Sunday, October 21, 2012

ईश्वर की अनुभूति

 
1-           जिस प्रकार पतंगा प्रकाश को देखकर अपने आप ही अग्नि में गिरता है,उसी प्रकार भक्त भी भगवान के निमित्त अपना सर्वस्व त्याग देता है ।
 
 
2-           जिस प्रकार दाद को जितना ही अधिक खुजलाते जाते हैं वह उतना ही अच्छा लगता है, उसी प्रकार भक्त भी भगवान के नाम लेने और स्तुति करने से तृप्त नहीं होते
 
 
3-           एक मनुष्य दूसरे को प्यार करता है,परन्तु वह दूसरा उस प्रथम मनुष्य को प्यार नहीं करता है,इसप्रकार एक ओर के प्रेम को एकॉगी प्रेम, भक्ति कहते हैं । जैसे पतंगा तो दीप को चाहता है मगर दीप पतंग को नहीं चाहता है ।
 
 
4-           रात्रि के ,समय आकाश में असंख्य तारे दिखते हैं, लेकिन सूर्योदय होने पर वे दृष्टिगोचर नहीं होते हैं ,क्या इससे कोई कह सकता है कि आकाश में तारे नहीं हैं ? इसी प्रकार अविद्या रहते यदि ईश्वर के दर्शन न हों तो क्या कोई कह सकता है कि ईश्वर है ही नहीं ?
 
 
5-           जिस प्रकार छत के ऊपर जाने तके लिए सीढी,बॉस,रस्सी,इत्यादि अनेक साधन हैं, वैसे ही उस ईश्वर के पास जाने के लिए बहुत से मार्ग हैं,पर प्रत्येक मार्ग अंत में एक होकर ईश्वर को मिलता है ।
 
 
6-           जिस प्रकार अग्नि का कोई रूप नहीं है परन्तु प्रज्वलित अंगारों से उसका एक प्रकार का रूप दिखाई देता है, अर्थात उस समय अग्नि रूप धारण कर लेती है ।उसी प्रकार परमेश्वर का कोई रूप नहीं है,पर वे कभी-कभी विशेष आकार धारण कर लेते हैं ।
 
 
7-           समुद्र में एक बार डुबकी मारने से यदि रत्न न मिले तो उस समुद्र को रत्न हीन न कहो।बार-बार डुबकी लगाते-लगाते रत्न अवश्य मिलेगा । थोडी सी साधना करके ईश्वर को न पाकर यह मत बोलो कि ईश्वर नहीं मिला और न ही निराश होना, धीरज रखकर साधन करते रहें फल मिलने का समय अवश्य आयेगा ।
 
 
8-           जिस प्रकार मेघ से सूर्य ढक जाता है,वैसे ही माया से ईश्वर ढंके हुये हैं । फिर जैसे मेघ के हटने पर सूर्य दिखाई देता है,वैसे ही माया के हटने पर ईश्वर पर दृष्टि पडेगी ।
 
 
9-           भॉग-भॉग कहकर चिल्लाने से क्या भॉग का नशा चढेगा ? कदापि नहीं । हॉ, यदि भॉग पीसकर पियो तो नशा होगा । उसी प्रकार खाली ईश्वर -ईश्वर कहकर चिल्लाने से क्या मिलेगा ? नियम बॉधकर साधन करो तो परमात्मा प्राप्त होगा ।
 
 
10-           अमृत के तालाब में चाहे जैसा गिरो,अमर हो जाओगे,वैसे ही भगवान का नाम चाहे जैसे लो, उसका फल अवश्य मिलेगा ।
 
 
11-           दीपक का कार्य तो प्रकाश देना है । अब उसका प्रयोग भात पकाने में करे या जालसाजी के लिए करें,या गीता को पढने में करे, इससे दीपक का कोई दोष नहीं है । इसी प्रकार अगर कोई भगवान का नाम को लेकर मुक्ति चाहता है या चोरी ठगी करता है तो उसमें भगवान का क्या होष है ?
 
 
12-           प्र-क्या सब मनुष्य ईश्वर दर्शन कर पायेंगे ?
उ-हॉ जैसा कोई मनुष्य कभी भूखा नहीं रहता है,कोई नौ बजे,कोई दो बजे और कोई सॉझ को भोजन पाता है,उसी प्रकार किसी न किसी जन्म में कभी न कभी सभी ईश्वर का दर्शन पायेंगे ।
 
 
13-           जिस प्रकार मछली चाहे कितनी ही दूर क्यों न हो पर चारा देखकर वह झट से पास चली आती है, उसी प्रकार भगवान भी विश्वासी भक्त के मन में शीघ्र आकर उपस्थित होते हैं ।
 
 
14-           जब तक ईश्वर नहीं दिखाई देता है तब तक कामनारूप पवन से हिलोरे लेती रहती है तबतक ईश्वर नहीं दिखाई देता है, लेकिन जब ईश्वर की ज्योति झलकती है,तब उसकी झॉकी पाने वाले का ह्दय सुस्थिर हो जाता है ।
 
 
15-           मन में भगवान के आगमन की पहचान है -जैसे सूर्योदय के पूर्व गगन में ललाई छा जाती है उसी प्रकार भगवान भी विश्वासी भक्त के मन में शीघ्र आकार उपस्थित होते हैं ।
 
 
16-           जिस प्रकार दूध में जल डालने पर दूध और जल दोनों मिलकर एक हो जाते हैं ,लेकिन जब दूध का मक्खन बन जाता है वह जल में नहीं घुलता है,इसी प्रकार ईश्वर की प्राप्ति होने पर भक्त जन किसी दशा में भवबन्धन में नहीं पडते ।।
 
 
17-           सभी जल में नारायण है मगर सब जल को पिया नहीं जाता । इसी प्रकार नारायण सर्वत्र है,पर हमें सभी स्थानों पर नहीं जाना चाहिए ।जैसे एक जल से पॉव धोते हैं,एक से नहाते हैं,एक को पीते हैं और एक को छूते भी नहीं हैं । ऐसे ही भिन्न-भिन्न प्रकार के स्थान भी हैं । किसी स्थान में हम जा सकते हैं,और किसी को दूर से ही प्रणॉम करके जाना होता है ।।
 
 
18-           जैसे कमल के पत्ते जल में लगे रहते हैं पर जल से अलग रहते हैं और मछली कीचड में रहती है लेकिन उसकी देह में कीचड नहीं लगता है । इसी प्रकार भक्त कहीं भी रहे उसकी आस्था उसी ईश्वर में होती है ।
 
 
19-           पूजा तबतक करनी चाहिए जबतक हरिनाम में प्रेम के आंसू न बहे । कान में भगवान का नाम सुनते ही जिसकी आंखों में आंसू निकल आता है,उस मनुष्य को फिर पूजा करने की आवश्यकता नहीं है ।
 
 
20-           जो व्यक्ति अपने में ईश्वर को पहचान सके वह अन्य में भी ईश्वर देख सकता है ।
 
 
21-           एक के आगे लगातार शून्य लगाते जाने से संख्या बढती है ,परन्तु एक को मिटा देने से फिर कुछ भी शेष नहीं रहता है ,उसी प्रकार जब एक ईश्वर है तभी तक जीवों का स्तिचत्व है ,उस ईश्वर को छोड देने से सर्वस्व मिथ्या हो जाता है ।
 
 
22-          अपना दिल सुरक्षित स्थान पर रखो; वह बहुत कोमल है । घटनाएँ और छोटी छोटी बातें उसपर बड़ा प्रभाव छोड़ जाती हैं । अपने दिल को सुरक्षित और मन को स्वस्थ रखने का ईश्वर से श्रेष्ठ स्थान कोई नहीं है ।
 
 
23-          दुनिया के सभी लोग एक ही भाषा में मुस्कुराते हैं ।
 
 
24-          जब तक तुम असंतुष्टता से कृतज्ञता तक नहीं जाते, जब तक स्वयं को भाग्यशाली नहीं मानने लगते, तब तक दुर्भाग्य के बीज उपस्थित रहेंगे । "धन में मेरा भाग्य ठीक नहीं है| संबंधों में मेरा भाग्य ख़राब है । काम में किस्मत साथ नहीं देती ।" यह सब अपने मन से निकाल दो ।
 
 
25-          भगवती देवी जो शुद्ध चेतना हैं, सभी नामों और रूपों में व्याप्त हैं । उस एक दिव्यता को पहचानना नवरात्री का अभिप्राय है ।
 
 
26-          कोई और तुम्हारे लिए फूल लाए, इसकी प्रतीक्षा न करो । अपना बागीचा खुद लगाओ और अपनी आत्मा का श्रृंगार करो ।
 
 
27-          उलझन का अर्थ है कि तुमने एक रास्ता चुना पर दूसरे रास्ते पर अधिक आनंद दीखता है । तुम कोई भी चुनो, लगता है दूसरा अधिक आनंदमय होगा । आनंद किसी और से अधिक नहीं होगा । तुम स्वयं ही आनंद के स्रोत हो ।
 
 
28-          शांति तुम्हारा स्वभाव है, फिर भी तुम अशांत हो । मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है फिर भी तुम बंधन में हो । प्रसन्नता तुम्हारा स्वभाव है फिर भी तुम किसी न किसी कारण दुखी हो जाते हो । संतोष तुम्हारा स्वभाव है फिर भी तुम कामनाओं से घिरे हो । उपकार तुम्हारा स्वभाव है फिर भी तुम दूसरों के प्रति कदम नहीं बढ़ाते ।
 
 
29-          साधना का अर्थ है अपने स्वभाव की ओर जाना, अपने स्वरूप में आना ।
 
 
30-          जब शब्द बुद्धि को छूते हैं तो ऐसा आभास होता है जैसे हमें सब पता है । तुम भले एक ही वाक्य जानते हो, यदि बुद्धि से जानते हो, तो दस वाक्य कहोगे । पर जब शब्द दिल को छूते हैं तो एक विस्मय होता है, कुछ प्रस्फुटित होता है, एक लहर या फव्वारा उठता है, और तब शब्दों की आवश्यकता नहीं रहती ।
 
 
31-          सच्चा प्रेम पाने की क्षमता प्रेम देने की क्षमता के साथ ही आती है । प्रेम कोई भावना नहीं है । प्रेम तो तुम्हारा अस्तित्व है ।
 
 
32-          सामान्यतः विजय दशमी अच्छाई की बुराई पर जीत जानकार मनाई जाती है, पर वास्तव में युद्ध अच्छाई और बुराई के बीच नहीं है । वेदांत की दृष्टि से जीत वास्तविक अद्वैत की मिथ्या द्वैत पर होती है । हालाँकि जीव जगत ब्रह्माण्ड का ही भाग है, पर उसमें भिन्नता की कल्पना इस द्वंद्व का कारण है । एक ज्ञानी के लिए संपूर्ण सृष्टि सजीव हो उठती है और वह बच्चों की भांति सब कुछ जीवित देखता है ।
 
 
33-          सबसे बड़ी आहुति तुम स्वयं हो । आखिरकार, तुम दुखी क्यों होते हो? मुख्य रूप से तभी जब तुम जीवन में कुछ पा न सको । ऐसे समय में सब कुछ सर्वज्ञ ईश्वर को समर्पित कर दो । ईश्वर को समर्पण करने में सबसे बड़ी शक्ति है । जैसे एक बूँद समुद्र में घुल कर उसे अपना लेती है, यदि वह अलग रहती है तो मिट जाएगी| पर जब वह समुद्र बन जाती है तो अमर हो जाती है ।
 
 
34-          असंभव का स्वप्न देखो, असंभव कल्पना करो| यह जान लो कि तुम इस दुनिया में कुछ अद्भुत और अद्वितीय करने आये हो । खुद को बड़ा सोचने की और बड़े सपने देखने की मुक्ति दो ।
 
 
35-          प्रेम अनुभव करना दिल का काम है और संदेह करना दिमाग का । दोनों का अपना अपना स्थान है । तुम्हें दोनों की आवश्यकता है । तुम कितना संदेह कर सकते हो? करते रहो और जब सारे संदेह ख़त्म हो जायें और नए उत्पन्न न हों, तब वहां से श्रद्धा का आरम्भ होता है ।
 
 
36-          पहला कदम है विश्राम करना और आखरी कदम भी विश्राम करना ही है! सबसे आरामदेह और सुखदाई स्थान तुम्हारे भीतर ही है| अपने आत्म की शांत निर्मल गहराई में विश्राम करो - यह अति अमूल्य है । । संपूर्ण ब्रह्माण्ड के इस अति सुन्दर, अति सुखदाई घर में स्वयं को दर्ज कर लो ।
 
 
37-          प्र: मुझे नास्तिक होना चाहिए या आस्तिक?
तुम स्वयं का वर्गीकरण क्यों करना चाहते हो? एक दिन नास्तिक हो जाओ, किसी और दिन आस्तिक हो जाओ । तुम कुछ भी रहो, अन्दर से सच्चे रहो ।
 
 
38-          ज़रा उन लोगों की ओर देखो जो वह सब करते हैं जिससे तुम्हें द्वेष है । एक क्षण के लिए, वे जैसे भी हैं उनके प्रति दया भाव रखो । तुम्हारे भीतर एक परिवर्तन होता है; तुम विशाल हो जाते हो; तुम्हारे आत्म का विस्तार होता है ।

Wednesday, October 17, 2012

परिवर्तन की नीव

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1-अन्धविश्वास त्याग कर सबल बनें
 
          जीवन में अगर सबल बनना है तो पहले अन्धविश्वास को त्यागना होगा । हमारी शारीरिक दुर्वलता  और एक तिहाई दुखों का कारण अन्धविश्वास ही है, यही हमारी असली स्थिति हैं। हम आपस में मिलजुलकर नहीं रहते हैं,एक दूसरे से प्रेम नहीं करते हैं,हम स्वार्थी हो गये हैं ।यदि तीन व्यक्ति एकठ्ठा होते हैं तो एक दूसरे की घृणॉ करते हैं,आपस में ईर्ष्या करते हैं।हम सेकडों शताव्दियों से इन्हीं बातों पर वाद-विवाद करते आ रहे हैं ।अगर देखें तो वाद-विवाद का असली कारण पंडित भी है । ऐसे पंडितों से हम क्या आशा कर सकते हैं जो यह बताते हैं कि तिलक इस तरह धारण करना चाहिए ताकि अमुक व्यक्ति की नजर न  लगे। या हमारा भोजन दूषित न हो । इस तरह के अनावश्यक प्रश्नों की मीमॉसा जो कि दोषपूर्ण है, ऐसे दर्शन लिख डालने वाले पंडितों से क्या आशा कर सकते हैं ? अन्धविश्वास से मन की शक्ति नष्ट हो जाती है,उसकी क्रियाशीलता और चिन्तनशक्ति जाती रहती है,जिससे उसकी मौलिकता नष्ट हो जाती है ,फिर वह छोटे-छोटे दायरे के भीतर चक्कर लगाता रहता है । अन्धविश्वासी होने की अपेक्षा घोर नास्तिक होना ठीक है, क्योंकि नास्तिक कमसे कम जीवन्त तो है, उसे तो किसी भी प्रकार से बदला जा सकता है,लेकिन यदि उसमें अन्धविश्वास घुस जाय तो,नास्तिक बिगड जायेगा,दुर्वल हो जायेगा और विनाश की ओर अग्रसर होने लगेगा । इसलिए इन संकटों से बचना जरूरी है ।
 
 
          और खासकर अपने युवा मित्रों से अपेक्षा है कि कहा जाता है कि पहले आत्मा फिर परमात्मा इसलिए गीता पाठ की जगह फुटबाल खेलने में आपकी प्रथमिकता पहले हो, स्वर्ग तुम्हारे निकट होगा । क्योंकि बलवान शरीर से गीता को कहीं अधिक समझा जा सकता है । ताजा रक्त होने से कृष्ण की प्रतिभा को अधिक अच्छी तरह समझा जा सकेगा । जिस समय तुम्हारा शरीर तुम्हारे पैरों के बल दृढ भाव से खडा होगा,जब तुम स्वयं को मनुष्य समझोगे तभी तुम भलीभॉति उपनिषद और आत्मा की महिमा को समझ सकोगे । इसलिए सब प्रकार के रहस्यों से बचें । हर बात में रहस्यता और अन्धविश्वास दुर्वलता के ही लक्षण हैं । ये तो अवनति और मृत्यु के ही चिन्ह हैं । उनसे सदैव बचकर रहें ।बलवान बनो और अपने पैरों पर खडे होने  का संकल्प दुहराओ ।


          हम अपने जीवन में वेकार की बातें करते रहते हैं,हमारे अन्दर सदियों से अन्धविश्वास का जो कूडा करकट भरा पडा है ।हजारों वषों से हम आहार की शुद्धि-अशुद्धि के झगडे में अपनी शक्ति को नष्ट करते रहे हैं । युगों से हाथ में किताब लिय़े घूम रहे हैं । हम आज भी यूरोपियनों के मन से निकली बातों को लेकर बिना सोचे समझे दुहरा रहे हैं । एक दूसरे की गुलामी करते है,भिखारियों की तरह हाथ फैलाते हैं,कभी नौकरी के लिए, कभी मुशीगिरी के लिए,तो कभी मजदूरी के लिए ।इसलिए हमें इस संकरे अन्धकूप से बाहर निकलकर चारों ओर दृष्टि डालनी होगी । हमने इतनी अधिक विद्या सीखी है और भिखारियों की भॉति नौकरी दो- नौकरी दो कहकर चिल्ला रहे हैं । ठोकरें खाते हुये गुलामी करते हैं, क्या यही मनुष्य का स्वभाव है । ऐसी सुजला सुफला भूमि में जन्म लेकर भी हमारा यह स्वभाव बना हुआ है । हम अपने आंखों पर पट्टी बॉधकर कह रहे हैं कि मैं अन्धा हूं, देख नहीं सकता हूं ।थोडा आंखों से पट्टी तो हटा दो तो देखोगे कि सूर्य की किरणों से जगत आलोकिक हो रहा है ।
 
 
 
2-शिक्षा पद्धति की नीव कैसी हो -
 
          पहली बात तो यह है कि विस्तार ही जीवन हैऔर संकोच मृत्यु ,अथवा प्रेम ही जीवन है और द्वैष ही मृत्यु हैं । कहते हैं कि हमारी मृत्यु उस दिन से शुरू हो गई थी जिसदिन से हम अन्य जातियों से घृणां करने लगे थे । इस मृत्यु का एक मात्र उपाय है, मानव जीवन के मूल स्वरूप को अपनाना । पृथ्वी की सभी जातियों से हमें मिलकर रहना होगा । शिक्षा ग्रहण करते समय हमें सावधान रहना होगा पाश्चात्य शिक्षा के उदाहरणों में अधिकॉश असफल देखे गये हैं । पाश्चात्य से तो हम सिर्फ भोग के बारे में कुछ सीख सकते हैं । अपने देश में इस समय दो रुकावटें दिख रही हैं -एक ओर हमारा प्रचीन हिन्दू समाज और दूसरी ओर वर्तमान पाश्चात्य सभ्यता । इनमें से हमें कोई एक को चुनना है, अगर आप मुझसे पूंछें तो मैं प्राचीन हिन्दू समाज ही पसन्द करूंगा । क्योंकि अपरिपक्व होने पर भी हिन्दुओं के ह्दय में एक विश्वास है,एक बल है जिससे वह अपने पैरों पर खडो हो सकता है । लेकिन विदेशी रंग में रंगा व्यक्ति तो मेरुदण्ड विहीन है,वह इधर-उधर के विभिन्न श्रोतों से वैसे ही एकत्र किये हुये अपरिपक्व वेमेल भावों की असंतुलित राशि मात्र है । वह तो अपने पैरों पर खडा नहीं हो सकता है,उसका सिर हमेशा चक्कर खाया करता है,ये लोग निश्चित व्यक्तित्व ग्रहण नहीं कर सकते हैं । ये लोग न स्त्री हैं और न पुरुष या पशु । जबकि अपनी प्राचीन संस्कृति के लोग कट्टर तो थे लेकिन मनुष्य थे,उनमें दृढता थी ।इसलिए अपनी शिक्षा का आदर्श समग्र आध्यात्मिक तथा लौकिक नींव पर आधारित होना चाहिए । आज की आवश्यकता है कि हम सबको एक ही मन का बनना होगा,एक ही विचारों का होना होगा,क्योंकि प्राचीन काल में एक मन होने के कारण ही देवतागण यज्ञ का फल पाने में समर्थ हुये थे ।एक चित्त हो जाने में ही नये समाज का गठन का रहस्य है ।
 
         
           जिन लोगों के देश का कोई इतिहास नहीं है, उनका अपना कोई स्तित्व ही नहीं है ।लेकिन हमें तो गर्व होना चाहिए कि हम इतने बडे वंश की सन्तानें हैं । उस संस्कृति में हम क्या बुरे हो सकते हैं । यही विश्वास हमें लगाम की तरह इस प्रकार खींचे रखेगा कि हम मरते दम तक कोई बुरा कार्य नहीं कर सकेंगे,और हमें कभी नींचा होने नहीं देगा । ऐसा ही तो हमारे देश का इतिहास है !जिसके पास आंखें हैं ,इसी ज्वलंत इतिहास के बल पर आज भी सजीव है । इससे मुझे अपने प्राचीन पूर्वजों के गौरव का बोध होता है । हमने अपने अतीत का जितना भी अध्ययन किया है ,और जितनी ही भूतकाल की ओर दृष्टि डाली है,उतना ही अधिक गर्व हमें होता है । और इसी विश्वास से प्राप्त दृढता और साहस ने हमें इस धरती की धूल से ऊपर उठाया है । हमें यही सोचना है कि मुझमें अनन्त शक्ति,अपार ज्ञान,अदम्य साहस,और उत्साह विद्यमान है, अपने भीतर की उस शक्ति को जगा सको तो महान बन सकते हो । चालाकी से कोई महान कार्य नहीं हो सकता है प्रेम,,सत्यानुराग तथा महॉशक्ति की सहायता से ही सभी कार्य सम्पन्न होते हैं ।
 
 
 
3-शरीर और मन का संयोग-
          शरीर और मन दोनों का विकास आवश्यक है शरीर फौलादी हो लेकिन उसमें तीक्ष्ण बुद्धि भी हो तो यह संसार आपके सामने नतमस्तक हो जायेगा । जीवन के लिए लोहे की नशें,और फौलादी स्नायु जिसके भीतर ऐसा मन निवास करता हो,जो वज्र के समान पदार्थ का बना हो ।बल,पुरुषार्थ,क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज परिलक्षित हो । अपने मस्तिष्क को ऊंचे-ऊंचे आदर्शों से भर लो और उन्हैं दिन रात अपने सामने जाग्रत रखो,तो फिर उसी से महान कार्य होंगे । अपवित्रता के बारे में कुछ भी मत कहना और सोचना । अपने मन से कहते रहो कि-हम शुद्ध और पवित्रता स्वरूप हैं ।इन विचारों से अपना पोषण करते रहो , तो फिर देखोगे आपमें कैसी ज्यौति उत्पन्न होती है ।
 






Monday, October 15, 2012

धर्म की खोज

         
          धर्म के सम्बन्ध में हमारी धारणॉएं आज भी अस्पष्ट हैं,हमें उसे सही ढंग से समझना होगा । इस दुनियॉ में अलग-अलग विधाएं हैं जिन्हैं हम एक दूसरे से सीख सकते हैं, लेकिन धर्म एक ऐसी विधा है जिसे दूसरे से सीखने से बचना चाहिए । अन्यथा मुश्किल पैदा होगी । सच तो यह है कि धर्म किसी दूसरे को स्वीकार ही नहीं करता । अकेली विधा है धर्म, जिसे स्वयं ही सीखा जाता है । दूसरे से सीखने की कोई गुंजाइस नहीं है । इसका कारण यही है कि यह सत्य परिवर्तनीय नहीं है,यह एक हाथ से दूसरे हाथ में नहीं दिया जा सकता । और यदि दिया जाय तो, उधार हो जायेगा । और उधार होते ही यह अज्ञान से भी बदतर हो जाता है ।  और यह उधार ज्ञान उसके लिए एक खतरा हो सकता है,यह अहंकार से भर जाता है ।जो ज्ञान भीतर से पैदा होता है उससे अहंकार ऐसा भाग जाता है कि मानो सुबह के सूरज उगने पर अंधेरा विदा हो जाता है । खुद के ज्ञान के पैदा होने पर अहंकार नहीं आता है,लेकिन दूसरे से लिया हुआ ज्ञान अहंकार को मजबूत करता है । और यही अहंकार परमात्मा से मिलने में बाधा बन जाता है ।
 
 
          हमें इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि धर्म कभी भी दूसरे से उपलब्ध नहीं होता है । इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरा बिलकुल बेकार है । अगर बुद्ध हमारे बीच से गुजर जाये तो बुद्ध हमें ज्ञान नहीं दे सकता है या नानक गीत गाता हुआ हमारे पास आता है तो नानक हमें ज्ञान नहीं दे सकता है । लेकिन अगर बुद्ध या नानक के जाने के बाद हमारी प्यास जग सकती है । उन्हैं देख कर हमें इस बात का समरण आ सकता है कि जो उन्हैं प्राप्त होने में सम्भव हुआ वह मुझे भी सम्भव हो सकता है ।
 
 
          अगर देखें तो धर्म की दुनियॉ में ज्ञानी ज्ञान देने वाले नहीं होते हैं बल्कि प्यास जगाने वाले होते हैं । प्यास जगने के बाद कुंआं तो अपने ही भीतर खोदना होता है । पानी तो अपने ही भीतर खोजना पडता है । अगर यह ज्ञान कोई दूसरा देने वाला होता तो एक ही ज्ञानी ने सारी दुनियॉ को ज्ञान दे दिया होता । क्योंकि ज्ञानी में इतनी करुंणॉ होती है कि वह रुकता ही नहीं है,सबको वह बॉट देता । लेकिन यह दिया ही नहीं जा सकता है । इसीलिए सब ज्ञानी तडफते हुये मर जाते हैं, अपने लिए नहीं दूसरों के लिए ,क्योंकि जो उन्हैं मिल गया वे उसे देना चाहते हैं,लेकिन वह दिया नहीं जा सकता । अगर देते हैं तो शव्द ही उनके पास जा पाते हैं अनुभूति तो अपने ही अन्दर रह जाती है ।
 
 
          अगर गीता को देखें तो उसमें एक हजार टीकाएं हैं । क्या कृष्ण ने गीता के एक हजार अर्थ बताये !कृष्ण जैसे आदमी का मतलव तो एक होता है। गीता के ये अर्थ कृष्ण के नहीं हैं ।फिर ये अर्थ कहॉ से आये,ये एक हजार टीका करने वालों के अर्थ हैं । जब हम गीता पढते हैं तो वह कृष्ण की गीता नहीं होती है,हम उसमें अपना अर्थ डाल कर पढते हैं । हम ही उसमें होते हैं । इसलिए शास्त्र को भूलकर भी नहीं पकडना, क्योंकि शास्त्र में हम खुद को ही पढते हैं । अगर शास्त्र को दो आदमी पढते हैं तो दो अर्थ निकलते हैं ।
 
 
          इसी सम्बन्ध में एक प्रसंग कि एक रात को बुद्ध ने प्रवचन दिया और प्रवचन के बाद रोज अपने भिक्षुकों को कहते थे कि जाओ अब रात के आखिरी काम में लग जाओ । उस दिन एक चोर भी आया हुआ था,प्रवचन देने के बाद बुद्ध ने आज भी वैसा ही कहा । चोर उठा और कहने लगा आज तो बडी देर हो गई । एक वैश्या भी आई थी,उसने भी कहा मैने कितना समय विता दिया,ग्राहक वापस लौट गये होंगे । इसके बाद भिक्षु उठकर ध्यान करने चले गये, क्योंकि भिक्षुओं को रात का आखिरी काम था, वे ध्यान करने चले गये ,उसके बाद सोना था । भिक्षु ध्यान करने लगे,चोर अपने काम पर चले गये,वैश्या अपनी दुकान चलाने चली गई । बुद्ध ने एक ही शव्द कहा था आओ रात के काम पर लग जाओ ।
 
 
          प्रश्न यह उठता है कि सत्य कौन देगा ?जबकि अर्थ हम देते हैं, शास्त्र को पढकर सत्य मिलने वाला नहीं है । सत्य तो स्वयं को खोने से मिलेगा । शास्त्र तो स्वयं का ही दर्पण है,इसलिए हम तो अपने को ही पढ लेते हैं । इसलिए कुरान को मुसलमान पढता है तो उसका और ही अर्थ निकाल लेता है ।यदि वेद को पढते हैं तो अपना अलग ही अर्थ निकाल लेते हैं । ये अर्थ  तो हमारे हैं । अगर हमारे मतलव सत्य होते तो वेद तक जाने की क्या जरूरत है ?हम तो सत्य हैं ही ।
 
 
          यह भी देखना है कि अगर आप शास्त्र जानते हैं तो आपका अहंकार और मजबूत हो जाता है, पंडितों का अहंकार कम नहीं होता है । जानने का अहंकार इस दुनियॉ में सबसे गहरा अहंकार है । इसीलिए पंडित निरंतर लोगों को लडाई में ले जाते हैं । जो भी लडाइयॉ हुईं है वे ज्ञानियों के कारण ही तो हुईं हैं, अज्ञानियों के कारण नहीं ! इसका कारण झूठा ज्ञानी होना है ।अज्ञानी तो बेचारे उस ज्ञानी के चक्कर में पडकर लडते रहते हैं । झूठा ज्ञान अहंकार भरा होता है, इसलिए सारी लडाई झूठे ज्ञानियों के कारण होती है ।
 
 
          इस बात को भी हमें देखना है कि धर्म एक ऐसी विद्या नहीं है जो हमें शास्त्र को पढने से मिल जाय, बल्कि धर्म ऐसी विद्या है जो स्वयं को खोने से मिल जाती है । आज तक कोई ऐसा शास्त्र नहीं बना जिनको जानकर आप धर्म जान लेंगे,हॉ अगर आपने धर्म को जान लिया तो आप शास्त्रों को भी जान लेंगे । धर्म को जान लेंगे तो सभी शास्त्रों का राज खुल जायेगा । अगर धर्म को जान लेंगे तो शास्त्र समझ में आ जायेंगे ।लेकिन शास्त्र को समझकर धर्म समझ में नहीं आ सकेगा ।

Saturday, October 13, 2012

विश्वास की परख


 

1- धर्म में विश्वास करने वाले आदमी धार्मिक नहीं होते हैं-


      
        धर्म में विश्वास का मतलव है जो हम नहीं जानते हैं और उसे हमने मान लिया । यह जैसे अन्धापन है । यह तो अपने को अन्धा बनाने का रास्ता है ।

      
        अबतक हमें यह समझाया जाता रहा है कि अगर भगवान को पाना है तो विश्वास करो ? और बहुत सारे लोगों ने विश्वास किया है, लेकिन भगवान को कम लोगों ने  पाया । 

        विश्वास तो सभी करते हैं, लेकिन भगवान अधिक लोगों को क्यों नहीं उपलव्ध हो पाता ? पृथ्वी पर लोग हजारों सालों से विश्वास कर रहे हैं,लेकिन लोगों के जीवन में परमात्मा की झलक नहीं उतर पाती । कितने मन्दिर है,कितने मस्जिद हैं,कितने गुरुद्वारे है !कितना पूजा-पाठ, कितनी प्रार्थना है,कितना विश्वास है !लेकिन फिर भी लोग धार्मिक क्यों नहीं हैं ? लोगों का जीवन तो अधार्मिक है । क्या हो गया ?कारण क्या है ?
    
        इसका कारण एक ही है कि यह जीवन चलता है ज्ञान से विश्वास से नहीं । विश्वास सत्य नहीं बन पाते हैं । और विश्वासों को सत्य बनाया भी नहीं जा सकता है । अगर सत्य को जानना है तो विश्वास छोडना होता है ।

       
        ऐसा भी नहीं कि विश्वास करना छोड दो, क्योंकि अविश्वास भी उलटा विश्वास है ।जो आदमी न विश्वास और न अविश्वास के बीच में खडे होने को राजी है, उसी के जीवन में ज्ञान की किरण उतरती है । जो व्यक्ति न तो विश्वास की खूंटी से अपनी नाव को बॉधता है और न अविश्वास की खूंटी से बॉधता है ,न हिन्दू,न मुसलमान,न जैन, न ईसाई, और न सिक्ख किसी की भी खूंटी से अपने आपको बॉधता है और कहता है कि हम तो अनंत के सागर में अपनी नाव को छोडेंगे,किसी की खूंटी से बॉधेंगे नहीं -वही आदमी परमात्मा तक पहुंचने में सफल हो पाता है ।
 
 
        देखने वाली बात तो यह है कि हिन्दू,मुस्लिम,सिक्ख,ईसाई,जैन सभी जिनका गुणगान करते है, वे ही लोग है जो बिना किसी की खूंटी से बंधे ही परमात्मा तक पहुंचे हैं । सभी नौका को छोडकर सागर में जाने वाले लोग हैं । लेकिन हम हैं कि उनके नाम पर खूंटियॉ भॉधकर किनारे पर बैठ जाते हैं ।

 कवीर ने ठीक ही तो कहा है कि-

जिन खोजा तिन पाइयॉ,गहरे पानी पैठ।
मैं बौरी खोजन गई,रही किनारे बैठ।।

उन्होंने पाया जो गहरे डूबे और मैं पागल किनारे पर बैठ कर रह गई , इसलिए कि डूबने से डर गईं ।
 

       अर्थात जो भी डूबने से डरेगा वह खूटियॉ पकड लेगा, उसका सहारा पकड लेगा ।और जो डूबने से डरेगा वह परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता है। क्योंकि जो डूबता है वही उबरता है,जो डूबता है वही पहुंचता है ,वही पाता है ।अगर बचना है तो डूबना होगा । अगर धर्म से बचना है तो ,किनारे पर खूंटियॉ पकडकर बैठजाना ही उपयोगी है ।
 

       ये खूटियॉ पुरानी हो सकती हैं या नईं हो, बस इनका काम बॉधने का होता है । और वैसे धर्म कोई खूंटी नहीं होती है ,धर्म तो स्वतंत्रता है । इसलिए धार्मिक आदमी न तो हिन्दू होता है न मुसलमान,न ईसाई होता है न सिक्ख । धार्मिक आदमी तो बस आदमी होता है ।
 

      एक बार में हेमकुण्ड-जोशीमठ गुरुद्वारे में देखने गया तो एक मित्र ने कहा यहॉ ईसाई,हिन्दू,मुसलमान,सबके लिए जगह खुली है । मैने कहा ऐसा मत बोलो भई ?क्योंकि ऐसा कहने में ही ईसाई,सिक्ख मुसलमान की स्वीकृति हो जाती है कि ये अलग-अलग हैं । इतना ही कहें कि यहॉ हर आदमी के लिए जगह खुली है ।
 

       कभी वह समय आयेगा जब इस पृथ्वी पर ऐसे मंदिर बनेंगे जिसमें सिर्फ आदमी होना काफी होगा,जिनमें कोई पहचान नहीं होगी । आज तक नहीं बना पाये ,हजारों बार केशिश होती रही है,कभी बुद्ध,कभी महॉवीर,कभी कृष्ण,कभी क्राइस्ट,नानक ने ऐसा मन्दिर बनाने का प्रयास किया है और महॉन लोग आगे करते रहेंगे । लेकिन हम भी ऐसे पागल हैं कि हम उन मन्दिरों में अपनी खूंटियॉ गाढ लेते हैं । हम उन मन्दिरों पर भी कब्जा कर लेते हैं । हम उस मन्दिर को भी किसी का बना लेते हैं । और जो मन्दिर किसी का बन जाता है, वह मन्दिर परमात्मा का नहीं रह जाता है । परमात्मा का होने के लिए उसका किसी का होना अयोग्यता है । वह किसी का भी न हो ,तभी वह सभी का हो सकता है ।
 

       एक बार मैं दिल्ली में अपने मित्र के यहॉ गया था । हमारे पडोस में कुछ हरिजन मित्र बन गये । उन्होंने हमसे कहा कि गॉधी जी तो ऐसे थे कि हरिजनों के घर ठहरते थे । आप हम हरिजनों के यहॉ क्यों नहीं ठहरते
? मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारे घर ठहर सकता हूं,लेकिन  हरिजन के घर नहीं ठहर सकता । क्योंकि तुम हरिजन हो । यह अन्याय है,अधर्म है,गलती है, कोई आदमी कहता है कि तुम हरिजन हो, वह भी तुम्हैं हरिजन मानता है । मैं तुम्हारे घर में ठहर सकता हूं मगर हरिजन के रूप में नहीं । आदमी के रूप में ।
 

       सामान्यतः यह कहा जाता है कि हिन्दू मुस्लिम देोनों भाई-भाई है फिर भी दो रहते हैं कोई कहता है हिन्दी मुश्लिम दोनों दुश्मन हैं, तो भी दो होते हैं । देखने वाली बात है कि भाई-भाई कहने वाला भी एक नहीं मानता,और लडाने वाला भी एक नहीं मानता है । एक तो वही मान सकता है जो कहे कि तुम हिन्दू कैसे? तुम मुसलमान कैसे ? तुम कोई भी नहीं हो । आदमी होना सत्य है,बाकी यह सब खूंटी पर बॉधने वालों की सिखाई बात है, जिसे हम ऊपर से थोप देते हैं ।धार्मिक आदमी का पैदा होना मुश्किल हो गया है ।
 

 

2-मनुष्य अपने अनुभव से नहीं सीखता है -

 
        सचमुच यह एक आश्चर्य की बात है कि मनुष्य अपने अनुभव से कुछ भी नहीं सीखता है
,यही तो उसकी अज्ञानता का आधार है । इसी तथ्य को एक कहानी के रूप में देखें तो- एक बार एक आदमी के घर में रात के अंधेरे में चोर घुस गया,उसकी पत्नी की नींद खुली और उसने अपने पति को कहा मालूम होता है घर में कोई चोर घुस गया । उसके पति ने विस्तर में पडे-पडे कहा कौन है ? चोर ने कहा कोई भी नहीं । उसका पति सो गया । रात को चोरी हो गई । सुबह उसकी पत्नी ने कहा चोरी हो गई ! मैने आपको कहा था ! तो पति ने कहा मैने कहा था ,कौन है ?लेकिन आवाज आई कि कोई भी नहीं, इसलिए मैं वापस सो गया ।
 
        ऐसे घर में फिर चोरी होनी है ।स्वाभाविक है । जिस घर में चोर की कही गई बात कि कोई नहीं है -मान ली गई हो,उस घर में दुवारा चोरी होना निश्चित ही है । कुछ दिन बाद चोर फिर घर में चोरी करने के लिए घुस गया ।पत्नी को मालूम हो गया कि घर में चोर घुस गया है । पत्नी ने सोचा अब पूछने की जरूरत नहीं है,सीधे चोर को पकडो। पत्नी ने चोर को पकड लिया और अपने पति के हवाले कर दिया ।पति ने चोर को पुलिस थाने की तरफ ले चला । आधे रास्ते तक पहुंचने पर चोर ने कहा माफ कीजिए,मैं अपने जूते आपके घर भूल आया हूं । उस आदमी ने कहा कि बडे नासमझ हो अब मैं वापस इतनी दूर लौटकर नहीं जाऊंगा । ठीक है मैं यहीं रुकता हूं तुम वापस चले जाओ और अपने जूते लेकर आओ । वह आदमी वहीं पर रुक गया,चोर वापस चला गया, चोर का वापस लौटने का तो सवाल ही नहीं था,और लौटा भी नहीं ।
 
        एक माह बाद फिर वह चोर उसी आदमी के घर में चोरी करने के लिए फिर घुस गया । अब की बार उस आदमी ने उसे पकड लिया और कहा कि मैं थाने में चलता हूं,और इस बार कोई चीज मत भूल जाना । आधे रास्ते में जाने के बाद चोर ने कहा माफ कीजिए एक गलती हो गई, मैं अपना कंबल आपके घर भूल आया । उस आदमी ने कहा, तुम ना समझ मालूम पडते हो अब मैं पुरानी भूल नहीं कर सकता । अब तुम यहॉ रुको और मैं तुम्हारा कम्बल लेने जाता हूं ।
 
        इस आदमी पर हंसी आती है,लेकिन सारे आदमी इसी भॉति के आदमी हैं । इसलिए जीवन में पहली शिक्षा जरूरी है कि अपने अनुभवों से सीखें ।


Friday, October 12, 2012

पंडित सत्य तक नहीं पहुंच सकते

 
 

 

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पंडितों का शास्त्र-

 
          पंडित अपने शास्त्र खोले बैठे रहते हैं, और बैठे-बैठे समाप्त हो जाते हैं,लेकिन उसे सत्य का कोई पता नहीं चलता है । पापी सत्य तक पह्ंच जाते है, लेकिन पंडित नहीं पहुंच पाते है । क्योंकि पापी कमसे कम विनम्र तो होता है, रो तो सकता है परमात्मा के सामने,डूब तो सकता है,घुटने टेक ते सकता है । लेकिन पंडित का अहंकार बहुत भारी होता है,पंडित का अहंकार चुनौती दे सकता है, विवाद कर सकता है लेकिन वह परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता है । कभी भी नहीं पहुंच सकता है । आजतक कभी भी यह नहीं सुनाई दिया कि कोई पंडित परमात्मा के पास पहुंचा हो ,अगर कभी पहुंचा भी होगा तो उसने पहले परमात्मा को चुनौती दी होगी कि तुम गलत हो क्योंकि हमारे शास्त्र में तो कुछ और ढंग से लिखा है ।
 
          इसलिए परमात्मा को जानना हो तो पंडित से बचकर रहना चाहिए । परमात्मा को प्राप्ति के रास्ते में पंडित एक अवरोध होता है । पंडित कोई भी हो हिन्दू का है या मुसलमान का है, सिक्ख का है या जैन का है या ईसाई का इससे कोई फर्क नहीं पडता ,पंडित तो पंडित ही है सारे पंडित तो एक जैसे होते हैं.उनकी किताबें अलग हो सकती है,उनके शव्द अलग होंगे,सिद्धान्त अलग होंगे लेकिन पंडित का मन व माइण्ड एक जैसा होता है । वह शव्दों पर जीता है,सिद्धान्तों पर जीता है लेकिन सत्य से दूर रहता है । क्यों ? क्योंकि सत्य की पहली मॉग है पहले स्वयं को मिटाओ । लेकिन पंडित अपने को मिटाने को कभी राजी नहीं होगा । क्योंकि पंडित कहता है कि मेरे पास जो है वह सत्य है । और सत्य के लिए पहली शर्त कि पहले स्वयं को मिटाना होगा । पंडित तो सत्य को अपने बगल में खडा रखता है,और जिसे सत्य को जानना हो उसे खुद ही जाकर सत्य के बगल में खडा होना पडता है । सत्य को अपने बगल में खडा नहीं किया जा सकता है और न मुठ्ठी में बन्द किया जा सकता है । सत्य के लिए न तो कोई दावा किया जा सकता है और न कोई विवाद संभव है,और न सत्य के लिए कोई शास्त्रार्थ संभव है, न तर्क की गुंजाइस है लेकिन पंडित तर्क का भरोसा रखता है । पंडित कहता है कि तर्क करेंगे तो सत्य को खोज लेंगे ।
 
          एक सागर तट पर बडे-बडे वि्द्वान अपने -अपने शास्त्रों को खोलकर रखे हुये हुये थे सागर की गहराई को जानने के लिए । अध्ययन कर रहे थे । गहराई की बहुत सी बातें थी, कौन सी सही होगी,यह निर्णय कर पाना कठिन हो रहा था । क्योंकि सागर की गहराई का पता सागर में जाने से ही पता चल सकता है । विवाद बढता गया,विवाद बढा समझो निर्णय मुश्किल होता चला गया । असल में अगर निर्णय लेना हो तो विवाद से बचना चाहिए । और निर्णय न लेना हो तो विवाद से ज्यादा सरल रास्ता कोई नहीं है ।
 
          इसी भीड में भूल से दो नमक के पुतले भी आ गये थे, उन्होंने विवाद करने वालों को सलाह दी कि रुको,हम सागर में कूदकर पता लगाते हैं कि सागर कितना गहरा है । विवाद करने वालों ने कहा कि सागर में जाने की जरूरत ही क्या है, जबकि शास्त्र हमारे पास है,और इस शास्त्रों में गहराई लिखी हुई है,क्योंकि ये शास्त्र ईश्वर ने लिखे हैं । नमक के पुतले को संतुष्टि नहीं हुई वह सागर में कूद गया । गहरे और गहरे सागर में, लेकिन जितना गहरा गया ,एक नई समस्या शुरू हो गई गहराई का तो पता चलने लगा लेकिन पुतला मिटने लगा, नमक का पुतला था पिघलने लगा । तल में पहुंच भी गया मगर लौटने का कोई उपाय नहीं बचा । सागर में खो गया सागर की गहराई भी जान ली,लेकिन बताएं कैसे ? इसलिए सत्य को जानने के लिए मिटना होता है, स्वयं को खोना होता है । सागर की गहराई का पता फिर भी नहीं लग पाया ।
 
          किनारे पर बैठे लोग कह रहे थे कि इस सागर में कूदकर कई लोग खो चुके हैं,गहराई का कोई खबर नहीं ला सका । हमने पहले ही कहा था कि शास्त्रों में खोजना चाहिए ।वह नमक का पुतला तो पागल था । फिर विवाद शुरू हुआ । नमक केदूसरे पुतले कहा मैं अपने मित्र को खोजकर लाता हूं ,खेोजने चला गया । मित्र तो नहीं मिला लेकिन खुद ही खो गया,लेकिन खुद को खोकर मित्र तो मिल गया । मित्र तो तभी मिलता है जब खुद को खोने की क्षमता रखता हो ।उससे पहले कोई मित्र नहीं मिलता । मित्रता का अर्थ है खुद को खोना । स्वयं खो गया,मित्र भी मिल गया,सागर भी मिल गया, गहराई का पता भी चल गया । लेकिन कहा जाता है कि वे दोनों लहरों-लहरों में चिल्लाने लगे कि इतनी है गहराई है ! इतनी है गहराई है !
 
          लेकिन किनारे बैठे लोग शास्त्रों में फिर खो चुके थे, लहरों की कौन सुने !बल्कि कई बार ये पंडित कह रहे थे कि इन सागर की लहरों के शोरगुल के कारण हमारी बहस में बडी वाधा पड रही है । अच्छा हो हम सागर से दूर चलें और वहॉ हम अपने शास्त्रों पर बहस करें । जबकि सागर कह रहा है कि जानलो रे सागर की गहराई कितनी है लेकिन पंडितों ने अनसुनी कर दी । वे सागर का पता लगाने के लिए सागर तट से दूर चले गये । लेकिन लोग कहते हैं कि अब भी वे शास्त्रों को खोलकर विवाद कर रहे हैं । वे सदा ही करते रहेंगे ।
 


Wednesday, October 10, 2012

ध्यान खरीदा नहीं जा सकता

                                                               
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

ध्यान
     

           ध्यान एक ऐसा मेहमान है जो एक बार अन्दर धुस जाय तो फिर बाहर नहीं कर पायेंगे,क्योंकि वह अपने साथ इतना आनन्द और शॉति लाता है कि इन्हैं कौन बाहर कर सकता है ? एक बार प्रयोग के लिए इसे भीतर आने तो दें ,फिर देखना यह फिर कभी बाहर न जा सकेगा । और अगर कोई कहेगा भी कि इसे बाहर कर दो एक करोँण रुपये में इसे हम लेते हैं,लेकिन आप राजी न होंगे । इससे हमारे अन्दर की स्थिति बदलती है,जिससे बाहर का आचरण स्वयं बदल जाता है । अगर कुछ देर के लिए यह अन्दर ठहर जाय तो पूरी जिन्दगी को पकड लेगा । इतिहास में कई घटनाओं के उदाहरण हैं ।
 
          एक बार एक सम्राट महॉवीर के पास मिलने आया और महॉवीर से कहा कि मैने सब कुछ पा लिया है । मैं ध्यान की चर्चा सुनता हूं ,यह क्या है ? यह कितने में मिल सकता है ? मैं इसे खरीदना चाहता हूं ? यह सम्राट चीजें खरीदने का आदी था ।महॉवीर ने कहा,यह खरीदने से नहीं मिलेगा,इसे तो गरीब से गरीब आदमी भी बेचने को राजी नहीं होगा ।
 
          उस सम्राट ने कहा, फौजें लगा देंगे,जीत लेंगे । यह है क्या बला ध्यान ? फिर भी कोई रास्ता बताओं, सम्राट ने महॉवीर से कहा । मैने सब कुछ पा लिया बस यह ध्यान भर रह गया है, यही खटकता है कि अपने पास ध्यान नहीं है । महॉवीर ने कहा ?तुम धन पाने के आदी हो,जमीन पाने के आदी हो,उसी तरह ध्यान पाने चले हो ? तुम नहीं पा सकोगे । अगर इतनी ही जिद्द करते हो तो तुम्हारे गॉव में एक गरीब आदमी है,उसकेपास चले जाओ,उसे ध्यान मिल गया है, उसे तुम खरीद लो ।
 
          सम्राट उस गरीब के दरवाजे पर गया,रथ से उतरकर उस गरीब को देखा, बहुत गरीब, एक झोपडे में । महॉवीर ने कहॉ,खरीद लेंगे,पूरे आदमी को खरीद लेंगे !उसने बडे हीरे-जवाहरात उसके दरवाजे पर डाल दिया और कह कि और चाहिए तो बताओ और दे देंगे,जो भी तेरी मॉग है दे देंगे लेकिन उस ध्यान को दे दे !
 
          उस आदमी ने कहा आपने तो मुझे बडी मुश्किल में डाल दिया, चाहे आप अपना साम्राज्य दे दे ,तो भी में ध्यान को न दे सकूंगा । इसलिए कि यह कोई बडी सम्पत्ति नहीं है ,और इसलिए भी न दे सकूंगा कि वह मेरी आत्मा की आत्मा है ,मैं उसे निकालकर कैसे दे सकता हूं ? अगर कोई लेना भी चाहेगा लेकिन उसे दे भी नहीं सकता हूं ।
 

Sunday, October 7, 2012

परमात्मा की तलाश


 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
  

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1-जीवनभर मन में भरते है फिर भी खालीपन -

 

          हमारा मन एक गहरी खाई,के समान है जिसमें नीचे कोई तलहटी नहीं है ।जिसमें हम गिरें तो गिरते ही रहेंगे । कहीं पहुंच नहीं सकते हैं ।इस मन में जिन्दगीभर का अनुभव होने पर भी रिक्तता रहती है ।जब देखो खालीपन ।लेकिन फिर भी हम जोर से चले जाते हैं । यही तो पागलपन है ।
 
          एक फकीर के पास एक बार एक आदमी आया उसने फकीर से कहा कि मैं परमात्मा को देखना चाहता हूं,कोई रास्ता बताओ ! मुझे लोगों ने बताया कि आप यह रास्ता बता सकते हो । उस फकीर ने कहा,अभी तो मैं कुंएं पर पानी भरने जा रहा हूं,तुम भी मेरे साथ चलो । हो सकता है कुंएं में पानी भरने में ही रास्ते का पता चल जाय । और न चले तो वापस साथ चले आयेंगे । फिर आपको रास्ता बता दिया जायेगा मगर ध्यान खना विना रास्ते का पता चले वापस न जाना । उस आदमी ने कहा क्या बात करते हैं आप मैं परमात्मा को खोजने निकला हूं वैसे ही नहीं लौटूंगा ।
 
          फकीर दो बाल्टियॉ अपने हाथ में लीं,रस्सी उठाई और उस आदमी से कहा जब तक मैं पानी न भर लूं तब तक सवाल न उठाना बीच में । यह तुम्हारे संयम की परीक्षा होगी ,फिर लौट के सवाल पूछ लेना । उस आदमी ने सोचा मुझे क्या लगी है बीच में बोलने की, मैं तो परमात्मा को खोजने निकला हूं । वह फकीर कुएं पर पहुंचा और विना तली के वर्तन को कुएं में पानी निकालने के लिए डाल दिया ।उस आदमी के मन में खयाल आया कि यह क्या कर रहा है,क्योंकि उस वर्तन में तली ही नहीं है,लेकिन मुझे कुछ कहने के लिए मना किया है । कुछ देर रुका लेकिन फिर वह सहन शक्ति से बाहर हो गया ,वह दिये गये वचलों को भूल गया और कहने लगा यह क्या पागलपन कर रहे हो ?इस वर्तन में तो कभी पानी भरेगा ही नहीं । उस फकीर ने कहा शर्त टूट गई,अब तुम जा सकते हो ।क्योंकि मैंने कहा था कि जबतक में पानी न भर लूं और लौट कर न आऊं तबतक तुम सवाल न उठाना । उस आदमी ने कहा कि तुम जैसा पागल नहीं हूं मैं ।
 
          वह आदमी उस फकीर को छोडकर चला गया । जाते समय उस फकीर ने कहा कि जो अभी पागल ही नहीं है वह परमात्मा की खोज करने कैसे निकलेगा । वह आदमी लौट गया मगर रात में उस फकीर का वचन कि जो आदमी पागल भी नहीं वह परमात्मा की खोज करने कैसे निकलेगा ? यह बात उसके सपनों में घुस गई ।बार-बार करवट लेता,वे शव्द उसे गूंजते सुनाई दे रहे थे । क्या इतना पागल हो सकता है कि ऐसे वर्तन से पानी भरे जिसमें पानी टिकता ही नहीं ? फिर खयाल आया कि उस फकीर ने घर से चलते वक्त यह भी कहा था कि अगर तुम मौन से मेरे साथ रहे तो हो सकता है पानी भरने में ही तुम्हारे सवाल का जबाव मिल जाय।
सुबह होते ही वह आदमी फकीर के पास गया और कहने लगा मुझे माफ कर,लगता है मुझसे भूल हो गई है । पानी भरते समय मुझे सवाल नहीं उठाना था । मुझे चुपचाप देखना था । कहीं आप मुझे शिक्षा तो नहीं दे रहे थे ?
 
          फकीर ने कहा इससे बडी शिक्षा और क्या हो सकती है,मैं तुमसे यही कह रहा था कि तुम मुझे पागल कह रहे हो ,और अपने तरफ नहीं देखते कि जिस मन में तुम जिन्दगी भर से भरते चले जा रहे हो वह अभी तक खाली का खाली है,उसमें कुछ भी नहीं भर पाया है,इसका मतलव यह मन भी विना पेंदी के वर्तन के समान है । लेकिन हमने इस मन में बहुत सी चीजें भर दी हैं,मगर अबतक कोई भी चीज भरी नहीं है,बूढे का मन भी उतना ही खाली होता है जितना बच्चे का । हम भरते चले जाते हैं । लेकिन अगर मन खाली है और चाहो तो जोर से भर लो, तो भर जायेगा । लेकिन फिर देखते हैं कि मन फिर खाली का खा खाली है, जरा भी नहीं भरा । परमात्मा हमारे पास है लेकिन उसकी तलाश में हम कहॉ-कहॉ भटकते रहते हैं यह पागलपन नहीं तो और क्या है ।
 
 

2-क्या परमात्मा के न मिलने से हम पीढित है -

 
          हमें परमात्मा नहीं मिल रहा है लेकिन हमारा कार्य बराबर चल रहा है,कभी-कभी किसी दुख में उसकी याद आती है ,इस आशा में कि दुख दूर हो जाय । इसलिए सुख में लोग परमात्मा को याद नहीं करते हैं । लेकिन जिस परमात्मा की याद दुख में आती है,वह याद झूठी है,क्योंकि वह दुख के कारण आती है । परमात्मा के कारण नहीं आती है । सुख में तो उसे ही याद आती है जिसे उसका अभाव खटक रहा है ।
 
          जिसके पास महल हो,धन हो, सब कुछ हो और फिर भी कहीं कोई खाली जगह हो जो धन से भी नहीं भरती है,मित्रों से भी नहीं,पत्नी से भी नहीं,पति से भी नहीं भरती हो बस उस खाली जगह में परमात्मा के बीज का पहला अंकुर होता है । देखें अनुभव करें कि क्या वह खाली जगह आपके पास है ? क्या आपके ह्दय का कोई खाली कोना है जो किसी चीज से भरता नहीं है ? खाली ही रहता है ।
 
 

3-आपके मन का मन्दिर गिर चुका है -

          यह एक तखलीफ वाली बात है कि आपके प्रॉणों का मन्दिर गिर चुका है. उस मन में सिर्फ किराये के पुजारी रह गये हैं । यही सत्य है । क्योंकि उस मन्दिर से परमात्मा निकल चुका है । उसे वापस लाने के लिए खोज में निकल पडे हैं । लेकिन बाहर के उस मंदिर का पुजारी चाहेगा कि ह्दय का परमात्मा न खोजा जाय ।क्योंकि जब ह्दय के परमात्मा को खोज लेता है तो बाहर के मंदिर के परमात्मा की फिक्र छोड लेता है । यह भी निश्चित है कि धर्म के ठेकेदार चाहेंगे कि असली प्रतिमा प्रकट हो गई तो बाजार में विकने वाली प्रतिमॉओं का क्या होगा ?आदमी बडा बेइमान है वह नकली परमात्मा से राजी होने को तैयार है । लेकिन हम सही परमात्मा को खोजने को नहीं जाते हैं जब नकली से काम चल जाता है तो कौन असली को खोजने जाए ?
 
          इसी प्रकार धर्म भी नकली है । असली धर्म तो एक दॉव है । नकली ईश्वर के लिए तो हमें कुछ भी नहीं खोना होता है,जबकि असली ईश्वर के लिए हमें अपने को पूरा ही खो देना होता है । नकली ईश्वर से हम खुद ही कुछ मॉगने जाते हैं । असली ईश्वर को तो अपने को ही देना होता है । नकली ईश्वर आसान है,सुविजापूर्ण है जबकि असली ईश्वर खतरनाक है, जिन्दा आग है,उसमें जलना होता है,मिटना पडता है ,राख हो जाना पडता है । और बडी बात तो यह है कि वे ही अपने द्ददय के मंदिर में परमात्मा को बुला पाते हैं जो अपने को राख करने के लिए तैयार है । इस धर्म का नाम है प्रेम । प्रॉणों में जो प्रेम की आग जलाने को तैयार है,वह परमात्मा को पाने का हकदार हो जाता है ष लेकि हकदार वही होता है जो खुद को खोने को तैयार है । परमात्मा को पाने शर्त उल्टी है शायद इसीलिए हमने परमात्मा को खोजना बंद कर दिया है । वैसे खोजा तब जाता है जब खो गया हो,लेकिन तुमने परमात्मा को खोया कैसे ?क्योंकि खोने की कोई वजह होगी, कोई तरकीव होगी, तो फिर खोजने की तरकीव उससे उल्टी होती है ।
 
          इसी संदर्भ में एक बार जब महात्मा बुद्ध सुबह के समय एक गॉव में आये वहॉ के लोग उन्हैं सुनने के लिए इकठ्ठा हुये ,वबुद्ध अपने हाथ में एक रेशमी रूमाल लेकर आये और बैठ गये । वे रेशमी रूमाल में गॉठ वाधना शुरू करने लगे पॉच गॉठें बॉधी और फिर बैठ गये । बुद्ध ने लोगों से पूछा कि इन गॉठों को कैसे खोला जाय,और रुमाल को जोर से खींच लिया , तो वे गॉठेंम औक भी अधिक कस कर बंध गई । एक आदमी ने खडे होकर कहा ,कृपया खींचिये नहीं ,वरना गॉठें और बंध जायेंगी । बुद्ध ने कहा मैं इन गॉठों को खोलने के लिए क्या करूं ? तो उस आदमी ने कहा कि पहले मुझे गॉठों को देख लेने दो कि वे गॉठें किस ढंग से बंधी हैं । क्योंकि जो उनके बॉधने का ढंग होग ,ठीक उससे उल्टा उनके खोलने का ढंग है ।और जबतक यह पता न हो कि कैसे गॉठ बॉधी गई है,तब तक खोलने का काम खतरनाक है । उसमें और अधिक गॉठ बंध सकती है,और उलझ सकती है । इसलिए पहले गॉठ को ठीक से समझ लेना जरूरी है कि वह कैसी बंधी है तभी खोलने का काम शुरू करना उचित है ।
 
          जो लोग ईश्वर के बारे में पूछते हैं उनसे यही कहना है कि तुमने खोया कहॉ ?तुमने खोया कैसे ?और गॉठ बंधी कैसे ? लेकिन उनको इस सम्बन्ध में कोई पता नहीं ।कोई याद नहीं । उन्हैं यह भी पता नहीं कि उन्होंने परमात्मा को खोया है । जिसे हमने खोया ही नहीं ,उसे हम खोजने कैसे निकलें । खोजने कोई निकलता ही नहीं । हम उसी को खोज सकते हैं जिसके खोने की पीडा गहन हो,जिसका विरह अनुभव हो रहा हो । और मिलन का आनन्द भी तो उसी के साथ हो सकता है,जिसके विरह की पीडा हमने झेली है । हम तो ईश्वर के विरह में जरा भी पीढित नहीं हैं और कोई भी पीढित नहीं है ।
 
          यह बात सही है कि लोग पीढित है मगर उनके पीढित होने के कारण दूसरे हैं ।कोई धन न होने से पीढित है,तो कोई यश के न होने से पीढित है किसी का कोई और कारण है ।लेकिन ऐसा कोई आदमी खोजने से कभी मिल मिल पाता है जो परमात्मा के न होने से पीढित है । उस आदमी को धार्मिक आदमी कहा जाता है ।


Saturday, October 6, 2012

जीवन में विश्राम शब्द उपयुक्त नहीं है

 

 

 

 

 

 

 

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1-          एडिंगटन एक बहुत बडे वैज्ञानिक हुये हैं,उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि आदमी की भाषा में रेस्ट,विश्राम शव्द झूठा है ।क्योंकि पूरी जिन्दगी के अनुभव के बाद मैं यह कहता हूं कि कोई भी चीज विश्राम में नहीं है,या तो चीजें आगे जा रही हैं या तो पीछे।कोई भी चीज ठहरी नहीं है,रेस्ट नाम की चीज नहीं है ।

 

2-          इसका मतलव यह हुआ कि या तो आप खोयेंगे या आप पायेंगे । अगर आप पा नहीं रहे हैं तो आप पूरे समय खो रहे हैं ।लेकिन पहले पता तो चल जाय कि हम कुछ पा रहे हैं हमें कुछ मिल रहा है ।जिस मनुष्य के मन में यह प्रश्न उठता है, उस मनुष्य को परमात्मा से बहुत दिनों तक दूर रखने का कोई कारण नहीं है ।आज नहीं तो कल या परसों परमात्मा की ओर यात्रा जरूर शुरू हो जायेगी । हमारी जिन्दगी में जो भी है कुछ भी ठहरता नहीं है जिन्दगी एक धारा है ,नदी है । चीज चली जाती है लेकिन हम परेशान रहते हैं ।

 

3-          एक आदमी गाली देता है ,वह गाली आती है,गूंजती है और चली जाती है । और हमारी नीद रातभर खराब हो जाती है कि उसने गाली दी । जबकि गाली टिकती नहीं है, लेकिन हम गाली पर टिक जाते हैं । जिन्दगी एक बहाव है लेकिन हम हर चीज पकडकर रखते हैं ।

 

4-          महात्मा बुद्ध का नाम सुना होगा आपने,एक दिन सुबह किसी आदमी ने बुद्ध के ऊपर थूक लिया इसलिए कि वह क्रोध में था, बुद्ध ने कपडे से अपना मुंह पोंछ लिया और उस आदमी से कहा ,और कुछ कहना है ? जबकि उस आदमी ने कुछ कहा नहीं था बल्कि सीधा अपमान किया था । बुद्ध ने कहा,जहॉ तक मैं समझता हूं,तुम कुछ कहना ही चाहते हो,लेकिन शव्द कहने में असमर्थ होंगे,इसलिए थूककर तुमने कहा है ।अक्सर ऐसा होता है कि प्रेम में हो तो शव्द से नहीं कह पाता है तो वह गले से लगा लेता है ।कोई बहुत श्रद्धा में होता है तो,शव्द से नहीं कह पाता तो चरणों पर सिर रख देता है । इसी प्रकार अगर कोई क्रोध में होता है तो शव्द से नहीं कह पाता है थूक देता है । । इसलिए बुद्ध ने कहा मैं समझता हूं कि तुमने कुछ कहा है ।,और भी कुछ कहना चाहते हो ?

          वह आदमी मुश्किल में पड गया ।वह वापस लौट गया । रात भर सोया नहीं । सुबह बुद्ध से क्षमा मॉगने आया। कहने लगा मुझे क्षमा कर दें । बुद्ध ने कहा किस बात की क्षमॉ मांगते हो ?उसने कहा मैंने कल आपके ऊपर थूक दिया था । बुद्ध ने कहा, न अब थूक बचा और न अब कल बचा,न अब तुम वहॉ हो, न अब मैं वहॉ हूं। कौन किसको क्षमा करे ?कौन किसपर नाराज हो ?चीजें सब बह गईं । तुम भी वहॉ नहीं हो ।क्योंकि कल तुमने थूंका ,आज तुम चरणों पर सिर रखते हो ।कैसे मानूं कि तुम वहीं हो ।

 

5-           मेरा एक साथी बहुत क्रोधी है वे बार-बार मुझसे पूछते थे कि मैं क्रोध से बचने के लिए क्या करूं ।कई उपाय अपनाये मगर कोई भी काम न आया काफी संयम साधा मगर क्रोध और भी अधिक आने लगा था, फिर मैनें उन्हैं इक कागज पर लिखकर दिया कि इस क्रोध से मुझे क्या मिल जायेगा । उस कागज को मोडकर उस दोस्त से कहा कि इसे अपने जेब में रख लो और जब भी क्रोध आये इस कागज को निकालकर पठ लेना और फिर जेब में रख लेना । वे पन्द्रह दिन बाद मेरे पास आये और कहने लगे बडा अजीव कागज है इसमें कुछ रहस्य,कोई मंत्र,कोई जादू जरूर है ? मैने कहा इसमें कोई रहस्य या मंत्र नहीं है ,एक साधारण कागज पर हाथ की लिखावट है । अब तो हालत यह हो गई थी कि उस कागज को निकालकर पढना भी नहीं पडता था ,बस हाथ जेब में डाला नहीं कि क्रोध का मामला विदा हो जाता था । जैसा ही खयाल आया कि इस क्रोध से क्या मिल जायेगा ? क्रोध अपने आप विदा हो जाता । जिन्दगीभर का अनुभव है कि कभी कुछ मिला नहीं है ।सिर्फ खोया जरूर है ,मिला कुछ भी नहीं है ।

          ध्यान रखना चाहिए कि जिस चीज से कुछ नहीं मिलता,यह न समझें कि सिर्फ कुछ नहीं मिलता । जिससे कुछ मिलता है,उसमें कुछ खोता भी जरूर है, इस जिन्दगी में या तो माइनस होता है या प्लस । या तो कुछ मिलता है या कुछ खोता है । बीच में कभी नहीं होता है । पूरी जिन्दगी में या तो कुछ मिलेगा या खोयेगा । और यदि आपको कुछ नहीं मिला तो आपने कुछ खोया जरूर है । जिसका कि आपको पता नहीं है अपने जगह पर खडे नहीं रह सकोगे यातो आगे जाओगे या पीछे ।






 

 

Monday, October 1, 2012

अपनी पहचान


 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

1- -दृढ संकल्पवान बनें-             

 

क-          हमें साहसी और शक्तिशाली बनने का संकल्प लेना होगा,कभी भी अपने वाह्य परिस्थितियों से भयभीत नहीं होना है ,चाहे वे कितनी ही भयानक क्यों नहों । इसके लिए आपको अपने भीतर दिव्य सत्ता को धारण करना होगा । आप एकॉकी एवं असहाय नहीं हैं ,आप चाहे जहॉ भी हों,आप जो भी करते हों ,आपको सिर्फ अपने आंतरिक प्रकाश को अपने साथ जोड देना है ,फिर एक चमत्कारी दैवीय शक्ति का प्रवाह आपके भीतर होगा । तभी आप शक्तिशाली बन पायेंगे । तभी आप जीवन की चुनौतियों को स्वीकार कर बीरता पूर्वक उनका सामना कर सकेंगे ।

 

ख-          आप अपने भीतर तनाव उत्पन्न करके समस्याएं उत्पन्न कर देते हैं । बाहरी जगत की सहानुभूति और समर्थक आप में शक्ति नहीं भर सकते हैं, कोई भी आपकी सहायता तबतक नहीं कर सकता जबतक आप में स्वयं दृढ इच्छाशक्ति न हो और आप भय तथा चिन्ता को न फेंक दें । दुर्वल न बनें ! क्योंकि दुर्वल मनुष्य तिरस्कार और दया का पात्र बनने के साथ अपने और दूसरों के लिए नईं समस्याएं उत्पन्न करता है ।

 

ग-          अगर देखें तो मनुष्य अपने मन से ही जीता है, मनुष्य वही होता है जो उसका मन होता है, एक स्वस्थ मन रोगों से संघर्ष करने के लिए प्रतिरोधात्मक शक्ति विकसित कर लेता है । यदि मन तुच्छ बातों पर चिन्ता करने की आदत बना लेता है तो अगणित कष्ट उसे घर कर व्यथित कर लेते हैं । वास्तव में जीवन मनुष्य को बूढा नहीं करता है बल्कि तनाव उसे बूढा कर लेता है ।

 

घ-          अगर आप दुर्वल हैं तो इसके दोषों से आप बच नहीं पायेंगे,आपको इनपर विजय प्राप्त करनी होगी वरना आप नष्ट हो जायेंगे । यदि आप अपनी दुर्वलता से संघर्ष करना चाहते हैं तो आप जहॉ पर भी है जैसे भी है इसी वक्त संघर्ष प्रारम्भ कर लें ।

 

ड.-          आप जैसे भी हैं,अपने को स्वीकार करना होगा,अतीत की भूलों और हानियों पर शोक न करें । वर्तमान क्षण को प्रारम्भ विन्दु मानकर जीवन को आगे बढते रहने वाले क्रम में सम्मिलित हो जॉय । अपको अपनी दुर्वलताओं पर विजय प्राप्त करने के लिए अपनी विचार प्रक्रिया को नईं धारा और शिक्षा देनी चाहिए ।

 

च-          आपको विश्वास करना होगा कि आप एक क्षण में ही अपने भीतर जो चिन्ता और भय है उसे भगा देंगे । आपमें यह शक्ति है । आप अपने जीवन में घटनाओं की धारा को दिशा दे सकते हैं, उसके प्रवाह को परिवर्तित कर सकते हैं । आपको यह विश्वास करना होगा कि आप ऐसा कर सकते हैं ।

 

छ-          यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि आपकी इच्छाशक्ति शिथिल हो जाती है तो दैवीय सत्ता की सहायता के लिए प्रार्थना करें आपके अन्दर संसाधनों की पुनः आपूर्ति हो जायेगी और आपको शक्तिशाली बना देगी ।

 

ज-          मनुष्य की इच्छाशक्ति दैवी शक्ति से जागृत होती है इसके लिए गहन स्तर पर अन्तः तारतम्य कर लेना चाहिए । भाग्य में विश्वास न करें इससे मनुष्य दुर्वल हो जाता है और दैवी सत्ता में विश्वास उसे शक्तिशाली बना देता है ।यही आन्तरिक शक्ति का श्रोत है ।

 

 

2 -दोषारोपण करने में सावधान रहें-

          दूसरों पर दोषारोपण करने तथा उसकी भर्त्सना करने में सावधानी रखनी चाहिए । क्योंकि भर्त्नवा करने का मतलव गलत कार्य को हतोत्साहित करना होता है । इसका उद्देश्य विरोध का प्रतिकूलता का भाव प्रदर्शित करना नहीं होना चाहिए । इसका प्रभाव सुधारात्मक हो सकता है,वसर्ते वह सुझावात्मक और विश्वासत्पादक हो । यदि इसका परिणॉम दण्ड में हो तो यह न्याय संगत,तर्क संगत,और समुचित होना चाहिए, ताकि अनुशासन की वैद्धता की प्रतिस्थापना की जा सके । इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इससे कटुता से कटुता और घृणॉ से घृणॉ उत्पन्न होती है,लेकिन यह भी सही है कि दोष की निन्दा की जानी चाहिए ,इसपर तो सीधे चोट की जानी चाहिए, लेकिन प्रयास रहे कि हम उनके मन पर अंकित करने के लिए सही तरीका अपना रहे हों । अविश्वास की वृत्ति स्वयं अपने लिए तथा दूसरों के लिए अनावश्यक कठिनाइयॉ उत्पन्न कर देती हैं , संकट उत्पन्न हो सकता है । इसलिए अनुशासन की कठोरता और प्रेम की भावना से सकारात्मक दृष्टिकोंण को अपनाया जाय । भाउक व्यक्तियों के साथ व्यवहार करते समय विशेष ध्यान रखना चाहिए ।

 

 

3 -अपनी आदतों को पहचानें-

 

क-          हमारी आदतें हमारे चरित्र का आधार हैं,यदि आप स्वस्थ और सुखी जीवन यापन करना चाहते हैं तो श्रेष्ठ आदतें विकसित करें और निकृष्ठ आदतों को त्याग दें , क्योंकि आदतें हमारेअभ्यस्थ व्यवहार में प्रविष्ठ हो जाती है , आदतों को ग्रहण करने या छोडने में संगति का अधिक प्रभाव पडता है,इसलिए अच्छी संगत को चुनें । जीवन में भली या बुरी आदतें अपना स्थान लेती हैं, अच्छी संगत से अच्छी आदतें और बुरी संगत से बुरकी आदतें बनेंगी । कुछ लोग तनाव से मुक्ति के लिए मादक पदार्थों का प्रयोग करते हैं ,जिससे उन्हैं उनके प्रयोग की लत लग जाती है। जितना अधिक तनाव मुक्ति के लिए मादक पदार्थों का प्रयोग करेंगे उतना ही वे उनके दास होते चले जाते हैं । वे मादक पदार्थ मनुष्य को मिथ्या सुख के बोध की ऊंचाइयों तक ले जाते हैं,यह सुख अल्प समय के लिए होता है । कुछ लोग इसे ऊंचा उठना या सृजनशीलता से जोडते हैं यह एक कुतर्क है, क्योंकि मादक द्रव्य मानव का सब प्रकार से पतन कर देते हैं ।

 

ख-          यदि आप निराश हैं या उकताये हुये हैं तो आप ऐसी पुस्तकें पढ सकते हैं जो आपको जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए आशावान और साहसी बनने की प्रेरणॉ देने के अतिरिक्त आपके मन को भी स्वास्थ्यप्रद भोजन दे सकें । आप शैर-सपाटे के लिए या मित्रों से भेंट करने के लिए जा सकते हैं या ताजगी के लिए प्रकृति के सानिध्य में जा सकते हैं । मानसिक दवाव पर विजय प्राप्त करने के लिए मादक पदार्थों का सहारा लेने की अपेक्षा ध्यान के लिए रुचि जागृत कर सकते हैं । धीरे-धीरे आप ध्यान के लाभ से परिचित हो जायेंगे तो फिर सबकुछ प्राप्त हो जायेगा ।

 

 

4 -शॉत रहने की आदत डालें-

 

          हर मनुष्य सुखी रहना चाहता है,कोई भी कार्य करता है उसकी हर गतिविधि का उद्देश्य सुख की प्राप्ति करना होता है । कोई भी मनुष्य तबतक सुख की प्राप्ति नहीं कर सकता है जब तक वह मन में शॉत न हो। मन में शॉति धारण करके ही आप विषम परिस्थितियों का सामना कर सकते हैं,तभी किसी समस्या का सामना कर सकते हैं । श़ॉति मानव के जीवन की प्रमुख आवश्यकता है। इसलिए सब परिस्थतियों में शॉत रहना सीखें । सदैव श़ॉत रहने का अभ्यास करें ताकि आप इस जीवन को जो वरदान मिला हैं अनका सुख प्राप्त कर सकें । आपको ध्यान का अभ्यास करना होगा, तभी आप स्वच्छ और सादा जीवन यापन कर पायेंगे, तभी आप सुखी रह सकते हैं ।

 

 

5.- जीवन को सुखद संगीत बनायें-

 

क-          हमें जीवन का सच्चा आनंद लेना सीखना चाहिए,इसके लिए हमें अपने जीवन को एक सुखद संगीत बनाना होगा । हमारा मन जब एक दिव्यता के साथ तारतम्य स्थापित कर लेता है तो उसकी सारी असंगत बडबडाहट समाप्त हो जाती है । वह सुसंगत विचारों तथा भावनाओं के लय से उत्पन्न एक मधुर राग प्राप्त कर लेता है । यही जीवन का उल्लास है ।

 

ख-          आप अपने जीवन को बनाने या बिगाडने में स्वतंत्र हैं । जिस मनुष्य ने जीवन को चमकाने का संकल्प लिया है उसके लिए वह दुखी नहीं रह सकता है,वह तो दुख में सुख का अनुभव करता है ।

ग-हम अपने जीवन के रास्ते को सकारात्मक या नकारात्मक होने में स्वतंत्र हैं । इसीलिए हम अपने भाग्य के निर्माता और स्वामी हैं ।

 

घ-          हम प्रत्येक क्षण अपने विचारों और कृत्यों से अपने भविष्य का निर्मॉण करते हैं । हम हमेशा अपने भविष्य का निश्चय स्वयं करते हैं । हमारा प्रत्येक विचार जिसका हम स्वागत करते हैं तथा जिसे हम आश्रय देते हैं उस दिशा को सूचित करता है, जिसकी ओर हम बढ रहे हैं । हमारा एक विचार न केवल कर्म का बीज होता है बल्कि एक अद्भुत बल भी होता है, जोकि चमत्कार कर सकता है । एक शानदार विचार को प्रभावपूर्ण ढंग से ग्रहण करना, एक तीखी कील पर बैठने जैसा है जो आपको उछाल दे तथा क्रियाशील कर दें ।

Friday, September 28, 2012

सहज योग क्या है

         

 

 

         

 

          सहज शब्द संस्कृत के दो शब्दों को जोड़ कर बना है। ‘सह’ का अर्थ है ‘साथ’ और ‘जा’ का अर्थ है‘जन्म’। जब यह दोनों शब्द एक साथ जुड जाते हैं तो इसका अर्थ है प्राकृत के करीब होना। सहज योगा के अनुयाईयों का विश्वास है कि उनके अंदर कुंडलिनी का जन्म होता है और वे उन्हें स्वत: जागृत कर सकते हैं।

          आईए जानें सहज योगा से होने वाले फायदे के बारे में। सामान्य स्वास्थ्य के लिए- सहज योगा से शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक रुप से मजबूती मिलती है। साथ ही शरीर में होने वाली बीमारियों को जड़ को खत्म किया जा सकता है। 

          सहज योगा से दिमाग को तनाव झेलने की शक्ति मिलती है। साथ ही आपके सोने के तरीके को भी सुधारता है। इस योगा से व्यक्ति को आसपास के तनाव, दिनभर की थकान व अपने गुस्से को नियंत्रित करने में आसानी होती है।  

          बुरी आदतों व लत से छुटकारा- किसी भी तरह की बुरी आदत व लत से जैसे धूम्रपान, मंदिरा सेवन आदि को छोड़ने के लिए इसका अभ्यास किया जा सकता है।

          संचार कौशल-सहज योगा के नियमित अभ्यास से आप लोगों से अच्छी तरह से पेश आते हैं। साथ ही दूसरों के साथ बेहतर रिश्ते जोड़ने में मदद मिलती है। कुंडलिनी जागरण के माध्यम से शरीर में शक्ति का संचार तथा शरीर को निरोग रखा जा सकता है ।

          एकाग्रता- सहज योगा से लोगों में एकाग्रता बढ़ती है और जो वे जीवन में हासिल करना चाहते है आसानी से कर सकते हैं।

हमारी अपेक्षाएं

http://raghubirnegi.wordpress.com/

 

 

1-हमारे विचार और आकॉक्षाएं-

          अच्छे विचार और आकॉक्षाएं हमें शक्ति,स्थिरता,और शॉति प्रदान करते हैं । इसलिए भद्र विचारों का हमेशा स्वागत करें,और अभद्र विचारों का बिष्कार कर देना चाहिए । आपने अनुभव किया होगा कि भव्य विचार उल्लास पैदा करते हैं मन का पोषण करते हैं । हमारे भीतर प्रशन्नता का अर्थ है बाहर प्रशन्नता,सर्वत्र प्रशन्नता । यदि आप अपने भीतर के धनी हैं तो भौतिक निर्धनता का कोई महत्व नहीं रह जाता, उत्तम विचार भाव मन को आलौकिक कर देता है । भव्य वीचारों के विना तो हम स्वयं को उच्चत्तर सुखों से वंचित कर देते हैं ।

 

2-आंतरिक प्रशन्नता का गुँण-

          आंतरिक प्रशन्नता मन का एक गुंण है ,जिसका विकास किया जा सकता है । यदि आप भीतर से प्रशन्न है तो आपको सारा संसार सुखी दिखाई देगा । हमारे सामने एक चुनौती आती है कि क्या हम इस संसार में प्रशन्न रह सकते हैं ?,क्योंकि स्वार्थी और निष्ठुर लोग हमें चारों ओर से घेरे हुय़े हैं ! वे आपके रक्त को चूसने पर उतारू हैं ! विपत्ति और अभाव आप पर दृष्टि जमा रहे हों तब भी आप प्रशन्न रह सकते हैं, ! लेकिन निश्चित ही उच्तर हॉ में होना चाहिए ! चाहे कुछ भी हो हमें अपने मन की आन्तरिक प्रशन्नता सुरक्षित रखने के लिए स्वयं को प्रशिक्षण देना होगा । हमें यह देखना होगा कि हम सही अर्थ में जीवित तभी तक हैं जबतक हमारा मुख आंतरिक प्रशन्नता से आभामय है । किसी भी परिस्थिति में शॉत और प्रशन्न रहना होगा ,क्योंकि मन को शॉत रखकर ही हम कठिन परीक्षाओं का सामना कर सकते हैं ।

 

3- कथनी और करनी में भेद-

          यह देखा जाता है कि एक सत्यनिष्ठ व्यक्ति वही करने का प्रयास करता है जो वह कहता है । कथनी और करने में अन्तर से मनुष्य दुर्वल हो जाता है । जो व्यक्ति कहता कुछ और है और करता कुछ और वह तो अपनी विश्वसनीयता को खो देता है । उसे लोग गम्भीरता से नहीं लेते हैं और घृणॉ भी करते हैं । वे लोग तो प्रेम, प्रशंसा, और आदर को प्राप्त नहीं कर सकते ! इक ईमानदार व्यक्तु जैसा सोचता है यथा सम्भव वैसा कहता है और जैसा कहता है वौसा ही करता भी है । मिथ्या आचरण से मित्र नहीं बनाये जा सकते हैं और न ही गौरव प्राप्त किया जा सकता है । उपदेश देना सरल है लेकिन उसपर आचरण करना कठिन है उदाहरण प्रस्तुत करना उपदेश देने से अधिक प्रभावकारी होता है । प्रयास रहे कि यथासम्भव जो कुछ आप कहें उसपर आचरण करें । तभी आप अपने परिवेश अर्थात आस-पडोस को अनुकूल बनाने में सहायक हो सकते हैं और स्वयं आप सम्माननीय एवं सुखी रह सकते हैं ।

 

4- समाज में अपनी छवि का महत्व-

          समाज में अपनी छवि का अलग ही महत्व है । छवि का अर्थ है एक सामान्य छाप जो एक मनुष्य अपने शव्दों,आचरण,तथा कार्यों द्वारा दूसरों पर छोड देता है । यह एक प्रतिष्ठा है जिसे कोई व्यक्ति दूसरे पर अनजाने ही छोड देता है । और जिसे अपने चरित्र,और आचरण द्वारा अर्जित करता है । जिस प्रकार का सद्भाव आपको समाज से प्राप्त होता है, वह एक सम्पत्ति के ही समान है , जोकि संकट के समय सहायक सिद्ध होती है । कोई भी मनुष्य समाज में अपनी छवि से ही जाना जाता है ,जिसे वह दूसरों के मन पर अंकित कर देता है,दूसरों के मन पर आपकी छवि आपके मन की छाया है । स्वच्छ छवि के लोग तो जो भी चिंतन और चर्चा करते हैं अपनी छवि के अनुरूप ही करते हैं ।

 

5- आलोचना से आपमें सुधार होगा -

          मैं चाहता हूं कि मेरी आलोचना की जाय , स्वतंत्र हैं आप मैं उत्तेजित नहीं हूंगा । मनैं जो भी हूं वह हूं ही । आलोचना चाहे जितनी कचु और तीक्ष्ण हो,मेरी शॉति और समतुलन पर कोई प्रभाव नहीं पडेगा । कभी-कभी लोग कहते भी है जो कुछ कह रहा है उसे कहने दो । मुक्षे तो स्वयं को सुधारने का प्रयास करना है ।मैं कठोर भर्त्सनाओं की परवाह नहीं करूंगा,मैं आने वाले विषाक्त आक्रमणों से भयभीत नहीं हूंगा शैल की भॉति खडा रहूंगा । छुई-मुई के पौधे की भॉति नहीं बनूंगा । मैं तो अपने उत्तम लक्ष्यों का आशा और साहस से अनुशरण करता रहूंगा । दूसरों की निंदा करने वाले न अपना हित और न समाज का हित करते हैं । ऐसे लोग तो अंत में स्वयं के लिए संकट को आमंत्रित करते हैं । जो भी लोग दूसरों को गढ्ढा खोदते हैं,वे तो किसी दिन स्वयं ही उसमें गिर जाते हैं । और जो लोग दूसरों के हित में रत् होते हैं वे परमात्मा की कृपा प्राप्त कर लेते हैं । यह प्रकृति का भी नियम है ।

          सकारात्मक दृष्टि से यदि स्वच्छ आलोचना की जा रही है तो अच्छी बात है, इससे बुद्ध कुशाग्र तथा दृष्टि पैनी होती है । मनुष्य स्वस्थ आलोचना के प्रत्येक अंश का रसास्वादन कर सकता है,क्योंकि इसमें द्वैष का विष नहीं होता है ।स्वस्थ आलोचना का उद्देश्य तो विषयवस्तु का समुचित मूल्यॉकन तथा उसकी उत्तम व्याख्या करना होता है ।

 

6-संसार से भागना स्वयं का पतन करना है -

          यह संसार आपका ही है । यदि आपने जीवन का अर्थ और उद्देश्य नहीं समक्षा है,तो फिर आप इस संसार से भाग जाने की बात सोचते हैं । कोई भी मनुष्य लोगों के बीच में रहकर ही जीवन का अर्थ और उद्देश्य समक्ष सकता है,चाहे लोग भले-बुरे जैसे भी हों । यदि आप भय के कारण अपने कर्म क्षेत्र से पलायन कर देंगे तो समक्षो आप स्वयं का पतन कर रहे हैं । फिर आप सुखी नहीं रह सकेंगे । इस संसार की अवहेलना करके विना दण्ड के नहीं रह सकेंगे । वह व्यक्ति जो अपने अन्तरात्मा की ध्वनि नहीं सुनता तथा मन को अपने भीतर विराजमान दिव्य सत्ता के साथ समस्वर होने का प्रयत्न नहीं करता वह तो अभागा ही है । ध्यान और गम्भीर चिंतन करें आपको यह जीवन और भी अधिक समक्झ में आ जायेगा । आप सुखी होने में सक्षम हो जायेंगे ।

 

7-अनुभव से मन बलवान बन जाता है -

          हमारी समझदारी किसी भी ज्ञान के भण्डार से कम नहीं है । किसी का भी विवेक उनके व्यक्तिगहत अनुभव से बनता है ,जिससे मन बलवान बनता है । पुस्तकों से जो ज्ञान प्राप्त होता है उसका कोई महत्व नहीं है,जबतक कि गम्भीर चिंतन संप्रेषण और अनुभव से उसे ग्रहण न किया जाय । हमारा अनुभव तो हमारे जीवन का अंग बन जाता है,और यही अनुभव हमें सिखाता है कि उत्साह को विचारशीलता के साथ और नेकी को सतर्कता और साहस के साथ किया जाना चाहिए । अन्यथा चतुर लोग अपने कलुषित उद्देशों के लिए दुरुपयोग कर सकते हैं । अपने अनुभवों से अपना आत्म विश्वास बनता है ।

 

8-आत्म प्रशंसा करना दूर दृष्टि को धुमिल करती है -

          अपनी प्रशंसा में मग्न होना तो बच्चों का सा काम है,इससे मनुष्य की दूर दृष्टि धुमिल हो जाती है । इससे बुद्धिमान व्यक्ति अन्धा जैसा हो जाता है । आत्मप्रशंसा तो मनुष्य की क्षुद्रता को प्रकट करता है ,इसमें वह दूसरों में विद्वेष उत्पन्न कर देता है । मनुष्य को यह सौगन्ध लेने की आवश्यकता नहीं है कि उसके हाथ में गुलाब का फूल है इसलिए कि उसकी सुगन्ध चारों ओर फैल रही है सबको पता है । अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने से दूसरे की प्रतिष्ठा बढ नहीं सकती है,यह भी सही है कि शॉत जल गहरा होता है । हॉ अगर किसी व्यक्ति को सहज ही बधाई मिलती है तो उसे नम्रता पूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिए । सच्ची प्रशंसा तो गुंण की पहचान कराना है,यह स्फूर्ति दायक औषधि के समान होती है जिससे कि प्रोत्सान मिलता है ।

          अगर भावपूर्ण प्रशंसा की जाती है तो इसमें उकताने वाली बात नहीं है, लेकिन जो लोग चापलूस होते हैं वे मानो खाली चम्मच से पेट भर देना चाहते हैं । और यह भी देखा गया है कि कुछ लोग बढचढकर चाटुकारी करते हैं तो यह एक उपहास जैसा प्रतीत होता है,जैसा कि एक नदीं जो कि तट से ऊपर उठकर बहने लगती है तो लाभ के स्थान पर हानि होती है इसी प्रकार सम्मान अच्छा है मगर भारमय हो तो उपयुक्त नहीं है । अति तो अच्छी बात की भी बुरी हो जाती है । वैसे मनुष्य को अपने गुण और दोषों से परिचित होना चाहिए लेकिन ऐसा भी नहो कि गुणों के ज्ञान से मनुष्य धृष्ट बन जाये और दोषों के अनुभव से हतोत्साहित न हो जाय ।।

 

9-अधिक अपेक्षा करना मूरर्खता है -

          हमें अपनी अपेक्षाओं के प्रति समक्षदार होना होगा । हगमारा किसी से कितना ही प्रेम और निकटता का सम्बन्ध क्यों नहो, हमें उनसे अत्यधिक क अपेक्षाएं करना मूर्खतापूर्ण है । इक्षाओं से अपेक्षाएं उत्पन्न होती हैं लेकिन वे कभी मिथ्या भी सिद्ध हो सकती हैं इसलिए अधिक अपेक्षाओं से भ्रमित नहीं होना चाहिए । भले ही अन्तोगत्वा दैवीय व्यवस्था उसी के हित में होती है । इसलिए मनुष्य को उस दैवीय शक्ति के प्रति नतमस्तक हो जाना चाहिए ।

 

10-मर्यादापूर्वक दूरी बनाये रखें -

          हर आदमी का अपने परिवार तथा समाज में एक निर्धारित स्थान होता है ,इसलिए उसे एक निश्चित सीमा में रहना चाहिए ।हमें हर एक से उचित दूरी रखनी होगी ,दूरी का अर्थ घृणॉ करना नहीं बल्कि एक औचित्य पर बल देना है ,इस आधार पर कि एक पवित्र ग्रंथ को भी उचित दूरी पर रखना होती है ताकि उसे ठीक ढंग से पढा जा सके ।यह तभी सम्भव है जब हम अपने परिवार तथा समाज में अनुशासन और व्यवस्था के अनुरूप मर्यादापूर्वक शालीनता से रहते हों।