Wednesday, October 17, 2012

परिवर्तन की नीव

http://raghubirnegi.wordpress.com/
 
1-अन्धविश्वास त्याग कर सबल बनें
 
          जीवन में अगर सबल बनना है तो पहले अन्धविश्वास को त्यागना होगा । हमारी शारीरिक दुर्वलता  और एक तिहाई दुखों का कारण अन्धविश्वास ही है, यही हमारी असली स्थिति हैं। हम आपस में मिलजुलकर नहीं रहते हैं,एक दूसरे से प्रेम नहीं करते हैं,हम स्वार्थी हो गये हैं ।यदि तीन व्यक्ति एकठ्ठा होते हैं तो एक दूसरे की घृणॉ करते हैं,आपस में ईर्ष्या करते हैं।हम सेकडों शताव्दियों से इन्हीं बातों पर वाद-विवाद करते आ रहे हैं ।अगर देखें तो वाद-विवाद का असली कारण पंडित भी है । ऐसे पंडितों से हम क्या आशा कर सकते हैं जो यह बताते हैं कि तिलक इस तरह धारण करना चाहिए ताकि अमुक व्यक्ति की नजर न  लगे। या हमारा भोजन दूषित न हो । इस तरह के अनावश्यक प्रश्नों की मीमॉसा जो कि दोषपूर्ण है, ऐसे दर्शन लिख डालने वाले पंडितों से क्या आशा कर सकते हैं ? अन्धविश्वास से मन की शक्ति नष्ट हो जाती है,उसकी क्रियाशीलता और चिन्तनशक्ति जाती रहती है,जिससे उसकी मौलिकता नष्ट हो जाती है ,फिर वह छोटे-छोटे दायरे के भीतर चक्कर लगाता रहता है । अन्धविश्वासी होने की अपेक्षा घोर नास्तिक होना ठीक है, क्योंकि नास्तिक कमसे कम जीवन्त तो है, उसे तो किसी भी प्रकार से बदला जा सकता है,लेकिन यदि उसमें अन्धविश्वास घुस जाय तो,नास्तिक बिगड जायेगा,दुर्वल हो जायेगा और विनाश की ओर अग्रसर होने लगेगा । इसलिए इन संकटों से बचना जरूरी है ।
 
 
          और खासकर अपने युवा मित्रों से अपेक्षा है कि कहा जाता है कि पहले आत्मा फिर परमात्मा इसलिए गीता पाठ की जगह फुटबाल खेलने में आपकी प्रथमिकता पहले हो, स्वर्ग तुम्हारे निकट होगा । क्योंकि बलवान शरीर से गीता को कहीं अधिक समझा जा सकता है । ताजा रक्त होने से कृष्ण की प्रतिभा को अधिक अच्छी तरह समझा जा सकेगा । जिस समय तुम्हारा शरीर तुम्हारे पैरों के बल दृढ भाव से खडा होगा,जब तुम स्वयं को मनुष्य समझोगे तभी तुम भलीभॉति उपनिषद और आत्मा की महिमा को समझ सकोगे । इसलिए सब प्रकार के रहस्यों से बचें । हर बात में रहस्यता और अन्धविश्वास दुर्वलता के ही लक्षण हैं । ये तो अवनति और मृत्यु के ही चिन्ह हैं । उनसे सदैव बचकर रहें ।बलवान बनो और अपने पैरों पर खडे होने  का संकल्प दुहराओ ।


          हम अपने जीवन में वेकार की बातें करते रहते हैं,हमारे अन्दर सदियों से अन्धविश्वास का जो कूडा करकट भरा पडा है ।हजारों वषों से हम आहार की शुद्धि-अशुद्धि के झगडे में अपनी शक्ति को नष्ट करते रहे हैं । युगों से हाथ में किताब लिय़े घूम रहे हैं । हम आज भी यूरोपियनों के मन से निकली बातों को लेकर बिना सोचे समझे दुहरा रहे हैं । एक दूसरे की गुलामी करते है,भिखारियों की तरह हाथ फैलाते हैं,कभी नौकरी के लिए, कभी मुशीगिरी के लिए,तो कभी मजदूरी के लिए ।इसलिए हमें इस संकरे अन्धकूप से बाहर निकलकर चारों ओर दृष्टि डालनी होगी । हमने इतनी अधिक विद्या सीखी है और भिखारियों की भॉति नौकरी दो- नौकरी दो कहकर चिल्ला रहे हैं । ठोकरें खाते हुये गुलामी करते हैं, क्या यही मनुष्य का स्वभाव है । ऐसी सुजला सुफला भूमि में जन्म लेकर भी हमारा यह स्वभाव बना हुआ है । हम अपने आंखों पर पट्टी बॉधकर कह रहे हैं कि मैं अन्धा हूं, देख नहीं सकता हूं ।थोडा आंखों से पट्टी तो हटा दो तो देखोगे कि सूर्य की किरणों से जगत आलोकिक हो रहा है ।
 
 
 
2-शिक्षा पद्धति की नीव कैसी हो -
 
          पहली बात तो यह है कि विस्तार ही जीवन हैऔर संकोच मृत्यु ,अथवा प्रेम ही जीवन है और द्वैष ही मृत्यु हैं । कहते हैं कि हमारी मृत्यु उस दिन से शुरू हो गई थी जिसदिन से हम अन्य जातियों से घृणां करने लगे थे । इस मृत्यु का एक मात्र उपाय है, मानव जीवन के मूल स्वरूप को अपनाना । पृथ्वी की सभी जातियों से हमें मिलकर रहना होगा । शिक्षा ग्रहण करते समय हमें सावधान रहना होगा पाश्चात्य शिक्षा के उदाहरणों में अधिकॉश असफल देखे गये हैं । पाश्चात्य से तो हम सिर्फ भोग के बारे में कुछ सीख सकते हैं । अपने देश में इस समय दो रुकावटें दिख रही हैं -एक ओर हमारा प्रचीन हिन्दू समाज और दूसरी ओर वर्तमान पाश्चात्य सभ्यता । इनमें से हमें कोई एक को चुनना है, अगर आप मुझसे पूंछें तो मैं प्राचीन हिन्दू समाज ही पसन्द करूंगा । क्योंकि अपरिपक्व होने पर भी हिन्दुओं के ह्दय में एक विश्वास है,एक बल है जिससे वह अपने पैरों पर खडो हो सकता है । लेकिन विदेशी रंग में रंगा व्यक्ति तो मेरुदण्ड विहीन है,वह इधर-उधर के विभिन्न श्रोतों से वैसे ही एकत्र किये हुये अपरिपक्व वेमेल भावों की असंतुलित राशि मात्र है । वह तो अपने पैरों पर खडा नहीं हो सकता है,उसका सिर हमेशा चक्कर खाया करता है,ये लोग निश्चित व्यक्तित्व ग्रहण नहीं कर सकते हैं । ये लोग न स्त्री हैं और न पुरुष या पशु । जबकि अपनी प्राचीन संस्कृति के लोग कट्टर तो थे लेकिन मनुष्य थे,उनमें दृढता थी ।इसलिए अपनी शिक्षा का आदर्श समग्र आध्यात्मिक तथा लौकिक नींव पर आधारित होना चाहिए । आज की आवश्यकता है कि हम सबको एक ही मन का बनना होगा,एक ही विचारों का होना होगा,क्योंकि प्राचीन काल में एक मन होने के कारण ही देवतागण यज्ञ का फल पाने में समर्थ हुये थे ।एक चित्त हो जाने में ही नये समाज का गठन का रहस्य है ।
 
         
           जिन लोगों के देश का कोई इतिहास नहीं है, उनका अपना कोई स्तित्व ही नहीं है ।लेकिन हमें तो गर्व होना चाहिए कि हम इतने बडे वंश की सन्तानें हैं । उस संस्कृति में हम क्या बुरे हो सकते हैं । यही विश्वास हमें लगाम की तरह इस प्रकार खींचे रखेगा कि हम मरते दम तक कोई बुरा कार्य नहीं कर सकेंगे,और हमें कभी नींचा होने नहीं देगा । ऐसा ही तो हमारे देश का इतिहास है !जिसके पास आंखें हैं ,इसी ज्वलंत इतिहास के बल पर आज भी सजीव है । इससे मुझे अपने प्राचीन पूर्वजों के गौरव का बोध होता है । हमने अपने अतीत का जितना भी अध्ययन किया है ,और जितनी ही भूतकाल की ओर दृष्टि डाली है,उतना ही अधिक गर्व हमें होता है । और इसी विश्वास से प्राप्त दृढता और साहस ने हमें इस धरती की धूल से ऊपर उठाया है । हमें यही सोचना है कि मुझमें अनन्त शक्ति,अपार ज्ञान,अदम्य साहस,और उत्साह विद्यमान है, अपने भीतर की उस शक्ति को जगा सको तो महान बन सकते हो । चालाकी से कोई महान कार्य नहीं हो सकता है प्रेम,,सत्यानुराग तथा महॉशक्ति की सहायता से ही सभी कार्य सम्पन्न होते हैं ।
 
 
 
3-शरीर और मन का संयोग-
          शरीर और मन दोनों का विकास आवश्यक है शरीर फौलादी हो लेकिन उसमें तीक्ष्ण बुद्धि भी हो तो यह संसार आपके सामने नतमस्तक हो जायेगा । जीवन के लिए लोहे की नशें,और फौलादी स्नायु जिसके भीतर ऐसा मन निवास करता हो,जो वज्र के समान पदार्थ का बना हो ।बल,पुरुषार्थ,क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज परिलक्षित हो । अपने मस्तिष्क को ऊंचे-ऊंचे आदर्शों से भर लो और उन्हैं दिन रात अपने सामने जाग्रत रखो,तो फिर उसी से महान कार्य होंगे । अपवित्रता के बारे में कुछ भी मत कहना और सोचना । अपने मन से कहते रहो कि-हम शुद्ध और पवित्रता स्वरूप हैं ।इन विचारों से अपना पोषण करते रहो , तो फिर देखोगे आपमें कैसी ज्यौति उत्पन्न होती है ।
 






No comments: