Wednesday, September 5, 2012

अपनी पहचान की खोज


1-स्वयं को खोकर पाएं-
          हम भव्य और दिव्य बन सकते हैं यदि हम स्वयं को खोकर पाने की अनुभूति करते हैं तो ।हमें अपने भीतर भव्य और दिव्य में खोना सीखें ।अपने भीतर गहराई में प्रवेश करके ही हम अपने यथार्थ स्वरूप को जान सकते हैं तथा वास्तव में शक्तिशाली और आनन्दमय हो सकते हैं । तब आप भौतिकता से परे होंगे तथा जीने की इच्छा और मरने के भय से ऊपर उठ जाएंगे और अनन्तता में जी सकेंगे । ज्योंही हम नेत्र बन्द करते हैं वैसे ही बाहरी उद्दीपक की वस्तुओं से हमारा सम्बन्ध विच्छे्द हो जाता है ।फिर हमारी यात्रा प्रारम्भ हो जाती है । विचारों के द्वन्द मन्द होने लगते हैं । विचारों की भीड में समिलित होने से बचें ।
          मन की सतह पर उभरने वाले विचारों इच्छाओं,स्मृतियों,निराशाओं और भयों की प्रतिक्रिया न होने दें । उनसे दूरी बनाये रखें । फिर देखेंगे कि मन का तूफान धीरे-धीरे शान्त होता जायेगा । गहन शॉन्ति और आनन्द के क्षेत्रों तक पहुंचना सम्भव होगा । इसके लिए धैर्य और लग्न से अभ्यास करना जीवन में  सफलता के लिए आवश्यक है । ध्यान में मनुष्य मन से ऊपर उठकर तथा उससे परे जाकर अपने भीतर दिव्य स्व(अपने दिव्य स्वरूप ) का अनुभव कर सकता है । जो कि इस जीवन का केन्द्र तथा श्रोत भी है ।हमारा मूल दिव्य श्रोत पर्ण आनन्द है । मनुष्य यह अनुभव कर सकता है कि विशुद्ध चेतन ही हमारे चेतन का केन्द्र है । दृष्टि का भी केन्द्र वही है । मानव की आत्मा तत्वतः वही है जो विश्वात्मा है । वह तू ही है ।
 
 
2-अपनी पहचान की खोज-
          हमें अपनी पहचान के सम्बन्ध में हमेशा भ्राति रही है । क्योंकि उसके जीवन में हमेशा अनेक कष्ट एवं दोष उत्पन्न होते रहते हैं । हम इस शरीर को केवल हाड-मॉश का पुतला मानते हैं,ऐसा नहीं है,जो बाहर दिख रहा है उससे अधिक उसके भीतर है ।यदि हम अपने भीतर गहरे उतरकर देखें तो हमें अपने यथार्थ स्वरूप का बोध हो सकता है । गहराई में दिव्य तत्व विद्यमान है,वही तो जीवन का श्रोत है ,और हमारे स्तित्व का केन्द्र है । वही हमारा यथार्थ स्वरूप या आत्मा है । मनुष्य तो निश्चय ही मूलतः दिव्य है ।क्योंकि उसमें आत्मा का निवास है । विचारों से परे जाएं तो वहॉ आपको भव्य ज्योति का संदर्शन होगा ।वह जीवन की परम उपलव्धि भी है जिसके लिए मनुष्य सर्वथा सक्षम है ।
 
 
3-दिव्य तत्व-
          दिव्य सत्ता क्या है ? देखें यह एक विशुद्ध चेतना है । शाश्वत ,अनादि और अनंत है । स्तित्व केवल दिव्य सत्ता का ही तो है। बाकी सब क्षण भंगुर है । निरन्तर परिवर्तनशील हैं जबकि दिव्य सत्ता परिवर्तन रहित है ।यह सत् है ।आनन्दमय् है ।ध्यान करें तो पायेंगे कि उसका वास्तविक स्वरूप वही है जो विश्व सत्ता का है । मैं वह हूं, वास्तव में मैं वही दिव्य तत्व हूं । अहम् ब्रह्मास्मि ।
  
 
4-अन्तःक्रिया और विकास-
          जिस प्रकार वृक्ष के विकास में बीज की सक्रिय भूमिका निहित होती है, उसी प्रकार अन्तः विकास की प्रक्रिया पूर्व कल्पना पर निर्भर है । पूरे विश्व का विकास इसी धारणॉ पर आधारित है । बीज ही वृक्ष है क्योंकि वृक्ष बीज का ही विकसित रूप है विश्वात्मा केवल एक ही है । उसका कोई नाम और वर्ग नहीं है,यद्यपि वह स्वयं को असंख्य प्रकार से व्यक्त कर देता है और अनेक प्रकार से उसका वर्णन किया जा सकता है । विशुद्ध चेतना ही तो परम सत्य है । और अन्तिम सत्य है । परमात्मा तो सत् चित आनन्द है ।
 
5-सृष्टि की रचना-
          परमात्मा केद्वारा सृष्टि उल्लासमय रचना है ।इस सृष्टि की रचना एक छोटे से कण के अनार की भॉति विस्फोट से चारों दिशाओं में फैलकर हुई ।फिर इसने प्रकृति के विकास के नियमों का अनुसरण किया ।कालान्तर में जीवन के विकास का आविर्भाव होने का विशेष महत्व है ।सम्भवतः मनुष्य सृष्टि का शिखर है तथा मनुष्य के पास बुद्धि होने के कारण उसमें प्रकृत्ति के रहस्यों को खोजने की आगे प्रबल सम्भावना है । साथ ही स्व की अनुभूति करने की समभावना है ।
          परमात्मा तो विकास के द्वारा स्वयं को व्यक्त करता है ,तथा विश्व में व्याप्त है। इस प्रकार परमात्मा जो विशुद्ध चेतना है,सर्वव्यापक है। अर्थात विना विश्वात्मा के कुछ भी अस्तित्ववान नहीं है । वह तो प्रत्येक वस्तु में समाया है ।सर्वव्यापक सर्वत्र और सर्व समर्थ है । प्रॉणियों से प्रेम करना तथा जीवन को अधिकतम संरक्षण और परिरक्षण देना है । परमात्मा सत्य है। परमात्मा शिव है । परमात्मा सुन्दर है ।हम कह सकते हैं कि सत्यं शिवं सुन्दरम् परमात्मा के विशेष गुंण हैं ।परमात्मा स्वयं उन सब में विशेषतः व्यक्त करता है जो सत्य, शिव और सुन्दर हैं । परमात्मा की अनुभूति करने के लिए मनुष्य को सत्यं शिवं सुन्दरम् का अनुसरण करना चाहिए ।
 
 
6- स्थाई सुख-
हम दुनियॉ में स्थाई सुख की तलाश में भटकते रहते हैं जबकि यह सुख हमारे ही भीतर छिपा है । यह कोई क्रय की जाने वाली वस्तु नहीं है। जिसे जाकर खरीद लिया । धन और सत्ता कभी भी सुख नहीं दे सकते हैं । सुख तो आन्तरिक अनुशासन की सहज परिणति है । हमें इसी प्रकार की अनुशासित मानसिक अवस्था प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए जो कि हमारे जीवन के सकारात्मक विकास के साथ जुडी हुई है । स्थाई सुख तो हमारे आन्तरिक स्वच्छता,दिव्य सत्ता के साथ निशव्द स्थिति में भेदभाव रहित निस्वार्थ सेवा से उत्पन्न होता है ।वे व्यक्ति जो अपनी सुरक्षा और शक्ति के लिए भौतिक सम्पदाओं पर निर्भर होते हैं वे अन्त में एक दिन अपनी सुरक्षा और शक्ति के लिए और उत्तम कार्यों के फल के लिए दैवी सत्ता की ओर अवश्य लौटते है,यहीं उसको स्थाई शॉति मिल सकती है ।
 
7-शॉति धाम की ओर-
          हमारे भीतर गहरा शॉतिधाम है ।इसलिए हम कठिन से कठिन समस्याओं का सामना करते हुये भी शॉतिमय रह सकते हैं । अगर हम अपनी शॉति को स्थिर रखने का संकल्प कर लेते हैं तो हमारी इस शॉति को कोई भी भंग नहीं कर सकता है । अगर हम अपने जीवन में शॉतिपूर्ण जीवन यापन करना चाहते हैं तो हमें सहनशीलता और क्षमाशीलता से प्रारम्भ करना होगा ताकि प्रेम और उदारता की वृत्ति को विकसित किया जा सके ।तुच्छ बातें निश्चित ही तनाव पैदा करते हैं ,हम वाह्य घटनाओं से निराश होकर सत्य के अनुसरण से विचलित होते रहते हैं जोकि हमारा अविवेक है । इसलिए हमें अपने कर्तव्यों के निर्वहन में वाह्य घटनाओं से क्षुव्ध नहीं होना सीखना जाहिए चाहिए ।
          शॉति धाम तो हमारे ही भीतर है ।दिव्य सत्ता तो हमारे भीतर है उसके साथ हमें तारतम्य रखना चाहिए । अगर आप अपने जीवन के अर्थ और संदेश को समझ लें तो आनन्दमय जीवन यापन कर सकते हैं । गहन चिन्तन करने वाला तो स्वयं खोज करता है ,और वह इस निष्कर्ष पर अवश्य पहुंचता है कि भौतिक सुखों के पीछे उन मूल्यों और सिद्धान्तों के पीछे नहीं भागना चाहिए जिन्हैं वह स्वीकार करता है ।
 
 
8-हमारा जीवन किस लिए है -
हमारे सामने प्रश्न उठता है कि हम किसलिए जीते और मरते हैं । अगर हम स्वयं से पूछें तो बुद्धि चकरा सकती है । इसका उत्तर हमें अपनी योग्यता के अनुसार स्वयं से मॉगना चाहिए । इसमें कोई एक उत्तर प्रत्येक मनुष्य को सन्तुष्ट नहीं कर सकता है ,उत्तर भिन्न-भिन्न हो सकते हैं,क्योंकि जीवन के अगणित आयाम और कोंण हो सकते हैं । हमारा सम्पूर्ण जीवन एक है, तथा समस्त चेतना एक अखण्ड समष्टि है ।जिसमें समस्त जीवधारी एक गहरे स्तर पर परस्पर जुडे हैं ।
          हम जितना अधिक अपने भीतर विकसित होते जाय़ेंगे चेतना का विस्तार होता जायेगा ,और फिर वह अपने स्वरूप की अनुभूति कराता है । यदि आप आत्म विश्वास और आशा सहित सकारात्मक दिशा में आगे बढेंगे तो,आप न केवल कुछ उत्तम और भव्य उपलव्धि प्राप्त कर लेंगे बल्कि अपने दोषों पर भी विजय प्राप्त कर लेंगे । आप उन स्वाभाविक योग्यताओं और अपने उन गुणों को जो आपको अन्य लोगों की अपेक्षा विशिष्टता प्रदान करते है,पहचानकर उनका पोषण कर सकते हैं । तभी आपके व्यक्तित्व का विकास हो सकता है । इसके लिेए आपको धैर्य और साहस की आवश्यकता होगी ।
          सफलताके रास्ते छोटे-छोटे नहीं होते हैं बल्कि विफलता के रास्ते छोटे-छोटे होते हैं । उसी प्रकार जीवन के रास्ते छोटे नहीं होते बल्कि मृत्यु के रास्ते छोटे होते हैं । यदि आप घृणॉ को प्रेम से,क्रोध को क्षमा से, ईर्ष्या को स्नेह से,स्वार्थ को त्याग से,लोभ को सन्तोष से,भय को साहस से,निराशा को आशा से और अकर्मण्यता को कर्म से प्रतिस्थापित कर दें तो सफलता से सफलता और शक्ति से शक्ति तक बढते रह सकते हैं । दिव्य सत्ता और दैवी कृपा में विश्वास करना सीखें ।
          यदि आप उस आदर्श के प्रति जिसे आपने अपनाया है और उस मार्ग के प्रति जिसे आपने ग्रहण किया है,यदि निष्ठावान हैं तो समझो आपने आधी लडाई जीत ली है । और यदि आपमें संघर्ष को अकेले रहकर भी चलाने के लिए साहस और धैर्य है तो आपका प्रयत्न अवश्य सफल होगा । जो भी अपने आदर्श के लिए संघर्षरत् रहता है,उसे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि व्यक्ति लडते और गिरते रहते हैं मगर आदर्श कभी पराजित नहीं होता है । वास्तव में जो आदर्श के लिए गिरता है,वह कभी मर नहीं सकता है,क्योंकि वह पतन और मृत्यु से ऊपर उठ जाता है,और उच्च आदर्श के प्रति समर्पण से अमरत्व को प्राप्त कर लेता है ।
9-समान मगर भिन्नता -
          हम देखते हैं कि मनुष्य देखने में एक समान होते हैं मगर सबमें भिन्नता होती है ।कोई भी दो व्यक्ति पूर्णतः समान नहीं होते हैं । प्रकृति में भी भिन्नता अनन्त देखी जा सकती है । दो पुष्प और पत्तियों को देखें तो वे भी एक समान नहीं होते हैं ।सत्य भी है अगर एक रूपता हो तो संसार नीरस हो जायेगा । हर व्यक्ति में विशिष्ट गुण और ईमानदारी से समाज में उसकी अपनी अलग सी पहचान बनती है ।
          व्यक्तियों में आगे बढने में अधिक अन्तर उपयुक्त नहीं हैं ,लेकिन अगर जो भी अन्तर है वह परस्पर प्रेमपूर्ण,संवेदनशील सम्बन्धों से समाज में सर्वत्र सामज्जस्य,शॉति और समृद्धि का वातावरण बनने में सहायक होता है । संकीर्ण और स्वार्थपूर्ण उद्देश्य दरार उत्पन्न कर देते हैं । यह समाज के लिए एक अभिशाप भी है ।उन्हैं हतोत्साहित किया जाना चाहिए ।सार्व भौमिक एकता के लिए विशेष सुविधाएं समान परिस्थितियों में सबके लिए समान होनी चाहिए ।
          अगर देखें तो प्रत्योक व्यक्ति किसी समाज का एक अंग होता है ,लेकिन फिर भी अलग-अलग हैं ।हर एक की मनोरचना,स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं ।हरएक में अपनी अलग सी विशेषता,आदतें होती हैं आप इस संसार में किसी के भी समान नहीं हो सकते हैं ,हर व्यक्ति की अपनी अलग सी पहचान होती है । अगर एक समान है तो वह है मानव स्वभाव जो कि सबमें समान है ।जिससे आप हरएक के साथ समायोजन कर सकते हैं, अपना स्थान बना सकते हैं ।
          व्यक्ति का एक प्रमुख गुंण उसका स्वभाव है । उत्तम स्वभाव से उसके चारों ओर का वातावरण सुखद ही नहीं होता बल्कि दूसरों के सम्मान से प्राप्त आपको आन्तरिक प्रशन्नता भी मिलती है । इसलिए हमारा दायित्व बनता है कि अपने शिष्टाचार में हमेशा सौहार्दपूर्ण रहें और दूसरों केसाथ व्यवहार करते समय शॉति बनाये रखें । दूसरों की उपेक्षा या अपमान करने से दण्ड का भागीदार होता है ।एसलिए दूसरों के प्रति हमेशा सहनशील और मधुर होना चाहिए ।
 
 
10-अन्तरात्मा की आवाज-
मनुष्य की अन्तरात्मा एक गहरे समुद्र की भॉति है । हम देखते हैं कि उस समुद्र के किनारे अत्यधिक झाग और कूडा करकट होते हैं और नीचे धरातल पर असंख्य रत्न होते हैं,जल स्वच्छ और शॉत होता है । इसी प्रकार हमारी अन्तरात्मा को आच्छादित करने वाली गन्दगी की भी तह होती है, लेकिन गहरे तल पर शॉति और प्रकाश के रत्न होते हैं ,दिव्य सत्ता स्वच्छ अन्तरात्मा के द्वारा स्पष्टतः बोलती है भलेही उसे सुनना बहुत कठिन होता है । स्वच्छ अन्तरात्मा की वॉणीं परमात्मा की वॉणीं होती है,इसे हमें नहीं भूलना चाहिए । हमें सॉसारिक इच्छाओं से प्रवृत्त नहीं, बल्कि अपनी अन्तर्प्रेरणॉ के अनुसार कार्य करना चाहिए ।
          अपने अन्तररतम् वॉणी को सुनकर और यथा सम्भव उसका अनुशरण कर मन की शॉति को प्राप्त किया जा सकता है । तभी हम सुखी रह सकते हैं,लेकिन ऐसा करना कठिन प्रतीत होता है ।असम्भव तो है मगर उचित है । अपनी अन्तर्वॉणी को दवाने से अन्तर्द्वन्द उत्पन्न हो जाता है,जिससे तनाव की स्थिति बन जाती है । फलस्रूप मन अशॉत हो जाता है । कभी-कभी हम अपनी तार्किकता को अन्तरात्मा के साथ जोड देते हैं ।यदि आप महत्वपूर्ण निर्णय ले रहे हैं तो उसे यथा सम्भव पूरी सच्चाई और ईमानदारी के साथ कार्यान्वित करने का प्रयत्न करें । यही तो शॉति और सुख प्राप्त करने का मार्ग है ।
          यदि आप अपने कर्म के औचित्य के विषय में आश्वस्त हैं तो उसे करते समय मन में अन्तरद्वन्द और संकोच नहीं होना चाहिए ।यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि आपकी अन्तरात्मा आपके तर्क का समर्थन करती है तो आप स्वयं को असहाय अनुभव नहीं करेंगे और न फल की चिन्ता करेंगे ।
 
 
  11-बात का बतंगड-
कभी-कभी होता क्या है कि बेबात की बात उठ जाती है,तथा जोर से चीखकर उत्तेजना और क्रोध पूर्ण भाव से युद्धकारी दृष्य उत्पन्न कर देते हैं । ऐसे लोगों में दूसरों की बात सुनने के लिए धैर्य नहीं होता है,वे वातावरण को तनावपूर्ण बना देते हैं,जिससे सभी धीरे-धीरे सभी उग्र हो जाते हैं,जिससे समझौते से काफी दूर चले जाते हैं । होता क्या है कि जो लोग कटु स्वभाव के होते हैं वे वे लोग तुच्छ बातों को सिद्धान्त और प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं,वे बुद्धिहीन की तरह बातें उठा लेते हैं और उन्हैं बढा चढाकर प्रस्तुत करते हैं । उन लोगों की उपेक्षा की जानी चाहिए । अगर देखें तो वे दया के पात्र होते हैं ,इसलिए उन्हैं धैर्य़ एवं शॉति से शॉत किया जाना चाहिए । क्रोध का सामना शीतलता से होना चाहिए ।
          जो लोग बुद्धिमान होते हैं वे तो जटिल समस्याओं का भी समाधान सौहार्द से कर देते हैं । नासमझ लोग तो अपने लिए और दूसरों के लिए समस्याएं खडी कर देते हैं । आप हमेशा उत्तेजना होते हुये भी शॉत रहें, यही तो आपकी पहचान है । जो लोग झगडा करने की आदत बना लेते हैं,वे लोग न केवल अपने समय और शक्ति को नष्ट करते हैं बल्कि अपने चारों ओर वातावरण को भी दूषित करते हैं । उनमें जीवन के मूल्यों के लिए सम्मान नहीं होता है । वे आकृति होते हुये भी मात्र पशु हैं ।
          जो लोग अपने जीवन को उपयोगी बनाने तथा उपलब्धि का संकल्प ले चुके हैं ,उन्हैं तो व्यक्तिगत विवादों और कलह के लिए फालतू समय ही कहॉ मिलता है । केवल एक मूढ व्यक्ति को ही उन असंख्य पशुओं के साथ उलझने का समय मिलता है जो कि उसे कई सडक पर ही मिल जाते हैं ।दुष्ट व्यक्ति के लिए तो रास्ता छोड देना श्रेयस्कर माना गया है । यह ठीक ही कहा गया है कि कुत्ते को चला जाने दें बजाय इसके कि वह काट खाए ।
 

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