। यह न्यूरो-केमिकल व्यक्ति को प्रेम की गहनता तक ले जाता है और व्यक्ति को उन खुशियों तक पहुंचाता है, जिन्हें वह पाना चाहता है। अक्सर व्यक्ति को बीमारी, तनाव व डिप्रेशन के समय परिवार के साथ समय बिताने, प्रकृति को निहारने, प्रेरणादायक पुस्तक पढ़ने और मधुर संगीत सुनने की सलाह दी जाती है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक तर्क यही है कि ये सब प्रेम के रूप हैं और व्यक्ति के लिए दवा का काम करते हैं।

                   श्रीश्री रविशंकर प्रेम के संदर्भ में कहते हैं कि प्रेम तो ऐसी दवा है जिसकी कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती। यह हमेशा हर मौके पर कारगर होती है। प्रेम की दवा को अपना साथी बनाना बहुत सरल है। इसके लिए व्यक्ति को बस अपने अंतर्मन से इस बात को स्वीकार करना है कि मुझे पूरी सृष्टि से प्रेम है। मुझे हंसते-रोते इंसानों से, फूल-पत्तों से, गुनगुनी सुबह से, सुरमयी शाम से और चिड़ियों के कोलाहल से, नदियों के राग से प्रेम है। प्रेम एक ऐसी दवा है, जो जिसके पास जितनी अधिक होती है, उसे यह उतनी अधिक स्वस्थ, सुंदर और हंसमुख बनाती है। कई बार व्यक्ति जब दवा का सेवन करता है, तो उसे कई खाद्य पदार्थो व वस्तुओं से परहेज करना पड़ता है, लेकिन प्रेम की दवा में ऐसा बिल्कुल नहीं है।

साधना का अन्यतम अंग है तप

        मनुष्य में जो कुछ भी शक्ति है वह उसकी अपनी नहीं है। यह बात याद रखनी चाहिए कि मेरा कुछ भी नहीं है। जब मनुष्य के मन में यह भावना उठती है कि मेरी शक्ति से नहीं, उन्हीं की शक्ति से सब कुछ हो रहा है, तब उनमें अनंत शक्ति आ जाती है। आप लोग इस दुनिया में आए हैं। इसलिए आपको बहुत कुछ करना है।

         वस्तुत: दुनिया में जो कुछ भी होता है, उसके पीछे एषणा वृत्ति काम करती है। एषणा है इच्छा को कार्य रूप देने का प्रयास। जहां इच्छा है और इच्छा के अनुसार काम करने की चेष्टा है, उसे कहते हैं एषणा। दुनिया में जो कुछ भी है, एषणा से ही है। परमात्मा की एषणा से दुनिया की उत्पत्ति हुई है। जब परमपुरुष की एषणा और मनुष्य की व्यक्तिगत एषणा एक साथ काम करती है, तो उस स्थिति में कर्म में मनुष्य सिद्धि पाते हैं, किंतु मनुष्य सोचते हैं कि मेरी कर्मसिद्धि हुई है। कर्मसिद्धि कुछ नहीं हुई है। परमपुरुष की एषणा की पूर्ति हुई है। वह जैसा चाहते हैं, वैसा हुआ। आपकी ख्वाहिश भी वैसी थी। इसलिए आपके मन में भावना आई कि मेरी इच्छा की पूर्ति हो गई है। आपकी इच्छा की पूर्ति नहीं होती है। उनकी इच्छा की पूर्ति होती है। वे अपनी इच्छा के अनुसार काम करते हैं, किंतु मनुष्य के मन में आनंद होता है कब, जब मनुष्य यह जान लेता है कि उनकी इच्छा की पूर्ति हो गई। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य इस संदर्भ में क्या करते हैं? वे सोचते हैं कि परमात्मा की इच्छा इसमें क्या है। उसी इच्छा को मैं अपनी इच्छा भी बना लूं। वे देखते हैं कि परमात्मा की जो एषणा है उसके पीछे कौन सी वृत्ति है? वह है इस दुनिया का कल्याण हो।

         शास्त्र में परमात्मा का एक नाम है 'कल्याणसुंदरम' भी है। परमात्मा सुंदर क्यों हैं? चूंकि उनमें कल्याण वृत्ति है। इसलिए वे सुंदर हैं। परमात्मा हर जीव की नजर में सुंदर हैं, क्योंकि वे 'कल्याणसुंदरम' हैं। प्रगति कैसी होगी? प्रगति उसी को कहेंगे जहां मनुष्य गतिवान है, भौतिक-मानसिक और मानसिक-आध्यात्मिक। समाज के जितने मनुष्य हैं, सभी को साथ लेकर चलना होगा। साधना का अन्यतम अंग है तप। तप माने अपने स्वार्थ की ओर नहीं ताकना। ताकना है समाज के हित की ओर। सामूहिक कल्याण की भावना जहां है, व्यक्तिगत कल्याण उसमें हो या न हो, उसी का नाम है तप। तप का सवरेत्तम उपाय जनसेवा है। जनसेवा से आध्यात्मिक विकास होता है।

जीवन में मोह जड़ता का प्रतीक है

         जो विवेक को जाग्रत नहीं होने देता--साधक के मार्ग का मोह पांचवां अवरोधक मनोविकार है। मोह जड़ता का प्रतीक है, जो विवेक को जाग्रत नहीं होने देता। कोई भी साधक जब तक किसी विकार से ग्रस्त रहेगा, वह साधना में नहीं उतर सकता। साधना निर्विकार की परिणति है। जब विचार गिर जाए, मोह और ममता की दीवार ढह जाए, तभी साधक को साधना की अनुभूति होती है।

         परमात्मा ने मनुष्य को निर्विकार, सरल और सौम्य जीवन जीने के लिए उत्पन्न किया, लेकिन हमने स्वयं अपने चारों ओर मोह और ममता का मायाजाल निर्मित कर स्वयं को फंसा लिया। जितना दुख चिंता और भय हमने अपने जीवन में आमंत्रण देकर बुलाया है, वे सब हमारी अपनी कल्पना के फल हैं। ईश्वर ने हमारे लिए कोई जाल नहीं बनाया, हमने स्वयं अपने हाथों से उन जालों को बनाया और स्वयं उसमें फंसते गए। मोह का मायाजाल व्यक्ति की अपनी मानसिक रुग्णता का परिणाम है। जिस प्रकार रस्सी को सांप समझकर हम भागने लगते हैं और बाद में वस्तुस्थिति समझकर अपनी ही मूर्खता पर मुस्कराने लगते हैं, ठीक वही स्थिति मनुष्य की होती है, जो अकारण किसी वस्तु से मोहग्रस्त हो जाता है और फिर पछताने लगता है।

         मोह के कारण जिस वस्तु से उसे लगाव हो जाता है, बाद में वही वस्तु कांटे की तरह चुभने लगती है। वस्तुओं का संग्रह और उससे लगाव मोह की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। वस्तुओं का संग्रह कर हम तृप्त होना चाहते हैं और जब संग्रहकर्ता को उससे संतोष नहीं होता और मोह के कारण और अधिक संग्रह की लिप्सा बढ़ती जाती है, तब पता चलता है कि इस संग्रह की प्रवृति का मायाजाल कितना बढ़ता जा रहा है। मोह के कारण जिन वस्तुओं का अधिक से अधिक संग्रह हम करना चाहते हैं, अगर उन वस्तुओं से मन में संतोष और आनंद की अनुभूति न हो, तो बड़ी निराशा होती है। मोह अभाव से उत्पन्न होता है और अभाव का अर्थ है कि व्यक्ति भीतर से खाली है। भीतर जो खाली है, व्यक्ति के भीतर के आकाश में खोखलापन है, तो वह भीतर के अभाव को भरने के लिए बाहर की वस्तुओं के संग्रह के मोह में पागल सरीखा हो जाता है। भीतर का अभाव ही बाहर से भरने की उत्सुकता पैदा कर देता है।
 
         इसीलिए लोग संपत्ति के मोह में फंसे रहते हैं और संग्रह हो जाने पर उसका कोई उपयोग नहीं करते और उस संपत्ति को सहेजकर बैंक के लॉकर में रख देते हैं।

प्रकृति की तरह जो चीज सरल रहती है, वही सत्य है

          प्रकृति अत्यंत सरल है। इसकी समस्त क्रियाएं बड़ी सरलता के साथ होती हैं। सूर्य का उदय होना, तारों का टिमटिमाना, नदियों का निरंतर बहना, हवा का चलना समय पर हो रहा है। वृक्ष फलते-फूलते हैं, रात के बाद दिन आता है, पर्वत-चट्टानें स्थिर हैं।

          प्रकृति जटिलताओं का उद्गम-स्त्रोत नहीं है, उन्हें वह निर्मित भी नहीं करती। प्रकृति की क्रियाएं क्यों हो रही हैं या फिर क्या होना चाहिए, जैसे प्रश्नों से जटिलता पैदा होती है। प्रकृति में सब कुछ स्वयं ही होता है। प्रकृति की तरह जो चीज सरल रहती है, वही सत्य है। ऊपर से यह सहज जान पड़ता है, पर इसका अभ्यास करने पर यह इतनी सरल नहीं रहती। यही जीवन के साथ भी है। सरल रहने तक मानव जीवन सम्यक अर्थो में वास्तविक जीवन बना रहता है। यही हमारा जीवन जीना होता है। इससे पृथक होते ही यह जीवन कष्टमय बन जाता है। पद और ज्ञान का दंभ जीवन को जटिलतम बनाता है। जीवन के न सुलझने वाले गणित को सुलझाने के अनावश्यक कार्य में इतने अधिक उलझ जाते हैं कि अंत में मृत्यु ही इनके उलझाव को सुलझाती है। सहज और सरल जीवन के माध्यम से प्रयास के बगैर मंजिल मिलती है। सहजता में जीवन असाधारण होता है।

          सत्य भी सहज है। सत्य बोलना कठिन नहीं है। जो वास्तविकता है उसे ही कहना है। सत्य में जोड़ना-घटाना और गुणा-भाग नहीं करना पड़ता। झूठ बोलना इसके ठीक विपरीत है। जो नहीं है, वही कहना है। जल को हवा सिद्ध करने के लिए प्रपंच की सृष्टि करनी पड़ती है। वास्तविकता से दूर जाना पड़ता है। सत्य का यथार्थ से संबंध है। प्रेम की भूख स्वीकार करने पर उसे मिटाने वाले सरलता से मिल जाते हैं। संकोच करने पर मायावी-दिखावे के कारण अवसर निकल जाता है। संबंध की दीर्घता में सत्य सरल सेतु है। सत्य को कभी स्मरण नहीं रखना पड़ता। स्वयं स्मृति में रहता है। झूठ को सदा स्मृति पटल पर रखना होता है। झूठ को जितनी बार दोहराते हैं उतनी बार उसका अर्थ बदलता जाता है। झूठ जटिलताएं उत्पन्न करता है, जो मानसिक तनाव का कारण बनकर सरलता नष्ट करती है। सरलता के बगैर सत्य का सानिध्य नहीं मिलता। जटिलता छोड़ने पर आनंद धारा फूट पड़ती है।

आत्मसम्मान सुखी जीवन का आधारभूत तत्व है

         व्यक्ति आत्मसम्मान के अभाव में सफल तो हो सकता है, बाह्य उपलब्धियों भरा जीवन भी जी सकता है, किंतु वह अंदर से भी सुखी, संतुष्ट और संतृप्त होगा, यह संभव नहीं है। आत्मसम्मान के अभाव में जीवन एक गंभीर अपूर्णता व रिक्तता से भरा रहता है। यह रिक्तता एक गहरी कमी का अहसास देती है और जीवन एक अनजानी- रिक्तता, एक अज्ञात पीड़ा, असुरक्षा और अशांति से बेचैन रहता है। आत्मसम्मान का बाहरी उपलब्धियों और सफलताओं से बहुत अधिक लेना-देना नहीं है। आत्मविश्वास स्वयं की सहज स्वीकृति, स्व-प्रेम और स्व-सम्मान की व्यक्तिगत अनुभूति है, जो दूसरों की प्रशंसा, निंदा और मूल्यांकन आदि से स्वतंत्र है।

         वस्तुत: आत्मविश्वास व्यक्ति का अपनी नजरों में अपना मूल्यांकन है और अपनी मौलिक अद्वितीयता की आंतरिक समझ और इसकी गौरवपूर्ण अनुभूति है। यह अपने साथ एक सहजता का स्वस्थ और सामंजस्यपूर्ण भाव है, जो जीवन के हर क्षेत्र में हमारी गुणवत्ता को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। वस्तुत: जीवन में सफलता और प्रसन्नता की अनुभूति का आधार आत्मसम्मान और आत्मगौरव की स्वस्थ भावदशा ही है। आत्मसम्मान की कमी का प्रमुख कारण जीवन के नकारात्मक पक्ष से गहन तादात्म्य की स्थिति होती है। भ्रमवश इसी पक्ष को हम अपना वास्तविक स्वरूप मान बैठते हैं, जबकि यह तो व्यक्तित्व का मात्र एक पक्ष होता है। वास्तविक रूप तो हमारा उच्चतर 'स्व' है, जो ईश्वर का दिव्य अंश है। आत्म-सम्मान, आत्मविश्वास का प्रथम सूत्र है।

         इसके साथ अपने जीवन के प्रति पूर्ण जिम्मेदारी का भाव दूसरा चरण है। आत्म-विकास और उन्नति के साथ दूसरों के सुख-दुख में भागीदारी हमारे आत्मसम्मान को बढ़ाएगी। दूसरे के सुख और उत्कर्ष में प्रशंसा, वहींदुख व विषम समय में सांत्वना-सहानुभूति का सच्चा भाव भी आत्मसम्मान को बढ़ाने का अचूक तरीका है। अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण करें। अपने सत्य के साथ किसी तरह का समझौता न करें। वस्तुत: आत्मसम्मान का यथार्थ विकास इसी बिंदु पर शुरू होता है। देह की वासना, मन की तृष्णा और अहं की क्षुद्रता को पैरों तले रौंदते हुए जब हम अंतरात्मा के पक्ष में निर्णय लेते हैं, तो हमारा आत्मसम्मान हमारे व्यक्तित्व को आत्मगौरव की एक नई चमक देता है।

क्या हम जानते हैं कि दुनिया में किस प्रकार से रहना चाहिए

          जीवन तभी सार्थक हो सकता है, जब वह उस पारलौकिक जीवन की एक कड़ी हो, अन्यथा अगर इहलौकिक जीवन सिर्फ इस लोक का है, यहां प्रारंभ होकर यहीं समाप्त हो जाता है, तब मनुष्य का जीवन पैदा होना और मिट्टी में मिल जाना है, इसके सिवा कुछ नहीं।

          हमारा यह जीवन तभी सार्थक कहा जा सकता है, जब हम इस भौतिक जीवन के आगे जो कुछ है, उसके लिए इस जीवन को तैयारी का अवसर मानें। अगर यह जीवन अपने आप में स्वतंत्र है, किसी भावी जीवन की तैयारी नहीं है, तो यह व्यर्थ है। हम यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि यथार्थ सत्ता शरीर की है या आत्मा की। जैसे-जैसे हम ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करते जाते हैं, वैसे -वैसे यह सिद्ध होता जाता है कि हमारा ज्ञान आत्मा का ज्ञान है। भौतिक जीवन को आध्यात्मिक जीवन से भिन्न समझ लेने का परिणाम यह होता है कि इन्द्रिय युक्त भौतिक जीवन को हम सब कुछ समझ लेते हैं। इन्द्रियों का जीवन विषय भोग के लिए है, ऐसे में मनुष्य किसी दिशा में न जाकर जीवन के मार्ग में भटक जाता है।

          जीवन की दिशा निश्चित होने पर मनुष्य किसी संदेह के बगैर अपनी जीवन नैया उस ओर खेने लगता है। यदि उसे दिशाभ्रम हो जाए, तो हर समय वह संदेह में पड़ा रहता है कि जीवन के मार्ग में सत्य क्या है, सही रास्ता क्या है। अगर यही जीवन सब कुछ है और परमार्थ कुछ नहीं, तो यह सोच कर वह भौतिकवादी होने लगता है, परंतु यह भौतिक जीवन अंतिम अवस्था नहीं है। यह आगे के दिव्य जीवन की एक कड़ी मात्र है। यदि यह दृष्टिकोण अपना लिया जाए तो हम आाध्यात्मिक मार्ग पर चल सकते हैं। मनुष्य जीवन में भौतिकता और आध्यात्मिकता दोनों का होना अनिवार्य है। भौतिकता साधनों के लिए है और आध्यात्मिकता साध्य है।

         जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम शरीर को साधन मानकर आत्मिक जीवन के विकास के लिए प्रयास करें।

श्रेष्ठ भाव क्या हैं

         यह वाह्य दृश्यमय जगत की रचना ईश्वर द्वारा की गई है। इस पृथ्वी पर मनुष्य समेत अनेक जीव-जंतु अपना जीवनयापन करते हैं। अन्यान्य जीवों में मनुष्य विवेकयुक्त होने के कारण सबसे श्रेष्ठ प्राणी है। उसे ईश्वर ने बुद्धि के द्वारा विचार करने की शक्ति प्रदान की है। विचारों को पवित्रकर आत्मभाव में जाग्रत होने की युक्ति मात्र मनुष्य के पास है।

         अशोक बाजपेयी जी ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि इस भूमि पर अनेकानेक ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने अपने को पवित्र कर आत्मा का साक्षात्कार किया है। अनेक ऐसे भी महापुरुष जन्मे हैं, जिन्होंने ईश्वर की अनन्य भक्ति कर उनके दर्शन किए हैं। सूक्ष्मावलोकन करने से ऐसा विदित होता है कि पूर्व में मनुष्य का हृदय अत्यंत पवित्र था और उसके विचारों में निर्मलता व्याप्त रहती थी। पवित्रता, शुद्धता व मनन की सरलता उनके लिए सर्वाधिक महत्व रखती थी। लोग वाह्य दृष्टि से वैभवशाली नहीं थे, पर हृदय से बहुत संपन्न हुआ करते थे, उनके अंतर्जगत में भावों की उत्कृष्टता कूट-कूट कर भरी थी। सादा जीवन उच्च विचार उनका मूलमंत्र होता था। काल की गति के अनुसार विचारों का अवमूल्यन शुरू हुआ तो अंतस प्रदेश के भाव जगत में शुष्कता आने लगी। लोग विचारों की उच्चता को छोड़कर मात्र भौतिक जगत की संपन्नता को श्रेष्ठ मानकर उसकी ओर आकर्षित होते चले गये। वाह्य चमक-दमक में भावों की शुद्धता कुम्हलाने लगी। स्वयं को भौतिक रूप से संवारने की और वाह्य जगत को ही सर्वस्व समझने की इस दौड़ में लोग शामिल होते चले गये। प्रेम, सहिष्णुता, दया परोपकार के स्थान पर वाह्य जगत की संपन्नता हावी होती चली गई। घर, नगर, गांव इससे ग्रस्त होते गये। इस दौड़ के कारण अंदर झांकना बंद हो गया। इसका परिणाम भी अब सामने आने लगा है। अब तो अनेक लोग जीवन की अमूल्यता को ही नहीं समझ पा रहे हैं और अपनी जीवन-लीला को समाप्त करने में लग गये हैं। जीवन जीने के लिए भौतिक साधनों की आवश्यकता है, पर भाव की शुद्धता और पवित्रता से मन को सींचते रहने की भी आवश्यकता है। जीवन की निरंतरता के लिए इनकी आवश्यकता को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।

संस्कारों का जीवन में बहुत महत्व है

         हमारे जीवन में संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। देवपूजन और देवदर्शन भारतीय संस्कृति के जीवंत संस्कारों के साथ ही श्रेष्ठ सदाचार भी हैं। सामान्यत: हमारा जन्म, हमारे कार्य, हमारा मन और हमारी वाणी के द्वारा सर्वसमर्थ की सेवा करने का नाम देवार्चन है, जो हमारी वैदिक संस्कृति और आस्था का केंद्र है। हमारी देवपूजा-पद्धति पूर्णतया वैज्ञानिक और व्यावहारिक है।

         हमारी आस्था-ज्योति के आलोक से अज्ञानता के सघन-अंधकार को नष्ट कर शांति प्रदान करती है। देवार्चन के प्रमुख तरीकों में सूर्य भगवान को अ‌र्घ्य, देवदर्शन, प्राणायाम, दैनिक सेवा, स्तुति, आरती, चरणोदक व प्रसाद ग्रहण करना, घंटाध्वनि, शंखनाद, परिक्रमा आदि क्रियाओं का प्रमुख रूप से समावेश होता है। इन क्रियाओं का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्व है। सूर्य-विज्ञानियों के अनुसार नेत्र-ज्योति के प्रदाता और बुद्धि विकासक भगवान सूर्य को अ‌र्घ्य देना आवश्यक है। जलधार से सूर्यदेव की रश्मियों के घर्षण से उत्पन्न ऊर्जा से नेत्र-ज्योति के साथ ही अनेक लाभ होते हैं।

         भगवान् की दैनिक सेवा के पश्चात् छलरहित और शुद्ध मन की 'स्तुति' ही प्रभु को प्रभावित करती है। आरती पूजा-विधि का एक आवश्यक अंग है। पूजा के अंत में 'आरती' देवार्चन में अज्ञानतावश होने वाली त्रुटि की पूर्ति करती है। भक्त की भावना और मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण आरती की 'लौ' के ताप से प्रभावित शरीर का खुला हिस्सा वैज्ञानिक कारणों से पुष्ट होता है। 'घंटाध्वनि' और 'शंखनाद' फेफड़ों और वक्ष:स्थल को सदृढ़ करते हैं। 'देवमंदिर' के भीतरी वातावरण के प्रभाव से व्यक्ति का 'शारीरिक रसायनशास्त्र' बदलता है, जो बीमारियों के इलाज में सहायक होता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि ध्वनि तरंगों और ऊर्जा तरंगों के टकराने से व्यक्ति नवीन ऊर्जा और स्फूर्ति का अनुभव करता है। परंपरागत देवद्वार की नंगे पैरों से 'परिक्त्रमा' करने पर 'एक्यूप्रेशर' के लाभ प्राप्त होते हैं।

     देवप्रतिमा और शालिग्राम के चरणों का अभिषेक करने से प्राप्त अभिमंत्रित और तुलसी-दलयुक्त 'चरणामृत' लेने के साथ ही भगवान को निवेदित 'नैवेद्य' ग्रहण करने से एक साथ सभी तीर्थो का फल प्राप्त हो जाता है।

जीवन में स्वाभिमान हमारे अपने विश्वास को जाग्रत करता

         स्वाभिमान और अभिमान लगभग दोनों समोच्चारित शब्द हैं और उनके अर्थ भी लगभग समानार्थी जैसे प्रतीत होते हैं। इसके बावजूद ये दोनों शब्द परस्पर एक दूसरे से भिन्न ही नहीं एकदम विपरीतार्थी हैं। स्वाभिमान शब्द आत्मगौरव और आत्मसम्मान के लिए प्रयुक्त होता है। यह ऐसा शब्द है जो हमें जाग्रत करता है, प्रेरित करता है और हमें कर्तव्य के प्रति आगे बढ़ने के लिए ललकारता है।

         स्वाभिमान हमारे अपने विश्वास को जाग्रत करता है। हमें जीवन मूल्यों के प्रति, अपने देश के प्रति, अपनी संस्कृति, अपने समाज और अपने कुल के प्रति स्वाभिमानी बनने की प्रेरणा देता है। मानव तीन ऋणों को लेकर जन्मता है। पहला-पितृ ऋण। दूसरा ऋण है-सामाजिक ऋण। हम जिस समाज में है, उस समाज को अपने कौशल और विवेक-बुद्धि से समाज-सेवा करने में स्वाभिमान की पवित्र भावना रखें। हमारे ऊपर तीसरा ऋण है-राष्ट्र ऋण। हम अपने राष्ट्र में रहकर उसके अन्न-जल से पोषण प्राप्त करके अपना, अपने परिवार और अपने समाज के विकास में सहयोगी बनते हैं। इसलिए उस राष्ट्राभिमान को जाग्रत रखना चाहिए। राष्ट्र पर किसी भी प्रकार की आपदा या परतंत्रता आए तो राष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए अनेक राष्ट्रभक्तों व विवेकी पुरुषों ने स्वाराष्ट्राभिमान के वशीभूत होकर अपने को उत्सर्ग कर दिया। ऐसा स्वाभिमान हमारे विवेक को प्रकाशित करता है।

         देश की अस्मिता की रक्षा के लिए हजारों ललनाओं ने जौहर की आग में कूदकर अपने स्वाभिमान की रक्षा की। अपने स्वाभिमान के लिए झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने फिरंगियों से युद्ध करते हुए अपना जीवन राष्ट्र के लिए बलिदान कर दिया। यह स्वाभिमान ही है, जो हमें हमारे निश्चय से डिगा नहीं सकता। स्वाभिमान हमारे डिगते कदमों को को ऊर्जावान कर उनमें दृढ़ता प्रदान करता है। कठिन परिस्थितियों और विपन्नावस्था में भी स्वाभिमान हमें डिगने नहीं देता। इसके विपरीत अभिमान हमें अहं से ग्रस्त करता है। अभिमान मिथ्या ज्ञान, घमंड और अपने को बड़ा ताकतवर समझकर झूठा व दंभी बनाता है। अभिमान अज्ञान के अंधेरे में ढकेलता है। अभिमान मानव का, समाज का और राष्ट्र का शत्रु है। इसलिए हमें अभिमानी न बनकर स्वाभिमानी बनना चाहिए। अपने राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान रखकर इस देश को उन्नतिशील और विकासशील बनाना चाहिए।

त्याग की भावना अत्यंत पवित्र होती है

         त्याग की भावना अत्यंत पवित्र है। त्याग करने वाले पुरुषों ने ही संसार को प्रकाशमान किया है। जिसने भी जीवन में त्यागने की भावना को अंगीकार किया, उसने ही उच्च से उच्च मानदंड स्थापित किए हैं। सच्चा सुख व शांति त्यागने में है, न कि किसी तरह कुछ हासिल करने में।

         गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि त्याग से तत्काल शांति की प्राप्ति होती है और जहां शांति होती है, वहीं सच्चा सुख होता है। मनुष्य अपने जीवन में सारा श्रम भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति में ही लगा देता है। वह अपने सीमित जीवन में सभी कुछ पा लेना चाहता है। इसी में सारा जीवन खप जाता है। वह जितना भौतिक लाभ प्राप्त करता जाता है, उसकी सांसारिक तृष्णा उतनी ही बलवती होती जाती है। उसे शांति से बैठने नहीं देती। उसकी बेचैनी को बढ़ाती रहती है। मनुष्य जीवन की कुछ मूलभूत आवश्यकताएं होती हैं, उनकी पूर्ति तो आवश्यक है। उनके बिना तो जीवन की निरंतरता को बनाए रखना असंभव है। इस निरंतरता को बनाए रखने के लिए प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति तो ईश्वर करता ही रहता है।

         उन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने के पश्चात फिर मनुष्य को क्या चाहिए? बस यहां पर रुककर विचारने की आवश्यकता होती है कि अब हमें किस मार्ग की ओर बढ़ना है।ईश्वर की अनुभूति करने और समाज में उच्च मानदंड स्थापित करने के लिए त्याग की भावना को अंगीकार कर, उस पथ पर बढ़ने की आवश्यकता होती है। उस मार्ग में व्यक्तिगत व शारीरिक सुखों का त्याग करना होगा। उन सभी आसक्तिओं को छोड़ना होगा, जो मानव जीवन को संकीर्णता की ओर ले जाने वाली होती है। तब यही त्याग वृत्ति अंत:करण को पवित्र कर भीतर के तेज को देदीप्यमान करती है। भारत में त्याग की परंपरा पुरातनकाल से चली आ रही है। आसक्ति से विरत हो जाने वालों की यहां पूजा की जाती है। भगवान राम द्वारा अयोध्या के राज्य को एक क्षण में त्याग देने जैसे स्थापित किए गए आदर्श को संसार पूजता है। राज्य का त्याग कर वन में जाने से उन्होंने समाज में उच्चतम मानदंड स्थापित किया। साथ ही लोगों को धर्म, अध्यात्म, ज्ञान व भक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा भी प्रदान की। त्याग से मनुष्य ईश्वर को प्राप्त कर सच्चे सुख व शांति का लाभ पाता है, वहीं समाज को भी उच्च आदर्शे के मानदंड बरकरार रखने की प्रेरणा प्रदान करता है।

धर्म व विज्ञान हमें दूसरों के प्रति सहिष्णु बनाना सिखाते

         धर्म और विज्ञान को भ्रांतिवश गलत प्रकार से परिभाषित किया जाता रहा है, जबकि ये दोनों एक ही हैं और दोनों का पारस्परिक संबंध है। विज्ञान को तो उसके वास्तविक रूप में समझ लिया जाता है, किंतु धर्म को उससे संबंधित व्यक्ति अपने दृष्टिकोण के अनुकूल ग्रहण करते हैं, जिसका परोक्ष प्रभाव विज्ञान के अर्थ पर भी होता है।

         धर्म और विज्ञान के इस द्वैत भाव के कारण उत्पन्न समस्याओं पर गहन चिंतन और विचार विमर्श किया जाना आवश्यक है। विज्ञान और धर्म-एक दूसरे के विरोधी न होकर पूरक हैं और सभी धमरें का आधार अनुभवजन्य सौंदर्य है। अनुभूत सच्चाई ही धार्मिक विश्वास का आधार बनती है। इसी प्रकार विज्ञान भी विभिन्न गणितीय उपयोग व तार्किक सत्यों पर आधारित है।
 
         वैज्ञानिक मान्यताएं सदैव नई खोजों की प्राप्ति में लगी रहती हैं और ये नई खोजें पुरानी खोजों का स्थान लेती रहती हैं। धर्म का आधार यदि विज्ञान सम्मत नहीं है, तो वह अधिक समय तक प्रभावी नहीं रह सकेगा। मानव जीवन का आधार सूर्य, चंद्रमा और तारागण के अस्तित्व, पृथ्वी द्वारा सूर्य की प्रदक्षिणा और ऐसी ही अनेक घटनाएं वैज्ञानिक विश्लेषणों पर आधारित हैं, किंतु इन सब का नियंता कोई भी नहीं है, यही धर्म द्वारा परिपुष्ट किया जाता है।

         धर्म और विज्ञान हमें दूसरों के प्रति सहिष्णु बनाना सिखाते हैं और इसीलिए धर्म में घृणा और हिंसा का कोई स्थान नहीं है। वैज्ञानिक अपने आविष्कारों का उपयोग मानव मात्र की भलाई करने के लिए प्रयासरत रहते हैं और यही उनका मूल उद्देश्य भी है। धर्म का उद्देश्य भी मानव जीवन को और अधिक उपयोगी बनाने और मानव जाति की सेवा करना है। इस प्रकार दोनों में कोई अंतर नहीं है। महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि धर्म को विज्ञान का और विज्ञान को धर्म का पूरक बनना चाहिए। विज्ञान भौतिक पदार्थो का अध्ययन करता तो वहीं विज्ञान चेतना का अध्ययन करता है। धर्म और विज्ञान में परस्पर समन्वय से ही जीव मात्र का कल्याण संभव है। संसार की जिन सभ्यताओं ने इस सिद्धांत को अपनाया है, वे ही आज जीवित हैं और जिन्होंने इसके विपरीत आचरण किया है, वे इतिहास में सिमटकर रह गई हैं।

धर्म की नींव विश्वास पर टिकी होती है

           तर्क पर नहीं--धर्म की नींव विश्वास पर टिकी होती है, तर्क पर नहीं। धर्म संबंधी बातों में तर्क नहीं करना चाहिए। यह तो बड़े-बड़े बुद्धिमानों के बुद्धितत्व का निचोड़ है। धर्म मानव-जीवन की वह आचार-संहिता है, जो हमें कर्तव्य-पालन की शिक्षा देता है या व्यष्टि जीवन को समष्टि में विलीन करने का आदेश देता है।

          धर्म वैसा ही है, जैसा आकाश। जैसे घटाकाश, मठाकाश कहने से आकाश अनेक नहीं होता, वैसे ही विभिन्न नाम होने से धर्म अनेक नहीं हो सकते। धर्म वह है, जिसे सभी समाज, सभी मतावलंबी सवरेकृष्ट स्वीकार करते हैं। धर्म को सभी मत-मतांतर सुख की प्राप्ति का साधन मानते हैं। धर्म के लिए सभी संप्रदाय वाले उपदेश देते हैं कि विश्व की सर्वोत्कृष्ट वस्तु को छोड़कर धर्म धारण करो। सभी ज्ञानी, महात्मा, संत, चाहे वे किन्हीं धर्म-ग्रंथों को स्वीकार करने वाले हों, यही शिक्षा देते हैं कि धर्म से सुंदर कोई वस्तु संसार में नहीं है।

         कुछ लोगों का मत है कि धर्म धारण कर लेने से मनुष्य देवता बन जाता है। गीता, वेद व उपनिषद अनंत काल से हमें धर्मोपदेश देते आ रहे हैं। धर्म का सिद्धांत है-अपने को पूर्ण स्वाधीन रखना। अनैतिक कार्य न करना। किसी जीव को दुख न देना, हिंसा न करना, प्राणी मात्र को अपने समान समझना, क्रोध न करना, सहनशील बनना, पर नारी को न ताकना, संकट आ जाने पर धीरज धारण किए रहना, द्वेष न रखना, अभिमान न रखना आदि-आदि।

         ये सभी धर्म के सिद्धांत हैं, जो समाज को पुष्ट रखने वाले और पोषण करने वाले हैं, जैसे वृक्ष की जड़ में पानी डालने से वह हरा-भरा रहता है। जिस समय मनुष्य में यह गुण पूरी तरह विद्यमान थे, वह सतयुग था। जब मानव स्वभाव और व्यवहार में अंतर आया, सिद्धांतों में ह्रास हुआ तो वह त्रेता और द्वापर नाम से पुकारा गया। वर्तमान में उत्तम गुण मनुष्य में बहुत कम हैं। इसे हम कलयुग कहते हैं। जीवन में जो कुछ भी सार है, वही धर्म है। धर्म मात्र आत्मा-परमात्मा का संबंध स्थापित करने वाला ही नहीं है, बल्कि हमारे सभी कर्म, व्यवहार, करुणा, क्रोध, स्नेह, दया, त्याग, तप, आदि का बोधक है और इसी के सहारे सभी मानव व्यापार-व्यवहार होते हैं। समस्त मानव वृत्तियां अपना कार्य करती हैं। मात्र यही एक ऐसा मार्ग है, जहां समरसता आ जाती है। सभी एक सूत्र में बंध जाते हैं।

क्या परमात्मा का निवास आत्मा में है

         क्योंकि परमात्मा आत्मा का विस्तार है और आत्मा परमात्मा का संकुचित स्वरूप है। जो लोग आत्मा के निवास स्थान शरीर को पर्याप्त महत्व नहीं देते वे बहुत बड़ी हिंसा करते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि हिंसा का अर्थ है किसी को नष्ट करने का प्रयास करना, जबकि शरीर आत्मा का वाहन है। अगर शरीर स्वस्थ है तो उसमें स्वस्थ आत्मा का निवास होता है। शरीर बीमार है, तो वह सही ढंग से काम नहीं कर सकता। जब शरीर विकृतियों से भर जाए तो उस शरीर से कोई सुकृति नहीं हो सकती। इसीलिए साधकों को काम, क्त्रोध, लोभ, मद, मोह और ईष्र्या से बचने का परामर्श दिया जाता है। क्योंकि ये षड्विकार मनुष्य को रुग्ण बनाते हैं और रुग्ण मनुष्य कभी-भी परमात्मा का चिंतन नहीं कर सकता। परमात्मा के चिंतन का अर्थ है उस परमात्म तत्व को धारण करना और उस तत्व का बोधत्व प्राप्त करना।

         परमात्मा द्वारा निर्मित यह सारा ब्रह्मांड परमात्मा का मूर्त प्रत्यक्षीकरण है। पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, तारे, औषधि, वनस्पति, पुष्प, फल इत्यादि ब्रह्म की विभिन्न स्वरूपों में अभिव्यक्ति हैं। जब हम इन तमाम वस्तुओं से तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं, तब हमें ब्रह्म की अनुभूति होती है, यही अनुभूति सिद्धि की अवस्था है।

         लोगों को अपने दिन का कार्यक्रम प्रात:काल के लाल सूर्य से शुरू करना चाहिए। सूर्य की प्रथम किरण को आंख के माध्यम से मस्तिष्क में उतारें और धीरे-धीरे उस विराट प्रकाश को अंतमरुखी होकर शरीर के सभी अंगों का स्मरण करते हुए फैलने दें। मस्तिष्क से पैर की अंगुली तक उस विराट रश्मि को अवतरित होने दें। इससे शरीर के अंदर की अनेक विकृतियां, रोग और कुंठा का शमन होगा। उसके पश्चात नक्षत्रों का स्मरण करें और एक-एक नक्षत्र को स्मरण कर शरीर में प्रवेश कराएं, ऐसी विचार-कल्पना करें। विशेषकर आप जिस ग्रह से प्रभावित हों, उसे बार-बार धारण करें, बारी-बारी से पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश की शक्तियों को शरीर में धारण करें, क्योंकि इन्हीं तत्वों से आपका शरीर बना है। इन तत्वों में असंतुलन हो जाने के कारण ही आप शरीर से बीमार पड़ते हैं। फूल, पौधे, औषधि, वनस्पति और पहाड़ ये सभी ईश्वर के ही स्वरूप हैं। अंतर यह है कि हमारी दस इंद्रियां सक्त्रिय हैं और इनकी एक, दो और तीन इंद्रियां सक्रिय हैं।

मनुष्य आशक्ति व विरक्ति के मध्य झूलता है

         राग और द्वेष से असंपृक्त हो जाना अनासक्ति है। मनुष्य आदतन आसक्ति और विरक्ति के मध्य झूलता है। या तो वह किसी चीज की ओर आकर्षित होता है या विकर्षित, परंतु वह यह नहीं जानता कि इन दोनों से बड़ी बात है कि कर्तव्य कर्म करते समय निष्पृह भाव में चले जाना। यही अनासक्त भाव है। विरक्ति वास्तव में आसक्ति का दूसरा हिस्सा है। आज जिस वस्तु के प्रति आसक्ति है, कल उससे विरक्ति हो सकती है। अनासक्ति इन दोनों से ऊपर है। अनासक्ति की भावदशा में चीजें हमें न बुलाती हैं और न भगाती हैं। हम दोनों के मध्य अनासक्त खड़े हो जाते हैं।

         बुद्ध ने इसे 'उपेक्षा' कहा है। न कोई राग है और न विराग। भोगवाद और वैराग्यवाद दोनों अतियां हैं। भोग में वैराग्य का भाव ही निष्काम कर्म है। भोजन तो करना ही है। जरूरत है भोजन में त्याग का भाव। भोजन में स्वाद की तलाश करना बुरा है। अनासक्त साधक सांसारिक घटनाओं का केवल साक्षी है- तटस्थ द्रष्टा है। वह एक गवाह की तरह जिंदगी में विचरता है। उसके भीतर न चिंता है, न दुख है और न ही द्वंद्व की तरंगें। अनासक्त कर्मयोगी के जीवन में जो तरंगें उठती हैं, वे स्वभाव से मंगलकारी होती हैं। कर्मयोगी 'कर्तव्य कर्म' करते हुए आसक्ति और विरक्ति के बीच से बेदाग निकल जाता है।1 जीवन से भागना नहीं है, जीवन में जागना है। जो जीवन से भागता है वह स्वयं अपने लिए समस्या बन जाता है। कोल्हू के बैल की तरह भागने वाला कभी मंजिल तक नहीं पहुंचता। भागने से कोई सकारात्मक क्त्रांति नहीं हो सकती।

         जागते केवल वे हैं, जो जीवन को सत्कर्म से संवारते हैं। आसक्ति में जीने वाले व्यक्ति के भीतर विरक्ति के ख्याल आते रहते हैं। जिंदगी ध्रुवीय है। विद्युत की तरह वह 'पॉजिटिव है और निगेटिव' भी। अंधेरा है, तो उजाला भी है। जन्म है तो मृत्यु भी है। कहने का आशय यह है कि जो लोग विरक्त होने का प्रदर्शन करते हैं, उनके जीवन में आसक्ति के दौरे पड़ते रहते हैं। ध्यान रहे कि जिस हिस्से को हम दबाते हैं, वह हम पर हमला करता रहता है। अनासक्ति स्वभाव से 'नॉन पोलर' है- अध्रुवीय है। ध्रुवीय जगत के बाहर स्थित होना ही अनासक्त योग है। अनासक्त होते ही कर्मयोगी अद्वैत में प्रवेश कर जाता है, क्योंकि वह 'नॉन पोलर है।

ईर्ष्या करना स्वयं में भयानक मनोरोग है

         ईर्ष्या  मानव चरित्र के पराभव का एक प्रमुख कारण है। यह ऐसा मनोविकार है, जिससे मनुष्य का मौलिक व्यक्तित्व बुरी तरह आहत हो जाता है। ईष्र्या एक भयानक मनोरोग है, जो अकारण मनुष्य को दंडित करता रहता है।

         इसके कारण मनुष्य का सारा व्यक्तित्व विकृत हो जाता है, उसकी अपनी क्रियात्मक शक्ति नष्ट हो जाती है, जिससे उसके अपने व्यक्तित्व को कुछ लेना-देना नहीं रहता। ईष्र्या हमेशा दूसरों के कारण होती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने से ईष्र्या नहीं करता। ईष्र्या के लिए दूसरे शख्स का होना आवश्यक है। अकेला व्यक्ति कभी भी ईष्र्या का शिकार नहीं बनता। जब दूसरा उसके सामने आ जाता है तब उसकी जलन बढ़ जाती है। आदमी अकेले सालों तक रह सकता है, लेकिन कभी भी वह ईष्र्या का पात्र नहीं बनता, लेकिन ज्यों ही दूसरा उसके बगल में बैठ जाता है, तो ईष्र्या शुरू हो जाती है।

         दरअसल, कोई भी व्यक्ति दूसरे को सहन नहीं कर सकता। वह चाहे राजनीति का क्षेत्र हो, धर्म का क्षेत्र हो, समाज या परिवार का हो, कहीं भी हम दूसरे को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। सारी गड़बड़ तब शुरू हो जाती है जब कोई दूसरा बगल में खड़ा हो जाता है। केवल दूसरे के होने से हम ईष्र्या के दंश को झेलने लगते हैं।

         साधक कभी भी ईष्र्या नहीं करता, क्योंकि वह साधना के क्षेत्र में अकेला होता है। झगड़ा तो तब बढ़ता है जब एक ही काम दो व्यक्ति करना चाहते हैं। दुनिया के जितने भी काम हैं, वे सारे काम एक-दूसरे के लिए किए जाते हैं। कोई धन के लिए, कोई पद के लिए, कोई अपने अस्तित्व के लिए दिन-रात प्रयत्न कर रहा है, लेकिन जब कभी वह देखता है कि इस काम में कोई दूसरा आकर अर्थ या पद का दावेदार बनना चाहता है तो उसके मन में ईष्र्या होने लगती है। कभी-कभी तो हम ऐसे लोगों से ईष्र्या करने लगते हैं, जिन्हें हम पहचानते भी नहीं। कई बार तो हम अपने बगल के मकान और उसके मालिक से ईष्र्या करने लगते हैं, दूसरों की शान-ओ-शौकत से ईष्र्या करने लगते हैं और सबसे बुरी बात तो यह है कि हम दूसरे की उन्नति देखकर ईष्र्या करने लगते हैं। ईष्र्या करने वाला व्यक्ति अध्यवसायी नहीं होता। परिश्रम नहीं करके हमेशा आग में जलता रहता है। दूसरे की प्रगति देखकर जलने वाला जीवन में यशस्वी नहीं हो सकता।

आलस्य जिन्दगी का बुरा रोग है

         आलस्य का रोग जिस किसी को भी जीवन में पकड़ लेता है तो फिर वह संभल नहीं पाता। आलस्य से देह और मन, दोनों कमजोर पड़ जाते हैं। आलसी व्यक्ति जीवनपर्यंत लक्ष्य से दूर भटकता रहता है। कहा भी गया है कि आलसी को विद्या कहां, बिना विद्या वाले को धन कहां, बिना धन वाले को मित्र कहां और बिना मित्र के सुख कहां? आलस्य को प्रमाद भी कहा जाता है। कुछ काम नहीं करना ही प्रमाद नहीं है, बल्कि, अकरणीय, अकर्तव्य यानी नहीं करने योग्य काम को करना भी प्रमाद है। जो आलसी है वह कभी भी अपनी आत्म-चेतना से जुड़ाव महसूस नहीं करता है।

         आचार्य अनिल वत्स ने इस सम्बन्ध में सुन्दर प्रस्तु दी है कि कई बार व्यक्ति कुछ करने में समर्थ होता है, फिर भी उस कार्य को टालने लगता है और धीरे-धीरे कई अवसर भी हाथ से निकल जाते हैं। तब पश्चाताप के अलावा और कुछ नहीं बचता। 'आज नहीं कल आलसी व्यक्तियों का जीवन सूत्र है। शायद आलसी व्यक्ति यह नहीं सोचता है कि जंग लगकर नष्ट होने की अपेक्षा श्रम करके, मेहनत करके घिस-घिस कर खत्म होना कहीं ज्यादा अच्छा होता है। आज ही एक संकल्प लें-जीवन जाग्रति का, जागरण का। जागरण का मतलब आंखें खोलना नहीं, बल्कि अंतसचेतना या अंतर्चक्षुओं को खोलना है। वेद का उद्घोष है कि उठो, जागो और जो इस जीवन में प्राप्त करने आए हो उसके लक्ष्य के लिए जुट जाओ। जो जगकर उठता नहीं है, वह भी आलसी है। जो अविचल भाव से लक्ष्य के प्रति समर्पित होकर कार्य सिद्धि तक जुटा रहता है, वही व्यक्ति सही मायने में जाग्रत कहलाएगा। आलसी वही नहीं है जो काम नहीं करता, बल्कि वह भी है जो अपनी क्षमता से कम काम करता है। आशय यह है कि जो अपने दायित्व के प्रति ईमानदार नहीं है, जिसे कर्तव्य बोध नहीं है वह भी आलसी है। क्षमता से कम काम करने पर हमारी शक्ति क्षीण होती जाती है और हम अपनी असीमित ऊर्जा को सीमा में बांधकर उसका सही उपयोग नहीं कर पाते हैं। आलसी व्यक्ति अकर्मण्य होता है। इसलिए उसे दरिद्रता भी जल्दी ही आती है। आलसी व्यक्ति उत्साही नहीं होने के कारण जीवन में अक्सर असफलता का सामना करते हैं। सफल होने के लिए जरूरी है कि हम आलस्य का त्याग करें और अपनी पूरी क्षमता से काम करें।

जीवन में मन की यात्रा अधूरी ही होती है

         वैसे तो आदमी जीता पूरा है और पूरी तरह से जीने का प्रयास करता है, पर वह जी नहीं पाता। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह जीने के लिए प्रयास करता है। उन प्रयासों में वह कुछ संभावनाओं में डूबकर जीता है। कुछ कल्पनाओं में डूबकर जीता है और कभी-कभी ख्वाब में इस तरह खोकर जीता है जैसे उसका यही सत्य है।

         यही जीवन है। आदमी का यह मन ही तो है। मन जो मान लेता है उसी की यात्रा करने लगता है। उसी के नशे में डूबकर कुछ समय काट लेता है। मन सभी चीजों को स्वीकार कर लेता है। मन सभी तरह की बातों को बर्दाश्त कर लेता है। वह केवल अपना रास्ता खोजता रहता है। वह खाने में, पीने में, सोने-जागने में भी अपना प्रभाव रखता है। इसलिए आदमी पूरी तरह से सो भी नहीं पाता। सोकर भी वह स्वप्न में खो जाता है। सोकर वह यात्राएं करने लगता है। स्वप्न में ही उठकर चलने लगता है। स्वप्न में ही मन के भटकाव को मुक्ति देने का प्रयास करता है और कभी-कभी तो सो भी नहीं पाता। पूरी रात स्वप्नों में ही गुजार देता है और करवट पर करवट बदलकर अपनी जिंदगी के कुछ क्षण को, समय को काट लेता है।

         वैसे तो मनुष्य पूरी व्यवस्थाओं के साथ जन्म लेता है। जब वह जन्म लेता है तो प्रेम के अनुग्रह का अथाह सागर उसके लिए उमड़ पड़ता है, पर जैसे-जैसे उसकी दुनिया बढ़ती जाती है, वह अपने जीवन के प्रश्नों के समाधान में उलझ जाता है। मांग बढ़ती जाती है। प्रश्नों का चक्रव्यूह बढ़ता जाता है। चाहतें बढऩे लगती हैं। समाधान की खोज में यात्राएं होती रहती हैं। किसी स्थूल यात्रा को वह पूरा कर लौट आता है। तो किसी में उलझ कर छोड़ आता है। आदमी के प्रश्न भी अनेक तरह के हैं और समाधान के मार्ग भी भिन्न तरह के हो जाते हैं।

         आदमी की कई तरह की चाहत है। कोई धन से प्यार करता है, कोई पद प्रतिष्ठा से, तो कोई कला से प्रेम कराने लगता है। इस प्रकार मन के कहने पर वह हर काम करता है, लेकिन बाद में उसे यह अहसास होता है कि मन के कहने पर वह जो भी करता है, अंतत: हाथ कुछ नहीं आता। मन की नीरसता व रिक्तता दूर नहीं होती। यह रिक्तता तो ध्यान से ईश्वर की शरण में जाने से ही पूरी हो सकती है।

विचार अच्छे हों तो व्यक्ति भी महान होता है

         अच्छे विचारों वाला व्यक्ति निश्चित ही महान होता है। शायद ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा। सद्विचार से हम एक ऐसी उच्चता को प्राप्त करते हैं जो धीरे-धीरे हमें परमात्मा की ओर अग्रसर करने में सहायक होते हैं। गांधीजी हों, विनोबा भावे हों या कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर-सबके सब लोग शरीर से सामान्य थे, परंतु उनकी विचार शक्ति ने उन्हें महान बनाया। इन महापुरुषों के पास आत्मिक बल था, उनकी सोच सकारात्मक थी, उनकी दृष्टि में महान भारत का नक्शा था।

        वे विचारों से हमेशा सजग और सतर्क रहते थे। तभी वे हर छोटा-बड़ा सृजन अनूठे रूप से कर सके। उन्होंने जीवन के मानवीय मूल्यों को समझा। वे जानते थे कि ईश्वर की इस प्रकृति में यदि हम भी कुछ कर सकें तो हम इस संसार को और सुंदर बना सकेंगे। वे अपनी शक्तियों को भली भांति पहचानते थे। वे समय के साथ चले, उन्होंने हमेशा ही अपने अंदर सकारात्मक सोच के बीज को आरोपित किया। ये महापुरुष जीवन के अंतिम समय तक कर्मरत रहे। ये उनके सद्विचारों का ही प्रभाव था कि वे आज भी अमर हैं, उनकी हर कृति अनुपम है। भारत के नवनिर्माण में उनके विचारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे सभी महानायक जिन्होंने इस समाज को कुछ दिया वे दूरदृष्टा थे। उन्होंने संपूर्ण मानवता का भला किया। वे हमेशा ही परमात्मा के प्रिय रहे।

         आज भी जो लोग जिस किसी क्षेत्र में लोगों के लिए श्रद्धेय माने जाते हैं, वे सभी कहीं न कहीं अपने अंदर संपोषित विचारों को ही महत्व देते हैं। जो अपने मन की आवाज सुनता है, जो दूसरे के विचारों को महत्व देते हुए विनम्रता के साथ विचारों का आदान-प्रदान करता है, वह महान हो ही जाता है। ईश्वर का सृजन हमेशा चलता रहता है। पर कुछ लोग इस भीड़ में ऐसे होते हैं, जो उसकी रचना में कुछ ऐसा कर बैठते हैं जो उन्हें उत्साह, उल्लास और सुख की अनुभूति कराता है। वे अपने मन की सुनते हैं। दुनियादारी की मैल उनके मन को गंदा नहीं कर पाती है। वे स्वयं की बात तो दूर कई बार कुछ ऐसा कर जाते हैं, जिससे आम इंसान का जीवन भी रूपांतरित होते देर नहीं लगती। वे सद्विचारों के पोषक होते हैं, इसलिए धर्म को साथ रखते हुए वे हर कार्य को गति प्रदान करते हैं।

हमारा जीवन स्वयं में एक अनसुलझी पहेली है

         मनुष्य का जीवन स्वयं में एक अनबुझ पहेली है। अपार रहस्यों से भरा हमारा जीवन एक साथ अनेक दिशाओं में चलते हुए अनेक अर्थो को प्रतिपादित करता है। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति इस जीवन को अपने अनुरूप धारण करता है।

जीवन के रहस्यों को जब हम जानने का प्रयास करते हैं, तो एक साथ कई रहस्य सामने आ जाते हैं। कभी यह विचार आता है कि हमारा जीवन सार्थक है। कभी निर्थक दिखता है, कभी भगवान पर शंका की उंगली उठती है। इस तरह के अनेक प्रश्न मन को झकझोरते रहते हैं। उनमें से एक प्रश्न यह भी उठता है कि हम अपने इष्टदेव को भगवान क्यों कहते हैं? इस भगवान शब्द का औचित्य क्या है? दरअसल, हम जब अपने इष्टदेव का नाम लेते हैं, तो हम उनके साथ अनेक श्रद्धावाचक शब्द जोड़ देते हैं। कभी-कभी तो हम अपने नाम के आगे या पीछे भी कई शब्द जोड़ते हैं जिसका अर्थ होता है, हम अपने से बड़ों को सीधे नाम लेकर नहीं पुकारना चाह रहे हैं। हमारा नाम तो साधारण होता है, लेकिन उसमें कुछ विशेषण लगा देने पर नाम का थोड़ा वजन बढ़ जाता है।

         प्रश्न यह उठता है कि हम अपने इष्टदेव को जब भगवान कहते हैं, तो भगवान शब्द को ठीक से समझ लेना चाहिए। मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ी अभिलाषा होती है कि उसे अधिक से अधिक आयु मिले, विद्या मिले, बल हो, अपार बुद्धि हो, ऐश्वर्य हो और शांति मिले। इन छह तत्वों की कामना हमारे जीवन में होती है, लेकिन मनुष्य का जीवन कामनाओं से भरा है, जिस कारण मरुभूमि की रेत की तरह जितनी हम कामनाओं की पूर्ति का प्रयास करते हैं, रेत पर पानी की बूंद की तरह सब विलीन होता रहता है।

         जो वस्तु हमारे पास नहीं होती और जिसे पाने की ललक मन में हमेशा बनी रहती है, अगर वह वस्तु किसी के पास होती है तो हम उसे अपने से अधिक श्रेष्ठ मानने लगते हैं। भगवान शब्द भग और वान से बना है। भग का अर्थ होता है आयु, विद्या, बल, बुद्धि, ऐश्वर्य और शांति का सम्मिलित स्वरूप और वान का अर्थ होता है जिनके पास ये तमाम शक्तियां हों, उसी को भगवान कहते हैं।

         जब हम अपने इष्टदेव की अर्चना, पूजा करते हैं, तो हम अपने इष्टदेव से यही चाहते हैं कि उनके पास जो ये समस्त गुण हैं, वे सभी हमें प्राप्त हों। परमात्मा की प्रार्थना में मनुष्य अपना आत्मिक विकास चाहता है।

मनुष्य सबसे अधिक विवेकशील प्राणी है

         जीवन का महत्व इसी से पता चलता है कि प्रत्येक व्यक्ति या प्रत्येक जीव अपने जीवन से प्यार करता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को अधिक सुंदर और सफल बनाना चाहता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि जीवन से बढ़कर कुछ नहीं होता, इसलिए अपनी जान सभी को प्यारी होती है।

         भले ही पशु-पक्षियों को प्रखर विवेक नहीं होता, लेकिन जब जान बचाने की बारी आती है तो वह भाग खड़ा होता है। मनुष्य विवेकशील प्राणी है, इसलिए वह अन्य जीवों से अलग है। मनुष्य को पता है कि जीवन को कैसे सुंदर और सुखी बनाए। इसलिए मनुष्य पढ़ाई करता है, धन कमाता है, नाम, यश कमाता है।

         मनुष्य और पशु में यही अंतर है कि मनुष्य अपनी भलाई कर सकता है, वह जानता है कि वह अच्छा कर्म करेगा, अच्छी पढ़ाई करेगा, धन-वैभव प्राप्त करेगा, तो उसे सुख मिलेगा। ऐसा पशु नहीं सोचता। यही कारण है कि मनुष्य को विवेकशील कहा गया है। जो अपनी भलाई की बात सोचता हो, अपने अच्छे भविष्य की कामना करता हो, वही विवेकशील है। दूसरी ओर जो अपनी भलाई, अपने जीवन को सुखमय, आनंदमय बनाने का प्रयास नहीं करता उसे पशु-वृत्ति वाला जीव माना जाता है। जो अपना नुकसान स्वयं करता हो वह मनुष्य की तरह रहता अवश्य है, लेकिन उसकी वृत्ति मनुष्यों वाली नहीं होती।

        इसलिए विद्यालयों में, सत्संगों में लोगों को यह बताया जाता है कि तुम अपने जीवन को सुखमय और आनंदमय बनाने का प्रयास करो। हमारा जीवन हमेशा विकारों और बुरी प्रवृत्तियों से भरा रहता है। बुरा काम करने में अच्छा लगता है। इसलिए लोग बुराई की ओर अधिक दौड़ते हैं। बुरा काम करते समय अच्छा भले ही लगता हो, जैसे गलत आचरण, नशापान, गलत काम करना, यह थोड़ी देर के लिए भले ही अच्छा लगता हो, इसका परिणाम बहुत ही बुरा होता है। इसलिए हम अपने बच्चों को समझाते हैं कि बचपन से ही बुरे कामों से बचे रहो। बचपन में जिसका शरीर स्वस्थ और सुंदर नहीं रहता उसकी जवानी तो और भी कुरूप बन जाती है। इसलिए हमें बचपन को बचाने का प्रयास करना चाहिए। स्वस्थ बचपन ही सुंदर जवानी देता है और सुंदर जवानी में ही बुढ़ापे का फूल खिलता है। जीवन का सुख भी आपका है और दुख भी आपका है। अगर आप जीवन में सुंदर बनते हैं, सफल बनते हैं तो इसके लिए केवल आप ही जिम्मेदार हैं।

जीवन में आघात कष्टदायी होता

         भयभीत मन जब निर्बल और शक्तिहीन हो जाता है, तो जरा सा आघात भी व्यक्ति के लिए कष्टदायी हो जाता है। ऐसे ही आघात से विश्व प्रसिद्ध चित्रकार कोरजियो की दिल की धड़कनें बंद हो गई थीं। कारण बहुत मामूली था कि कोरजियो के एक बेशकीमती व अमूल्य चित्र की कीमत बहुत कम लगी थी। यह आघात कोरजियो सह न सके। प्रत्येक व्यक्ति हर मोड़ पर सफलता और खुशियों की कामना ही करता है। ऐसे में जब उसका सामना विपरीत स्थितियों से होता है, तो उसे आघात पहुंचता है, जिससे उसका मानसिक संतुलन तक बिगड़ जाता है। अक्सर निजी जीवन में भी लोग प्रेम में असफल होने पर, नौकरी या साक्षात्कार में फेल होने पर, गरीबी से तंग आकर, अपना मखौल उड़ते हुए देखकर, बीमारी से परेशान होकर और परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के आघात को सह नहीं पाते और अपने जीवन को खत्म करने तक की ठान लेते हैं। आजकल छोटी-छोटी बातें भी व्यक्ति को आघात पहुंचा देती हैं। जिंदगी केवल फूलों की सेज नहीं है, बल्कि इसमें कांटों का भी अस्तित्व है। जिस तरह खूबसूरत गुलाब के साथ कांटे उसे और भी सुंदर बनाते हैं, उसी तरह आघात भी व्यक्ति के जीवन को निखारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

         आघात का सामना दृढ़ता और हिम्मत से करना चाहिए ताकि उससे उबरकर सफलता के साथ ही लंबी कामयाबी का प्रवेश जीवन में हो।
 
         वॉल्ट वाइट मैन इस संदर्भ में कहते हैं कि 'हमें अंधकार, तूफान, भूख, दुर्घटना, मखौल और विरोध का उसी प्रकार सामना करना चाहिए जिस प्रकार सावधानी, धैर्य और साहस को जुटाकर पशु-पक्षी करते हैं। आघात जीवन का एक अंग हैं। उन्हें दिन व रात की भांति आना ही है। स्वेट मार्डेन कहते हैं कि आघात से कमजोर और दुर्बल हृदय वाले घबराते हैं। दृढ़ निश्चयी और महत्वाकांक्षा से पूरित लोगों को आघात एक ऐसा बल और शक्ति प्रदान करता है, जो उनके जीवन को एक नई दिशा देता है। थॉमस अल्वा एडीसन अमेरिका के टेनेसी राज्य की विल्मा गोल्डीन रुडाल्फ व नेत्रहीन हेलेन केलर दृढ़ निश्चयी और महत्वाकांक्षी थे, तभी तो इन्होंने आघात सहकर उन्हें मात दी और अपनी सफलताओं से इतिहास रच दिया। वर्तमान समय में भी वही जीतते हैं, जो आघातों और रुकावटों से परेशान नहीं होते।

उत्तम चरित्र ही सबसे बड़ा धन है


         धन से अधिक महत्व चरित्र का माना गया है। अमेरिका के प्रसिद्ध विचारक इमर्सन ने लिखा है था कि 'उत्तम चरित्र ही सबसे बड़ा धन है। इसी तरह ग्रीन नामक विद्वान का कथन था, 'चरित्र को सुधारना ही मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए। स्वामी विवेकानंद प्राय: युवाओं को संबोधित करते हुए कहा करते थे, 'युवाओ! उठो! जागो! अपने चरित्र का विकास करो। इस तरह विभिन्न विद्वानों ने चरित्र के महत्व पर प्रकाश डाला है और मानव जीवन में इसे सर्वोपरि माना है।

         राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चरित्र इसीलिए आकर्षक और प्रभावशाली था कि उन्होंने सदैव अपने चरित्र का ख्याल रखा। वह अपने काम समय पर करते थे। कभी लेट-लतीफी नहीं करते थे। सदा सच बोलते थे, झूठ नहीं बोलते थे, दया, करुणा, मानवता के गुणों से युक्त थे। वस्तुत: आज इसी चरित्र को बनाए रखने की परम आवश्यकता है। हम चाहें किसी भी क्षेत्र में कार्य कर रहे हों, किसी भी पद पर अपना योगदान कर रहे हों, हमें चरित्र को बनाकर और बचाकर रखना चाहिए। छात्र जीवन में तो चरित्र का महत्व और भी बढ़ जाता है। छात्र देश-निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं।

        राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की एक प्रसिद्ध पंक्ति है, जिसमें वह कहते हैं , 'वही मनुष्य है, जो मनुष्य के लिए मरे। भारतीय संस्कृति की यही तो विशेषता रही है। यही संस्कृति 'बहुजन हिताय और 'बहुजन सुखाय और 'वसुधैव कुटुंबकम् की पावन भावना का विकास करती है। हमारे भीतर 'स्व और 'पर का भेद नहीं होना चाहिए। 'स्व की संकुचित सीमा से निकलकर 'पर के लिए अपने आपको बलिदान कर देना ही सच्ची मानवता है। यही सबसे बड़ा गुण है और यही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है। जितने भी महापुरुष हुए, उन सभी ने अपने बाल्यकाल से ही चरित्र की रक्षा का ध्यान रखा। बड़े-बड़े दार्शनिक, चिंतक, विचारक, संत, लेखक और नेता-सबका लक्ष्य देश-निर्माण कर मानवीय गुणों का प्रचार-प्रसार करना रहा है, लेकिन उनके जीवन को झांककर देखेंगे, तो स्पष्ट पता चलेगा कि वे चरित्र की दृष्टि से कितने महान और विशिष्ट थे। उन्होंने अपने चरित्र को कभी दूषित नहीं होने दिया। इसी कारण आज उनका इस संसार में नाम है और हम सब उनके आदर्श को याद रखने का प्रयास करते हैं।

दूसरों की कमियों के बजाय अपनी कमियों पर ध्यान दें

         कुछ भारतीय मनीषियों ने विनोदप्रियता का सहारा लेते हुए पर-छिद्रान्वेषण यानी निंदा को निंदारस कहा है। कारण स्पष्ट है। दूसरे की निंदा और दूसरे की बुराई करने में हमें इतना स्वाद मिलता है, जो कदाचित मनपंसद स्वादिष्ट व्यंजन में भी संभव नहीं। हम प्राय: उनकी निंदा तो करते ही हैं, जिनके प्रति शत्रुभाव रखते हैं, मित्रों को भी नहीं बख्शते और पीठ पीछे उनकी पोलपट्टी बढ़ा-चढ़ाकर खोलते ही रहते हैं।

        दूसरे के चरित्र पर बना सुई की नोक के बराबर छिद्र भी हमें तत्काल नजर आ जाता है और हम पूरी तत्परता से उसे चौड़ा करने में यानी बढ़ा-चढ़ाकर दूसरों से कहने में व्यस्त हो जाते हैं। बगैर इस बात की परवाह किए कि हममें सामने वाले से कई गुना अधिक कमियां हो सकती हैं, किंतु इस ओर हमारा ध्यान जाता भी नहीं और हम निंदारसपान में व्यस्त रहते हैं।
 
        हालांकि ये अवगुण महिलाओं में भी पाए जाते हैं, किंतु पुरुष भी इनसे पीछे नहीं। निंदारस की व्यापकता यत्र-यत्र सर्वत्र नजर आती है। ऐसा क्यों होता है? दूसरों की निंदा करके बहुधा लोगों को सुखानूभूति क्यों होती है? कहीं, ऐसा तो नहीं कि हमारे मन में स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ दर्शाने की भावना उस समय सूक्ष्म अंहकार के रूप में मौजूद रहती हो? निश्चय ही ऐसा ही है। अंहकार सूक्ष्म-सूक्ष्मतर व छद्मवेशी होता है। इसीलिए हम उसे पहचान नहीं पाते। परिणामस्वरूप उसके मकडज़ाल में हम उलझ जाते हैं। दूसरी किसी भी वस्तु को देखने के लिए हमें फासले की जरूरत होती है। आईने में हमें अपनी शक्ल तभी नजर आती है, जब थोड़ा फासला हो।

        चूंकि हमारा स्वयं से फासला रंचमात्र भी नहीं होता। इसलिए हमें अपनी शक्ल तभी नजर नहीं आती और अगर कोई उधर ध्यानाकर्षण भी करे तो हम अपने ही पक्ष में उल्टे सीधे तर्क जुटा लेते हैं। जबकि दूसरा फासले पर होता है इसलिए उसकी कमियां हमें नजर आ जाती हैं और अहंकार के वशीभूत होकर हम उन्हें निर्ममता पूर्वक उधेडऩे में लग जाते हैं, किंतु सावधान। कहीं ऐसा न हो कि सामने वाला बुद्धिमान हंसे और अपनी कमियों के प्रति सजग होकर आत्म सुधार में जुट जाए और हम निंदा करके आत्मपतन के मार्ग पर अग्रसर रहें।
मनीषी वही है जो दूसरों की कमियों पर ध्यान देने के बजाय अपनी कमियों पर ध्यान दें, तभी आत्म-सुधार संभव है।

आलस्य किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का सबसे बड़ा शत्रु है

         अमेरिका के लेखक स्वेट मॉर्डन ने अपनी एक किताब में लिखा है कि आलस्य (प्रमाद) किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का सबसे बड़ा शत्रु है, क्योंकि आलस्य के कारण व्यक्ति के गुण भी क्षीण हो जाते हैं। सच तो यह है कि आलस्य का रोग जिस किसी को भी जीवन में पकड़ लेता है, तो फिर वह संभल नहीं पाता। आलस्य से देह और मन दोनों कमजोर पड़ जाते हैं। आलसी व्यक्ति जीवनपर्यन्त लक्ष्य से दूर भटकता रहता है।

         कहा भी गया है कि आलसी को विद्या कहां, बिना विद्या वाले को धन कहां, बिना धन वाले को मित्र कहां और बिना मित्र के सुख कहां? आलस्य को प्रमाद भी कहा जाता है। कुछ काम नहीं करना ही प्रमाद नहीं है, बल्कि अकरणीय, अकर्तव्य यानी नहीं करने योग्य काम को करना भी प्रमाद है। जो आलसी है, वह कभी भी अपनी आत्म-चेतना से जुड़ाव महसूस नहीं करता है। कई बार व्यक्ति कुछ करने में समर्थ होता है, फिर भी उस कार्य को टालने लगता है और धीरे-धीरे कई अवसर भी हाथ से निकल जाते हैं। तब पश्चाताप के अलावा और कुछ नहीं बचता। 'आज नहीं कलÓ आलसी व्यक्तियों का जीवन सूत्र है। शायद आलसी व्यक्ति यह नहीं सोचता है कि जंग लगकर नष्ट होने की अपेक्षा श्रम करके, मेहनत करके घिस-घिसकर खत्म होना कहीं ज्यादा अच्छा होता है।

         मैं तो यही कहूंगा कि आज ही एक संकल्प लें-जीवन जाग्रति का, जागरण का। जागरण का मतलब आंखें खोलना नहीं, बल्कि अंतसचेतना या अंतर्चक्षुओं को खोलना है। वेद का उद्घोष है कि उठो, जागो और जो इस जीवन में प्राप्त करने आए हो उसके लक्ष्य के लिए जुट जाओ। जो जगकर उठता नहीं है, वह भी आलसी है। जो अविचल भाव से लक्ष्य के प्रति समर्पित होकर कार्य सिद्धि तक जुटा रहता है, वही व्यक्ति सही मायने में जाग्रत कहलाएगा। आलसी वही नहीं है, जो काम नहीं करता, बल्कि वह भी है जो क्षमता से कम काम करता है। आशय यह है कि जो अपने दायित्व के प्रति ईमानदार नहीं है, जिसे कर्तव्य बोध नहीं है, वह भी आलसी है। क्षमता से कम काम करने पर हमारी शक्ति क्षीण होती जाती है और हम अपनी असीमित ऊर्जा को सीमा में बांधकर उसका सही उपयोग नहीं कर पाते हैं।

         आलसी व्यक्ति अकर्मण्य होता है। इसलिए उसे दरिद्रता भी जल्दी ही आती है। आलसी व्यक्ति उत्साही नहीं होने के कारण जीवन में अक्सर असफलता का सामना करते हैं।

दिव्य दृष्टि क्या है

         ज्ञान दृष्टि से मनुष्य ज्ञान जगत से संबंधित समस्त बातों को साक्षात भाव में अनुभव कर सकता है। उसी तरह अज्ञान दृष्टि से अज्ञान के जगत और जगत के सभी पदार्थो को भिन्न-भिन्न रूप में अनुभव कर लेता है। जिन दो आंखों से हम परिचित हैं, जिन दो आंखों से हम देखते हैं, जिन दो चक्षुओं को हम जानते हैं, वे अज्ञान के चक्षु हैं। अज्ञान की स्थिति में ये दो आंखें काम करती हैं और ज्ञान की दृष्टि बंद रहती है। जब ज्ञान दृष्टि खुल जाती है, तब अज्ञान दृष्टि बंद हो जाती है। जिस तरह अज्ञान दृष्टि बाहर की ओर (बाहरी जगत) काम करती है, उसी प्रकार ज्ञान दृष्टि भीतर (आंतरिक जगत) की ओर काम करती है। दोनों में क्रिया एक ही तरह है।

          महायोगी पायलट बाबा इस सम्बन्ध में सुन्दर लिखा है कि ज्ञान और विज्ञान परिचित आंखों और अदृश्य आंखों का एक भाव भी है। एक सम स्थिति भी है। जहां दोनों नहीं होते हैं, इन दोनों से अलग तीसरी आंख हैं, जिसे त्रिनेत्र भी कहा जाता है। त्रिनेत्र को दिव्य दृष्टि कह सकते हैं, जो ज्ञानमय दृष्टि है। अज्ञानमय दृष्टि का जिस तरह से उत्तराधिकारी मनुष्य है, उसी प्रकार से इस तीसरी आंख का भी अधिकारी मनुष्य होता है। त्रिनेत्र शक्ति का स्थान है। जब त्रिनेत्र शक्ति का जागरण होता है तो हमें दृश्य जगत के माया का बोध हो जाता है। आशय यही है कि संबंधित व्यक्ति को सत्य और असत्य के बीच का अंतर पता लग जाता है। दृश्य जगत से अदृश्य जगत के बोध के लिए और इस भौतिक अज्ञानमय जगत के तत्वों से अलग हटकर सूक्ष्म जगत की सूक्ष्म गति विधियों में रहने के लिए त्रिनेत्र का विशेष महत्व है। दिव्य भाव में आत्ममय होने और भगवत अनुग्रह पाकर भगवतमय होने के लिए आंतरिक ज्ञानमय शक्ति आवश्यक है, जो त्रिनेत्र पर ध्यान केंद्रित होने पर ही संभव है। त्रिनेत्र पर ध्यान केंद्रित होने पर परम सत्ता के साथ साक्षात्कार होता है। इस पूर्णता को प्राप्त कर लेने पर तीसरी आंखें खोल लेने के बाद ज्ञान शक्ति और अज्ञान शक्ति दोनों ही उस मनुष्य के अधिकार में होती है। स्पष्ट है, आंतरिक त्रिनेत्र के खुलने के बाद संबंधित व्यक्ति संसार और परम चेतन तत्व की अच्छी तरह से अनुभूति करने लगता है।

सुख का संबंध आत्मा से होता है

         समाज में सभी सुखी रहना चाहते हैं, लेकिन यह हो कैसे? इसका एक सूत्र है-प्रेम। वस्तुत: प्रेम वह तत्व है जो प्रेम करने वाले को सुखी तो बनाता ही है, जिससे प्रेम किया जाता है वह भी सुखी होता है।

         याद रखें, सुख और सुविधा दो भिन्न चीजें हैं। जो शरीर को आराम पहुंचाता है वह सुख नहीं, सुविधा है, लेकिन सुख का संबंध आत्मा से होता है। आप अच्छे घर में रहते हैं, अच्छी कार में बैठते हैं, एयरकंडीशन ऑफिस में काम करते हैं उससे आपके शरीर को सुविधा प्राप्त होती है, परंतु आप सत्य बोलते हैं, सबको प्रेम करते हैं, ईमानदारी और नैतिकता का व्यवहार अपनाते हैं, सच्चाई और संवेदना दर्शाते हैं, अहिंसा के मार्ग पर चलते हैं तो उससे आपको जो सुख मिलता है वह आत्मिक सुख कहलाता है। यही सुख व्यक्ति और समाज को सुखी बनाता है। जिंदगी के सफर में नैतिक व मानवीय उद्देश्यों के प्रति मन में अटूट विश्वास होना जरूरी है। कहा जाता है आदमी नहीं चलता, उसका विश्वास चलता है। आत्मविश्वास सभी गुणों को एक जगह बांध देता है यानी विश्वास की रोशनी में मनुष्य का संपूर्ण व्यक्तित्व और आदर्श उजागर होता है। दुनिया में कोई भी व्यक्ति महंगे वस्त्र, आलीशान मकान, विदेशी कार, धन-वैभव के आधार पर बड़ा या छोटा नहीं होता। उसकी महानता उसके चरित्र से बंधी है और चरित्र उसी का होता है जिसका खुद पर विश्वास है।

         मनुष्य के भीतर देवत्व है, तो पशुत्व भी है। 'सर्वे भवंतु सुखिन: का पुरातन भारतीय मंत्र संभवत: दानवों को नहीं सुहाया और उन्होंने अपने दानवत्व को दिखाया। पूर्वजों के लगाए पेड़ आंगन में सुखद छांव और फल-फूल दे रहे थे, लेकिन जब शैतान जागा और दानवता हावी हुई तो भाई-भाई के बीच दीवार खड़ी हो गई। बड़े भाई के घर में वृक्ष रह गए और छोटे भाई के घर में छांव पडऩे लगी। अधिकारों में छिपा वैमनस्य जागा और बड़े भाई ने सभी वृक्षों को कटवा डाला। पड़ोसियों ने देखा तो दुख भी हुआ। उन्होंने पूछा इतने छांवदार और फलवान वृक्ष को आखिर कटवा क्यों दिया? उसने उत्तर दिया, क्या करूं पेड़ों की छाया का लाभ दूसरों को मिल रहा था और जमीन मेरी रुकी हुई थी। वर्तमान में हमने जितना पाया है, उससे कहीं अधिक खोया है। भौतिक मूल्य इंसान की सुविधा के लिए हैं, इंसान उनके लिए नहीं है।

दर्द एक अनुभूति है

         चलते-चलते रुक जाने का कोई कारण तो होता है। फिर रुककर बैठा हुआ आदमी पुन: क्यों चल पड़ता है? तब ऐसा नहीं लगता कि इसमें कोई स्वाभाविकता है। किसी न किसी चीज का अहसास है। वह अहसास मन को होता है या तन को, प्रवाह तो कभी अहसास से नहीं रुकता।

        वह बहता ही रहता है। पानी बहता ही रहता है। जीवन प्रवाह भी बहता रहता है। जिस तरह से अनुकूल पानी न मिलने से खेत सूख सकता है, पौधों का विकास रुक सकता है, उसी तरह से अनुकूल जीवन प्रवाह के न होने से दर्द का अहसास हो सकता है। सुख और शांति छिन सकती है, पर दर्द का अहसास कोई बुरी बात तो नहीं है।

         अगर बुरा होता, तो मीरा ने जहर न पिया होता। जीसस सूली पर न लटके होते। श्रीकृष्ण ने भील से बाण खाकर जीवन को न गंवाया होता। राम चौदह वर्ष के लिए वनवास नहीं जाते। महावीर को पत्थर, ढेले नहीं खाने पड़ते। गौतम बुद्ध को राज छोड़कर भटकना नहीं पड़ता और दर्द के अहसास के भय से दुनिया की हर औरत मां बनने को तैयार नहीं होती। बहरहाल, हर दर्द के पीछे कोई रहस्य है। दर्द एक अनुभूति है, भविष्य है और कोई अंतर्दीप की प्रच्च्वल शिखा पर यह सब जानते हुए भी दुनिया के लोग दर्द व दुख की कल्पना से डरते हैं। भागते हैं और इनसे मुक्ति पाने के लिए संघर्ष करते हैं। क्या आज तक कभी इंसान को दर्द से मुक्ति मिली है?

         जाने-अनजाने में आदमी उसी रास्ते पर चलता है, चल पड़ता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि जन्म का योग मृत्यु से है। प्यार का योग घृणा से है। सुख का योग दुख से है। आनंद का योग दर्द से है। मिलन का योग बिछुडऩे से है और संयोग का वियोग से। जब बच्चा जन्म लेता है, तो दर्द होता है, पर भीतर ही भीतर औरत को मां बनने में जो सुख का अहसास होता है उसे वह महसूस करती है। उसे दर्द की अनुभूति से लाखों गुना ज्यादा सुख और आनंद का अनुभव होता है। मनुष्य को जीवन के भौतिक सुखों का अहसास होता है। इसलिए इसे छोडऩे में वह दुखी होता है, क्योंकि वह उसे अपना समझता है। प्रेम तो एक अनुभव है, प्रेम हृदय-कमल का पुष्पित अंग है। प्रेम जब अंकुरित होता है, तब वृक्ष बनने का प्रयास करता है, पर बहुत कम लोग ही प्रेमरूपी वृक्ष को वृक्ष बनने देते हैं। प्रेम केवल थोड़ा ही विकसित होकर भोग बनकर रह जाता है। तभी तो आज का आदमी केवल अपने लाभ के लिए प्रेम करता है।

मनुष्य का जीवन स्वयं में एक अनसुलझी पहेली है


         अपार रहस्यों से भरा हमारा जीवन एक साथ अनेक दिशाओं में चलते हुए अनेक अर्थो को प्रतिपादित करता है। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति इस जीवन को अपने अनुरूप धारण करता है।

         जीवन के रहस्यों को जब हम जानने का प्रयास करते हैं, तो एक साथ कई रहस्य सामने आ जाते हैं। कभी यह विचार आता है कि हमारा जीवन सार्थक है। कभी निर्थक दिखता है, कभी भगवान पर शंका की उंगली उठती है। इस तरह के अनेक प्रश्न मन को झकझोरते रहते हैं। उनमें से एक प्रश्न यह भी उठता है कि हम अपने इष्टदेव को भगवान क्यों कहते हैं? इस भगवान शब्द का औचित्य क्या है? दरअसल, हम जब अपने इष्टदेव का नाम लेते हैं, तो हम उनके साथ अनेक श्रद्धावाचक शब्द जोड़ देते हैं। कभी-कभी तो हम अपने नाम के आगे या पीछे भी कई शब्द जोड़ते हैं जिसका अर्थ होता है, हम अपने से बड़ों को सीधे नाम लेकर नहीं पुकारना चाह रहे हैं। हमारा नाम तो साधारण होता है, लेकिन उसमें कुछ विशेषण लगा देने पर नाम का थोड़ा वजन बढ़ जाता है।

         प्रश्न यह उठता है कि हम अपने इष्टदेव को जब भगवान कहते हैं, तो भगवान शब्द को ठीक से समझ लेना चाहिए। मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ी अभिलाषा होती है कि उसे अधिक से अधिक आयु मिले, विद्या मिले, बल हो, अपार बुद्धि हो, ऐश्वर्य हो और शांति मिले। इन छह तत्वों की कामना हमारे जीवन में होती है, लेकिन मनुष्य का जीवन कामनाओं से भरा है, जिस कारण मरुभूमि की रेत की तरह जितनी हम कामनाओं की पूर्ति का प्रयास करते हैं, रेत पर पानी की बूंद की तरह सब विलीन होता रहता है।

         जो वस्तु हमारे पास नहीं होती और जिसे पाने की ललक मन में हमेशा बनी रहती है, अगर वह वस्तु किसी के पास होती है तो हम उसे अपने से अधिक श्रेष्ठ मानने लगते हैं। भगवान शब्द भग और वान से बना है। भग का अर्थ होता है आयु, विद्या, बल, बुद्धि, ऐश्वर्य और शांति का सम्मिलित स्वरूप और वान का अर्थ होता है जिनके पास ये तमाम शक्तियां हों, उसी को भगवान कहते हैं।

         जब हम अपने इष्टदेव की अर्चना, पूजा करते हैं, तो हम अपने इष्टदेव से यही चाहते हैं कि उनके पास जो ये समस्त गुण हैं, वे सभी हमें प्राप्त हों। परमात्मा की प्रार्थना में मनुष्य अपना आत्मिक विकास चाहता है।

Friday, February 20, 2015

जीवन को संपूर्णता के साथ जिया जा सकता है

                       हम सबकी लालसा रहती है कि हमेशा स्फूर्ति और उल्लास की स्थिति को कैसे प्राप्त किया जाए। जिस प्रकार शरीर अपनी शारीरिक और मानसिक भूख को मिटाने के लिए प्रयत्न करता है, उसी प्रकार आत्मा भी अपने स्वाभाविक गुण स्फूर्ति और उल्लास का अवसर प्राप्त करने के लिए लालायित रहती है, भले ही व्यावहारिक जीवन में वैसे अवसर न मिलते हैं।

                         वैसे स्फूर्ति शारीरिक समझी जाती है, पर उसके पीछे भी मानसिक प्रसन्नता छिपी रहती है। उल्लास की स्थिति तब आती है, जब मनुष्य भ्रम-जंजाल से निकलकर कल्याणकारी मार्ग पर संकल्पों के साथ आगे बढ़ता है। वैसे तो उल्लास असाधारण लाभ, यश के अवसर मिलने पर भी हासिल होता है, पर वह स्थायी नहीं रहता। समय-क्रम के अनुसार स्थिति में निरंतर परिवर्तन होता रहता है। ऐसी दशा सफलताओं के मिलने पर जो उल्लास महसूस होता है, लेकिन भौतिक वस्तुओं के सुखों से पृथक होने के कुछ समय बाद वह भी समाप्त हो जाता है। सुखद स्मृतियों की घटनाएं जब आंखों के आगे से होकर गुजरती हैं और उनके फिर से प्राप्त कर सकने का अवसर चला गया होता है तो कसक भरा पश्चाताप ही शेष रह जाता है, लेकिन आत्मिक उल्लास का कभी अंत नहीं होता, वह निश्चित संकल्पों के साथ अनंतकाल तक प्रगति की ओर बढता रहता है।

                      जब तक यश की दिशा में भाव उमड़ते रहेंगे और प्रयत्न चलते रहेंगे तब तक उल्लास में कभी कमी नहीं आती है। संकल्प अपना है, प्रयास अपना है, इसलिए उल्लास की सुखद अनुभूति भी अपनी है, न उसके घटने की आशंका है और न व्यवधान पडऩे की। यही है जीवन का आनंद जो शरीर क्षेत्र में स्फूर्ति के रूप में और मनक्षेत्र में उल्लास-मस्ती के रूप में सतत् अनुभव किया जा सकता है। उस सरसता का निरंतर रसास्वादन किया जा सकता है। जीवन को संपूर्णता के साथ जिया जा सकता है। स्फूर्ति और उल्लास का आनंद उठाना गलत बात नहीं, पर उसका साधन और प्रभाव उपयुक्त होना चाहिए। उचित रीति से जब तक इनकी पूर्ति नहीं होगी, तब तक उसका परिणाम सुखद नहीं हो सकता।

युवाओं के प्रेरणाक्षश्रोत स्वामी विवेकानंद

          विवेकानंद युवाओं के लिए एक बड़ा आदर्श हैं। हालांकि उनका सिर्फ 39 साल का जीवन रहा, इसके बावजूद उन्होंने अपने विचारों और कार्र्यों से पूरे विश्व को एक नई दिशा दी। स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व के गुणों को अपना कर कोई भी आगे बढ़ सकता है।

          आत्मविश्वासी बनें : स्वामी विवेकानंद के मुताबिक, आस्तिक वही है, जो खुद पर विश्वास करे। कोई व्यक्ति भगवान पर विश्वास करता है, पर खुद पर विश्वास नहीं करता, तो वह नास्तिक है। यानी आत्मविश्वास सबसे महत्वपूर्ण है। खुद पर भरोसा रखने से ही व्यक्ति कोई भी कार्य कर सकता है।

          तन-मन हो स्वस्थ : आत्मविश्वास को मजबूत करने के लिए स्वामी विवेकानंद ने तन और मन को मजबूत बनाने की शिक्षा दी। उन्होंने कहा कि गीता वीरों के लिए है, कायरों के लिए नहीं। यानी ज्ञान प्राप्त करने के लिए पहले शरीर और मन को मजबूत बनाएं।

          दूर करें हीनता-बोध : विवेकानंद ने लोगों के हीनता-बोध दूर करने के लिए ही सबको शिक्षा दी कि खुद को शरीर नहीं, आत्मा समझें। वह आत्मा, जो शक्तिशाली परमात्मा है। इससे हीनता बोध खत्म होता है और आत्मविश्वास बढ़ता है। इसलिए कभी भी ऐसी सोच न रखें कि मैं कमजोर, पापी या दु:खी हूं।

          संयम-अनुशासन : खुद पर नियंत्रण करना संयम होता है। संयमी व्यक्ति सारे व्यवधानों के बीच भी अपने कार्य को सहजता से आगे बढ़ाता रहता है। सेवा की भावना, शांति, कर्मठता आदि गुण संयम से आते हैं। संयमी व्यक्ति तनाव से मुक्त होता है, इसीलिए वह हर काम गुणवत्ता से करता है। विवेकानंद ने कहा है - किसी भी क्षेत्र में शासन वही कर सकता है, जो खुद अनुशासित है।

          भय को तिलांजलि दें : स्वामी विवेकानंद के मुताबिक, हमेशा यह सोचें कि मेरा जन्म कोई बड़ा काम करने के लिए हुआ है। यह सोचकर बिना किसी से डरे, अपने काम को ईश्वर का आदेश समझ कर करें। भय तब दूर हो जाएगा, जब हम खुद को अनश्वर आत्मा मानेंगे, नश्वर शरीर नहीं।

स्वावलंबी बनें : स्वामी जी ने कहा है कि भाग्य पर भरोसा न करें, बल्कि अपने कर्र्मों से अपना भाग्य खुद गढ़ें। 'उठो, साहसी और शक्तिमान बनो।Ó इसमें आत्मनिर्भर बनने का सूत्र दिया गया है। स्वामी जी कहते हैं कि सारी शक्ति तुम्हारे अंदर ही है। तुम्हींअपने मददगार हो, कोई दूसरा तुम्हारी मदद नहींकर सकता। भगवान भी उसी की मदद करता है, जो अपनी मदद खुद करता है। यानी स्वावलंबी बनना आवश्यक है।

सेवा परमोधर्म: : स्वामी जी ने नि:स्वार्थ भाव से सेवा को सबसे बड़ा कर्म माना है। सेवा भाव का उदय होने से व्यक्ति दूसरों के दुखों को दूर करने की चेष्टा में अपने दुखों या परेशानियों को भूल जाता है और उसके तन-मन की सामथ्र्य बढ़ जाती है।

आत्मशक्ति जगाएं : विवेकानंद के अनुसार, आत्मा परमशक्तिशाली है, वही ईश्वर है। इसलिए अपने आत्म-तत्व को पहचानकर उसकी शक्ति को जगाएं। तब आप स्वयं को ऊर्जावान महसूस करेंगे। असफलता से परेशान होकर अपने प्रयासों को छोड़े नहीं और किंचित सफलता पाकर संतुष्ट होकर बैठें नहीं। स्वामी जी ने कहा, उठो, जागो और लक्ष्य पाने तक नहीं रुको।