हमारी अपेक्षाएं
1-हमारे विचार और आकॉक्षाएं-
अच्छे विचार और आकॉक्षाएं हमें शक्ति,स्थिरता,और शॉति प्रदान करते हैं । इसलिए भद्र विचारों का हमेशा स्वागत करें,और अभद्र विचारों का बिष्कार कर देना चाहिए । आपने अनुभव किया होगा कि भव्य विचार उल्लास पैदा करते हैं मन का पोषण करते हैं । हमारे भीतर प्रशन्नता का अर्थ है बाहर प्रशन्नता,सर्वत्र प्रशन्नता । यदि आप अपने भीतर के धनी हैं तो भौतिक निर्धनता का कोई महत्व नहीं रह जाता, उत्तम विचार भाव मन को आलौकिक कर देता है । भव्य वीचारों के विना तो हम स्वयं को उच्चत्तर सुखों से वंचित कर देते हैं ।
2-आंतरिक प्रशन्नता का गुँण-
आंतरिक प्रशन्नता मन का एक गुंण है ,जिसका विकास किया जा सकता है । यदि आप भीतर से प्रशन्न है तो आपको सारा संसार सुखी दिखाई देगा । हमारे सामने एक चुनौती आती है कि क्या हम इस संसार में प्रशन्न रह सकते हैं ?,क्योंकि स्वार्थी और निष्ठुर लोग हमें चारों ओर से घेरे हुय़े हैं ! वे आपके रक्त को चूसने पर उतारू हैं ! विपत्ति और अभाव आप पर दृष्टि जमा रहे हों तब भी आप प्रशन्न रह सकते हैं, ! लेकिन निश्चित ही उच्तर हॉ में होना चाहिए ! चाहे कुछ भी हो हमें अपने मन की आन्तरिक प्रशन्नता सुरक्षित रखने के लिए स्वयं को प्रशिक्षण देना होगा । हमें यह देखना होगा कि हम सही अर्थ में जीवित तभी तक हैं जबतक हमारा मुख आंतरिक प्रशन्नता से आभामय है । किसी भी परिस्थिति में शॉत और प्रशन्न रहना होगा ,क्योंकि मन को शॉत रखकर ही हम कठिन परीक्षाओं का सामना कर सकते हैं ।
3- कथनी और करनी में भेद-
यह देखा जाता है कि एक सत्यनिष्ठ व्यक्ति वही करने का प्रयास करता है जो वह कहता है । कथनी और करने में अन्तर से मनुष्य दुर्वल हो जाता है । जो व्यक्ति कहता कुछ और है और करता कुछ और वह तो अपनी विश्वसनीयता को खो देता है । उसे लोग गम्भीरता से नहीं लेते हैं और घृणॉ भी करते हैं । वे लोग तो प्रेम, प्रशंसा, और आदर को प्राप्त नहीं कर सकते ! इक ईमानदार व्यक्तु जैसा सोचता है यथा सम्भव वैसा कहता है और जैसा कहता है वौसा ही करता भी है । मिथ्या आचरण से मित्र नहीं बनाये जा सकते हैं और न ही गौरव प्राप्त किया जा सकता है । उपदेश देना सरल है लेकिन उसपर आचरण करना कठिन है उदाहरण प्रस्तुत करना उपदेश देने से अधिक प्रभावकारी होता है । प्रयास रहे कि यथासम्भव जो कुछ आप कहें उसपर आचरण करें । तभी आप अपने परिवेश अर्थात आस-पडोस को अनुकूल बनाने में सहायक हो सकते हैं और स्वयं आप सम्माननीय एवं सुखी रह सकते हैं ।
4- समाज में अपनी छवि का महत्व-
समाज में अपनी छवि का अलग ही महत्व है । छवि का अर्थ है एक सामान्य छाप जो एक मनुष्य अपने शव्दों,आचरण,तथा कार्यों द्वारा दूसरों पर छोड देता है । यह एक प्रतिष्ठा है जिसे कोई व्यक्ति दूसरे पर अनजाने ही छोड देता है । और जिसे अपने चरित्र,और आचरण द्वारा अर्जित करता है । जिस प्रकार का सद्भाव आपको समाज से प्राप्त होता है, वह एक सम्पत्ति के ही समान है , जोकि संकट के समय सहायक सिद्ध होती है । कोई भी मनुष्य समाज में अपनी छवि से ही जाना जाता है ,जिसे वह दूसरों के मन पर अंकित कर देता है,दूसरों के मन पर आपकी छवि आपके मन की छाया है । स्वच्छ छवि के लोग तो जो भी चिंतन और चर्चा करते हैं अपनी छवि के अनुरूप ही करते हैं ।
5- आलोचना से आपमें सुधार होगा -
मैं चाहता हूं कि मेरी आलोचना की जाय , स्वतंत्र हैं आप मैं उत्तेजित नहीं हूंगा । मनैं जो भी हूं वह हूं ही । आलोचना चाहे जितनी कचु और तीक्ष्ण हो,मेरी शॉति और समतुलन पर कोई प्रभाव नहीं पडेगा । कभी-कभी लोग कहते भी है जो कुछ कह रहा है उसे कहने दो । मुक्षे तो स्वयं को सुधारने का प्रयास करना है ।मैं कठोर भर्त्सनाओं की परवाह नहीं करूंगा,मैं आने वाले विषाक्त आक्रमणों से भयभीत नहीं हूंगा शैल की भॉति खडा रहूंगा । छुई-मुई के पौधे की भॉति नहीं बनूंगा । मैं तो अपने उत्तम लक्ष्यों का आशा और साहस से अनुशरण करता रहूंगा । दूसरों की निंदा करने वाले न अपना हित और न समाज का हित करते हैं । ऐसे लोग तो अंत में स्वयं के लिए संकट को आमंत्रित करते हैं । जो भी लोग दूसरों को गढ्ढा खोदते हैं,वे तो किसी दिन स्वयं ही उसमें गिर जाते हैं । और जो लोग दूसरों के हित में रत् होते हैं वे परमात्मा की कृपा प्राप्त कर लेते हैं । यह प्रकृति का भी नियम है ।
सकारात्मक दृष्टि से यदि स्वच्छ आलोचना की जा रही है तो अच्छी बात है, इससे बुद्ध कुशाग्र तथा दृष्टि पैनी होती है । मनुष्य स्वस्थ आलोचना के प्रत्येक अंश का रसास्वादन कर सकता है,क्योंकि इसमें द्वैष का विष नहीं होता है ।स्वस्थ आलोचना का उद्देश्य तो विषयवस्तु का समुचित मूल्यॉकन तथा उसकी उत्तम व्याख्या करना होता है ।
6-संसार से भागना स्वयं का पतन करना है -
यह संसार आपका ही है । यदि आपने जीवन का अर्थ और उद्देश्य नहीं समक्षा है,तो फिर आप इस संसार से भाग जाने की बात सोचते हैं । कोई भी मनुष्य लोगों के बीच में रहकर ही जीवन का अर्थ और उद्देश्य समक्ष सकता है,चाहे लोग भले-बुरे जैसे भी हों । यदि आप भय के कारण अपने कर्म क्षेत्र से पलायन कर देंगे तो समक्षो आप स्वयं का पतन कर रहे हैं । फिर आप सुखी नहीं रह सकेंगे । इस संसार की अवहेलना करके विना दण्ड के नहीं रह सकेंगे । वह व्यक्ति जो अपने अन्तरात्मा की ध्वनि नहीं सुनता तथा मन को अपने भीतर विराजमान दिव्य सत्ता के साथ समस्वर होने का प्रयत्न नहीं करता वह तो अभागा ही है । ध्यान और गम्भीर चिंतन करें आपको यह जीवन और भी अधिक समक्झ में आ जायेगा । आप सुखी होने में सक्षम हो जायेंगे ।
7-अनुभव से मन बलवान बन जाता है -
हमारी समझदारी किसी भी ज्ञान के भण्डार से कम नहीं है । किसी का भी विवेक उनके व्यक्तिगहत अनुभव से बनता है ,जिससे मन बलवान बनता है । पुस्तकों से जो ज्ञान प्राप्त होता है उसका कोई महत्व नहीं है,जबतक कि गम्भीर चिंतन संप्रेषण और अनुभव से उसे ग्रहण न किया जाय । हमारा अनुभव तो हमारे जीवन का अंग बन जाता है,और यही अनुभव हमें सिखाता है कि उत्साह को विचारशीलता के साथ और नेकी को सतर्कता और साहस के साथ किया जाना चाहिए । अन्यथा चतुर लोग अपने कलुषित उद्देशों के लिए दुरुपयोग कर सकते हैं । अपने अनुभवों से अपना आत्म विश्वास बनता है ।
8-आत्म प्रशंसा करना दूर दृष्टि को धुमिल करती है -
अपनी प्रशंसा में मग्न होना तो बच्चों का सा काम है,इससे मनुष्य की दूर दृष्टि धुमिल हो जाती है । इससे बुद्धिमान व्यक्ति अन्धा जैसा हो जाता है । आत्मप्रशंसा तो मनुष्य की क्षुद्रता को प्रकट करता है ,इसमें वह दूसरों में विद्वेष उत्पन्न कर देता है । मनुष्य को यह सौगन्ध लेने की आवश्यकता नहीं है कि उसके हाथ में गुलाब का फूल है इसलिए कि उसकी सुगन्ध चारों ओर फैल रही है सबको पता है । अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने से दूसरे की प्रतिष्ठा बढ नहीं सकती है,यह भी सही है कि शॉत जल गहरा होता है । हॉ अगर किसी व्यक्ति को सहज ही बधाई मिलती है तो उसे नम्रता पूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिए । सच्ची प्रशंसा तो गुंण की पहचान कराना है,यह स्फूर्ति दायक औषधि के समान होती है जिससे कि प्रोत्सान मिलता है ।
अगर भावपूर्ण प्रशंसा की जाती है तो इसमें उकताने वाली बात नहीं है, लेकिन जो लोग चापलूस होते हैं वे मानो खाली चम्मच से पेट भर देना चाहते हैं । और यह भी देखा गया है कि कुछ लोग बढचढकर चाटुकारी करते हैं तो यह एक उपहास जैसा प्रतीत होता है,जैसा कि एक नदीं जो कि तट से ऊपर उठकर बहने लगती है तो लाभ के स्थान पर हानि होती है इसी प्रकार सम्मान अच्छा है मगर भारमय हो तो उपयुक्त नहीं है । अति तो अच्छी बात की भी बुरी हो जाती है । वैसे मनुष्य को अपने गुण और दोषों से परिचित होना चाहिए लेकिन ऐसा भी नहो कि गुणों के ज्ञान से मनुष्य धृष्ट बन जाये और दोषों के अनुभव से हतोत्साहित न हो जाय ।।
9-अधिक अपेक्षा करना मूरर्खता है -
हमें अपनी अपेक्षाओं के प्रति समक्षदार होना होगा । हगमारा किसी से कितना ही प्रेम और निकटता का सम्बन्ध क्यों नहो, हमें उनसे अत्यधिक क अपेक्षाएं करना मूर्खतापूर्ण है । इक्षाओं से अपेक्षाएं उत्पन्न होती हैं लेकिन वे कभी मिथ्या भी सिद्ध हो सकती हैं इसलिए अधिक अपेक्षाओं से भ्रमित नहीं होना चाहिए । भले ही अन्तोगत्वा दैवीय व्यवस्था उसी के हित में होती है । इसलिए मनुष्य को उस दैवीय शक्ति के प्रति नतमस्तक हो जाना चाहिए ।
10-मर्यादापूर्वक दूरी बनाये रखें -
हर आदमी का अपने परिवार तथा समाज में एक निर्धारित स्थान होता है ,इसलिए उसे एक निश्चित सीमा में रहना चाहिए ।हमें हर एक से उचित दूरी रखनी होगी ,दूरी का अर्थ घृणॉ करना नहीं बल्कि एक औचित्य पर बल देना है ,इस आधार पर कि एक पवित्र ग्रंथ को भी उचित दूरी पर रखना होती है ताकि उसे ठीक ढंग से पढा जा सके ।यह तभी सम्भव है जब हम अपने परिवार तथा समाज में अनुशासन और व्यवस्था के अनुरूप मर्यादापूर्वक शालीनता से रहते हों।
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