Friday, October 12, 2012

पंडित सत्य तक नहीं पहुंच सकते

 
 

 

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पंडितों का शास्त्र-

 
          पंडित अपने शास्त्र खोले बैठे रहते हैं, और बैठे-बैठे समाप्त हो जाते हैं,लेकिन उसे सत्य का कोई पता नहीं चलता है । पापी सत्य तक पह्ंच जाते है, लेकिन पंडित नहीं पहुंच पाते है । क्योंकि पापी कमसे कम विनम्र तो होता है, रो तो सकता है परमात्मा के सामने,डूब तो सकता है,घुटने टेक ते सकता है । लेकिन पंडित का अहंकार बहुत भारी होता है,पंडित का अहंकार चुनौती दे सकता है, विवाद कर सकता है लेकिन वह परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता है । कभी भी नहीं पहुंच सकता है । आजतक कभी भी यह नहीं सुनाई दिया कि कोई पंडित परमात्मा के पास पहुंचा हो ,अगर कभी पहुंचा भी होगा तो उसने पहले परमात्मा को चुनौती दी होगी कि तुम गलत हो क्योंकि हमारे शास्त्र में तो कुछ और ढंग से लिखा है ।
 
          इसलिए परमात्मा को जानना हो तो पंडित से बचकर रहना चाहिए । परमात्मा को प्राप्ति के रास्ते में पंडित एक अवरोध होता है । पंडित कोई भी हो हिन्दू का है या मुसलमान का है, सिक्ख का है या जैन का है या ईसाई का इससे कोई फर्क नहीं पडता ,पंडित तो पंडित ही है सारे पंडित तो एक जैसे होते हैं.उनकी किताबें अलग हो सकती है,उनके शव्द अलग होंगे,सिद्धान्त अलग होंगे लेकिन पंडित का मन व माइण्ड एक जैसा होता है । वह शव्दों पर जीता है,सिद्धान्तों पर जीता है लेकिन सत्य से दूर रहता है । क्यों ? क्योंकि सत्य की पहली मॉग है पहले स्वयं को मिटाओ । लेकिन पंडित अपने को मिटाने को कभी राजी नहीं होगा । क्योंकि पंडित कहता है कि मेरे पास जो है वह सत्य है । और सत्य के लिए पहली शर्त कि पहले स्वयं को मिटाना होगा । पंडित तो सत्य को अपने बगल में खडा रखता है,और जिसे सत्य को जानना हो उसे खुद ही जाकर सत्य के बगल में खडा होना पडता है । सत्य को अपने बगल में खडा नहीं किया जा सकता है और न मुठ्ठी में बन्द किया जा सकता है । सत्य के लिए न तो कोई दावा किया जा सकता है और न कोई विवाद संभव है,और न सत्य के लिए कोई शास्त्रार्थ संभव है, न तर्क की गुंजाइस है लेकिन पंडित तर्क का भरोसा रखता है । पंडित कहता है कि तर्क करेंगे तो सत्य को खोज लेंगे ।
 
          एक सागर तट पर बडे-बडे वि्द्वान अपने -अपने शास्त्रों को खोलकर रखे हुये हुये थे सागर की गहराई को जानने के लिए । अध्ययन कर रहे थे । गहराई की बहुत सी बातें थी, कौन सी सही होगी,यह निर्णय कर पाना कठिन हो रहा था । क्योंकि सागर की गहराई का पता सागर में जाने से ही पता चल सकता है । विवाद बढता गया,विवाद बढा समझो निर्णय मुश्किल होता चला गया । असल में अगर निर्णय लेना हो तो विवाद से बचना चाहिए । और निर्णय न लेना हो तो विवाद से ज्यादा सरल रास्ता कोई नहीं है ।
 
          इसी भीड में भूल से दो नमक के पुतले भी आ गये थे, उन्होंने विवाद करने वालों को सलाह दी कि रुको,हम सागर में कूदकर पता लगाते हैं कि सागर कितना गहरा है । विवाद करने वालों ने कहा कि सागर में जाने की जरूरत ही क्या है, जबकि शास्त्र हमारे पास है,और इस शास्त्रों में गहराई लिखी हुई है,क्योंकि ये शास्त्र ईश्वर ने लिखे हैं । नमक के पुतले को संतुष्टि नहीं हुई वह सागर में कूद गया । गहरे और गहरे सागर में, लेकिन जितना गहरा गया ,एक नई समस्या शुरू हो गई गहराई का तो पता चलने लगा लेकिन पुतला मिटने लगा, नमक का पुतला था पिघलने लगा । तल में पहुंच भी गया मगर लौटने का कोई उपाय नहीं बचा । सागर में खो गया सागर की गहराई भी जान ली,लेकिन बताएं कैसे ? इसलिए सत्य को जानने के लिए मिटना होता है, स्वयं को खोना होता है । सागर की गहराई का पता फिर भी नहीं लग पाया ।
 
          किनारे पर बैठे लोग कह रहे थे कि इस सागर में कूदकर कई लोग खो चुके हैं,गहराई का कोई खबर नहीं ला सका । हमने पहले ही कहा था कि शास्त्रों में खोजना चाहिए ।वह नमक का पुतला तो पागल था । फिर विवाद शुरू हुआ । नमक केदूसरे पुतले कहा मैं अपने मित्र को खोजकर लाता हूं ,खेोजने चला गया । मित्र तो नहीं मिला लेकिन खुद ही खो गया,लेकिन खुद को खोकर मित्र तो मिल गया । मित्र तो तभी मिलता है जब खुद को खोने की क्षमता रखता हो ।उससे पहले कोई मित्र नहीं मिलता । मित्रता का अर्थ है खुद को खोना । स्वयं खो गया,मित्र भी मिल गया,सागर भी मिल गया, गहराई का पता भी चल गया । लेकिन कहा जाता है कि वे दोनों लहरों-लहरों में चिल्लाने लगे कि इतनी है गहराई है ! इतनी है गहराई है !
 
          लेकिन किनारे बैठे लोग शास्त्रों में फिर खो चुके थे, लहरों की कौन सुने !बल्कि कई बार ये पंडित कह रहे थे कि इन सागर की लहरों के शोरगुल के कारण हमारी बहस में बडी वाधा पड रही है । अच्छा हो हम सागर से दूर चलें और वहॉ हम अपने शास्त्रों पर बहस करें । जबकि सागर कह रहा है कि जानलो रे सागर की गहराई कितनी है लेकिन पंडितों ने अनसुनी कर दी । वे सागर का पता लगाने के लिए सागर तट से दूर चले गये । लेकिन लोग कहते हैं कि अब भी वे शास्त्रों को खोलकर विवाद कर रहे हैं । वे सदा ही करते रहेंगे ।
 


Wednesday, October 10, 2012

ध्यान खरीदा नहीं जा सकता

                                                               
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

ध्यान
     

           ध्यान एक ऐसा मेहमान है जो एक बार अन्दर धुस जाय तो फिर बाहर नहीं कर पायेंगे,क्योंकि वह अपने साथ इतना आनन्द और शॉति लाता है कि इन्हैं कौन बाहर कर सकता है ? एक बार प्रयोग के लिए इसे भीतर आने तो दें ,फिर देखना यह फिर कभी बाहर न जा सकेगा । और अगर कोई कहेगा भी कि इसे बाहर कर दो एक करोँण रुपये में इसे हम लेते हैं,लेकिन आप राजी न होंगे । इससे हमारे अन्दर की स्थिति बदलती है,जिससे बाहर का आचरण स्वयं बदल जाता है । अगर कुछ देर के लिए यह अन्दर ठहर जाय तो पूरी जिन्दगी को पकड लेगा । इतिहास में कई घटनाओं के उदाहरण हैं ।
 
          एक बार एक सम्राट महॉवीर के पास मिलने आया और महॉवीर से कहा कि मैने सब कुछ पा लिया है । मैं ध्यान की चर्चा सुनता हूं ,यह क्या है ? यह कितने में मिल सकता है ? मैं इसे खरीदना चाहता हूं ? यह सम्राट चीजें खरीदने का आदी था ।महॉवीर ने कहा,यह खरीदने से नहीं मिलेगा,इसे तो गरीब से गरीब आदमी भी बेचने को राजी नहीं होगा ।
 
          उस सम्राट ने कहा, फौजें लगा देंगे,जीत लेंगे । यह है क्या बला ध्यान ? फिर भी कोई रास्ता बताओं, सम्राट ने महॉवीर से कहा । मैने सब कुछ पा लिया बस यह ध्यान भर रह गया है, यही खटकता है कि अपने पास ध्यान नहीं है । महॉवीर ने कहा ?तुम धन पाने के आदी हो,जमीन पाने के आदी हो,उसी तरह ध्यान पाने चले हो ? तुम नहीं पा सकोगे । अगर इतनी ही जिद्द करते हो तो तुम्हारे गॉव में एक गरीब आदमी है,उसकेपास चले जाओ,उसे ध्यान मिल गया है, उसे तुम खरीद लो ।
 
          सम्राट उस गरीब के दरवाजे पर गया,रथ से उतरकर उस गरीब को देखा, बहुत गरीब, एक झोपडे में । महॉवीर ने कहॉ,खरीद लेंगे,पूरे आदमी को खरीद लेंगे !उसने बडे हीरे-जवाहरात उसके दरवाजे पर डाल दिया और कह कि और चाहिए तो बताओ और दे देंगे,जो भी तेरी मॉग है दे देंगे लेकिन उस ध्यान को दे दे !
 
          उस आदमी ने कहा आपने तो मुझे बडी मुश्किल में डाल दिया, चाहे आप अपना साम्राज्य दे दे ,तो भी में ध्यान को न दे सकूंगा । इसलिए कि यह कोई बडी सम्पत्ति नहीं है ,और इसलिए भी न दे सकूंगा कि वह मेरी आत्मा की आत्मा है ,मैं उसे निकालकर कैसे दे सकता हूं ? अगर कोई लेना भी चाहेगा लेकिन उसे दे भी नहीं सकता हूं ।
 

Sunday, October 7, 2012

परमात्मा की तलाश


 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
  

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1-जीवनभर मन में भरते है फिर भी खालीपन -

 

          हमारा मन एक गहरी खाई,के समान है जिसमें नीचे कोई तलहटी नहीं है ।जिसमें हम गिरें तो गिरते ही रहेंगे । कहीं पहुंच नहीं सकते हैं ।इस मन में जिन्दगीभर का अनुभव होने पर भी रिक्तता रहती है ।जब देखो खालीपन ।लेकिन फिर भी हम जोर से चले जाते हैं । यही तो पागलपन है ।
 
          एक फकीर के पास एक बार एक आदमी आया उसने फकीर से कहा कि मैं परमात्मा को देखना चाहता हूं,कोई रास्ता बताओ ! मुझे लोगों ने बताया कि आप यह रास्ता बता सकते हो । उस फकीर ने कहा,अभी तो मैं कुंएं पर पानी भरने जा रहा हूं,तुम भी मेरे साथ चलो । हो सकता है कुंएं में पानी भरने में ही रास्ते का पता चल जाय । और न चले तो वापस साथ चले आयेंगे । फिर आपको रास्ता बता दिया जायेगा मगर ध्यान खना विना रास्ते का पता चले वापस न जाना । उस आदमी ने कहा क्या बात करते हैं आप मैं परमात्मा को खोजने निकला हूं वैसे ही नहीं लौटूंगा ।
 
          फकीर दो बाल्टियॉ अपने हाथ में लीं,रस्सी उठाई और उस आदमी से कहा जब तक मैं पानी न भर लूं तब तक सवाल न उठाना बीच में । यह तुम्हारे संयम की परीक्षा होगी ,फिर लौट के सवाल पूछ लेना । उस आदमी ने सोचा मुझे क्या लगी है बीच में बोलने की, मैं तो परमात्मा को खोजने निकला हूं । वह फकीर कुएं पर पहुंचा और विना तली के वर्तन को कुएं में पानी निकालने के लिए डाल दिया ।उस आदमी के मन में खयाल आया कि यह क्या कर रहा है,क्योंकि उस वर्तन में तली ही नहीं है,लेकिन मुझे कुछ कहने के लिए मना किया है । कुछ देर रुका लेकिन फिर वह सहन शक्ति से बाहर हो गया ,वह दिये गये वचलों को भूल गया और कहने लगा यह क्या पागलपन कर रहे हो ?इस वर्तन में तो कभी पानी भरेगा ही नहीं । उस फकीर ने कहा शर्त टूट गई,अब तुम जा सकते हो ।क्योंकि मैंने कहा था कि जबतक में पानी न भर लूं और लौट कर न आऊं तबतक तुम सवाल न उठाना । उस आदमी ने कहा कि तुम जैसा पागल नहीं हूं मैं ।
 
          वह आदमी उस फकीर को छोडकर चला गया । जाते समय उस फकीर ने कहा कि जो अभी पागल ही नहीं है वह परमात्मा की खोज करने कैसे निकलेगा । वह आदमी लौट गया मगर रात में उस फकीर का वचन कि जो आदमी पागल भी नहीं वह परमात्मा की खोज करने कैसे निकलेगा ? यह बात उसके सपनों में घुस गई ।बार-बार करवट लेता,वे शव्द उसे गूंजते सुनाई दे रहे थे । क्या इतना पागल हो सकता है कि ऐसे वर्तन से पानी भरे जिसमें पानी टिकता ही नहीं ? फिर खयाल आया कि उस फकीर ने घर से चलते वक्त यह भी कहा था कि अगर तुम मौन से मेरे साथ रहे तो हो सकता है पानी भरने में ही तुम्हारे सवाल का जबाव मिल जाय।
सुबह होते ही वह आदमी फकीर के पास गया और कहने लगा मुझे माफ कर,लगता है मुझसे भूल हो गई है । पानी भरते समय मुझे सवाल नहीं उठाना था । मुझे चुपचाप देखना था । कहीं आप मुझे शिक्षा तो नहीं दे रहे थे ?
 
          फकीर ने कहा इससे बडी शिक्षा और क्या हो सकती है,मैं तुमसे यही कह रहा था कि तुम मुझे पागल कह रहे हो ,और अपने तरफ नहीं देखते कि जिस मन में तुम जिन्दगी भर से भरते चले जा रहे हो वह अभी तक खाली का खाली है,उसमें कुछ भी नहीं भर पाया है,इसका मतलव यह मन भी विना पेंदी के वर्तन के समान है । लेकिन हमने इस मन में बहुत सी चीजें भर दी हैं,मगर अबतक कोई भी चीज भरी नहीं है,बूढे का मन भी उतना ही खाली होता है जितना बच्चे का । हम भरते चले जाते हैं । लेकिन अगर मन खाली है और चाहो तो जोर से भर लो, तो भर जायेगा । लेकिन फिर देखते हैं कि मन फिर खाली का खा खाली है, जरा भी नहीं भरा । परमात्मा हमारे पास है लेकिन उसकी तलाश में हम कहॉ-कहॉ भटकते रहते हैं यह पागलपन नहीं तो और क्या है ।
 
 

2-क्या परमात्मा के न मिलने से हम पीढित है -

 
          हमें परमात्मा नहीं मिल रहा है लेकिन हमारा कार्य बराबर चल रहा है,कभी-कभी किसी दुख में उसकी याद आती है ,इस आशा में कि दुख दूर हो जाय । इसलिए सुख में लोग परमात्मा को याद नहीं करते हैं । लेकिन जिस परमात्मा की याद दुख में आती है,वह याद झूठी है,क्योंकि वह दुख के कारण आती है । परमात्मा के कारण नहीं आती है । सुख में तो उसे ही याद आती है जिसे उसका अभाव खटक रहा है ।
 
          जिसके पास महल हो,धन हो, सब कुछ हो और फिर भी कहीं कोई खाली जगह हो जो धन से भी नहीं भरती है,मित्रों से भी नहीं,पत्नी से भी नहीं,पति से भी नहीं भरती हो बस उस खाली जगह में परमात्मा के बीज का पहला अंकुर होता है । देखें अनुभव करें कि क्या वह खाली जगह आपके पास है ? क्या आपके ह्दय का कोई खाली कोना है जो किसी चीज से भरता नहीं है ? खाली ही रहता है ।
 
 

3-आपके मन का मन्दिर गिर चुका है -

          यह एक तखलीफ वाली बात है कि आपके प्रॉणों का मन्दिर गिर चुका है. उस मन में सिर्फ किराये के पुजारी रह गये हैं । यही सत्य है । क्योंकि उस मन्दिर से परमात्मा निकल चुका है । उसे वापस लाने के लिए खोज में निकल पडे हैं । लेकिन बाहर के उस मंदिर का पुजारी चाहेगा कि ह्दय का परमात्मा न खोजा जाय ।क्योंकि जब ह्दय के परमात्मा को खोज लेता है तो बाहर के मंदिर के परमात्मा की फिक्र छोड लेता है । यह भी निश्चित है कि धर्म के ठेकेदार चाहेंगे कि असली प्रतिमा प्रकट हो गई तो बाजार में विकने वाली प्रतिमॉओं का क्या होगा ?आदमी बडा बेइमान है वह नकली परमात्मा से राजी होने को तैयार है । लेकिन हम सही परमात्मा को खोजने को नहीं जाते हैं जब नकली से काम चल जाता है तो कौन असली को खोजने जाए ?
 
          इसी प्रकार धर्म भी नकली है । असली धर्म तो एक दॉव है । नकली ईश्वर के लिए तो हमें कुछ भी नहीं खोना होता है,जबकि असली ईश्वर के लिए हमें अपने को पूरा ही खो देना होता है । नकली ईश्वर से हम खुद ही कुछ मॉगने जाते हैं । असली ईश्वर को तो अपने को ही देना होता है । नकली ईश्वर आसान है,सुविजापूर्ण है जबकि असली ईश्वर खतरनाक है, जिन्दा आग है,उसमें जलना होता है,मिटना पडता है ,राख हो जाना पडता है । और बडी बात तो यह है कि वे ही अपने द्ददय के मंदिर में परमात्मा को बुला पाते हैं जो अपने को राख करने के लिए तैयार है । इस धर्म का नाम है प्रेम । प्रॉणों में जो प्रेम की आग जलाने को तैयार है,वह परमात्मा को पाने का हकदार हो जाता है ष लेकि हकदार वही होता है जो खुद को खोने को तैयार है । परमात्मा को पाने शर्त उल्टी है शायद इसीलिए हमने परमात्मा को खोजना बंद कर दिया है । वैसे खोजा तब जाता है जब खो गया हो,लेकिन तुमने परमात्मा को खोया कैसे ?क्योंकि खोने की कोई वजह होगी, कोई तरकीव होगी, तो फिर खोजने की तरकीव उससे उल्टी होती है ।
 
          इसी संदर्भ में एक बार जब महात्मा बुद्ध सुबह के समय एक गॉव में आये वहॉ के लोग उन्हैं सुनने के लिए इकठ्ठा हुये ,वबुद्ध अपने हाथ में एक रेशमी रूमाल लेकर आये और बैठ गये । वे रेशमी रूमाल में गॉठ वाधना शुरू करने लगे पॉच गॉठें बॉधी और फिर बैठ गये । बुद्ध ने लोगों से पूछा कि इन गॉठों को कैसे खोला जाय,और रुमाल को जोर से खींच लिया , तो वे गॉठेंम औक भी अधिक कस कर बंध गई । एक आदमी ने खडे होकर कहा ,कृपया खींचिये नहीं ,वरना गॉठें और बंध जायेंगी । बुद्ध ने कहा मैं इन गॉठों को खोलने के लिए क्या करूं ? तो उस आदमी ने कहा कि पहले मुझे गॉठों को देख लेने दो कि वे गॉठें किस ढंग से बंधी हैं । क्योंकि जो उनके बॉधने का ढंग होग ,ठीक उससे उल्टा उनके खोलने का ढंग है ।और जबतक यह पता न हो कि कैसे गॉठ बॉधी गई है,तब तक खोलने का काम खतरनाक है । उसमें और अधिक गॉठ बंध सकती है,और उलझ सकती है । इसलिए पहले गॉठ को ठीक से समझ लेना जरूरी है कि वह कैसी बंधी है तभी खोलने का काम शुरू करना उचित है ।
 
          जो लोग ईश्वर के बारे में पूछते हैं उनसे यही कहना है कि तुमने खोया कहॉ ?तुमने खोया कैसे ?और गॉठ बंधी कैसे ? लेकिन उनको इस सम्बन्ध में कोई पता नहीं ।कोई याद नहीं । उन्हैं यह भी पता नहीं कि उन्होंने परमात्मा को खोया है । जिसे हमने खोया ही नहीं ,उसे हम खोजने कैसे निकलें । खोजने कोई निकलता ही नहीं । हम उसी को खोज सकते हैं जिसके खोने की पीडा गहन हो,जिसका विरह अनुभव हो रहा हो । और मिलन का आनन्द भी तो उसी के साथ हो सकता है,जिसके विरह की पीडा हमने झेली है । हम तो ईश्वर के विरह में जरा भी पीढित नहीं हैं और कोई भी पीढित नहीं है ।
 
          यह बात सही है कि लोग पीढित है मगर उनके पीढित होने के कारण दूसरे हैं ।कोई धन न होने से पीढित है,तो कोई यश के न होने से पीढित है किसी का कोई और कारण है ।लेकिन ऐसा कोई आदमी खोजने से कभी मिल मिल पाता है जो परमात्मा के न होने से पीढित है । उस आदमी को धार्मिक आदमी कहा जाता है ।


Saturday, October 6, 2012

जीवन में विश्राम शब्द उपयुक्त नहीं है

 

 

 

 

 

 

 

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1-          एडिंगटन एक बहुत बडे वैज्ञानिक हुये हैं,उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि आदमी की भाषा में रेस्ट,विश्राम शव्द झूठा है ।क्योंकि पूरी जिन्दगी के अनुभव के बाद मैं यह कहता हूं कि कोई भी चीज विश्राम में नहीं है,या तो चीजें आगे जा रही हैं या तो पीछे।कोई भी चीज ठहरी नहीं है,रेस्ट नाम की चीज नहीं है ।

 

2-          इसका मतलव यह हुआ कि या तो आप खोयेंगे या आप पायेंगे । अगर आप पा नहीं रहे हैं तो आप पूरे समय खो रहे हैं ।लेकिन पहले पता तो चल जाय कि हम कुछ पा रहे हैं हमें कुछ मिल रहा है ।जिस मनुष्य के मन में यह प्रश्न उठता है, उस मनुष्य को परमात्मा से बहुत दिनों तक दूर रखने का कोई कारण नहीं है ।आज नहीं तो कल या परसों परमात्मा की ओर यात्रा जरूर शुरू हो जायेगी । हमारी जिन्दगी में जो भी है कुछ भी ठहरता नहीं है जिन्दगी एक धारा है ,नदी है । चीज चली जाती है लेकिन हम परेशान रहते हैं ।

 

3-          एक आदमी गाली देता है ,वह गाली आती है,गूंजती है और चली जाती है । और हमारी नीद रातभर खराब हो जाती है कि उसने गाली दी । जबकि गाली टिकती नहीं है, लेकिन हम गाली पर टिक जाते हैं । जिन्दगी एक बहाव है लेकिन हम हर चीज पकडकर रखते हैं ।

 

4-          महात्मा बुद्ध का नाम सुना होगा आपने,एक दिन सुबह किसी आदमी ने बुद्ध के ऊपर थूक लिया इसलिए कि वह क्रोध में था, बुद्ध ने कपडे से अपना मुंह पोंछ लिया और उस आदमी से कहा ,और कुछ कहना है ? जबकि उस आदमी ने कुछ कहा नहीं था बल्कि सीधा अपमान किया था । बुद्ध ने कहा,जहॉ तक मैं समझता हूं,तुम कुछ कहना ही चाहते हो,लेकिन शव्द कहने में असमर्थ होंगे,इसलिए थूककर तुमने कहा है ।अक्सर ऐसा होता है कि प्रेम में हो तो शव्द से नहीं कह पाता है तो वह गले से लगा लेता है ।कोई बहुत श्रद्धा में होता है तो,शव्द से नहीं कह पाता तो चरणों पर सिर रख देता है । इसी प्रकार अगर कोई क्रोध में होता है तो शव्द से नहीं कह पाता है थूक देता है । । इसलिए बुद्ध ने कहा मैं समझता हूं कि तुमने कुछ कहा है ।,और भी कुछ कहना चाहते हो ?

          वह आदमी मुश्किल में पड गया ।वह वापस लौट गया । रात भर सोया नहीं । सुबह बुद्ध से क्षमा मॉगने आया। कहने लगा मुझे क्षमा कर दें । बुद्ध ने कहा किस बात की क्षमॉ मांगते हो ?उसने कहा मैंने कल आपके ऊपर थूक दिया था । बुद्ध ने कहा, न अब थूक बचा और न अब कल बचा,न अब तुम वहॉ हो, न अब मैं वहॉ हूं। कौन किसको क्षमा करे ?कौन किसपर नाराज हो ?चीजें सब बह गईं । तुम भी वहॉ नहीं हो ।क्योंकि कल तुमने थूंका ,आज तुम चरणों पर सिर रखते हो ।कैसे मानूं कि तुम वहीं हो ।

 

5-           मेरा एक साथी बहुत क्रोधी है वे बार-बार मुझसे पूछते थे कि मैं क्रोध से बचने के लिए क्या करूं ।कई उपाय अपनाये मगर कोई भी काम न आया काफी संयम साधा मगर क्रोध और भी अधिक आने लगा था, फिर मैनें उन्हैं इक कागज पर लिखकर दिया कि इस क्रोध से मुझे क्या मिल जायेगा । उस कागज को मोडकर उस दोस्त से कहा कि इसे अपने जेब में रख लो और जब भी क्रोध आये इस कागज को निकालकर पठ लेना और फिर जेब में रख लेना । वे पन्द्रह दिन बाद मेरे पास आये और कहने लगे बडा अजीव कागज है इसमें कुछ रहस्य,कोई मंत्र,कोई जादू जरूर है ? मैने कहा इसमें कोई रहस्य या मंत्र नहीं है ,एक साधारण कागज पर हाथ की लिखावट है । अब तो हालत यह हो गई थी कि उस कागज को निकालकर पढना भी नहीं पडता था ,बस हाथ जेब में डाला नहीं कि क्रोध का मामला विदा हो जाता था । जैसा ही खयाल आया कि इस क्रोध से क्या मिल जायेगा ? क्रोध अपने आप विदा हो जाता । जिन्दगीभर का अनुभव है कि कभी कुछ मिला नहीं है ।सिर्फ खोया जरूर है ,मिला कुछ भी नहीं है ।

          ध्यान रखना चाहिए कि जिस चीज से कुछ नहीं मिलता,यह न समझें कि सिर्फ कुछ नहीं मिलता । जिससे कुछ मिलता है,उसमें कुछ खोता भी जरूर है, इस जिन्दगी में या तो माइनस होता है या प्लस । या तो कुछ मिलता है या कुछ खोता है । बीच में कभी नहीं होता है । पूरी जिन्दगी में या तो कुछ मिलेगा या खोयेगा । और यदि आपको कुछ नहीं मिला तो आपने कुछ खोया जरूर है । जिसका कि आपको पता नहीं है अपने जगह पर खडे नहीं रह सकोगे यातो आगे जाओगे या पीछे ।






 

 

Monday, October 1, 2012

अपनी पहचान


 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

1- -दृढ संकल्पवान बनें-             

 

क-          हमें साहसी और शक्तिशाली बनने का संकल्प लेना होगा,कभी भी अपने वाह्य परिस्थितियों से भयभीत नहीं होना है ,चाहे वे कितनी ही भयानक क्यों नहों । इसके लिए आपको अपने भीतर दिव्य सत्ता को धारण करना होगा । आप एकॉकी एवं असहाय नहीं हैं ,आप चाहे जहॉ भी हों,आप जो भी करते हों ,आपको सिर्फ अपने आंतरिक प्रकाश को अपने साथ जोड देना है ,फिर एक चमत्कारी दैवीय शक्ति का प्रवाह आपके भीतर होगा । तभी आप शक्तिशाली बन पायेंगे । तभी आप जीवन की चुनौतियों को स्वीकार कर बीरता पूर्वक उनका सामना कर सकेंगे ।

 

ख-          आप अपने भीतर तनाव उत्पन्न करके समस्याएं उत्पन्न कर देते हैं । बाहरी जगत की सहानुभूति और समर्थक आप में शक्ति नहीं भर सकते हैं, कोई भी आपकी सहायता तबतक नहीं कर सकता जबतक आप में स्वयं दृढ इच्छाशक्ति न हो और आप भय तथा चिन्ता को न फेंक दें । दुर्वल न बनें ! क्योंकि दुर्वल मनुष्य तिरस्कार और दया का पात्र बनने के साथ अपने और दूसरों के लिए नईं समस्याएं उत्पन्न करता है ।

 

ग-          अगर देखें तो मनुष्य अपने मन से ही जीता है, मनुष्य वही होता है जो उसका मन होता है, एक स्वस्थ मन रोगों से संघर्ष करने के लिए प्रतिरोधात्मक शक्ति विकसित कर लेता है । यदि मन तुच्छ बातों पर चिन्ता करने की आदत बना लेता है तो अगणित कष्ट उसे घर कर व्यथित कर लेते हैं । वास्तव में जीवन मनुष्य को बूढा नहीं करता है बल्कि तनाव उसे बूढा कर लेता है ।

 

घ-          अगर आप दुर्वल हैं तो इसके दोषों से आप बच नहीं पायेंगे,आपको इनपर विजय प्राप्त करनी होगी वरना आप नष्ट हो जायेंगे । यदि आप अपनी दुर्वलता से संघर्ष करना चाहते हैं तो आप जहॉ पर भी है जैसे भी है इसी वक्त संघर्ष प्रारम्भ कर लें ।

 

ड.-          आप जैसे भी हैं,अपने को स्वीकार करना होगा,अतीत की भूलों और हानियों पर शोक न करें । वर्तमान क्षण को प्रारम्भ विन्दु मानकर जीवन को आगे बढते रहने वाले क्रम में सम्मिलित हो जॉय । अपको अपनी दुर्वलताओं पर विजय प्राप्त करने के लिए अपनी विचार प्रक्रिया को नईं धारा और शिक्षा देनी चाहिए ।

 

च-          आपको विश्वास करना होगा कि आप एक क्षण में ही अपने भीतर जो चिन्ता और भय है उसे भगा देंगे । आपमें यह शक्ति है । आप अपने जीवन में घटनाओं की धारा को दिशा दे सकते हैं, उसके प्रवाह को परिवर्तित कर सकते हैं । आपको यह विश्वास करना होगा कि आप ऐसा कर सकते हैं ।

 

छ-          यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि आपकी इच्छाशक्ति शिथिल हो जाती है तो दैवीय सत्ता की सहायता के लिए प्रार्थना करें आपके अन्दर संसाधनों की पुनः आपूर्ति हो जायेगी और आपको शक्तिशाली बना देगी ।

 

ज-          मनुष्य की इच्छाशक्ति दैवी शक्ति से जागृत होती है इसके लिए गहन स्तर पर अन्तः तारतम्य कर लेना चाहिए । भाग्य में विश्वास न करें इससे मनुष्य दुर्वल हो जाता है और दैवी सत्ता में विश्वास उसे शक्तिशाली बना देता है ।यही आन्तरिक शक्ति का श्रोत है ।

 

 

2 -दोषारोपण करने में सावधान रहें-

          दूसरों पर दोषारोपण करने तथा उसकी भर्त्सना करने में सावधानी रखनी चाहिए । क्योंकि भर्त्नवा करने का मतलव गलत कार्य को हतोत्साहित करना होता है । इसका उद्देश्य विरोध का प्रतिकूलता का भाव प्रदर्शित करना नहीं होना चाहिए । इसका प्रभाव सुधारात्मक हो सकता है,वसर्ते वह सुझावात्मक और विश्वासत्पादक हो । यदि इसका परिणॉम दण्ड में हो तो यह न्याय संगत,तर्क संगत,और समुचित होना चाहिए, ताकि अनुशासन की वैद्धता की प्रतिस्थापना की जा सके । इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इससे कटुता से कटुता और घृणॉ से घृणॉ उत्पन्न होती है,लेकिन यह भी सही है कि दोष की निन्दा की जानी चाहिए ,इसपर तो सीधे चोट की जानी चाहिए, लेकिन प्रयास रहे कि हम उनके मन पर अंकित करने के लिए सही तरीका अपना रहे हों । अविश्वास की वृत्ति स्वयं अपने लिए तथा दूसरों के लिए अनावश्यक कठिनाइयॉ उत्पन्न कर देती हैं , संकट उत्पन्न हो सकता है । इसलिए अनुशासन की कठोरता और प्रेम की भावना से सकारात्मक दृष्टिकोंण को अपनाया जाय । भाउक व्यक्तियों के साथ व्यवहार करते समय विशेष ध्यान रखना चाहिए ।

 

 

3 -अपनी आदतों को पहचानें-

 

क-          हमारी आदतें हमारे चरित्र का आधार हैं,यदि आप स्वस्थ और सुखी जीवन यापन करना चाहते हैं तो श्रेष्ठ आदतें विकसित करें और निकृष्ठ आदतों को त्याग दें , क्योंकि आदतें हमारेअभ्यस्थ व्यवहार में प्रविष्ठ हो जाती है , आदतों को ग्रहण करने या छोडने में संगति का अधिक प्रभाव पडता है,इसलिए अच्छी संगत को चुनें । जीवन में भली या बुरी आदतें अपना स्थान लेती हैं, अच्छी संगत से अच्छी आदतें और बुरी संगत से बुरकी आदतें बनेंगी । कुछ लोग तनाव से मुक्ति के लिए मादक पदार्थों का प्रयोग करते हैं ,जिससे उन्हैं उनके प्रयोग की लत लग जाती है। जितना अधिक तनाव मुक्ति के लिए मादक पदार्थों का प्रयोग करेंगे उतना ही वे उनके दास होते चले जाते हैं । वे मादक पदार्थ मनुष्य को मिथ्या सुख के बोध की ऊंचाइयों तक ले जाते हैं,यह सुख अल्प समय के लिए होता है । कुछ लोग इसे ऊंचा उठना या सृजनशीलता से जोडते हैं यह एक कुतर्क है, क्योंकि मादक द्रव्य मानव का सब प्रकार से पतन कर देते हैं ।

 

ख-          यदि आप निराश हैं या उकताये हुये हैं तो आप ऐसी पुस्तकें पढ सकते हैं जो आपको जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए आशावान और साहसी बनने की प्रेरणॉ देने के अतिरिक्त आपके मन को भी स्वास्थ्यप्रद भोजन दे सकें । आप शैर-सपाटे के लिए या मित्रों से भेंट करने के लिए जा सकते हैं या ताजगी के लिए प्रकृति के सानिध्य में जा सकते हैं । मानसिक दवाव पर विजय प्राप्त करने के लिए मादक पदार्थों का सहारा लेने की अपेक्षा ध्यान के लिए रुचि जागृत कर सकते हैं । धीरे-धीरे आप ध्यान के लाभ से परिचित हो जायेंगे तो फिर सबकुछ प्राप्त हो जायेगा ।

 

 

4 -शॉत रहने की आदत डालें-

 

          हर मनुष्य सुखी रहना चाहता है,कोई भी कार्य करता है उसकी हर गतिविधि का उद्देश्य सुख की प्राप्ति करना होता है । कोई भी मनुष्य तबतक सुख की प्राप्ति नहीं कर सकता है जब तक वह मन में शॉत न हो। मन में शॉति धारण करके ही आप विषम परिस्थितियों का सामना कर सकते हैं,तभी किसी समस्या का सामना कर सकते हैं । श़ॉति मानव के जीवन की प्रमुख आवश्यकता है। इसलिए सब परिस्थतियों में शॉत रहना सीखें । सदैव श़ॉत रहने का अभ्यास करें ताकि आप इस जीवन को जो वरदान मिला हैं अनका सुख प्राप्त कर सकें । आपको ध्यान का अभ्यास करना होगा, तभी आप स्वच्छ और सादा जीवन यापन कर पायेंगे, तभी आप सुखी रह सकते हैं ।

 

 

5.- जीवन को सुखद संगीत बनायें-

 

क-          हमें जीवन का सच्चा आनंद लेना सीखना चाहिए,इसके लिए हमें अपने जीवन को एक सुखद संगीत बनाना होगा । हमारा मन जब एक दिव्यता के साथ तारतम्य स्थापित कर लेता है तो उसकी सारी असंगत बडबडाहट समाप्त हो जाती है । वह सुसंगत विचारों तथा भावनाओं के लय से उत्पन्न एक मधुर राग प्राप्त कर लेता है । यही जीवन का उल्लास है ।

 

ख-          आप अपने जीवन को बनाने या बिगाडने में स्वतंत्र हैं । जिस मनुष्य ने जीवन को चमकाने का संकल्प लिया है उसके लिए वह दुखी नहीं रह सकता है,वह तो दुख में सुख का अनुभव करता है ।

ग-हम अपने जीवन के रास्ते को सकारात्मक या नकारात्मक होने में स्वतंत्र हैं । इसीलिए हम अपने भाग्य के निर्माता और स्वामी हैं ।

 

घ-          हम प्रत्येक क्षण अपने विचारों और कृत्यों से अपने भविष्य का निर्मॉण करते हैं । हम हमेशा अपने भविष्य का निश्चय स्वयं करते हैं । हमारा प्रत्येक विचार जिसका हम स्वागत करते हैं तथा जिसे हम आश्रय देते हैं उस दिशा को सूचित करता है, जिसकी ओर हम बढ रहे हैं । हमारा एक विचार न केवल कर्म का बीज होता है बल्कि एक अद्भुत बल भी होता है, जोकि चमत्कार कर सकता है । एक शानदार विचार को प्रभावपूर्ण ढंग से ग्रहण करना, एक तीखी कील पर बैठने जैसा है जो आपको उछाल दे तथा क्रियाशील कर दें ।

Friday, September 28, 2012

सहज योग क्या है

         

 

 

         

 

          सहज शब्द संस्कृत के दो शब्दों को जोड़ कर बना है। ‘सह’ का अर्थ है ‘साथ’ और ‘जा’ का अर्थ है‘जन्म’। जब यह दोनों शब्द एक साथ जुड जाते हैं तो इसका अर्थ है प्राकृत के करीब होना। सहज योगा के अनुयाईयों का विश्वास है कि उनके अंदर कुंडलिनी का जन्म होता है और वे उन्हें स्वत: जागृत कर सकते हैं।

          आईए जानें सहज योगा से होने वाले फायदे के बारे में। सामान्य स्वास्थ्य के लिए- सहज योगा से शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक रुप से मजबूती मिलती है। साथ ही शरीर में होने वाली बीमारियों को जड़ को खत्म किया जा सकता है। 

          सहज योगा से दिमाग को तनाव झेलने की शक्ति मिलती है। साथ ही आपके सोने के तरीके को भी सुधारता है। इस योगा से व्यक्ति को आसपास के तनाव, दिनभर की थकान व अपने गुस्से को नियंत्रित करने में आसानी होती है।  

          बुरी आदतों व लत से छुटकारा- किसी भी तरह की बुरी आदत व लत से जैसे धूम्रपान, मंदिरा सेवन आदि को छोड़ने के लिए इसका अभ्यास किया जा सकता है।

          संचार कौशल-सहज योगा के नियमित अभ्यास से आप लोगों से अच्छी तरह से पेश आते हैं। साथ ही दूसरों के साथ बेहतर रिश्ते जोड़ने में मदद मिलती है। कुंडलिनी जागरण के माध्यम से शरीर में शक्ति का संचार तथा शरीर को निरोग रखा जा सकता है ।

          एकाग्रता- सहज योगा से लोगों में एकाग्रता बढ़ती है और जो वे जीवन में हासिल करना चाहते है आसानी से कर सकते हैं।

हमारी अपेक्षाएं

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1-हमारे विचार और आकॉक्षाएं-

          अच्छे विचार और आकॉक्षाएं हमें शक्ति,स्थिरता,और शॉति प्रदान करते हैं । इसलिए भद्र विचारों का हमेशा स्वागत करें,और अभद्र विचारों का बिष्कार कर देना चाहिए । आपने अनुभव किया होगा कि भव्य विचार उल्लास पैदा करते हैं मन का पोषण करते हैं । हमारे भीतर प्रशन्नता का अर्थ है बाहर प्रशन्नता,सर्वत्र प्रशन्नता । यदि आप अपने भीतर के धनी हैं तो भौतिक निर्धनता का कोई महत्व नहीं रह जाता, उत्तम विचार भाव मन को आलौकिक कर देता है । भव्य वीचारों के विना तो हम स्वयं को उच्चत्तर सुखों से वंचित कर देते हैं ।

 

2-आंतरिक प्रशन्नता का गुँण-

          आंतरिक प्रशन्नता मन का एक गुंण है ,जिसका विकास किया जा सकता है । यदि आप भीतर से प्रशन्न है तो आपको सारा संसार सुखी दिखाई देगा । हमारे सामने एक चुनौती आती है कि क्या हम इस संसार में प्रशन्न रह सकते हैं ?,क्योंकि स्वार्थी और निष्ठुर लोग हमें चारों ओर से घेरे हुय़े हैं ! वे आपके रक्त को चूसने पर उतारू हैं ! विपत्ति और अभाव आप पर दृष्टि जमा रहे हों तब भी आप प्रशन्न रह सकते हैं, ! लेकिन निश्चित ही उच्तर हॉ में होना चाहिए ! चाहे कुछ भी हो हमें अपने मन की आन्तरिक प्रशन्नता सुरक्षित रखने के लिए स्वयं को प्रशिक्षण देना होगा । हमें यह देखना होगा कि हम सही अर्थ में जीवित तभी तक हैं जबतक हमारा मुख आंतरिक प्रशन्नता से आभामय है । किसी भी परिस्थिति में शॉत और प्रशन्न रहना होगा ,क्योंकि मन को शॉत रखकर ही हम कठिन परीक्षाओं का सामना कर सकते हैं ।

 

3- कथनी और करनी में भेद-

          यह देखा जाता है कि एक सत्यनिष्ठ व्यक्ति वही करने का प्रयास करता है जो वह कहता है । कथनी और करने में अन्तर से मनुष्य दुर्वल हो जाता है । जो व्यक्ति कहता कुछ और है और करता कुछ और वह तो अपनी विश्वसनीयता को खो देता है । उसे लोग गम्भीरता से नहीं लेते हैं और घृणॉ भी करते हैं । वे लोग तो प्रेम, प्रशंसा, और आदर को प्राप्त नहीं कर सकते ! इक ईमानदार व्यक्तु जैसा सोचता है यथा सम्भव वैसा कहता है और जैसा कहता है वौसा ही करता भी है । मिथ्या आचरण से मित्र नहीं बनाये जा सकते हैं और न ही गौरव प्राप्त किया जा सकता है । उपदेश देना सरल है लेकिन उसपर आचरण करना कठिन है उदाहरण प्रस्तुत करना उपदेश देने से अधिक प्रभावकारी होता है । प्रयास रहे कि यथासम्भव जो कुछ आप कहें उसपर आचरण करें । तभी आप अपने परिवेश अर्थात आस-पडोस को अनुकूल बनाने में सहायक हो सकते हैं और स्वयं आप सम्माननीय एवं सुखी रह सकते हैं ।

 

4- समाज में अपनी छवि का महत्व-

          समाज में अपनी छवि का अलग ही महत्व है । छवि का अर्थ है एक सामान्य छाप जो एक मनुष्य अपने शव्दों,आचरण,तथा कार्यों द्वारा दूसरों पर छोड देता है । यह एक प्रतिष्ठा है जिसे कोई व्यक्ति दूसरे पर अनजाने ही छोड देता है । और जिसे अपने चरित्र,और आचरण द्वारा अर्जित करता है । जिस प्रकार का सद्भाव आपको समाज से प्राप्त होता है, वह एक सम्पत्ति के ही समान है , जोकि संकट के समय सहायक सिद्ध होती है । कोई भी मनुष्य समाज में अपनी छवि से ही जाना जाता है ,जिसे वह दूसरों के मन पर अंकित कर देता है,दूसरों के मन पर आपकी छवि आपके मन की छाया है । स्वच्छ छवि के लोग तो जो भी चिंतन और चर्चा करते हैं अपनी छवि के अनुरूप ही करते हैं ।

 

5- आलोचना से आपमें सुधार होगा -

          मैं चाहता हूं कि मेरी आलोचना की जाय , स्वतंत्र हैं आप मैं उत्तेजित नहीं हूंगा । मनैं जो भी हूं वह हूं ही । आलोचना चाहे जितनी कचु और तीक्ष्ण हो,मेरी शॉति और समतुलन पर कोई प्रभाव नहीं पडेगा । कभी-कभी लोग कहते भी है जो कुछ कह रहा है उसे कहने दो । मुक्षे तो स्वयं को सुधारने का प्रयास करना है ।मैं कठोर भर्त्सनाओं की परवाह नहीं करूंगा,मैं आने वाले विषाक्त आक्रमणों से भयभीत नहीं हूंगा शैल की भॉति खडा रहूंगा । छुई-मुई के पौधे की भॉति नहीं बनूंगा । मैं तो अपने उत्तम लक्ष्यों का आशा और साहस से अनुशरण करता रहूंगा । दूसरों की निंदा करने वाले न अपना हित और न समाज का हित करते हैं । ऐसे लोग तो अंत में स्वयं के लिए संकट को आमंत्रित करते हैं । जो भी लोग दूसरों को गढ्ढा खोदते हैं,वे तो किसी दिन स्वयं ही उसमें गिर जाते हैं । और जो लोग दूसरों के हित में रत् होते हैं वे परमात्मा की कृपा प्राप्त कर लेते हैं । यह प्रकृति का भी नियम है ।

          सकारात्मक दृष्टि से यदि स्वच्छ आलोचना की जा रही है तो अच्छी बात है, इससे बुद्ध कुशाग्र तथा दृष्टि पैनी होती है । मनुष्य स्वस्थ आलोचना के प्रत्येक अंश का रसास्वादन कर सकता है,क्योंकि इसमें द्वैष का विष नहीं होता है ।स्वस्थ आलोचना का उद्देश्य तो विषयवस्तु का समुचित मूल्यॉकन तथा उसकी उत्तम व्याख्या करना होता है ।

 

6-संसार से भागना स्वयं का पतन करना है -

          यह संसार आपका ही है । यदि आपने जीवन का अर्थ और उद्देश्य नहीं समक्षा है,तो फिर आप इस संसार से भाग जाने की बात सोचते हैं । कोई भी मनुष्य लोगों के बीच में रहकर ही जीवन का अर्थ और उद्देश्य समक्ष सकता है,चाहे लोग भले-बुरे जैसे भी हों । यदि आप भय के कारण अपने कर्म क्षेत्र से पलायन कर देंगे तो समक्षो आप स्वयं का पतन कर रहे हैं । फिर आप सुखी नहीं रह सकेंगे । इस संसार की अवहेलना करके विना दण्ड के नहीं रह सकेंगे । वह व्यक्ति जो अपने अन्तरात्मा की ध्वनि नहीं सुनता तथा मन को अपने भीतर विराजमान दिव्य सत्ता के साथ समस्वर होने का प्रयत्न नहीं करता वह तो अभागा ही है । ध्यान और गम्भीर चिंतन करें आपको यह जीवन और भी अधिक समक्झ में आ जायेगा । आप सुखी होने में सक्षम हो जायेंगे ।

 

7-अनुभव से मन बलवान बन जाता है -

          हमारी समझदारी किसी भी ज्ञान के भण्डार से कम नहीं है । किसी का भी विवेक उनके व्यक्तिगहत अनुभव से बनता है ,जिससे मन बलवान बनता है । पुस्तकों से जो ज्ञान प्राप्त होता है उसका कोई महत्व नहीं है,जबतक कि गम्भीर चिंतन संप्रेषण और अनुभव से उसे ग्रहण न किया जाय । हमारा अनुभव तो हमारे जीवन का अंग बन जाता है,और यही अनुभव हमें सिखाता है कि उत्साह को विचारशीलता के साथ और नेकी को सतर्कता और साहस के साथ किया जाना चाहिए । अन्यथा चतुर लोग अपने कलुषित उद्देशों के लिए दुरुपयोग कर सकते हैं । अपने अनुभवों से अपना आत्म विश्वास बनता है ।

 

8-आत्म प्रशंसा करना दूर दृष्टि को धुमिल करती है -

          अपनी प्रशंसा में मग्न होना तो बच्चों का सा काम है,इससे मनुष्य की दूर दृष्टि धुमिल हो जाती है । इससे बुद्धिमान व्यक्ति अन्धा जैसा हो जाता है । आत्मप्रशंसा तो मनुष्य की क्षुद्रता को प्रकट करता है ,इसमें वह दूसरों में विद्वेष उत्पन्न कर देता है । मनुष्य को यह सौगन्ध लेने की आवश्यकता नहीं है कि उसके हाथ में गुलाब का फूल है इसलिए कि उसकी सुगन्ध चारों ओर फैल रही है सबको पता है । अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने से दूसरे की प्रतिष्ठा बढ नहीं सकती है,यह भी सही है कि शॉत जल गहरा होता है । हॉ अगर किसी व्यक्ति को सहज ही बधाई मिलती है तो उसे नम्रता पूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिए । सच्ची प्रशंसा तो गुंण की पहचान कराना है,यह स्फूर्ति दायक औषधि के समान होती है जिससे कि प्रोत्सान मिलता है ।

          अगर भावपूर्ण प्रशंसा की जाती है तो इसमें उकताने वाली बात नहीं है, लेकिन जो लोग चापलूस होते हैं वे मानो खाली चम्मच से पेट भर देना चाहते हैं । और यह भी देखा गया है कि कुछ लोग बढचढकर चाटुकारी करते हैं तो यह एक उपहास जैसा प्रतीत होता है,जैसा कि एक नदीं जो कि तट से ऊपर उठकर बहने लगती है तो लाभ के स्थान पर हानि होती है इसी प्रकार सम्मान अच्छा है मगर भारमय हो तो उपयुक्त नहीं है । अति तो अच्छी बात की भी बुरी हो जाती है । वैसे मनुष्य को अपने गुण और दोषों से परिचित होना चाहिए लेकिन ऐसा भी नहो कि गुणों के ज्ञान से मनुष्य धृष्ट बन जाये और दोषों के अनुभव से हतोत्साहित न हो जाय ।।

 

9-अधिक अपेक्षा करना मूरर्खता है -

          हमें अपनी अपेक्षाओं के प्रति समक्षदार होना होगा । हगमारा किसी से कितना ही प्रेम और निकटता का सम्बन्ध क्यों नहो, हमें उनसे अत्यधिक क अपेक्षाएं करना मूर्खतापूर्ण है । इक्षाओं से अपेक्षाएं उत्पन्न होती हैं लेकिन वे कभी मिथ्या भी सिद्ध हो सकती हैं इसलिए अधिक अपेक्षाओं से भ्रमित नहीं होना चाहिए । भले ही अन्तोगत्वा दैवीय व्यवस्था उसी के हित में होती है । इसलिए मनुष्य को उस दैवीय शक्ति के प्रति नतमस्तक हो जाना चाहिए ।

 

10-मर्यादापूर्वक दूरी बनाये रखें -

          हर आदमी का अपने परिवार तथा समाज में एक निर्धारित स्थान होता है ,इसलिए उसे एक निश्चित सीमा में रहना चाहिए ।हमें हर एक से उचित दूरी रखनी होगी ,दूरी का अर्थ घृणॉ करना नहीं बल्कि एक औचित्य पर बल देना है ,इस आधार पर कि एक पवित्र ग्रंथ को भी उचित दूरी पर रखना होती है ताकि उसे ठीक ढंग से पढा जा सके ।यह तभी सम्भव है जब हम अपने परिवार तथा समाज में अनुशासन और व्यवस्था के अनुरूप मर्यादापूर्वक शालीनता से रहते हों।

 

Thursday, September 27, 2012

महक

 
1-           लगभग सभी सम्बन्ध बहुत ज्यादा स्पष्टीकरण देने के कारण टूट जाते हैं - मैं ऐसा ही हूँ । मुझे गलत मत समझो । मेरा वो अर्थ नहीं था । यदि तुम चुपचाप रहते तो बेहतर होता । मैं तुम्हें बातचीत बंद करने के लिए नहीं कह रहा, केवल इतना कह रहा हूँ कि पुरानी बातों पर चिंतित न होओ, न तो स्पष्टीकरण दो और न मांगो ।



2-           यह जान लो की अपमान तुम्हें शक्तिहीन नहीं शक्तिशाली बनाता है। तुम जितने अहंकारी हो, उतना अपमान अनुभव करोगे । जब तुम शिशु की भांति सुलभ हो, अपनेपन की भावना में हो, तो तुम अपमानित नहीं होते । यदि तुम सृष्टि के, प्रभु के प्रेम में ओत प्रोत हो, तो तुम्हारा अपमान हो ही नहीं सकता ।



3-           प्रेम अधूरा है और उसे अधूरा ही रहना होगा। यदि कुछ पूरा हो जाये तो उसकी सीमाएं बैठा दी गयी हैं, वह कहीं ख़त्म होता है। प्रेम को असीमित रहने के लिए उसे अधूरा ही रहना होगा।



4-            सुन्दरता दिल की भाषा है - जो श्रृंगार करती है, विस्तार करती है और बढ़ा चढ़ा कर कहती है। जब तुम कविता पढ़ते हो, गाना गाते हो या कोई वर्णन देते हो, वह हमेशा दिल से ही होता है। विश्लेषण या स्पष्टीकरण मन से होता है। न्याय या समानता बुद्धि से होती है। विलक्षणता केवल दिल से होती है। दिल सब कुछ विशेष बना देता है।



5-            तुम नहीं जानते कि तुम वास्तव में कौन हो । यदि किसी के रसोईघर में जाओ तो कई बार डब्बे में कुछ होता है और उस पर लगे परचे पर कुछ और लिखा होता है । तुम एकदम ऐसे ही हो । तुम अपने ऊपर परचा या लेबल लगा लेते हो पर भीतर से तुम एकदम अलग हो ।आज की यही दुनियॉ है । अपने सारे लेबल उतार कर फेंक दो ।



6-           स्वयं से पूछो कि तुम्हें अपने सच्चे मित्र से क्या चाहिए । तुम पाओगे कि वह कुछ भी नहीं है । तुम्हें केवल मित्रता चाहिए । मित्रता तुम्हारा स्वभाव है । उसका कोई और उद्देश्य नहीं । यह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं कि तुम्हारी मित्रता किससे है।



7-            मुझे तुमसे केवल दो बातें कहनी हैं । एक तो यह कि जीवन में कोई दुःख नहीं है । जागकर देखो, कोई दुःख, कोई शोक नहीं है । अगर इससे बात नहीं बनती तो दूसरी यह कि अपना दुःख मुझे दे दो ।



8-            यह विश्व ऐसा ही है जैसी तुम्हारी दृष्टि है। एक भूखे व्यक्ति को चाँद रसगुल्ले जैसा दीखता है। एक प्रेमी को चाँद में अपने प्रियतम का मुखड़ा नज़र आता है । दैवी प्रेम पा लेने पर प्रेम के सिवा कुछ और दीखता ही नहीं है। पूर्णता को प्राप्त होने पर केवल पूर्णता ही दिखती है।



9-           पूर्णता और कृतज्ञता की स्थिति में तुम्हारे भीतर अर्पण करने का भाव जगता है| "आपने मुझे यह विश्व दिया, मैं इसे वापस आपको ही अर्पित करता हूँ| आपने मुझे यह शरीर दिया, मैं इस शरीर का कण कण आपको अर्पित करता हूँ| मैं आपका ही हूँ|" यह तीव्र भावना विलीन होने की, अपने लिए कुछ न रखते हुए सब कुछ प्रभु को समर्पित कर देने की, स्वयं को ही अर्पित करने की, यह भावना पूजा है|



10-            ऐसा कहा जाता है कि जब तुम उनके लिए गाते हो तो ईश्वर का तुममें उदय होता है । जब तुम गाते हो तो तुम्हें दैवी प्रेम का अनुभव होता है । यह बात निश्चित है । ईश्वर केवल तुम्हारे अपने भीतर और गहराई में जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, ताकि वे तुम्हें और भी अमृत से भर दें । वे तुम्हें और भी देने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । अपने दिल से उन्हें पुकारो, आत्मा से आवाज़ दो ।



11-            प्रेम देने का आनंद इतना रसमय रहता है कि । जब ऐसी अवस्था तुम्हारे भीतर स्थापित हो जाती है, तो तुम सभी को प्रेम बांटने लगते हो - केवल मनुष्यों को ही नहीं, जंतुओं को, वृक्षों को, सितारों को । केवल एक प्रेममयी दृष्टि से भी सबसे दूरवर्ती तारे तक प्रेम पहुँच जाता है, प्रेममय स्पर्श से एक वृक्ष तक पहुँच जाता है । प्रेम संपूर्ण मौन में, बिना शब्द कहे भी व्यक्त हो सकता है ।



12-            जो भी तुम्हारी परेशानी हो, उसे पूरी तरह त्याग दो । यदि तुम आज मुक्त नहीं हो, तो और किसी समय भी मुक्त नहीं हो सकते । मुक्ति तुम्हारे पास आयेगी, ऐसी अपेक्षा मत करो । "आज मैं मुक्त हूँ! जो जैसा होना है, वैसा ही होगा ।



13-            जब तुम प्रेम से भर जाते हो तो उसे बांटने लगते हो। और तब यह आश्चर्य की बात पता चलता है कि जब तुम प्रेम देने लगते हो, तुम प्रेम पाने भी लगते हो - अज्ञात साधनों से, अनजान लोगों से, पेड़ों से, नदियों से, पहाड़ों से, सृष्टि के कोने कोने से तुमपर प्रेम कि वर्षा होने लगती है। जितना तुम देते हो, उतना तुम्हें मिलता है। जीवन प्रेम का नृत्य सा बन जाता है। 15-तुम्हें कैसे पता है कि मुझसे पूछने पर तुम्हें उत्तर मिलेगा, कि वह सही उत्तर होगा । यह श्रद्धा है ।



14-            जब प्रेम चमकता है, वही आनंद है । जब वह बहता है, वही करुणा है । जब वह भड़कता है, वही क्रोध है । जब वह खमीर होता है, वही ईर्ष्या है । जब वह नकारात्मक है, वही घृणा है । जब वह क्रियाशील होता है, वही निपुणता है । जब वह अनुभूति है, वही मैं हूँ ।



15-            प्रेम और आसक्ति में क्या अंतर है? आसक्ति वह है जो तुम्हें पीड़ा दे । प्रेम वह है जिसके बिना तुम जी नहीं सकते । यदि प्रेम आसक्ति बन जाये तो वही प्रेम जो आनंद देता था, पीड़ा देने लगता है । आसक्ति में तुम्हें बदले में कुछ चाहिए । यदि तुम प्रेम करो और बदले में कोई अपेक्षा न रखो तो वह प्रेम आसक्ति में नहीं परिणत होता ।



16-            सामान्यतः शरण लेने में दुर्बलता, असफलता या गुलामी की भावना मानी जाती है । पर शरणागत होने का एक और पहलु है जिसमें स्वतंत्रता है । इसका अर्थ है सीमितता से असीमितता तक बढ़ना, दिव्यता में, सृष्टि के विशाल शक्तिशाली सिन्धु में विलीन हो जाना । शक्तिहीन व्यक्ति शरणागत नहीं हो सकता । जब तुम तनाव, भय, चिंता और संकीर्णता को छोड़ देते हो, तो तुम्हारे भीतर स्वंत्रता, वास्तविक आनंद और सच्चा प्रेम उदित होता है ।



17-            मृत्यु के समय केवल दो ही प्रश्न सामने रह जाते हैं:

१) तुमने कितना प्रेम बांटा और

२) तुमने कितना ज्ञान प्राप्त किया



18-            जब हम जीवन के स्रोत से जुड़ जाते तो सारी चिंताएं और तनाव बिखर जाते हैं; हम गा सकते हैं, नाच सकते हैं, प्रसन्न हो सकते हैं । जीवन अत्यंत आनंदमय हो जाता है ।



19-            अहंकार पर कैसे जीत पाएं? अहंकार तुम्हारे और दूसरों के बीच दीवार जैसा है । पर वास्तव में कोई दीवार नहीं है । तुम मेरे हो और मैं तु म्हारा । तुम जैसे भी हो स्वीकार्य हो । सहजता अहंकार की दवा है । अहंकार सहजता को नहीं झेल सकता । बच्चे कितने सहज होते हैं । बस बच्चे बनकर रहो ।



20-            जब प्रेम तुम्हारे अनुभव में आने लगता है तो तुम सजग होने लगते हो । तुम वही पहचान सकते हो जो तुम जानते हो । जब प्रेम पहली बार तुम्हारे अन्तर्भाग को भर देता है, तो तुम पूर्णतः अभिभूत हो जाते हो । तुम्हारा ह्रदय नृत्य करने लगता है, दिव्य संगीत सुनाई देने लगता है और ऐसी सुगंधें आने लगती है जो पहले कभी महसूस नहीं हुईं ।



21-            जब हमारे जीवन में व्यक्तिगत ज़रूरतें और इच्छाएं नहीं रहतीं, तो एक अद्भुत, रहस्यमयी प्रतिभा जाग उठती है जिससे हम दूसरों को आशीर्वाद दे सकते हैं । जब हमें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए तो हममें दूसरों की इच्छाएं पूर्ण करने की शक्ति आ जाती है ।



22-            जब तुम्हें आदर मिलता है, तो प्रायः तुम्हारी स्वतंत्रता कुछ कम हो जाती है । ज्ञान यही है कि स्वतंत्रता को प्राथमिकता देना और आदर कि चिंता न करना । जहां सच्चा प्रेम है, वहां आदर सहज ही होता है ।



23-            यह सारा ब्रह्माण्ड केवल समूहों से बना है - परमाणुओं के, गुणों के, शक्ति के| गण का अर्थ है समूह और समूह अधिपति के बिना नहीं रह सकता| गणेश का जन्म अव्यक्त, अद्वितीय चेतना से हुआ जिसका नाम शिव है| जैसे परमाणुओं के जुड़ने से पदार्थों की उत्पत्ति होती है, उसी तरह हमारी चेतना के सभी पहलू जुड़ने पर दिव्यता सहज ही उत्पन्न होती है और वही शिव से गणेश का जन्म है|



24-            दुर्भाग्यशाली हैं वे जो इच्छाएं करते रहते हैं पर जिनकी इच्छाएं पूरी नहीं होतीं| थोड़े भाग्यवान हैं वे जिनकी इच्छाएं बहुत समय बाद पूरी होती हैं| उनसे भी अधिक भाग्यशाली हैं वे जिनकी इच्छाएं उठते ही पूरी हो जाती हैं| सबसे सौभाग्यशाली हैं वे जिनकी इच्छाएं नहीं बचीं क्योंकि वे उठने से पहले ही पूरी हो जाती हैं|



25-            तुम प्रेम को बुद्धि द्वारा नहीं समझ सकते । उसे अनुभव करना होगा । और अनुभव करने तके लिए संश्लेशण की आवश्यकता है,विश्लेषण की नहीं । उसे जानने के लिए उसके साथ एक होना होगा । तुम जो भी बुद्धि से जानते हो वह थोडी दूरी पर है । ज्ञाता ज्ञेय का भेद हमेशा रहेगा । पर प्रेम ऐसा नहीं है । मिठाई का स्वाद उसे खाने में है,संगीत का रस उसे सुनने में है । उसी तरह,प्रेम अनुभव में है ।
 


26-            जब हम आनंद की चाह में कर्म करते हैं तो वह कर्म निम्न हो जाता है। जैसे तुम प्रसन्नता फैलाना चाहते हो पर यदि तुम जानना चाहो कि वह व्यक्ति प्रसन्न हुआ कि नहीं तो तुम चक्रव्यूह में फंस जाते हो। इस बीच तुम अपना सुख खो बैठते हो। अपने कर्म के फल कि चिंता तुम्हें नीचे खींचती है। पर जब हम कोई कर्म आनंद की अभिव्यक्ति के रूप में करते हैं और फल की चिंता नहीं करते, वह कर्म ही पूर्णता ले आता है।
 


27-            तुम जैसे ही भीतर से कोमल होते हो, कठोरता छूट जाती है, बंधन में होने की भावना चली जाती है, सुख समृद्धि आने लगती है। जब तुम सौम्य और बिना प्रतिरोध के होते हो, तो यश भी आता है। प्रकृति तुम्हें देती है। आध्यात्मिक पथ पर यही सत्य है।
 
 

28-           हम जो कुछ भी हैं अपनी स्मृति के कारण हैं।अनंत को भूल जाना दुःख है । तुच्छ को भूल जाना आनंद है ।


29-            प्रेम और पीड़ा साथ साथ चलती है। जब तुम किसीसे प्रेम करते हो, एक छोटा सा कर्म भी चोट पहुंचा सकता है। और तब तुम बहुत नाज़ुक हो जाते हो। प्रेम और वियोग के एक जैसे ही लक्षण हैं। यदि तुम किसीसे प्रेम नहीं करते, वे तुम्हें पीड़ा नहीं दे सकते। यह समझ लो और स्वीकार कर लो। तब वह पीड़ा घाव में परिणत नहीं होगी। बल्कि वह पीड़ा तुम्हें वैराग्य और ध्यान की गहराईओं में ले जाएगी।


30-            ज़रा अपने मन में शोर को देखो। वह किस विषय में है? धन? यश? सम्मान? तृप्ति? सम्बन्ध? शोर सदा किसी बारे में होता है; मौन शून्य के बारे में होता है। शोर ऊपरी सतह है; मौन आधार है।
 


31-            ज़रा अपने मन में शोर को देखो। वह किस विषय में है? धन? यश? सम्मान? तृप्ति? सम्बन्ध? शोर सदा किसी बारे में होता है; मौन शून्य के बारे में होता है। शोर ऊपरी सतह है; मौन आधार है।
 


32-            तुम जिसका भी सम्मान करते हो, वह तुमसे बड़ा हो जाता है। यदि तुम्हारे सभी सम्बन्ध सम्मान से युक्त हैं, तो तुम्हारी अपनी चेतना का विकास होता है। छोटी चीज़ें भी महत्त्वपूर्ण लगती हैं। हर छोटा प्राणी भी गौरवशाली लगता है। जब तुममें सरे विश्व के लिए सम्मान है, तो तुम ब्रह्माण्ड के साथ लय में हो।
 


33-            तुममें एक कर्ता है और एक साक्षी है। कर्ता स्पष्ट या अनिश्चय में हो सकता है, पर साक्षी केवल देखता और मुस्कुराता है। जितना यह साक्षी तुममें बढ़ेगा, तुम उतने आनंदी और अप्रभावित रहोगे। तब निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम और आनंद तुम्हारे भीतर और चारों ओर खिल उठेंगे।
 


34-            जब मैं-पन ख़त्म हो जाता है, कर्ता घुल जाता है, तब केवल शक्ति रह जाती है, केवल आनंद| यह प्रयत्न से नहीं, केवल गहरे विश्राम में ही संभव है। केवल यह भाव रखना "यह शक्ति मुझमें यहीं पर इसी क्षण उपस्थित है" पर्याप्त है।
 


35-            वह आत्मा जो तुम्हारा जीवन चला रही है, पवित्र है। जब तुम अपनी चेतना का सम्मान करते हो, तो तुममें बाकी सभी गुण भी अनायास ही अभिव्यक्त होने लगते हैं।
 


36-            उत्साहपूर्ण रहो, यह जीवन को पूरी तरह जीने का मापदंड है। जीवन उत्साह है, पर उसे खोने की प्रक्रिया को आज हम जीना कहते हैं। अपना उत्साह बनाये रखो। यह तुम्हें दिल से युवा रखेगा।
 


37-            अपने मन में दिव्य ज्योति अनुभव करने की इच्छा रखो। जीवन के उत्कृष्ट लक्ष्य कुछ पलों के ध्यान और अन्तरावलोकन से ही साधे जा सकते हैं। शांति के कुछ पल रचनात्मकता का स्रोत होते हैं। दिन में किसी न किसी समय कुछ क्षणों के लिए अपने ह्रदय की गुफा में बैठो, आँखें बंद करो और दुनिया को गेंद की भांति फेंक दो। पर बाकी समय, अपने काम में १००% आसक्ति रखो। अंत में तुम आसक्त और अनासक्त दोनों रह पाओगे। यही जीवन जीने की कला है।
 


38-            यद्यपि नदी विशाल है, तुम्हारी प्यास एक घूँट से भर जाती है। यद्यपि पृथ्वी पर इतना भोजन है, थोड़ा सा ही तुम्हारा पेट भर देता है। तुम्हें केवल थोड़े थोड़े की ही आवश्यकता है। जीवन में हर चीज़ का छोटा सा अंश स्वीकार करो, उससे तुम्हें संतुष्टि मिलेगी। आज रात सोने तृप्ति की भावना के साथ जाओ, और अपने साथ दिव्यता का एक छोटा सा अंश ले जाओ।
 


39-            जीवन हर घटना में तुम्हें उसे छोड़कर आगे बढ़ना सिखाता है। जब तुम्हें छोड़ देना आ जाता है, तुम आनंद से भर जाते हो, और जब तुम आनंदित होते हो, तो तुम्हें और दिया जाता है।
 


40-            घर क्या होता है? एक ऐसी जगह जहाँ तुम्हें विश्राम मिले। जहाँ तुम अपने स्वभाव में आराम से रहो। मेरे लिए पूरी दुनिया मेरा घर है। मैं जहाँ जाता हूँ, सबसे एक जैसी आत्मीयता महसूस करता हूँ। यह संपूर्ण विश्व मेरा परिवार है, मेरा घर है।
 
 
41-जब तुम सुन्दरता में आनंदित होते हो, तो यह प्रकृति तुम्हारे साथ आनंदित होती है। प्रकृति में इतनी विविधता का उद्देश्य ही है तुम्हें अपने आत्म में लाना - कि तुम सुन्दर हो, तुम सौंदर्य ही हो।
 
42-देवता खेले विविध ज्योति से होली
ज्ञानी खेले विविध तत्त्वों से होली
भक्त खेले विविध भावों से होली
ध्यानी खेले विविध चक्रों से होली
योगी खेले कर्मों से होली
मूर्ख खेले कीचड से होली
असुर खेले राग द्वेष की होली
चलो हम खेलें फूल चन्दन से होली
हर दिन सेवा प्रार्थना की होली
 
43-जब तुम्हें कुछ करना है तो अपने बल पर ध्यान दो। तुम्हारी कमजोरी यह है कि तुम दूसरों के बल पर ध्यान देते हो! जब तुम दौड़ में भागते हो तो नीचे ट्रैक पर देखोगे न कि साथ वाले को। घोड़े की तरह जिसकी आँखों पर पट्टी लगी हो, केवल अपना मार्ग देखो और बाकी सब को जो भी वे करना चाहें, करने दो।
 
44-सुन्दरता दिल की भाषा है - वह सजाती है, विस्तार करती है और बढ़ा चढ़ा कर कहती है। जब तुम कविता पढ़ते हो, गीत गाते हो या किसी का वर्णन करते हो, वह हमेशा दिल से होता है। विश्लेषण और स्पष्टीकरण मन के हैं। न्याय और समानता बुद्धि के विषय हैं। अद्वितीयता केवल ह्रदय से होती है और ह्रदय सब कुछ विशेष बना देता है।
 
45-अपमान तुम्हें निर्बल नहीं बनाता, तुम्हें प्रबल बनाता है। तुम जितने अहंकारी हो, उतना अपमान महसूस करोगे। जब तुम बच्चों की तरह सहज रहते हो और आत्मीयता रखते हो, तब अपमान नहीं महसूस करते। जब तुम इस सृष्टि के, ईश्वर के प्रेम में ओत प्रोत हो, तुम्हारा कोई अपमान नहीं हो सकता।
 
46-जीवन में पांच इन्द्रियों के पांच आयाम हैं। एक और आयाम है - सान्निध्य महसूस करने का। प्रकाश सुना नहीं जा सकता,वह आँखों से देखा जाता है। वाणी देखी नहीं जाती, कानों से सुनी जाती है। उसी तरह, सान्निध्य को दिल में महसूस किया जाता है। मानवीय जीवन तभी निखरता है जब हम यह छठी इन्द्रिय जीवन में उतारते हैं।
 
47-दुखी होने का केवल इतना अर्थ है कि विवेक ढक गया है। विवेक का अर्थ है यह जानना कि सब परिवर्तनशील है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी भावनाएं, आस पास के लोग, यह पूरा जगत - सब बदल रहा है। तुम्हें पुनः पुनः इस सत्य के प्रति जागृत होना है। प्रायः तुम परिवर्तन से भयभीत होते हो। जीवन सुधारने के लिए परिवर्तन की आवश्यकता होती है, पर तुम अपनी पुरानी प्रवृत्ति में सुरक्षित महसूस करते हो। इसलिए अपनी बुद्धि का उपयोग करो और जब भी आवश्यकता हो, तब परिवर्तन लाने का साहस रखो।
 
48-पहले, स्वयं को जानो। फिर प्रेम प्रसाद के रूप में प्राप्त होगा। वह परलोक की ओर से प्रसाद है। वह तुमपर पुष्पों की वर्षा की भांति बरसता है और तुम्हारे अस्तित्व को पूर्ण कर देता है। और साथ ही उसे बांटने की तीव्र आकांक्षा लाता है।
 
49-एक है ईमानदार होना और एक है अपनी ईमानदारी जताना। जब तुम कहते हो, "मैं ईमानदार हूँ", वह प्रायः क्रोध से होता है। सबके प्रति सहज रहो, किसी धुन में मत रहो। अपनी ईमानदारी की घोषणा करने की आवश्यकता नहीं है। ईमानदार का अर्थ रूखा होना नहीं है। ईमानदार रहो पर कुशलता से।
 
50-अपने शरीर का सम्मान करो। जब भी भोजन करो तो याद रखो कि तुम अपने शरीर में प्रतिष्ठित ईश्वर को भेंट चढ़ा रहे हो। जब लोग व्यथित होते हैं, तो अधिक खाते हैं। अपना भोजन जल्दबाजी में नहीं, हिंसा से नहीं, अर्पण की भावना से करो। यह भी पूजा है।
 
51-सभी सफल होना चाहते हैं। कभी सोचा है सफलता क्या है? केवल अपने सामर्थ्य के बारे में अज्ञानता है। तुमने स्वयं पर एक सीमा लगा दी है और जब तुम वह सीमा लांघते हो, तुम सफल होने का दावा करते हो। सफलता अपनी आत्मशक्ति का अज्ञान है क्योंकि तुम मान लेते हो कि तुम उतना ही कर सकते हो।
 
52-मुक्ति क्या है? जीवन को एक गहराई से जीना, किसी भी परिस्थिति में तनावपूर्ण न होना, परिस्थितियों से प्रभावित होने की बजाय उन्हें प्रभावित करना। यदि तुम दिल की गहराईओं से मुस्कुरा सको, कहीं भीतर से... मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है। मनुष्यता और दिव्यता दो नहीं हैं। तनाव सबसे बाहर का आवरण है, सेब पर लगे प्लास्टिक की तरह। मनुष्यता उसकी बाहरी त्वचा है और दिव्यता उसके भीतर का गूदा है।