Thursday, September 20, 2012

शॉति की खोज


1-     तुम्हें इस सृष्टि में हर तरफ प्रेम ही प्रेम दिखेगा यदि उसे देखने वाली दृष्टि हो ।
 
2-     मुझे पता है कि जीवन एक खेल है । तुम्हें पता है कि जीवन एक खेल है । चलो खेलें!
 
3-     जीवन अत्यंत सरल भी है और अत्यंत जटिल भी । रंग जीवन की जटिलता हैं और श्वेत जीवन की सरलता है । यदि तुम्हारा दिल साफ़ है तो जीवन रंगीन हो जाता है ।
 
4-     क्या तुम थक गए हो? अगर नहीं तो थक जाओ । थके बिना तुम घर नहीं पंहुच पाओगे । इस दुनिया की हर वस्तु तुम्हें थकाएगी सिवाए एक के - प्रेम । वही अंत है; वही तुम्हारा घर है । थकान भोग की छाया है । सुख भोगने की लालसा तुम्हें रास्ते पर चलाती है । प्रेम की चाह तुम्हें वापस घर लाती है ।
 
5-     ऐसा कहा जाता है कि जब तुम उनके लिए गाते हो तो इश्वर का तुममें उदय होता है । जब तुम गाते हो तो तुम्हें दैवी प्रेम का अनुभव होता है । यह बात निश्चित है! इश्वर केवल तुम्हारे अपने भीतर और गहराई में जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, ताकि वे तुम्हें और भी अमृत से भर दें । वे तुम्हें और भी देने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । अपने दिल से उन्हें पुकारो, आत्मा से आवाज़ दो ।
 
6-     वस्तुओं का महत्त्व तुम्हारे कारण होना चाहिए| सोफा इस कारण मूल्यवान हो कि तुमने उसका उपयोग किया न कि तुम्हारा मान अच्छा सोफा होने से बढ़े| यह सफल जीवन का चिन्ह है ।
 
7-     स्पष्टीकरण मांगने से भावनाओं का बवंडर उमड़ पड़ता है । वे कुछ उत्तर देते हैं, तुम कुछ कहते हो, या तो वे ग्लानी में चले जाते हैं या और स्पष्टीकरण देते हैं । दोनों स्थितियों से तुम्हारा कोई लाभ नहीं है । काफी बार "मुझसे गलती हुई" कह देना ही उचित है । पर वह भी बहुत बार दोहराने की आवश्यकता नहीं । प्रेम और स्वीकृति की भावना - "मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता या सकती हूँ?" ही पर्याप्त है ।
 
8-     प्रेम के गुंण--स्वयं के साथ और दूसरों के साथ भी । जब तुम भीतर से खुल जाते हो, तो सबको प्रेम के अतिरिक्त कुछ दे ही नहीं सकते और वे भी तुमसे प्रेम किये बिना रह नहीं सकते । न तुम्हारे पास कोई विकल्प है न उनके पास । तुमने यह शिशु रहते हुए किया है । तब तुम सभी के साथ भोले भले, सहज और मासूम थे । और सभी तुमसे प्रेम करते थे!
 
9-     मानव शारीर बना है पृथ्वी पर स्वर्ग लाने के लिए, दुनिया में मिठास फैलाने के लिए, विष घोलने के लिए नहीं । किसी को नीचे धकेलना आसान है, पर उन्हें ऊपर उठाने के लिए, उनमें दैवी गुण जगाने के लिए साहस और बुद्धि दोनों की आवश्यकता है । दूसरों में दैवी गुण जागृत करने से तुम्हें अपने भीतर की दिव्यता दिखने लगेगी ।
 
10-     ऐसा मत सोचो कि जो लोग तुम्हारी कष्ट की बात सुनकर सहमत हो जाते हैं कि तुम कष्ट में हो, वे तुम्हारे मित्र हैं ।जो लोग तुम्हारी नकारात्मक भावनाओं या निराशाओं को बढ़ावा देते हैं वे मित्र प्रतीत होते हैं पर वे बुरी संगत हैं । सुसंगति या अच्छे मित्र तुम्हें यह अनुभव कराते हैं कि समस्या कुछ भी नहीं है - "यह तो सरल सी बात है, चिंता मत करो ।" वे तुममें उत्साह भर देते हैं ।
 
11-     यदि उन्हें मुझमें इश्वर दीखते हैं तो यह उनपर निर्भर है । मुझे भी उनमें भगवान दीखते हैं । जहाँ से भी शुरुआत हो, रुको मत - सबकी पूजा करो, हर वस्तु को सम्मान दो। आज विश्व में हिंसा है तो इसलिए कि हमने लोगों को एक दूसरे का सम्मान करना नहीं सिखाया । जीवन का सम्मान करो, वह चाहे कहीं भी हो - गाय में, गधे में या श्वान में । समाज को प्रेम में संवरने की आवश्यकता है, और प्रेम में पूजा निश्चित है ।
 
12--     जो तुम बन्दूक से नहीं जीत सकते वह तुम प्रेम से जीत सकते हो । दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति प्रेम है । प्रेम से हम लोगों के दिल जीत सकते हैं । जो जीत अहम् की भावना से मिले उसका कोई मोल नहीं । अहंकार में जीत भी हार है । प्रेम में हार भी जीत है ।
 
13-     यदि बाहर वर्षा हो रही है तो वह नियति है; तुम्हारा मौसम पर कोई वश नहीं है । परन्तु भीग जाना या सूखे रहना तुम्हारे संकल्प पर निर्भर है ।

14-     भूत को नियति मानो, भविष्य के लिए संकल्प करो और वर्तमान में प्रसन्न रहो । मूढ़ व्यक्ति भूत को अपना संकल्प मानकर खेद करता है, भविष्य को नियति पर छोड़ देता है और वर्तमान में दुखी रहता है ।
 
15--     तुम्हें तभी तक चलना है जब तक तुम समुद्र तक न पंहुच जाओ। समुद्र में तुम्हें चलने की आवश्यकता नहीं है, अब केवल बहना और तैरना है । उसी तरह, एक बार गुरु के पास पंहुचने पर खोज का अंत होता है और खिलना आरम्भ होता है ।
 
16-     इस पृथ्वी पर हल्केपन के साथ चलो, पर ऐसे पदचिन्ह छोड़ो जो हज़ारों साल तक न मिटें ।
 
17-     गुरु एक द्वार है । जब तुम सड़क पर धूप में तप रहे हो या वर्षा में भीग रहे हो, तो तुम्हें किसी आश्रय की आवश्यकता महसूस होती है । द्वार में प्रवेश करने पर यह जगत बहुत सुन्दर दीखता है - प्रेम, आनंद, सहयोग, दया, सभी गुणों से भरा हुआ । द्वार से बाहर देखने पर कोई भय नहीं होता । अपने घर के भीतर से तुम बाहर तूफ़ान को देख सकते हो और विश्राम भी कर सकते हो । एक सुरक्षा की भावना, पूर्णता और आनंद का उदय होता है । गुरु के होने का यही उद्देश्य है ।
 
18-     यदि तुम सृष्टि के उपकरण बनकर उसे अपने द्वारा कार्य करने दो, तो जीवन एक अलौकिक स्तर को प्राप्त हो जाता है ।
 
19-     ज़रा अपनी ओर देखो ? कितने दोष हैं तुममें ! पर प्रकृति ने, इश्वर ने तुम्हें सभी दोषों के साथ भी स्वीकार कर लिया है । उसने तुम्हें अपनी बाहों में ले लिया है । वह कभी नहीं कहती, "तुमने आज बहुत बुरा बर्ताव किया, मुझे बुरा भला कहा, मैं तुममें श्वास नहीं जाने दूँगी । तुम्हारा दिल धड़काना बंद कर दूँगी ।" प्रकृति कभी तुम्हें आंककर तुम पर निर्णय नहीं लेती ।
 
20-     प्रेम ज्ञान से सुरक्षित रहता है, मांगने से नष्ट होता है, संदेह से परखा जाता है और आकांक्षा से विकसित होता है । यह श्रद्धा से खिलता है और कृतज्ञता से बढ़ता है । प्रेम संपूर्ण ब्रह्माण्ड का सार है । प्रेम से किया कर्म सेवा है । और तुम ही प्रेम हो ।
 
21-     हमेशा यह याद रखो: प्रकृति तुम्हें ऐसी कोई समस्या नहीं देगी जिसका तुम हल न खोज सको । उत्तर पहले ही तुम्हारे पास है, तभी प्रश्न तुम्हारे सामने लाया गया है ।
 
23-     दो प्रकार के लोग होते हैं: एक वे जिनका मूल्य उनकी वस्तुओं के होने से बढ़ता है और दुसरे वे जिनके कारण वस्तुएं मूल्यवान होती हैं । इनमें दूसरे प्रकार के लोग हैं जो अपना जीवन वास्तव में जीते हैं ।
 
24-     देखें तो जरा ये शव्द क्या कहते हैं -
ध्वनि में लय संगीत है ।
गति में लय नृत्य है ।
मन में लय ध्यान है ।
जीवन में लय उत्सव है ।
 
25-     यदि तुम प्रेममय हो, तो दुनिया में हर जगह तुम्हारा स्वागत होगा । यदि तुम कहीं भी लोगों के साथ एक हो सकते हो, घुल मिल सकते हो, तो लोग तुम्हारे लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं ।
 
26-     जब नींद न आती हो तो यह ऐसा पूछने जैसा है कि "सोना इतनी कठिन क्यों है?" एक पुराना दोहा है "प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय । जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाहीं ।" या तो प्रेम है या तुम हो । प्रेम का अर्थ है भूल जाना कि "मेरा क्या होगा?" और पिघल जाना । ऊपर आकाश में देखो: इतने सारे तारे, चन्द्रमा, सूर्य, पर यदि रेत का एक कण आँख में पड़ जाए तो सब छुप जाता है । वैसे ही, छोटा "मैं, मैं" तुम्हारे असीमित रूप को छुपा देता है, वह विघ्नरहित प्रेम जो तुम हो ।
 
27-     अपनी मंशा पर ध्यान दो जिसके कारन तुम कर्म करते हो । प्रायः तुम वस्तुओं के पीछे इस वजह से नहीं भागते कि वे तुम्हें चाहियें । तुम वस्तुओं के पीछे इसलिए भागते हो क्योंकि वे दूसरों को चाहियें । और तुम्हें जो चाहिए उसके बारे में तुम स्पष्ट नहीं हो क्योंकि तुमने भीतर झांक कर कभी देखा नहीं ।
इसे अंतर्ग्रहण करो: स्वाधीनता का अर्थ है स्वयं के अधीन रहना । जब तुम्हें अपने आराम के लिए दूसरों से कुछ चाहिए तो तुम दुखी हो जाते हो । 'मैं आत्मनिर्भर हूँ' का अर्थ है 'मैं आत्म पर निर्भर हूँ' । मुझे किसीसे कुछ नहीं चाहिए ।
 
28-     कुछ काम करने के लिए तुम्हें कुछ योग्यता चाहिए । 100 किलो भार उठाने के लिए तुम्हें उतना बल चाहिए । तो यदि प्रेम बल या योग्यता का प्रश्न है तो हर व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता । पर प्रेम सभी योग्यताओं से परे है । चाहे मूर्ख हो या बुद्धिमान, निर्धन या धनी, रोगी या स्वस्थ, बलवान या निर्बल, कोई भी प्रेम कर सकता है ।
 
29--     जब तुम चन्द्रमा को देखते हो या कोई सुन्दर दृश्य देखते हो, तो कहते हो, "ओह, कितना सुन्दर!" उस सुन्दरता का अनुभव अलग है । पर जब तुम कुछ ऐसा देखते हो जिस पर अधिकार पाना चाहो या नियंत्रण रखना चाहो - बायफ्रेंड या गर्लफ्रेंड या कोई चित्र, तो मन कहता है, "यह मुझे चाहिए ।" उस सुन्दरता में ज्वरता है; तब वह अधिक देर नहीं टिकती । सुन्दरता की लहर उठती है पर एक छोटी तरंग रहकर ख़त्म हो जाती है । सुन्दरता की पवित्रता मासूमियत में है ।
 
30--     दुर्भाग्यशाली हैं वे जो इच्छाएं करते रहते हैं, पर जिनकी इच्छाएं पूरी नहीं होतीं । थोड़े भाग्यवान हैं वे जिनकी इच्छाएं बहुत समय बाद पूरी होती हैं । उनसे भी अधिक भाग्यशाली हैं वे जिनकी इच्छाएं उठते ही पूरी हो जाती हैं । सबसे सौभाग्यशाली हैं वे जिनकी इच्छाएं नहीं बचीं, क्योंकि वे उठने से पहले ही पूरी हो जाती हैं ।
 
31-'     यदि वह कर सकता है तो मैं क्यों नहीं कर सकता?' यह विचार तुम्हें लोगों से अलग कर देता है और व्याकुलता उत्पन्न करता है; उलझन हो जाती है; ईर्ष्या आ जाती है । तुम दिखावा करने लगते हो और अपनी सहजता खो बैठते हो । सारी उलझनें छोड़ दो, दिखावा मत करो । तृप्ति अति सुन्दर है । जो इच्छा उठने से पहले ही तृप्त हो और यह जान ले की उसकी सभी ज़रूरतें पूरी हो जाएँगी, शांति और आनंद उसे दिया जायेगा ।

शक्ति का श्रोत





 

उपहार का मूल्य



 
 




1-आगे बढते जॉय-

क-           हम अपने जीवन की प्रगति के लिए जो उद्देश्य निर्धारित कर लेते हैं ,उसमें हमारे प्रयत्नों से हमें सफलता प्राप्त हो जाती है,लेकिन विगत समय की भूलें कभी-कभी अत्यधिक प्रयासों से भी विफलता को नहीं रोक सकते ! कभी-कभी हम अपने आप को किसी कार्य में पूर्ण समझते हैं यह हमारी भूल है,,क्योंकि भूलें तो मानवीय स्वभाव है । यदि हमने भूल मानकर मन से स्वीकार कर लिया तो सदा के लिए भूल का अंत हो जाना चाहिए ! हॉ यदि आप उसकी पुनरावृत्ति न करने का निश्चय कर लें और भविष्य में सावधान रहें ! पिछली भूलों पर पछताना स्थिति में सुधार नहीं करता, बल्कि अनावश्यक ही शक्ति का क्षय और समय का नाश कर कर देता है । आप अपनी पुरानी भूलों के लिए स्वयं को क्षमा कर दें,और अपराध बोध को न बढाएं । अपराधबोध तो तभी बना रहता है जब आप स्वयं ही सोच में पडे रहते हैं । अतीत का तो आपके साथ कोई यथार्थ सम्बन्ध नहीं होता है,भले ही आप मनमें उसके साथ चिपके रहें ।अतीत को फूंक के साथ उडा दें उसे विलुप्त मानकर अस्वीकार कर लों ।

ख-            जीवन में आगे बढने के लिए हमारे सामने जो ज्वार आता है उससे हम अपने जीवन प्रवाह को और आगे की और बढा देते हैं ।अतीत नष्ट होता रहता है और वर्तमान ऊपर उभरकर आता रहता है । वैसे भी अगर देखें तो वर्तमान ही सत्य है जबकि अतीत मृतक है भविष्य तो उत्पन्न होता है और वर्तमान भविष्य में मिल जाता है ,जब वर्तमान आगे की ओर बढता है तो फिर वर्तमान का ही अस्तित्व रहता है ।

ग-            हमें अपनी आशा और विश्वास को इस प्रकार जगाना है कि - भविष्य में जो सुखद भण्डार भरे पडे हैं, उन्हैं देखकर हमारी आशाएं जीवित रह सकें ।और होता भी यही है कि हम हमेशा आशाओं को लेकर चलते हैं । यदि हमारा लक्ष्य स्पष्ट है तो संदेहों और आशंकाओं के लिए कोई जगह नहीं रहेगी । हमारे प्रयत्नानुसार पुरुष्कार देर सबेर मिलते रहते हैं ।यदि हमारे मन में साधन आदि की अपर्याप्तता का भाव है तो उस पर विजय प्राप्त करें,और बिना भ्रमित हुये,बिना डगमगाये,बिना संकोच एक गौरवमय प्रभात की ओर बढें । अपनी बुद्धि से अतीत को पूरी तरह समझ लेने और भविष्य की एक स्पष्ट संकल्पना करने में तथा आगे की ओर बढते रहने में निहित है ।

 

2-हमारी भूलें और पछतावा-

          देखने वाली बात यह है कि हम कर्म करते हैं तो भूल भी हो जाती है,अगर कर्म न करते तो भूल भी कहॉ से होनी थी ।भूल करना और पछतावा करना भी मानवीय स्वभाव है । लेकिन यह भी सही है कि भूल को स्वीकार करना ही भूल का अंत होता है । बुद्धिमान लोग विगत भूलों पर कोई सोच-विचार करते हैं । जो लोग अत्यधिक पछतावा करते हैं वे तो मूर्ख होते हैं । अगर देखें तो प्रत्येक मनुष्य वर्तमान में ही जीवित रहता है। क्योंकि अतीत से सम्बन्ध बनाये रखना समझदारी नहीं है,क्योंकि अतीत का कोई स्तित्व भी नहीं है । अतीत तो अतीत है वर्तमान में अतीत के कष्टों की अत्यधिक भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वह वर्तमान को दूषित कर देगा । अतीत की छाया तो लम्बी और गहरी होती है लेकिन वह केवल छाया ही होती है। इसे अमान्य भी नहीं किया जा सकता है ।लेकिन इसे देर तक मस्तिष्क में रखें तो वह नकारात्मक अवरोधात्मक और विध्वंसात्मक हो जाता है । हॉ विगत भूलों से शिक्षा ली जा सकती हैऔर भविष्य में त्रृटिपूर्ण पगों को वापस ले सकते है । काल तो ऐसा मनुष्य होता है कि जिसके सिर के पीछे का भाग गंजा होता है,और जिसे सामने से पकडा जा सकता है ।

 

3-पूर्णतावादी बनकर क्षमा को अपनाएं-

क-          यदि आप शान्त और सुखी रहना चाहते हैं,तो पूर्णतावादी बनना होगा । यह पूर्णता कहीं दिखती नहीं है,और कोई मानव पूर्ण भी नहीं हो सकता,केवल परमात्मा ही पूर्ण हो सकता है । यदि मानव में पूर्णता की खोज करना है तो निराश ही होंगे । बस प्रयत्नवादी होना है,पूर्ण बनने का प्रयत्न करें तथा पूर्ण होने के लिए सच्चा प्रयत्न और पूर्णता की ओर बढते रहने से ही संतोष प्राप्त कर सकते हैं ।

ख-          हमारे जीवन में क्षमा प्रेम के साथ अविच्छेद है,विना क्षमाशील हुये प्रेमपूर्ण नहीं हो सकते हैं दूसरों को उनकी त्रुटियों के लिए क्षमा करें । क्षमा करना कठिन है लेकिन उससे लाभ बहुत अधिक हैं ।कोई भी मनुष्य क्षमाशील हुये विना शॉत और सुखी नहीं हो सकता है ।तुच्छ वृत्ति वाले लोग तुच्छ बातों पर क्षुब्ध और रुष्ट हो जाते हैं ,जबकि महॉपुरुष स्वभाव से ही क्षमाशील होते हैं । क्षमा करने में भी विवेकशील की आवश्यकता होती है ।

4-प्रकृति के अनुकूल चलें-

          अनुकूलीकरण प्रकृति का नियम है, अर्थात स्वयं को परिवर्तित होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप बना लेना । ताकि वह जीवित रह सके और फल फूल सके ।जीने की कला इस बात में निहित है कि व्यक्ति बुद्धिमत्तापूर्वक ढंग से स्वयं का समायोजन कर लेता है । यदि हम ऐसे लोगों के मध्य रहते हैं जिन्हैं कि बदला नहीं जा सकता है और न उन्हैं छोड सकते हैं तो जरूरी है कि हमें समायोजन के लिए समझौता करके अपना अनुकूलीकरण कर लेना चाहिए ताकि आप जीवित रह सकें । यदि कोई ऐसा है जिसपर आपका कोई नियंत्रण नहीं है तो आपको व्यथित नहीं होना चाहिए,उस स्थिति को प्रशन्नता पूर्वक स्वीकार कर लें और स्थिति का लाभ उठाते रहें । अस्तित्व के लिए भाग जाना या लडना नहीं है बल्कि अनुकूलीकरण भी है । इसका अर्थ किसी के सामने आत्मसमर्पण करना नहीं है बल्कि अपने अस्तित्व को किसी उत्तम आदर्श के लिए और उन उच्च आकॉक्षाओं की पूर्ति के लिए जो कि गहन सुख दे सकें,सुरक्षित रखना है ।

 

5-अपनी समस्याओं का समाधान करना सीखें -

          समस्याएं तो जीवन में आती रहती हैं,आप उनका समाधान भली प्रकार कर सकते हैं। आप अपनी भावनाओं को कुछ तो तटस्थ होकर और कुछ उन समस्याओं से ऊपर उठकर समाधान कर सकते हैं । भावात्मक रूप से अन्तर्ग्रस्त न हों,इससे समस्याएं जटिल हो सकती हैं । इन परिस्थितियों में निर्णय लेने में यथा सम्भव निष्पक्ष,न्यायसंगत और सकारात्मक रहना चाहिए । जटिल समस्याओं का समाधान करने में स्वयं को अत्यधिक व्यथित करने के बजाय अपने भीतर अन्तरात्मा की ध्वनि से परामर्श लें । परेशानियॉ तो उस व्यक्ति से परेशान हो जाती हैं जो उनसे परेशान नहीं होता है और हंसकर उसका सामना करने के लिए डटा रहता है ।जहॉ कायर भाग खडे होते हैं,वीर पुरुष वहॉ विजय प्राप्त कर लेते हैं ।

 

6- दुख भोग की सामर्थ्य-

          अगर देखें तो दुःख-सुख जीवन में परस्पर रात-दिन के समान आते हैं ,और इनमें दुःख का प्रभाव सुख से अधिक होता है । दुख मनुष्य को घेरकर उसे असंख्य प्रकार से यातनाएं दे सकता है,यह मनुष्य को अनजाने ही जकड लेता है । कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है,जिससे मनुष्य असहाय और दयनीय हो जाता है । लेकिन संकट की घडी परीक्षा का घडी भी होती है । वीर पुरुष हमेशा साहस से चुनौती को स्वीकार करते हैं,और विपत्ति का सामना करने के लिए अपना सुअवसर मानते हैं ।इस कठिन समस्या का सामना बिना घबडाये कर लेता है । जबकि एक कायर मनुष्य मिट्टी की दीवार की भॉति नीचे गिर पडता है और आत्मदया में बह जाने से स्वयं को उपहसनीय बना लेने से घोर संकट को आमंत्रित कर लेता हैं । इसके लिए इच्छाशक्ति होना आवश्यक है,हार और जीत उसी पर निर्भर करेगा ।साहसी और दृढ होकर बुद्धिमत्ता से जीवन यापन करने के लिए सुख-दुख के इस जीवन और जगत को अधिक उत्तम प्रकार से योग्य बनाया जा सकता है और मन को परिष्कृत कर मनुष्य को सत्य के अधिक समीप लाया जा सकता है ।

 

7-कर्म आत्म संतोष के लिए हो-

          हमारा हर कर्म आत्मसंतोष के लिए होना चाहिए । हमें हर एक की बात को ध्यान पूर्वक सुनना चाहिए लेकिन स्वयं अपने भीतर सावधान होकर सुनें । आपको दूसरों की प्रशन्नता के लिए कर्म नहीं करना है बल्कि अपनी आत्म संतुष्टि के लिए कर्म करना है । जो व्यक्ति सबको प्रशन्न करना चाहता है , वह किसी कोभी प्रशन्न नहीं कर सकता और कोई भी ठोस उपलव्धि नहीं कर पाता । आपको उन परिस्थितियों की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए जिसमें आप कार्य कर रहे हैं और न अपने भीतर की अन्तरआत्मा का निरादर करना चाहिए । अन्तःकरण की अदालत के निर्णय स्ष्ट होते हैं यदि कोई उन्हैं जानना चाहे , और उचित प्रकार से उनका अनुसरण किया जाय तो मनुष्य अपने भीतर स्वयं को स्थिर और दृढ बना सकता है ।

 

8-किसी पर दोषारोपण न करें-

          कुछ व्यक्तियों की आदत होती है दूसरों पर दोष मंढने की,वे अपनी विफलता का सारा दोष दूसरों पर मढ देते हैं । इस प्रवृत्ति में सुधार करना होगा । दूसरों पर तथा परिस्थितियों में दोष देने से उनका हित नहीं हो सकता ।उन्हैं असफलता को कारणों का निष्पक्ष विश्लेषण कर और निश्चय करना चाहिए कि कहॉ पर त्रुटि हुई है। विफलता हमारे उत्साह को कम कर देता है और हमें निराशा के दल-दल में धकेल देता है । विफलता ऐसी हो जिससे हमें अधिक दृढता से प्रयत्न करने और कुछ अधिक उत्तम करने के लिए प्रेरित कर दे । हमें विफलता से ऊपर उठना होगा,इसके लिए उस श्रेष्ठ आदर्श का अनुशरण करते रहना चाहिए जो जीवन को भव्यता,गौरव और अर्थ प्रदान कर दे । अगर आप उच्च आदर्शों के लिए संघर्ष करते हैं तो आपकी पराजय नहीं हो सकती है और सच्चे अर्थ में वे ही जीवित हैं जो किसी उत्तम आदर्श के लिए जीवित हैं । उच्च आदर्शों के लिए जीवित रहकर मृत्यु का आलिंगन करने वाले महॉपुरुष तो अमर होते हैं और आगे आने वाली पीढियों के लिए प्रेरणॉ के स्रोत बन जाते हैं ।

 

9-स्वार्थी न बनें-

          आपको इस बात का खयाल रखना होगा कि कही आप अपने ही तक तो सीमित नहीं हैं ?/यदि दूसरों पर विचार न करके अपने व्यक्तिगत हितों का ही चिंतन करते हैं तो आपका दम घुट जायेगा । आप अपने लिए दुख और क्लेश के मार्ग का निर्मॉण कर रहे हैं । यदि आप यथा सम्भव दूसरों के लिए कुछ विचार नहीं कर सकते तो आप अलग पड सकते हैं । आपका स्वभाव चिडचिडापन और निरानंद भी हो सकता हैं । इससे आपकी शॉति समाप्त हो सकती है। इस स्थिति से बचने के लिए आपको यथा सम्भव उदारचित्त बनना होगा । यदि आप स्वस्थ और सुखी रहना चाहते हैं तो प्रेम उदारता और त्याग के पाठ का प्रारम्भ अपने परिवार औप पडोस से कीजिए ,आप जितना स्वयं को विस्तृत करेंगे,उतना ही सुखमय हो जाएंगे तथा जीवन के उद्देश्य और अर्थ को समझ सकोगे ।

10-जीवन अर्थवान है-

          प्रकृति ने हमें समय,गुंण और शक्ति का प्रसाद दिया है,हर क्षण एक अनमोल वरदान होता है । हमारा जीवन अर्थवान है हम अपने परिवार के लिए धनोपार्जन करने और उसके हितों की देख-भाल करने में व्यतीूत होता है,यह कोई आदर्श नहीं हुआ । हम अपने परिवार से बाहर जन हित के कार्य और अपने चारों ओर स्थित दीन-दुखियों की सेवा नहीं करते हैं,समाज की उपेक्षा करके स्वयं को परिवार की परिधि तक सीमित रखते है ।श्रेष्ठ पुरुष तो वह है जो उत्तम कार्यों के प्रकाश को अपने चारों ओर प्रसारित करता है ,वह जीवन के उद्देश्य को पूरा कर लेता है । हम सुखी तभी हो सकते हैं जब हम अपना सम्पूर्ण जीवन की एकता को स्वीकार कर लेते हैं, समय के अनुसार अपने गुणों और अपनी शक्ति द्वारा जीवन को समृद्ध एवं उन्नत बनाते हैं । इसीलिए प्रकृति ने मनुष्य को समय गुंण और शक्ति का प्रसाद दिया है । इस जीवन के मूळ्यों का मापन कृत्यों से ही होता है ।



 




Saturday, September 8, 2012

अपना मूल्यॉकन

 

 


1- हमारे व्यक्तित्व का मूल्यॉकन-

          हमें यह देखना होगा कि यदि आपके चारों ओर लोग आपको पाकर उल्लासित होते हैं तो आप भी उल्लासित होते हैं । इसी प्रकार यदि आप अपनी समस्याओं का समाधान बिना तनाव और भय से कर सकते हैं तो इसका मतलव हुआ कि आपका व्यक्तित्व सकारात्मक दिशा में विकसित हो रहा है । व्यक्तित्व का विकास तो जैसे स्वतंत्र इकाई के रूप में हमेशा विकसित होते रहना चाहिए । स्वस्थ व्यक्तित्व गतिहीन नहीं हो सकता है । व्यक्तित्व तो विचारों के विकास के अनुरूप विकसित होता रहता है । वह परिवर्तित होता रहता है । और परिस्थितियों के अनुरूप विना भय के सिद्धान्तों और उत्तम आकॉक्षाओं के साथ विना समझौते के समायोजन करता रहता है । आपको यह भी देखना होगा कि कभी-कभी क्या लोग आपसे मिलकर आतंकित या तनावग्रस्त तो नहीं होते हैं ? अथवा आपको देखकर वे स्फूर्त और कुछ ऊपर उठे हुये महशूष करते हैं ? इसके लिए आपको अपना मूल्यॉकन करना होगा ! . यदि आप जीवन का पूरा लाभ उठाना चाहते हैं तो यह जरूरी भी है ।


2- अपनी बुद्धि का मूल्यॉकन करें -

अगर आप अपनी बुद्धि के मूल्यॉकन की बात करें तो इसमें यह देखना होगा कि आप किस प्रकार एक व्यक्तिगत जीवन दर्शन या विचार पद्धति को विकसित करते हैं ,जो कि आपके स्वभाव तथा गुणों के अनुरूप हो । ये किस तरह से आपको जीवन के संघर्षों के मध्य प्रशन्न रख सकें और जीवन के उच्चत्तर स्तर तक उठने में सहायक हो सकते हैं ।आपको यह देखना होगा कि आपकी टोपी आपकी ही टोपी है,किसी अन्य की टोपी भले ही कितनी ही आकर्षक क्यों न हो,वह आपके लिए उपयुक्त नहीं हो सकती है । और यह भी हमें ध्यान रखना होता है कि हमारी टोपी कब कहॉ टेढी हो गई या अपना जूता कहॉ चुभता है । इसलिए बदलती हुई परिस्थितियों के साथ बुद्धिमत्तापूर्वक बिना शिथिल रहते हुये स्वयं को समायोजित करना चाहिए ।हम अपने विचारों को स्वयं ही नियंत्रित एवं व्यवस्थित कर सकते हैं । बुद्धि का उचित उपयोग हमें आलौकिक आनन्द की प्राप्ति के लिए अपने भीतर स्थित दिव्यता की ओर अग्रसर करता है ।

 

3-हमारी आवश्यकताएं और हम--

क-          हमें इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि अपनी सॉसारिक इच्छाओं को यथासम्भव कम कर देना चाहिए,क्योंकि इच्छाएं तो बढती रहती हैं,अनेक गुना हो जाती हैं ,इच्छाओं का तो अन्त होना सम्भव नहीं है ।इच्छाएं तो एक जाल है । और इसीलिए बुद्धिमान लोग अपनी स्वार्थपूर्ण लालसाओं को समाप्त कर देते हैं । अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं को कम कर देते हैं । ऐश्वर्य और वैभवपूर्ण जीवन की इच्छाओं का परित्याग कर उच्चत्तर उद्देश्यों की ओर अग्रसर होते हैं । सत्ता और धन मानव स्तित्व का लक्ष्य नहीं हो सकता है,जो कि आज दिख रहा है ।

 

ख-          हम अपनेजीवन में सन्तोष और सादगी तभी ला सकते हैं जब हम अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाएं और अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं की छँटनी करना सीखें । अनियंत्रित आवश्यकताएं तो भावनात्मक विक्षोभ या तनाव ,असंतोष उत्पन्न करते हैं । क्योंकि वे मन को विश्राम करने नहीं देते ।वे आध्यात्मिक मूल्यों के महत्व को क्षीण कर देते हैं जिससे हम स्वयं दयनीय बन जाते हैं । द्वैष बढ जाने से इच्छा विकृत एवं नकारात्मक रूप ले लेती है । उसका उग्र विस्फोट हो सकता है । और विनाश की ओर बढ सकता है ।

 

ग-          महान होने के लिए अपने जीवन में सादगी और सन्तोष के सिद्धान्त को अपनाना आवश्यक होता है। अपने विचार और कर्म सादे रहें,ईमानदारी और कठिन परिश्रम से जो भी प्राप्त हो जाय उसी में सन्तुष्ट रहना चाहिए । तुच्छ बातों में छोटे बच्चों की भॉति शिकायत न करें। सादगी और सन्तोष के धारण में लज्जा का अनुभव न करें क्योंकि ये सत्पुरुष के गुंण हैं । वे गुंण मनुष्य को शॉतिपूर्ण रहने में बहुत सहायक होते हैं ।ये गुंण जीवन को तनावरहित और सुखी जीवन यापन करने में सक्षम हैं ।

 

घ-          पहली बात तो यह है कि आपको अपनी दृष्टि में नेक होना चाहिए,भले ही आपके विषय में लोग कुछ भी सोचते हों या कहते हों ,यदि आप वास्तव में भले और नेक हैं तो आपको लोग वैसा ही कहेंगे ।यदि आप शॉति चाहते हैं तो अपने विचारों और कर्म में अपने प्रति ईमानदार रहें ।

 

ड.-          अपने जीवन में एक और बात को हमें ध्यान में रखना होगा कि हम जो नहीं हैं वह मिथ्या है,यह हमें कभी संकट में डाल सकता है,हमारे सामने विपत्ति और कष्ट उत्पन्न हो सकता है । सत्य का पता लगते ही यह सब दिखने लगेगा । इस लिए आप जो भी हैं वही रहें हमेशा अपने सहज रूप में रहें । पाखण्ड का अंत दुःख में होता है ।

4-भलाई और प्रेम-

 

क-          भलाई एक सुगन्धित पुष्प के समान है । जब भलाई की बात आती है तो कई गुणों की झलक दिखने लगती है -त्याग,सहायता,और उदारता की भावना । भला आदमी घृणॉ से दूर रहता है ।झमाशील तो वह स्वभाव से होता है । लेकिन इसकी सार्थकता तभी है जब मनुष्य भला होने में सुख का अनुभव करे । वह किसी दूसरे को प्रभावित करने या एहसास करने का कोई उद्देश्य नहीं रखता । भलाई से तो आत्म सन्तोष, शॉति और आन्तरिक उल्लास प्राप्त होता है ,अन्यथा वह कष्टप्रद होता है । जब भलाई की बात आती है तो भले आदमी का मन भर जाता है,अभद्र विचारों के लिए तो कोई स्थान ही नहीं है । भलाई मन को परिष्कृत,उन्नत और प्रबुद्ध कर देती है,तथा धीरे-धीरे उसका दिव्यीकरण कर देती है,जब भलाई एक आदत बन जाती है तो वह इस बाहरी जगत में किसी पुरुष्कार का आशा नहीं करता है ,परमात्मा जो सबका कल्याणकर्ता है,वह एक यंत्र के रूप में बनकर कर्म करता है ।

 

ख-          प्रेम का अर्थ है दूसरे की भावना में सहभागी होकर दूसरों के कष्ट निवारण के प्रति निस्वार्थ त्याग और समर्पण का भाव होना । प्रेम तो एक बहुत बडा बल है जोकि मानव के जीवन में पूर्ण रूपान्तरण कर सकता है । यह मन को परिष्कृत और पवित्र कर मनुष्य के जीवन को उच्चस्तर पर ले जा सकता है । प्रेम का अनुभव तो एक सुखद जादू के समान है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है ।

 

ग-          अगर भलाई और प्रेम को देखें तो दोनों परस्पर गुंथे हुये हैं । प्रेम मन को उन्नत अवस्था तक ले जाने की क्षमता रखता है,और अन्ततः प्रकाश प्रदान कर सकता है । निश्चित तौर पर प्रेम दिव्य होता है जो कि मन को पूर्ण दिव्यीकरण कर सकता है । घ-हम स्वयं के लिए प्रेम,आदर,और अपनी विशेष पहचान प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन हम जीवन के एक उस नियम को भूल जाते हैं जिसमें हमें प्रतिध्वनि की भॉति वही मिलता है जिसे हम देते है । समुद्र आकाश को खारे जल से वाष्प भेजता है जो कि सुखद वर्षा के रूप में बदल जाता है । यदि आप अन्य को प्रेम और आदर देते हैं तो आपको भी वही मिलेगा ,बल्कि निवेष की तुलना में कहीं अधिक प्रतिफल मिलेगा । हम अपने विचारों और कर्मों से सूक्ष्म तरंगें उत्पन्न करते हैं जो कि दूर तक फैल जाती हैं तथा दूसरों को प्रभावित करती हैं । प्रकृति के नियम तो निर्दोष हैं, उन्हीं नियमों से मनुष्य जो बोता है उसी को काटता है ।

 

5-सहिष्णुता और हम-

क-          सहिष्णुता एक मानसिक परिपक्वता का लक्षण है जो कि मनुष्य को अपना मन शॉत और स्थिर रखने में सहायता करता है,जबकि नासमझ लोग तुच्छ बातों से भडक जाते हैं और एक दूसरे पर क्रोध में झपटने लगते हैं ,जिससे पाश्विक दृश्य दिखने लगता है । जबकि समझदार लोग सहिष्णुता और क्षमा प्रदर्शित करते हैं ,मेल मिलाप से सामंजस्य और शॉति स्थापित करने का प्रयास करते हैं ।

 

ख-          सहिष्णुता का अर्थ है उदारतापूर्वक,विवेकपूर्म ढंग से समायोजन करना । सहिष्णुता हमें अनावश्यक झगडों और तनावों से ही नहीं बचाती बल्कि हमारी शक्ति को क्षय होने से भी बचाती है । जिसे हम सद्कार्यों में प्रयुक्त कर सकते हैं । सहिष्णुता के गुणों का संवर्धन तो हमारे घर में भोजन करते समय से ही प्रारम्भ होते हैं ,भोजन करते समय उत्तेजित न हों,क्रोधित न हों। आपको भोजन का स्वाद तभी मिल सकता है जब आप उस भोजन को ,जो भी परोसा जाय,प्रभु का प्रसाद मानकर प्रशन्नतापूर्वक ग्रहम करें ।

 

ग-          आवश्यक है हम विनम्र बनें यह गुंण महानता का लक्षण भी है । विनम्रता तो दूसरों के प्रति सम्मान और परमात्मा के प्रति कृतज्ञता को प्रदर्शित करता है । जब एक मनुष्य जीवन के उच्च स्तर तक उठ जाता है तो फलदार वृक्ष की भॉति झुक जाता है ,वह विनम्र हो जाता है । स्वच्छ और सरल मन की निर्भीकता से उत्पन्न विनम्रता का एक अपना ही आकर्षण होता है,जबकि कुटिल मनुष्य की कृत्रिम विनम्रता एक घृणॉत्मक स्वॉग होता है । विनम्रता मनुष्य की दृढता को भ्रमित नहीं करता बल्कि उसका सहायक है ।हमें अपने प्रयत्नों के सफल होने पर विनम्र होना चाहिए और पराजय को परमात्मा का विधान मानकर सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए ।

6-विनोदी स्वभाव तथा वॉणीं-

क-          हास परिहास या विनोद हमारे जीवन का एक अनोखा सुख है। विनोदी स्वभाव होने के लिए एक विशाल ह्दय की आवश्यकता होती है । जो लोग तुच्छ होते हैं वे न तो विनोद कर सकते हैं और न विनोद को समझ सकते हैं । वे छोटी सी हंसी की बात पर भी नाराज हो जाते हैं । तथा अपमानजनक रूप में प्रत्युत्तर देते हैं । जो लोग तुच्छ बातों पर चिढ जाते हैं,हमें उनके साथ सहिष्णु होना चाहिए । लेकिन छल या परिहास को अवश्य निन्दित किया जाना चाहिए ।

 

ख-          हमारी वॉणी हमें चिंतन और तर्कशक्ति की भॉति एक मानवीय उपहार या परमाधिकार के रूप में प्राप्त है । अपने विचार-संप्रेषण का सशक्त माध्यम वॉणी ही है । उत्कृष्ट वॉणीं इस बात में सन्निहित है कि हम अपने विचारों को वाक्यों के धागों में पिरोकर उपयुक्त शब्दों से ऐसे जडित हों कि मानों कण्ठहार में मोती हों ।

 

ग-          बुद्धिमान लोग तो थोडे शव्दों में बहुत कुछ कह देते हैं जबकि बुद्धिहीन लोग थोडा सा कहने के लिए बहुत शव्दों का प्रयोग करते हैं । वॉणी मित्र भी बना लोती है और शत्रु भी । विवेकशील मनुष्य जानता है कि क्या कहना चाहिए और कैसे कहना चाहिए तथा कब तक कहते रहना है । और कब विराम कर देना है ।

 

घ-          उत्तम वॉणी सौम्य और सारयुक्त होती है । कठोर शव्द कटुता उत्पन्न कर देते हैं,भले ही उद्देश्य उत्तम हो । डॉट फटकार भी यथा सम्भव शालीन शव्दों में ही की जानी चाहिए ।मुस्कराकर बात को कहें ।मुस्कान संक्रामक होती है और उसका चमत्कारी प्रभाव होता है । शव्द उपयुक्त हों तथा उनका उच्चारण स्पष्ट होना चाहिए । वॉणी का उद्देश्य न केवल भाव संप्रेषण हो बल्कि प्रेम ,सामंज्जस्य और शॉति का पोषण करना भी होना चाहिए । आत्म संयम,मधुरता,तर्क तथा सत्य और न्याय पर बल उत्तम एवं प्रभावी संभाषण की विशेषता है ।

7-लक्ष्य के प्रति भयभीत न हों-

क-           आपको आश्वस्त होना चाहिए कि आपका उद्देश्य और उसकी प्राप्ति का पथ न्यायसंगत है तो आपको वाह्य जगत से प्रोत्साहन की आवश्यकता नहीं है तथा आपको अपने मार्ग का अनुशरण दृढतापूर्वक करना चाहिेए । आप अपने आत्मा को तभी सन्तुष्ट कर सकते हैं जब आप अपने मन से स्पष्ट हों कि आप कुछ कर रहे हैं,और जो कुछ कर रहे हैं वह सही है ।जो लक्ष्य के प्रति संदेहशील हैं, स्पष्ट नहीं हैं वे तो सफलता के लिए व्यर्थ ही प्रयत्न करते हैं ।

 

ख-           मनुष्य को अपनी सीमॉओं को जानना चाहिए,उनका उलंघन नहीं करना चाहिए ।मर्यादा से परे जाना अथवा अपनी सामर्थ्य की सीमा को पार करना तो अपने प्रति हिंसा करना है । यदि आप लक्ष्य प्राप्ति के प्रति सच्चे हैं तो आपको उसकी ओर स्थिर गति से इच्छाशक्ति,धैर्य और दृढता के साथ आगे बढते रहना चाहिए ।

 

ग-           यदि आप जो उचित है उसे करना सीखें तो आप निर्भय हो सकते हैं । जो व्यक्ति न्यायसंगत उचित मार्ग का अनुशरण कर रहा है वह अनुचित प्रभावों और दबावों का प्रतिरोध भी कर सकता है । जिसे वह अनुचित समझता है, यदि उस कृत्य को करने या समर्थन देता है तो वह स्वयं को दुर्वल करता है,चाहे उससे कितने ही भौतिक लाभ क्यों न कर सकता हो । एक बुद्धिमान पुरुष सॉसारिक प्रलोभनों के सामने झुक जाने से अपने मन को दूषित नहीं करता, वह तो जीवन के सीधे सच्चे मार्गों का अनुशरण ही करता है ,जो कि सत्य,प्रेम, करुणॉ,न्याय और नैतिकता के आधार है, जो कि सार्व भौमिक हैं। प्रेम और उदारता को अपनाकर जीवन को संरक्षित किया जा सकता है ।

 

घ-           न्याय संगत कर्म करने वाले लोगों की रक्षा तो वह परम सत्ता रहस्यमय तरीके से करती है । न्यायसंगत कर्म शक्ति और शॉति के पथ पर अग्रसर होता है ।औचित्य का अर्थ है जो कुछ आप सोचते हैं अथवा करते हैं वह सब उचित है , स्वार्थ से ऊपर उठकर करना चाहिए ।

 

ड-           कभी-कभी किसी परिस्थिति पर गंभीर सोच-विचार का समय न हो और शीघ्र निर्णय लेना आवश्यक हो सकता है । लेकिन शीघ्रता का अर्थ उतावलापन नहीं है ।जल्द बाजी मनुष्य को कठिनाई में डाल सकती है । जो कि खतरे से कम नहीं है । यदि आपके पास सोचने का समय है तो उन पगों के पक्ष और विपक्ष में विचार करें,जिन्हैं आप कर रहे हैं । करने से पहले सोच लेना चाहिए,देख लेना चाहिए । और जो अपने चिंतन शक्ति का उपयोग नहीं करता वह कुण्ठित रहता है ,फिर मानव देह होते हुये भी पशु श्रेणी में आ जाता है । विचारहीन लोग अधिक उतावले होते हैं वे जल्दी में हिंसा कर बैठते हैं विवेकहीन होकर हिंसा का आश्रय लेना बुद्धि की पराजय तथा नैतिक भावना की पूर्ण उपेक्षा होती है,जिसपर कि बाद में पछताना पड सकता है ।

8- शिकायतें और संवाद-

क-          आपका प्रमुख लक्ष्य मन के समस्त तनावों को शॉत कर देना होना चाहिए ,तभी तो आप जीवन में कठिन परिस्थितियों का सामना कर सकते हैं,और अपनी योजनाओं और आकॉक्षाओं को पूर्ण कर सकते हैं ।यदि आपके मन में कोई शिकायत है या नाराजगी है तो आप उसे उचित व्यक्ति से बुद्धिमतापूर्ण व्यक्त कर सकते हैं ,उसे दबाना नहीं चाहिए,इससे दम घुंटता है ।

 

ख-          यदि आप तनाव को देर तक पालते हैं तो यह भयानक रूप धारण कर लेते है, समस्याओं के समाधान के लिए साहस के अभाव में उनसे बचने और स्थगित किये जाने से परिस्थितियॉ और भी विषम हो जातीहैं,जिससे विकट परिस्थितियों का सामना करना पड सकता है ।शॉति न खोंये । सामना करना सीखें । शॉत चित्त व्यक्ति समस्याओं का समाधान सरलता से कर लेता है जबकि उग्र चित्त वाला व्यक्ति अपने उत्ते्जनात्मक अक्खडपन से परिस्थिति को और अधिक विषम बना देता है ।

 

ग-          यदि आपको अपने विरोधियों पर विजय प्राप्त करनी है तो इससे बढकर और कोई नहीं नहीं हो सकता है कि आप प्रत्येक परिस्थिति में शान्त और संयमित रहें। प्रत्येक परिस्थिति में शान्त और मुस्कान युक्त रहने की आदत डाल सकते हैं । विवेकशील व्यक्ति कभी मन से उदास नहीं होता है । बाधाओं को साहस और प्रशन्नता से पार कर लेता है ।चुनौतियॉ तो मनुष्य के द्वार पर आकर अपने पराक्रम की परीक्षा करने आती हैं ।

 

घ-          जिस व्यक्ति से आप अपनी स्थिति समझाना चाहते हैं, और अपना भ्रम दूर करना चाहते हैं ,उस व्यक्ति से प्रयत्नपूर्वक संवाद करना उपयोगी होता है । संवाद खुले मन से तथा सकारात्मक दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न करना चाहिए ।अपना दृष्टिकोण स्पष्ट और सौहार्दपूर्ण होना चाहिए । एक दूसरे की बात समझकर ही उचित समन्वय हो सकता है । मतभेद और विवाद के विन्दु पर सहमति बना सकते हैं । मिलने और विदा होते समय सौजन्यपूर्ण व्यवहार करना उत्तम होता है । लेकिन ध्यान रखना होगा कि दुराग्रही और कट्टर लोगों से लम्बा विचार विनिमय करने से बचना चाहिए ।क्योंकि वे सत्य का अनुशरण नहीं करना चाहते हैं । दोहरी बात करने और कलाबाजी करने में निपुंण लोगों के साथ भी तर्क सावधानी पूर्वक करना चाहिए ।

9-पिछली बातें-

क-          जो बात बीत जाती है उनपर चिपटें नहीं ,वे बातें तो प्रेतवत् और स्तित्वहीन हैं । भूतकाल से चिपटे नहीं । जिस मनुष्य ने जीवन का पूर्ण लाभ उठाने का प्रयास किया है, वह अपने समय और शक्ति को भूतकाल की क्षतियों और शोकों पर विलाप करने में नष्ट नहीं करता है। अतीत पर सोचते रहने से अतीत को नहीं मिटा सकते है और न उसे रोक सकते है क्योंकि वह घटित हो चुका है ।

 

ख-          काल अप्रत्यक्ष में गतिमान रहता है तथा कोई भी मनुष्य घडी की सुई को पीछे नहीं कर सकता है या किसी बात को नहीं बदल सकता है । उस बात को तो अतीत में दफना दिया गया है ,इसका यथार्थ जगत में स्तित्व ही नहीं है । मनुष्य अतीत को ठीक प्रकार समझकर उसे शिक्षा तो ले सकता है लेकिन उसे पुनः जीवित नहीं सकता है । अतीत से हमारा सम्बन्ध ही नहीं होता , हॉ इसके द्वारा हम वर्तमान में भविष्य के निर्मॉण के लिए प्रयत्न कर सकते हैं । जो लोग पुराने हिसाब को चुकता करने के लिए प्रतिशोध करते हैं,वे तो अतीत की त्रुटियों को ठीक कर ही नहीं सकते हैं । प्रतिशोध तो पाश्विक न्याय होता है । इसलिए हमें सकारात्मक होना चाहिए,अतीत की चुभनों और वेदनाओं पर विजय पा लेनी चाहिए ,जिससे कि आप शॉत और सन्तुलित रह सकें और जीवन में नयें अध्यायों का सूत्रपात कर सकें । पुराने सडते घावों को कुरेदने से तो नयें संकट उत्पन्न हो जायेंगे ,जिससे नकारात्मक पग विपरीत प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं ।केवल सकारात्मक प्रयत्न ही सकारात्मक प्रतिक्रिया उत्पन्न कर सकते हैं जिससेजीवन में शॉति और उन्नति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है ।

 

10-आत्म सम्मान को न भूलें-

         आपके आत्म सम्मान की भावना इस वात में निहित है कि आप इस प्रकार आचरण कर रहे हैं कि आपको लज्जित न होना पडे । आत्म सम्मान करने वाला व्यक्ति कुछ ऐसे मूल्यों और सिद्धान्तों का पालन करते है कि वह नैतिक रूप से उसे समुचित समझता है । और व्यवहार में सीधा-सच्चा रहने का प्रयत्न करता है । यदि कोई व्यक्ति तुच्छ सी बात को प्रतिष्ठा या आत्म सम्मान का विन्दु बनाता है तो वह अहंकारवादी है ।जीवन में सिद्धान्तों का पालन करते हुये भी उदार होना चाहिए, तथा दूसरों के आचरण की अपेक्षा स्वयं के आचरण पर अधिक ध्यान देना चाहिए ।उदार चित्त जीवन में लाभदायक है ।

Wednesday, September 5, 2012

अपनी पहचान की खोज


1-स्वयं को खोकर पाएं-
          हम भव्य और दिव्य बन सकते हैं यदि हम स्वयं को खोकर पाने की अनुभूति करते हैं तो ।हमें अपने भीतर भव्य और दिव्य में खोना सीखें ।अपने भीतर गहराई में प्रवेश करके ही हम अपने यथार्थ स्वरूप को जान सकते हैं तथा वास्तव में शक्तिशाली और आनन्दमय हो सकते हैं । तब आप भौतिकता से परे होंगे तथा जीने की इच्छा और मरने के भय से ऊपर उठ जाएंगे और अनन्तता में जी सकेंगे । ज्योंही हम नेत्र बन्द करते हैं वैसे ही बाहरी उद्दीपक की वस्तुओं से हमारा सम्बन्ध विच्छे्द हो जाता है ।फिर हमारी यात्रा प्रारम्भ हो जाती है । विचारों के द्वन्द मन्द होने लगते हैं । विचारों की भीड में समिलित होने से बचें ।
          मन की सतह पर उभरने वाले विचारों इच्छाओं,स्मृतियों,निराशाओं और भयों की प्रतिक्रिया न होने दें । उनसे दूरी बनाये रखें । फिर देखेंगे कि मन का तूफान धीरे-धीरे शान्त होता जायेगा । गहन शॉन्ति और आनन्द के क्षेत्रों तक पहुंचना सम्भव होगा । इसके लिए धैर्य और लग्न से अभ्यास करना जीवन में  सफलता के लिए आवश्यक है । ध्यान में मनुष्य मन से ऊपर उठकर तथा उससे परे जाकर अपने भीतर दिव्य स्व(अपने दिव्य स्वरूप ) का अनुभव कर सकता है । जो कि इस जीवन का केन्द्र तथा श्रोत भी है ।हमारा मूल दिव्य श्रोत पर्ण आनन्द है । मनुष्य यह अनुभव कर सकता है कि विशुद्ध चेतन ही हमारे चेतन का केन्द्र है । दृष्टि का भी केन्द्र वही है । मानव की आत्मा तत्वतः वही है जो विश्वात्मा है । वह तू ही है ।
 
 
2-अपनी पहचान की खोज-
          हमें अपनी पहचान के सम्बन्ध में हमेशा भ्राति रही है । क्योंकि उसके जीवन में हमेशा अनेक कष्ट एवं दोष उत्पन्न होते रहते हैं । हम इस शरीर को केवल हाड-मॉश का पुतला मानते हैं,ऐसा नहीं है,जो बाहर दिख रहा है उससे अधिक उसके भीतर है ।यदि हम अपने भीतर गहरे उतरकर देखें तो हमें अपने यथार्थ स्वरूप का बोध हो सकता है । गहराई में दिव्य तत्व विद्यमान है,वही तो जीवन का श्रोत है ,और हमारे स्तित्व का केन्द्र है । वही हमारा यथार्थ स्वरूप या आत्मा है । मनुष्य तो निश्चय ही मूलतः दिव्य है ।क्योंकि उसमें आत्मा का निवास है । विचारों से परे जाएं तो वहॉ आपको भव्य ज्योति का संदर्शन होगा ।वह जीवन की परम उपलव्धि भी है जिसके लिए मनुष्य सर्वथा सक्षम है ।
 
 
3-दिव्य तत्व-
          दिव्य सत्ता क्या है ? देखें यह एक विशुद्ध चेतना है । शाश्वत ,अनादि और अनंत है । स्तित्व केवल दिव्य सत्ता का ही तो है। बाकी सब क्षण भंगुर है । निरन्तर परिवर्तनशील हैं जबकि दिव्य सत्ता परिवर्तन रहित है ।यह सत् है ।आनन्दमय् है ।ध्यान करें तो पायेंगे कि उसका वास्तविक स्वरूप वही है जो विश्व सत्ता का है । मैं वह हूं, वास्तव में मैं वही दिव्य तत्व हूं । अहम् ब्रह्मास्मि ।
  
 
4-अन्तःक्रिया और विकास-
          जिस प्रकार वृक्ष के विकास में बीज की सक्रिय भूमिका निहित होती है, उसी प्रकार अन्तः विकास की प्रक्रिया पूर्व कल्पना पर निर्भर है । पूरे विश्व का विकास इसी धारणॉ पर आधारित है । बीज ही वृक्ष है क्योंकि वृक्ष बीज का ही विकसित रूप है विश्वात्मा केवल एक ही है । उसका कोई नाम और वर्ग नहीं है,यद्यपि वह स्वयं को असंख्य प्रकार से व्यक्त कर देता है और अनेक प्रकार से उसका वर्णन किया जा सकता है । विशुद्ध चेतना ही तो परम सत्य है । और अन्तिम सत्य है । परमात्मा तो सत् चित आनन्द है ।
 
5-सृष्टि की रचना-
          परमात्मा केद्वारा सृष्टि उल्लासमय रचना है ।इस सृष्टि की रचना एक छोटे से कण के अनार की भॉति विस्फोट से चारों दिशाओं में फैलकर हुई ।फिर इसने प्रकृति के विकास के नियमों का अनुसरण किया ।कालान्तर में जीवन के विकास का आविर्भाव होने का विशेष महत्व है ।सम्भवतः मनुष्य सृष्टि का शिखर है तथा मनुष्य के पास बुद्धि होने के कारण उसमें प्रकृत्ति के रहस्यों को खोजने की आगे प्रबल सम्भावना है । साथ ही स्व की अनुभूति करने की समभावना है ।
          परमात्मा तो विकास के द्वारा स्वयं को व्यक्त करता है ,तथा विश्व में व्याप्त है। इस प्रकार परमात्मा जो विशुद्ध चेतना है,सर्वव्यापक है। अर्थात विना विश्वात्मा के कुछ भी अस्तित्ववान नहीं है । वह तो प्रत्येक वस्तु में समाया है ।सर्वव्यापक सर्वत्र और सर्व समर्थ है । प्रॉणियों से प्रेम करना तथा जीवन को अधिकतम संरक्षण और परिरक्षण देना है । परमात्मा सत्य है। परमात्मा शिव है । परमात्मा सुन्दर है ।हम कह सकते हैं कि सत्यं शिवं सुन्दरम् परमात्मा के विशेष गुंण हैं ।परमात्मा स्वयं उन सब में विशेषतः व्यक्त करता है जो सत्य, शिव और सुन्दर हैं । परमात्मा की अनुभूति करने के लिए मनुष्य को सत्यं शिवं सुन्दरम् का अनुसरण करना चाहिए ।
 
 
6- स्थाई सुख-
हम दुनियॉ में स्थाई सुख की तलाश में भटकते रहते हैं जबकि यह सुख हमारे ही भीतर छिपा है । यह कोई क्रय की जाने वाली वस्तु नहीं है। जिसे जाकर खरीद लिया । धन और सत्ता कभी भी सुख नहीं दे सकते हैं । सुख तो आन्तरिक अनुशासन की सहज परिणति है । हमें इसी प्रकार की अनुशासित मानसिक अवस्था प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए जो कि हमारे जीवन के सकारात्मक विकास के साथ जुडी हुई है । स्थाई सुख तो हमारे आन्तरिक स्वच्छता,दिव्य सत्ता के साथ निशव्द स्थिति में भेदभाव रहित निस्वार्थ सेवा से उत्पन्न होता है ।वे व्यक्ति जो अपनी सुरक्षा और शक्ति के लिए भौतिक सम्पदाओं पर निर्भर होते हैं वे अन्त में एक दिन अपनी सुरक्षा और शक्ति के लिए और उत्तम कार्यों के फल के लिए दैवी सत्ता की ओर अवश्य लौटते है,यहीं उसको स्थाई शॉति मिल सकती है ।
 
7-शॉति धाम की ओर-
          हमारे भीतर गहरा शॉतिधाम है ।इसलिए हम कठिन से कठिन समस्याओं का सामना करते हुये भी शॉतिमय रह सकते हैं । अगर हम अपनी शॉति को स्थिर रखने का संकल्प कर लेते हैं तो हमारी इस शॉति को कोई भी भंग नहीं कर सकता है । अगर हम अपने जीवन में शॉतिपूर्ण जीवन यापन करना चाहते हैं तो हमें सहनशीलता और क्षमाशीलता से प्रारम्भ करना होगा ताकि प्रेम और उदारता की वृत्ति को विकसित किया जा सके ।तुच्छ बातें निश्चित ही तनाव पैदा करते हैं ,हम वाह्य घटनाओं से निराश होकर सत्य के अनुसरण से विचलित होते रहते हैं जोकि हमारा अविवेक है । इसलिए हमें अपने कर्तव्यों के निर्वहन में वाह्य घटनाओं से क्षुव्ध नहीं होना सीखना जाहिए चाहिए ।
          शॉति धाम तो हमारे ही भीतर है ।दिव्य सत्ता तो हमारे भीतर है उसके साथ हमें तारतम्य रखना चाहिए । अगर आप अपने जीवन के अर्थ और संदेश को समझ लें तो आनन्दमय जीवन यापन कर सकते हैं । गहन चिन्तन करने वाला तो स्वयं खोज करता है ,और वह इस निष्कर्ष पर अवश्य पहुंचता है कि भौतिक सुखों के पीछे उन मूल्यों और सिद्धान्तों के पीछे नहीं भागना चाहिए जिन्हैं वह स्वीकार करता है ।
 
 
8-हमारा जीवन किस लिए है -
हमारे सामने प्रश्न उठता है कि हम किसलिए जीते और मरते हैं । अगर हम स्वयं से पूछें तो बुद्धि चकरा सकती है । इसका उत्तर हमें अपनी योग्यता के अनुसार स्वयं से मॉगना चाहिए । इसमें कोई एक उत्तर प्रत्येक मनुष्य को सन्तुष्ट नहीं कर सकता है ,उत्तर भिन्न-भिन्न हो सकते हैं,क्योंकि जीवन के अगणित आयाम और कोंण हो सकते हैं । हमारा सम्पूर्ण जीवन एक है, तथा समस्त चेतना एक अखण्ड समष्टि है ।जिसमें समस्त जीवधारी एक गहरे स्तर पर परस्पर जुडे हैं ।
          हम जितना अधिक अपने भीतर विकसित होते जाय़ेंगे चेतना का विस्तार होता जायेगा ,और फिर वह अपने स्वरूप की अनुभूति कराता है । यदि आप आत्म विश्वास और आशा सहित सकारात्मक दिशा में आगे बढेंगे तो,आप न केवल कुछ उत्तम और भव्य उपलव्धि प्राप्त कर लेंगे बल्कि अपने दोषों पर भी विजय प्राप्त कर लेंगे । आप उन स्वाभाविक योग्यताओं और अपने उन गुणों को जो आपको अन्य लोगों की अपेक्षा विशिष्टता प्रदान करते है,पहचानकर उनका पोषण कर सकते हैं । तभी आपके व्यक्तित्व का विकास हो सकता है । इसके लिेए आपको धैर्य और साहस की आवश्यकता होगी ।
          सफलताके रास्ते छोटे-छोटे नहीं होते हैं बल्कि विफलता के रास्ते छोटे-छोटे होते हैं । उसी प्रकार जीवन के रास्ते छोटे नहीं होते बल्कि मृत्यु के रास्ते छोटे होते हैं । यदि आप घृणॉ को प्रेम से,क्रोध को क्षमा से, ईर्ष्या को स्नेह से,स्वार्थ को त्याग से,लोभ को सन्तोष से,भय को साहस से,निराशा को आशा से और अकर्मण्यता को कर्म से प्रतिस्थापित कर दें तो सफलता से सफलता और शक्ति से शक्ति तक बढते रह सकते हैं । दिव्य सत्ता और दैवी कृपा में विश्वास करना सीखें ।
          यदि आप उस आदर्श के प्रति जिसे आपने अपनाया है और उस मार्ग के प्रति जिसे आपने ग्रहण किया है,यदि निष्ठावान हैं तो समझो आपने आधी लडाई जीत ली है । और यदि आपमें संघर्ष को अकेले रहकर भी चलाने के लिए साहस और धैर्य है तो आपका प्रयत्न अवश्य सफल होगा । जो भी अपने आदर्श के लिए संघर्षरत् रहता है,उसे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि व्यक्ति लडते और गिरते रहते हैं मगर आदर्श कभी पराजित नहीं होता है । वास्तव में जो आदर्श के लिए गिरता है,वह कभी मर नहीं सकता है,क्योंकि वह पतन और मृत्यु से ऊपर उठ जाता है,और उच्च आदर्श के प्रति समर्पण से अमरत्व को प्राप्त कर लेता है ।
9-समान मगर भिन्नता -
          हम देखते हैं कि मनुष्य देखने में एक समान होते हैं मगर सबमें भिन्नता होती है ।कोई भी दो व्यक्ति पूर्णतः समान नहीं होते हैं । प्रकृति में भी भिन्नता अनन्त देखी जा सकती है । दो पुष्प और पत्तियों को देखें तो वे भी एक समान नहीं होते हैं ।सत्य भी है अगर एक रूपता हो तो संसार नीरस हो जायेगा । हर व्यक्ति में विशिष्ट गुण और ईमानदारी से समाज में उसकी अपनी अलग सी पहचान बनती है ।
          व्यक्तियों में आगे बढने में अधिक अन्तर उपयुक्त नहीं हैं ,लेकिन अगर जो भी अन्तर है वह परस्पर प्रेमपूर्ण,संवेदनशील सम्बन्धों से समाज में सर्वत्र सामज्जस्य,शॉति और समृद्धि का वातावरण बनने में सहायक होता है । संकीर्ण और स्वार्थपूर्ण उद्देश्य दरार उत्पन्न कर देते हैं । यह समाज के लिए एक अभिशाप भी है ।उन्हैं हतोत्साहित किया जाना चाहिए ।सार्व भौमिक एकता के लिए विशेष सुविधाएं समान परिस्थितियों में सबके लिए समान होनी चाहिए ।
          अगर देखें तो प्रत्योक व्यक्ति किसी समाज का एक अंग होता है ,लेकिन फिर भी अलग-अलग हैं ।हर एक की मनोरचना,स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं ।हरएक में अपनी अलग सी विशेषता,आदतें होती हैं आप इस संसार में किसी के भी समान नहीं हो सकते हैं ,हर व्यक्ति की अपनी अलग सी पहचान होती है । अगर एक समान है तो वह है मानव स्वभाव जो कि सबमें समान है ।जिससे आप हरएक के साथ समायोजन कर सकते हैं, अपना स्थान बना सकते हैं ।
          व्यक्ति का एक प्रमुख गुंण उसका स्वभाव है । उत्तम स्वभाव से उसके चारों ओर का वातावरण सुखद ही नहीं होता बल्कि दूसरों के सम्मान से प्राप्त आपको आन्तरिक प्रशन्नता भी मिलती है । इसलिए हमारा दायित्व बनता है कि अपने शिष्टाचार में हमेशा सौहार्दपूर्ण रहें और दूसरों केसाथ व्यवहार करते समय शॉति बनाये रखें । दूसरों की उपेक्षा या अपमान करने से दण्ड का भागीदार होता है ।एसलिए दूसरों के प्रति हमेशा सहनशील और मधुर होना चाहिए ।
 
 
10-अन्तरात्मा की आवाज-
मनुष्य की अन्तरात्मा एक गहरे समुद्र की भॉति है । हम देखते हैं कि उस समुद्र के किनारे अत्यधिक झाग और कूडा करकट होते हैं और नीचे धरातल पर असंख्य रत्न होते हैं,जल स्वच्छ और शॉत होता है । इसी प्रकार हमारी अन्तरात्मा को आच्छादित करने वाली गन्दगी की भी तह होती है, लेकिन गहरे तल पर शॉति और प्रकाश के रत्न होते हैं ,दिव्य सत्ता स्वच्छ अन्तरात्मा के द्वारा स्पष्टतः बोलती है भलेही उसे सुनना बहुत कठिन होता है । स्वच्छ अन्तरात्मा की वॉणीं परमात्मा की वॉणीं होती है,इसे हमें नहीं भूलना चाहिए । हमें सॉसारिक इच्छाओं से प्रवृत्त नहीं, बल्कि अपनी अन्तर्प्रेरणॉ के अनुसार कार्य करना चाहिए ।
          अपने अन्तररतम् वॉणी को सुनकर और यथा सम्भव उसका अनुशरण कर मन की शॉति को प्राप्त किया जा सकता है । तभी हम सुखी रह सकते हैं,लेकिन ऐसा करना कठिन प्रतीत होता है ।असम्भव तो है मगर उचित है । अपनी अन्तर्वॉणी को दवाने से अन्तर्द्वन्द उत्पन्न हो जाता है,जिससे तनाव की स्थिति बन जाती है । फलस्रूप मन अशॉत हो जाता है । कभी-कभी हम अपनी तार्किकता को अन्तरात्मा के साथ जोड देते हैं ।यदि आप महत्वपूर्ण निर्णय ले रहे हैं तो उसे यथा सम्भव पूरी सच्चाई और ईमानदारी के साथ कार्यान्वित करने का प्रयत्न करें । यही तो शॉति और सुख प्राप्त करने का मार्ग है ।
          यदि आप अपने कर्म के औचित्य के विषय में आश्वस्त हैं तो उसे करते समय मन में अन्तरद्वन्द और संकोच नहीं होना चाहिए ।यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि आपकी अन्तरात्मा आपके तर्क का समर्थन करती है तो आप स्वयं को असहाय अनुभव नहीं करेंगे और न फल की चिन्ता करेंगे ।
 
 
  11-बात का बतंगड-
कभी-कभी होता क्या है कि बेबात की बात उठ जाती है,तथा जोर से चीखकर उत्तेजना और क्रोध पूर्ण भाव से युद्धकारी दृष्य उत्पन्न कर देते हैं । ऐसे लोगों में दूसरों की बात सुनने के लिए धैर्य नहीं होता है,वे वातावरण को तनावपूर्ण बना देते हैं,जिससे सभी धीरे-धीरे सभी उग्र हो जाते हैं,जिससे समझौते से काफी दूर चले जाते हैं । होता क्या है कि जो लोग कटु स्वभाव के होते हैं वे वे लोग तुच्छ बातों को सिद्धान्त और प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं,वे बुद्धिहीन की तरह बातें उठा लेते हैं और उन्हैं बढा चढाकर प्रस्तुत करते हैं । उन लोगों की उपेक्षा की जानी चाहिए । अगर देखें तो वे दया के पात्र होते हैं ,इसलिए उन्हैं धैर्य़ एवं शॉति से शॉत किया जाना चाहिए । क्रोध का सामना शीतलता से होना चाहिए ।
          जो लोग बुद्धिमान होते हैं वे तो जटिल समस्याओं का भी समाधान सौहार्द से कर देते हैं । नासमझ लोग तो अपने लिए और दूसरों के लिए समस्याएं खडी कर देते हैं । आप हमेशा उत्तेजना होते हुये भी शॉत रहें, यही तो आपकी पहचान है । जो लोग झगडा करने की आदत बना लेते हैं,वे लोग न केवल अपने समय और शक्ति को नष्ट करते हैं बल्कि अपने चारों ओर वातावरण को भी दूषित करते हैं । उनमें जीवन के मूल्यों के लिए सम्मान नहीं होता है । वे आकृति होते हुये भी मात्र पशु हैं ।
          जो लोग अपने जीवन को उपयोगी बनाने तथा उपलब्धि का संकल्प ले चुके हैं ,उन्हैं तो व्यक्तिगत विवादों और कलह के लिए फालतू समय ही कहॉ मिलता है । केवल एक मूढ व्यक्ति को ही उन असंख्य पशुओं के साथ उलझने का समय मिलता है जो कि उसे कई सडक पर ही मिल जाते हैं ।दुष्ट व्यक्ति के लिए तो रास्ता छोड देना श्रेयस्कर माना गया है । यह ठीक ही कहा गया है कि कुत्ते को चला जाने दें बजाय इसके कि वह काट खाए ।
 

Monday, August 27, 2012

शक्ति का सन्तुलन







 

1-घबराहट- या अधीरता-
          हमारी इच्छाओं से आशाएं बनती हैं,और जब ये आशाएं समाप्त हो जाती हैं तो निराशा का जन्म होता है । और यही निराशा व्यक्ति में घबराहठ को उत्पन्न करता है । जिसका अर्थ हुआ आत्म समर्पण ,भावुकता ,बुद्धि की मलिनता और भावावेश द्वारा मन की ऐसी स्तव्धता की अवस्था में बह जाना जहॉ चिन्तन शक्ति प्रभावहीन और निष्क्रिय हो जाती है । यह स्थिति आत्म पतन की अवस्था है । यह अधीरता उसे कम्पित कर देती है । भले ही यह अवस्था मूर्खतापूर्ण है ,क्योंकि इसका दोषी वह स्वयं होता है । क्योंकि विवेकशील मनुष्य तो इस बात का ध्यान रखता है कि किसी भी परिश्थिति में अपने मन को नियंत्रण में रखा जाय । और आत्मपतन या अवसाद में डूबने से बच जाता है । अधीरता की इस स्थिति से मुक्ति के लिए ध्यान एक अमोघ उपाय है । जिसके द्वारा शीघ्र ऊर्जा विमोचन द्वारा मन को ऊपर उठाया जा सकता है ,अपने उत्साह को बनाये रखा जा सकता है। ध्यान के द्वारा जीवन के प्रति उत्साह पुनर्जीवित किया जा सकता है तथा आशा,साहस और विश्वास की पुनर्स्थापना हो जाती है ।
 
 
 2-आशा भग्नता और सृजनात्मकता-
          कभी-कभी व्यक्ति की आशाएं समाप्त हो जाती है जिससे वह दुखित अवस्था में होता है।वह एक आक्रामकता की अवस्था में हो जाता है ।लेकिन यदि उसे अभिव्यक्ति का उचित माध्यम दे दिया जाय तो वह ऊंचाइयों तक पहुंच सकता है । ये आशा भंग,ऊष्ण वाष्प की भॉति एक बल होता है जो कि सृजनात्मकता के लिए अत्यधिक सहायक भी हो सकता है । देखा गया है कि घोर आशाभंग, निराशा और विषाद के क्षणों में उदात काव्य की रचना हुई है।अमर कलात्मक रचनाओं का जन्म हुआ है।उत्कृष्ठ दर्शन का उदय हुआ है ।
         
          महान वैज्ञानिक खोजें हुईं हैं।आशाभंग मनुष्य की इच्छाशक्ति जागृत और तीव्र होने से मनुष्य चुनौतियों को स्वीकार करता है, वह कठिन कार्यों को साहस पूर्वक करने तथा असंभव को संभव कर देने के लिए सक्षम हो जाता है । और कालान्तर में वह विजेता बनकर सामने आता है । इसलिए दुःख महानता और प्रताप का प्रदायक होता है । वैसे भी अगर देखें तो सामान्यतः जीवन में पूर्ण सुख की अवस्था मात्र एक स्वप्न है । थोडा सा तनाव,थोडी सी व्यग्रता थोडा सा दवाव और थोडा सा दुःखमयता का होना सामान्य होता है । और ये तो जीवन के अविभाज्य अंग भी होते हैं ।
         
          कोई भी व्यक्ति पूर्णतः सुखी नहीं होता । सुख आता है लेकिन उसे पकडकर स्थिर रखना बहुत कठिन होता है । लेकिन फिर भी दुःख पर विजय प्राप्त की जा सकती है । और वाधाओं से उल्लास उत्पन्न किया जा सकता है । मनुष्य को सुख प्राप्त करने के लिए तो मनुष्य को उसकी कीमत चुकानी होती है ।
 
 
3-साहसी और वीर बनें-
           इस जीवन को जीने के लिए और जीवन का भरपूर लाभ उठाकर उसे सुखमय बनाने की इच्छा तो प्रकृतिदत्त है । हमें इसे किसी भी कीमत पर मन्द होने नहीं देना है। चाहे मनुष्य कितने ही भयप्रद परिस्थितियों से क्यों न घिरा हुआ हो । अवसाद और अधीरता की सोचनीय स्थिति में जीवन के सुख प्राप्त करने को जागृत किया जाना चाहिए । इसके लिए वीरता और साहस के गुंण आवश्यक हैं । इन गुँमों के अभाव में जीवन एक सडी हुई वस्तु हो जाती है । वीरता का अर्थ एक आदर्श हेतु खतरे और दुःख का सामना करने और उसे सहन करने के लिए तत्पर रहना है । साहस का अर्थ -वीरता के कृत्य करने में भय को नियंत्रित करना और उत्साह जगाना है । और ये एक स्वस्थ व्यक्तित्व के लक्षण भी हैं । हमें इनका संरक्षण सावधानी से करना चाहिए ।
         
          मनुष्य को जीवन के तूफानों पर विजयी होने,विशिष्ठ क्षेत्रों में श्रेष्ठता प्राप्त करने,और संकट में निराशा पर विजय प्राप्त करने केलिए इन गुणों की आवश्यकता होती है ।जैसे प्रकाश का स्तित्व अन्धकार के साथ सम्भव नहीं है उसी प्रकार वीरता का भय के साथ सम्भव नहीं है ।कोई भी मनुष्य जीवन का अर्थ और संदेश तबतक नहीं जान सकता है जबतक वह वीर और निर्भीक न हो । भय का त्याग और वीरता से कर्म करने पर ही मनुष्य जीवन को समक्झ सकता है,उसका सुख प्राप्त कर सकता है । और उसका लाभ उठा सकता है ।
         
          मनुष्य को शोक और दुःख सहने,रोगों से संघर्ष करने और मृत्यु का सामना करने में जो भौतिक शरीर की क्षीणता हेोती है इसके लिए वीरता का गुंण होना चाहिए । हमारी दृढ इच्छाशक्ति की पूर्णता में जो कठिनाइयॉ आती हैं उनका सामना निर्भीकता व वीरता से ही सम्भव है । लेकिन वीरता का अर्थ उतावलापन या उदण्डता नहीं है । वीरता और साहस तो जब किसी श्रेष्ठ आदर्श के साथ संलग्न होते हैं तो वे स्वयं में चमक उठते हैं । अन्यथा वे संकट उत्पन्न कर सकते हैं । इसलिए आप भी यदि कुछ उत्तम और भव्य उपलव्धियॉ प्राप्त करना चाहते हैं तो वीर और साहसी बनें ।
 
 
4-अवसाद से आनंद की ओर-
           अवसाद का अर्थ है चेतना का निम्न हो जाना । इससे मनुष्य अधीर हो जाता है, और वह अनावश्यक भय,चिन्ता और आत्मदया से भर जाता है । मनुष्य कम्पित हो उठता है । मन का सन्तुलन और शॉति व्याधित हो उठती है । आत्म विश्वास भंग हो जाता है और मृत्यु की इच्छा उत्पन्न हो जाती है । इससे उसका शरीर कुप्रभावित हो उठता है । वह दुर्वल होता है । वैसे अवसाद कोई रोग नहीं है ,यह तो एक मानसिक अवस्था है । इस अवसाद पर हम आसानी से विजय प्राप्त कर सकते हैं । इस अवसाद से स्थाई मुक्ति का उपाय है ध्यान करना, इससे चेतन अवस्था का उत्थान होता है और मन आनंद की ओर अग्रसर होता है ।
         
          मनुष्य जितना ही आनंद की ओर बढता है,उतना ही वह अवसाद पर विजय प्राप्त कर लेता है ।यदि मनुष्य नियम पूर्वक ध्यान करना प्रारम्भ करें तो अवसाद पर आसानी से विजय प्राप्त की जा सकती है । क्योंकि ध्यान अवसाद के ज्वार को बल पूर्वक और त्वरित गति से बाहर खीच लेता है ।
 
 
5-निद्रा और ध्यान की अवस्था-
          यदि आप सुख और दुख दोनों विचारों को नियंत्रित कर लेते हैं और उन्हैं विस्मृति में दबा देते हैं तो निद्रा आने लगती है । इसी प्रकार यदि ध्यान में गहरे उतर जाने के लिए सुख औप दुख दोनों स्मृति तरंगों से परे जाना होगा और विचारों की सम्पूर्ण उलझनों को बाहर ही रोतना होगा । ध्यान का अर्थ है अपने भीतर विराजमान दिव्य सत्ता तक अर्न्तयात्रा करना । निद्रा और ध्यान दोनों विश्राम पूर्ण अवस्थाएं हैं,किन्तु ध्यान अल्प अवधि में ही निंद्रा की अपेक्षा कहीं अधिक आराम और ताजगी देता है । ध्यान न केवल स्नायविक सक्रियता को निम्न कर देता है बल्कि अधिकतम विश्राम भी प्रदान कर देता है । तथा अपने भीतर स्वस्थ और सुखी होने का एक गहन बोध उत्पन्न भी कर देता है ।
 
 
6-अन्तर्मौन की निस्तब्धता की स्थिति-
          जब हमारा मन निर्विचारिता में अन्तर्मौन में स्थित होता है और विश्राम तथा निश्चेष्टता की अवस्था में आ जाता है,तब चिंतन,स्मरण और एकाग्रता की शक्तियों का पुनः स्थापन होकर पुनः प्रवलित हो जाती हैं । अन्तर्मौन की निस्तव्धता से में मानसिक ऊर्जा की आपूर्ति हो जाती है ।वह अनावश्यक बडबडाहट जिससे कि मन प्रायः घिरा होता है,निवृत हो जाता है । मन की तेज दौड की खडखड भी समाप्त हो जाती है और एक निशव्दता आ जाती है । मन में एक रिक्तता सी उत्पन्न हो जाती है जिससे चारों ओर शॉति से भर जाता है । असंगत विचारों की उलझन से उत्पन्न भ्रम दूर हो जाता है ,मानो कॉट-छॉट हुई हो और स्वस्थ विचारों के पुष्प मधुर गन्ध में खिलने लगते हैं ।वह कलह,संघर्ष,अधीरता,और व्याकुलता की पीडाप्रद स्थिति से निवृत्त हो जाता है तथा शॉति और सामंजस्य का साम्राज्य छा जाता है ।वह स्थिति आती है जब मन को उन्मुक्तता ,वृद्धि ,विस्तार और उत्कर्ष की रहस्यमयी अनुभूति के अवतरण का आभास होने लगता है। उस दशा में मन दिव्यता और आनंद के साथ समस्वर हो जाता है ।
 
 
7-अन्तर्मौन और ध्यान की अवस्था-
          अन्तर्मौन का मतलव आपने भीतर गहरे स्तर पर प्रशान्त अवस्था । मन की शॉति,शक्ति और स्थिरता का सूत्र । अपने भीतर के क्रिया कलापों को जाना जा सकता है । अन्तर्मौन मनुष्य को अपने जीवन में ऊंचाइयों तक उठने के लिए सक्षम बना देता है । अन्तर्मौन के विना ध्यान एक निरर्थक क्रिया बन जाती है । क्योंकि वे दोनों परस्पर सम्बद्ध हैं । प्रार्थना और ध्यान करना हो तो मौन में ही सम्भव है भले ही प्रार्थऩा भी अन्तर्मौन में सहायक हैं । अन्तर्मौन वह अवस्था है जबकि वह दैवी शक्ति की वॉणी का श्रवण कर धीरे-धीरे अन्तर्प्रकाश को प्राप्त कर सकता है । प्रारम्भ में ध्यान में मन की क्रिया से ऊपर उठकर मनुष्य इसपर नियंत्रण कर इसकी शक्तियों का उपयोग उच्चत्तर उद्देश्यों के लिए कर सकता है जिससे जीवन की इस पोत का सकुशल संचालन हो सके । ध्यान मन का एक सरल व्याम है जिसमें मनुष्य को कुछ भी नहीं करना होता है बल्कि मन को प्रशॉत सागर में रहकर प्रगति को तबतक देखते रहना है जब तक आभामय दिव्य सत्ता के प्रकाश के अतिरिक्त कुछ भी न दिखे ।
 
8- ध्यान और जीवन की यात्रा-
        वर्तमान समय जबकि जीवन की यात्रा अनेक द्वेषों,घृणॉओं,अपमानों,आशाभंगों,तनावों,उत्तेजनाओं,क्षोभों तीखी चुभनों से भरा पडा है। हर दिन अनेक बाधाओं,खरोचों से परिपूर्ण होता है,इसलिए कि घटनाएं मनुष्य की योजनाओं और आशाओं के अनुसार नहीं होती हैं जिससे मन अत्यधिक थक जाता है ।इसके लिए शॉति और आनंद की प्राप्ति के लिए ध्यान एक सरल और सुनिश्चित मार्ग है। जीवन में समस्त समस्याओं के समाधान का भी उपाय है ,क्योंकि ध्यान मनुष्य को शॉत,सुव्यवस्थित-चित्त और साहसी बना देता है।कठिन परिस्थितियों में पूर्ण सन्तुलन से सामना कर सकता है। स्नायुतंत्र के लिए ध्यान से बढकर अन्य कोई उपाय नहीं है । ध्यान मस्तिष्क की समस्त अव्यवस्थाओं और विक्षुव्धताओं का और इस शरीर पर उनके प्रकिक्रियात्मक प्रभाओं के निवारण का अमोघ उपाय है । वास्तव में ध्यान मन को स्वस्थ बनाता है। इसके अतिरिक्त और कोई अन्य उपाय ही नहीं है । ध्यान से मनुष्य प्रशन्नचित् रहकर जीवन के मार्ग को पार कर मनुष्य को आत्म साक्षात्कार के योग्य बनाता है जिससे वह दिव्य सत्ता के युक्त होता है ।
 
 
9-चिन्तन तर्कशक्ति और ध्यान की अवस्था-
          चिन्तन तो मनुष्य का एक विशेषाधिकार है । तर्कशक्ति चिन्तन का सारतत्व है । हर व्यक्ति चिन्तन करता है,जो व्यक्ति चिन्तन और तर्कशक्ति का प्रयोग नहीं करता है,वह मानव नहीं है बल्कि पशु के समान है । बुद्धि का जितना उपयोग किया जाता है चिन्तन शक्ति उतना ही अधिक और बुद्धि का प्रयोग कम करने से चिन्तन और तर्कशक्ति का विकास भी कम होता है और बुद्धि के दुरुपयोग से चिन्तन शक्ति विकृत हो जाती है । सीखने की क्रिया होने से मस्तिष्क के कोशाणु जीवित रहते हैं । दैनिक जीवन की चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए मस्तिष्क का पूर्णतः अन्तर्गस्त होना आवश्यक है इससे मस्तिष्क सशक्त और दक्ष बनता है । हमारी चिन्तन शक्ति हमारी देह और मस्तिष्क व्यायाम से विकसित होती है । यदि आलस्य और अकर्मण्यता है तो हास हो जाता है । ध्यान से हमारी चिन्तन,स्मरण और एकाग्रता की शक्तियों की वृद्धि होती है ,और मनुष्य को अतिरिक्त ताजगी और स्थिरता प्राप्त होती है । ध्यान से हमारे आन्तरिक विकास ,रूपान्तरण तथा आध्यात्मिक आनन्द का द्वार खुल भी जाता है ।
 
 
10-प्रार्थना और ध्यान धारण-
          प्रार्थना और ध्यान दो चक्र है जिससे हमारा मन दिव्य केन्द्र बिन्दु तक पहुंच जाता है । हमारे भीर अज्ञात में छिपे हुये महान आश्चर्यों तक हमें पहुंचा देता है । स्तित्व की पहेली हमें स्पष्ट दिखाई देंगी । अपने भीतर और बाहर सर्वत्र व्याप्त अपनी आभामयी महिमा में आत्मा की खोज कर लेंगे ।हमें ध्यान से पूर्व प्रार्थना करनी चाहिए ,इसलिए कि ध्यान प्रार्थना का चरम बिन्दु है । प्रार्थना करें और ध्यान करें ।जब भी ध्यान करना हो अधितकतम उत्साह से करें ।ध्यान का अभ्यास तो ऐसा फल प्रदान करता है जिससे कि हम आज तक अनविज्ञ थे। प्रार्थना का अर्थ परमात्मा के साथ निरन्तर चेतन और अचेतन में नाता जोडना है ।प्रार्थना करने वाला मनुष्य स्वयं को कभी भी अकेला और असहाय अनुभव नहीं करता है,क्योंकि वह अपने भीतर निरंतर दिव्य सत्ता की उपस्थिति का अनुभव करता है ।
 
 
11-असहाय की स्थिति-
          कभी-कभी हम स्वयं को असहाय अनुभव करते हैं । उस समय हम समझें और देखें कि हमारा प्रयत्न असफल हो रहा है . इस समय मौखिक सहानुभूति और ठोस सहायता कितने ही सच्चे क्यों न हों, महत्वहीन दिखते हैं । बस उस समय नेत्र मूंद लें और पूर्ण आत्म समर्पण के भाव में स्थिर होकर सर्व समर्थ देवी सत्ता से प्रार्थना कीजिए और आश्वस्त हो जायें कि रहस्यमई परम सत्ता की सहायता हमें सुलभ हो जायेगी । लेकिन इस बात को ध्यान में रखना होगा कि परिस्थिति के अनुसार यथासम्भव कर्तव्य का पालन अवश्य करें ,कर्तव्य पालन में कभी शिथिल न हों ।चारों ओर दिव्य सत्ता नित्य विद्यमान रहती है, भावपूर्ण प्रार्थना में कहें कि हे प्रभो मैं सब कुछ आपकी इच्छा और व्यवस्था पर छोडता हूं,मैं आपकी शरण और कृपा चाहता हूं।हे प्रभो इस कठिन समय में मेरे साथ रहिए ।ध्यान रखें कि अपनी आन्तरिक शॉति को भंग न होने दें तथा अपने भीतर शॉन्त और निश्चल रहें । भय और चिन्ता से उत्पन्न भ्रान्ति से शक्ति का क्षरण होता है ।विश्वास से प्रार्थना करें।

 
12- दिव्य तत्व की पहचान करें-
          कोई भी मनुष्य तबतक सुखी नहीं रह सकता है जब तक उसे अपने भीतर विराजमान और सर्वत्र व्याप्त दिव्य सत्ता को न पहचाने और उसकी अनुभूति न करें । उस दिव्य सत्ता का चिन्तन करें तथा अपने भीतर गहन प्रवेश करें जिससे कि आप उस महान सत्ता को जान सकें । यह मानवीय परमोत्कर्ष तथा आनन्दमयता की अवस्था प्रदान करने का मार्ग है । उस मनुष्य को जो आध्यात्मिक विकास को छोडकर भौतिक धन-सम्पत्ति पर आधारित रहता है, वह मनुष्य एक दिन अवश्य निराश होकर इस दिव्य सत्ता को स्वीकार कर लोता है ,वही मनुश्य सदा सुखी रह सकता है । वास्तव में मानव मूलतः दिव्य है,क्योंकि उसके भीतर एक प्रकाशमान दिव्य आत्मा स्थित है जोकि उसके जीवन और आनन्द का स्रोत है । मानव अनेक आवरणों से मुक्त होकर अपने दिव्य स्व की खोज एवं अनुभूति कर सकता है । अज्ञान के इस धुंध को चिंतन और ध्यान द्वारा हटाया जा सकता है तथा दिव्य अन्तःप्रकाश का उदय हो सकता है ।
 
 

Friday, August 24, 2012

दर्पण




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