Thursday, September 20, 2012

उपहार का मूल्य



 
 




1-आगे बढते जॉय-

क-           हम अपने जीवन की प्रगति के लिए जो उद्देश्य निर्धारित कर लेते हैं ,उसमें हमारे प्रयत्नों से हमें सफलता प्राप्त हो जाती है,लेकिन विगत समय की भूलें कभी-कभी अत्यधिक प्रयासों से भी विफलता को नहीं रोक सकते ! कभी-कभी हम अपने आप को किसी कार्य में पूर्ण समझते हैं यह हमारी भूल है,,क्योंकि भूलें तो मानवीय स्वभाव है । यदि हमने भूल मानकर मन से स्वीकार कर लिया तो सदा के लिए भूल का अंत हो जाना चाहिए ! हॉ यदि आप उसकी पुनरावृत्ति न करने का निश्चय कर लें और भविष्य में सावधान रहें ! पिछली भूलों पर पछताना स्थिति में सुधार नहीं करता, बल्कि अनावश्यक ही शक्ति का क्षय और समय का नाश कर कर देता है । आप अपनी पुरानी भूलों के लिए स्वयं को क्षमा कर दें,और अपराध बोध को न बढाएं । अपराधबोध तो तभी बना रहता है जब आप स्वयं ही सोच में पडे रहते हैं । अतीत का तो आपके साथ कोई यथार्थ सम्बन्ध नहीं होता है,भले ही आप मनमें उसके साथ चिपके रहें ।अतीत को फूंक के साथ उडा दें उसे विलुप्त मानकर अस्वीकार कर लों ।

ख-            जीवन में आगे बढने के लिए हमारे सामने जो ज्वार आता है उससे हम अपने जीवन प्रवाह को और आगे की और बढा देते हैं ।अतीत नष्ट होता रहता है और वर्तमान ऊपर उभरकर आता रहता है । वैसे भी अगर देखें तो वर्तमान ही सत्य है जबकि अतीत मृतक है भविष्य तो उत्पन्न होता है और वर्तमान भविष्य में मिल जाता है ,जब वर्तमान आगे की ओर बढता है तो फिर वर्तमान का ही अस्तित्व रहता है ।

ग-            हमें अपनी आशा और विश्वास को इस प्रकार जगाना है कि - भविष्य में जो सुखद भण्डार भरे पडे हैं, उन्हैं देखकर हमारी आशाएं जीवित रह सकें ।और होता भी यही है कि हम हमेशा आशाओं को लेकर चलते हैं । यदि हमारा लक्ष्य स्पष्ट है तो संदेहों और आशंकाओं के लिए कोई जगह नहीं रहेगी । हमारे प्रयत्नानुसार पुरुष्कार देर सबेर मिलते रहते हैं ।यदि हमारे मन में साधन आदि की अपर्याप्तता का भाव है तो उस पर विजय प्राप्त करें,और बिना भ्रमित हुये,बिना डगमगाये,बिना संकोच एक गौरवमय प्रभात की ओर बढें । अपनी बुद्धि से अतीत को पूरी तरह समझ लेने और भविष्य की एक स्पष्ट संकल्पना करने में तथा आगे की ओर बढते रहने में निहित है ।

 

2-हमारी भूलें और पछतावा-

          देखने वाली बात यह है कि हम कर्म करते हैं तो भूल भी हो जाती है,अगर कर्म न करते तो भूल भी कहॉ से होनी थी ।भूल करना और पछतावा करना भी मानवीय स्वभाव है । लेकिन यह भी सही है कि भूल को स्वीकार करना ही भूल का अंत होता है । बुद्धिमान लोग विगत भूलों पर कोई सोच-विचार करते हैं । जो लोग अत्यधिक पछतावा करते हैं वे तो मूर्ख होते हैं । अगर देखें तो प्रत्येक मनुष्य वर्तमान में ही जीवित रहता है। क्योंकि अतीत से सम्बन्ध बनाये रखना समझदारी नहीं है,क्योंकि अतीत का कोई स्तित्व भी नहीं है । अतीत तो अतीत है वर्तमान में अतीत के कष्टों की अत्यधिक भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वह वर्तमान को दूषित कर देगा । अतीत की छाया तो लम्बी और गहरी होती है लेकिन वह केवल छाया ही होती है। इसे अमान्य भी नहीं किया जा सकता है ।लेकिन इसे देर तक मस्तिष्क में रखें तो वह नकारात्मक अवरोधात्मक और विध्वंसात्मक हो जाता है । हॉ विगत भूलों से शिक्षा ली जा सकती हैऔर भविष्य में त्रृटिपूर्ण पगों को वापस ले सकते है । काल तो ऐसा मनुष्य होता है कि जिसके सिर के पीछे का भाग गंजा होता है,और जिसे सामने से पकडा जा सकता है ।

 

3-पूर्णतावादी बनकर क्षमा को अपनाएं-

क-          यदि आप शान्त और सुखी रहना चाहते हैं,तो पूर्णतावादी बनना होगा । यह पूर्णता कहीं दिखती नहीं है,और कोई मानव पूर्ण भी नहीं हो सकता,केवल परमात्मा ही पूर्ण हो सकता है । यदि मानव में पूर्णता की खोज करना है तो निराश ही होंगे । बस प्रयत्नवादी होना है,पूर्ण बनने का प्रयत्न करें तथा पूर्ण होने के लिए सच्चा प्रयत्न और पूर्णता की ओर बढते रहने से ही संतोष प्राप्त कर सकते हैं ।

ख-          हमारे जीवन में क्षमा प्रेम के साथ अविच्छेद है,विना क्षमाशील हुये प्रेमपूर्ण नहीं हो सकते हैं दूसरों को उनकी त्रुटियों के लिए क्षमा करें । क्षमा करना कठिन है लेकिन उससे लाभ बहुत अधिक हैं ।कोई भी मनुष्य क्षमाशील हुये विना शॉत और सुखी नहीं हो सकता है ।तुच्छ वृत्ति वाले लोग तुच्छ बातों पर क्षुब्ध और रुष्ट हो जाते हैं ,जबकि महॉपुरुष स्वभाव से ही क्षमाशील होते हैं । क्षमा करने में भी विवेकशील की आवश्यकता होती है ।

4-प्रकृति के अनुकूल चलें-

          अनुकूलीकरण प्रकृति का नियम है, अर्थात स्वयं को परिवर्तित होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप बना लेना । ताकि वह जीवित रह सके और फल फूल सके ।जीने की कला इस बात में निहित है कि व्यक्ति बुद्धिमत्तापूर्वक ढंग से स्वयं का समायोजन कर लेता है । यदि हम ऐसे लोगों के मध्य रहते हैं जिन्हैं कि बदला नहीं जा सकता है और न उन्हैं छोड सकते हैं तो जरूरी है कि हमें समायोजन के लिए समझौता करके अपना अनुकूलीकरण कर लेना चाहिए ताकि आप जीवित रह सकें । यदि कोई ऐसा है जिसपर आपका कोई नियंत्रण नहीं है तो आपको व्यथित नहीं होना चाहिए,उस स्थिति को प्रशन्नता पूर्वक स्वीकार कर लें और स्थिति का लाभ उठाते रहें । अस्तित्व के लिए भाग जाना या लडना नहीं है बल्कि अनुकूलीकरण भी है । इसका अर्थ किसी के सामने आत्मसमर्पण करना नहीं है बल्कि अपने अस्तित्व को किसी उत्तम आदर्श के लिए और उन उच्च आकॉक्षाओं की पूर्ति के लिए जो कि गहन सुख दे सकें,सुरक्षित रखना है ।

 

5-अपनी समस्याओं का समाधान करना सीखें -

          समस्याएं तो जीवन में आती रहती हैं,आप उनका समाधान भली प्रकार कर सकते हैं। आप अपनी भावनाओं को कुछ तो तटस्थ होकर और कुछ उन समस्याओं से ऊपर उठकर समाधान कर सकते हैं । भावात्मक रूप से अन्तर्ग्रस्त न हों,इससे समस्याएं जटिल हो सकती हैं । इन परिस्थितियों में निर्णय लेने में यथा सम्भव निष्पक्ष,न्यायसंगत और सकारात्मक रहना चाहिए । जटिल समस्याओं का समाधान करने में स्वयं को अत्यधिक व्यथित करने के बजाय अपने भीतर अन्तरात्मा की ध्वनि से परामर्श लें । परेशानियॉ तो उस व्यक्ति से परेशान हो जाती हैं जो उनसे परेशान नहीं होता है और हंसकर उसका सामना करने के लिए डटा रहता है ।जहॉ कायर भाग खडे होते हैं,वीर पुरुष वहॉ विजय प्राप्त कर लेते हैं ।

 

6- दुख भोग की सामर्थ्य-

          अगर देखें तो दुःख-सुख जीवन में परस्पर रात-दिन के समान आते हैं ,और इनमें दुःख का प्रभाव सुख से अधिक होता है । दुख मनुष्य को घेरकर उसे असंख्य प्रकार से यातनाएं दे सकता है,यह मनुष्य को अनजाने ही जकड लेता है । कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है,जिससे मनुष्य असहाय और दयनीय हो जाता है । लेकिन संकट की घडी परीक्षा का घडी भी होती है । वीर पुरुष हमेशा साहस से चुनौती को स्वीकार करते हैं,और विपत्ति का सामना करने के लिए अपना सुअवसर मानते हैं ।इस कठिन समस्या का सामना बिना घबडाये कर लेता है । जबकि एक कायर मनुष्य मिट्टी की दीवार की भॉति नीचे गिर पडता है और आत्मदया में बह जाने से स्वयं को उपहसनीय बना लेने से घोर संकट को आमंत्रित कर लेता हैं । इसके लिए इच्छाशक्ति होना आवश्यक है,हार और जीत उसी पर निर्भर करेगा ।साहसी और दृढ होकर बुद्धिमत्ता से जीवन यापन करने के लिए सुख-दुख के इस जीवन और जगत को अधिक उत्तम प्रकार से योग्य बनाया जा सकता है और मन को परिष्कृत कर मनुष्य को सत्य के अधिक समीप लाया जा सकता है ।

 

7-कर्म आत्म संतोष के लिए हो-

          हमारा हर कर्म आत्मसंतोष के लिए होना चाहिए । हमें हर एक की बात को ध्यान पूर्वक सुनना चाहिए लेकिन स्वयं अपने भीतर सावधान होकर सुनें । आपको दूसरों की प्रशन्नता के लिए कर्म नहीं करना है बल्कि अपनी आत्म संतुष्टि के लिए कर्म करना है । जो व्यक्ति सबको प्रशन्न करना चाहता है , वह किसी कोभी प्रशन्न नहीं कर सकता और कोई भी ठोस उपलव्धि नहीं कर पाता । आपको उन परिस्थितियों की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए जिसमें आप कार्य कर रहे हैं और न अपने भीतर की अन्तरआत्मा का निरादर करना चाहिए । अन्तःकरण की अदालत के निर्णय स्ष्ट होते हैं यदि कोई उन्हैं जानना चाहे , और उचित प्रकार से उनका अनुसरण किया जाय तो मनुष्य अपने भीतर स्वयं को स्थिर और दृढ बना सकता है ।

 

8-किसी पर दोषारोपण न करें-

          कुछ व्यक्तियों की आदत होती है दूसरों पर दोष मंढने की,वे अपनी विफलता का सारा दोष दूसरों पर मढ देते हैं । इस प्रवृत्ति में सुधार करना होगा । दूसरों पर तथा परिस्थितियों में दोष देने से उनका हित नहीं हो सकता ।उन्हैं असफलता को कारणों का निष्पक्ष विश्लेषण कर और निश्चय करना चाहिए कि कहॉ पर त्रुटि हुई है। विफलता हमारे उत्साह को कम कर देता है और हमें निराशा के दल-दल में धकेल देता है । विफलता ऐसी हो जिससे हमें अधिक दृढता से प्रयत्न करने और कुछ अधिक उत्तम करने के लिए प्रेरित कर दे । हमें विफलता से ऊपर उठना होगा,इसके लिए उस श्रेष्ठ आदर्श का अनुशरण करते रहना चाहिए जो जीवन को भव्यता,गौरव और अर्थ प्रदान कर दे । अगर आप उच्च आदर्शों के लिए संघर्ष करते हैं तो आपकी पराजय नहीं हो सकती है और सच्चे अर्थ में वे ही जीवित हैं जो किसी उत्तम आदर्श के लिए जीवित हैं । उच्च आदर्शों के लिए जीवित रहकर मृत्यु का आलिंगन करने वाले महॉपुरुष तो अमर होते हैं और आगे आने वाली पीढियों के लिए प्रेरणॉ के स्रोत बन जाते हैं ।

 

9-स्वार्थी न बनें-

          आपको इस बात का खयाल रखना होगा कि कही आप अपने ही तक तो सीमित नहीं हैं ?/यदि दूसरों पर विचार न करके अपने व्यक्तिगत हितों का ही चिंतन करते हैं तो आपका दम घुट जायेगा । आप अपने लिए दुख और क्लेश के मार्ग का निर्मॉण कर रहे हैं । यदि आप यथा सम्भव दूसरों के लिए कुछ विचार नहीं कर सकते तो आप अलग पड सकते हैं । आपका स्वभाव चिडचिडापन और निरानंद भी हो सकता हैं । इससे आपकी शॉति समाप्त हो सकती है। इस स्थिति से बचने के लिए आपको यथा सम्भव उदारचित्त बनना होगा । यदि आप स्वस्थ और सुखी रहना चाहते हैं तो प्रेम उदारता और त्याग के पाठ का प्रारम्भ अपने परिवार औप पडोस से कीजिए ,आप जितना स्वयं को विस्तृत करेंगे,उतना ही सुखमय हो जाएंगे तथा जीवन के उद्देश्य और अर्थ को समझ सकोगे ।

10-जीवन अर्थवान है-

          प्रकृति ने हमें समय,गुंण और शक्ति का प्रसाद दिया है,हर क्षण एक अनमोल वरदान होता है । हमारा जीवन अर्थवान है हम अपने परिवार के लिए धनोपार्जन करने और उसके हितों की देख-भाल करने में व्यतीूत होता है,यह कोई आदर्श नहीं हुआ । हम अपने परिवार से बाहर जन हित के कार्य और अपने चारों ओर स्थित दीन-दुखियों की सेवा नहीं करते हैं,समाज की उपेक्षा करके स्वयं को परिवार की परिधि तक सीमित रखते है ।श्रेष्ठ पुरुष तो वह है जो उत्तम कार्यों के प्रकाश को अपने चारों ओर प्रसारित करता है ,वह जीवन के उद्देश्य को पूरा कर लेता है । हम सुखी तभी हो सकते हैं जब हम अपना सम्पूर्ण जीवन की एकता को स्वीकार कर लेते हैं, समय के अनुसार अपने गुणों और अपनी शक्ति द्वारा जीवन को समृद्ध एवं उन्नत बनाते हैं । इसीलिए प्रकृति ने मनुष्य को समय गुंण और शक्ति का प्रसाद दिया है । इस जीवन के मूळ्यों का मापन कृत्यों से ही होता है ।



 




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