1-घबराहट- या अधीरता-
हमारी इच्छाओं से आशाएं बनती हैं,और जब ये आशाएं समाप्त हो जाती हैं तो निराशा का जन्म होता है । और यही निराशा व्यक्ति में घबराहठ को उत्पन्न करता है । जिसका अर्थ हुआ आत्म समर्पण ,भावुकता ,बुद्धि की मलिनता और भावावेश द्वारा मन की ऐसी स्तव्धता की अवस्था में बह जाना जहॉ चिन्तन शक्ति प्रभावहीन और निष्क्रिय हो जाती है । यह स्थिति आत्म पतन की अवस्था है । यह अधीरता उसे कम्पित कर देती है । भले ही यह अवस्था मूर्खतापूर्ण है ,क्योंकि इसका दोषी वह स्वयं होता है । क्योंकि विवेकशील मनुष्य तो इस बात का ध्यान रखता है कि किसी भी परिश्थिति में अपने मन को नियंत्रण में रखा जाय । और आत्मपतन या अवसाद में डूबने से बच जाता है ।
अधीरता की इस स्थिति से मुक्ति के लिए ध्यान एक अमोघ उपाय है । जिसके द्वारा शीघ्र ऊर्जा विमोचन द्वारा मन को ऊपर उठाया जा सकता है ,अपने उत्साह को बनाये रखा जा सकता है। ध्यान के द्वारा जीवन के प्रति उत्साह पुनर्जीवित किया जा सकता है तथा आशा,साहस और विश्वास की पुनर्स्थापना हो जाती है ।
2-आशा भग्नता और सृजनात्मकता-
कभी-कभी व्यक्ति की आशाएं समाप्त हो जाती है जिससे वह दुखित अवस्था में होता है।वह एक आक्रामकता की अवस्था में हो जाता है ।लेकिन यदि उसे अभिव्यक्ति का उचित माध्यम दे दिया जाय तो वह ऊंचाइयों तक पहुंच सकता है । ये आशा भंग,ऊष्ण वाष्प की भॉति एक बल होता है जो कि सृजनात्मकता के लिए अत्यधिक सहायक भी हो सकता है । देखा गया है कि घोर आशाभंग, निराशा और विषाद के क्षणों में उदात काव्य की रचना हुई है।अमर कलात्मक रचनाओं का जन्म हुआ है।उत्कृष्ठ दर्शन का उदय हुआ है ।
महान वैज्ञानिक खोजें हुईं हैं।आशाभंग मनुष्य की इच्छाशक्ति जागृत और तीव्र होने से मनुष्य चुनौतियों को स्वीकार करता है, वह कठिन कार्यों को साहस पूर्वक करने तथा असंभव को संभव कर देने के लिए सक्षम हो जाता है । और कालान्तर में वह विजेता बनकर सामने आता है । इसलिए दुःख महानता और प्रताप का प्रदायक होता है । वैसे भी अगर देखें तो सामान्यतः जीवन में पूर्ण सुख की अवस्था मात्र एक स्वप्न है । थोडा सा तनाव,थोडी सी व्यग्रता थोडा सा दवाव और थोडा सा दुःखमयता का होना सामान्य होता है । और ये तो जीवन के अविभाज्य अंग भी होते हैं ।
कोई भी व्यक्ति पूर्णतः सुखी नहीं होता । सुख आता है लेकिन उसे पकडकर स्थिर रखना बहुत कठिन होता है । लेकिन फिर भी दुःख पर विजय प्राप्त की जा सकती है । और वाधाओं से उल्लास उत्पन्न किया जा सकता है । मनुष्य को सुख प्राप्त करने के लिए तो मनुष्य को उसकी कीमत चुकानी होती है ।
3-साहसी और वीर बनें-
इस जीवन को जीने के लिए और जीवन का भरपूर लाभ उठाकर उसे सुखमय बनाने की इच्छा तो प्रकृतिदत्त है । हमें इसे किसी भी कीमत पर मन्द होने नहीं देना है। चाहे मनुष्य कितने ही भयप्रद परिस्थितियों से क्यों न घिरा हुआ हो । अवसाद और अधीरता की सोचनीय स्थिति में जीवन के सुख प्राप्त करने को जागृत किया जाना चाहिए । इसके लिए वीरता और साहस के गुंण आवश्यक हैं । इन गुँमों के अभाव में जीवन एक सडी हुई वस्तु हो जाती है । वीरता का अर्थ एक आदर्श हेतु खतरे और दुःख का सामना करने और उसे सहन करने के लिए तत्पर रहना है । साहस का अर्थ -वीरता के कृत्य करने में भय को नियंत्रित करना और उत्साह जगाना है । और ये एक स्वस्थ व्यक्तित्व के लक्षण भी हैं । हमें इनका संरक्षण सावधानी से करना चाहिए ।
मनुष्य को जीवन के तूफानों पर विजयी होने,विशिष्ठ क्षेत्रों में श्रेष्ठता प्राप्त करने,और संकट में निराशा पर विजय प्राप्त करने केलिए इन गुणों की आवश्यकता होती है ।जैसे प्रकाश का स्तित्व अन्धकार के साथ सम्भव नहीं है उसी प्रकार वीरता का भय के साथ सम्भव नहीं है ।कोई भी मनुष्य जीवन का अर्थ और संदेश तबतक नहीं जान सकता है जबतक वह वीर और निर्भीक न हो । भय का त्याग और वीरता से कर्म करने पर ही मनुष्य जीवन को समक्झ सकता है,उसका सुख प्राप्त कर सकता है । और उसका लाभ उठा सकता है ।
मनुष्य को शोक और दुःख सहने,रोगों से संघर्ष करने और मृत्यु का सामना करने में जो भौतिक शरीर की क्षीणता हेोती है इसके लिए वीरता का गुंण होना चाहिए । हमारी दृढ इच्छाशक्ति की पूर्णता में जो कठिनाइयॉ आती हैं उनका सामना निर्भीकता व वीरता से ही सम्भव है । लेकिन वीरता का अर्थ उतावलापन या उदण्डता नहीं है । वीरता और साहस तो जब किसी श्रेष्ठ आदर्श के साथ संलग्न होते हैं तो वे स्वयं में चमक उठते हैं । अन्यथा वे संकट उत्पन्न कर सकते हैं । इसलिए आप भी यदि कुछ उत्तम और भव्य उपलव्धियॉ प्राप्त करना चाहते हैं तो वीर और साहसी बनें ।
4-अवसाद से आनंद की ओर-
अवसाद का अर्थ है चेतना का निम्न हो जाना । इससे मनुष्य अधीर हो जाता है, और वह अनावश्यक भय,चिन्ता और आत्मदया से भर जाता है । मनुष्य कम्पित हो उठता है । मन का सन्तुलन और शॉति व्याधित हो उठती है । आत्म विश्वास भंग हो जाता है और मृत्यु की इच्छा उत्पन्न हो जाती है । इससे उसका शरीर कुप्रभावित हो उठता है । वह दुर्वल होता है । वैसे अवसाद कोई रोग नहीं है ,यह तो एक मानसिक अवस्था है । इस अवसाद पर हम आसानी से विजय प्राप्त कर सकते हैं । इस अवसाद से स्थाई मुक्ति का उपाय है ध्यान करना, इससे चेतन अवस्था का उत्थान होता है और मन आनंद की ओर अग्रसर होता है ।
मनुष्य जितना ही आनंद की ओर बढता है,उतना ही वह अवसाद पर विजय प्राप्त कर लेता है ।यदि मनुष्य नियम पूर्वक ध्यान करना प्रारम्भ करें तो अवसाद पर आसानी से विजय प्राप्त की जा सकती है । क्योंकि ध्यान अवसाद के ज्वार को बल पूर्वक और त्वरित गति से बाहर खीच लेता है ।
5-निद्रा और ध्यान की अवस्था-
यदि आप सुख और दुख दोनों विचारों को नियंत्रित कर लेते हैं और उन्हैं विस्मृति में दबा देते हैं तो निद्रा आने लगती है । इसी प्रकार यदि ध्यान में गहरे उतर जाने के लिए सुख औप दुख दोनों स्मृति तरंगों से परे जाना होगा और विचारों की सम्पूर्ण उलझनों को बाहर ही रोतना होगा । ध्यान का अर्थ है अपने भीतर विराजमान दिव्य सत्ता तक अर्न्तयात्रा करना ।
निद्रा और ध्यान दोनों विश्राम पूर्ण अवस्थाएं हैं,किन्तु ध्यान अल्प अवधि में ही निंद्रा की अपेक्षा कहीं अधिक आराम और ताजगी देता है । ध्यान न केवल स्नायविक सक्रियता को निम्न कर देता है बल्कि अधिकतम विश्राम भी प्रदान कर देता है । तथा अपने भीतर स्वस्थ और सुखी होने का एक गहन बोध उत्पन्न भी कर देता है ।
6-अन्तर्मौन की निस्तब्धता की स्थिति-
जब हमारा मन निर्विचारिता में अन्तर्मौन में स्थित होता है और विश्राम तथा निश्चेष्टता की अवस्था में आ जाता है,तब चिंतन,स्मरण और एकाग्रता की शक्तियों का पुनः स्थापन होकर पुनः प्रवलित हो जाती हैं । अन्तर्मौन की निस्तव्धता से में मानसिक ऊर्जा की आपूर्ति हो जाती है ।वह अनावश्यक बडबडाहट जिससे कि मन प्रायः घिरा होता है,निवृत हो जाता है । मन की तेज दौड की खडखड भी समाप्त हो जाती है और एक निशव्दता आ जाती है । मन में एक रिक्तता सी उत्पन्न हो जाती है जिससे चारों ओर शॉति से भर जाता है । असंगत विचारों की उलझन से उत्पन्न भ्रम दूर हो जाता है ,मानो कॉट-छॉट हुई हो और स्वस्थ विचारों के पुष्प मधुर गन्ध में खिलने लगते हैं ।वह कलह,संघर्ष,अधीरता,और व्याकुलता की पीडाप्रद स्थिति से निवृत्त हो जाता है तथा शॉति और सामंजस्य का साम्राज्य छा जाता है ।वह स्थिति आती है जब मन को उन्मुक्तता ,वृद्धि ,विस्तार और उत्कर्ष की रहस्यमयी अनुभूति के अवतरण का आभास होने लगता है। उस दशा में मन दिव्यता और आनंद के साथ समस्वर हो जाता है ।
7-अन्तर्मौन और ध्यान की अवस्था-
अन्तर्मौन का मतलव आपने भीतर गहरे स्तर पर प्रशान्त अवस्था । मन की शॉति,शक्ति और स्थिरता का सूत्र । अपने भीतर के क्रिया कलापों को जाना जा सकता है । अन्तर्मौन मनुष्य को अपने जीवन में ऊंचाइयों तक उठने के लिए सक्षम बना देता है । अन्तर्मौन के विना ध्यान एक निरर्थक क्रिया बन जाती है । क्योंकि वे दोनों परस्पर सम्बद्ध हैं ।
प्रार्थना और ध्यान करना हो तो मौन में ही सम्भव है भले ही प्रार्थऩा भी अन्तर्मौन में सहायक हैं । अन्तर्मौन वह अवस्था है जबकि वह दैवी शक्ति की वॉणी का श्रवण कर धीरे-धीरे अन्तर्प्रकाश को प्राप्त कर सकता है । प्रारम्भ में ध्यान में मन की क्रिया से ऊपर उठकर मनुष्य इसपर नियंत्रण कर इसकी शक्तियों का उपयोग उच्चत्तर उद्देश्यों के लिए कर सकता है जिससे जीवन की इस पोत का सकुशल संचालन हो सके । ध्यान मन का एक सरल व्याम है जिसमें मनुष्य को कुछ भी नहीं करना होता है बल्कि मन को प्रशॉत सागर में रहकर प्रगति को तबतक देखते रहना है जब तक आभामय दिव्य सत्ता के प्रकाश के अतिरिक्त कुछ भी न दिखे ।
8- ध्यान और जीवन की यात्रा-
वर्तमान समय जबकि जीवन की यात्रा अनेक द्वेषों,घृणॉओं,अपमानों,आशाभंगों,तनावों,उत्तेजनाओं,क्षोभों तीखी चुभनों से भरा पडा है। हर दिन अनेक बाधाओं,खरोचों से परिपूर्ण होता है,इसलिए कि घटनाएं मनुष्य की योजनाओं और आशाओं के अनुसार नहीं होती हैं जिससे मन अत्यधिक थक जाता है ।इसके लिए शॉति और आनंद की प्राप्ति के लिए ध्यान एक सरल और सुनिश्चित मार्ग है। जीवन में समस्त समस्याओं के समाधान का भी उपाय है ,क्योंकि ध्यान मनुष्य को शॉत,सुव्यवस्थित-चित्त और साहसी बना देता है।कठिन परिस्थितियों में पूर्ण सन्तुलन से सामना कर सकता है। स्नायुतंत्र के लिए ध्यान से बढकर अन्य कोई उपाय नहीं है । ध्यान मस्तिष्क की समस्त अव्यवस्थाओं और विक्षुव्धताओं का और इस शरीर पर उनके प्रकिक्रियात्मक प्रभाओं के निवारण का अमोघ उपाय है । वास्तव में ध्यान मन को स्वस्थ बनाता है। इसके अतिरिक्त और कोई अन्य उपाय ही नहीं है । ध्यान से मनुष्य प्रशन्नचित् रहकर जीवन के मार्ग को पार कर मनुष्य को आत्म साक्षात्कार के योग्य बनाता है जिससे वह दिव्य सत्ता के युक्त होता है ।
9-चिन्तन तर्कशक्ति और ध्यान की अवस्था-
चिन्तन तो मनुष्य का एक विशेषाधिकार है । तर्कशक्ति चिन्तन का सारतत्व है । हर व्यक्ति चिन्तन करता है,जो व्यक्ति चिन्तन और तर्कशक्ति का प्रयोग नहीं करता है,वह मानव नहीं है बल्कि पशु के समान है । बुद्धि का जितना उपयोग किया जाता है चिन्तन शक्ति उतना ही अधिक और बुद्धि का प्रयोग कम करने से चिन्तन और तर्कशक्ति का विकास भी कम होता है और बुद्धि के दुरुपयोग से चिन्तन शक्ति विकृत हो जाती है । सीखने की क्रिया होने से मस्तिष्क के कोशाणु जीवित रहते हैं । दैनिक जीवन की चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए मस्तिष्क का पूर्णतः अन्तर्गस्त होना आवश्यक है इससे मस्तिष्क सशक्त और दक्ष बनता है । हमारी चिन्तन शक्ति हमारी देह और मस्तिष्क व्यायाम से विकसित होती है । यदि आलस्य और अकर्मण्यता है तो हास हो जाता है । ध्यान से हमारी चिन्तन,स्मरण और एकाग्रता की शक्तियों की वृद्धि होती है ,और मनुष्य को अतिरिक्त ताजगी और स्थिरता प्राप्त होती है । ध्यान से हमारे आन्तरिक विकास ,रूपान्तरण तथा आध्यात्मिक आनन्द का द्वार खुल भी जाता है ।
10-प्रार्थना और ध्यान धारण-
प्रार्थना और ध्यान दो चक्र है जिससे हमारा मन दिव्य केन्द्र बिन्दु तक पहुंच जाता है । हमारे भीर अज्ञात में छिपे हुये महान आश्चर्यों तक हमें पहुंचा देता है । स्तित्व की पहेली हमें स्पष्ट दिखाई देंगी । अपने भीतर और बाहर सर्वत्र व्याप्त अपनी आभामयी महिमा में आत्मा की खोज कर लेंगे ।हमें ध्यान से पूर्व प्रार्थना करनी चाहिए ,इसलिए कि ध्यान प्रार्थना का चरम बिन्दु है । प्रार्थना करें और ध्यान करें ।जब भी ध्यान करना हो अधितकतम उत्साह से करें ।ध्यान का अभ्यास तो ऐसा फल प्रदान करता है जिससे कि हम आज तक अनविज्ञ थे। प्रार्थना का अर्थ परमात्मा के साथ निरन्तर चेतन और अचेतन में नाता जोडना है ।प्रार्थना करने वाला मनुष्य स्वयं को कभी भी अकेला और असहाय अनुभव नहीं करता है,क्योंकि वह अपने भीतर निरंतर दिव्य सत्ता की उपस्थिति का अनुभव करता है ।
11-असहाय की स्थिति-
कभी-कभी हम स्वयं को असहाय अनुभव करते हैं । उस समय हम समझें और देखें कि हमारा प्रयत्न असफल हो रहा है . इस समय मौखिक सहानुभूति और ठोस सहायता कितने ही सच्चे क्यों न हों, महत्वहीन दिखते हैं । बस उस समय नेत्र मूंद लें और पूर्ण आत्म समर्पण के भाव में स्थिर होकर सर्व समर्थ देवी सत्ता से प्रार्थना कीजिए और आश्वस्त हो जायें कि रहस्यमई परम सत्ता की सहायता हमें सुलभ हो जायेगी । लेकिन इस बात को ध्यान में रखना होगा कि परिस्थिति के अनुसार यथासम्भव कर्तव्य का पालन अवश्य करें ,कर्तव्य पालन में कभी शिथिल न हों ।चारों ओर दिव्य सत्ता नित्य विद्यमान रहती है, भावपूर्ण प्रार्थना में कहें कि हे प्रभो मैं सब कुछ आपकी इच्छा और व्यवस्था पर छोडता हूं,मैं आपकी शरण और कृपा चाहता हूं।हे प्रभो इस कठिन समय में मेरे साथ रहिए ।ध्यान रखें कि अपनी आन्तरिक शॉति को भंग न होने दें तथा अपने भीतर शॉन्त और निश्चल रहें । भय और चिन्ता से उत्पन्न भ्रान्ति से शक्ति का क्षरण होता है ।विश्वास से प्रार्थना करें।
12- दिव्य तत्व की पहचान करें-
कोई भी मनुष्य तबतक सुखी नहीं रह सकता है जब तक उसे अपने भीतर विराजमान और सर्वत्र व्याप्त दिव्य सत्ता को न पहचाने और उसकी अनुभूति न करें । उस दिव्य सत्ता का चिन्तन करें तथा अपने भीतर गहन प्रवेश करें जिससे कि आप उस महान सत्ता को जान सकें । यह मानवीय परमोत्कर्ष तथा आनन्दमयता की अवस्था प्रदान करने का मार्ग है । उस मनुष्य को जो आध्यात्मिक विकास को छोडकर भौतिक धन-सम्पत्ति पर आधारित रहता है, वह मनुष्य एक दिन अवश्य निराश होकर इस दिव्य सत्ता को स्वीकार कर लोता है ,वही मनुश्य सदा सुखी रह सकता है ।
वास्तव में मानव मूलतः दिव्य है,क्योंकि उसके भीतर एक प्रकाशमान दिव्य आत्मा स्थित है जोकि उसके जीवन और आनन्द का स्रोत है । मानव अनेक आवरणों से मुक्त होकर अपने दिव्य स्व की खोज एवं अनुभूति कर सकता है । अज्ञान के इस धुंध को चिंतन और ध्यान द्वारा हटाया जा सकता है तथा दिव्य अन्तःप्रकाश का उदय हो सकता है ।
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