Sunday, March 17, 2013

जीवन के तथ्य

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 1-नहीं शब्द से नईं खोज का जन्म -

          साधारणतया मन कहता है, ‘कुछ भी ठीक नहीं है,इसलिए मन खोजता ही रहता है शिकायतें- ‘यह गलत है, वह गलत है। मन के लिए ‘हां’ कहना बड़ा कठिन है, क्योंकि जब तुम ‘हां’ कहते हो, तो मन ठहर जाता है;स्थिर हो जाता है। फिर मन की कोई जरुरत नहीं होती।

          क्या तुमने ध्यान दिया है इस बात पर? जब तुम ‘नहीं’ कहते हो, तो मन और आगे सोचता है; क्योंकि ‘नहीं’ पर अंत नहीं होता। क्योंकि नहीं के आगे कोई पूर्ण-विराम नहीं है; वह तो एक शुरुआत है। हॉ जब हां कहते हो, तो एक पूर्ण विराम आ जाता है; अब मन के पास सोचने के लिए कुछ नहीं रहता, खीझने के लिए, शिकायत करने के लिए कुछ भी नहीं रहता। जब तुम हां कहते हो, तो मन ठहर जाता है; और मन का वह ठहरना ही संतोष है।

          संतोष कोई सांत्वना नहीं है-मैंने बहुत से लोग देखे हैं जो सोचते हैं कि वे संतुष्ट हैं, क्योंकि वे स्वयं को तसल्ली देते हैं। सांत्वना तो एक खोटा सिक्का है। क्योंकि जब तुम सांत्वना देते हो स्वयं को, तो तुम संतुष्ट नहीं होते हो।

           भीतर बहुत गहरा असंतोष होता है। लेकिन यह समझ कर कि असंतोष चिंता निर्मित करता है, यह समझ कर कि असंतोष परेशानी खड़ी करता है, यह समझ कर कि असंतोष से कुछ हल तो होता नहीं-बौद्धिक रूप से तुमने समझा-बुझा लिया होता है अपने को कि ‘यह कोई ढंग नहीं है।’ तो एक झूठा संतोष ओढ़ लिया होता है स्वयं पर; तुम कहते रहते हो, ‘मैं संतुष्ट हूं। मैं सिंहासनों के पीछे नहीं भागता; मैं धन के लिए नहीं लालायित होता; मैं किसी बात की आकांक्षा नहीं करता।’


           तुमने सुनी होगी एक बहुत सुंदर कहानी। एक लोमड़ी एक बगीचे में जाती है। वह ऊपर देखती हैः अंगूरों के सुंदर गुच्छे लटक रहे हैं। वह कूदती है, लेकिन उसकी छलांग पर्याप्त नहीं है। वह पहुंच नहीं पाती। वह बहुत कोशिश करती है, लेकिन वह पहुंच नहीं पाती। फिर वह चारों ओर देखती है कि किसी ने उसकी हार देखी तो नहीं। फिर वह अकड़ कर चल पड़ती है। एक नन्हा खरगोश जो झाड़ी में छिपा हुआ था बाहर आता है और पूछता है, ‘मौसी, क्या हुआ?’ उसने देख लिया कि लोमड़ी हार गई, वह पहुंच नहीं पाई। लेकिन लोमड़ी कहती है, कुछ नहीं अंगूर खट्टे हैं।
 

2-ध्यान का अर्थ मन का मौन होना है-

          यह इतना स्पष्ट और इतना सरल है कि इसे किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं। इसे मात्र वर्णन करने की आवश्यकता है। ध्यान कुछ और नहीं बस मौन अवस्था में तुम्हारा मन है। जैसे कि कोई झील शांत हो, उसमें कोई लहर न हो,विचार की लहरें हैं। ध्यान है विश्रांत मन,मन का कुछ न करने की अवस्था में, बस विश्रामपूर्ण होना ध्यान है। जिस क्षण तुम मौन और विश्रांत होते हो, उन चीजों के लिए, जिन्हें तुम पहले कभी न समझे थे, एक बड़ी गहन अंतर्दृष्टि और समझ तुममें आती है।
 
          कोई तुम्हें समझा नहीं रहा। बस तुम्हारी दृष्टि की निर्मलता ही चीजों को स्पष्ट कर देती है। गुलाब होता है, पर अब तुम इसके सौंदर्य को बहुआयामी ढंग में जानते हो। तुमने इसे कई बार देखा था-यह बस एक साधारण गुलाब था। पर आज यह साधारण नहीं रहा; आज यह असाधारण हो गया क्योंकि दृष्टि में एक स्पष्टता और निर्मलता है। तुम्हारी अंतर्दृष्टि पर से धूल हट गई है और गुलाब के पास एक आभामंडल है जिसके बारे में तुम पहले सजग न थे।

          तुम्हारे चारों ओर, तुम्हारे भीतर, और बाहर की हर चीज स्फटिक सदृश्य स्पष्ट हो जाती है। और जैसे-जैसे समझ अपने अन्तिम बिंदु पर पहुंचती है,तो प्रकाश का एक विस्फोट हो जाता है। स्पष्ट रूप से, अपनी चरम सीमा पर, प्रकाश का एक विस्फोट हो जाती है जिसे हम ‘संबोधि’ कह कर पुकारते हैं। यह बस उस स्पष्टता की प्रखरता ही है कि अंधकार विलीन हो जाता है। यह इसलिए है कि तुम इतना स्पष्ट देख सकते हो कि वहां अंधकार होता ही नहीं।

          कई ऐसे पशु हैं जो अंधेरे में भी देख सकते हैं; उनकी आंखें अधिक स्वच्छ, अधिक पैनी होती हैं। तुम्हारी अंतर्दृष्टि इतनी पैनी हो जाती है कि सब अंधकार विलीन हो जाता है। दूसरे शब्दों में, तुम्हारे ऊपर प्रकाश का एक विस्फोट हो जाता है। इसे संबोधि कहो, मुक्ति कहो या अनुभूति कहो। पर फिर भी तुम तो इसके बाहर ही होते हो: यह तुम्हारा अनुभव है और तुम अनुभव कर सकते हो।

          यह एक वस्तुगत अनुभव है; और फिर तुम तो एक आत्मचेतना हो। तुम जानते हो कि यह सब घट रहा है; उसे चोटी पर, उसे एवरेस्ट पर...केवल साक्षीभाव, बस शुद्ध साक्षीत्व; किसी चीज के प्रति सजग नहीं, किसी चीज के प्रति साक्षी नहीं-बस एक शुद्ध दर्पण, किसी चीज को प्रतिबिंबित करता हुआ नहीं। ये सब सजीव रूप से संबंधित हैं। एक-एक कदम चलो; दूसरा कदम फिर स्वतः ही आएगा।
 

3-चल माया और अचल असली है-
 
          संत कबीरजी ने बहुत पते की बात कही थी-
चलती चक्की देखके दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में साबित बचा ना कोय॥
चक्की चले तो चालन दे तू काहे को रोय। लगा रहे जो कील से तो बाल न बाँका होय॥

          चक्की में गेहूँ डालो या बाजरा डालो तो वह पीस देती है लेकिन वह दाना पिसने से बच जाता है जो कील के साथ सटा रह जाता है। यह बदलने वाला जो चल रहा है, वह अचल के सहारे चल रहा है। जैसे बीच में कील होती है उसके आधार पर चक्की घूमती है, साइकिल या मोटर साइकिल का पहिया एक्सल पर घूमता है। एक्सल ज्यों-का-त्यों रहता है।

          पहिया जिस पर घूमता है, वह घूमने की क्रिया से रहित है। न घूमनेवाले पर ही घूमनेवाला घूमता है। ऐसे ही अचल पर ही चल चल रहा है, जैसे - अचल आत्मा के बल से बचपन बदल गया, दुःख बदल गया, सुख बदल गया, मन बदल गया, बुद्धि बदल गयी, अहं भी बदलता रहता है - कभी छोटा होता है, कभी बढ़ता है ।

          जो अचल है वह असली है, और जो चल है वह माया है। कोई दुःख आये तो समझ लेना यह चल है, सुख आये तो समझ लेना यह चल है, चिंता आये तो समझ लेना चल है, खुशी आये तो समझ लेना चल है। जो आया है वह सब चल है। तो दो तत्त्व हैं - प्रकृति ‘चल’ है और परमेश्वर आत्मा ‘अचल’ है। अचल में जो सुख है, ज्ञान है, सामर्थ्य है उसी से चल चल रहा है।

          जो दिखता है वह चल है, अचल तो दिखता नहीं है। जैसे मन दिखता है बुद्धि से, बुद्धि दिखती है विवेक से और विवेक दिखता है अचल आत्मा से। मेरा विवेक विकसित है कि अविकसित है यह भी दिखता है अचल आत्मा से। अचल से ही सब चल दिखेगा, और सारे चल मिलकर अचल को नहीं देख सकते हैं। अचल को बोलते हैं: 1ओंकार, सतिनाम, करता, कर्ता-धर्ता वही है अचल। वह अजन्मा और स्वयंभू है। चल योनि (जन्म) में आता है, अचल नहीं आता। तो मिले कैसे? बोले: गुरुकृपा से मिलता है। चल के आदि में जो था, चल के समय में भी है, चल मर जाय लेकिन फिर भी जो रहता है युगों से वह अचल है।

          आप हरि ओ... म्... इस प्रकार लम्बा उच्चारण करके थोड़ी देर शांत होते हैं, तो आपका मन उतनी देर अचल में रहता है। थोड़े ही समय में लगता है कि तनावमुक्त हो गये, चिंतारहित हो गये - यह ध्यान का तरीका है। ज्ञान का तरीका है कि चल कितना बदल गया अचल में। सुख-दुःख को जाननेवाला भी अचल है। अगर इस अचल में प्रीति हो जाय, अगर अचल का ज्ञान पाने में लग जायें अथवा ‘मैं कौन हूँ?’ यह खोजने में लग जायें तो यह अचल परमात्मा दिख जायेगा अथवा ‘परमात्मा कैसे मिलें?’ इसमें लगोगे तो अपने ‘मैं’ का पता चल जायेगा।

          क्योंकि जो मैं हूँ वही आत्मा है और जो आत्मा है वही अचल परमात्मा है। जो बुलबुला है वही पानी है और पानी ही सागर के रूप में लहरा रहा है। ‘‘बुलबुला सागर कैसे हो सकता है ?’’ बुलबुला सागर नहीं है लेकिन पानी सागर है। ऐसे ही जो अचल आत्मा है वह परमात्मा का अविभाज्य अंग है। घड़े का जो आकाश है, थोड़ा दिखता है लेकिन है यह महाकाश ही।

          जो अचल है उसमें आ जाओ तो चल का प्रभाव दुःख नहीं देगा। नहीं तो चल कितना भी ठीक करो, शरीर को कभी कुछ-कभी कुछ होता ही रहता है। ‘यह होता है तो शरीर को होता है, मुझे नहीं होता’ - ऐसा समझकर शरीर का इलाज करो लेकिन शरीर की पीड़ा अपने में मत मिलाओ, मन की गड़बड़ी अपने अचल आत्मा में मत मिलाओ तो जल्दी मंगल होगा।
 

4-तनाव पूर्व जन्म का संस्कार है-

          समय ने एक समस्या अत्पन्न की है तनाव। व्यस्त जिंदगी, ऊंचे ख्वाबों को हकीकत में बदलने की आतुरता और भागमभाग में चारों दिशाओं से मिलने वाली चुनौतियां इस समस्या को जन्म देती है। मोटे तौर पर हमारे मन की तीन अवस्थाएं हैं। प्रथम, चेतन मन जिसमें सारे अनुभव हमारी स्मृति में रहते हैं और हमें उनका ज्ञान रहता है। द्वितीय अवचेतन मन इसमें हमारे वे अनुभव होते हैं जो बिना ध्यान के ही रिकॉर्ड हो जाते हैं। अवचेतन मन स्वतः अपना कार्य करता रहता।

          तृतीय,अचेतन मन इसमें पुराने दबे हुए संस्कार रहते हैं। समझा जाता है कि अचेतन मन में पूर्व जन्म के संस्कार भी संचित रहते हैं। समय या सभ्यता के प्रभाव से तनाव जीवन का अंग सा बन गया है तो इसके प्रभाव से मुक्त रहने के बारे में सोचना चाहिए। योगशास्त्र के अनुसार तनाव से मुक्ति का सरल सा उपाय है- योग निद्रा।

          इसके लक्षण गहरी नींद की तरह होते हैं परन्तु वास्तव में यह नींद नहीं होती। इसमें हमारी चेतना मन की आन्तरिक परतों को खोलती हुई अचेतन अवस्था तक पहुंचने का प्रयास करती है। हमारे मस्तिष्क के प्रत्येक भाग में हमारे जीवन से संबंधित लाखों, करोड़ों प्रकार के अनुभव, सिद्धान्त, आदर्श और संस्कार आदि जमा रहते हैं। इसी प्रकार हमारे पूर्व जन्मों के भी लाखों, करोड़ों संस्कार बीज रूप में मौजूद रहते हैं। इन्हीं सब संस्कारों के कारण हमारा मन समय-समय पर तनाव से प्रभावित होने लगता है। योग निद्रा के बार-बार और लगातार लंबे समय तक अभ्यास करते रहने से व्यक्ति उस अचेतन मन में पड़े संस्कारों तक पहुँचकर उनसे मुक्ति प्राप्त करने में सफल हो सकता है।

Monday, March 11, 2013

जीवन जीने का पवित्र मार्ग

1-भक्ति में प्रेम मार्ग-
 
          प्रेम शक्ति भी है और आसक्ति भी। जब व्यक्ति का प्रेम कामना रहित होता है तो यह शक्ति होती है और जब प्रेम में किसी चीज को पाने का लोभ रहता है तो यह आसक्ति बन जाती है। सच्चा प्रेम वह होता है जो प्रेम में किसी प्रकार का लोभ और किसी चीज को पाने की कामना नहीं रखता है। ऐसा व्यक्ति प्रेम में ऐसा कमाल कर जाता है कि, बड़े से बड़े बलवान और धनवान उसके आगे घुटने टेक देते हैं।

          प्रह्लाह का आग के शोलों में भी मुस्कुराते हुए रहना और तुलसीदास का उफनती नदी को पार कर जाना यह प्रेम की शक्ति का उदाहरण है। संतजन कहते हैं कि जिसके हृदय में सच्चा प्रेम होता है वही व्यक्ति ईश्वर का भक्त हो सकता है। जरूरत है बस प्रेम की चाहे वह पैसे से हो, किसी स्त्री से, बच्चे से या अन्य सांसारिक वस्तुओं से।

          अगर हृदय में प्रेम होगा ही नहीं तो ईश्वर क्या संसार में किसी चीज से लगाव हो ही नहीं सकता। भगवान से प्रेम करना वास्तव में उसी प्रकार है जैसा एक दिशाहीन गाड़ी को सही दिशा देना। संत श्री गोकुलनाथ जी ने कहा है कि जिसके हृदय में प्रेम का अंकुर होता है उस व्यक्ति को भक्ति की ओर प्रेरित किया जा सकता है, क्योंकि प्रेम का वृक्ष तभी उग सकता है जब प्रेम का बीज, प्रेम का अंकुर हृदय में मौजूद हो। बिना बीज के खेती भला कैसे हो सकती है।

          इस संदर्भ में एक कथा है कि एक बार संत श्रीगोसाईं गोकुलनाथ जी के यहां एक धनवान व्यक्ति बहुत सारा धन लेकर शिष्य बनने की कामना से आया। गोसाईं जी ने उस व्यक्ति से पूछा कि क्या तुम्हारा कहीं किसी वस्तु पर ऐसा स्नेह है, जिसके बिना तुम्हारा मन व्याकुल हो जाता हो। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया मेरा कहीं किसी वस्तु में तनिक भी स्नेह नहीं है।

          उत्तर सुनकर गोसाईं जी ने कहा कि फिर तो हम तुम्हें दीक्षा कदापि नहीं दे सकते। तुम किसी और गुरू को ढूंढ लो। भक्तिमार्ग में प्रेम ही प्रधान है। व्यक्ति का जो प्रेम संसार से होता है, दीक्षा शिक्षा से उसी को पलटकर भगवान में लगा दिया जाता है। जब तुम्हारे हृदय में कहीं प्रेम है ही नहीं तो भगवान के प्रेम से भला कैसे सराबोर हो सकते है।
 
 

2-अपने लिये कर्ज को अवश्य चुकाएं-
 
          लोग सुख-सुविधा में वृद्धि के लिए हर उपाय करते हैं, किसी से कर्ज लेना पड़े तो इसमें हिचकते नहीं हैं। लेकिन जब कर्ज चुकाने का समय आता है तो दस तरह के बहाने बनाने शुरू कर देते हैं। जब कर्ज देने वाला व्यक्ति पीछे पड़ जाता है तब उससे कन्नी काटते फिरते हैं कि, कहीं आमना-सामना न हो जाएं। मन में यह भी विचार आता रहता है कि किसी तरह कर्ज देने वाला व्यक्ति मर जाए ताकि कर्ज चुकाने के झंझट से मुक्ति मिल जाए। ऐसी स्थिति तब होती है जब कर्ज चुकाने की भावना नहीं रहती है। लेकिन आप चाहें न चाहें बिना कर्ज चुकाये मुक्ति नहीं मिल सकती।

          आप वर्तमान रूप में चुकाएं अथवा किसी अन्य रूप में कर्ज हर हाल में चुकाना पड़ता है। जिसने आपको कर्ज दिया है वह आपसे हर हाल में कर्ज वसूल कर रहेगा। इस नियम से भगवन भी वंचित नहीं है। तिरूपति बालाजी के विषय में मान्यता है कि इन्होंने विवाह के लिए कुबेर से सोना ऋण लिया था। जब तक बालाजी कुबेर का ऋण नहीं चुका देते तब तक इन्हें पृथ्वी लोक में रहना होगा। इसी मान्यता के कारण तिरूपति मंदिर में सोना चढ़ाया जाता है।

          ग्रामीण इलाकों में किसी की अल्पायु में मृत्यु होने पर लोग आज भी कहते हैं कि मरने वाला व्यक्ति किसी कर्ज की वसूली के लिए आया था। शास्त्रों में कहा गया है कि मृत्यु के समय किसी भी प्रकार का बंधन नहीं होना चाहिए। कर्ज भी एक प्रकार का बंधन बताया गया है जो जीवात्मा को बार-बार जीवन मृत्यु के चक्र में भटकाता है इसलिए जिससे कर्ज लिया है उसका कर्ज समय रहते चुका देना चाहिए।
 
 

3-पाप की पूंजी जमां न करें-
 
          आपने कभी किसी के ऊपर हो रहे अत्याचार के विरूद्ध आवाज उठायी है। किसी कमज़ोर और लाचार को पिटता देखकर मदद के लिए आगे आएं हैं। अगर आपने ऐसा नहीं किया है तो समझ लीजिए आपने अपने खाते में पाप की पूंजी जमा कर ली है। शास्त्रों में जिस प्रकार से पाप और पुण्य को परिभाषित किया गया है उसके अनुसार जो व्यक्ति किसी को कष्ट में देखकर उसकी मदद नहीं करता है। किसी के भय से अथवा अपने स्वार्थ के कारण झूठ बोलता है और शरण में आये व्यक्ति की रक्षा नहीं करता है वह पापी है।

          इस संदर्भ में एक कथा का उल्लेख पुराणों में मिलता है। एक थे राजा शिवि। इनके धार्मिक स्वभाव और दयालुता एवं परोपकार के गुण की ख्याति स्वर्ग में भी पहुंच गयी। इन्द्र और अग्नि देव ने योजना बनायी कि राशि शिवि के गुणों को परखा जाए। एक दिन अग्नि देव कबूतर बने और इन्द्र बाज। कबूतर उड़ता हुआ राजा शिवि की गोद में आकर बैठ गया और अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगा। इसी बीज बड़ा सा बाज राजा शिवि के पास पहुंचा और कबूतर को वापस करने के मांग करने लगा। बाज ने कहा कि, कबूतर मेरा आहार है अगर आप मुझे वापस नहीं करेंगे तो आपको मुझे भूखा रखने का पाप लगेगा।

          बाज की बातों को सुनकर राजा शिवि ने कहा कि कबूतर मैं तुम्हें नहीं दूंगा अगर कोई अन्य उपाय है तो बताओ। बाज ने कहा कि कबूतर के मांस के बराबर मुझे मांस दे दीजिए इससे मेरा काम हो जाएगा। राजा ने विचार किया कि एक जीव को बचाने के लिए दूसरे जीव का कष्ट देना पाप होगा। यही सोच कर राजा ने कबूतर को तराजू के एक पलडे में डाल दिया और अपने शरीर से मांस काटकर दूसरे पलड़े में रखने लगे। लेकिन काफी मांस रखने के बाद भी पलड़ा हिला तक नहीं। अंत में राजा शिव स्वयं दूसरे पलड़े पर बैठ गये और बाज से कहा कि तुम मुझे खाकर अपनी भूख शांत कर लो।

          राजा के इस दयालुता और शरण में आये हुए कि मदद करने की भावना को देखकर कबूतर अग्नि देव और बाज देवराज इन्द्र के रूप में प्रकट हुए। आसमान से फूलों की वर्षा होने लगी। देवराज इन्द्र ने कहा कि तुम ने धर्म की लाज रखी है। जो शरण में आये की रक्षा नहीं करता वह पापी है। कमज़ोर की सहायता न करने वाला भी अधर्मी है। दोनों देवताओं ने राजा शिवि को आशीर्वाद दिया और स्वर्ग चले गये।
 
 

4-भगवान की नजर में सब एक समान हैं-
 
          इतिहास के पन्नों को उलट करके देखेंगे तो पाएंगे कि आज जितना ऊंच-नीच एवं अमीर-गरीब का भेद-भाव है वह वैदिक काल के आरंभ में नहीं था। उस समय सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए कर्म के अनुसार वर्ग विभेद किया गया। लेकिन बाद में व्यवस्थाओं में जटिलता आती गयी और भेद-भाव बढ़ता गया। लेकिन यह भेद-भाव ऊपरी स्तर पर है। मूल में कहीं भेद-भाव नहीं है। मूल ईश्वर है और ऊपरी दुनिया वह है जहां हम मनुष्य और जीव-जन्तु विचरण करते हैं।

          भगवान की नज़र में सभी एक समान हैं। ईश्वर की दृष्टि में न तो जात-पात है और न लिंग भेद। श्री रामानंदाचार्य ने कहा है 'जात-पात पूछे न कोई। हरि को भजे सो हरि का होई।।' भगवान कभी किसी के साथ किसी आधार पर भेद-भाव नहीं करते हैं। केवट ने भगवान से प्रेम किया तो भगवान� बिना किसी भेद-भाव के केवट की नैया में बैठे और केवट की जीवन नैया को पार लगा दिया। श्री राम के चरण रज को पीकर केवट परम पद पाने में सफल हुआ।

          भगवान की दृष्टि में सभी बराबर हैं इसका उदाहरण भक्त सबरी के जीवन की एक घटना है। सबरी भील जाति की एक महिला थी। राम की भक्ति इनके मन में ऐसी बसी की राम में ही खुद को अर्पित कर दिया। एक बार सबरी मार्ग में झाड़ू लगा रही थी उस समय साधुओं का एक समूह मार्ग से गुजरा। अनजाने में सबरी का स्पर्श साधुओं से हो गया।

          साधु इससे नाराज हुए कि एक भीलनी उससे स्पर्श कर गयी। भगवान को यह बात अच्छी नहीं लगी। साधुओं को जात-पात के भेद-भाव की नासमझी को दूर करने के लिए भगवान ने एक लीला की। साधुगण जिस सरोवर में स्नान करते थे। उस सरोवर में जैसे ही साधुओं ने प्रवेश किया सरोवर का जल दूषित हो गया। सरोवर के जल से बदबू आने लगी।

          साधुओं ने सरोवर के जल को शुद्घ करने के लिए कई हवन और यज्ञ किया लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। एक दिन सीता की खोज करते हुए भगवान राम जब सबरी की कुटिया में पधारे तब साधुओं को अपने ऊपर काफी ग्लानि हुई। उन्हें समझ में आ गया कि सबरी की भक्ति उनकी भक्ति भावना से बढ़कर है। सभी साधु सबरी की कुटिया में पधारे।

          भगवान राम के दर्शनों के पश्चात साधुओं ने राम से प्रार्थना की, कि सरोबर के जल को निर्मल करने का उपाय बताएं। भगवान राम ने साधुओं से कहा कि आप सबरी के पैरों को धोएं और उस जल को ले जाकर सरोबर में मिलाएं। इस उपाय को करने से सरोबर का जल निर्मल हो जाएगा। साधुओं ने ऐसा ही किया और सरोवर का जल सुगंधित और स्वच्छ हो गया>
 
 

5-श्री कृष्ण और शंकर में छिड गया था युद्ध-
 
          भगवान श्री कृष्ण विष्णु के अवतार माने जाते हैं। भगवान विष्णु और शिव एक दूसरे के भक्त भी हैं। पुराणों में जो कथाएं मिलती हैं उनके अनुसार शिव को नहीं मानने वाला व्यक्ति विष्णु का प्रिय नहीं हो सकता। इसी प्रकार विष्णु का शत्रु शिव की कृपा का भागी नहीं हो सकता है। लेकिन एक घटना ऐसी हुई जिससे भगवान शिव और विष्णु के अवतार श्री कृष्ण युद्ध में आमने सामने आ गये, और छिड़ गया महासंग्राम।

          पुराणों में शिव और श्री कृष्ण के बीच हुए युद्ध की जो कथा मिलती है उसके अनुसार। राजा बलि के पुत्र वाणासुर ने भगवान शिव की तपस्या करके उनसे सहस्र भुजाओं का वरदान प्राप्त कर लिया। वाणासुर के बल से भयभीत होकर सभी उससे युद्ध करने से डरते थे। इससे वाणासुर को बल का अभिमान हो गया।

          वाणासुर की पुत्री उषा ने एक रात स्वप्न में श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को देखा। उषा स्वप्न में ही अनिरुद्ध को देखकर उस पर मोहित हो गयी। उषा ने अपने मन की बात सखी को बतायी। सखी ने अपनी मायावी विद्या से अनिरुद्ध को उसके पलंग सहित महल से चुरा कर उषा के शयन कक्ष में पहुंचा दिया। अनिरुद्ध की नींद खुली तो उसकी नज़र उषा पर गयी, अनिरुद्ध भी उषा के सौन्दर्य पर मोहित हो गया।

          जब वाणासुर को पता चला कि उसकी पुत्री के शयन कक्ष में कोई पुरूष है तो सैनिकों को लेकर उषा के शयन कक्ष में पहुंचा। वहां पर वाणासुर ने अनिरुद्ध को देखा। वाणासुर के क्रोध की सीमा न रही और उसने अनिरुद्ध को युद्ध के ललकारा। वाणासुर और अनिरुद्ध के बीच युद्ध होने लगा। वाणासुर के सभी अस्त्र विफल हो गये तब उसने नागपाश में अनिरुद्ध को बांध कर बंदी बना लिया।

          इस पूरी घटना की जानकारी जब श्री कृष्ण को मिली तो वह अपनी सेना के साथ वाणासुर की राजधानी में पहुंच गये। श्री कृष्ण और वाणासुर के बीच युद्ध होने लगा। युद्ध में अपनी हार होता हुआ देखकर वाणासुर को शिव की याद आयी जिसने वाणासुर को संकट के समय रक्षा करने का वरदान दिया था।

          वाणासुर ने शिव का ध्यान किया तो शिव जी युद्ध भूमि में प्रकट हो गये। वाणासुर की रक्षा के लिए शिव ने श्री कृष्ण से कहा कि युद्ध भूमि से लौट जाएं अन्यथा मेरे साथ युद्ध करें। श्री कृष्ण ने शिव से युद्ध करना स्वीकार किया और छिड़ गया शिव एवं श्री कृष्ण के बीच महासंग्राम। श्री कृष्ण ने देखा कि शिव के रहते हुए वह वाणासुर को परास्त नहीं कर सकते तो उन्होंने शिव से कहा कि मेरे हाथों से वाणासुर का पराजित होना विधि का विधान है।

          आपके रहते मैं विधि के इस नियम का पालन नहीं कर पाऊंगा श्री कृष्ण कि इन बातों को सुनकर भगवान शिव युद्ध भूमि से चले गये। इसके बाद श्री कृष्ण ने वाणासुर चार बाजुओं को छोड़कर सभी को सुदर्शन चक्र से काट दिया। वाणासुर का अभिमान चूर हुआ और उसने श्री कृष्ण से क्षमा मांगकर अनिरुद्ध का विवाह उषा से करवा दिया।
 
 
 
6-जीसस क्राइस्ट कृष्ण के अवतार थे-
 
          लुईस जेकोलियत ने 1869 ई. में अपनी एक पुस्तक 'द बाईबिल इन इंडिया' में लिखा है कि जीसस क्राइस्ट और भगवान श्री कृष्ण एक थे। लुईस जेकोलियत फ्रांस के एक साहित्यकार और वकील थे। इन्होंने अपनी पुस्तक में कृष्ण और क्राईस्ट का तुलना प्रस्तुत की है। इन्होंने अपनी पुस्तक में यह भी कहा है कि क्राईस्ट शब्द कृष्ण का ही रूपांतरण है। क्राइस्ट के अनुयायी क्रिश्चियन कहलाये।

          जीसस शब्द के विषय में लुईस ने कहा है कि क्राईस्ट को 'जीसस' नाम भी उनके अनुयायियों ने दिया है इसका संस्कृति में अर्थ होता है 'मूल तत्व'। भगवान श्री कृष्ण को गीता एवं धार्मिक ग्रंथों में इस रूप में ही व्यक्त किया गया है। जीसस क्राइस्ट के विषय में यह भी उल्लेख मिलता है कि इन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा भारत में बिताया।

          निकोलस नातोविच नामक एक रूसी युद्घ संवाददाता ने अपनी पुस्तक 'द अननोन लाईफ ऑफ जीसस क्राइस्ट' में लिखा है कि जीसस ने अपने जीवन का 18 वर्ष भारत में बिताया। जीसस प्राचीन व्यापारिक मार्ग सिल्क रूट से भारत आये थे। इन्होंने तिब्बत और कश्मीर के मोनेस्ट्री में काफी समय बिताया और बौद्घ एवं भारतीय धर्म ग्रंथों एवं आध्यात्मिक विषयों का अध्ययन किया। अपनी भारत यात्रा के दौरान जीसस ने उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर की भी यात्रा की थी एवं यहां रहकर इन्होंने अध्ययन किया था।

          माना जाता है कि भारत में जब बौद्घ धर्म एवं ब्राह्मणों के बीच संघर्ष छिड़ा तब जीसस भारत छोड़कर वापस चले गये। भारत से वापसी के समय जीसस पर्सिया यानी वर्तमान ईरान गये। यहां इन्होंने जरथुस्ट्र के अनुयायियों को उपदेश दिया। जीसस के विषय में यह भी मान्यता है कि जीसस जीवन के अंतिम समय में पुनः भारत आये थे।

          सादिक ने अपनी ऐतिहासिक कृति 'इकमाल-उद्-दीन' में उल्लेख किया है कि जीसस ने अपनी पहली यात्रा में तांत्रिक साधना एवं योग का अभ्यास किया। इसी के बल पर सूली पर लटकाये जाने के बावजूद जीसस जीवित हो गये। इसके बाद ईसा फिर कभी यहूदी राज्य में नज़र नहीं आये। यह अपने योग बल से भारत आ गये और 'युज-आशफ' नाम से कश्मीर में रहे। यहीं पर ईसा ने देह का त्याग किया ।

Thursday, March 7, 2013

जीवन की परिधि

 
1- सौन्दर्य का स्वरूप
 
1-          इस ग्रह पर जन्मा हरेक बच्चा सुंदर है, जैसे-जैसे वो बड़ा होने लगता है, बच्चे की सुंदरता, मासूमियत खो जाती है। निर्दोषता तुम्हें सुंदर बनाती है। दिखने में तुम चाहे जितने भी सुंदर क्यूं न हों, अगर तुम्हारा मन तनावग्रस्त है, अगर तुम्हारी चेतना क्रोध, निराशा और नकारात्मक विचारों से भरी है, तो यह तुम्हारे चेहरे पर साफ़ दिखाई देता है।
 
2-          असली सौन्दर्य आनंद है, और आनंद भीतर से आता है, जागो और देखो कि तुम एक बालक जैसे निर्दोष हो, एक बार जब हम मान लेते हैं कि हम स्वयं के, जीवन के बारे में बहुत कम जानते हैं, तब हम निर्दोषता की ओर वापस जाते हैं, ज्ञान का उद्देश्य तुम्हें उस अज्ञानमय "मैं कुछ नहीं जानता से एक सुन्दर "मैं कुछ नहीं जानता" तक ले के जाना है। जब ये परिवर्तन भीतर से घटित होता है। तब तुम सबसे सुन्दर व्यक्ति बन जाते हो।

3-          निराशा, क्रोध हमेशा अतीत को लेकर होते हैं और व्यग्रता हमेशा भविष्य के लिए होती है। जीवन में तुम्हें चिंता और पश्चाताप के बहुत से उदहारण मिले होंगे। अगर तुम भूतकाल से छुटकारा पा लो और वर्तमान में आ जाओ तो तुम आत्मा की निर्दोषता पर वापस आ सकते हो।

4-          भरोसा भी तुम्हारी सुन्दरता को बढ़ाता है। तुम लोगों की अच्छाई पर शक करते हो लेकिन लोगों के बुरे गुणों पर कभी शक नहीं करते। शक के स्वभाव को समझो। तुम इस संसार में भरोसे के गुणों को ले कर आए हो। एक बच्चे के रूप में हम इस ग्रह पर भरोसे के साथ आए हैं। इसीलिए बच्चा इतना सुंदर है। बालक उसके आनंद, मासूमियत और भरोसे की वजह से सुंदर है।

5-          बालक का दूसरा गुण है वर्तमान में जीना। ये गुण तुम्हारी सुन्दरता को बढ़ाता है। ज़रा आइने में अपने चेहरे पर निगाह डालो और देखो इस शरीर के भीतर क्या है। क्या भरोसा है। अगर नहीं, तो ऐसा कब होगा। अब ये होना चाहिए। जिस क्षण तुम उस पर ध्यान लगाओगे। तुम पाओगे कि भरोसा निरंतर बढ़ रहा है।

6-          किसी ऐसे व्यक्ति की तरफ देखो जो किसी चीज़ के लिए तरस रहा है और किसी ऐसे व्यक्ति की तरफ देखो जो संतुष्ट और तृप्त है। जो संतुष्ट है वह ज़्यादा सुन्दर लगता है। हम जितने ज़्यादा संतुष्ट होंगे उतनी ज़्यादा उन्नति कर सकेंगे।

7-          जब तुम अपना जीवन किसी उद्देश्यपूर्ण, उपयोगी सेवा में लगा देते हो, तुम्हारी सुन्दरता बढ़ती है, यदि तुम हमेशा अपने बारे में सोचते रहते हो, तो यह तुम्हें बदसूरत बनाने के लिए काफी है। अगर तुम अपना जीवन किसी के लिए बाँट सकते हो, तब भीतर से जो सुन्दरता उगती है, वो अद्वितीय है, असली सुन्दरता तुम्हारे भीतर जो गुण हैं उन्हें प्रदर्शित करने में है।

8-          बस, महसूस करो कि तुम इस दैवत्व का हिस्सा हो। यह ब्रह्माण्ड प्राणशक्ति का अखंड प्रवाह है। बस इस सत्य पर तुम्हारा ध्यान तुम्हारे भीतर की सुन्दरता को जागृत करता है। तुम्हारे पास जो भी है जैसे तुम्हारी ऑंखें, कानए पैर, आदि कुछ चीज़ों के लिए कृतज्ञता महसूस करो। हर रोज़ सुबह, जीवन में तुम्हें जो भी मिला है उसके बारे में सोचो। फिर तुम्हारा सारा दिन ज़्यादा कृतज्ञता और आभार में व्यतीत होगा।

9-          कृतज्ञता तुम्हें और भी सुंदर बनाती है। लगभग सभी सभ्यताओं में माँ अपने बच्चों को सोने से पहले प्रार्थना करना सीखाती है। इस प्राचीन अभ्यास का महत्त्व ये है कि जब तुम अपने हृदय में इतनी कृतज्ञता ले कर सोते हो, तुम्हारा मन शांत और स्थिर हो जाता है, रोज़ सोने से पहले तुम्हें जितने वरदान मिले हैं उनकी गिनती करना, ये तुम्हारे भीतर की सुन्दरता का आह्वान करेगी और तुम दुसरे दिन तरोताज़ा, तनावमुक्त और पुनर्जीवित हो कर जागोगे।

 

2-छोटा सुख बडे सुख में कैसे बदलें
 
अ-          छोटी सी बात हमें याद रखनी होगी कि कभी-कभी ऐसा होता है कि आज हमें लगता है कि इसमें खूब सुख है और हमें यह भी दिखायी पड़ता है कि अगर हम इसका त्याग कर दें तो कल अनंतगुना सुख हो सकता हैं। लेकिन वह कल तो होगा, लेकिन हम आज के ही सुख को पकड़ लेते हैं। कल के अनंत गुने को छोड़ देते है। इसलिए हम दीन रह जाते हैं, दरिद्र रह जाते हैं। माना तुम्हारे पास मुट्ठी भर अन्न है, हम उसे आज खा लेते हैं, तो थोड़ा सा सुख मिलेगा। लेकिन अगर तुम इसे बो देते हैं तो शायद दो-चार महीने प्रतीक्षा करनी पड़ेगी,लेकिन बड़ी फसल पैदा होगी। शायद साल भर के लायक भोजन पैदा हो जाए।

ब-          हमात्मॉ बुद्ध ने कहा है कि बुद्धिमान वह है, जो अल्प को छोड़कर विराट को उपलब्ध करने में लगा रहता है। जो जीवन में सदा ध्यान रखता है कि जो मैं कर रहा हूं, इसका अंतिम फल क्या होगा? आज का ही सवाल नहीं है, इसका अन्तिम परिणाम क्या होगा?


स-          गंगा बूंद-बूंद पैदा होती है। गोमुख से गिरती है गंगोत्री,उस समय तुम उस जल को अपनी मुट्ठी में ले सकते हो। फिर बड़ी होती जाती है, और बड़ी होती जाती है। जब गंगा सागर में गिरती है तब तुम विश्वास भी न कर सकोगे कि यह वही गंगा है जो गोमुख से गिरती है। जो गंगोत्री में बूंद-बूंद टपकती है, जिसको तुम मुट्ठी में बांध ले सकते थे, यह वही गंगा है? पहचान नहीं आती।

द-          बीज के बाद छोटा, वृक्ष फिर बहुत बड़ा हो जाता है। बुद्धिमान व्यक्ति अल्पसुख को महासुख के लिए छोड देता है। छोटे को न पकड़े, क्षुद्र को न पकड़े, विराट पर ध्यान रखे। ‘दूसरे को दुख देकर जो अपने लिए सुख चाहता है, वह वैर चक्र में फंसा हुआ व्यक्ति कभी वैर से मुक्त नहीं होता।’ और बुद्ध ने कहा है कि - सुख तो सभी चाहते हैं, मगर सुख की चाह में एक बात खयाल रखना-पहला सूत्र- अल्पसुख को छोड़ देना महासुख के लिए। दूसरा सूत्र कहा-यह खयाल रखना कि- सुख तो चाहना, लेकिन दूसरे के दुख पर तुम्हारा सुख निर्भर न हो। दूसरे के दुख पर आधारित सुख तुम्हें अंततः दुख में ही ले जाएगा, महादुख में ले जाएगा।


 

3-सुख चाहिए तो पहले दुख को जानना सीखो

अ-          यदि तुम्हैं दुख को मिटाना हो, तो सुख की कल्पना छोड़ देनी पड़ेगी और पहले दु:ख को ही जानना पड़ेगा। और देखने वाली बात होगी कि जो दुख को जानता है, उसका दु:ख स्वतः मिट जाता है,और जो सुख को मानता है, उसका दुख छिप जाता है; मिटता नहीं, भीतर चला जाता है। इसी प्रकार अगर अज्ञान को मिटाना है, तो ज्ञान की कल्पना नहीं करनी है-अज्ञान को ही जानना है। अज्ञान को जो जानता है, उसे ज्ञान उपलब्ध हो जाता है। लेकिन जो ज्ञान को, झूठे ज्ञान को, कल्पित ज्ञान को पकड़ लेता है, उसका अज्ञान छिप जाता है, अज्ञान मिटता नहीं, जिससे ज्ञान उसे मिलता नहीं है, क्योंकि कल्पित ज्ञान का कोई भी अर्थ नहीं है।

ब-          जैसे एक प्रश्न है कि- क्या हम सुखी हैं? क्या हमने कभी भी सुख जाना है? अगर कोई बहुत निष्पक्ष रूप से अपने जीवन पर लौट कर देखेगा, तो पाएगा, सुख-सुख तो कभी नहीं जाना, दुख ही जाना है। लेकिन दुख को हम भुलाते हैं। और जिस सुख को नहीं जाना, उसको कल्पित करते हैं, उसको थोपते हैं। हां, एक आशा है मन में कि कभी जानेंगे। और आशा उसी की होती है, जिसने न जाना हो। सुख को जाना नहीं है, इसलिए निरंतर सोचते हैं- आने वाले कल, भविष्य में सुख मिलेगा। जो और भी ज्यादा काल्पनिक हैं,फिर वे सोचते हैं, अगले जन्म में। जो और भी ज्यादा काल्पनिक हैं, वे सोचते हैं, किसी स्वर्ग में,या मोक्ष में सुख मिलेगा।

स-          अगर आदमी ने सुख जाना होता, तो स्वर्ग की कल्पना कभी न करता। स्वर्ग की कल्पना उन लोगों ने की है, जिन्होंने सुख कभी भी नहीं जाना । जो नहीं जाना है, उसको स्वर्ग में निर्मित करने की आशा बांधे बैठे हुए हैं! सुख हमने जाना है कभी? कोई ऐसा क्षण है जीवन का जब हम कह सकें कि मैंने जाना सुख? और यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि बहुत जल्दी में ऐसा मत कह देना; क्योंकि जिसने एक बार सुख जान लिया, वह दुख जानने में असमर्थ हो जाता है। जिसने सुख जान लिया, वह दुख जानने में असमर्थ हो जाता है। फिर वह दुख जानता ही नहीं। फिर वह दुख जान ही नहीं सकता। क्योंकि जो सुख जानता है, उसे यह भी पता चल जाता है कि मैं सुखी हूं। और चूंकि हम दुख जानते ही चले जाते हैं, यह इस बात का सबूत है कि सुख हमने कभी जाना नहीं। आशा है, कल्पना है। और कभी-कभी सुख को थोप भी लेते हैं।

द-          एक मित्र आया है, गले लग गया है और हम कहते हैं, बहुत सुख मिल रहा है। गले मिल कर कितना सुख मिला है, उसके आलिंगन में कितना रस मिला है; लेकिन कभी आपने सोचा है कि जो मित्र आकर गले मिल गया है, दस मिनट, पंद्रह मिनट, बीस मिनट और गला छोड़े ही नहीं, तब क्या होगा जानते हो? ऐसी तबीयत होगी कि कोई पुलिस वाला आकर छुडा लेता, किसी तरह इससे छुटकारा दिलाए, यह क्या कर रहा है? और अगर घंटे दो घंटे वह गले को न छोड़े तो फांसी मालूम पड़ेगी।

य-          अगर सुख था तो और बढ़ जाता? जो एक क्षण में सुख मिला था तो दस क्षण में और दस गुना हो जाता? लेकिन एक क्षण में सुख लगा था और दस क्षण में फांसी मालूम होने लगी! सुख नहीं था, कल्पित था; एक क्षण में खो गया। जो कल्पित है, वही क्षण भर टिकता है; जो सत्य है, वह सदा है। जो कल्पित है, वही क्षणभंगुर है। जो क्षणभंगुर है, उसे कल्पित जानना। क्योंकि जो है, वह शाश्वत है, वह सदा है। वह क्षण में नहीं है, वह नित्य है, वह कभी मिटता नहीं। वह है, और है, और है। था, और होगा, और होगा। कभी ऐसा क्षण नहीं आएगा, जब वह न हो जाए। जो सुख दु:ख में बदल जाता है, उसे कल्पित जानना। वह सुख था ही नहीं। और सब सुख जो हम जानते हैं, दु:ख में बदलने में समर्थ हैं।

4-           हमारे पास मन के सिवा और कुछ नहीं होता है
अ-इस सम्बन्ध में हम सन्यासी के अर्थ को जानते हैं कि-संन्यास का अर्थ यही है कि मैं निर्णय लेता हूं कि अब से मेरे जीवन का केंद्र बिन्दु ध्यान होगा। धन नहीं होगा, यश नहीं होगा, संसार नहीं होगा। जीवन का केंन्द्र ध्यान होगा, धर्म होगा, परमात्मा होगा-ऐसा निरणय लेना ही संन्यास है। जीवन के केंद्र को बदलने की प्रक्रिया संन्यास है। वह जो जीवन के मंदिर में हमने प्रतिष्ठा कर रखी है--इंद्रियों की, वासनाओं की, इच्छाओं की, उनकी जगह मुक्ति की, मोक्ष की, निर्वाण की, प्रभु-मिलन की, मूर्ति की प्रतिष्ठा ध्यान है।

ब-          जो व्यक्ति ध्यान को जीवन में अन्य कामों में एक काम की तरह करता है, घंटे भर ध्यान भी कर लेता है या चौबीस घण्टे ध्यान करता है-निश्चित ही उस व्यक्ति को बजाय जो व्यक्ति अपने चौबीस घंटे के जीवन को ध्यान में समर्पित करता है, चाहे दुकान पर बैठेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे भोजन करेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे बात करेगा किसी के साथ तो ध्यानपूर्वक, रास्ते पर चलेगा तो ध्यानपूर्वक, रात सोने जाएगा तो ध्यानपूर्वक, सुबह में बिस्तर से उठेगा तो ध्यानपूर्वक-ऐसे व्यक्ति का अर्थ है संन्यासी, जो ध्यान को अपने चैबीस घंटों पर फैलाने की आकांक्षा से भर गया है।

स-          निश्चित ही संन्यास ध्यान के लिए गति देगा। और मनुष्य के मन का नियम है कि निर्णय लेते ही मन बदलना शुरू हो जाता है। आपने भीतर एक निर्णय किया कि आपके मन में परिवर्तन होना शुरू हो जाता है। वह निर्णय ही परिवर्तन के लिए क्रिस्टलाइजेशन बन जाता है।

द-          कभी बैठे-बैठे इतना ही सोचें, चोरी करनी है, तो तत्काल आप दूसरे आदमी हो जाते हैं-तत्काल! चोरी करनी है इसका निर्णय आपने लिया कि चोरी के लिए जो मदद रूप है, वह मन आपको देना शुरु कर देता है सुझाव कि क्या करें, क्या न करें, कैसे कानून से बचें, क्या होगा, क्या नहीं होगा! एक निर्णय मन में बना कि मन उसके पीछे काम करना शुरु कर देता है। मन आपका गुलाम है। आप जो निर्णय ले लेते हैं, मन उसके लिए सुविधा शुरू कर देता है कि जब चोरी करनी ही है तो कब करें, किस प्रकार करें कि, फंस न जाएं, मन इसका इंतजाम जुटा देता है।

य-          जैसे ही किसी ने निर्णय लिया कि मैं संन्यास लेता हूं कि, मन संन्यास के लिए भी सहायता पहुंचाना शुरू कर देता है। असल में निर्णय न लेने वाला आदमी ही मन के चक्कर में पड़ता है। जो आदमी निर्णय लेने की कला सीख जाता है, मन उसका गुलाम हो जाता है। वह जो अनिर्णयात्मक स्थिति है वही मन है। वह जो निर्णय है, संकल्प है,मन उनके बीच में खड़ा हो जाता है, मन उसके पीछे चलेगा। लेकिन जिसके पास कोई निर्णय नहीं है, संकल्प नहीं है, उसके पास सिर्फ मन होता है। और उस मन से बहुत पीड़ित और परेशान होते हैं। संन्यास का निर्णय लेते ही जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाता है।

र-          आदमी बहुत अनूठा है। उसका अनूठापन ऐसा है कि कोई अगर आपसे कहे कि दो हजार, या दो करोड़ या अरब तारे हैं, तो आप बिल्कुल मान लेते हैं। लेकिन अगर किसी दीवार पर नया पेंट किया गया हो और लिखा हो कि ताजा पेंट है, छूना मत, तो छूकर देखते ही हैं कि है भी ताजा कि नहीं! जब किया गया हो और लिखा हो कि ताजा पेंट है, छूना मत, तो छूकर देखते ही हैं कि है भी ताजा कि नहीं! जब तक अंगुली खराब न हो जाए तब तक मन नहीं मानता।

ल-          सूरज को बिना सोचे मान लेते हैं और दीवार पर पेंट नया हो तो छूकर देखने का मन होता है। जितनी दूर की बात हो उतनी बिना दिक्कत के आदमी मान लेता है। जितनी निकट की बात हो उतनी दिक्कत खड़ी होती है। संन्यास आपके सर्वाधिक निकट की बात है। उससे निकट की और कोई बात नहीं है। अगर जो विवाह करेंगे तो वह भी दूर की बात है। क्योंकि उसमें दूसरा सम्मिलित है, आप अकेले नहीं है। संन्यास अकेली घटना है जिसमें आप अकेले ही हैं, कोई दूसरा सम्मिलित नहीं है। बहुत निकट की बात है। उसमें आप बड़ी परेशानी में हैं। उस निर्णय को लेकर मन को बड़ी कठिनाई होती है।

 


5-असुरक्षा में जीना सीखें
 
अ-          पूर्ण असुरक्षा और उसमें जीने की क्षमता तो बुद्धि का ही प्रयोग है। जो व्यक्ति अल्पबुद्धि युक्त है,वह तो असुरक्षा में नहीं रह सकता और जो पूर्ण असुरक्षा में नहीं रह सकता वह संबुद्ध नहीं हो सकता। ये दो बातें नहीं है, ये एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। तो तुम असुरक्षा में रहने की तब तक प्रतीक्षा न करो जब तक तुम संबुद्ध न हो जाओ। क्योंकि फिर तो तुम कभी संबुद्ध न हो पाओगे।

ब-           असुरक्षा में जीना शुरू करों, यही बुद्धत्व का मार्ग है।इसके लिए तुम्हैं पूर्ण असुरक्षा के बारे में नहीं सोचना है। जहां तुम हो वहीं से शुरू करो। जैसे तुम हो वैसे तो किसी चीज में समग्र नहीं हो सकते, लेकिन कहीं से तो शुरू करना ही होता है। शुरू में इससे संताप होगा, शुरू में इससे दुख होगा। लेकिन बस शुरू में ही। यदि तुम शुरूआत पार कर सको, तो दुख मिट जाएगा, संताप मिट जाएगा।

स-          इस प्रक्रिया को समझना पड़ेगा। जब तुम असुरक्षित अनुभव करते हो तो परेशान क्यों होते हो? यह असुरक्षा का कारण नहीं है बल्कि सुरक्षा की मांग के कारण हैं। जब तुम असुरक्षित अनुभव करते हो तो परेशानी होने लगती है, संताप पैदा होता है। वह असुरक्षा के कारण पैदा नहीं हो रहा बल्कि जीवन को एक सुरक्षा प्रदान करने की मांग से पैदा हो रहा है। यदि तुम असुरक्षा में रहने लगो और सुरक्षा की मांग न करो तो जब मांग चली जाएगी तो संताप भी चला जाएगा। वह मांग ही संताप पैदा कर रही है।

द-          असुरक्षा तो जीवन का स्वभाव है। बुद्ध के लिए संसार असुरक्षित है; जीसस के लिए भी असुरक्षित है। लेकिन वे संतप्त नहीं है, क्योंकि उन्होनें इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है। वे इस वास्तविकता की स्वीकृति के लिए प्रौढ़ हो गये हैं। उस व्यक्ति को मैं अपरिपक्व कहता हूं, जो कल्पनाओं और सपनों के लिए वास्तविकता से लड़ता रहता है। वह व्यक्ति अपरिपक्व है। प्रौढ़ता का अर्थ है वास्तविकता का साक्षात्कार करना, सपनों को एक ओर फेंक देना और वास्तविकता जैसी है वैसी स्वीकार कर लेना। बुद्ध प्रौढ़ है। वह स्वीकार कर लेते है कि यह ऐसा ही है।

य-          उदाहरण के लिए, भले ही मृत्यु सुनिश्चित है, पर अपरिपक्व व्यक्ति सोचे चला जाता है कि बाकी सब चाहें मर जाए लेकिन वह नहीं मरना चाहता। अपरिपक्व व्यक्ति सोचता है कि उसके मरने के समय तक कुछ खोज लिया जाएगा, कोई दवा खोज ली जाएगी, जिससे वह नहीं मरेगा। अपरिपक्व व्यक्ति सोचता है कि मरना कोई नियम नहीं है। निश्चित ही, बहुत से लोग मरे हैं, लेकिन हर चीज में अपवाद होते हैं और वह सोचता है कि वह अपवाद है।

र-          जब भी कोई मरता है तो तुम सहानुभूति अनुभव करते हो, तुम्हें लगता है, बेचारा मर गया। लेकिन तुम्हारे मन में यह कभी नहीं आता कि उसकी मृत्यु तुम्हारी भी मृत्यु है। नहीं, तुम उससे बचकर निकल जाते हो। इतनी सूक्ष्म बातों को तो तुम छूते ही नहीं। तुम सोचते रहते हो कि कुछ न कुछ तुम्हें बचा लेगा-कोई मंत्र, कोई चमत्कारी गुरु। कुछ हो जाएगा और तुम बच जाओगे। तुम कहानियों में, बच्चों की कहानियों में जी रहे हो।

ल-          प्रौढ़ व्यक्ति वह है जो इस तथ्य की ओर देखता है और स्वीकार कर लेता है कि जीवन और मृत्यु साथ-साथ हैं। मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, वह तो जीवन का शिखर है। वह जीवन के साथ घटी कोई दुर्घटना नहीं है, वह तो जीवन के हृदय में विकसित होती है और एक शिखर पर पहुंचती हैं। प्रौढ़ व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार कर लेता है और उसे मृत्यु का कोई भय नहीं रहता। वह समझ लेता है कि सुरक्षा असंभव है।

व-          तुम चाहे एक चारदीवारी बना सकते हो, बैंक बैलेंस रख लो, स्वर्ग में सुरक्षा पाने के लिए धन दान दे दो, तुम सब कर लो, लेकिन गहरे में तुम जानते हो कि असल में कुछ भी सुरक्षित नहीं है। बैंक तुम्हें धोखा दे सकता है। और पुरोहित धोखेबाज हो सकता है, वह सबसे बड़ा धोखेबाज हो सकता है, कोई नहीं जानता।

Tuesday, February 19, 2013

जीवन की अभिव्यक्ति


1-          जब पानी दो किनारों के बीच में बहे तो उसे नदी कहते हैं। यदि पानी हर जगह फ़ैल जाए तो वह बाढ़ है। इसी तरह जब भावनाएं हर जगह फ़ैल जाती हैं तो मन उथल-पुथल हो जाता है। यदि वह तीव्रता से एक दिशा में बहता है तो उसे भक्ति कहते हैं। और वह सबसे शक्तिशाली है।
 
2-          प्रायः तुम कोई गलती करते हो और फिर उसे उचित सिद्ध करने की चेष्टा करते हो क्योंकि तुम ग्लानि से बचना चाहते हो। और यह उचित होने का प्रयास ग्लानि दूर नहीं करता क्योंकि तुम जानते हो तुम्हारा निर्दोष करण ऊपरी है। तुम और दोषी महसूर करते हो। यह ग्लानि चलती जाती है और भीतर से तुम्हारा व्यवहार विकृत करती रहती है। इसलिए, जब ग्लानि लगे, उसे हटाने की चेष्टा मत करो। उसके साथ 100% रहो और वह दर्द, ग्लानि, वह दुःख ही ध्यान बन जायेगा और तुम्हें मुक्त कर देगा।
 
4-          जब लोग कुछ ऐसा कहते हैं जिससे हममें ईर्ष्या, क्रोध, कुण्ठा या दुःख उत्पन्न होता है, तो हम सोचते हैं कि वे इसके लिए ज़िम्मेदार हैं हम ज़िम्मेदार हैं क्योंकि हमारा मन केन्द्रित नहीं है। हम अविचल शांति कैसे प्राप्त कर सकते हैं? स्वयं प्रसन्न होना पर्याप्त नहीं। हमारी कामना सबकी प्रसन्नता के लिए होनी चाहिए - यह सामूहिक चेतना, इन्द्र, मुझे स्वास्थ्य दे और मुझे अपने आत्म से जोड़े। यह मुझे केन्द्रित और प्रसन्न रखे। इसलिए, प्राचीन समय में सबकी प्रसन्नता की प्रार्थना की जाती थी।
 
5-          हर व्यक्ति अपने आप में एक किताब है - एक उपन्यास। हमें पुस्तकालय में हर तरह की किताबें मिलती हैं। यह विश्व ही एक पुस्तकालय है। इन सभी किताबों का एक ही लेखक है और उसने बाज़ार भर दिया है! केवल कुछ ही, जो जागे हुए हैं, देख पाते हैं कि ये सब कहानियाँ हैं और आनंदित होते हैं। और तुम उन कुछ जनों में से हो। यदि तुम्हें लगता है कि तुम नहीं हो, तो बन जाओ। इस पुस्तकालय में तुम्हारी आजीवन सदस्यता है।
 
6-          तुमने अपनी मुट्ठी ज़ोर से बंद कर रखी है। अपनी मुट्ठी खोलो, तुम पाओगे कि पूरा आकाश तुम्हारे हाथों में है।
 
7-          असंभव का स्वप्न देखो। तुम इस दुनिया में कुछ अनोखा और अद्वितीय करने आए हो; इस अवसर को मत जाने दो। स्वयं को सपना देखने की और बड़ा सोचने की पूरी छूट।
 
8-          जब भावनाएं अनुकूल हों और हम ऊँचे उड़ रहे होते हैं, तो कोई परेशानी नहीं होती। परेशानी होती है जब भावनाएं हमें नीचे गिरा देती हैं। जितना हम ऊपर उठने का प्रयास करते हैं, उतनी वे भावनाएं हमें नीचे धकेल देती हैं। जब भावनाएं नीचे ले जाएं तो बिलकुल नीचे चले जाओ। गहराई में जाओ और देखो बहुत सी संवेदनाएँ उठेंगी, जैसे भय। उनसे सहमत हो जाओ, "ठीक है, होने दो। मैं आज इसमें गोता लगाऊंगा।" तब तुम्हारे भीतर एक अद्भुत घटना होती है। यदि तुम अपनी भावनाओं से लड़ते हो, तो वे स्पष्ट होने में अधिक समय लेती हैं।
 
9-          बिना त्याग के कोई प्रेम, कोई ज्ञान और सच्चा आनंद नहीं हो सकता। त्याग तुम्हें पवित्र बनाता है। पवित्र बनो।
 
10-          लोग यहाँ वहां रोमांच ढूंढते रहते हैं। वे यह नहीं जानते कि सबसे रोमांचकारी आत्म है।
 
11-          तुम थक चुके हो लोगों को मनाते हुए, सफाई देते हुए, आश्वासन देते हुए, उन्हें प्रसन्न करते हुए। यहाँ तक कि तुम सुख भोगते हुए भी थक चुके हो! वास्तव में थकान सुख की परछाई है। सुख की चाह तुम्हें भटकाती है, और प्रेम वापस घर लाता है।

12-          प्र: अहंकार और आत्मविश्वास में क्या अंतर है?
अहंकार किसी और की उपस्थिति में असहज कर देता है। आत्मविश्वास हर जगह सहज रहना है। सहज रहना अहंकार की दवा है और आत्मविश्वास का पूरक। यह आत्मविश्वास से अभिन्न है। जब तुम सहज हो तो विश्वास से भरे हो और जब विश्वास से युक्त हो तो सहज हो।
 
13-          भारत में यह पद्धति रही कि पढ़े लिखे लोग उन्हीं को कहते थे जो अपनी गलती स्वीकार करते थे और फिर खुद सजा लेते थे। यदि कोई भी राजनेता खड़ा हो और कहे "मुझसे गलती हुई, मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ", तो सभी लोग उन्हें सम्मान देने के लिए उठ जायेंगे। गलती को लीपा पोती करके बने रहना, यह नहीं। अपराधियों को टिकट देना बंद करना चाहिए। लोग कहते हैं "गुरूजी आपका काम तो ध्यान सिखाना है, राजनीती की बात क्यों करते हैं?" भई, राजनीति नहीं है, यह राष्ट्रनीति है, मानवनीति है।
 
14-          जब तुम किसी का आदर करते हो तो उससे तुम्हारी ही उदारता प्रकाशित होती है। दुनिया में जितने लोगों का तुम आदर नहीं करते, उतनी तुम्हारी संपत्ति कम है। प्रज्ञावान वह है जो सबका आदर करे।
15-जब तुम बैठ कर सोचते हो, "मुझे ख़ुशी कब मिलेगी?", तो वह तुम्हें नहीं मिलेगी। जब तुम अपनी ख़ुशी दूसरों की ख़ुशी में देखते हो, तब तुम वास्तव में खुश होते हो।
 
16-          यदि शब्दों का हेर फेर करो तो वह असत्य है।
यदि शब्दों से खेलो तो वह मज़ाक है।
यदि शब्दों पर निर्भर रहो तो वह अज्ञान है,
पर यदि शब्दों के परे चले जाओ तो वह ज्ञान है।
 
17-          उत्सव मनाने में ग्लानि तभी होती है यदि वह केवल अपने सुख के लिए हो। यदि उत्सव लोगों के दिलों को जोड़ने के लिए हो, पुराने दर्द से उभरने के लिए, भविष्य के प्रति आशा की ज्योति जलाने के लिए, यदि उत्सव समाज के उत्थान के लिए हो तो ग्लानि कहीं तुम्हारे पास भी नहीं आएगी। इस तरह का उत्सव सेवा है, पवित्र है। अपने उत्सव को सुख की खोज की प्रक्रिया से बदलकर उसे समाज के लिए पवित्र अर्पण बना दो।
 
18-          यह श्रद्धा रखो कि तुम्हारे दोष मिटाने के लिए कोई है। ठीक है, तुम एक, दो, तीन बार चूके। कोई बात नहीं। आगे बढ़ते रहो। लोग गलती न करने की शपथ ले लेते हैं। शपथ टूट जाने पर मन और खराब होता है। समर्पण करना बहतर है।
 
19-          हमने कई प्रकार की शिक्षा ग्रहण की है। हमें एक जटिल कम्प्यूटर चलाना आता है पर उन शक्तियों के बारे में नहीं जानते जिनसे हमारा जीवन चलता है। कोई हमें जीवन जीना नहीं सिखाता। हमें थोड़ा प्रयत्न करना होगा अपने मन और अहम् के बारे में जानने के लिए, हम कौन हैं और यहाँ क्यों हैं। केवल प्रेम के द्वारा ही हमारा ज्ञान, जीवन और विश्व के बारे में हमारी समझ बढ़ सकती है।
 
20-          प्रायः तुम जीवन में किसी जल्दबाज़ी में होते हो। जल्दी में तुम ठीक से चीज़ों को जान नहीं पाते हो। जल्दबाजी जीवन का आनंद छीन लेती है और वर्तमान क्षण की प्रसन्नता और अबद्धता खण्डित कर देती है। प्रायः तुम्हें ज्ञात भी नहीं होता कि जल्दी है किस बात की। बस एक जल्दबाज़ी का क्रम सा चल पड़ता है। जागो और अपने अन्दर की जल्दबाज़ी को देखो।
 
21-          समर्पण अधीनता नहीं है। समर्पण का अर्थ क्या है? यह जानना कि जो कुछ जहां भी है, ईश्वर का ही है। "मैं" नियंत्रण में नहीं हूँ - यह समर्पण है। और इस अनुभूति के साथ एक गहरा विश्राम मिलता है, एक विश्वास की भावना, जैसे हम घर पहुँच गए। समर्पण को ले कर इतना भय क्यों हैं; तुम्हें लगता है तुम कुछ खो दोगे? मैं कहता हूँ कि पृथ्वी और स्वर्ग दोनों में केवल पाओगे ही।
 
22-          यदि तुम अपने आप में निश्चिन्त हो तो सभी तुम्हारे साथ निश्चिन्त होंगे। सहज और सरल रहो। सम्बन्ध स्वाभाविक रूप से विकसित होते हैं। यदि तुम सम्बन्ध बनाने का प्रयत्न करो तो थोड़े बनावटी हो जाते हो। तुम चाहोगे कि कोई तुम्हारे साथ सच्चा, खुला, प्राकृतिक और बिना अहम् के व्यवहार करे। दुसरे भी तुमसे बस वही चाहते हैं।
 
23-          जब मन प्रसन्न होता है तो विस्तृत होता है और समय छोटा लगता है। जब मन अप्रसन्न होता है तो संकुचित हो जाता है और समय अधिक लगने लगता है। जब मन समता में होता है तो समय से परे चला जाता है।
 
24-          जो प्रेम तुम हो, जब वह उदय होता है, तो जीवन ही एक ग्रन्थ बन जाता है। अपना जीवन ही गीता, कुरान या बाइबल बना लो। यह प्राप्त करने की कुंजी है दिव्या प्रेम! ऐसे भक्त बनो जो प्रभु में ही खोया हो, उन्हीं से व्याप्त हो।
 
25-          नए वर्ष का स्वागत एक मुस्कान से करो। हम जैसे कैलेण्डर या तिथिपत्र के पन्ने पलटते हैं, हमें अपने मन को भी पलटते रहना चाहिए। प्रायः हमारी डायरी स्मृतियों से भरी रहती है। भविष्य की तारीखें भूत की घटनाओं से मत भरो। अतीत से सीखो और उसे छोड़कर आगे बढ़ो।
 
26-          बाहरी सुन्दरता के लिए तुम चीज़ें अपने ऊपर थोपते हो; वास्तविक सुन्दरता के लिए तुम्हें सब चीज़ें छोड़नी हैं। बाहरी सुन्दरता के लिए तुम्हें तैयारी करनी होती है; वास्तविक सुन्दरता के लिए केवल यह जानना है कि तुम पहले से तैयार हो।
 
27-          जो लोग शांतिप्रिय हैं वे लड़ना नहीं चाहते और जो लड़ते हैं उनके पास शांति नहीं। आवश्यकता है अन्दर से शांत रहकर लड़ने की। किसी झगड़े को अंत करने की चेष्टा से वह बढ़ता ही जाता है। ईश्वर सभी झगड़ों को युगों से झेल रहे हैं और यदि वे झेल सकते हैं तुम भी झेल सकते हो। जब तुम किसी द्वंद्व के साथ रहने को तैयार हो जाते हो, तो वह द्वंद्व प्रतीत नहीं होता।
 
28-          हम अनंत का अनुभव कैसे कर सकते हैं? यह केवल प्रेम से ही संभव है। केवल प्रेम ही ऐसी वस्तु है जिसके बारे में तुम सोच नहीं सकते। यदि उसके बारे में सोचते हो, तो वह प्रेम नहीं रहता। प्रेमी आपस में बेतुकी बातें करते हैं; वे सोचते नहीं हैं। वही बातें बार बार करते रहते हैं। तुम तर्क बुद्धि से परे चले जाते हो। हम किसी से भी प्रेम में पड़ें, वास्तव में स्वयं से प्रेम में पड़ रहे हैं।
 
29-          उदासी तब छाती है जब लड़ने का जोश न रहे। आक्रामकता उदासी दूर करने की दवा है। उदासी शक्ति का अभाव है; क्रोध और आक्रामकता शक्ति के वज्रपात हैं। यदि तुम उदास हो तो प्रोजैक की गोली मत लो - किसी सिद्धांत के लिए लड़ो। कृष्ण ने अर्जुन को इसी तरह लड़ने के लिए प्रेरित किया। पर यदि आक्रामकता एक सीमा पार कर ले तो फिर उदासी की ओर ले जाती है। कलिंग युद्ध के बाद अशोक के साथ यही हुआ। उन्हें बुद्ध की शरण लेनी पड़ी। ज्ञानी वे हैं जो आक्रामकता और उदासी दोनों में नहीं पड़ते।
 
30-          सरल और भोली अवस्था में रहो। यह जीवन बड़ा सुन्दर रहस्य है। बस इसे जियो! जब हम जीवन के इस सुन्दर रहस्य को पूर्णता से जीते हैं तब आनंद का उदय होता है।
 
31-          तुम क्रिसमस के वृक्ष के समान हो। उसपर उपहार और बत्तियां सजी होती हैं, अपने लिए नहीं, सबके लिए। तुम्हें जो भेंट अपने जीवन में मिली है, वह दूसरों के लिए है।
 
32-          दूसरों को सुख दो, तब तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारे सुख का ध्यान सृष्टि स्वयं रखेगी।
 
33-          जब सभी द्वार बंद हो जाएं और कोई जाने का स्थान न हो, तब भीतर जाओ। हर संकट एक अवसर है और तुम ही शुरुआत हो।
 
34-          प्रिय गुरुदेव, मैं कब और कैसे परमानंद को प्राप्त कर सकता हूँ?
श्री श्री: कोई सम्भावना ही नहीं है। भूल जाओ। क्या तुम भूलने के लिए तैयार हो? तो तुम इसी क्षण पा जाओगे।
 
35-          तुम एक आज़ाद पंछी हो, पूरी तरह खुले हुए| उड़ना सीखो| यह तुम्हें अपने भीतर ही अनुभव करना होगा| यदि तुम स्वयं को बाध्य समझते हो, तो तुम बंधन में ही रहोगे| तुम मुक्ति का अनुभव कब करोगे? इसी क्षण मुक्त हो जाओ| बस बैठो और तृप्त हो जाओ| थोड़ा समय ध्यान और सत्संग में बिताओ जिससे तुम्हारा अंतरात्म चुनौतियों से जूझने के लिए दृढ़ हो जाये|
 
36-           भक्ति एक हीरे के सामान है। मिट्टी से बनी वस्तुओं के लिए उसका सौदा मत करो।
37-सभी तरह की शिकायतों को मन से निकाल दो - चाहे वो किसी व्यक्ति के बारे में हों या वस्तु। तब तुम इस विश्व के लिए उपयोगी बन जाते हो।
 
38-          जब हमारा जन्म हुआ तो हम निर्भर थे। जब हम वृद्ध होंगे तब भी निर्भर होंगे। यह बीच के कुछ वर्षों में हमें लगता है कि हम आत्मनिर्भर हैं। यह भ्रम है। दूसरी ओर, हमारी चेतना सदा से ही आत्मनिर्भर है। यह बहुत सूक्ष्म बात है। हम निर्भरता और आत्मनिर्भरता - शरीर और चेतना, दोनों का मिश्रण हैं।
 
39-          सबसे पहला नियम है स्वयं को दोषी ठहराना बंद करो। अध्यात्म क्या है? गहराई में जाकर अपने साथ जुड़ना। यदि खुद को दोषी मानते रहोगे तो अपने निकट कैसे जाओगे? जो तुम्हें दोष देता रहे तुम उनके साथ रहना पसंद नहीं करोगे। ऐसा करते रहने से तुम कभी शांत नहीं हो सकते, अपनी गहराई में नहीं जा सकते। कभी स्वयं को दोषी मत ठहराओ।
 
40-          सामान्यतः यदि कोई बहुत बुरा है तो तुम उनसे दूर हट जाते हो। पर यदि तुम उनसे घृणा करने लगते हो तो इसका अर्थ है कि कोई गहरा सम्बन्ध है जिससे तुम दूर नहीं हट पा रहे हो। तुम उनके साथ रहना चाहते हो, उन्हें अपने मन में रखना चाहते हो और इसलिए उन्हें नापसंद करते हो। जो मन के भंवर में फंस गया हो वह करुणा का पात्र है, क्रोध का नहीं।
 
41-          बहादुर हैं वे जो केवल दोस्ती के लिए दोस्ती करते हैं। ऐसी दोस्ती कभी ख़त्म नहीं होगी।
 
42-          सफलता का अर्थ है किसी सीमा के पार जाना| सीमा पार करने के लिए तुम्हें पहले मानना होगा कि तुम्हार कोई सीमा है| सीमा मान लेने का अर्थ है तुम स्वयं को कम आंकते हो| यदि तुम्हारी सीमा ही नहीं है तो तुम्हारी सफलता कहाँ है? जब कोई दावा करता है कि वह सफल है तो वह केवल अपनी सीमा प्रकट कर रहा है| जब तुम अपनी असीमितता को जान लेते हो, तो कोई भी कार्य उपलब्धि नहीं रहता|
 
43-          इश्वर सदैव युवा हैं| मेरे लिए, इश्वर बहुत नटखट हैं| उन्हें खेल पसंद है|
 
44-          जब तुम मन में अस्पष्ट होते हो, तो तुम्हारे शब्द प्रभावशाली नहीं होते| मन जितना स्पष्ट होता है शब्द उतने शक्तिशाली हो जाते हैं| जो तृप्त हैं, उनके शब्दों में महान शक्ति होती है|
 
45-          विचार और कर्म में क्या सम्बन्ध है?
श्री श्री: कभी तुम बिना विचार के कर्म करते हो और कभी बिना कर्म किये केवल विचार ही करते हो| विचार और कर्म दोनों के स्रोत तुम ही हो| स्वयं को जानने से तुम्हारे विचार सरल और कर्म सिद्ध होते हैं|
 
46-          जल की तरह बनो| जब जल के पथ पर पत्थर होते हैं, तो वह क्या करता है? वह पत्थरों से ऊपर उभर कर बहता है| जीवन में विघ्न भी इसी तरह हैं| उनसे ऊपर उठकर उन्हें लाँघ जाओ| धैर्य रखो और उनके ऊपर से बहते चलो|
 
47-           एक सपना अपने लिए देखो और एक सपना जगत के लिए| और अगर दोनों एक ही हो तो वह सबसे उत्तम है! पर अगर ऐसा नहीं है तो भी कोई बात नहीं| बस इतना ध्यान रखो की दोनों में प्रतिरोध न हो।
 
48-          जब मैं-पन ख़त्म हो जाता है, कर्ता घुल जाता है, तब केवल शक्ति रह जाती है, केवल आनंद| यह प्रयत्न से नहीं, केवल गहरे विश्राम में ही संभव है| केवल यह भाव रखना "यह शक्ति मुझमें यहीं पर इसी क्षण उपस्थित है" पर्याप्त है|
 
49-          वह आत्मा जो तुम्हारा जीवन चला रही है, पवित्र है| जब तुम अपनी चेतना का सम्मान करते हो, तो तुममें बाकी सभी गुण भी अनायास ही अभिव्यक्त होने लगते हैं|
 
50-          अपने मन में उठ रहे शोर को देखो| वह किस बारे में है? धन? यश? सम्मान? तृप्ति? सम्बन्ध? शोर किसी विषय को लेकर होता है, मौन का कोई विषय नहीं है| शोर ऊपरी सतह है, मौन आधार है।
 
51-          उत्साहपूर्ण रहो, यह जीवन को पूरी तरह जीने का मापदंड है| जीवन उत्साह है, पर उसे खोने की प्रक्रिया को आज हम जीना कहते हैं| अपना उत्साह बनाये रखो| यह तुम्हें दिल से युवा रखेगा|
 
52-          अपने मन में दिव्य ज्योति अनुभव करने की इच्छा रखो| जीवन के उत्कृष्ट लक्ष्य कुछ पलों के ध्यान और अन्तरावलोकन से ही साधे जा सकते हैं| शांति के कुछ पल रचनात्मकता का स्रोत होते हैं| दिन में किसी न किसी समय कुछ क्षणों के लिए अपने ह्रदय की गुफा में बैठो, आँखें बंद करो और दुनिया को गेंद की भांति फेंक दो| पर बाकी समय, अपने काम में १००% आसक्ति रखो| अंत में तुम आसक्त और अनासक्त दोनों रह पाओगे| यही जीवन जीने की कला है|
 
53-          यद्यपि नदी विशाल है, तुम्हारी प्यास एक घूँट से भर जाती है| यद्यपि पृथ्वी पर इतना भोजन है, थोड़ा सा ही तुम्हारा पेट भर देता है| तुम्हें केवल थोड़े थोड़े की ही आवश्यकता है| जीवन में हर चीज़ का छोटा सा अंश स्वीकार करो, उससे तुम्हें संतुष्टि मिलेगी| आज रात सोने तृप्ति की भावना के साथ जाओ, और अपने साथ दिव्यता का एक छोटा सा अंश ले जाओ|
 
54-           जीवन हर घटना में तुम्हें उसे छोड़कर आगे बढ़ना सिखाता है| जब तुम्हें छोड़ देना आ जाता है, तुम आनंद से भर जाते हो, और जब तुम आनंदित होते हो, तो तुम्हें और दिया जाता है।
 
55-          घर क्या होता है? एक ऐसी जगह जहाँ तुम्हें विश्राम मिले| जहाँ तुम अपने स्वभाव में आराम से रहो| मेरे लिए पूरी दुनिया मेरा घर है| मैं जहाँ जाता हूँ, सबसे एक जैसी आत्मीयता महसूस करता हूँ| यह संपूर्ण विश्व मेरा परिवार है, मेरा घर है|
 
56-          तुममें एक कर्ता है और एक साक्षी है| कर्ता स्पष्ट या अनिश्चय में हो सकता है, पर साक्षी केवल देखता और मुस्कुराता है| जितना यह साक्षी तुममें बढ़ेगा, तुम उतने आनंदी और अप्रभावित रहोगे| तब निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम और आनंद तुम्हारे भीतर और चारों ओर खिल उठेंगे|
 
57-          तुम जिसका भी सम्मान करते हो, वह तुमसे बड़ा हो जाता है| यदि तुम्हारे सभी सम्बन्ध सम्मान से युक्त हैं, तो तुम्हारी अपनी चेतना का विकास होता है| छोटी चीज़ें भी महत्त्वपूर्ण लगती हैं| हर छोटा प्राणी भी गौरवशाली लगता है| जब तुममें सरे विश्व के लिए सम्मान है, तो तुम ब्रह्माण्ड के साथ लय में हो|
 
58-          ज़रा अपने मन में शोर को देखो| वह किस विषय में है? धन? यश? सम्मान? तृप्ति? सम्बन्ध? शोर सदा किसी बारे में होता है; मौन शून्य के बारे में होता है| शोर ऊपरी सतह है; मौन आधार है|
 
59-          प्र: मौन क्या है?
श्री श्री: साँस में प्रार्थना मौन है|
अनंत में प्रेम मौन है|
बिना शब्द का ज्ञान मौन है|
बिना उद्देश्य की करुणा मौन है|
बिना कर्ता के कर्म मौन है|
समष्टि के साथ मुस्कुराना मौन ।
 
61-          दुनिया के अरबों लोगों में कुछ हज़ार ही हैं जो आतंकवाद फैलाते हैं और उसका प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ता है| तुम्हें नहीं लगता कि इसी सिद्धांत से विपरीत भी सच हो? हम जैसे कुछ हज़ार जो सच में शांत हैं, पूरी पृथ्वी के लिए प्रेम रखने वाले, उसका ध्यान रखने वाले - क्या हम एक बदलाव नहीं ला सकते?
 
62-          प्रेम की मधुर मिठाई बांटो,
राग द्वेष के पटाखे फोड़ो,
ज्ञान के दिए जलाओ,
नूतन पुरातन की अनमोल घड़ी है,
एक नयी क्रांति की प्रतीक्षा में धरती खड़ी है,
सब मिल के दीवाली मनाओ,
जीवन को उत्सव बनाओ।
 
63-          प्रेम और पीड़ा साथ साथ चलती है| जब तुम किसीसे प्रेम करते हो, एक छोटा सा कर्म भी चोट पहुंचा सकता है| और तब तुम बहुत नाज़ुक हो जाते हो| प्रेम और वियोग के एक जैसे ही लक्षण हैं| यदि तुम किसीसे प्रेम नहीं करते, वे तुम्हें पीड़ा नहीं दे सकते| यह समझ लो और स्वीकार कर लो| तब वह पीड़ा घाव में परिणत नहीं होगी| बल्कि वह पीड़ा तुम्हें वैराग्य और ध्यान की गहराईओं में ले जाएगी|
 
64-          जब हम आनंद की चाह में कर्म करते हैं तो वह कर्म निम्न हो जाता है| जैसे तुम प्रसन्नता फैलाना चाहते हो पर यदि तुम जानना चाहो कि वह व्यक्ति प्रसन्न हुआ कि नहीं तो तुम चक्रव्यूह में फंस जाते हो| इस बीच तुम अपना सुख खो बैठते हो| अपने कर्म के फल कि चिंता तुम्हें नीचे खींचती है| पर जब हम कोई कर्म आनंद की अभिव्यक्ति के रूप में करते हैं और फल की चिंता नहीं करते, वह कर्म ही पूर्णता ले आता है|
 
65-          तुम जैसे ही भीतर से कोमल होते हो, कठोरता छूट जाती है, बंधन में होने की भावना चली जाती है, सुख समृद्धि आने लगती है| जब तुम सौम्य और बिना प्रतिरोध के होते हो, तो यश भी आता है| प्रकृति तुम्हें देती है| आध्यात्मिक पथ पर यही सत्य है|
 
66-          तुम जो कुछ भी हो अपनी स्मृति के कारण हो| अनंत को भूल जाना दुःख है| तुच्छ को भूल जाना आनंद है।
 
67-          प्रेम अनुभव करना दिल का काम है और संदेह करना दिमाग का| दोनों का अपना अपना स्थान है| तुम्हें दोनों की आवश्यकता है| तुम कितना संदेह कर सकते हो? करते रहो और जब सारे संदेह ख़त्म हो जायें और नए उत्पन्न न हों, तब वहां से श्रद्धा का आरम्भ होता है|
 
68-          पहला कदम है विश्राम करना और आखरी कदम भी विश्राम करना ही है! सबसे आरामदेह और सुखदाई स्थान तुम्हारे भीतर ही है| अपने आत्म की शांत निर्मल गहराई में विश्राम करो - यह अति अमूल्य है| संपूर्ण ब्रह्माण्ड के इस अति सुन्दर, अति सुखदाई घर में स्वयं को दर्ज कर लो|
 
69-          सबसे बड़ी आहुति तुम स्वयं हो| आखिरकार, तुम दुखी क्यों होते हो? मुख्य रूप से तभी जब तुम जीवन में कुछ पा न सको| ऐसे समय में सब कुछ सर्वज्ञ ईश्वर को समर्पित कर दो| ईश्वर को समर्पण करने में सबसे बड़ी शक्ति है| जैसे एक बूँद समुद्र में घुल कर उसे अपना लेती है, यदि वह अलग रहती है तो मिट जाएगी| पर जब वह समुद्र बन जाती है तो अमर हो जाती है

Monday, November 26, 2012

असली घटना की परख

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1-घटना एक सपने की
 
          एक रात को मैंने एक सपना देखा । वह सपना बडा अद्भुत था । जैसे कि उस ईश्वर ने प्रार्थना सुन ली है । एक बहुत बडा महल है गॉव भर में एक आवाज जैसे आकाशवॉणी हो रही है कि सभी दुखी लोग अपनी-अपनी दुख की पोटली  को लेकर उस महल में चले जॉय । मैने अपने दुख की पोटली को कंधे में रखकर  सबसे पहले भागा-भागा उस महल की ओर दौडा ।सोचा कि और कोई दुखी नहीं है ।गॉव में सब  सुखी हैं । लेकिन मैने देखा कि लोग मुझसे भी तेज भागे चले जा रहे हैं । जिनसे मैने सुबह पूछा था कि कहो कैसे हो ?और उन्होंने कहा था कि अच्छे हैं  ! वे भी बडे-बडे गठ्ठे लेकर भागे जा रहे हैं । मुझे हैरानी हुई कि गॉव में एक भी आदमी नहीं है । सब भागे जा रहे हैं अपनी-अपनी पोटलियों को लेकर । उस महल में सब लोग पहुंच गये हैं । फिर देखा तो हैरान हो गया, उस गॉव का प्रधान भी वहॉ पहुंचा है,पुजारी भी,सन्यासी,महात्मा सभी वहॉ पहुंचे हैं । सबके पास बडी-बडी पोटलियॉ हैं ।
 
 
          तभी आवाज गूंजती है कि सभी लोग अपनी-अपनी पोटलियों को खूटी पर टॉग दें । सबने दौडकर अपनी-अपनी गठरियों को खूटियों पर टॉग दी । फिर कुछ देर बाद आवाज आई कि जिसको जो पोटली पसन्द हो चुन लें । मैं घबडा गया और भागा गठरी की ओर, दूसरे की नहीं, अपनी गठरी की ओर । कोई और न उठा ले । कमसे कम अपने दुख पहचाने तो हैं । अनजान अपरचित लोगों की गठरियॉ मुझसे बडी दिख रही है । मैने दौडकर अपनी पोटली उठा ली कि कोई और न उटा ले जाय । लेकिन देखकर चकित हो गया कि सबने अपनी-अपनी  पोटली उठाई है । सभी को यह डर था कि कोई दूसरा न उठा ले । क्योंकि कल तक केवल अपना ही दुख देखा था,दूसरे की हंसी देखी थी । आज सब झूठ हो गया था ।
 
 
          लगा जैसा सपने में भी सपना है । आदमी इतने दुख में है ! हम एक दूसरे को दुख देने के नये-नये रास्ते खोजते रहते हैं । धर्म के नाम पर,राजनीति के नाम पर खोज लेते हैं । हम किसी भी बहाने से किसी को सताने का रास्ता खेोज लेते हैं । हिन्दू-मुसलमान बनकर रास्ते खोज लेते हैं । गुजराती या मराठी के नाम पर,उत्तरी भारत और दक्षिणी भार,के नाम पर लडने का बहाना तलाशते हैं ।दूसरे को सताने का,टार्चर करने का बहाना चाहिए । ऐसा नहीं है कि बुरे लोग ही सताते हैं दूसरों को,जिन्हैं कि हम अच्छे लोग कहते हैं,वे भी सताने में पीछे नहीं होते हैं । न सही घर में पति-पत्नी ही लड बैठते हैं । बाप-बेटे ही लड जाते हैं । बस लडाई चाहिए ।दुखी की यही तो पहचान है ।
 
       
           हमारे गॉव में एक महात्मा रहते हैं,वे लोगों को समझाते हैं कि उपवास करो?क्योंकि भूखे मरे बिना परमात्मा नहीं मिलता । अच्छा तरीका अपना रखा है महात्मा जी ने,बडी टेक्नीक से वह लोगों को सताने जा रहा है । महात्मा जी लोगों से कहता है कि सिर के बल खडा होने से सिद्धि मिलती है ।
 
 
           परमात्मा ने हमें पैर के बल खडा किया लेकिन महात्मा समझा रहे हैं कि सिर के बल खडा होने से ही मिलेगा । कुछ नासमझ सिर के बल खडे हो जाते हैं, तो महात्मा सुखी होना शुरू हो जाता है । उसने दूसरों को दुख देना शुरू कर दिया । टार्चर करने के रास्ते खोज लिए । जिन्हैं हम अच्छे लोग कहते थे वे भी सताने लग गये ।
 
 
          हिटलर ने भी लोगों को बहुत सताया, लेकिन उससे बचना आसान है । गॉधी से बचना बहुत कठिन है । इसलिए कि हिटलर तो सीधा दुश्मन की तरह सताता है,लेकिन गॉधी तो हमारे हित में सताते हैं । हिटलर हमारी छाती पर छुरा रखता है ,जबकि गॉधी अपनी छाती पर छुरा रखता है ।गॉधी कहते हैं कि अगर मेरी न मानी तो मैं मर जाऊंगा । इसी को अहिसा कहते हैं ।यह बात भी अजीव है कि दूसरे को मारना हिंसा है,लेकिन अपने को मारना अहिंसा कैसे हो जायेगा ? अगर मैं आपकी छाती पर छुरी रख कर कह दूं कि मेरी बात मान ले,तो यह हिंसा हो गई, क्रिमिनल एक्ट है । और मैं अपनी छाती पर छुरा रखकर कह दूं कि मैं मर जाऊंगा,आग लगा कर जल जाऊंगा,तो मैं महात्मा हो जाऊंगा ,यही तो मान्यता है ! जबकि यह भी हिंसा है । क्रिमिनल एक्ट के अन्तर्गत है । लेकिन यह एक अच्छे ढंग की हिंसा है । अगर मैं आपके दरवाजे पर बैठकर कह दूं कि अगर मेरी बात न मानी तो मैं भूखा मर जाऊंगा, तो यह अच्छे ढंग की हिंसा हो गई,यह आपको मजबूर कर देगी, आपको सता डालेगी ।
 
 
          आज देखा जा रहा है कि बुरे आदमी सता रहे हैं,अच्छे आदमी सता रहे हैं । हम सब एक दूसरे को सताने में लगे हैं । और हमने ऐसी तरकीव खोज ली है कि पता लगाना मुश्किल है कि हम कैसे-कैसे सता रहे हैं । अगर आप किसी स्त्री से प्रेम करते हैं तो, आप उसको सताना शुरू कर देते हैं । और यदि एक स्त्री आपसे प्रेम करती है तो बहुत जल्दी पता नहीं चलता कि कब उसने आपको सताना शुरू कर दिया ।हम तो प्रेम की बात करके एक दूसरे की गर्दन को दबा लेते हैं ।
 
 
          छोटी अवस्था में बेटे को बाप सताता है,लेकिन बहुत जल्दी नाव उलट जाती है । बेटे ताकतवर और बाप बूढा हो जायेगा,फिर बच्चे सताना शुरू कर देंगे । सताने के नये-नये रास्ते खोजते रहते हैं ।
 
 
          औरंगजेव ने तो अपने बाप को लाल किले में बन्द कर दिया था,तो बाप ने पॉच-दस दिन में खबर भेजी कि यहॉ मेरा मन नहीं लगता,अगर तुम तीस लडके मुझे दे दो तो मैं उन्हैं पढाने का कार्य शुरू करूं तो मेरा मन लग जायेगा । औरंगजेव ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मेरे बाप को दूसरों को सताने में मजा आता था । जब उन्हैं तीस लडके दिये गये तो वे उनके बीच डंडा रखकर बादशाह बन जाते  और शिक्षा देने के नाम पर उनको सताना शुरू कर देते  थे ।
 
 
          अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य दुख से इतना भरा हुआ है कि इसमें फूल कैसे खिल सकते हैं ?इनकी जिन्दगी में आनन्द की झलक कैसे आ सकेगी ?
 
 
          और यह भी जरूरी है कि यदि आनन्द की झलक न आये तो आदमी कैसे जी सकेगा,जीना न जीना बराबर हो जायेगा । जीवन से हमें जो मिल सकता था,वह हम ले नहीं पायेंगे । पौधा लगा जरूर मगर फूल न खिले । दिया तो ले आये घर में, लेकिन उसमें कभी ज्योति न जली ।
 
 
2- चौथा विश्व युद्ध नहीं हो सकेगा -
       
          जी हॉ आज पूरे विश्व में यही तैयारी है,इतने बम बनाये जा चुके हैं कि अगर हिसाब लगॉयें तो अस्सी गुना बम तैयार है ,चार अरब आदमियों को मारने के लिए अस्सी गुना अधिक बन चुके हैं । अर्थात एक आदमी को हमने अस्सी बार मारने का इन्तजाम कर लिया है,कि भूल चूक कोई बच न जॉय । वैसे एक आदमी एक ही बार मरता है,लेकिन शायद बच जाये तो दुबारा हम मार सकें । फिर भी बच जाये तो हमने आस्सी बार मारने का इन्तजाम कर रखा है । इतने अधिक बम हैं कि यह पृथ्वी बहुत छोटी है इन बमों से मिटाने के लिए । नागासाकी और हिरोशिमा में गिराये गये बमों को उस समय लोगों की सोच में इससे अधिक खतरनाक और कोई बम नहीं होगा लेकिन आज से तुलना करें तो वे सिर्फ एक खिलौने के समान रह गये हैं । एक लाख आदमी एक बम से मरे थे, इन बच्चों के खिलौने से। आज के बमों की क्षमता बहुत अधिक है । पूरे इतिहास में आदमी ने यही तो अर्जित किया है । विनाश और मृत्यु की इतनी तीव्र आकॉक्षा बन चुकी है कि लगता है आदमी का मन कही बीमार तो नहीं है ? क्योंकि स्वस्थ मनुष्य जीने की सोचता है और अस्वस्थ मनुष्य मरने की । हमें कही मनोरोग ने तो नहीं पकडा है ?  हम उस जगह पर खडे हैं जहॉ किसी न किसी दिन हम अपने को समाप्त कर सकते हैं ।
 
 
          आइस्टीन को मरने से पहले किसी ने पूछा था कि तीसरे विश्वयुद्ध के सम्बन्ध में आपका क्या खयाल है ? तो आइस्टीन ने कहा था कि तीसरे के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कह सकूंगा! लेकिन चौथे के सम्बन्ध में जरूर कहूंगा । उस आदमी ने कहा कि क्या बात कर रहे हैं आप तीसरे के सम्बन्ध में नहीं तो चौथे के सम्बन्ध में कैसे कहेंगे ? तो आइस्टीन ने कहा था कि चौथे के सम्बन्ध में यह बात निश्चित कह सकता हूं कि चौथा महॉयुद्ध कभी नहीं होगा । क्योंकि तीसरे के बाद आदमी के बचने की कोई उम्मीद नहीं है । लेकिन तीसरे के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है ।
 
 
3-सबसे अधिक विकास मारने की शक्ति में हुआ-
 
          यह धरती एक बडा बगीचे के समान है, लेकिन फूल एक भी नहीं खिला है, ऐसा ही आज मनुष्य का समाज हो चुका है । मनुष्य तो बहुत हैं,लेकिन सौन्दर्य के,सत्य के,प्रार्थना के कोई फूल नहीं खिलते हैं ।यह पृथ्वी आदमियों से भरती चली जा रही है -दुर्गन्ध से,घृणॉ से,क्रोध से,हिंसा से लेकिन प्रेम और प्रार्थना से नहीं । इतिहास साक्षी है कि कोई तीन हजार वर्षों में आदमियों ने पन्द्रह हजार युद्ध लडे । ऐसा लगता है कि जैसे हमने सिवाय युद्ध लडने के और कोई काम ही नहीं किया ।तीन हजार वर्षों में पन्द्रह हजार युद्ध बहुत होते हैं । प्रति वर्ष पॉच युद्ध । अगर विकास की बात को करें तो यही कहना होगा कि हमने आदमियों को मारने की कला में सबसे अधिक विकास किया है ।


4-अति प्रेम पागलपन है -
 
          अति प्रेम और पागलपन एक दूसरे के पूरक है । जमीन पर इस तरह के पागलपन दो तरह के दिखते हैं -एक जो परमात्मा की दिशा में जाता है,जहॉ हम अपने को खोकर सब पा लेते हैं, मीरा की यही दशा थी । और एक वह जिसमें हम सिर्फ पाने की कोशिश करते हैं,लेकिन मिलता कुछ भी नहीं है, सदा मिलने की आशा में भ्रमित रहते रहते हैं, अन्ततः खाली हाथ रह जाते हैं । अगर पागल ही होना है तो उस परमात्मा के के लिए पागल होना बेहत्तर है,इससे वह चीज मिलती है जो फिर छीनी नहीं जा सकती है ।बुद्धिमान लोग तो उन पागलों से कम नहीं होते, जो परमात्मा के द्वार पर नाचते हुये प्रवेश करते हैं । अच्छा है किसी के प्रेम में पागल न हों, अगर पागल ही होना है तो उस परम सत्ता के प्रेम में पागल होना सीखें जहॉ से आपको वह चीज मिलती है जिसे कोई छीन नहीं सकता है ।
 

Saturday, November 10, 2012

अपने मन से स्वयं को वश में करें

 
 

 
 
 
 
नोट-  1-  क्रमशः अध्ययन करने के लिए अंत में Older Post  पर क्लिक करते जॉय,अथवा दायें ओर  अंकित टॉपिक को खोलकर अध्ययन कर सकते हैं ।
2- इस ब्लॉग की अगली कडी में प्रवेश कर सकते हैं -     

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3-आगे अध्ययन के लिए आप निम्न ब्लॉग में प्रवेश कर सकते हैं    

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अपने मन से स्वयं को वश में करें
 
 
          अगर आपका मन आपके वश में नहीं है तो दूसरे की इच्छा से प्रेरित होकर अपने मन को संयमित करने की चेष्ठा न करें,इससे उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी । क्योंकि प्रत्येक जीवात्मा का लक्ष्य मुक्ति या स्वाधीनता,या दासत्व से स्वयं को मुक्त करके उसपर प्रभुत्व स्थापित करना होता है,ताकि अपनी वाह्य तथा आन्तरिक प्रकृति पर अधिकार जमा सके। अगर दूसरे व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त इच्छाशक्ति का प्रवाह हम स्वयं पर लागू करने का प्रयास करते हैं तो हमारे अन्दर पुराने संस्कारों और धारणॉओं में भ्रॉति की बेडी की एक और कडी जुड जाती है ।
         
          इसलिए सावधान रहें ।अपने ऊपर ऐसी इच्छाशक्ति का संचालन न करने देना होगा ।अथवा दूसरे पर इस प्रकार की इच्छाशक्ति का प्रयोग अनजाने में न करें । यह बात सही है कि कुछ लोग कुछ व्यक्तियों की प्रवृत्ति को मोडकर कुछ दिनों के लिए उनका कल्याण करने में सफल हो जाते हैं, लेकिन वे दूसरों पर सम्मोहन का प्रयोग करके बिना जाने समझे उन्हैं विकृत जडावस्थापन्न कर डालते हैं,जिससे उन लोगों की आत्मा का अस्तित्व मानो लुप्त हो जाता है । इसलिए कोई भी व्यक्ति तुमसे अन्धविश्वास करने को कहता है,या अपनी श्रेष्ठ इच्छाशक्ति के बल से वशीभूत करके अपना अनुशरण करने के लिए बाध्य करता है,तो उपयुक्त नहीं है ।वह मनुष्य जाति के लिए एक अनिष्ठ कार्य माना जाता है ।
         
          हमेशा इस बात को ध्यान में रखना होगा कि अपने मन को संयतित करने के लिए सदा अपने ही मन की सहायता लें । और इस बात को भी आपको समझ लेना होगा कि अगर आप रोगग्रस्त नहीं हैं तो कोई भी बाहरी इच्छाशक्ति आप पर कार्य नहीं कर सकेगी । जो व्यक्ति आपसे अन्धे के समान विश्वास करने के लिए कहता है हमेशा उससे दूर रहना चाहिए , वह चाहे कितना ही बडा आदमी या महात्मा क्यों न हो । इस संसार में कितने ही सम्प्रदाय हैं,जिनके धर्म का प्रधान अंग नाच-गाना,संगीत,नृत्य है । वे जब अपना संगीत नॉत्य और प्रचार प्रारम्भ करते हैं तो उनके भाव मानो संक्रामक रोग की तरह लोगों के अन्दर फैल जाता है । वे भी एक प्रकार के सम्मोहनकारी होते हैं । परिणॉम यह होता है कि सारी जाति अधःपतित हो जाती है ।
 
          इस प्रकार के धर्मोन्मत व्यक्तियों का उद्देश्य भले ही अच्छा हो मगर इन्हैं किसी उत्तरदायित्व का ज्ञान नहीं होता है । इन लोगों से मनुष्य जाति का अनिष्ठ होता है । वे नहीं जानते कि उनकी इस शक्ति के प्रभाव से लोग जड विकृतग्रस्त और शक्तिहीन होकर सहज ही उनके वश में हो जाते हैं,चाहे वह भाव कितना ही बुरा क्यों न हो । उन लोगों में उसका प्रतिरोध करने की जरा भी शक्ति नहीं रह जाती है । और वे सम्मोहन करने वाले लोग सोचने लगते हैं कि उनमें अद्भुत शक्ति है । वे सोचते हैं कि उन्हैं यह उस परमात्मा के द्वारा अद्भुत शक्ति प्रदान की गई है । बस इसी भावना से वे भावी मानसिक अवन्नति की ओर बढने लगते हैं,यही पाप,उन्मत्तता और मृत्यु के बीज हैं ।
 
          मन को संयमित करना बहुत कठिन होता है ।और इसी मन को हमें सबसे पहले संयमित करना होता है,इसके लिए कई प्रकार की विधियों का उल्लेख विद्वानों ने किया है मगर जो हमारे लिए उपयुक्त है उसे हम अपना सकते हैं । हम अपना सकते हैं ।प्रतिदिन प्रणॉयाम करने के बाद हम एक अभ्यास से अपने इस मन को संयमित करने का प्रयास करते हैं -अपने स्थान पर कुछ समय के लिए चुप्पी साधकर बैठ जॉय और मन को अपने अनुसार चलने दें ।मन चंचल होता है एक बन्दर की तरह । हमारा मन उछल-कूद मचायेगा कोई हानि नहीं है ,धीरज रखें ,प्रतीक्षा करें और मन की गति देखते रहें ।यह बात भी सत्य है कि जबतक आप अपने मन पर नजर रखोगे तबतक मन संयमित नही रह सकेगा ।
 
          यह अभ्यास आपको हर दिन करना होगा । आप देखेंगे कि मन में ऐसी भली-बुरी बातें आयेंगी कि आपको आश्चर्य होगा ।प्रारम्भ में हजारों विचार आयेंगे । फिर घटकर सेकडों में होंगे । फिर कम होते जायेंगे फिर कुछ महीने बाद आपके मन में एक भी विचार नहीं आयेगा,आप शॉत चित्त होंगे अब आपका मन अपने वश में आ जायेगा । इससे आपका मन शॉत होगा,विषयों के प्रति समझने शक्ति बढेगी,आपका मिजाज अच्छा होगा.स्वास्थ्य अच्छा रहेगा, इनमें शरीर की स्वस्थता का पहला लक्षण दिखता है ।लेकिन हर दिन हमें धैर्य के साथ अभ्यास करना होगा । हमें यह साबित करना होगा और दिखाना होगा कि वह किसी के अधीन नहीं है । इसके लिए नियमित अभ्यास की आवश्यकता होगी । अकेले रहने का प्रयत्न करना चाहिए ।
 
          विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ रहने से चित्त विक्षिप्त हो जाता है ,उनसे अधिक बात-चीत करना उचित नहीं है,इससे मन अधिक चंचल हो जाता है ।अधिक काम करना भी अच्छा नहीं है,क्योंकि इससे मन डॉवाडोल रहता है ।सारे दिन की कडी मेहनत के बाद मन संयत नहीं हो सकता है । इसके लिए योगी का होना आवश्यक है । इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि अभ्यास के समय अपने भोजन को संयमित कर दें ।प्रारम्भ में हल्का भोजन और दूध उपयुक्त होगा । जबतक मन पर पूर्ण अधिकार न हो जाता तबतक अभ्यास करते रहें,और अल्पाहार करते रहें ।लेकिन जब मन एकाग्र हो जाता है तो आपको मस्तिष्क की सूक्ष्म अनुभूतियॉ होना प्रारम्भ हो जायेगा,जैसा कि मस्तिष्क से वज्र पार हो गया हो,सूक्ष्म अनुभूतियॉ होने लगेंगी । यह भ ध्यान रखना होगा कितर्क और चित्त में विक्षेप उत्पन्न करने वाली बातों को यथा शीघ्र दूर कर दें ।आपका संकल्प कैसा है उसी प्रकार से आपको आगे का रास्ता मिलेगा ।

Friday, November 9, 2012

आस्था की प्रकृति

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1-कर्म जीवन का अंग है-
 
          इस जगत में कोई भी जीव हो, चाहे उनमें सन्यासी हो यागृहस्थी सबको अपने-अपने क्षेत्र में परिश्रम करना होता है ।कर्म को हमें जीवन की साधना के रूप में स्वीकार कर लेना होता है ।धोखा या चालवाजी से कोई चीज प्राप्त नहीं हो सकती है,इससे तो आदमी स्वयं को गढ्ढे में गिराने के समान है। वैसे कहा जाता है कि भगवान की कृपा सन्यासियों की अपेक्षा गृहस्थियों पर अधिक रहती है । क्योंकि सन्यासी लोग तो भगवान का नाम लेने के लिए ही घर छोडकर आये हैं ,यदि वे भगवान को न पुकारें तो उनके लिए वह महॉ पाप माना जाता है ।लेकिन निष्ठावान गृहस्थी भक्त सिर पर भारी बोझ लादे हुये भी भगवान की कृपा याचना करके उसके दर्शन कर सकते हैं ।
 
          हमारे धार्मिक ग्रन्थों की अवधारणॉ को हमें नहीं भूलना होगा कि जीवन में कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं जाता है,और न नष्ट होता है । उसका प्रतिफल या कुफल अवश्य मिलता है । इसीलिए जो भी सत्कर्म हो, जिस अवस्था में हो करना चाहिए । और यदि पूर्व में कोई कुकर्म किया हो तो इस पाप राशि से मुक्ति का उपाय भी यही मूल धर्म के कार्य है ।
 
           कर्मयोग के द्वारा चित्त शुद्धि होती है,आत्म ज्ञान होता है । कर्म तो सभी करते हैं मगर कर्मयोग की साधना सभी नहीं करपाते हैं,क्योंकि कर्मों के बन्धन में उन्हैं दुख का भोग करना होता हैं । भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि कर्म करना तुम्हारा अधिकार है,कर्मफल नहीं । कर्मफल की आशा से कर्म करने वाले तो दीन,दुर्वल और निम्न श्रेणी के लोग होते हैं । कर्म करो,किन्तु निस्वार्थ भाव से करो,यही परमानन्द को प्राप्ति का मार्ग है ।
 
          अधिकॉश लोगों की धारणॉ है कि यदि निष्काम होकर कर्म किया जाय तो फिर कर्म के प्रति आकर्षण और प्रेरणॉ कैसे उत्पन्न होगी,किसी भी काम को मन लगाकर कैसे किया जाय,यदि खुद को फायदा न हो तो मैं कर्म करने क्यों जाऊं ? यह भावना सही नहीं है । अगर सुख के लिए ही लोग कर्म करते हैं,तो सुख मिलता कितना है ? पहली बात तो यही है कि अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को सुखों से वंचित और उन्हैं दुखी करना होता है । और इससे जो भी सुख मिलता है वह अस्थाई होता है । स्थाई सुख के लिए तो निस्वार्थ कर्म आवश्यक है । हमारे महॉन पुरुषों की यही अवधारणॉ है ।
 
          ईश्वर के दर्शन सबके भाग्य में इसी जन्म में नहीं होता है बल्कि कुछ लोग जन्म जन्मॉतर से उन्हैं पाने के लिए कठोर तपस्या,साधन भजन करते चले आरहे हैं,और पूर्व जन्म के कर्म के अनुसार,और साधना के प्रभाव से इस जन्म की अनुकूल साधना से बचे हुये कार्य को सहज ही पूरा कर देते हैं। और जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं ।
 
          सत्कर्मों का फल अक्षय माना जाता है,जितना संचय उसका किया जाय,भविष्य में,इस जन्म में,या अगले जन्म में अवश्य मिलता है । विपत्ति,घात-प्रतिघात,भयप्रलोभन,या अन्धकार या निराशा के समय समय यह फल काम आता है । सत्कर्मों की संचित सम्पति स्थाई मानी जाती है । यह देखा गया है कि सत्कर्मों को पैदा करने में दुख,रक्षा करने में दुख,नष्ट होने में दुख व कष्ट होता है । इसलिए सत्कर्मों के संचय का प्रतिफल हमें सुख के रूप में प्राप्त होता है ।
 
 
 
2- कच्चे मन का स्वभाव
 
          कच्चा मन एक महॉमायावी के समान होता है। यह हमें कब,किस तरह से कुमार्ग में ले जाकर मायावी जाल में फंसा देगा,यह समझ पाना कठिन है । कच्चे मन की पहचान है- देह और इन्द्रियों के सुखों को ढूडते रहना,स्त्री,पुत्र,परिवार को अपना समझकर उसकी माया में मोहग्रस्त होना, धन-जन,यश-प्रतिष्ठा और प्रभुत्व को जीवन की एकमात्र कामयाब वस्तु को समझना । इस स्थिति में वह सुख चाहने की लालसा में उसे पग-पग धक्का खाकर और दुख पाकर भी चैतन्य का लाभ नहीं होता है । चारों ओर लोग मरते हैं लेकिन कच्चे मन वाला मनुष्य यह कभी नहीं सोचता कि मुझे भी कब किस क्षण सबकुछ छोडकर चले जाना पडेगा । बस वह यही सोचता है कि कैसे धोखा देकर,चालाकी से,या किसी भी उपाय से अपना काम बन जाय,चाहे उससे दूसरे को नुकसान पहुंचे या दुख मिले इसकी उसे कोई परवाह नहीं होती है । अपना सुख ही उसका सर्वस्व संसार होता है ।
 
          अगर मन को हम एक फल के रूप में देखें तो उपयुक्त होगा ,कि जब वह कच्चा होता है तो उसमें खट्टापन,कसैला और बेस्वाद होता है और जिसे खाने पर रोग उत्पन्न करता है,लेकिन पक जाने पर अच्छा स्वाद और उपकारी होता है, मन की दशा भी इसी प्रकार की मानी जाती है ।
 
           कच्चे मन से किया गया कार्य चाहे वह देश या जगत के कल्याण के लिए किया जाता हो उनका उद्देश्य महान होते हुये भी उनके द्वारा संसार का हित के बजाय अहित ही देखा गया है । अपने आदर्शों में वे अधिक समय तक अटूट रूप से नहीं टिक पाते हैं । नाम यश प्रतिष्ठा और दूसरों पर प्रभुत्व करने की लालसा उनकी बलवती हो जाती है । शीघ्र उनपर हिंसा,द्वेष,संकीर्णता और स्वार्थपरता का भूत सवार हो जाता है,जिससे उनके सारे कार्य विफल हो जाते हैं । वे अपने भीतर के विष को समाज में फैलाकर जन मानस को कलुषित कर देते हैं । यहॉ तक कि वे धर्म के प्रति अविश्वास और अश्रद्धा के भाव भी पैदा करते हैं ।
 
          अगर देखें तो सभी कुछ मन का खेल है,मन के ऊपर ही सब निर्भर है । मन में बन्धन है,मन ही मुक्ति है । कहते हैं जैसी मति वैसी गति । यदि कठोर तपस्या करके भी कोई अपने अन्तःनिहित वासना के वशीभूत होकर विषयसुख और नाम यज्ञ के प्रति आकृष्ट हो तो उसका सारी तपस्या भस्म हो जाती है ,लेकिन जो लोग ईश्वर के शरणॉगत हो जाते हैं तो वे इस दुख से बच जाते हैं ।

 
 
3-ईश्वर में आस्था का स्वभाव
 
          यह देखा जाता है कि हम बात-बात में भगवान की मर्जी कहकर ईश्वर की दुहाई देते रहते हैं,यह तो सार शून्य है,सिर्फ आवाज मात्र है,जैसे कि छोटे-छोटे बालक बालिका कहते रहते हैं,भगवान कसम,राम दुहाई आदि,जैसे अंग्रेजी में कहते हैं Thank God या My God लेकिन इन शब्दों का प्रयोग वहीं कर सकता है जिसे ईश्वर का पूरा ज्ञान हो,जिसने ईश्वर को आत्मसमर्पण कर दिया हो,जिसे पक्का ज्ञान है । ये शब्द आत्मा की आवाज है जो उसकी आत्मा से निकलकर सत्य की परख के लिए प्रयुक्त होते हैं । लेकिन आज एक परम्परा बन गई है कि ईश्वर के सम्बन्ध में कोई ज्ञान नहीं है,और आत्म समर्पण भी नहीं है लेकिन इन शब्दों का प्रयोग करते हैं, ताकि शीघ्र विश्वास दिलाया जा सकें ।
 
          हमारे वेद कहते हैं कि जो पूर्ण है वह चिरकाल में भी सदा पूर्ण ही रहता है,इसमें क्षय नहीं होता । पूर्ण से पूर्ण का विनिमय करने पर ही हम पूर्णता के प्राप्त कर सकते हैं । वह परमात्मा स्वयं में पूर्ण है, इसे प्राप्त करने के लिए इस शरीर का सम्पूर्ण सामर्थ्य और मन ,प्राण,अन्तःकरण को समर्पित करना होता है तभी हमें पूर्णता की प्राप्ति हो सकती है ।
 
          एस दुनियॉ में उस परमात्मा को प्राप्त करने की सामर्थ्य हर एक में अलग-अलग होती है, उनमें कुछ लोग शरीर से बहुत दुर्वल होते हैं या जिन्दगी भर रोगग्रस्त होते हैं,जोकि उस साधना को सम्पन्न करने में असमर्थ होते हैं । इसका मतलव वे लोग तूफान के समय समुद्र में पडी छोटी नाव के समान पछाड खाते हुये पडे रहेंगे ?क्या वे कीडे मकोडों की तरह पिसते रहेंगे ? नहीं ईश्वर के राजस्व में यह कभी नहीं हो सकता ।,यदि उनके मन मेंअटूट श्रद्धा भक्ति और प्रेम है तो उन लोगों की ह्दय विदारक आवाज उस प्रभू कानों में अवश्य पहुंचती है । चाहे उनके आसपास की परिस्थितियॉ कितनी ही प्रतिकूल क्यों न हो। इस लिए इस जीवन में सिर्फ उस परमात्मा से प्रेम करें,उसकी अपार कृपा तभी प्राप्त हो सकती है ।वे लोग इसी जीवन में शॉति के अधिकारी होते हैं,और अन्त में परम पद का लाभ प्राप्त कर सकते हैं ।