अपना मूल्यॉकन

1- हमारे व्यक्तित्व का मूल्यॉकन-
हमें यह देखना होगा कि यदि आपके चारों ओर लोग आपको पाकर उल्लासित होते हैं तो आप भी उल्लासित होते हैं । इसी प्रकार यदि आप अपनी समस्याओं का समाधान बिना तनाव और भय से कर सकते हैं तो इसका मतलव हुआ कि आपका व्यक्तित्व सकारात्मक दिशा में विकसित हो रहा है । व्यक्तित्व का विकास तो जैसे स्वतंत्र इकाई के रूप में हमेशा विकसित होते रहना चाहिए । स्वस्थ व्यक्तित्व गतिहीन नहीं हो सकता है । व्यक्तित्व तो विचारों के विकास के अनुरूप विकसित होता रहता है । वह परिवर्तित होता रहता है । और परिस्थितियों के अनुरूप विना भय के सिद्धान्तों और उत्तम आकॉक्षाओं के साथ विना समझौते के समायोजन करता रहता है । आपको यह भी देखना होगा कि कभी-कभी क्या लोग आपसे मिलकर आतंकित या तनावग्रस्त तो नहीं होते हैं ? अथवा आपको देखकर वे स्फूर्त और कुछ ऊपर उठे हुये महशूष करते हैं ? इसके लिए आपको अपना मूल्यॉकन करना होगा ! . यदि आप जीवन का पूरा लाभ उठाना चाहते हैं तो यह जरूरी भी है ।
2- अपनी बुद्धि का मूल्यॉकन करें -
अगर आप अपनी बुद्धि के मूल्यॉकन की बात करें तो इसमें यह देखना होगा कि आप किस प्रकार एक व्यक्तिगत जीवन दर्शन या विचार पद्धति को विकसित करते हैं ,जो कि आपके स्वभाव तथा गुणों के अनुरूप हो । ये किस तरह से आपको जीवन के संघर्षों के मध्य प्रशन्न रख सकें और जीवन के उच्चत्तर स्तर तक उठने में सहायक हो सकते हैं ।आपको यह देखना होगा कि आपकी टोपी आपकी ही टोपी है,किसी अन्य की टोपी भले ही कितनी ही आकर्षक क्यों न हो,वह आपके लिए उपयुक्त नहीं हो सकती है । और यह भी हमें ध्यान रखना होता है कि हमारी टोपी कब कहॉ टेढी हो गई या अपना जूता कहॉ चुभता है । इसलिए बदलती हुई परिस्थितियों के साथ बुद्धिमत्तापूर्वक बिना शिथिल रहते हुये स्वयं को समायोजित करना चाहिए ।हम अपने विचारों को स्वयं ही नियंत्रित एवं व्यवस्थित कर सकते हैं । बुद्धि का उचित उपयोग हमें आलौकिक आनन्द की प्राप्ति के लिए अपने भीतर स्थित दिव्यता की ओर अग्रसर करता है ।
3-हमारी आवश्यकताएं और हम--
क- हमें इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि अपनी सॉसारिक इच्छाओं को यथासम्भव कम कर देना चाहिए,क्योंकि इच्छाएं तो बढती रहती हैं,अनेक गुना हो जाती हैं ,इच्छाओं का तो अन्त होना सम्भव नहीं है ।इच्छाएं तो एक जाल है । और इसीलिए बुद्धिमान लोग अपनी स्वार्थपूर्ण लालसाओं को समाप्त कर देते हैं । अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं को कम कर देते हैं । ऐश्वर्य और वैभवपूर्ण जीवन की इच्छाओं का परित्याग कर उच्चत्तर उद्देश्यों की ओर अग्रसर होते हैं । सत्ता और धन मानव स्तित्व का लक्ष्य नहीं हो सकता है,जो कि आज दिख रहा है ।
ख- हम अपनेजीवन में सन्तोष और सादगी तभी ला सकते हैं जब हम अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाएं और अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं की छँटनी करना सीखें । अनियंत्रित आवश्यकताएं तो भावनात्मक विक्षोभ या तनाव ,असंतोष उत्पन्न करते हैं । क्योंकि वे मन को विश्राम करने नहीं देते ।वे आध्यात्मिक मूल्यों के महत्व को क्षीण कर देते हैं जिससे हम स्वयं दयनीय बन जाते हैं । द्वैष बढ जाने से इच्छा विकृत एवं नकारात्मक रूप ले लेती है । उसका उग्र विस्फोट हो सकता है । और विनाश की ओर बढ सकता है ।
ग- महान होने के लिए अपने जीवन में सादगी और सन्तोष के सिद्धान्त को अपनाना आवश्यक होता है। अपने विचार और कर्म सादे रहें,ईमानदारी और कठिन परिश्रम से जो भी प्राप्त हो जाय उसी में सन्तुष्ट रहना चाहिए । तुच्छ बातों में छोटे बच्चों की भॉति शिकायत न करें। सादगी और सन्तोष के धारण में लज्जा का अनुभव न करें क्योंकि ये सत्पुरुष के गुंण हैं । वे गुंण मनुष्य को शॉतिपूर्ण रहने में बहुत सहायक होते हैं ।ये गुंण जीवन को तनावरहित और सुखी जीवन यापन करने में सक्षम हैं ।
घ- पहली बात तो यह है कि आपको अपनी दृष्टि में नेक होना चाहिए,भले ही आपके विषय में लोग कुछ भी सोचते हों या कहते हों ,यदि आप वास्तव में भले और नेक हैं तो आपको लोग वैसा ही कहेंगे ।यदि आप शॉति चाहते हैं तो अपने विचारों और कर्म में अपने प्रति ईमानदार रहें ।
ड.- अपने जीवन में एक और बात को हमें ध्यान में रखना होगा कि हम जो नहीं हैं वह मिथ्या है,यह हमें कभी संकट में डाल सकता है,हमारे सामने विपत्ति और कष्ट उत्पन्न हो सकता है । सत्य का पता लगते ही यह सब दिखने लगेगा । इस लिए आप जो भी हैं वही रहें हमेशा अपने सहज रूप में रहें । पाखण्ड का अंत दुःख में होता है ।

4-भलाई और प्रेम-
क- भलाई एक सुगन्धित पुष्प के समान है । जब भलाई की बात आती है तो कई गुणों की झलक दिखने लगती है -त्याग,सहायता,और उदारता की भावना । भला आदमी घृणॉ से दूर रहता है ।झमाशील तो वह स्वभाव से होता है । लेकिन इसकी सार्थकता तभी है जब मनुष्य भला होने में सुख का अनुभव करे । वह किसी दूसरे को प्रभावित करने या एहसास करने का कोई उद्देश्य नहीं रखता । भलाई से तो आत्म सन्तोष, शॉति और आन्तरिक उल्लास प्राप्त होता है ,अन्यथा वह कष्टप्रद होता है । जब भलाई की बात आती है तो भले आदमी का मन भर जाता है,अभद्र विचारों के लिए तो कोई स्थान ही नहीं है । भलाई मन को परिष्कृत,उन्नत और प्रबुद्ध कर देती है,तथा धीरे-धीरे उसका दिव्यीकरण कर देती है,जब भलाई एक आदत बन जाती है तो वह इस बाहरी जगत में किसी पुरुष्कार का आशा नहीं करता है ,परमात्मा जो सबका कल्याणकर्ता है,वह एक यंत्र के रूप में बनकर कर्म करता है ।
ख- प्रेम का अर्थ है दूसरे की भावना में सहभागी होकर दूसरों के कष्ट निवारण के प्रति निस्वार्थ त्याग और समर्पण का भाव होना । प्रेम तो एक बहुत बडा बल है जोकि मानव के जीवन में पूर्ण रूपान्तरण कर सकता है । यह मन को परिष्कृत और पवित्र कर मनुष्य के जीवन को उच्चस्तर पर ले जा सकता है । प्रेम का अनुभव तो एक सुखद जादू के समान है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है ।
ग- अगर भलाई और प्रेम को देखें तो दोनों परस्पर गुंथे हुये हैं । प्रेम मन को उन्नत अवस्था तक ले जाने की क्षमता रखता है,और अन्ततः प्रकाश प्रदान कर सकता है । निश्चित तौर पर प्रेम दिव्य होता है जो कि मन को पूर्ण दिव्यीकरण कर सकता है ।
घ-हम स्वयं के लिए प्रेम,आदर,और अपनी विशेष पहचान प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन हम जीवन के एक उस नियम को भूल जाते हैं जिसमें हमें प्रतिध्वनि की भॉति वही मिलता है जिसे हम देते है । समुद्र आकाश को खारे जल से वाष्प भेजता है जो कि सुखद वर्षा के रूप में बदल जाता है । यदि आप अन्य को प्रेम और आदर देते हैं तो आपको भी वही मिलेगा ,बल्कि निवेष की तुलना में कहीं अधिक प्रतिफल मिलेगा । हम अपने विचारों और कर्मों से सूक्ष्म तरंगें उत्पन्न करते हैं जो कि दूर तक फैल जाती हैं तथा दूसरों को प्रभावित करती हैं । प्रकृति के नियम तो निर्दोष हैं, उन्हीं नियमों से मनुष्य जो बोता है उसी को काटता है ।
5-सहिष्णुता और हम-
क- सहिष्णुता एक मानसिक परिपक्वता का लक्षण है जो कि मनुष्य को अपना मन शॉत और स्थिर रखने में सहायता करता है,जबकि नासमझ लोग तुच्छ बातों से भडक जाते हैं और एक दूसरे पर क्रोध में झपटने लगते हैं ,जिससे पाश्विक दृश्य दिखने लगता है । जबकि समझदार लोग सहिष्णुता और क्षमा प्रदर्शित करते हैं ,मेल मिलाप से सामंजस्य और शॉति स्थापित करने का प्रयास करते हैं ।
ख- सहिष्णुता का अर्थ है उदारतापूर्वक,विवेकपूर्म ढंग से समायोजन करना । सहिष्णुता हमें अनावश्यक झगडों और तनावों से ही नहीं बचाती बल्कि हमारी शक्ति को क्षय होने से भी बचाती है । जिसे हम सद्कार्यों में प्रयुक्त कर सकते हैं । सहिष्णुता के गुणों का संवर्धन तो हमारे घर में भोजन करते समय से ही प्रारम्भ होते हैं ,भोजन करते समय उत्तेजित न हों,क्रोधित न हों। आपको भोजन का स्वाद तभी मिल सकता है जब आप उस भोजन को ,जो भी परोसा जाय,प्रभु का प्रसाद मानकर प्रशन्नतापूर्वक ग्रहम करें ।
ग- आवश्यक है हम विनम्र बनें यह गुंण महानता का लक्षण भी है । विनम्रता तो दूसरों के प्रति सम्मान और परमात्मा के प्रति कृतज्ञता को प्रदर्शित करता है । जब एक मनुष्य जीवन के उच्च स्तर तक उठ जाता है तो फलदार वृक्ष की भॉति झुक जाता है ,वह विनम्र हो जाता है । स्वच्छ और सरल मन की निर्भीकता से उत्पन्न विनम्रता का एक अपना ही आकर्षण होता है,जबकि कुटिल मनुष्य की कृत्रिम विनम्रता एक घृणॉत्मक स्वॉग होता है । विनम्रता मनुष्य की दृढता को भ्रमित नहीं करता बल्कि उसका सहायक है ।हमें अपने प्रयत्नों के सफल होने पर विनम्र होना चाहिए और पराजय को परमात्मा का विधान मानकर सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए ।

6-विनोदी स्वभाव तथा वॉणीं-
क- हास परिहास या विनोद हमारे जीवन का एक अनोखा सुख है। विनोदी स्वभाव होने के लिए एक विशाल ह्दय की आवश्यकता होती है । जो लोग तुच्छ होते हैं वे न तो विनोद कर सकते हैं और न विनोद को समझ सकते हैं । वे छोटी सी हंसी की बात पर भी नाराज हो जाते हैं । तथा अपमानजनक रूप में प्रत्युत्तर देते हैं । जो लोग तुच्छ बातों पर चिढ जाते हैं,हमें उनके साथ सहिष्णु होना चाहिए । लेकिन छल या परिहास को अवश्य निन्दित किया जाना चाहिए ।
ख- हमारी वॉणी हमें चिंतन और तर्कशक्ति की भॉति एक मानवीय उपहार या परमाधिकार के रूप में प्राप्त है । अपने विचार-संप्रेषण का सशक्त माध्यम वॉणी ही है । उत्कृष्ट वॉणीं इस बात में सन्निहित है कि हम अपने विचारों को वाक्यों के धागों में पिरोकर उपयुक्त शब्दों से ऐसे जडित हों कि मानों कण्ठहार में मोती हों ।
ग- बुद्धिमान लोग तो थोडे शव्दों में बहुत कुछ कह देते हैं जबकि बुद्धिहीन लोग थोडा सा कहने के लिए बहुत शव्दों का प्रयोग करते हैं । वॉणी मित्र भी बना लोती है और शत्रु भी । विवेकशील मनुष्य जानता है कि क्या कहना चाहिए और कैसे कहना चाहिए तथा कब तक कहते रहना है । और कब विराम कर देना है ।
घ- उत्तम वॉणी सौम्य और सारयुक्त होती है । कठोर शव्द कटुता उत्पन्न कर देते हैं,भले ही उद्देश्य उत्तम हो । डॉट फटकार भी यथा सम्भव शालीन शव्दों में ही की जानी चाहिए ।मुस्कराकर बात को कहें ।मुस्कान संक्रामक होती है और उसका चमत्कारी प्रभाव होता है । शव्द उपयुक्त हों तथा उनका उच्चारण स्पष्ट होना चाहिए । वॉणी का उद्देश्य न केवल भाव संप्रेषण हो बल्कि प्रेम ,सामंज्जस्य और शॉति का पोषण करना भी होना चाहिए । आत्म संयम,मधुरता,तर्क तथा सत्य और न्याय पर बल उत्तम एवं प्रभावी संभाषण की विशेषता है ।

7-लक्ष्य के प्रति भयभीत न हों-
क- आपको आश्वस्त होना चाहिए कि आपका उद्देश्य और उसकी प्राप्ति का पथ न्यायसंगत है तो आपको वाह्य जगत से प्रोत्साहन की आवश्यकता नहीं है तथा आपको अपने मार्ग का अनुशरण दृढतापूर्वक करना चाहिेए । आप अपने आत्मा को तभी सन्तुष्ट कर सकते हैं जब आप अपने मन से स्पष्ट हों कि आप कुछ कर रहे हैं,और जो कुछ कर रहे हैं वह सही है ।जो लक्ष्य के प्रति संदेहशील हैं, स्पष्ट नहीं हैं वे तो सफलता के लिए व्यर्थ ही प्रयत्न करते हैं ।
ख- मनुष्य को अपनी सीमॉओं को जानना चाहिए,उनका उलंघन नहीं करना चाहिए ।मर्यादा से परे जाना अथवा अपनी सामर्थ्य की सीमा को पार करना तो अपने प्रति हिंसा करना है । यदि आप लक्ष्य प्राप्ति के प्रति सच्चे हैं तो आपको उसकी ओर स्थिर गति से इच्छाशक्ति,धैर्य और दृढता के साथ आगे बढते रहना चाहिए ।
ग- यदि आप जो उचित है उसे करना सीखें तो आप निर्भय हो सकते हैं । जो व्यक्ति न्यायसंगत उचित मार्ग का अनुशरण कर रहा है वह अनुचित प्रभावों और दबावों का प्रतिरोध भी कर सकता है । जिसे वह अनुचित समझता है, यदि उस कृत्य को करने या समर्थन देता है तो वह स्वयं को दुर्वल करता है,चाहे उससे कितने ही भौतिक लाभ क्यों न कर सकता हो । एक बुद्धिमान पुरुष सॉसारिक प्रलोभनों के सामने झुक जाने से अपने मन को दूषित नहीं करता, वह तो जीवन के सीधे सच्चे मार्गों का अनुशरण ही करता है ,जो कि सत्य,प्रेम, करुणॉ,न्याय और नैतिकता के आधार है, जो कि सार्व भौमिक हैं। प्रेम और उदारता को अपनाकर जीवन को संरक्षित किया जा सकता है ।
घ- न्याय संगत कर्म करने वाले लोगों की रक्षा तो वह परम सत्ता रहस्यमय तरीके से करती है । न्यायसंगत कर्म शक्ति और शॉति के पथ पर अग्रसर होता है ।औचित्य का अर्थ है जो कुछ आप सोचते हैं अथवा करते हैं वह सब उचित है , स्वार्थ से ऊपर उठकर करना चाहिए ।
ड- कभी-कभी किसी परिस्थिति पर गंभीर सोच-विचार का समय न हो और शीघ्र निर्णय लेना आवश्यक हो सकता है । लेकिन शीघ्रता का अर्थ उतावलापन नहीं है ।जल्द बाजी मनुष्य को कठिनाई में डाल सकती है । जो कि खतरे से कम नहीं है । यदि आपके पास सोचने का समय है तो उन पगों के पक्ष और विपक्ष में विचार करें,जिन्हैं आप कर रहे हैं । करने से पहले सोच लेना चाहिए,देख लेना चाहिए । और जो अपने चिंतन शक्ति का उपयोग नहीं करता वह कुण्ठित रहता है ,फिर मानव देह होते हुये भी पशु श्रेणी में आ जाता है । विचारहीन लोग अधिक उतावले होते हैं वे जल्दी में हिंसा कर बैठते हैं विवेकहीन होकर हिंसा का आश्रय लेना बुद्धि की पराजय तथा नैतिक भावना की पूर्ण उपेक्षा होती है,जिसपर कि बाद में पछताना पड सकता है ।

8- शिकायतें और संवाद-
क- आपका प्रमुख लक्ष्य मन के समस्त तनावों को शॉत कर देना होना चाहिए ,तभी तो आप जीवन में कठिन परिस्थितियों का सामना कर सकते हैं,और अपनी योजनाओं और आकॉक्षाओं को पूर्ण कर सकते हैं ।यदि आपके मन में कोई शिकायत है या नाराजगी है तो आप उसे उचित व्यक्ति से बुद्धिमतापूर्ण व्यक्त कर सकते हैं ,उसे दबाना नहीं चाहिए,इससे दम घुंटता है ।
ख- यदि आप तनाव को देर तक पालते हैं तो यह भयानक रूप धारण कर लेते है, समस्याओं के समाधान के लिए साहस के अभाव में उनसे बचने और स्थगित किये जाने से परिस्थितियॉ और भी विषम हो जातीहैं,जिससे विकट परिस्थितियों का सामना करना पड सकता है ।शॉति न खोंये । सामना करना सीखें । शॉत चित्त व्यक्ति समस्याओं का समाधान सरलता से कर लेता है जबकि उग्र चित्त वाला व्यक्ति अपने उत्ते्जनात्मक अक्खडपन से परिस्थिति को और अधिक विषम बना देता है ।
ग- यदि आपको अपने विरोधियों पर विजय प्राप्त करनी है तो इससे बढकर और कोई नहीं नहीं हो सकता है कि आप प्रत्येक परिस्थिति में शान्त और संयमित रहें। प्रत्येक परिस्थिति में शान्त और मुस्कान युक्त रहने की आदत डाल सकते हैं । विवेकशील व्यक्ति कभी मन से उदास नहीं होता है । बाधाओं को साहस और प्रशन्नता से पार कर लेता है ।चुनौतियॉ तो मनुष्य के द्वार पर आकर अपने पराक्रम की परीक्षा करने आती हैं ।
घ- जिस व्यक्ति से आप अपनी स्थिति समझाना चाहते हैं, और अपना भ्रम दूर करना चाहते हैं ,उस व्यक्ति से प्रयत्नपूर्वक संवाद करना उपयोगी होता है । संवाद खुले मन से तथा सकारात्मक दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न करना चाहिए ।अपना दृष्टिकोण स्पष्ट और सौहार्दपूर्ण होना चाहिए । एक दूसरे की बात समझकर ही उचित समन्वय हो सकता है । मतभेद और विवाद के विन्दु पर सहमति बना सकते हैं । मिलने और विदा होते समय सौजन्यपूर्ण व्यवहार करना उत्तम होता है । लेकिन ध्यान रखना होगा कि दुराग्रही और कट्टर लोगों से लम्बा विचार विनिमय करने से बचना चाहिए ।क्योंकि वे सत्य का अनुशरण नहीं करना चाहते हैं । दोहरी बात करने और कलाबाजी करने में निपुंण लोगों के साथ भी तर्क सावधानी पूर्वक करना चाहिए ।

9-पिछली बातें-
क- जो बात बीत जाती है उनपर चिपटें नहीं ,वे बातें तो प्रेतवत् और स्तित्वहीन हैं । भूतकाल से चिपटे नहीं । जिस मनुष्य ने जीवन का पूर्ण लाभ उठाने का प्रयास किया है, वह अपने समय और शक्ति को भूतकाल की क्षतियों और शोकों पर विलाप करने में नष्ट नहीं करता है। अतीत पर सोचते रहने से अतीत को नहीं मिटा सकते है और न उसे रोक सकते है क्योंकि वह घटित हो चुका है ।
ख- काल अप्रत्यक्ष में गतिमान रहता है तथा कोई भी मनुष्य घडी की सुई को पीछे नहीं कर सकता है या किसी बात को नहीं बदल सकता है । उस बात को तो अतीत में दफना दिया गया है ,इसका यथार्थ जगत में स्तित्व ही नहीं है । मनुष्य अतीत को ठीक प्रकार समझकर उसे शिक्षा तो ले सकता है लेकिन उसे पुनः जीवित नहीं सकता है । अतीत से हमारा सम्बन्ध ही नहीं होता , हॉ इसके द्वारा हम वर्तमान में भविष्य के निर्मॉण के लिए प्रयत्न कर सकते हैं । जो लोग पुराने हिसाब को चुकता करने के लिए प्रतिशोध करते हैं,वे तो अतीत की त्रुटियों को ठीक कर ही नहीं सकते हैं । प्रतिशोध तो पाश्विक न्याय होता है । इसलिए हमें सकारात्मक होना चाहिए,अतीत की चुभनों और वेदनाओं पर विजय पा लेनी चाहिए ,जिससे कि आप शॉत और सन्तुलित रह सकें और जीवन में नयें अध्यायों का सूत्रपात कर सकें । पुराने सडते घावों को कुरेदने से तो नयें संकट उत्पन्न हो जायेंगे ,जिससे नकारात्मक पग विपरीत प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं ।केवल सकारात्मक प्रयत्न ही सकारात्मक प्रतिक्रिया उत्पन्न कर सकते हैं जिससेजीवन में शॉति और उन्नति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है ।
10-आत्म सम्मान को न भूलें-
आपके आत्म सम्मान की भावना इस वात में निहित है कि आप इस प्रकार आचरण कर रहे हैं कि आपको लज्जित न होना पडे । आत्म सम्मान करने वाला व्यक्ति कुछ ऐसे मूल्यों और सिद्धान्तों का पालन करते है कि वह नैतिक रूप से उसे समुचित समझता है । और व्यवहार में सीधा-सच्चा रहने का प्रयत्न करता है । यदि कोई व्यक्ति तुच्छ सी बात को प्रतिष्ठा या आत्म सम्मान का विन्दु बनाता है तो वह अहंकारवादी है ।जीवन में सिद्धान्तों का पालन करते हुये भी उदार होना चाहिए, तथा दूसरों के आचरण की अपेक्षा स्वयं के आचरण पर अधिक ध्यान देना चाहिए ।उदार चित्त जीवन में लाभदायक है ।

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